Friday, July 31, 2009

मुट्ठियां भींचो कि कहीं पंजे निकल आएं....



मैं आज बार-बार अपने हाथों की मुट्ठियाँ बना-बना कर देख रहा हूँ कि शायद वोल्वरीन जैसे पंजे निकल आयें हा हा.. ऐसा जादू होता है फिल्मों में कि इंसान उसे हकीकत में देखने की ख्वाहिश करने लगता है जी हाँ, आज ही 'X Men Origins - Wolverine' फिल्म देखी है मेरे एक मित्र की धर्मपत्नी एक्स मेन श्रंखला से इतनी प्रभावित है मेरे मित्र को कहती है- "तुम अपने हाथों में वोल्वरीन की तरह पंजे लगवा लो न"
बहरहाल बात करते हैं फिल्म के बारे में... फिल्म की कहानी बदले पर आधारित है और जैसा कि बदले के लिए ज़रूरी है कि हीरो के परिवार या फिर प्रेमिका के साथ कोई हादसा होना चाहिए और फिर उसे करने वाले को गायब हो जाना चाहिए जिससे हीरो फिल्म में उसे ढूंढता रहे... इस दौरान उसे कुछ साथी भी मिलते हैं जो इस राह में शहीद हो जाते हैं...यही सब कुछ इस फिल्म में भी है....वैसे इस थीम पर आधारित फिल्मों की स्टोरीलाइन लगभग एक जैसी ही होती है लेकिन जो चीज़ मायने रखती है वो है प्रस्तुतिकरण, और इस क्षेत्र में एक्स मेन ओरिजिंस को पूरे-पूरे अंक मिलेंगे.. बेहद दिलचस्प प्रस्तुतीकरण, रोमांचक घटनाक्रम, कुल मिलाकर फिल्म दर्शक को अपने सामने बैठाए रहती है....
ये फिल्म इस श्रृंख्ला की पहली ३ फिल्मों के आगे की कहानी ना होकर उसके पहले की कहानी है....पहली 3 फिल्मों में हीरो पूरी कहानी अकेले आगे नहीं बढाता लेकिन इस फिल्म में वोल्वरीन अकेला हीरो है....ह्यू जैकमैन ने वोल्वरीन को इस तरह जिया है कि मुझे शक है कहीं उनके सच में पंजे ना निकलने लगे हों... कहानी १८४५ से शुरू होती है जब वोल्वरीन जेम्स लोगन नाम का बच्चा है जो अनजाने में अपने पिता को क़त्ल करके घर से भागता है और उसका भाई विक्टर उसके साथ जाता है.....दोनों आर्मी में भर्ती हो जाते हैं और बहुत साड़ी लड़ाईयां लड़ते हैं... दोनों ही भाई म्यूटेंट हैं... विक्टर स्वभाव से खूंखार है और उसके विपरीत लोगन एक इंसाफपसंद और नरमदिल इंसान है....सेना का एक कर्नल विलियम स्ट्राइकर एक म्यूटेंट सेना बना रहा है और इन दोनों को अपने साथ ले जाता है लेकिन वो अपने स्वार्थ के लिए इनसे बेगुनाह लोगों की ह्त्या करवाता है जो लोगन को पसंद नहीं आता और वो इन्हें छोड़कर चला जाता है.... 6 साल गुज़र जाते हैं, लोगन शाति से अपनी प्रेमिका के साथ अपनी जिन्दगी जी रहा है, तभी स्ट्राइकर एक षड्यंत्र रचता है जिसके तहत विक्टर लोगन की प्रेमिका को मार देता है...बस यहीं से बदले की कहानी शुरू होती है जिसमें धोखे से लोगन की हड्डियों में admantiam नामक धातु भर दी जाती है, लोगन विक्टर को ढूंढता है, स्ट्राइकर से टकराता है और उसके गुप्त ठिकाने को तहस-नहस कर देता है लेकिन आखिर में अपनी याददाश्त खो देता है....फिल्म एक रोमांचक यात्रा है जिसमें कई क्षण ऐसे आते हैं जब आप अपने शरीर की नसों में तनाव महसूस करते हैं.... फाइट सीक्वेंस बहुत अच्छे हैं, फिल्म की गति तेज़ है... अभिनय सभी कलाकारों ने अच्छा किया है जिसमे सबसे ऊपर है ह्यू जैकमैन उर्फ़ लोगन... फिर लीव स्क्रैबर, जिन्होंने विक्टर का किरदार स्वाभाविक तरीके से निभाया है.....ग्राफिक्स पिछली तीनों फिल्मों की तरह ही अच्छे हैं...
अब कुछ कमियों की बात करें....सबसे बड़ी कमी अगर देखें तो कहानी ही है, जिसमे नया कुछ नहीं है जबकि पिछली तीनों फिल्मों में बहुत कुछ था...कहानी हजारों बार दोहराई जा चुकी है, हॉलीवुड में भी और बॉलीवुड में भी बहुत से दृश्य यूँ लगे जैसे कोई हिंदी मसाला फिल्म देख रहें हैं जैसे भाई-भाई का अंत में दुश्मन से एक साथ लड़ना, नायक-नायिका का लड़ाई के मैदान में प्यार भरी बातें करना आदि कुछ बातें हजम नहीं होती... जैसे विक्टर कहाँ चला जाता है? अंत में चार्ल्स कहाँ से आ जाता है? लेकिन कुल मिलाकर फिल्म अच्छी है और एक बार ज़रूर देखी जानी चाहिए
मैं अपनी तरफ से इसे ५ में से ३.५ अंक दूंगा

अनिरुद्ध शर्मा

Thursday, July 30, 2009

बीप की आवाज़ों में रियलिटी ढूंढते 'हमलोग'


आपको कौन सा मसाला पसंद है? जी नहीं, मैं खाने वाले मसालों की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं उन मसाला और चटपटी खबरों की बातें कर रहा हूँ जो आजकल हमारी आम ज़िन्दगी का एक हिस्सा बन गईं हैं। इनके बिना ऐसा लगता है मानो व्यञ्जन में नमक न डला हो।
इन्हीं मसाला खबरों को और चटपटा बनाने के लिये आजकल एक नया मसाला आया है जिसे टीवी वालों ने रियलिटी शो का नाम दिया है। मुझे याद है जब दूरदर्शन पर "मेरी आवाज़ सुनो" आया करता था। जिसमें गायकी की प्रतिभा लोगों के सामने लाई जाती थी। रियालिटी शो की परिभाषा के अनुसार वो भी उसी कैटेगरी में आता है। ज़ी पर आने वाला सारेगामा हो जा सोनी का बूगी-वूगी दोनों ही उसी श्रेणी में आते हैं। फिर भी ये "रियलिटी शो" नामक शब्द अब मीडिया और लोगों की ज़ुबान पर आ रहा है। और कौन भूल सकता है सिद्धार्थ काक और रेणुका शहाणे की "सुरभि" को जिसमें आम देशवासियों की खास प्रतिभाओं व उन्हीं से जुड़ी ज्ञानवर्धक बातें सभी के सामने आती थीं।
लेकिन अब... समय बदला है। एक प्रतियोगिता का दौर शुरु हुआ है। ऐसी प्रतियोगिता जिसमें जज़्बातों से खेला जाता है, रिश्तों का मजाक बनाया जाता है और विचारों की स्वतंत्रता व लोकतंत्र के नाम पर सबकुछ ताक पर रख दिया जाता है। इंडियन आइडल आया, रियालिटी शो का नाम साथ लाया। वरना सारेगामा पहले से ही चल ही रहा था तब इस शब्द के मतलब कोई नहीं जानता था। सब कुछ कमर्शियल हुआ। रिलायंस ने मोबाइल फ़ोन हर हाथ में पहुँचाये तो इन शोज़ ने सबको एस.एम.एस करना सिखाया। इन्होंने ही हमें बताया कि बंगाल और असम, राजस्थान व गुजरात से अलग हैं। गाने के साथ-साथ नाचने के भी शोज़ आने लगे। हर चैनल को जैसे कोई मंत्र मिल गया हो। सास-बहू के धारावाहिकों को भूल हम इन शोज़ को देखने लगे। जनता के नाम पर शुरु किये गये ये शो कब जनता के मन में घुस गये पता ही नहीं चला।
उसके बाद इन शोज़ की जैसे एक बाढ़ आई। ’इंडियन आइडल’ हो या ’नच बलिये’ या और भी को नाचने-गाने के शोज़, ये सब पिछले भारतीय शोज़ की नकल पर ही बने। बस इन्हें कमर्शियल कर दिया गया। हम लोगों ने विदेश के शोज़ चुराने शुरु किये। हालाँकि केबीसी भी चुराये गये शोज़ में से ही एक था पर इसमें लोगों के दिमाग का इम्तिहान था। कुछ न कुछ सीखने को मिलता था और मनोरंजन भी होता था। पर इसके साथ-साथ बिग बॉस जैसे शो भी शुरु हुए जिनमें अश्लीलता का बीज बोया गया। इन शो में नामचीन लोग, टीवी के कलाकारों ने भाग लेना शुरु किया और गालियों की भरमार होनी शुरु हो गई। फिर तो नाच-गाने वाले कथित "रियालिटी शोज़" में बोल कम और "बीप" की आवाज़ अधिक सुनाई देनी लगी। टीआरपी के खेल ने ऐसे शोज़ बनाने वालों के दिमाग में नई नई स्क्रिप्ट लानी शुरु की। पर ये स्क्रिप्ट दर्शक भी बड़े चाव से देखने लगे।
"एम.टी.वी" और "चैनल वी" पर दो शो आते हैं। एक है "रोडीज़" व दूसरा है "स्प्लिट्ज़ विला"। इनको युवा पीढ़ी बड़े चाव से देखती है। उन्हें ये शो बहुत पसंद हैं। कौन क्या कर रहा है? आज फ़लां लड़की ने फ़लां लड़के को क्या कहा? कहाँ घूमने गये? उनमें कैसी पट रही है? और इन सबके बीच होती है "बीप" की आवाज़। हर किरदार अपना कथित "असली" रूप में होता है। निर्देशक की कहानी को हम युवा मजे से देखते हैं। हमें वो "बीप" की आवाज़ें पसंद हैं। हम देखना चाहते हैं अश्लीलता। हम देखना चाहते हैं बिगबॉस में नहाने के सीन। हमें अच्छा लगता है ऐसे शोज़ में काम करने वाले किरदारों की "निजी" ज़िन्दगी में झाँकना जो चैनल व निर्देशक-निर्माताओं के यहाँ गिरवी रखी जा चुकी है। वे बिकते हैं। वे पब्लिसिटी चाहते हैं। हम भी उन्हें ऐसा देखना चाहते हैं। हम राखी की शादी देखना चाहते हैं। हम चाहते हैं सच का सामना में हम एक करोड़ जीतें। हम दूसरे की निजी ज़िन्दगी को चटकारे लगाकर देखते हैं। हमें फ़र्क नहीं पड़ता उसके साथ क्या हो रहा है। न ही फ़र्क पड़ता है चैनल वालों को।
हमने विदेशी शोज़ को ज्यों का त्यों हमारे जीवन में उतार लिया। बिना ये जाने कि हमारा समाज उसे सहजता से स्वीकार करेगा या नहीं। निर्माताओं को इसकी चिंता नहीं। "सच का सामना" में यदि अश्लील प्रश्न होते हैं तो ये उस शो का फ़ार्मेट है जो अमरीका से उठाया गया है। उस देश में रिश्तों की कोई अहमियत नहीं होती। आज किसी की पत्नी कल किसी की प्रेमिका हो सकती है। बच्चा होता है तो उसके लिये एक अलग कमरा बनाकर दे दिया जाता है। वहाँ वो भावनायें, वो रिश्ते नहीं जो हम भारतीयों में होते हैं। हाल ही में एक सर्वे हुआ जिसमें सबसे खुशहाल देशो को रैंकिंग दी गई। १४४ देशों में अमरीका १४३ नम्बर पर रहा और भारत ७०वें। जो शोज़ वहाँ चल निकले हैं जरूरी नहीं यहां कामयाब हों। इन सबसे यहाँ किसी का परिवार खत्म हो सकता है। हालाँकि वो सब भी हमारी मर्जी से ही हो रहा है।
हममें अब वो संवेदनशीलता रही ही नहीं जब "नुक्कड़" के लोगों में हम खुद को देखा करते थे। "रियालिटी" साफ़ दिखाई दिया करती थी। पर "हम लोग" अब वैसे नहीं रहे। जैसे एक युग बदला हो। संवेदनहीनता के इस दौर में हम अब इन "रियालिटी शोज़" में "रियालिटी" खोजा करते हैं पर....

तपन शर्मा

Wednesday, July 29, 2009

संग हो बच्चा, दर्शन हो अच्छा



भारतवर्ष एक ऐसा देश है जहाँ हर चीज का जुगाड़ है. कालेज में दाखिला हो, राजनीति में प्रवेश, रेल में सीट हो या फिर नौकरी हो हर जगह जुगाड़ चलता है. यही नही अब भगवान के दर्शन के लिये भी जुगाड़ चल गया है. यह रीति तो हमेशा से ही रही है कि नियम बनते ही उसका तोड़ ढ़ूँढ लिया जाता है. इसका एक ताजा उदाहरण समाचार पत्र में पढ़ा तो रहा नही गया. सोचा क्यो न औरों को भी अवगत करा दूँ ताकि अन्य भी इसका लाभ उठा सकें.

आइये मैं आपको तिरुपति बालाजी के दर्शन के लिये एक जुगाड़ बताती हूँ. जरा ध्यान से पढ़ियेगा. अगर आप तिरुपति बालाजी के दर्शन कम समय में करना चाहते हें तो एक बच्चा किराये पर लीजिये और आपको दर्शन फटाफट हो जायेंगे. अब आप सोचेंगे कि ये क्या बात हुई भला, तो मैं आपको समझाती हूँ. तिरुमुला तिरुपति देवस्थानम का मानना है कि जो महिलायें भीड़ में बच्चों को लेकर घंटों खड़ी रहती हैं उन्हें बहुत कठिनाई का सामना करना पड़ता है. अत:तिरुमुला तिरुपति देवस्थानम द्वारा महिलाओं को सुविधा प्रदान की गयी है. अब वो महिलायें लंबी लाइन में लगने के बजाय अलग से कम समय में दर्शन कर सकेंगी. क्योंकि उनके पति भी साथ होगें तो उन्हें भी इस सुविधा का लाभ मिलेगा. इसका मतलब यह हुआ कि शादीशुदा जोड़े के साथ अगर बच्चा है तो उन्हें इस सुविधा का लाभ मिलेगा.

यह पढ़कर शायद कुछ लोगों के मन में प्रश्न उठ रहा होगा, कि इसमें हमारा क्या फायदा ? हम तो शादीशुदा नही है या शादीशुदा हैं तो बच्चा नहीं है. यह जुगाड़ हमारे किस काम का ? अरे भई मैंने कहा न कि ध्यान से पूरा पढ़िये. अब आपके काम की बात. जैसे ही यह नियम बना तो नियम का तोड़ ढूँढने वालों ने एक जुगाड़ बना लिया है, वो ये कि जिनके पास बच्चा नहीं है वो लोग उन्हें किराये पर बच्चा देते हैं. बच्चे का किराया एक घंटे के लिये २०० रुपये है और अगर डिमान्ड ज्यादा है तो ५०० रुपये तक कीमत वसूली जाती है. अब कहिये है न काम की बात. जो लोग शादीशुदा नहीं है उन्हें थोड़ा इंतजार करना पड़ेगा. या तो वो लोग शादी कर लें या फिर हो सकता है जल्द ही पति-पत्नी भी किराये पर मिलने लगे.

दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'

Tuesday, July 28, 2009

ब्लू फिल्म

ब्लू फिल्में हमारे लिए भगवान थीं...

घर के बाहर भीड़ लगी थी। तीन लड़के लता का पीछा करते हुए घर तक आए थे। लता ने तेज़ी से अन्दर घुसकर माँ को बाहर बुला लिया था और बताया था कि कई दिन से ये लड़के ब्यूटीपार्लर से घर तक उसके पीछे आते हैं। माँ उन लड़कों को रोककर गालियाँ देने लगी थी। वे लड़के भी हँस-हँसकर जवाब दे रहे थे। आस-पड़ोस के और राह चलते लोग आ जुटे थे। अच्छा-खासा तमाशा बन गया था।
पिताजी कुछ देर से बाहर आए। तब तक माँ अकेली बोलती रही। उसने लता को अन्दर भेज दिया। मैं घर में नहीं था। मैं यादव के घर में पड़ा रागिनी को याद कर रहा था। कोई पड़ोसी कुछ बोल नहीं रहा था। माँ चिल्लाती-चिल्लाती रोने को हो गई थी। लड़के खड़े बेशर्मी से हँसते रहे थे।
पिताजी चश्मा लगाते हुए बाहर निकले। उन्होंने सफेद कुरता-पायजामा पहन रखा था। उनके चेहरे पर कुछ था कि उनका अध्यापक होना पहली नज़र में ही पता चल जाता था। ऐसा लगता था कि उन्हें मारो तो वे सिर्फ़ धमकाएँगे, मार नहीं सकेंगे। उन तीन लड़कों में जो लड़का ‘मुख्य’ लड़का था, वह गली की एक बूढ़ी औरत को बुला लाया। वह उसके उस दोस्त की माँ थी, जिससे मिलने वे तीनों रोज़ शाम को आते थे। उस बूढ़ी औरत ने चिल्ला-चिल्लाकर इस बात को सत्यापित किया। पिताजी चुप रहे। हो सकता है कि पिताजी कुछ बोले भी हों मगर वह किसी को सुना नहीं। भीड़ और बढ़ गई थी जैसे शाहरुख़ ख़ान की कोई फ़िल्म चल रही हो। फ़िल्म होती तो उस दृश्य में मेरे पिताजी को खलनायक की तरह प्रस्तुत किया जाता। सब ‘मुख्य’ लड़के की मुस्कुराहट पर तालियाँ बजाते। मैं और लता भी हॉल में बैठकर ऐसी कोई फ़िल्म देख रहे होते तो पिताजी को खलनायक ही समझते। वैसे वे पूरी फ़िल्म के खलनायक या नायक कभी नहीं बन सकते थे क्योंकि वे अध्यापक थे। उनका एक ही सीन होता।
पिताजी ने थोड़ी तेज आवाज़ में उन्हें चले जाने को कहा तो भीड़ को सुना। भीड अब पहले से धीरे फुसफुसाने लगी। यह उन लड़कों को अपमानजनक लगा। मुख्य लड़के ने हँसना बन्द कर दिया। उसके पीछे-पीछे बाकी दोनों लड़के भी गंभीर हो गए। सब वहीं खड़े रहे। फिर अचानक मुख्य लड़का तैश में आ गया और उसने पिताजी को गाली दी।
वह एक लम्बी गली थी, जिसमें हमारा घर था। उस गली के दोनों कोनों पर खड़े आदमियों ने वह गाली सुनी। हमारे घर के पचास मीटर के दायरे में ही साठ-सत्तर लोग होंगे। घरों में बैठे लोगों और छत से देख रहे लोगों के साथ गाय, भैंसों, कुत्तों, चिड़ियों, कबूतरों, मेंढ़कों और चूहों के कानों को जोड़कर ठीक ठीक हिसाब लगाया जाए तो करीब दो हज़ार कानों ने वह गाली सुनी। मेरी जानकारी में पिताजी को ऊँचा तो नहीं सुनता था, लेकिन और कौन सी वज़ह हो सकती है कि पिताजी ने पूछा, “क्या?”

यह ‘क्या’ उन लड़कों को किसी चुटकुले सा लगा और वे हँस दिए। भीड़ चुप, जैसे भीड़ को अजगर सूंघते हों। दो क्षण के लिए भीड़ का सिर झुका और फिर उठ गया। आँखें तीर की तरह हमारी देहरी पर। माँ, जिसे कभी-कभी ऊँचा सुनता था, उसने अपनी बाटा की चप्पल उतारी और लड़के के मुँह पर दे मारी। माँ का निशाना इतना अच्छा नहीं था लेकिन लड़का बचने के प्रयास में नीचे झुक गया तो चप्पल सीधे उसकी नाक पर लगी। भीड़ हँसी, भीड़ फुसफुसाई, अजगर सूंघता हुआ लड़कों के पास आ खड़ा हुआ। लड़के स्तब्ध से कुछ क्षण खड़े रहे और फिर चले गए। पिताजी भीड़ के पार से गली के दूसरे मोड़ को देखते रहे। माँ ने नाली के पास पड़ी अपनी चप्पल उठाई और एक चप्पल पैर में पहने, एक हाथ में लिए भीतर चली गई। भीड़ भी छँट गई।
उस रात माँ ने राजमा की सब्जी बनाई। मैं उसी के साथ रोटियाँ खा रहा था, जब माँ ने मुझे शाम की पूरी घटना सुनाई। मुझे लगा कि उस घटना को सुनकर मुझे ज़ोरों से गुस्सा आना चाहिए था, जो नहीं आया। मैंने और दिनों की अपेक्षा आधी रोटी ज़्यादा ही खाई होगी। माँ बीच-बीच में रोने लगती थी। मुझे दुख होता था। लता अन्दर बैठी किसी पत्रिका का बुनाई विशेषांक पढ़ रही थी। उस रात पिताजी मुझे नहीं दिखे, हालांकि वे घर में ही थे।
शाम को मैं यादव के घर में पड़ा रहा था। मैं रागिनी के गीत गाता रहा था और वह उकताकर अपना ब्लू फ़िल्मों का कलेक्शन उठा लाया था। उसके पिता का ट्रांसपोर्ट का बिज़नेस था। उनके घर वी.सी.आर. था।

- इसके कितने सही हैं ना यार! बस ऐसे मिल जाएँ एक बार...

- फिर क्या करेगा?

- फिर तो वही बताएगी कि क्या किया?

उसने ऐसा चेहरा बनाया कि उसके दिमाग में बना चित्र मुझे साफ साफ दिख गया। मुझे हँसी आ गई। मैं उठकर बैठ गया और यादव की तरह टकटकी बाँधकर टीवी देखने लगा।

वह ख़ुशी नहीं थी, जो हमें उन फ़िल्मों को देखकर मिलती थी। या तो वह उम्र ऐसी थी या वह समय, या वह शहर, कि हमारा रोने का मन करता था तो भी हम ब्लू फ़िल्में देखते थे, गुस्सा आता था तो भी, प्यार के बिना जीना असंभव लगने लगता, तो भी...

हमारी आँखों की कोरों में इतनी बेचैनी भरी पड़ी थी कि उन दिनों वे फ़िल्में न होती तो हम आत्महत्या कर लेते। उन देशी विदेशी नीली फ़िल्मों ने हमें जिलाए रखा। वे फ़िल्में हमारी भगवान थीं।

गौरव सोलंकी

Monday, July 27, 2009

मुसलमानों पर बहस जारी है

28 जून को बरेली कालेज आडिटोरियम में मुसलमानों के हालत पर हुई एक चर्चा पर पिछले तीन हफ्तों से हमारी बहस जारी है...बरेली में हमारी बहस खूब पढ़ी और सराही जाती रही....हिंदयुग्म को बरेली से रोज़ाना कई फोन आते रहे कि इस तरह की कोशिशें आगे भी जारी रखिए, हम आपके साथ हैं....हमने इस सम्मलेन के आयोजक एडवोकेट इरफान हैदर तथा मदारिया सिलसिले के सज्जादा नशीन डॉक्टर इन्तिखाब आलम से इस आयोजन पर कई सवाल किये जिसके कुछ अंश यहाँ पेश हैं...सवाल हाशम अब्बास नक़वी ने पूछे हैं

Irfan Haidar
इरफ़ान
Intkhab
इंतख़ाब
हाशम - इस सम्मलेन का उद्देश्य क्या है?

इंतख़ाब/इरफान - सम्मेलन का उददेश्य मुसलमानों मे जागरूकता लाना ताकि मुसलमान जागरूक होक्रर अपने शैक्षिक पिछड़ेपन को समझक्रर शिक्षा के लिए कदम बढाऐ। हम लोग मदारिया सिलसिले से ताअल्लुक रखते है। मदारिया सिलसिला सूफियों की फेहरिस्त में एक ऐसा सिलसिला है जहाँ इंसान की बात होती है न कि हिन्दू या मुसलमान की... बस इस सिलसिले का सज्जादा नशीन होने के नाते मैंने यह बीडा उठाया है की मज़हब, सम्प्रदाय तथा भेदभाव की सारी हदें तोड़कर दबे-कुचले लोगों की मदद करेंगे, उन्हें जागरूक करेंगे

हाशम - मुसलमानों की वर्तमान हालत का ज़िम्मेदार किसे मानते हैं?

इंतख़ाब/इरफान - मुसलमानों मे सबसे बड़ी कमी उनका जागरूक न होना है.. सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद तो ये बिल्कुल साफ हो गया है कि मुसलमान कितना पिछड़ा हुआ है..कहना ये है कि जब सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार मुसलमानो के हालात दलितों से बदतर हैं तो मुसलमानो की बदहाली को दूर करने के लिए उठाये गये कदम दलितो के लिए मिलने वाली योजनाओं से कम क्यों हैं... क्या इन नाकाफी कोशिशों से मुसलमानों की बदहाली दूर होगी... हम सरकार से ये मॉग करेंगे कि मुसलमानों के लिये सच्चर कमेटी की सिफारिशों को लागू किया जाए। इसके अलावा एक बात और कहना चाहूंगा कि वर्तमान में मुसलमानों को अपने हक के लिए खुद भी खड़ा होना पड़ेगा...बजट पेश हो चुका है... अल्पसंख्यकों के लिए ढेर सारे पैकेज सरकार लायी है... नज़र अब इस बात पर रखनी है कि इनमे से कितनी योजनाएं हक़दार तक पहुंचती है

हाशम - मुसलमानों को आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षणिक तथा सामाजिक परिदृश्य में कहाँ देखते हैं?

इंतखाब/इरफान - आर्थिक रुप से मुसलमान ऐसा नहीं है कि कमज़ोर है लेकिन जहां-जहां मुसलमान आर्थिक रुप से मज़बूत है, वहां राजनैतिक फायदे के लिए दंगे करवाकर मुसलमान को आर्थिक रूप से चोट पहुंचाई जा रही है... इसका जीता-जागता उदाहरण गुजरात है। आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक परिदृश्य में मुसलमानों की हालत शोचनीय है... शैक्षिक स्तर भी गिरता जा रहा है..गरीबी और बेरोज़गारी अहम समस्या बन चुकी है...ऐसे हालात में जागरूकता तो लानी ही है, इसके साथ-साथ सरकार को भी अल्पसंख्यक योजनाओं में पारदर्शिता बरतनी होगी... खाली एक समुदाय को खुश करने मात्र से भला नहीं होगा...

हाशम- इस तरह के सम्मलेन आयोजित करने का ख्याल कैसे आया ?

इंतखाब/इरफान -मैं और मेरे दोस्त इरफान हैदर जो पेशे से वकील हैं एक दिन मुसलमानों की दुर्दशा पर चर्चा कर रहे थे..इरफान भाई ने एक शेर सुनाया-
ये बज़्मे-मै है यहाँ कोताह्द्स्ती में है महरूमी
जो बढ़ कर हाथ में ले ले मीना उसी का है
इसके बाद हमारे नज़रिए बदल गए... हमने तय किया कि खुद आगे आना होगा... अपनी बात अपने मुंह से कहना होगी.. माध्यम जैसी हर चीज़ को ख़त्म करना ही हमारा मकसद है.. हम हर आम मुसलमान से अपेक्षा करते हैं की वो अपने हक के लिए खुद आगे आये और अपना हक हासिल करे.. बेचारेपन की जिंदगी कितने दिन चल सकती है.....

Sunday, July 26, 2009

सावन में सूखा, रामा हो रामा....



अनेक वर्षो के बाद देश एक बार फिर सूखे की चपेट में आ गया है। हालांकि इस वर्ष देश में मानसून का आगमन समय से पूर्व हो गया था लेकिन बाद में पहले केरल में कुछ ठिठका और फिर अन्य क्षेत्रों में अटक गया।
उसके बाद मानसून ने गति तो पकड़ी लेकिन देरी से। एक जून से मानसून सीजन की शुरुआत होती है। आरंभ के सप्ताहों में तो मानसून औसत से 46 प्रतिशत कम था लेकिन धीरे-धीरे मानसून ने गति पकड़ी और यह कमी घटती चली गई। अब हालात यह हैं कि औसत की तुलना में अब तक मानसून की कमी केवल 19 प्रतिशत ही रह गई है।ह
हालांकि मौसम विभाग और सरकार का कहना है कि देश में वर्षा औसत की तुलना में अब केवल 19 प्रतिशत ही कम रह गई है लेकिन इस कमी की चपेट में वे राज्य आए हैं जो देश के खाद्यान्न उत्पादन में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।
वर्षा के लिए मौसम विभाग ने देश को 36 उप-खंडों में बांटा हुआ है। नवीनतम उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार पूर्व सप्ताह तक 36में से 20 उपखंडों में वर्षा सामान्य से कम दर्ज की गई है। इन उपखंडों में उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, बिहार, छत्तीसगढ़ आदि राज्य आते हैं। असम में 14 और झारखंड में 4 जिलों को अब तक सूखा ग्रस्त घोषित किया जा चुका है।

आशंका है कि भविष्य में कुछ अन्य राज्यों में यही स्थिति उत्पन्न हो सकती है।
वास्तव में दक्षिणी राज्यों में सामान्य से कहीं अधिक वर्षा दर्ज की गई है जिससे औसत वर्षा कुछ ठीक नजर आ रही है। दक्षिणी राज्यों की भूमिका अनाज के उत्पादन में बहुत ही कम है।

फसल तबाह
वर्षा की कमी के कारण देश में खरीफ फसलों की बिजाई बुरी तरह प्रभावित हुई है जबकि देश की कृषि अर्थ-व्यवस्था में इसका महत्वपूर्ण योगदान है।
इस वर्ष देश में अब तक चावल की बिजाई 114.63 लाख हैक्टेयर पर ही की गई है जबकि गत वर्ष इसी अवधि में 145.21 लाख हैक्टेयर पर की गई थी। देश कुल लगभग 391 लाख हैक्टेयर पर चावल की खेती की जाती है।
बाजरा की बिजाई भी अब तक 34.67 लाख हैक्टेयर पर की गई है जबकि गत वर्ष इसी अवधि में 46.01 लाख हैक्टेयर पर की गई थी। मक्का और ज्वार का क्षेत्रफल भी कुछ घटा है लेकिन अपेक्षाकृत कम।
तिलहनों की स्थिति कुछ इसी प्रकार हैै क्योंकि अब तक वह गत वर्ष की तुलना में केचल 3 लाख हैक्टेयर ही पीछे चल रही है। अब तक 107.10 लाख हैक्टेयर पर की जा चुकी है। मूंगफली की बिजाई अधिक प्रभावित हुई है जबकि इसमें तेल की मात्रा अधिक होती है।
दलहनों की बिजाई अब तक 38.38 लाख हैक्टेयर पर की गई है जबकि गत वर्ष इसी अवधि में 40.73 लाख हैक्टेयर पर की जा चुकी थी। भाव ऊंचे होने के कारण अरहर की बिजाई गत वर्ष की तुलना में लगभग 3.66 लाख हैक्टेयर अधिक क्षेत्र पर की जा चुकी है लेकिन अन्य दलहनों की बिजाई घटी है। इसका असर आगामी दिनों में दलहनों के कुल उत्पादन पर पड़ेगा।
गन्ने की बिजाई भी गत वर्ष की तुलना में पीछे चल रही है लेकिन संतोष की बात है कि कपास की बिजाई गत वर्ष की तुलना में लगभग 7 लाख हैक्टेयर आगे चल रही है।

कम होगा उत्पादन
जिन फसलों की बिजाई कम हुई है निसंदेह उनका उत्पादन कम होगा और इसका आने वाले महीनों में भाव पर असर पड़ेगा। चावल व मक्का के मामले में स्टाक स्थिति संतोषजनक है लेकिन दलहनों, तिलहनों और गन्ने की स्थिति चिंताजनक है।
दलहनों के भाव तो पहले की आसमान छू चुके हैं। चीनी भी गत वर्ष की तुलना में काफी मंहगी चल रही है। आगामी दिनों में इनके भाव में और तेजी की आएगी।
तिलहनों की स्थिति अभी तक ठीक चल रही है और भाव काबू में हैं लेकिन यह सब रिकार्ड आयात के कारण ही संभव हुआ है। अब विश्व बाजार में भी भाव बढ़ने आरंभ हो गए हैं और देश में तिलहनों का उत्पादन कम होने की आशंका है। इसका असर जल्दी ही उपभोक्ताओं को नजर आएगा जब वे अगले माह की खरीद करने बाजार जाएंगे।

Saturday, July 25, 2009

चश्मे का रोटी से गहरा रिश्ता है !

अड़ोसने-पड़ोसने कई महीनों से दबी जु़बान में कहने लगी थीं,` भाई साहब! सुधर जाओ, आपकी नज़रें ठीक नहीं लग रहीं।´, कि दूसरे अर्थों में मेरी नज़रें खराब हो रही हैं। वैसे कई दिनों से मुझे भी लग रहा था कि मेरी नज़रें खराब हो रही हैं। पर मैं यह सोच कर चुप रहा कि इस देश में नज़रें किसकी खराब नहीं? ठीक नजर वालों को इस देश से कभी का देश निकाला हो गया है।

पर मेरी पत्नी ठहरी ठेठ देशभक्त! कई बार मैंने उससे कहा भी कि हे भागवान! देशभक्त होकर अपना तो अपना, क्यों पूरे परिवार का जीना दुश्वार कर रही हो? मानुश देह चौरासी लाख योनियों के बाद मिलती है, इस देश में शेष सबकुछ होकर मजे से जिया जा सकता है पर देशभक्त होकर नहीं। पर स्त्री हठ के आगे मेरी क्यों चलती? आज तक किसी की चली है क्या!

और कल पत्नी जबरदस्ती मुझे सरकारी अस्पताल मेरे न चाहते हुए भी मेरी खराब नज़रें चेक करवाने घर के सारे काम छोड़ ले ही गई।

अब भाई साहब प्राइवेट अस्पताल में अपना इलाज करवाने जाने की अपनी तो हिम्मत है नहीं। अपना तो मरना भी सरकारी डॉक्टर की गोली से है तो जीना भी सरकारी डॉक्टर की गोली से। पर आज के माहौल को देख कर जीने के आसार कम ही दीख रहे हैं।

मैं बीसियों औरों के साथ चार घंटे तक डॉक्टर साहब का इंतजार करता रहा। वे थे कि आने का नाम ही नहीं ले रहे थे। दफ्तर वालों से पता किया तो उन्होंने बताया कि प्राइवेट हास्पिटल में एक वी वी आई पी आप्रेशन करने गए हैं,बस आते ही होंगे।

` तो हम किस लिए आए हैं यहां?´ मुझे गुस्सा सा आ गया।

`ये तो आप ही जानो! ´ वहां पर झाड़ू लगाना छोड़ एक ने डॉक्टर का कोट पहनते कहा, हंसते हुए।

` ये धंधा क्या है भाई साहब!सरकारी डयूटी के वक्त भी प्राइवेट काम! सरकारी डयूटी खत्म हाने के बाद तो चलो मान लेते हैं कि.....´

` तो क्या हो गया! इत्ते गर्म हाने की बात क्या है इसमें? वहां भी तो खराब नजर वालों का ही इलाज हो रहा है। किसीकी आंखें तो नहीं फोड़ी जा रही हैं। कहो, आपको क्या करवाना है! बीस साल से यहीं काम कर रहा हूं। मेरे सामने यहां बीसियों डॉक्टर आए और चले गए।´

`पर तुम हो कौन?´
`आम खाने आए हो या पेड़ गिनने?´
`खाने तो आम ही आया हूं पर नीम के पेड़ पर लगे आम हमें नहीं खाने।´ मैंने कहा तो जो वह एक बार हंसने लगा तो बड़ी देर तक हंसता रहा। लगा इसे अवश्य वेतन हंसने का ही मिलता होगा। जब सब उसे घूरने लगे तो वह हंसने से रूका और गंभीर हो बोला,` बहुत पिछड़े हो यार! बहुत पिछड़े हो!! भारत ने चांद तक सफर तय कर लिया और एक तुम हो कि अभी भी आम के पेड़ वाले आम ही ढूंढ रहे हो। अब तो आम चने के झाड़ पर खाने के दिन आ गए। चलो अंदर तुम्हारी खराब नजरें मैं चेक करता हूं। बड़ों बड़ों की नजरें चैक की हैं मैंने। वैसे भी अगर डॉक्टर यहां हो तो भी वे ये काम मेरे से ही करवाते।´

और साहब, कम से कम समय की बचत करते हुए मैंने उसीसे अपनी खराब नजरें चेक करवा लीं। एक आंख का नंबर नजदीक का प्लस तीन निकला तो दूसरी का प्लस चार!

उस पर विश्वास न हुआ। मन ने कहा,´ कहीं और भी नजरें चेक करवा ले। तेरी नजरें इतनी ही खराब होती तो आज को जूते पड़ चुके होते। कहीं कुछ गड़बड़ है।´

जेब को मार मैंने मन की सुनी और सच्ची को जब दूसरी जगह नजरें चेक करवाईं तो वहां एक आंख का नंबर प्लस एक निकला तो दूसरी का प्लस आधा। मुझे गुस्सा आया, बहुत गुस्सा आया। यार! क्या ऐसे अस्पताल जनता के लिए ही रह गए! वह तब भी डॉक्टर का कोट पहने वहीं बैठा था। तय था कि डाक्टर साहब अभी भी नहीं आए थे।

`यार ! तुमने ये क्या नंबर दे दिए?´ मैंने प्राइवेट हास्पिटल के और उसके द्वारा आंखें चेक करने के बाद के दोनों नंबर उसके आगे रख दिए। उसने दोनों को गौर से देखा और फिर डॉक्टर से भी अधिक गंभीर होते बोला,` क्या हो गया इसमें?´

`तुमने दोनों आखों का दो और साढ़े तीन नंबर ज्यादा दे दिया और कहते हो कि क्या गलत हो गया।´

`कौन से वर्ग से हो?´

`मध्यम वर्ग से, क्यों? उच्च वर्ग से होता तो क्या सरकारी अस्पताल में इलाज करवाने आता क्या!´

` मैंने पहचान लिया था।तभी तो तुम्हें नंबर ज्यादा दिया है सोच समझ कर। इसका एक लाभ तो यह है कि जल्दी चश्मा नहीं बदलना पड़ेगा और दूसरा उससे भी बड़ा फायदा यह है कि कहूंगा तो चक्कर खाकर गिर पड़ोगे।´
मैंने पत्नी को मुझे थामने को कहा और फिर उससे बोला,` लो अब बोलो बड़ा फायदा।´

`बहुत भोले हो यार। छोटे नंबर के चश्में से चीजें छोटी दिखती हैं और बड़े नंबर वाले से बड़ी।´
`मतलब!!!´ मुझे थामे हुए पत्नी ने पूछा।

`देखिए मैम! महंगाई के इस दौर में मध्यम वर्ग के लिए यही ठीक है कि जितने नंबर का चश्मा उसे डॉक्टर कहे वह उससे दो तीन नंबर ज्यादा का चश्मा लगाए। इससे पता है क्या होगा?´

`क्या होगा??´
`छोटी रोटी बड़ी दिखेगी, ये देख लीजिए।´ उसने अपने लंच बाक्स में बची छोटी सी चपाती उस नंबर का चश्मा मेरी आंखों पर लगा दिखाई तो मुझे सच्ची को चक्कर आ गया। उसने मुझे सहारा दे बेंच पर लिटाते कहा,` दो किलो आटे का बैग पांच किलो के आटे का लगेगा। लिफाफे में लाए किलो भर चावल तीन किलो जितने लगेंगे। ये वो नंबर है भाई साहब जो तुम्हें लगते ही सतीयुग में ले जाएगा। सही नंबर का चश्मा लगाकर क्यों अपना मानसिक संतुलन खराब करना चाहते हो? है न फायदे की बात। अब बोलो, कौन तुम्हारे हित वाला है?´

मैंने उसके पांव छुए और उसके नंबर वाला चश्मा लगाए घर आ गया । अब मजे में हूं। थाली में दो चपातियां ही इतनी हो जाती हैं कि... अब फुला महंगाई जितना मन करे सीना।

डॉ. अशोक गौतम
गौतम निवास, अप्पर सेरी रोड,
सोलन 173212 हि.प्र.

Thursday, July 23, 2009

शतरंज के खिलाड़ी

अनिरुद्ध शर्मा यूं तो इंजीनियर हैं मगर फिल्मों का शौक इतना है कि हर रोज़ नहाने-खाने की तरह फिल्म देखना ज़रूरी मानते हैं.....अनिरुद्ध ने बैठक पर हर शुक्रवार को किसी एक फिल्म के बारे में अपनी राय लेकर हाज़िर होने का वायदा किया है....(ज़रूरी नहीं कि शुक्रवार को ये वायदा सिर्फ अनिरुद्ध ही पूरा करें...आप भी ये मोर्चा संभाल सकते हैं..) इस नई सीरीज़ की बोहनी करते है सत्यजीत रे की 'शतरंज के खिलाड़ी' से....



महान जापानी फिल्मकार अकीरो कुरुसावा ने कभी कहा था - "सत्यजीत रॉय का सिनेमा नहीं देखा होना ऐसा है जैसे दुनिया में रहते हुए कभी चाँद और सूरज ना देखा हो"
एक अरसे से मैं इस तलाश में था कि ये फिल्म देखने को मिल जाए कहीं और आखिर मुझे मिल ही गई | सत्यजीत राय का निर्देशन, मुंशी प्रेमचंद की कहानी और संजीव कुमार का अभिनय, ये एक बहुत ही दुर्लभ संयोग है और मैं अपने को खुशनसीब मानता हूँ कि मैंने ये फिल्म देखी |
फिल्म की कहानी दो दोस्तों के इर्द-गिर्द घूमती है मिर्जा साजिद अली (संजीव कुमार) और मीर रोशन अली(सईद जाफरी), जो शतरंज के बेहद शौकीन हैं, इस हद तक कि उन्हें ना दुनिया कि कोई खबर होती है ना ही अपने घर की | चूंकि पुरखे काफी दौलत छोड़ गए हैं इसलिए इन्हें कोई काम करने की ज़रुरत नहीं होती | सुबह होते ही दोनों हजरात शतरंज लेकर बैठ जाते हैं और देर रात तक उसी में डूबे रहते हैं |
फिल्म की प्रष्ठभूमि सन १८५६ की है जब नवाब वाजिद अली शाह अवध के बादशाह थे | बादशाह को राजकाज चलाने के अलावा बाकी सभी कामों में रूचि है जिससे राज्य में अव्यवस्था फ़ैली हुई है | वाजिद अली कभी बादशाह बनना नहीं चाहते थे लेकिन विरासत के चलते उन्हें ताज दे दिया गया, ठीक वैसे ही जैसे आजकल ज़्यादातर लोग "caught in wrong job" की तरह काम करते हैं, करना कुछ चाहते हैं और करना कुछ पड़ता है | तो एक तरफ दोनों दोस्त अपने घर में शतरंज की चालें चलते हैं, दूसरी तरफ अंग्रेज राजनीति की बिसात पर अपनी चालें चल रहे हैं और अवध पर कब्जा करने की फिराक में हैं | नवाब वाजिद अली की अयोग्यता का बहाना करके अंग्रेज उसे गद्दी से उतारने का नोटिस दे देते हैं | ये असल में वो समय था जब अंग्रेज भारत में सत्ता हथियाने में लगे हुए थे |
फिल्म में उस समय और परिस्थितियों को बहुत ही बारीकी से दिखाया गया है, वो भी बहुत थोड़े से घटनाक्रम के ज़रिये | एक तरफ लड़ाई छिड़ने के आसार हैं तो दूसरी तरफ दोनों दोस्त इन सब चीज़ों से बेखबर शतरंज में मसरूफ रहते हैं | मिर्जा साहब की बीवी किसी तरह उनका इस खेल से पीछा छुड़वाने की कोशिश में रहती हैं | रोज़ रात वो मिर्जा का इंतज़ार करती हैं लेकिन मिर्जा कि सोहबत उन्हें नसीब नहीं हो पाती, ना जिस्मानी, ना रूहानी | इसी को लेकर वो दुखी रहा करती है | दूसरी तरफ मीर साहब की बीवी का अपने भांजे के साथ रिश्ता होता है जिसकी वजह से वो चाहती है कि मीर साहब को शतरंज से कभी फुर्सत ना मिले |
जब अंग्रेज फौज लखनऊ पर हमला कर देती है तो दोनों दोस्त लड़ाई में बुला लिए जाने से डर कर घर से दूर भाग जाते हैं और एक सुनसान सी जगह पर फिर खेलने लगते हैं |
फिल्म में अमिताभ बच्चन ने सूत्रधार के रूप में अपनी आवाज़ दी है | संजीव कुमार और सईद जाफरी के अलावा अमज़द खान वाजिद अली के किरदार में हैं | शबाना आज़मी मिर्जा की बेगम हैं और फरीदा जलाल मीर साहब की | फारूख शेख का बहुत छोटा सा किरदार मीर साहब की बेगम के प्रेमी के रूप में है |
संजीव कुमार के अभिनय पर टिप्पणी करना गुस्ताखी ही होगी | वो हमारे फिल्म इतिहास के अब तक के सबसे अच्छे अभिनेता हैं, किसी भी किरदार में जितनी पूर्णता से संजीव कुमार उतर जाते थे, शायद ही किसी और के लिए संभव हो | सईद जाफरी को देखना हमेशा ही एक अच्छा अनुभव होता है | अमज़द खान ने एक कमज़ोर बादशाह के किरदार में जान डाल दी है, उन्होंने अपने पूरे शरीर और आँखों से अभिनय किया है | उन्हें परदे पर देखकर ही आपको समझ में आ जाता है कि ये एक कमज़ोर बादशाह है | बादशाद के मन की दुविधा को वे अपने चेहरे के भावों से बता देते हैं | अब तक अंग्रेजों के बारे में जितनी फिल्में बनी हैं लगभग सभी में टॉम आल्टर कि उपस्थिति रही है और वे एक बेहतरीन अभिनेता भी हैं |
फिल्म में चटख रंगों को प्रयोग किया गया है जो फिल्म के बारे में आपकी यादों को भी रंगीन बना देते हैं और एक अच्छे फीलिंग देते हैं | वैसे शोख रंग उस ज़माने को दिखाने के लिए किया गया है जब शाही दरबार हर तरह से रंगीन होता था |
सत्यजीत रॉय की ये मैंने पहली ही फिल्म देखी है और मैं नतमस्तक हूँ उनकी निर्देशन क्षमता के आगे | फिल्म इतने स्वाभाविक तरीके से बहती है कि आप उसके साथ ही बहने लगते हैं, बाहरी दुनिया से एकदम कटकर |
और सबसे ऊपर आपको ये अहसास भी दिलाती है कि हमारे देश के राजा और प्रजा के किस निकम्मेपन और अपने अतीत से चिपके रहने कि प्रवृत्ति के कारण देश गुलाम हुआ था |

कुल मिलाकर एक बेहतरीन फिल्म |
मेरी तरफ से ५ में से ५ अंक |


अनिरुद्ध शर्मा

दाल रोटी खाओ प्रभु के गुण गाओ, लेकिन कैसे खाएं दाल?



बचपन में एक गाना सुना था- दाल रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ। शायद उस समय दाल सस्ती होती होगी जो यह कहा जाता था।
इसी प्रकार एक अन्य मुहावरा दालों पर होता था-यह मुहं और मसूर की दाल।
यानि मसूर की दाल महंगी होती होगी जो यह कहा जाता था। (अगर गलत हो तो पाठक सुधार कर दें।)
लेकिन आज के समय में यह दोनों की पुरानी कहावतें या मुहावरे पुराने पड़ चुके हैं।
दालों के भाव आसमान छू रहे हैं और दाल-रोटी पाकर संतोष कर पाना एक कठिन कार्य हो चुका है।
नया मुहावरा है यह मुहं और अरहर की दाल क्योंकि अरहर की दाल अब 88 रुपए प्रति किलो हो गई है।

महंगाई मार गई

जहां अरहर की दाल 88 रुपए प्रति किलो है वहीं साबुत मसूर का भाव 66 रुपए, साबुत उड़द 60 रुपए और दाल उड़द 66 रुपए, मूंग साबुत और दाल मूंग दोनो ही 66 रुपए प्रति किलो हैं। चना 40 रुपए और चना दाल 56 रुपए प्रति बिक रही हैं।
दालें हमारे दैनिक आहार की प्रमुख खाद्य वस्तु है और मानव शरीर के लिए आवश्यक भी है क्योंकि इनमें प्रोटीन की मात्रा सबसे अधिक होती है। प्रोटीन प्राप्ति का दूसरा स्त्रोत मांस है जिसे शाकाहारी खा नहीं सकते हैं।
देश में दालों की कमी कोई नई बात नहीं है क्योंकि उत्पादन की तुलना में खपत अधिक होती है। एक अनुमान के अनुसार देश में दालों की वार्षिक खपत लगभग 180 लाख टन है जबकि उत्पादन 130 से 148 लाख टन के बीच घूम रहा है। अपनी खपत को पूरा करने के लिए दालों का आयात करना पड़ता है। हर वर्ष दलहनों का आयात किया जा रहा है जो 25 से 30 लाख टन के बीच होता है।
गत वर्ष भी देश में दालों के भाव में बढ़ोतरी हुई थी लेकिन आयात के कारण भाव अधिक नहीं बढ़ पाए। सरकार ने दालों के निर्यात पर भी प्रतिबंध लगा दिया।

बेकाबू अरहर

बहरहाल, इस वर्ष अरहर के बारे में हालात काबू से बाहर होते जा रहे हैं। इसका कारण इस वर्ष वर्षा की कमी या सूखे जैसी स्थिति है। अरहर खरीफ की प्रमुख दलहन है। देश में 2005-06 के दौरान अरहर का उत्पादन 27.38 लाख टन हुआ था जो 2006-07 में गिर कर 23.14 लाख टन होने के बाद अगले ही वर्ष सुधर कर 30.75 लाख टन हो गया था। गत वर्ष उत्पादन 25 लाख टन ही होने का अनुमान है। और चालू वर्ष यानि 2009-10 का मानसून ही मालिक है।
जहां तक विदेशों का प्रश्न है वहां पर भी अरहर के भाव में तेजी आ रही है। गत माह तक अरहर का आयात लगभग 800 डालर प्रति टन की दर पर किया जा रहा था लेकिन अब आयात 1100 डालर से ऊपर के भाव पर किया जा रहा है।

घटती उपलब्धता
देश में दालों का उत्पादन मांग की तुलना में नहीं बढ़ रहा है। इससे बढ़ती जनसंख्या के कारण दलहनों की प्रति व्यक्ति खपत कम होती जा रही है।
वर्ष 2005-06 के दौरान देश में दलहनों का कुल उत्पादन 134 लाख टन था जो 2006-07 में बढ़ कर 142 लाख टन और 2007-08 में बढ़कर 148 लाख टन हो गया। बहरहाल, गत वर्ष यह गिर कर लगभग 142 लाख टन पर आ गया है। इससे सारा संतुलन बिगड़ गया।

खपत
देश में दालों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता भी कम होती जा रही है। वर्ष 1990 में देश में प्रति व्यक्ति दालों की उपलब्धता 41 ग्राम थी जो अब गिर कर 30 ग्राम के आसपास आ गई जबकि अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों के अनुसार यह मात्रा 80 ग्राम होनी चाहिए।

उत्पादन कम क्यों?
देश में दलहनों का अधिकांश उत्पादन सिंचित क्षेत्र में होता है और वर्षा की जरा सी भी कमी उत्पादन का सारा गणित बिगाड़ देती है। दूसरा कारण अन्य देशों की तुलना में प्रति हैक्टेयर उत्पादन कम होना है क्योंकि बेहतर किस्म के बीज उपलब्ध नहीं है।
यदि सरकार बेहतर किस्म व रोग तथा कीट रोधक कम समय में पक कर तैयार होने वाले बीज किसानों को उपलब्ध कराए तो किसी सीमा तक देश में दालों की कमी को पूरा किया जा सकता है।

राजेश शर्मा

Wednesday, July 22, 2009

बेडरूम का सच और एक करोड़ रुपए



क्या आपने कभी अपनी बेटी की उम्र की किसी लड़की के साथ सेक्स किया है?

जवाब मिलता हैं.. हां।

क्या आप कभी अपने पति के अलावा किसी और के साथ गैर मर्द के साथ नाजायज़ रिश्ता बनाने की कोशिश करेंगीं?

जवाब मिलता है.. नहीं।

लेकिन ये जवाब गलत था। ये एक बानगी भर है उस प्रोग्राम की, जो आजकल स्टार प्लस पर आता है। अमेरिकी शो 'मोमेंट ऑफ ट्रूथ'की नकल पर शुरु हुए इस प्रोग्राम के ज़रिए हिंदुस्तान में सच की गंगा बहाने की कोशिश की जा रही है। भारतेंदु हरिश्चन्द्र के इस मुल्क में जहां हज़ारों गुरु पंडितों और मुल्ला मौललवियों ने इस मुल्क की बुनियाद रखी, वहां आज लोगों को सच सिखाने की ज़रूरत पड़ रही है। जहां लाखों पीर-फकीर गंगा-जमुनी तहजीब की सीख देकर चले गये। वहां टीवी पर सच सिखाया जा रहा है। सच भी कैसा। बेडरूम का सच। नाजायज़ रिश्तों का सच। साजिशों का सच। मर्डर और दोस्ती में दरारों का सच। सेक्स और बेवफ़ाई के अजीबो-गरीब रिश्तों का सच। प्यार-मौहब्बत में नाकाम रहने का सच। फलर्ट करने का सच। सच भी ऐसा जिसमें सिर्फ़ मसाला हो, तड़का हो। वो भी किसलिए सिर्फ़ एक करोड़ रुपयों के लिए। और एक करोड़ भी तब मिलेंगे जब आप सभी 21 सवालों का सही जवाब देंगे। मुझे आचार्य धर्मेद्र की एक बात बहुत अच्छी लगी, कि आप पैसा देना बंद कर दो, लोग टीवी पर सच बोलना बंद कर देंगे। लोग टीवी पर पैसे के लिए सच बोल रहे हैं। प्रोग्राम के पीछे तर्क दिया जा रहा है, कि इसके आने के बाद लोग सच बोलने लगे हैं। मेरा उनसे यही सवाल है कि क्या इससे पहले समाज में लोग सच नहीं बोलते थे? क्या अब तक मुल्क और समाज की बुनियाद झूठ के ढर्रे पर चल रही थी? एक सच ये है कि मैं कभी झूठ नहीं बोलता। आप भले ही यकीन न करें, लेकिन मुझे झूठ बोलना बिल्कुल पसंद नहीं है। आप सोच रहे होंगे कि मैं शायद स्टार प्लस पर आने वाले प्रोग्राम सच का सामना के बाद कुछ बदल गया हूं। आप सोच रहे होंगे कि इस प्रोग्राम के आने के बाद हिंदुस्तान में राजा हरिशचन्द्र कहां से पैदा हो गये। लेकिन जनाब ऐसा नहीं हैं। यहां सदियों से लोग सच का सामना करते हैं। अब अगर कोई राखी सावंत से सच बोलता है कि वो पहले से शादी-शुदा है, तो क्या ये सच का सामना का असर है। दरअसल ये भी एक ड्रामा था। जिसके पीछे भी था पैसे का बड़ा खेल। मतलब फुल ड्रामा। और फिर यहां जो भी शख्स सच बोलता है, उसकी पूरी फैमिली उसके सामने बैठती है। झूठ और सच के साथ ही उनके एक्सप्रेशन भी बदलते जाते हैं। ऐसा कैसे संभव हो सकता है कि कोई पति या पत्नी अपनी बीस साल की शादी-शुदा ज़िंदगी में डर की वजह से अपने राज़ एक-दूसरे से शेयर ही न करे। और जब बात एक करोड़ मिलने की आती है, तो उसके राज़ परत दर परत सारी दुनिया के सामने खुल जाते हैं। मुझे याद है कि कई साल पहले राजेन्द्र यादव जी ने अपनी पत्रिका हंस में ऐसी ही एक सीरीज़ चलाई थी। जिसमें अपनी ज़िंदगी का कच्चा चिट्ठा लिखना था। मैगज़ीन बाज़ार में आई, लेकिन लेख छपते ही हल्ला मच गया। कुछ लोगों ने बड़े उतावले पन के साथ अपनी ज़िंदगी को तार-तार करने की कोशिश की थी। लेकिन नतीजा क्या निकला। हंगामा मचा, तो हंस को सीरीज़ ही बंद करना पड़ी। अफ़सोस ये है कि इस प्रोग्राम का भी वहीं हश्र न हो। सच का सामना करने के चक्कर में कहीं रिश्ते दरक न जाएं, और भरोसे पर टिका जिंदगी का घंरौंदा एक हल्के से झोके में ही ज़र्रा-ज़र्रा करके बिखर जाए। सच के ठेकेदारों समाज पर कुछ तो रहम करो। क्योंकि कुछ झूठ ख़ूबसूरती के लिबास में ही अच्छे लगते हैं।

अबयज़ खान

Tuesday, July 21, 2009

ब्लू फिल्म

यानी हमारी चार माँ हैं?

भाग-3

लता ने कहा - वहाँ देखो, कितने जाले लगे हैं।
और माँ दौड़कर मेज उठा लाई और उस पर चढ़कर फूलझाड़ू से जाले उतारने लगी। मैंने कहा- मुझे और भूख लगी है। माँ दौड़कर रसोई में गई और आटा छानकर गूंथने लगी।
पिताजी ने कहा- मैं आज खाना नहीं खाऊँगा। माँ ने उनकी रोटियों पर थोड़ा ज़्यादा घी चुपड़ दिया। वैसे घी पश्चिमी चिकित्साशास्त्र का दुश्मन था, जो किसी भी रोग में सबसे पहले बन्द करवा दिया जाता था। मैंने देखा कि मेरी तीन माँएं हैं, एक रोशनदान पर टँगी हुई, एक आटा छानती हुई, एक घी चुपड़ती हुई। मैंने लता को दिखाया- देख लता। तीन तीन माँ। - हाँ। उसने भी देखा। मैं दौड़कर बरामदे में बैठे पिताजी के पास गया। - देखो पिताजी, तीन तीन माँएं। - हाँ। उन्होंने भी देखा।
मैंने लता से पूछा- क्या टाइम हुआ है? - साढ़े दस। - फिर तो एक माँ स्कूल में भी गई होगी। - यानी हमारी चार माँ हैं?
- और एक को सुबह मैंने कपड़े धोते हुए भी देखा था। - मतलब पाँच हैं? - हाँ। - यानी घर में हम आठ लोग हैं? पिताजी ने बीच में कहा- नहीं, चार ही हैं।
- पिताजी आपका पेट दर्द कैसा है? पिताजी बीच में बोले तो मुझे याद आया। - खाना खाने के बाद हल्का हल्का होता है। आजकल जी कुछ ठीक नहीं रहता। पिताजी अपना पेट पकड़कर सहलाने लगे। लता उनके लिए पानी लाने चली गई। मैंने कहा कि मेरे भी सीने में बहुत दर्द रहता है। उन्होंने सुना नहीं। लता ने रसोई में से ही सुन लिया था। वह दो गिलास पानी लेकर आई। स्टेनलेस स्टील के गिलास थे जिनपर लता का नाम खुदा हुआ था।
मैंने उससे पूछा, “पानी पीने से दर्द ठीक हो जाता है?”
पिताजी ने कहा, “नहीं, दवा खाने से भी नहीं होता।”
मैंने कहा, “आजकल नकली दवाइयाँ बहुत बनने लगी हैं।” मेरी इस बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। हम दोनों ने पानी पी लिया।
तकलीफ़ के बदले तकलीफ़ देना प्यार के बदले प्यार देने से ज़्यादा ज़रूरी लगता था। रागिनी एक लड़की का नाम था जिसके दो हाथ, दो पैर, दो आँखें, दो कान, दो वक्ष, एक नाक, एक माथा, एक सिर था। रागिनी पहली लड़की नहीं थी, जिससे मुझे प्यार हुआ, और न ही आखिरी थी। वह सब लड़कियों जैसी थी। अब मुझे लगता था कि वह बुरी थी। जिन जिन लड़कियों से मैंने प्यार किया था वे बेहद स्वार्थी लड़कियाँ थीं। उनमें और लड़कियों से अलग कुछ भी नहीं था इसलिए मुझे सब लड़कियाँ बुरी लगने लगी थीं। लेकिन ऐसा सबको नहीं लगता था। ऐसा सबको नहीं लगता था इसलिए इसे खुलकर कहना फ्रस्ट्रेशन कहा जाता।
लेकिन ऐसा था। ऐसा था तो लता भी बुरी लड़की होगी। मेरी अच्छी बहन बुरी लड़की लता गिलास लेकर चली गई।
लता जाते जाते बोली- आज यस बॉस आएगी।
हम सबने अनसुना कर दिया। पिताजी अख़बार उठाकर पढ़ने लगे। मैं उठकर अपने जूते पॉलिश करने चल दिया। लता एक पुराना और एक कम पुराना गाना गुनगुनाने लगी। ऐसे जैसे कि गीत की किसी पंक्ति को गलत सुनकर ‘आज यस बॉस आएगी’ समझ लिया गया हो।
आजकल तेरे मेरे प्यार के चर्चे हर जबान पर...
और नया गाना चालू सा था। वह उसने कुछ मन्द आवाज़ में गाया। आज अभी इसी वक़्त ही मुझको पता चला है...कि मुझे प्यार प्यार प्यार हो गया है...
हमारे घर में बुश कंपनी का एक पुराना टीवी था जिसमें चित्र कभी स्थिर नहीं रहते थे। वे ऊपर से नीचे नदी की तरह लगातार बहते रहते थे। टीवी पर आगे लगी चार घुंडियों में से एक पर वी. होल्ड लिखा हुआ था जिसका अर्थ हममें से किसी को नहीं पता था। उसको घुमाने से नदी का प्रवाह धीमा और तेज होता था और एक सीमा के बाद प्रवाह की दिशा भी उलट जाती थी। हम उसको झटके से लगातार दोनों तरफ ऐसे घुमाते थे जिससे पर्दे पर दृश्य लगभग स्थिर दिखता रहे। यह बहुत मेहनत और धैर्य का काम था। इसके लिए एक व्यक्ति को टीवी के बराबर में बैठे रहना पड़ता था। सब टीवी देख रहे होते थे तो मैं और लता बारी बारी से यह ज़िम्मेदारी संभालते थे। अकेले टीवी देखना बहुत मुश्किल काम लगता था। हम बड़े होते गए तो हमारा टीवी देखना कम होता गया। हमें टीवी न देखने का शौक हो गया था। ‘यस बॉस’ लता की फ़ेवरेट फ़िल्म थी जो उसने कभी नहीं देखी।
मैं और पिताजी शाम को घूमने गए। ऐसा कई सालों बाद हुआ था कि हम बिना काम के एक साथ घर से बाहर निकले हों। मैं लाल दरवाजा, रामनाथ पुल, श्रीकृष्ण मन्दिर, गोल बाज़ार, शहद की छतरी और शहर की और भी बहुत सारी जगहों से बचता था। जिन जिन जगहों पर रागिनी की यादें चिपकी हुई थीं, उन जगहों के पास जाते ही आत्महत्या के ख़याल आते थे। मूंगफली खाना भी मर जाने जैसा लगने लगा था। मुझे लगने लगा था कि मैंने एक बार और प्यार किया तो इस छोटे से शहर में मेरे जाने को कोई जगह नहीं बचेगी। मुझे लगता था कि इसीलिए ज़्यादातर लोग नौकरियों के बहाने से अपने बचपन और जवानी का शहर छोड़ देते होंगे। नए शहरों में नए प्रेम होते होंगे। फिर कुछ साल बाद पैसे देकर तबादला करवाना पड़ता होगा। जिनके पास तबादले के पैसे नहीं होते होंगे, उन्हें खुदकुशी के ख़याल के साथ जीना पड़ता होगा। मैंने अपने पिता की ओर देखा। वे बीस साल से इसी शहर में थे। उनके चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ रही थीं। वे और दुबले होते जा रहे थे। - पिताजी आपने कभी कछुआ देखा है? - नहीं। - आप पढ़ाते तो थे कि बहुत धीरे धीरे चलता है कछुआ। - रोज़गार समाचार देखता रहता है ना? - हाँ पिताजी। हरियाणा में वेकेंसी निकली हैं। - वहाँ तो पैसा चलता है बस। - पैसा कैसे चलता होगा? कछुए की तरह धीरे धीरे तो नहीं ना? उन्हें नहीं सुना।
आधी बातें बिना सुने भी जीवन उसी तरह जिया जा सकता था। वैसे भी हमारे शहर में सुनने को ज़्यादा बड़ी बातें नहीं होती थीं। दो पड़ोसी एक कीकर के पेड़ को लेकर सालों तक झगड़ते रहते थे और फिर अगली पीढ़ी जवान होकर लड़ने लगती थी। लड़के अनजान लड़कियों के लिए झगड़ बैठते थे और हॉकी स्टिक और लाठियाँ लेकर आ जाते थे। अनजान ‘बुरी’ लड़कियों को अक्सर ख़बर भी नहीं होती थी और ख़बर हो जाती थी तो यह गर्व का विषय होता था। लड़के बसों की यात्रा मुफ़्त करवाने के लिए कभी कभार स्कूल कॉलेजों में दस बीस दिन की हड़ताल भी कर देते थे। किसी दिन सरकारी स्कूल का कोई शिक्षक अपने ही छात्रों के हाथों पिट भी जाता था। बसें और सिनेमाहॉल जी भर के तोड़े जाते थे। कोल्ड ड्रिंक की बोतलें उठाकर भाग जाना होता था। पुलिस आँसू गैस छोड़ती थी। आँसू गैस नाइट्रस ऑक्साइड नहीं थी। नाइट्रस ऑक्साइड हँसाने वाली गैस थी लेकिन कुछ भी करवाने वाली गैस का नाम पूछा जाए तो नाइट्रस ऑक्साइड का नाम ही दिमाग में सबसे पहले आता था। नाइट्रस ऑक्साइड की दुनिया में भारी कमी हो गई लगती थी। पुलिस हँसाने वाली गैस छोड़ती तो शायद दुनिया ज़्यादा बेहतर बन सकती थी।

गौरव सोलंकी

Monday, July 20, 2009

मदरसों में कुरान के साथ कंप्यूटर भी ज़रूरी है

मुसलमानों पर बहस ज़रूरी है...



किसी भी मुद्दे पर होने वाले सम्मलेन समस्याओं का निदान तो नहीं कर सकते लेकिन लोगों में जागरूकता लाने का काम ज़रूर कर सकते हैं, इसीलिए ज़रूरी है कि बतौर वक्ता हिस्सा ले रहे विद्वान समस्याओं पर फोकस करें ना कि खोखली भाषणबाज़ी...बरेली सम्मलेन हालांकि समस्याओं पर ही केन्द्रित था....बतौर वक्ता पहुंचे पत्रकार निखिल आनंद गिरि ने जिस तरह लीडरशिप को आईना दिखाया वो काबिले तारीफ़ था उनके मुताबिक एक कोशिश ऐसी हो जैसी कभी सर सैय्यद अहमद खान ने की थी जहाँ कुछ देने का जज्बा था, जहाँ सिर्फ सेवा भाव था... निखिल ने बताया कि आप खाली नकारात्मक भाव न रखें... आप जामिया को ख़याल में रखें, आप अलीगढ को ध्यान में लायें.... उन्होंने मुसलमानों से हौसला रखने की अपील की जो आज वाकई ज़रूरी है....हिंदयुग्म के प्रयासों के बारे में बताते हुए निखिल ने ज़ोर देकर कहा अब वक्त आ गया है कि मदरसों में कुरान के साथ कंप्यूटर अनिवार्य कर देना चाहिए....हिंदयुग्म इस वहीं दूसरे पत्रकार रशीद अली ने बताया की कभी मुस्लिम ताकतें अपने इक्तिदार(पद की लालसा) के लिए दूसरो से लड़ती थीं... उनका मतलब गलत नहीं था लेकिन मेरी एक गुजारिश है कि वो पहले मुस्लिम की पहचान ठीक से कर लें वर्ना यही भ्रम की स्थिति रहेगी.... मैं यहाँ बताना चाहता हूँ कि मुसलमानों के नबी मुहम्मद साहब (स०,अo) ने वर्चस्व की कोई जंग नहीं की...
अब बात उनके घराने की आती है जहाँ इसलाम की हिफाज़त हो रही थी तो इतिहास गवाह है की सुल्हे हसनी (इस्लामी तारीख की एक मशहूर सुलह) इसलिए हुई कि तख्तो-ताज की ज़रुरत बनी हाशिम(मोहम्मद साहब के वंशज) को नहीं थी... इसके बाद कर्बला में मुस्लिम ताकतों पर क्या गुज़री उससे तो सब ही वाकिफ हैं.... ये ताक़त का मुज़ाहिरा था या अपनी कुर्बानी.... इस्लाम मारना नहीं सिखाता, हाँ अपनी कुर्बानी दे देने का नाम ही इस्लाम है.. अब रशीद साहब आप किन मुसलमान ताकतों की बात कर रहे थे नहीं मालूम.... इसके अलावा भी एक बात सम्मलेन में उठी कि उर्दू ज़बान को बचाना है... मैं पूछना चाहता हूँ कि उर्दू पर कौन सा हमला हो रहा है... उर्दू की पैरवी करने वालों को शायद नहीं पता कि उत्तर प्रदेश के हर दफ्तर में उर्दू अनुवादक उर्दू दरख्वास्तों के अभाव में मक्खी मार रहे हैं या दूसरे काम कर रहे हैं....... ये गलती किसकी है....... दूसरी तरफ देश के मीडिया संस्थान उर्दू ज़बान को फरोग(बढ़ावा) दे रहे हैं.....फिल्म उद्योग ने उर्दू को हमेशा फरोग दिया ऐसे में आप की बेचैनी समझ के बाहर है

बरेली सम्मलेन मुसलमानों की समस्याओं से रू-ब-रू कराने वाली एक बेहतरीन पहल थी.... काबिले तारीफ़ हैं वह लोग जिन्होंने यह साहसी पहल की और एक समुदाय को सच्ची तस्वीर दिखाई... समस्याओं के आंकलन में वक्ताओं ने जो नज़रिए पेश किये वह बरेली शहर की दीवारों में ज्यादा दिन क़ैद नहीं रहेंगे.. एक नयी सुबह आने वाली है बशर्ते आपको इन्तिखाब का इरफान (चुनने का सलीका) हो.... हर मुसलमान अपने हक की मांग अपने मुंह से करना सीखे... घरों से निकलिये... मुख्य-धारा का बहाव बहुत ही सुखदाई है और इस एहसास के साथ कि अगर आप समाधान का हिस्सा नहीं हैं तो आप ही समस्या हैं.......

हाशम अब्बास नक़वी 'बज़्मी'
(बरेली सम्मेलन हिंदयुग्म के लिए एक अलग तरह का अनुभव था....मुसलमानों की समस्याओं पर बहस जारी रहेगी....पाठक इस विषय पर अपने विचार भी भेज सकते हैं...फिलहाल, हाशम के लेख की ये आखिरी कड़ी थी)

Sunday, July 19, 2009

ये सिंथेटिक पेड़ क्या होते हैं भाई !

छोटे बच्चों को विज्ञान में जब पेड़ों के फ़ायदे बताने को कहा जाता है तो उसमें सबसे अहम होता है-पेड़ कार्बनडाईऑक्साइड खत्म करते हैं और ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ाते हैं। इंसान भी अजीब है अपने मृत्यु और अपने जीवन के उपाय खुद करता है। मिसाइल बनाई तो मिसाईल का पता करने के रडार बनवा दिये, पेट्रोल और डीज़ल के इंजनों से धुँआ ज्यादा निकला तो सीएनजी की और रूख किया। कोयला खत्म होता दिखा तो बिजली से रेलगाड़ी चलाई तो कभी सूरज की रोशनी से बिजली पैदा करने की बात होने लगी। घर के एसी, फ़्रिज से निकलने वाले क्लॉरो-फ़्लॉरो-कार्बन(सीएफसी) और कारों व बसों से निकलने वाली जहरीली गैसों के बारे में आप जानते ही होंगे। एक से ओज़ोन की परत कमज़ोर होती जा रही है तो दूसरे ने साँस की तकलीफ़ पैदा कार दी है। ऊपर से इंसान की जरूरतें बढ़ने की वजह से पेड़ों को काटने का दौर जारी है। दिल्ली में होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारी को हर कोई जानता है। इसके लिये मेट्रो का काम, कईं हजार फ़्लैट और स्टेडियम तो बन ही रहे हैं पेड़ भी काटे जा रहे हैं।



दिल्ली के निजामुद्दीन पुल से नोएडा की ओर जाते हुए आजकल कईं पेड़ कटे हुए देखे जा सकते हैं। सड़कें जो चौड़ी करनी है। खैर हमारी आने वाली पीढ़ियाँ हो सकता है कि इन पेड़ों से महरूम रह जायें लेकिन उन्हें ऒक्सीजन की कमी न हो उसका इलाज वैज्ञानिक कर रहे हैं। जी हाँ, जल्द आने वाले हैं सिंथेटिक पेड़। तस्वीर में एक झलक देखिये। ये सिंथेटिक पेड़ आम पेड़ों के मुकाबले १००० गुना तेज़ी से कार्बन का खात्मा कर सकते हैं। कोलम्बिया विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक क्लॉस लैकनर १९९८ से इस प्रोजेक्ट पर काम कर रहें हैं। ये पेड़ हवा में घूम रहे उन कार्बन पदार्थों को खत्म करेंगे जिन्हें हवाई जहाज, कार व अन्य वाहन वातावरण में डाल देते हैं। ये पेड़ आप कहीं भी रख सकते हैं। इस पेड़ में एक टन कार्बन डाई ऑक्साइड प्रतिदिन समाप्त करने की क्षमता है। जिस तरह से स्पंज का टुकड़ा पानी को समा लेता है, ठीक उसी प्रकार ये पेड़ भी कार्बन को समा लेंगे।

दिखने व पढ़ने में यह बहुत अच्छा दिखने वाला पेड़ आज की तारीख में १२ लाख रू का पड़ेगा। अमरीका में शोध से पता चला है कि कारों के धुँए का असर खत्म करने के लिये ६८ लाख पेड़ लगाने पड़ेंगे। देखना यह है कि ये प्रयोग कितना कामयाब होगा और भारत में ये कब लांच होगा। इंसान अपनी ही बनाई मशीनों से परेशान हो चुका है। ये सब सुविधाजनक तो हैं पर हमारी ज़िन्दगी में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से परेशानियाँ भी बढ़ा रही हैं जिसके बारे में हमें हमेशा ही देर से पता चला है या हम देख कर अनदेखा कर देते हैं। अंग्रेज़ी फ़िल्मों में दिखाते हैं कि इंसान ने रोबोट बनाया जो इंसान जैसा दिखता है, उसी की तरह काम करता है। पर बनाया किसलिये? अपनी सुविधा के लिये। लेकिन वही रोबोट इंसान पर हावी हो जाते हैं और इंसान की ही जगह ले लेते हैं। और अंत-विनाश। हम उसी ओर जा रहे हैं।

प्राकृतिक पेड़ रहें या न रहें सिंथेटिक पेड़ जरूर आ जायेंगे। लेकिन इंसान पेड़ की छाया से वंचित हो जायेगा। चिलचिलाती धूप में वो आराम नहीं मिलेगा, तेज़ बारिश में भीगने से बचने के लिये घना पेड़ न होगा, झूले टँगने से मना करेंगे और...इंसान रोबोट बन चुका होगा...

तपन शर्मा

Saturday, July 18, 2009

राखी के स्वयंवर में नामर्द


टीवी पर बीएसएनएल का एक एड आता था, जिसमें प्रीति जिंटा कहती थीं, कि अगर इनके पास बीएसएनएल का कनेक्शन नहीं है, तो वो इनके बेटे से शादी नहीं करेंगी। आजकल टीवी पर एक एड आता है अमूल माचो का.. जिसमें एक लड़के को देखने लड़की और उसके घरवाले आते है और बेचारा लजाता, शर्माता हुआ उनके लिए चाय लाता है। उसके बाद दूसरी तस्वीर में दिखाया जाता है कि कैसे लड़की उसे बाइक पर बैठाकर घुमाने ले जाता है, लड़की स्पीड ब्रेक लगाती है। झटका खाकर बेचारा लड़की से टकराता है। तो एक और तस्वीर में बस में खड़े होकर सफ़र कर रहे एक लड़के को एक लड़की छेड़कर निकल जाती है और बेचारा शर्म से लाल हो जाता है। आखिर क्या ज़माना आ गया है। इतने तक तो ठीक था। लेकिन अब तो सबकुछ उल्टा हो रहा है। राखी सांवत के स्वंयवर के बारे में तो आप सभी जानते होंगे। इस स्वंयवर में नाटक है, रोमांस है, और एक्शन भी। लेकिन राखी के चाहने वालों को न तो इसमें धनुष तोड़ना है और न ही मछली की आंख पर निशाना लगाना है। पूरे फिल्मी ड्रामे से भरी इस कहानी में राखी को किसी हूर से कम नहीं पेश किया है। और लड़के, वो तो बेचारे ऐसे लगते हैं, जैसे किसी रानी के गुलाम। राखी की हर अदा पर झुककर सलाम करने वाले, राखी के झूठ को सच साबित करने वाले, राखी जी बल खाकर चलती हैं, तो बेचारे मुंडे उनके कदमों में बिछे चले जाते हैं। और अगर राखी साहिबा उनसे खुश हो गईं, तो खाने को मिलेंगे लड्डू। शादी के लड्डू के बारे में तो सभी जानते हैं, जो खाए वो पछताए और जो न खाए वो पछताए। लेकिन राखी के साथ सपने बुनकर सभी 16 राजकुमार लड्डू खाना चाहते हैं। और राखी उनके सामने ऐसे पेश आती हैं, जैसे मल्लिका-ए-हिंदुस्तान। हद तो तब हो गई, जब राखी को पाने के लिए वो आग के शोलों पर भी नंगे पांव गुज़र गये। और तो और स्वंयवंर में आई ईवेंट मैनेजर ने दूल्हों को चुनौती दी, कि एक-दूसरे की गर्दन में सरिया फंसाकर जो इसे मोड़ देगा, राखी जी उससे बेहद खुश होंगी। और बेचारे दूल्हों ने ऐसा भी किया। मरता क्या न करता आखिर राखी को जो पाना है। और राखी इतनी बोल्ड हैं कि शो में खुलेआम कह रही हैं कि मुझे इनके छूने से कोई फीलिंग नहीं हो रही है, इनके छूने से मुझे कुछ एहसास ही नहीं हुआ। ये सब जानते हुए भी कि इस शो को सारी दुनिया देख रही है। लेकिन ये तो राखी हैं, राखी को क्या, कुछ भी बोल सकती हैं। बेचारे कुंआरे अब खुद को भरी पब्लिक के सामने नामर्द समझें, या राखी को संतुष्ट करने के लिए किसी नीम-हकीम से मर्दानगी की दवा खरींदे। आखिर राखी को जो पटाना है। लेकिन राखी हैं, कि आराम से पटना ही नहीं चाहतीं। लड़के लाख मिन्नतें कर रहे हैं, इतना ही नहीं, राखी को पटाने के लिए बेचारे एक-दूसरे को भगाने के लिए उसी तरह की ख़तरनाक साज़िशें रच रहे हैं, जैसे किसी रियलिटी शो में लड़कियां एक-दूसरे के खिलाफ़ जाल बुनती हैं। लड़के राखी के सामने हाथ बांधे खड़े हैं, कब मैडम की मेहरबानी हो जाए और उनको मिठाई का डिब्बा मिल जाए। लेकिन मिठाई मिलना सबकी इच्छा नहीं है, हर कोई चाहता है कि राखी उसे वरमाला पहना दें। वाकई ज़माना बदल गया है, अब मां का लाडला अपने लिए बहू नहीं ढूंढ रहा है, बल्कि एक बहू अपने लिए पति ढूंढ रही है। अब पति परमेश्वर होगा, या पत्नी पतिव्रता, ये तो भगवान ही जाने। लेकिन ज़माना सचमुच बदल गया है।

अबयज़ खान

Friday, July 17, 2009

बजट पर बहस : आम आदमी के लिए क्या?



विगत दिनों संसद में पेश किए गए 2009-10 के बजट को सत्तारुढ़ दल के नेताओं के अलावा अनेक उद्योगपतियों और कुछ अर्थशास्त्रियों ने आम आदमी के बजट की संज्ञा दी है। हर किसी ने इस बजट को आम आदमी का बजट कहा था। वित्त मंत्री प्रणब दा ने खूब वाहवाही बटोरी थी।
अब देखिए आम आदमी के इस बजट में उसके लिए क्या है?
इसमें कोई संदेह नहीं है कि वित्त मंत्री ने आम आदमी के लिए आयकर छूट की सीमा बढ़ा दी है। इस सीमा को बढ़ाने की मांग हर वर्ष की जाती है।
वित्त मंत्री ने इस सीमा को बढ़ाया है और सरचार्ज भी समाप्त कर दिया है लेकिन इससे आम आदमी को जो राहत मिली है वह ऊंट के मुहं में जीरा ही है। जिस व्यक्ति की सालाना आय 5 लाख रुपए तक है उसे लगभग 1100 रुपए का लाभ मिला है, यानि हर माह 100 रुपए का लाभ भी नहीं।
सरकार ने `आम आदमी´ के लिए बड़ी कारों पर शुल्क घटा दिया है और एलसीडी पर शुल्क में कमी कर दी है। यह वास्तव में सराहनीय है।
आम आदमी को राहत का एक और नमूना:
सरकार ने कमोडिटी ट्रांजैक्शन टैक्स (सीटीटी) को वापिस ले लिया है। इस टैक्स को गत वर्ष के बजट में लगाया गया था लेकिन व्यापारियों के विरोध कारण इसे लागू ही नहीं किया गया था। अब वित्त मंत्री ने इसे वापिस ही ले लिया था।
सीटीटी उन व्यापरियों या कारोबारियों पर लगना था जो प्रमुख कमोडिटी एक्सचेंजों में जिंसों में वायदा कारोबार करते हैं। इन एक्सचेंजों में रोजाना कागजों में करोड़ों का कारोबार होता है और केवल चंद व्यापारियों को लाखों का मुनाफा होता है। सरकार को इस मद से कई हजार करोड़ रुपए प्राप्त हो सकते थे और वह भी बिना आम आदमी को छूए बिना।
ब्रांडेड ज्यूलरी से उत्पाद शुल्क समाप्त कर दिया गया है। जूतों और स्पोर्टस के बनाने के कच्चे माल पर आयात शुल्क हटाया जा रहा है।
इससे आम आदमी को कितना लाभ होगा यह हो आने वाले समय ही बताएगा।
वास्तव में वित्त मंत्री ने अनेक वस्तुओं पर उत्पाद शुल्क में बढ़ोतरी की है। उसका पता फिलहाल उपभोक्ता को नहीं चला है। बहरहाल, गैस स्टोव निर्माताओं ने अवश्य कहा है कि अब गैस से चूल्हे महंगे हो जाएंगे क्योंकि बजट में शुल्क बढ़ गया है।
देखिए कराधान की बात
अब कुछ वर्ष पूर्व तक वित्त विधेयक के भाग-दो में वित्त मंत्री द्वारा लगाए गए प्रस्तावों का विवरण होता था। वास्तव में बजट का लेखा-जोखा कहा जा सकता है क्योंकि उसमें इस बात का खुलासा होता था कि कौन से प्रस्ताव से सरकार को कितना नुकसान होगा या फायदा होगा। मसलन यदि किसी वस्तु पर एक्साईज शुल्क कम किया है तो सरकार को कितना अधिक राजस्व प्राप्त होगा। यही स्थिति नए शुल्क या शुल्क में बढ़ोतरी के बारे में होती थी।
इससे तुरंत मालूम हो जाता था कि सरकार ने किसी मद पर कितना अधिक राजस्व जुटाने का प्रस्ताव रखा है। बहरहाल, अब इस चैप्टर को ही समाप्त कर दिया है।
इस बजट में वित्त मंत्री ने अपने भाषण में कहा है कि अप्रत्यक्ष करों के प्रस्ताव से पूरे वर्ष में सरकार को 2000 करोड़ रुपए का अतिरिक्त राजस्व प्राप्त होगा।
इसका सीधा अर्थ कि जनता पर 2000 करोड़ रुपए का कर बोझ लादा गया है। यह किन-किन आईटमों पर लादा गया है, यह समय बताएगा।

राजेश शर्मा

Thursday, July 16, 2009

मुर्दे का प्रोमोशन !

उस देश की जनता भय भूख से परेशान, बहुत परेशान। पर सरकार को इस बात से कोई लेना देना नहीं । उसे मजे से अपनी चाल चलना है सो चल रही है। उसे लंबी तान कर सोना है सो लंबी तान के सो रही है। जनता चाहे कहीं की भी हो, वह कुल मिलाकर जमा-घटा कर औसतन जनता ही होती है। न उसकी कोई चाल होती है न ढाल।

मैं भी उस देश की जनता हूं, सो कहने की जरूरत नहीं कि परेशान न होऊं। परेशानी में ही सोता और सुबह परेशानी में ही जागता हूं। यह सिलसिला बरसों से चला हुआ है। तय है मरने तक चलता रहेगा। न आप कुछ कर सकते न खुदा। मेरे बस में तो कुछ है ही नहीं।

तब भी मैं परेशानी में ही जागकर घूमने निकला था कि सामने से मुर्दा सा कोई आता दिखा। हमको तो यारों सेहत का ख्याल रखना जरूरी हो गया पर अब मुर्दे भी इस देश में अपनी सेहत के प्रति जागरूक हो गए? पता नहीं किसकी बददुआ से इन दिनों कमबख्त पेट भर रोटी क्या मिलने लगी कि मैं सेहत के प्रति कुछ ज्यादा ही जागरूक हो गया । भगवान किसी भी देश की जनता को और तो सबकुछ दे, पर भर पेट रोटी कभी न दे। इससे देश में कई गड़बड़ हो जाती हैं।

`और बंधु क्या हाल हैं? तुम भी सुबह सुबह सैर को आ निकले।´

`पत्नी जागने से पहले ही किचकिच शुरू कर देती है, बस इसीलिए चला आता हूं।´
कह मैंने अपने मुंह का कफ सामने खिले फूल के मुंह पर दे मारा,` पर आप की तारीफ! पहले तो आपको यहां कभी सैर करते नहीं देखा।´

` देखते कैसे? कब्र से आज ही जागा हूं।´

` कमाल है यार! यहां लोग सोचते है कि कब जैसे कब्र नसीब हो तो रोज की किचकिच से छुटकारा मिले और एक तुम हो कि कब्र में भी चैन नहीं आया और निकल आए एक बार फिर मरने। क्या इस देश में जी कर जी नहीं भरा जो मरके भी एक बार फिर जीने निकल आए?´ अजीब किस्म का मुर्दा है भाई साहब ये भी। लोग मरने के लिए खुदा से दुआएं कर रहे हैं और एक ये मुर्दा महाशय हैं कि....

`क्या करूं यार! मैं तो कब्र में चैन से पड़े रहना चाहता था पर ये एक तुम्हारी सरकार है न! हम मुर्दों तक को कब्र में चैन से सोने देना नहीं चाहती। यार परेशान किए रखने के लिए जिंदा मुर्दे क्या कम हैं जो हमें परेशान करने चले पड़े।´ कह वह आधा सड़ा मुर्दा रूआंसा हो गया। पर चलता वह मेरे साथ साथ रहा। अब मुर्दे को मुर्दे से घिन आने से तो रही। फर्क हम दोनों में केवल इतना था कि वह अतीत का मुर्दा था तो मैं वर्तमान का। थे तो हम दोनों औसतन मुर्दे ही,
´अब देखो ना यार! हफ्ता पहले सरकार ने मेरे साथ की कब्र में पांच साल से चैन से पड़े मुर्दे का प्रमोशन कर दिया। बेचारे ने जैसे ही अखबार में यह खबर पढ़ी, तबसे अपने होशो हवास में नहीं है। पागलों की तरह बहका हुआ है। मजे से कब्र में सो रहा था सारे झंझटों से दूर। अब कह रहा है, मुझे तो बस दफ्तर जाना है। हम मर गए उसे समझाते समझाते। पर वही नहीं मान रहा। कह रहा है मेरा प्रमोशन उस पद के लिए हुआ है जहां पर खाने की मौज ही मौज है। चाहे कुछ भी हो, मैं तो बस दफ्तर जाकर ही रहूंगा।´
`और तुम किसलिए कब्र से निकल आए? क्या तुम्हारा भी प्रमोशन हो रहा है?´
बड़ा गुस्सा आया सरकार पर। यार सरकार! हम मर गए यहां बीसियों बरसों से प्रमोशन के लिए एड़ियां रगड़ते-रगडत़े और एक आप हो कि मुर्दों को पटाने में जुटे हो। वोट हमारे लेकर सरकार बनाओगे कि मुर्दों के वोट लेकर!

पर यहां आजकल मुर्दों के वोटों से ही तो सरकारें बनती हैं। मंद बुद्धिजीवियों को और काम ही इतने हैं कि बेचारे चाह कर भी वोट पाने के लिए वक्त ही नहीं निकाल पाते।

` नहीं मेरा प्रमोशन नहीं होना है। मुझ पर सरकार मुकदमा चलाने की सोच रही है। मैं तो कहता हूं कि मुकदमे चलाने हैं तो डटकर चलाओ पर उन पर चलाओ जो भूख में रोटी की मांग करते हैं। मुकदमे चलाने हैं तो उन पर चलाओ जो बेरोजगारी में रोजगार की मांग करते हैं। मुकदमे चलाने हैं तो उनपर चलाओ जो झूठ को मात देने के लिए सच की मांग करते हैं। मुकदमे चलाने हैं तो उन पर चलाओ जो सामाजिक न्याय की मांग करते हैं। मुकदमे चलाने हैं तो उनपर चलाओ जो सामाजिक सुरक्षा की मांग करते हैं। सो कोई वकील ढूंढने निकला हूं जो मेरे केस की पैरवी कर सके। तुम्हारी नजरों में कोई ईमानदार वकील हो तो बताओ।´

उसने कहा तो बड़ी हंसी आई। ओ यार! जहां पर ईमानदारी भी ईमानदार नहीं वहां ........!

` यार! टेक इट सीरियसली! मामला सच्ची को गंभीर न हो तो खुदा कसम कब्र में चैन से सो रहा गधा भी बाहर न आए। मैं तो बंदा हूं। खुदा का न सही तो न सही।

`हं अ...! जिंदों के फैसले तो सरकार से उनके जिंदा जी हो नहीं रहे और लो भैया खोल दी मुदोंZ की फाइलें।´

`यही तो अपना रोना है भैया! सजा देनी है तो जिंदों को दो! हम तो कभी के मर लिए, आधे सड़ भी लिए भैया! फाइलें खोलनी है तो उनकी खोलो जिन्होंने देश को दोजख बना रखा है। उनको तो सादर उनके घर उनके गले में फूलों की मालाएं डाले सरकारी अमले के साथ छोड़ने जा रहे हो। गढ़े मुर्दे उखाड़ने से कभी समाज चला है क्या?? हम तो जो खा गए सो गू बना गए। अब तो कुत्तों ने भी हमारी कब्रों पर मूतना छोड़ दिया है। ऐसे में सरकार हमें तो बख्शे।´

`पर सरकार से मैं क्या गुजारिश करूं यार! अपनी तो घर में भी नहीं चलती।´ मैंने कहा तो वह कुछ कहने के बदले मन नही मन मुझे गालियां देता हुआ आगे हो लिया। चाहे मुर्दे जमीन के नीचे के हों चाहे जमीन के ऊपर के ,मुर्दे कुल मिलाकर होते मुर्दे ही हैं।

डॉ.अशोक गौतम

गौतम निवास, अप्पर सेरी रोड, नजदीक मेन वाटर टैंक
सोलन-173212 हि.प्र.

Wednesday, July 15, 2009

कपड़े की तरह कंपनियां बदलते तरक्कीपसंद युवा



इंसान हमेशा से ही अधिक से अधिक पाने की लालसा में रहा है। यही कारण है कि इंसान वैज्ञानिक दृष्टि से हमेशा ही आगे बढ़ता गया और तरक्की करता चला गया। ये आदत हर इंसान में होती है चाहे वो किसी भी पेशे से जुड़ा हो। लेकिन ये तरक्की पाने की चाह जल्द से जल्द पैसा कमाने की चाह में तब्दील होती जा रही है। अब आदमी बड़ा भी बनना चाहता है, पैसे वाला भी। मैं घुमा-फिरा कर बात नहीं करूँगा और सीधे मुद्दे पर आना चाहूँगा। मुझे और किसी क्षेत्र में अधिक जानकारी नहीं है पर मैं बात करूँगा मल्टीनेशनल कही जाने वाली कम्पनियों के कर्मचारियों की, और आपको बताऊँगा कि किस तरह से आप तेजी से पैसे कमा सकते हैं।

लोग कहते हैं (मैं नहीं जानता) कि एक जमाना था जब लोग अपने मालिक के लिये दिन-रात एक कर देते थे। एक ही कम्पनी में कईं कईं साल काम करते थे, उसके लिये वफादार थे। लेकिन क्या आज भी लोग एक ही कम्पनी में काम करते रहना पसंद करते हैं? क्या कारण था जो पहले लोग टिक पाते थे? समय बदला है, विदेशी कम्पनियाँ भारत में आई हैं, ढेरों पैसे लाईं हैं। पहले कम्पनियाँ कम होती थीं इसलिये तन्ख्वाह भी उसी हिसाब से होती थी। अब हर तरफ एक होड़ है। मंदी का दौर न देखें तो आप पायेंगे कम्पनियाँ लोगों पर मुँह माँगे पैसे देने को तैयार हो जाती हैं। उनको अपने काम से मतलब है..काम खत्म..तो उस कर्मचारी की भी ज़रूरत नहीं। वही आजकल मंदी के समय में देखा जा रहा है किस तरह से कम्पनियाँ लोगों को निकाल रही हैं। कम्पनियाँ पैसे देती हैं और लोगों को खरीदती हैं, लोग पैसे के लिये ही कम्पनियाँ बदलते हैं।

पिछले वर्ष एक आंकड़ा पढ़ा था जो बेहद चौंकाने वाला था। आई.टी के क्षेत्र में एक व्यक्ति एक कम्पनी में महज सात महीने औसतन काम करता है। मतलब हर सात महीने में नईं कम्पनी। ये औसत है तो इसका अर्थ यह भी समझिये कि लोग सात महीने से कम समय के लिये भी काम करते हैं। हर छह महीने में नईं कम्पनी बदलना ये आज से दस वर्ष पहले तक "फैशन" में नहीं था। कुछ समय पहले तक एक आई.टी में काम करने वाला एक व्यक्ति दूसरे से पूछा करता था-"अब तक एक ही कम्पनी में क्यों पड़ा है?" इस सवाल के दो अर्थ हो सकते हैं। या तो व्यक्ति को अपनी कम्पनी में अच्छा पैसा मिलता है...वो विदेश यात्रा करता रहता है। इनमें से कुछ ऐसे भी होते हैं जो सिर्फ पैसा कमाने के लिये ही आई.टी में घुसे हैं। उन्हें इस क्षेत्र से कोई लगाव नहीं है और न ही इसे सीखने की कोई इच्छा। उन्हें काम से कोई मतलब नहीं होता। और शायद इसीलिये ही एक ही कम्पनी में रहते हैं। हालाँकि ऐसे लोग ही मंदी की चपेट में अधिक आते हैं।

आई.टी में पैसे कमाने के कुछ नुस्खे आपके सामने रख रहा हूँ। हालाँकि ये नुस्खे मंदी के दौर में कुछ फीके पड़े हैं पर फिर भी कारगर हैं। पहला नुस्खा बार बार लगातार बिना वजह कम्पनियाँ बदलना। ऐसे लोग कुछ सीख नहीं पाते, दूरदर्शी नहीं होते और वे निकट भविष्य में जितना पैसा कमा सकते हैं उसी जुगत में रहते हैं। मुझे हैरानी होती थी ये सुनकर जब कॉलेज से निकले वाला अनुभवहीन छात्र भी अपनी बोली लगाने लग गया था। मंदी ने ये हथियार छीन लिया। दूसरा हथियार पिछले वर्ष तक कारगर था किन्तु इस साल कोई दोहराना नहीं चाहता। आप कम्पनी छोड़ने की धमकी दें, कम्पनी आपकी सैलेरी बढ़ा देगी। तीसरा नुस्खा ऐसा है जो मंदी के दौर में भी बदस्तूर जारी है। मैं ऐसे लोगों को जानता हूँ जो इस तरह से अच्छे खासे पैसे कमा रहे हैं। इसके लिये आपको तकनीकी दृष्टि से सक्षम होना जरूरी है। करना केवल इतना है कि जुगाड़ से और विभिन्न वेबसाईट और कम्पनियों से सस्ते दामों पर प्रोजेक्ट उठाने हैं और उन्हें समय पूरा कर देना है। इस तरह से आप कम्पनी से सैलेरी तो ले ही रहे है और दूसरा आप प्रोजेक्ट से भी अच्छा कमा सकते हैं। ऐसे लोग कम्पनी के काम पर कम ध्यान दे कर अपने "दूसरे" प्रोजेक्ट पर अधिक ध्यान देते हैं और कम्पनी के काम को हाशिये पर धकेल देते हैं। नतीजतन इससे उनकी टीम पर भी असर पड़ सकता है।

जितनी तन्ख्वाह इससे पहले की पीढ़ी १०-१५ साल के अनुभव के बाद भी नहीं कमा सकती थी, वही आजकल आई.टी के क्षेत्र में आप २-३ साल में ही कमाना शुरु कर सकते हैं। इन सब नुस्खों के बाद एक बात जो मेरे जहन में उठ रही है कि क्या रूपया-पैसा कम्पनी की वफ़ादारी से ऊपर है? या वफ़ादारी की बातें करना बेकार की बातें हैं? क्या आजकल की पीढ़ी वफ़ादारी नहीं समझती? और क्या कम्पनी भी अब अपने दायित्व का निर्वाह नहीं करती? क्या पैसे की होड़ कम्पनी और कर्मचारी के बीच के रिश्तों में खटास घोल रही है?

तपन शर्मा

Tuesday, July 14, 2009

ब्लू फिल्म

'लड़की हर दुख की दवा थी'

भाग-2

मार्च की बारह तारीख को उन दोनों की शादी हो गई। मार्च की बारह तारीख को बृहस्पतिवार था। मैं उदास था। मेरा मन नहीं लगता था। मैंने कोई नौकरी कर लेने की सोची। साथ ही मैंने सोचा कि नौकरी करके आज तक कोई करोड़पति नहीं बना इसलिए नौकरी वौकरी में कुछ नहीं रखा है। मेरा एक बार कश्मीर घूम आने का मन था, थोड़ी सी जल्दी भी थी। अख़बार में रोज युद्ध की संभावना की ख़बरें आती थीं और मैं कश्मीर के उस पार या आसमान के पार चले जाने से पहले उसे एक बार देख लेना चाहता था। मेरे पास पैसे नहीं थे। मेरे पिता स्कूल मास्टर थे। वे ‘धरती का स्वर्ग’ नामक पाठ पढ़ाते हुए कश्मीर का बहुत अच्छा वर्णन करते थे लेकिन मुझे लगता था कि उन्होंने कभी कश्मीर के बारे में सोचा नहीं होगा। अशोका पास बुक्स वाले उन्हें हर कक्षा की एक ‘ऑल इन वन’ उपहार में दे जाते थे तो उन्हें बहुत खुशी होती थी। लेकिन वे जोर से नहीं हँसते थे। उनके पेट में दर्द रहने लगा था। जब हम छोटे थे तो वे कभी कभी गुस्से में बहुत चिल्लाते थे। माँ कहती थी कि उस चिल्लाने की वज़ह से ही उनके पेट में दर्द रहने लगा है। डॉक्टर उसे अल्सर बताते थे। डॉक्टरों को लगता था कि वे सब कुछ जानते हैं। माँ को भी अपने बारे में ऐसा ही लगता था।
डॉक्टर बनने के लिए बहुत सालों तक चश्मा नाक पर टिकाकर मोटी मोटी किताबें चाट डालनी पड़ती थीं। हमारे राज्य में उन दिनों पाँच मेडिकल कॉलेज थे जिनमें छ: सौ सीटें थीं। जनरल के लिए कितनी सीटें थीं, यह पता लगाने के लिए बहुत हिसाब किताब करना पड़ता था। अधिकांश लोग जनरल ही थे। बाकी लोगों में से कोई खुलकर अपनी जाति नहीं बताता था इसलिए भी ऐसा लगता होगा कि अधिकांश लोग जनरल ही थे। ब्राह्मण दोस्त के सामने कुम्हार दोस्त कुछ दबा सा रहता था लेकिन फिर भी अपना कुम्हार होना, अपने चमार होने जितना शर्मनाक नहीं लगता था। बनिया होना परीक्षा में मुश्किल से पास होना था लेकिन फिर भी बनिया होना खुलकर स्वीकार किया जाता था।
हमारे कस्बे में एक बहुत विश्वसनीय अफ़वाह थी कि उस परीक्षा की तैयारी करते करते एक लड़की पागल भी हो गई थी। उस लड़की का नाम किसी को नहीं पता था। किसी को पता होता तो मैं उससे एक बार मिलना चाहता था। वह लड़की किस जाति की थी, यह भी पता नहीं चल पाता था।
माँ कानों के हल्के से कुंडलों और चाँदी की घिसी हुई पायलों के अलावा कोई गहना नहीं पहनती थी। माँ को गहने न पहनने का शौक हो गया था। मुझे सिनेमा न जाने का शौक हुआ था और मेरी बहन लता को अचानक नए कपड़े न खरीदने का शौक हो गया था। उसकी उम्र तेईस साल थी। वह एम एस सी करके घर बैठी थी और ब्यूटी पार्लर का काम सीख रही थी। कुछ न कुछ करते रहना एक ज़रूरी नियम था। वह पच्चीस तरह से साड़ी बाँधना सीख गई थी। मुझे एक ही तरह से पैंट पहननी आती थी। कभी कभी उसमें भी टाँगें देर तक फँसी रहती थीं। मैं बीएड कर चुका था और नई सरकार के इंतज़ार में था। मुझे उम्मीद थी कि नई सरकार आएगी तो थर्ड ग्रेड की खूब भर्तियाँ निकलेंगी। विधांनसभा चुनाव होने में एक साल बाकी था। मुझे लगता था कि पिताजी चाहते होंगे कि तब तक मैं किसी प्राइवेट स्कूल में पढ़ा लूं लेकिन उन्होंने ऐसा कभी कहा नहीं था। माँ को अख़बार पढ़ना बहुत अच्छा लगता था लेकिन हमने घर में अख़बार नहीं लगवा रखा था। पिताजी कभी कभी स्कूल से पिछले दिन का अख़बार उठा लाते थे। उस शाम हम सब को बहुत अच्छा लगता था। हालांकि पिताजी के स्कूल में ‘राजस्थान पत्रिका’ आती थी और माँ को ‘भास्कर’ ज़्यादा पसंद था।
किसी किसी इतवार को मैं सुबह घूमकर लौटते हुए अड्डे से ‘भास्कर’ भी खरीद लाता था। बाकी दिन का डेढ़ रुपए का और शनिवार, इतवार का ढ़ाई रुपए का आता था। उन दो दिन साथ में चिकने कागज़ वाले चार रंगीन पन्ने होते थे।
माँ कभी कभी बहुत बोलती थी और कभी कभी बहुत चुप रहती थी। स्कूल के टाइम को छोड़कर माँ हमेशा घर में होती थी इसलिए घर में रहो तो माँ के होने का ध्यान नहीं रहता था। बाहर जाकर माँ की बहुत याद आती थी। मैं सोचता था कि आज घर लौटकर उसे बताऊँगा कि तेरी याद आई, लेकिन घर आने पर फिर उसके होने का ध्यान चला जाता था। रागिनी कहीं नहीं होती थी इसलिए उसकी याद दिन भर आती थी। मुझे लगता था कि वह भी घर में रहने लगती तो चार छ: महीने बाद उसकी याद भी बाहर आती और घर में उसे भूल जाया करता।
पिताजी बोर्ड की परीक्षा की खूब सारी कॉपियाँ मँगवाते थे। हर उत्तरपुस्तिका को जाँचने के दो रुपए मिलते थे। मई और जून में मैं, माँ और लता उनके साथ मिलकर पूरी दोपहर कॉपियाँ जाँचते थे। किसी किसी कॉपी में सिर्फ़ एक पत्र मिलता था जो जाँचने वाले अज्ञात गुरुजी के नाम होता था। अक्सर वह गाँव की किसी तथाकथित लड़की द्वारा लिखा गया होता था जो घरेलू कामों में फँसी रहने के कारण ठीक से पढ़ाई नहीं कर पाई होती थी और जिसकी सगाई का सारा दारोमदार उसके दसवीं पास कर लेने पर ही होता था। आखिर में आदरणीय गुरुजी के पैर पकड़कर निवेदन किया गया होता था और कभी कभी दक्षिणास्वरूप पचास या सौ का नोट भी आलपिन से जोड़कर रखा होता था। माँ उन रुपयों को मंदिर में चढ़ा आती थी। मैं और लता ऐसी कॉपियों पर बहुत हँसते थे। पिताजी ऐसी पूरी खाली उत्तरपुस्तिकाओं में किसी पन्ने पर गोला मारकर अन्दर सत्रह लिख देते थे।
रागिनी एक दिन लाल किनारी वाली साड़ी में बाज़ार में दिखी थी। वह कार से उतरी थी। कार में उसका पति बैठा होगा। मैं काले शीशों के कारण उसे नहीं देख पाया। रागिनी ने मुझे देखा और उसकी नज़र एक क्षण के लिए भी मुझ पर नहीं ठहरी। ऐसा करने के लिए मानसिक रूप से बहुत मजबूत होने की आवश्यकता थी। मैं ऐसा कभी नहीं हो सकता था। फिर वह सुनार की दुकान में घुस गई। कार का नम्बर ज़ीरो ज़ीरो ज़ीरो चार था। मुझे बहुत दुख होता था। मुझे दुख का शौक हो गया लगता था। मैं भिंडी खरीद रहा था जिसका भाव सोलह रुपए किलो था। वह सोना खरीद रही थी जिसका भाव मुझे नहीं मालूम था। उसे भी भिंडी का भाव नहीं मालूम होगा। मैंने तराजू में से दो तीन खराब भिंडी छाँटकर अलग की और आधा किलो के सात रुपए दिए। सब्जी वाला बहुत मोटा आदमी था और उसकी एक आँख नहीं खुलती थी। वह हँसता भी नहीं था। रागिनी तुरंत ही बाहर निकल आई। शायद लॉकेट वगैरह बनना दिया होगा जो बना नहीं होगा। इस बार उसने मेरी ओर नहीं देखा। कार का दरवाजा खुला। ड्राइविंग सीट पर एक पीली टी शर्ट वाला आदमी दिखा। रागिनी उसकी बगल में ही बैठ गई थी। फिर उसने ऊपर लगा शीशा कुछ ठीक किया और दरवाजा बन्द कर लिया।
उस रात मुझे कई सपने दिखे। एक में मैं जादूगर था। मैं लड़की को बीच में से आधा काटने वाला जादू दिखाने ही वाला था कि लड़की मेरे हाथ से माइक छीनकर मेरे जादू की असलियत दर्शकों को बताने लगी। दर्शक एक एक करके उठकर चले गए और पूरा हॉल खाली हो गया। फिर वह लड़की जोर से हँसी। फिर उस लड़की में मुझे रागिनी का चेहरा दिखा, फिर कुछ देर बाद माँ का, फिर कुछ देर बाद लता का। दूसरे सपने में मैं ट्रक ड्राइवर था। मेरी एक आठ नौ साल की बेटी थी। मैं रोज रात को देर से घर आता था। तब तक मेरी बेटी सो जाती थी। सुबह उसके उठने से पहले मैं निकल जाता था। कई बार बहुत दिन में घर आना होता था। बहुत दिन का सपना एक ही रात में एक साथ दिख गया था। मैं दिन भर बहुत गालियाँ देता था और बहुत गालियाँ खाता था। मेरा रोने का मन होता था तो हाइवे पर किसी ढाबे वाले को कहकर लड़की का इंतज़ाम करवा लेता था। लड़की हर दुख की दवा थी। मुझे मेरी बेटी की भी बहुत याद आती थी। उसकी आवाज सुने हफ़्तों बीत जाते थे। एक ही सपने में हफ़्ते भी दिख गए थे। एक दिन मैं घर लौटा तो मेरी पत्नी ने मुझे एक कागज़ दिया जो रात को सोने से पहले मेरी बेटी ने उसे मेरे लिए दिया था। टूटी फूटी लिखाई में दो लाइनें लिखी थीं। नदी किनारे बुलबुल बैठी, दाना चुगदी छल्ली दा। पापा जल्दी घर आ जाओ, जी नहीं लगदा कल्ली दा।
फिर मैं बहुत रोया और जग गया। सच में रागिनी की बहुत याद आती थी। सोने का भाव दस हज़ार के आस पास कुछ था।

(कहानी का शेष भाग अगले हफ्ते)

गौरव सोलंकी

Monday, July 13, 2009

मुसलमानों पर बहस ज़रूरी है....

अब तक आपने पढ़ा...
मुसलमानों पर बहस ज़रूरी है-1

मीडिया संस्थानों की मांग


सम्मेलन में एक वक्ता की अपने(माने मुस्लिम) मीडिया संस्थानों की मांग चौंकाने वाली थी... देश की हर संवेदनशील खबर से वर्तमान मीडिया संस्थानों का सीधा सरोकार है.. ऐसे में कोई खबर हिन्दू या मुसलमान नहीं बल्कि सिर्फ खबर है और देश के मीडिया संस्थानों में मुस्लिम समुदाय की अच्छी-खासी भागीदारी है..... अब सवाल ये है कि कौन सा ऐसा काम है जो वर्तमान मुस्लिम मीडियाकर्मी नहीं कर पा रहे हैं....और ऐसा भी नहीं है कि मुस्लिम समुदाय से पूरी तरह से संबंधित चैनल आये नहीं, लेकिन टीआरपी के खेल में उलझ कर वह गायब हो गए..ऐसे में अपनी बात रखने का सशक्त माध्यम आप मुस्लिम मीडिया संस्थानों को कैसे कह सकते हैं...क्या तय है आपके इस माध्यम को दर्शक के रूप में अन्य लोग स्वीकार करेंगे..सवाल कई हैं...क्या कभी किसी धार्मिक चैनल को वो टीआरपी मिली जो एक न्यूज़ चैनेल को मिलती है.....आज मुसलमानों को अपनी बात रखने के लिए किसी न्यूज़ चैनल का मुंह नहीं ताकना है.....इस तरह की बातें शब्दों के अभाव में मात्र छलावा हैं....आज ज़रुरत ये है कि अपना मुंह खुद खोला जाये, अपनी बात खुद रखी जाये और ये काम हर आम आदमी का है....फिर कोई वजह नहीं कि देश की दूसरी बड़ी आबादी की बात नकारी जाये

मुस्लिमो की शैक्षणिक तथा सामाजिक समस्याएँ और बरेली सम्मेलन


बरेली सम्मेलन में एक बात जो जोर-शोर से उठी, वो थी शिक्षा का गिरता स्तर...वक्ताओं ने इस मुद्दे पर फिक्रमंदी ज़ाहिर की और ख़ास तौर पर औरतों की शिक्षा पर जोर दिया गया.....तालीम के लिए बेदारी एक सुखद अनुभूति है....वह भी तब, जब ये आवाज़ मुस्लिम नवयुवकों के बीच से उठी हो..... लेकिन यहीं देखने की बात ये है कि मुस्लिमो कि तालीमी परेशानियाँ किस तरह की हैं... आज मुस्लिम समुदाय का एक बड़ा तबका तालीम के लिए मुस्लिम मदरसों पर निर्भर करता है....और हो भी क्यूं न....वहां भले ही कॉन्वेंट स्कूल जैसा तालीमी माहौल नहीं है, लेकिन मुस्लिमो को तालीम जारी रखने के लिए बाकी सहूलते हैं.... और सच पूछा जाये तो मुसलमानों कि बड़ी तादाद मदरसों में पढने को मजबूर है.... मुस्लिम तुष्टिकरण के नाम पर सरकारों ने मदरसों को वित्तीय सहायता का एलान तो किया, लेकिन वहां दी जाने वाली शिक्षा के प्रति संसाधनों पर ध्यान नहीं दिया.....क्या ज़रूरी नहीं कि मदरसे भी कंप्यूटर एजूकेशन, तथा अंग्रेजी से लैस हों.... इस मामले में जामिया सुफिया यूनिवर्सटी एक बेहतरीन उदाहरण है, जहाँ इल्मे-दीन के साथ-साथ छात्र कम्प्यूटर, इंग्लिश, तथा संस्कृत जैसी भाषाओं के साथ अपनी तालीम पूरी कर रहे हैं....बात यहीं ख़त्म नहीं होती...लड़कियों की तालीम के लिए भी नज़रिए बदलने होंगे....लड़की ख़त पढने लगी भर की संतुष्टि आखिर कब तक ??
सामाजिक स्तर पर चीख-चीख कर खोखली तकरीरों से कुछ होने वाला नहीं है....यह बात ठीक है कि कुछ लोग अपने राजनैतिक लाभ के लिए मुसलमानों को उकसाते हैं लेकिन ऐसे लोगों की संख्या इतनी नहीं कि वो हिन्दुस्तान के प्रति एक सच्चे वतनपरस्त मुसलमान को किसी स्तर पर डिगा सकें..... फिर मुसलमान कुंठा का शिकार क्यूं ? यह देश हमारा है.... इसके ज़र्रे-ज़र्रे में हम हैं...सामाजिक परिवेश में आज भी आम हिन्दू-आम मुसलमान के साथ दिखाई देता है... अवध की तहज़ीब में ऐसी समानताएं प्रायः देखने को मिलती हैं... अवध के ही ग्रामीण इलाकों में मुस्लिमों में बच्चे की पैदाइश से पहले यह गीत गाया जाता है कि अल्लाह मियां अब कि से दीज्यो नंदलाल..... ज़रा महसूस कीजिए कि जहाँ दो संस्कृतियाँ मिल कर एक नयी तहजीब को जन्म दें, वहां अपने ही अस्तित्व पर सवाल महज़ एक अनजान डर प्रतीत होता है......आम मुसलमान को समझना होगा कि उनके प्रति संदेह करने वाले लोगों का अपना मकसद है और जिस दिन हम-आप यह समझ जायेंगे उस दिन मुसलमान बेखौफ होकर क्रिकेट मैच देख सकेगा...

हाशम अब्बास नक़वी 'बज़्मी'
(ये बहस आगे भी जारी रहेगी...आप भी अपने लेखों के साथ इस बहस में आएं...आपका स्वागत है....)

Sunday, July 12, 2009

दिल्ली की हिन्दी अकादमी में उपाध्यक्ष !

हमारे हाजी साहब बहुत काम के आदमी हैं। उनसे किसी भी विषय पर राय ली जा सकती है और वे किसी भी विषय पर टिप्पणी कर सकते हैं। सुबह-सुबह पढ़ा कि दिल्ली की हिन्दी अकादमी का उपाध्यक्ष एक व्यंग्यकार को बनाया गया है, तो उनके पास दौड़ गया। हाजी साहब की एक खूबी और है। कई बार वे मन की बात भांप लेते हैं। उन्होंने ठंडे पानी के गिलास से मेरा स्वागत किया और बोले, ‘बैठो, बैठो। मैं समझ गया कि कौन-सी बात तुम्हें बेचैन कर रही है।’ मैंने आपत्ति की, ‘हाजी साहब, मैं किसी राजनीतिक मामले पर चरचा करने नहीं आया हूं।’ हाजी साहब – ‘हां, हां, मैं भी समझता हूं कि तुम जी-5, जी-8 और जी-14 पर बात करने नहीं आए हो। ये पचड़े मेरी भी समझ में नहीं आते। इस तरह सब अलग-अलग बैठक करेंगे, तो संयुक्त राष्ट्र का क्या होगा? कुछ दिनों के बाद तो वहां कुत्ते भी नहीं भौंकेंगे। लेकिन तुम आए हो राजनीतिक चर्चा के लिए ही, यह मैं दावे के साथ कह सकता हूं।’ मुझे हक्का-बक्का देख कर उन्होंने अपनी बात साफ की, ‘तुम्हें यही बात परेशान कर रही है न कि हिन्दी अकादमी का उपाध्यक्ष पहली बार एक व्यंग्यकार को बनाया गया है!’


मैं विस्फारित नेत्रों से उनकी ओर देखता रह गया। वे बोले जा रहे थे, ‘बेटे, यह मामला पूरी तरह से राजनीतिक है। यह तो तुम्हें पता ही होगा कि दिल्ली की मुख्यमंत्री ही यहां की हिन्दी अकादमी की अध्यक्ष हैं। वे साहित्यकर्मी नहीं, राजनीतिकर्मी हैं। साहित्यकर्मी होतीं, तो इस प्रस्ताव पर ही उनकी हंसी छूट जाती। राजनीतिकर्मी हैं, सो आंख से नहीं, कान से देखती हैं। उनके साहित्यिक सलाहकारों ने कह दिया होगा कि इस समय एक व्यंग्यकार से ज्यादा उपयुक्त कोई अन्य व्यक्ति नहीं हो सकता। मुख्यमंत्री जी ने बिना कुछ पता लगाए, बिना सोचे-समझे ऑर्डर पर हस्ताक्षर कर दिए होंगे। इसमें परेशान होने की बात क्या है? बेटे, दुनिया ऐसे ही चलती है। हमारा राष्ट्रीय मोटो भी तो यही कहता है - सत्यमेव जयते। आज का सत्य राजनीति है। सो राजनीति ही सभी अहम चीजों का फैसला करेगी। वाकई कुछ बदलाव लाना चाहते हो, तो तुम्हें राजनीति ज्वायन कर लेना चाहिए।’


मेरे मुंह का स्वाद खट्टा हो आया। मैंने यह तो सुना था कि साहित्य में राजनीति होती है, पर यह नहीं मालूम था कि राजनीति में भी साहित्य होता है। आजकल राजनीति की मुख्य खूबी यह है कि मेसेज छोड़े जाते हैं और संकेत दिए जाते हैं। हाजी साहब से पूछा, ‘फिर तो आप कहेंगे कि एक शीर्ष व्यंग्यकार के हिन्दी अकादमी का उपाध्यक्ष बनने में भी कुछ संकेत निहित हैं !’ हाजी साहब ने मुसकराते हुए कहा, ‘तुम मूर्ख हो और मूर्ख ही रहोगे। संकेत बहुत स्पष्ट है कि यह व्यंग्य का समय है। पहले दावा किया जाता था कि यह कहानी का समय है, कोई कहता था कि नहीं, कविता का समय अभी गया नहीं है, तो कोई दावा करता था कि उपन्यास का समय लौट आया है। हिन्दी अकादमी का नया चयन बताता है कि यह व्यंग्य का समय है। व्यंग्य से बढ़ कर इस समय कोई और विधा नहीं है।’


मैंने अपना साहित्य ज्ञान बघारने की कोशिश की, ‘हाजी साहब, आप ठीक कहते हैं। आज हर चीज व्यंग्य बन गई है। हिन्दी में तो व्यंग्य की बहार है। कविता में व्यंग्य, कहानी में व्यंग्य, उपन्यास में व्यंग्य, संपादकीय टिप्पणियों में व्यंग्य -- व्यंग्य कहां नहीं है? एक साहित्यिक पत्रिका ने तो अपने एक विशेषांक के लेखकों का परिचय भी व्यंग्यमय बना दिया था। क्या इसी आधार पर आप कहना चाहते हैं कि व्यंग्य इस समय हिन्दी साहित्य की टोपी है -- इसके बिना कोई भी सिर नंगा लगता है। शायद इसीलिए सभी लेखक एक-दूसरे पर व्यंग्य करते रहते हैं। कभी सार्वजनिक रूप से कभी निजी बातचीत में।’


हाजी साहब बोले, ‘तुम कहते हो तो होगा। पर मेरे दिमाग में कुछ और बात थी। हिन्दी में तो दिल्ली शुरू से ही व्यंग्य का विषय रही है। इस समय मुझे दिल्ली पर दिनकर जी की कविता याद आ रही है - वैभव की दीवानी दिल्ली ! / कृषक-मेध की रानी दिल्ली ! / अनाचार, अपमान, व्यंग्य की / चुभती हुई कहानी दिल्ली ! डॉ. लोहिया ने लिखा है कि दिल्ली एक बेवफा शहर है। यह कभी किसी की नहीं हुई। पूरा देश दिल्ली की संवेदनहीनता पर व्यंग्य करता है। लेकिन दिल्ली पहले से ज्यादा पसरती जाती है। हड़पना उसके स्वभाव में है। इसी दिल्ली में कभी हड़पने को ले कर कौरव-पांडव युद्ध हुआ था। इसलिए अगर आज दिल्ली में व्यंग्य को इतना महत्व दिया जा रहा है, तो इसमें हैरत की बात क्या है? तुम भी मस्त रहो और जुगाड़ बैठाते रहो। यहां जुगाड़ बैठाए बिना जीना मुश्किल है।’


मैंने कहा, ‘हाजी साहब, लगता है, आज आपका मूड ठीक नहीं है। मुझ पर ही व्यंग्य करने लगे ! मेरा जुगाड़ होता, तो मैं मुंह बनाए आपके पास क्यों आता?’ हाजी साहब – ‘नहीं, नहीं, मैं तुम्हें अलग से थोड़े ही कुछ कह रहा था। मैं तो तुम्हें युग सत्य की याद दिला रहा था। हर युग का सत्य यही है कि युग सत्य को सभी जानते हैं, पर उसे जबान पर कोई नहीं लाता। अपनी रुसवाई किसे अच्छी लगती है?’


मैंने हाजी साहब का आदाब किया और चलने की ख्वाहिश जाहिर की। हाजी साहब का आखिरी कलाम था – ‘आदमी की फितरत ही ऐसी है। फर्ज करो, तुमसे पूछा जाता कि जनाब, आप हिन्दी अकादमी का उपाध्यक्ष बनेंगे, तो क्या तुम इनकार कर देते? क्या तुम यह कहने की हिम्मत दिखाते कि ‘मुआफ कीजिए, दिल्ली में बड़े बड़े काबिल लोग बैठे हैं। मैं तो उनके पांवों की धूल हूं। मुझसे पहले उनका हक है।’ आती हुई चीज को कोई नहीं छोड़ता। यहां तो लोग तो जाती हुई चीज को भी बांहों में जकड़ कर बैठ जाते हैं। और जब आना-जाना किसी नियम से न होता हो, तो अक्लमंदी इसी में है कि हवा में तैरती हुई चीज को लपक कर पकड़ लिया जाए। सागर उसी का है जो उठा ले बढ़ाके हाथ।’

राजकिशोर

Saturday, July 11, 2009

धुँआ होती जिन्दगी...



नशा कोई भी हो, हर हाल में नुकसानदेह है. लेकिन सिगरेट पीना एक ऐसा नशा हैं जो पीने वालों के साथ-साथ ना पीने वालों को भी अपना शिकार बनाता है. सिगरेट से निकलता धुआँ सैकड़ों लोगों की जिन्दगियों में अँधेरा कर देता है. टी.बी, फेफडों का कैंसर, मुँह का कैंसर आदि बीमारियाँ तथा प्रजनन क्षमता में कमी जैसे भयानक परिणाम सामने आते हैं. किन्तु आज समाज में "हर फिक्र को धुँए में उड़ाने" की प्रवृति जन्म ले चुकी है. सिगरेट पर रोक लगाने के लिये कई कानून भी बनाये गये हैं, जिसके तहत सार्वजनिक स्थानों में सिगरेट पीना कानूनन अपराध है. ऐसा करने पर जुर्माना तथा सजा हो सकती है. लोगों को जागरूक करने के लिए सिगरेट के पैकेट पर बड़े-बड़े अक्षरों तथा चित्रों में चेतावनी दिये जाने का कानून बना है. यहाँ तक की अट्ठारह साल से कम उम्र के लोगों को सिगरेट न बेचना तथा स्कूल/कालेजों से सौ ग़ज की दूरी तक सिगरेट की कोइ भी दुकान न होना कानून लागू किया गया है.

लेकिन सोचने वाली बात यह है कि क्या केवल कानून बनाना देना ही इस समस्या का हल है. कानून तो पहले भी बने थे उनका नतीजा क्या निकला, कुछ नहीं. जब तक कानून को पूरी इमानदारी से लागू ना किया जाए, हल निकल भी कैसे सकता है. आप अपने आस-पास कितने ही उदाहरण देख सकते हैं जहाँ स्वयं पुलिस वाले ही कानून की धज्जियां उड़ाते हुए मिल जायेगें. बसों में लिखा होता है कि "धूम्रपान निषेध है" लेकिन वहाँ कंडक्टर और ड्राइवर ही सिगरेट पीते मिल जायेगें तो वो दूसरों से क्या कहेगें ?

खै़र यहाँ मेरा मक़सद कानून को कोसना नहीं है वरन लापरवाहियों की तरफ ध्यान दिलाना था. अगर सरकार सही में सिगरेट मुक्त वातावरण चाहती है तो उसे समय-समय पर नशा मुक्त कैम्प लगाने चाहिये और लोगों को नशे से मुक्त होने में मदद करनी चाहिये.

दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'

Friday, July 10, 2009

होरी कहे पुकार के.....

होरी कहे पुकार के

हे रे होरी, हे रे गोबर, हे री धनिया , हे रे दमड़ी बसोर, हे रे हरखू, हे री सिलिया,हे रे हीरा, ओ री रूपा, ओ रे रामसेवक, ओ रे शोभा, हां री सोना, ओ री पुनिया, ओ री गोविंदी, ओ री झुनिया, आओ रे , चलो देश में लाकतंत्र आ गया है। आओ रिश्वत खाएं। छोड़ो रे तिल तिल कर मरना, कुछ खाने को नहीं मिल रहा है तो कोनो चिंता। सरकार बहादुर ने सब के लिए रिश्वत खाने के द्वार समान रूप से खोल दिये हैं। का हुआ जो राशन की दुकान पर से आटा गायब हुई गवा है। का हुआ जो राशन की दुकान पर से चावल गायब हुई गवा है। रिश्वत खाने के अवसर तो सरकार सड़क से संसद तक सभी को बराबर दे रही है। छोड़ो खेतों में काम करना, छोड़ो गऊदान के लिए तिल तिल मरना। चलो छोड़ो सब काम और पेट पर हाथ फेर फेर कर रिश्वत खाओ। देखते ही देखते मोटे हो जाओ। सब देश में रिश्वत खा रहे हैं। सबने आटा खाना छोड़ दिया है। सबने सब्जी खानी छोड़ दी है।

`पर साहब हम तो जन्मजात अनपढ़ हैं। हम तो जन्मजात शोषित हैं। मातादीन आज भी हमें लूट रहा है। दातादीन आज भी हमें लूट रहा है। झिंगुरी सिंह आज भी हमारा तेल निकाल रहा है। पटवारी को अगर मेरे माई बाप हम आज भी नजराना और दस्तूरी न दें तो गांव में तो गांव में, खेत में जाना मुश्किल हो जाए। आज भी जो गांव के प्रधान और उसके कारिंदों के पेट न भरें तो राशन कार्ड कैंसिल हो जाए। बी पी एल में तो लाला लोगन का ही हक है। पुलिसवाले तो आज भी हमारे दामाद हैं। जब जब गांव में उनका खाने को मन करे बिन सूचना दिए सांड की तरह आ धमकते हैं और तब धर्म निरपेक्ष देश में हमारा धर्म हो जाता है कि हम सबकुछ छोड़ उनका आदर सत्कार करें। उन्हें नजर नयाज दें। नहीं गांव में हरेक की मां बहन हो जाए। गांव में कुत्ते कम आते हैं मुलाजिम अधिक । हम तो आज भी उनके सामने हाथ बांधे खड़े रहते हैं। अपने पशुओं के लिए चारे का इंतजाम हो या न हो उनके लिए सारे काम छोड़ चारे, अंडे ,मुर्गी दूध,घी का इंतजाम करना पड़ता है। आज भी हमें रोटी खाने की आदत नहीं तो रिश्वत कैसे खांए?´ सबने सिसकते हुए हाथ जोड़ते कहा। धत्त तेरे की ! मैंने भी कैसे भूखे नंगों को रिश्वत खाने के लिए आमंत्रित कर अपनी नाक कटवा ली। सोचा था, ये भी जो सदियों से गंगा की केवल धाराएं गिनते गंगा किनारे बैठे हैं, थोड़ा बहती गंगा में हाथ धो लें। समाजवादी हूं न! सोचता हूं देश के अन्य संसाधनों की तरह रिश्वत पर भी सभी का समान रूप से हक हो। सोचता हूं देश में सब अधिकार सबको समान रूप से मिलें।

`अनपढ़ हो तो क्या हुआ! जन्मजात शोषित हुए तो क्या हुआ। अब देश आजाद हो गया है। अनपढ़ को क्या रिश्वत खाते हुए शर्म आती है? शोषित को क्या रिश्वत खाते हुए शर्म आती है? अनपढ़ को क्या रिश्वत खाते हुए पेट में दर्द होती है? शोषित का क्या आजाद देश में रिश्वत खाते हुए पेट में दर्द होती है? अनपढ़ के क्या पेट नहीं होता? शोषित को क्या पेट नहीं होता? अनपढ़ का क्या हराम का खाने को मन नहीं करता? शोषित का क्या हराम का खाने का मन नहीं करता? जिनमें दिमाग है जब उनको ही रिश्वत खाते हुए शर्म नहीं आती तो अनपढ़ में जब दिमाग ही नहीं होता तो उसे तो कम से कम रिश्वत खाते हुए शर्म नहीं आनी चाहिए। देखो, रिश्वत खाने वाले कैसे धड़ा धड़ पुरस्कृत हो रहे हैं। रायसाहब की तरह हवेलियों पर हवेलियां बनाए जा रहे हैं।´

`पर हम रिश्वत कैसे खाएं? हम तो तंत्र से बाहर हैं।´

`तो तंत्र में आओ।´

`कैसे??´

`किसी लीडर को पटाओ। चुनाव के दिनों में उसके पोस्टर चिपकाओ। उसके लिए जान हथेली पर रख वोट जुटाओ। फिर तंत्र में कुछ भी हो जाओ।´

` तो क्या हम राय साहब हो जाएंगे? तो क्या हम पंडित दातदीन हो जाएंगे? तो क्या हम थानेदार साहेब हो जाएंगे? तो क्या हम कानिसिटिबल हो जाएंगे? तो क्या हम कानूनगो हो जाएंगे? तो क्या हम डिप्टी हो जाएंगे? तो क्या हम कमिसनर हो जाएंगे? तो क्या हम कलक्टर हो जाएंगे? तो क्या हम डाक्टर हो जाएंगे? तो क्या हम इंजिनियर हो जाएंगे? तो क्या हम नहर वाले साहब हो जाएंगे? तो क्या हम जंगल वाले साहब हो जाएंगे? तो क्या हम ताड़ी- सराब वाले साहब हो जाएंगे? तो क्या हम गांव सुधार वाले साहब हो जाएंगे? तो क्या हम खेती वाले साहब हो जाएंगे? तो क्या हम पादड़ी हो जाएंगे? तो क्या हम जमींदार हो जाएंगे?´

`इस सबके लिए तो पढ़ा लिखा होना जरूरी होता है। तभी तो सरकार कहती है पढ़ो और पढ़कर देश का बेड़ा गर्क करो।´

` तो??´ सबको सांप सूंघ गया,` तो रिश्वत कैसे खाएं?´

` लीडर से कहो तुम्हें चेयरमैन बना दे। नेता से कहो तुम्हें मंत्री बना दे।´

`इस सबके लिए अनपढ़ चलेगा क्या?´

` चलेगा क्या, दौड़ेगा। सरपट । खरगोश की तरह। देश का वोटर पढ़ा लिखा होना चाहिए पर नेता नहीं। ´ मैंने कहा तो होरी ने सबको बला बुला कुलांचे भरते हुए कहा,` `हे रे काली, हे रे जीतू, हे रे मंगू, हे रे नंदसिंह, हे री प्रीतो, हे रे चौधरी कंता, हे रे चौधरी बसंता हे रे गोबर, हे री धनिया , हे रे दमड़ी बसोर, हे रे हरखू, हे री सीलिया,हे रे हीरा, ओ री रूपा, ओ रे रामसेवक, ओ रे शोभा, हां री सोना, ओ री पुनिया, ओ री गोविंदी, ओ री झुनिया, आओ रे , चलो देश में लाकतंत्र आ गया है। पर भैया! हम काहे रिश्वत खाएं? लोक तो बिगड़ा ही ,परलोक भी बिगाड़ें क्या?? जारी रखो रे तिल तिल कर मरना, कुछ खाने को नहीं मिल रहा है तो कोनो चिंता। लेओ भैया! सरकार बहादुर ने सब के लिए रिश्वत खाने के द्वार समान रूप से खोल दिये हैं। फुकने दो जो राशन की दुकान पर से आटा गायब हुई गवा है। फुकने दो जो राशन की दुकान पर से चावल गायब हुई गवा है। पर लेओ रिश्वत खाने के अवसर तो सरकार सड़क से संसद तक सभी को बराबर दे रही है। पर हम तो मजूरी ही करें। चलो भूखो ही मरें। ईमानदारी से ही पेट पालें। रिश्वत खाने वालों का नहीं रे! देश अपना है ,धरती अपनी है। सब तो देश में रिश्वत खा रहे हैं। पर आओ रिश्वत न खाकर हम देश के विकास में हाथ बंटावें, हम तो बच न सके, पर चलो मिलीके देश बचावें।´

डॉ. अशोक गौतम

गौतम निवास,अप्पर सेरी रोड
नजदीक मेन वाटर टैंक, सोलन-173212 हि.प्र.

Thursday, July 09, 2009

प्रणब दा चले गांव की ओर लेकिन.......



देश की अधिकांश जनता गांवों में बसती है और ऐसा प्रतीत होता है कि यूपीए सरकार ने अपनी दूसरी पारी में पहला बजट पूरी तरह से ग्रामीण जनता को समर्पित कर दिया है क्योंकि इसमें ग्रामीण क्षेत्रों के लिए जारी लगभग सभी योजनाओं के लिए आंबटन में बढ़ोतरी की है।
श्री प्रणब मुखर्जी ने कहा कि कृषि हमारी अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार रहा है। हमारी 60 प्रतिशत जनसंख्या इससे अपना आहार प्राप्त करती है। उन्होंने कहा कि 2008-09 में कृषि ऋण प्रवाह 2,87,000 करोड़ रुपए था जबकि 2009-10 के लिए लक्ष्य 3,25,000 करोड़ रुपए तय किया गया है। किसानों को ऋण 7 प्रतिशत की दर से दिया जाएगा और जो किसान अपने अल्पावधि ऋण का भुगतान समय पर कर देंगे, उन्हें एक प्रतिशत की दर से सहायता देगी।
वित्त मंत्री ने ग्रामीण जनता को लाभ पहुंचाने के लिए अपनी थैली खोल दी है।
उन्होंने कहा कि 2009-01 में राष्ट्रीय ग्रामीण मिशन के लिए 2057 करोड़ रुपए की वृद्वि की जाएगी। अंतरिम बजट में इस मद में 12,070 करोड़ रुपए का प्रावधान था। उन्होंने कहा कि इस योजना को गत वर्ष ही लागू किया गया है और इसके परिणाम अच्छे मिल रहे हैं।

अंतर
ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच अंतर को कम करने के लिए वित्त मंत्री ने भारत निर्माण योजना के बजट में गत वर्ष की तुलना में 45 प्रतिशत अधिक आबंटन किया है। राजीव गांधी ग्रामीण विद्युत्तीकरण योजना के तहत 7,000 करोड़ रुपए का प्रस्ताव है। यह गत वर्ष के बजट अनुमानों की तुलना में 27 प्रतिशत अधिक है। प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत भी आबंटन की राशि बढ़ाई गई है।
ग्रामीण आवास निर्माण में गति लाने के लिए भी सरकार विशेष प्रयास कर रही है।
राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (नरेगा) के लिए सरकार ने आबंटन में जोरदार वृद्वि की है। वर्ष 2009-10 के लिए सरकार ने 39,100 करोड़ रुपए का आबंटन किया है जो गत वर्ष के बजट अनुमानों की तुलना में 144 प्रतिशत अधिक है। यह योजना 2006 में आरंभ की गई थी और इसे भारी सफलता मिली है।

आदर्श ग्राम
श्री मुखर्जी के अनुसार इस समय देश में लगभग 44,000 ऐसे गांव हैं जिनमें अनुसूचित जातियों की जनसंख्या 50 प्रतिशत से अधिक है। इन ग्रामों के विकास के लिए प्रधान मंत्री आदर्श योजना नामक एक नई योजना आरंभ की जा रही है।

अच्छी बात?
यह एक अच्छी बात है कि सरकार ने ग्रामीण विकास की ओर अधिक ध्यान दिया है और ऐसा करना भी चाहिए क्योंकि भारत एक कृषि प्रधान देश है।
लेकिन क्या यह पूरी राशि ग्रामीण जनता तक पहुंच पाएगी। उल्लेखनीय है कि एक बार स्वर्गीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया था कि सरकार जो फंड ग्रामीण जनता के लिए आबंटित करती है उसमें से लगभग 15 पैसे ही पहुंच पाते हैं। बाकी रकम कहां जाती है यह किसी से छुपा नहीं है।
कुछ समय पूर्व यही बात उनके सुपुत्र और युवा नेता श्री राहुल गांधी ने भी कही थी।
ऐसे में प्रश्न फिर यही उठता है कि इस बात की क्या गारंटी है कि यह पूरी रकम जनता तक पहुंच पाएगी। बेहतर होता कि प्रणब दा इस बात की भी कोई ठोस व्यवस्था करते।

--राजेश शर्मा

Wednesday, July 08, 2009

हम ख़बर हैं, बाक़ी सारा भ्रम है...



मुर्गी ने आदमी के बच्चे को जन्म दिया है। सुनने में आपको थोड़ा अटपटा ज़रूर लगेगा, लेकिन ये ख़बर आई है मध्य-प्रदेश के रायसेन शहर से। एक टीवी चैनल पर ये ख़बर चलने के बाद दूसरे चैनलों के पत्रकार भी इसे कवर करने दौड़ पड़े। बिना ये जांच-पड़ताल किये, कि क्या एक मुर्गी भी इंसान के बच्चे को जन्म दे सकती है। मज़े की बात ये है कि इस पर किसी ने अपना दिमाग लगाने की ज़रूरत भी नहीं समझी। मामला मध्य प्रदेश में रायसेन के एक गांव बाड़ीकला का है। जहां से ख़बर आई कि यहां रहने वाले पतिराम नाम के शख्स के घर मुर्गी ने एक इंसान के बच्चे को जन्म दिया है। इस ख़बर के आने के बाद मीडिया वाले दौड़ पड़े। लेकिन डॉक्टरों के साथ ही आम लोगों का दिमाग भी चकरा गया। हर कोई ये सोच रहा था कि ऐसा भला कैसे हो सकता है। मेरे चैनल में भी ये ख़बर आई, तो मैं भी इसे सुनकर चौंक गया। पहले तो ख़बर की आपा-धापी में यकीन ही नहीं हुआ। लेकिन जब इसकी तस्वीरें देखीं, तो माजरा समझते देर नहीं लगी। मुर्गी के साथ एक इंसान का चार इंच का भ्रूण दिख रहा था। जिसको लेकर ये दावा किया जा रहा था कि इंसान के इस बच्चे को मुर्गी ने ही जन्म दिया है। लेकिन मुर्गी को देखकर तरस आ रहा था, बेचारी अपने हाल पर बेबस थी, कैमरे की निगाहों के साथ ही उसे ज़माने की नज़रों का सामना भी करना पड़ रहा था। बेज़ुबान परेशान थी, अपनी सफ़ाई में क्या कहे, किससे कहे और कैसे कहे। कैसे लोगों को बताए कि इसमें उसका कोई कसूर नहीं है, बल्कि इसका पापी तो कोई और है, जो अपने गुनाहों पर पर्दा ढकने के लिए मेरे दड़बे में इस भ्रूण को रखकर चला गया है। लेकिन जैसे लोग नासमझ थे, वैसे ही मुर्गी भी लाचार थी। उसका मासूम चेहरा देखकर उस बेचारी पर तरस आ रहा था। जो ख़ता उसने की ही नहीं उसका इल्ज़ाम उसके मत्थे मढ़ दिया गया था। और तो और उसका मालिक भी इस ख़बर को कैश कराने में लगा था। मुर्गी बेचारी के हर एंगल से शॉट्स बनाए जा रहे थे। वो तो बस नहीं चला, अगर मुर्गी बोल पाती, तो शायद उससे तमाम तरह के बेतुके सवाल भी पूछ लिए होते। हो सकता है कोई ये भी पूछ लेता, कि इस बच्चे का बाप कौन है? डॉक्टर भी बेचारे बोल-बोलकर परेशान थे, कि कुदरत के नियम में इस तरह का कोई खिलवाड़ नहीं हो सकता। भला मुर्गी भी कहीं इंसान के बच्चे को जन्म दे सकती है। लेकिन सुनने को कोई तैयार ही नहीं था। ये किस्सा बिल्कुल ऐसा ही था, जैसे हमने जर्नलिज्म में पढ़ा था कि अगर कुत्ता आदमी को काटे तो ख़बर नहीं है, लेकिन अगर आदमी कुत्ते को काटे तो ख़बर बन जाती है।

अबयज़ खान

Tuesday, July 07, 2009

ब्लू फिल्म

गौरव सोलंकी हिंदयुग्म का एक बड़ा नाम है....लगभग दो साल के हमारे रिश्ते में वो मुझसे उम्र की कई सीढियां आगे चढ़ गए हैं....हिंदयुग्म के कई सुख-दुख हमने साझा किए....आजकल उन्हें महान बनने की ज़िद है....सो, ब्लॉगिंग में वक्त ज़ाया नहीं करते...सिर्फ कहानियां लिखते हैं.....कहानियां ऐसी जैसे किसी कविता को हर सिरे से खींचकर लंबा कर दें और कहानी बन जाए....चूंकि, उनसे ज़रा पर्सनल ताल्लुक भी है, तो कह सकता हूं कि ज़िंदगी के दिनों को भी फिलहाल किसी नज़्म की तरह पढ़ रहे हैं जो उनकी समझ से बाहर हो...बैठक पर अब इस लंबी कहानी के ज़रिए कुछ हफ्तों तक नज़र आते रहेंगे...क्या पता, तब तक महान ही बन जाएं.... इत्तेफाक से आज गौरव का जन्मदिन भी है.....

भाग-1

भूखी गाली, भूखा घूंसा, भूखा सपना.....

जिस तरह ज़रूरी नहीं कि चाट पकौड़ियों की सब कहानियाँ करण-जौहरीय अंदाज़ में चाँदनी चौक की गलियों से ही शुरु की जाएँ या बच्चों की सब कहानियाँ ‘एक बार की बात है’ से ही शुरु की जाएँ या गरीबी की सब कहानियाँ किसानों से ही शुरु की जाएँ या कबूतरों की सब कहानियाँ प्रेम-पत्रों से ही शुरु की जाएँ, उसी तरह ज़रूरी नहीं कि सच्चे प्रेम की सब कहानियाँ सच से ही शुरु की जाएँ। इसीलिए मैंने रागिनी से झूठ बोला कि वही पहली लड़की है, जिससे मुझे प्यार हुआ है। ऐसा कहने से तुरंत पहले वह अपने विश्वासघाती प्रेमी की कहानी सुनाते सुनाते रो पड़ी थी। “तुम रोते हुए बहुत सुन्दर लगती हो”, यह कहने से मैंने अपने आपको किसी तरह रोक लिया था। फिर मैंने उसके लिए एक लैमन टी मँगवाई थी। मैंने सुन रखा था कि लड़कियों को खटाई पसन्द होती है, खाने में भी और रिश्तों में भी।
उसे कोई मिनर्वा टाकीज पसन्द था। मुझे बिल्कुल भी अंदाज़ा नहीं था कि यह इमारत दुनिया के किस कोने में है। वह देर तक उसके साथ वहाँ बिताए हुए ख़ूबसूरत लम्हे मुझे सुनाती रही। बीच में और एकाध बार मैंने दोहराया कि वही पहली लड़की है, जिससे मुझे प्यार हुआ है। मेरी आँखें उसकी गर्दन के आसपास कहीं रहीं, उसकी आँखें हवा में कहीं थीं। मैंने सुन रखा था कि लड़कियों के दिल का रास्ता उनकी गर्दन के थोड़ा नीचे से शुरु होता है। मैं उसी रास्ते पर चलना चाहता था। वैसे शायद सबके दिल का रास्ता एक ही जगह से शुरु होता होगा। सबका दिल भी एक ही जगह पर होता होगा। मैंने कभी किसी का दिल नहीं देखा था, लेकिन मैं फिर भी इस बात पर सौ प्रतिशत विश्वास करता था कि दिल सीने के अन्दर ही है। हम सब को इसी तरह आँखें मूँद कर विश्वास करना सिखाया गया था। हम सब मानते थे कि जो टीवी में दिखता है, अमेरिका सच में वैसा ही एक देश है। यह भी हो सकता है कि अमेरिका कहीं हो ही न और किसी फ़िल्म की शूटिंग के लिए कोई बड़ा सैट तैयार किया गया हो, जिसे अलग अलग एंगल से बार बार हमें दिखाया जाता रहा हो। जो लोग अमेरिका का कहकर यहाँ से जाते हों, उन्हें और कहीं ले जाकर कह दिया जाता हो कि यही अमेरिका है और फिर इस तरह एमिरलैंड अमेरिका बन गया हो। क्या ऐसा कोई वीडियो या तस्वीर दुनिया में है, जिसमें किसी देश के बाहर ‘अमेरिका’ का बोर्ड लगा दिखा हो? लेकिन टीवी में देखकर विश्वास कर लेना हमारी नसों में इतने गहरे तक पैठ गया था कि कुछ लोग अमेरिका न जा पाने के सदमे पर आत्महत्या भी कर लेते थे। ऐसे ही कुछ लोग प्रेम न मिलने पर भी मर जाते थे, चाहे प्रेम सिर्फ़ एक झूठी अवधारणा ही हो।
लेकिन डॉक्टर समझदार थे। कभी किसी पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में नहीं लिखा गया कि अमुक व्यक्ति प्यार की कमी से मर गया। यदि दुनिया भर की आज तक की सब पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट देखी जाएँ तो यही निष्कर्ष निकलेगा कि दुनिया में हमेशा प्यार बहुतायत में रहा। लोग सिर्फ़ कैंसर, पीलिया, हृदयाघात और प्लेग से मरे।
वह एक पुराना शहर था जिसे अपने पुराने होने से उतना ही लगाव था जितना वहाँ की लड़कियों को अपने पुराने प्रेमियों से। रागिनी ने मुझे समझाया कि लड़के कभी प्यार को नहीं समझ सकते। मैंने सहमति में गर्दन हिलाई। गर्दन के थोड़ा नीचे मेरे दिल तक जाने वाला रास्ता भी उसके साथ हिला। फिर हम एक मन्दिर में गए, जिसके दरवाजे पर कुछ भूखे बच्चे बैठे हुए थे। अन्दर एक आलीशान हॉल में सजी सँवरी श्रीकृष्ण की मूर्ति के सामने वह सिर झुकाए कुछ बुदबुदाती रही। मैं इधर उधर देखता रहा। जब हम लौटे तो भूखे बच्चे भूखे ही बैठे थे। उनमें से एक ने दूसरे को एक भूखी गाली दी, जिस पर भड़ककर दूसरे ने पहले के पेट पर एक भूखा घूंसा मारा। और बच्चे भी लड़ाई में आ मिले। वहाँ भूखा झगड़ा होता रहा। अपने में खोई रागिनी ने यह सब नहीं देखा। मैंने जब उसे यह बताया तो उसने कहा कि भूख बहुत घिनौना सा शब्द है और कम से कम मन्दिर के सामने तो मुझे मर्यादित भाषा का प्रयोग करना चाहिए। यह सुनकर मेरा एक भूखा सपना रोया। मैं हँस दिया।
वहीं पास में एक सफेद पानी की नदी थी जो दूध की नदी जैसी लगती थी। सर्दियों की रातों में जब उसका पानी जमने के नज़दीक पहुँचता होगा तो वह दही की नदी जैसी बन जाती होगी। उस नदी के ऊपर एक लकड़ी का पुल था जिस पर खड़े होकर लोग रिश्ते तोड़ते थे और दो अलग-अलग दिशाओं में मुड़ जाते थे। उस पुल का नाम रामनाथ पुल था। मुझे लगता था कि रामनाथ बहुत टूटा हुआ आदमी रहा होगा।
हम उस पुल के बिल्कुल बीच में थे कि एकाएक रागिनी रुककर खड़ी हो गई। रिश्ते टूटने वाला डर मुझे चीरता हुआ निकल गया। वह पुल के किनारे की रेलिंग पर झुकी हुई थी। फिर उसने कुछ पानी में फेंका, जो मुझे दिखा नहीं।
मैंने कहा- रागिनी, तुम ही दुनिया की एकमात्र ऐसी लड़की हो, जिससे प्यार किया जा सकता है।
वह गर्व से मुस्कुराई। वह मुस्कुराई तो मुझे अपने कहने के तरीके पर गर्व हुआ।
वह एक ख़ूबसूरत शाम थी, जिसमें एक अधनंगी पागल बुढ़िया पुल पर बैठकर ढोलक बजा रही थी और विवाह के गीत गा रही थी। कॉलेज में पढ़ने वाले कुछ लड़के वहाँ तस्वीरें खिंचवा रहे थे। रागिनी ने अपना दुपट्टा हवा में उड़ा दिया जो सफेद पानी में जाकर गिरा। उसका ऐसा करना उन लड़कों ने अपने कैमरे में कैद कर लिया। चार लड़कों वाली फ़ोटो के बैकग्राउंड में दुपट्टा उड़ाती रागिनी।
उन चारों लड़कों को उससे प्यार हो गया था। वे जीवन भर वह तस्वीर देखकर उसे याद करते रहे। उन्होंने एक दूसरे को यह कभी नहीं बताया।
फिर रागिनी ने अपना मुँह मेरे कान के पास लाकर धीरे से कहा कि वह मुझे कुछ बताना चाहती है। उसके कहने से पहले ही मैंने आँखें बन्द कर लीं। उसने हाथ हवा में उठाकर कोई जादू किया और उसके हाथ में शादी का एक कार्ड आ गिरा। वह जादू जामुनी रंग का था जिस पर लिखा था, ‘रागिनी संग विजय’।
यह बहुत पहले ही किसी ने तय कर दिया था कि सब शादियों के निमंत्रण पत्र गणेश जी के चित्र से ही शुरु किए जाएँ। कहानी यहीं से आरंभ हुई....

(क्रमश:)

गौरव सोलंकी