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Thursday, July 16, 2009

मुर्दे का प्रोमोशन !

उस देश की जनता भय भूख से परेशान, बहुत परेशान। पर सरकार को इस बात से कोई लेना देना नहीं । उसे मजे से अपनी चाल चलना है सो चल रही है। उसे लंबी तान कर सोना है सो लंबी तान के सो रही है। जनता चाहे कहीं की भी हो, वह कुल मिलाकर जमा-घटा कर औसतन जनता ही होती है। न उसकी कोई चाल होती है न ढाल।

मैं भी उस देश की जनता हूं, सो कहने की जरूरत नहीं कि परेशान न होऊं। परेशानी में ही सोता और सुबह परेशानी में ही जागता हूं। यह सिलसिला बरसों से चला हुआ है। तय है मरने तक चलता रहेगा। न आप कुछ कर सकते न खुदा। मेरे बस में तो कुछ है ही नहीं।

तब भी मैं परेशानी में ही जागकर घूमने निकला था कि सामने से मुर्दा सा कोई आता दिखा। हमको तो यारों सेहत का ख्याल रखना जरूरी हो गया पर अब मुर्दे भी इस देश में अपनी सेहत के प्रति जागरूक हो गए? पता नहीं किसकी बददुआ से इन दिनों कमबख्त पेट भर रोटी क्या मिलने लगी कि मैं सेहत के प्रति कुछ ज्यादा ही जागरूक हो गया । भगवान किसी भी देश की जनता को और तो सबकुछ दे, पर भर पेट रोटी कभी न दे। इससे देश में कई गड़बड़ हो जाती हैं।

`और बंधु क्या हाल हैं? तुम भी सुबह सुबह सैर को आ निकले।´

`पत्नी जागने से पहले ही किचकिच शुरू कर देती है, बस इसीलिए चला आता हूं।´
कह मैंने अपने मुंह का कफ सामने खिले फूल के मुंह पर दे मारा,` पर आप की तारीफ! पहले तो आपको यहां कभी सैर करते नहीं देखा।´

` देखते कैसे? कब्र से आज ही जागा हूं।´

` कमाल है यार! यहां लोग सोचते है कि कब जैसे कब्र नसीब हो तो रोज की किचकिच से छुटकारा मिले और एक तुम हो कि कब्र में भी चैन नहीं आया और निकल आए एक बार फिर मरने। क्या इस देश में जी कर जी नहीं भरा जो मरके भी एक बार फिर जीने निकल आए?´ अजीब किस्म का मुर्दा है भाई साहब ये भी। लोग मरने के लिए खुदा से दुआएं कर रहे हैं और एक ये मुर्दा महाशय हैं कि....

`क्या करूं यार! मैं तो कब्र में चैन से पड़े रहना चाहता था पर ये एक तुम्हारी सरकार है न! हम मुर्दों तक को कब्र में चैन से सोने देना नहीं चाहती। यार परेशान किए रखने के लिए जिंदा मुर्दे क्या कम हैं जो हमें परेशान करने चले पड़े।´ कह वह आधा सड़ा मुर्दा रूआंसा हो गया। पर चलता वह मेरे साथ साथ रहा। अब मुर्दे को मुर्दे से घिन आने से तो रही। फर्क हम दोनों में केवल इतना था कि वह अतीत का मुर्दा था तो मैं वर्तमान का। थे तो हम दोनों औसतन मुर्दे ही,
´अब देखो ना यार! हफ्ता पहले सरकार ने मेरे साथ की कब्र में पांच साल से चैन से पड़े मुर्दे का प्रमोशन कर दिया। बेचारे ने जैसे ही अखबार में यह खबर पढ़ी, तबसे अपने होशो हवास में नहीं है। पागलों की तरह बहका हुआ है। मजे से कब्र में सो रहा था सारे झंझटों से दूर। अब कह रहा है, मुझे तो बस दफ्तर जाना है। हम मर गए उसे समझाते समझाते। पर वही नहीं मान रहा। कह रहा है मेरा प्रमोशन उस पद के लिए हुआ है जहां पर खाने की मौज ही मौज है। चाहे कुछ भी हो, मैं तो बस दफ्तर जाकर ही रहूंगा।´
`और तुम किसलिए कब्र से निकल आए? क्या तुम्हारा भी प्रमोशन हो रहा है?´
बड़ा गुस्सा आया सरकार पर। यार सरकार! हम मर गए यहां बीसियों बरसों से प्रमोशन के लिए एड़ियां रगड़ते-रगडत़े और एक आप हो कि मुर्दों को पटाने में जुटे हो। वोट हमारे लेकर सरकार बनाओगे कि मुर्दों के वोट लेकर!

पर यहां आजकल मुर्दों के वोटों से ही तो सरकारें बनती हैं। मंद बुद्धिजीवियों को और काम ही इतने हैं कि बेचारे चाह कर भी वोट पाने के लिए वक्त ही नहीं निकाल पाते।

` नहीं मेरा प्रमोशन नहीं होना है। मुझ पर सरकार मुकदमा चलाने की सोच रही है। मैं तो कहता हूं कि मुकदमे चलाने हैं तो डटकर चलाओ पर उन पर चलाओ जो भूख में रोटी की मांग करते हैं। मुकदमे चलाने हैं तो उन पर चलाओ जो बेरोजगारी में रोजगार की मांग करते हैं। मुकदमे चलाने हैं तो उनपर चलाओ जो झूठ को मात देने के लिए सच की मांग करते हैं। मुकदमे चलाने हैं तो उन पर चलाओ जो सामाजिक न्याय की मांग करते हैं। मुकदमे चलाने हैं तो उनपर चलाओ जो सामाजिक सुरक्षा की मांग करते हैं। सो कोई वकील ढूंढने निकला हूं जो मेरे केस की पैरवी कर सके। तुम्हारी नजरों में कोई ईमानदार वकील हो तो बताओ।´

उसने कहा तो बड़ी हंसी आई। ओ यार! जहां पर ईमानदारी भी ईमानदार नहीं वहां ........!

` यार! टेक इट सीरियसली! मामला सच्ची को गंभीर न हो तो खुदा कसम कब्र में चैन से सो रहा गधा भी बाहर न आए। मैं तो बंदा हूं। खुदा का न सही तो न सही।

`हं अ...! जिंदों के फैसले तो सरकार से उनके जिंदा जी हो नहीं रहे और लो भैया खोल दी मुदोंZ की फाइलें।´

`यही तो अपना रोना है भैया! सजा देनी है तो जिंदों को दो! हम तो कभी के मर लिए, आधे सड़ भी लिए भैया! फाइलें खोलनी है तो उनकी खोलो जिन्होंने देश को दोजख बना रखा है। उनको तो सादर उनके घर उनके गले में फूलों की मालाएं डाले सरकारी अमले के साथ छोड़ने जा रहे हो। गढ़े मुर्दे उखाड़ने से कभी समाज चला है क्या?? हम तो जो खा गए सो गू बना गए। अब तो कुत्तों ने भी हमारी कब्रों पर मूतना छोड़ दिया है। ऐसे में सरकार हमें तो बख्शे।´

`पर सरकार से मैं क्या गुजारिश करूं यार! अपनी तो घर में भी नहीं चलती।´ मैंने कहा तो वह कुछ कहने के बदले मन नही मन मुझे गालियां देता हुआ आगे हो लिया। चाहे मुर्दे जमीन के नीचे के हों चाहे जमीन के ऊपर के ,मुर्दे कुल मिलाकर होते मुर्दे ही हैं।

डॉ.अशोक गौतम

गौतम निवास, अप्पर सेरी रोड, नजदीक मेन वाटर टैंक
सोलन-173212 हि.प्र.