अड़ोसने-पड़ोसने कई महीनों से दबी जु़बान में कहने लगी थीं,` भाई साहब! सुधर जाओ, आपकी नज़रें ठीक नहीं लग रहीं।´, कि दूसरे अर्थों में मेरी नज़रें खराब हो रही हैं। वैसे कई दिनों से मुझे भी लग रहा था कि मेरी नज़रें खराब हो रही हैं। पर मैं यह सोच कर चुप रहा कि इस देश में नज़रें किसकी खराब नहीं? ठीक नजर वालों को इस देश से कभी का देश निकाला हो गया है।
पर मेरी पत्नी ठहरी ठेठ देशभक्त! कई बार मैंने उससे कहा भी कि हे भागवान! देशभक्त होकर अपना तो अपना, क्यों पूरे परिवार का जीना दुश्वार कर रही हो? मानुश देह चौरासी लाख योनियों के बाद मिलती है, इस देश में शेष सबकुछ होकर मजे से जिया जा सकता है पर देशभक्त होकर नहीं। पर स्त्री हठ के आगे मेरी क्यों चलती? आज तक किसी की चली है क्या!
और कल पत्नी जबरदस्ती मुझे सरकारी अस्पताल मेरे न चाहते हुए भी मेरी खराब नज़रें चेक करवाने घर के सारे काम छोड़ ले ही गई।
अब भाई साहब प्राइवेट अस्पताल में अपना इलाज करवाने जाने की अपनी तो हिम्मत है नहीं। अपना तो मरना भी सरकारी डॉक्टर की गोली से है तो जीना भी सरकारी डॉक्टर की गोली से। पर आज के माहौल को देख कर जीने के आसार कम ही दीख रहे हैं।
मैं बीसियों औरों के साथ चार घंटे तक डॉक्टर साहब का इंतजार करता रहा। वे थे कि आने का नाम ही नहीं ले रहे थे। दफ्तर वालों से पता किया तो उन्होंने बताया कि प्राइवेट हास्पिटल में एक वी वी आई पी आप्रेशन करने गए हैं,बस आते ही होंगे।
` तो हम किस लिए आए हैं यहां?´ मुझे गुस्सा सा आ गया।
`ये तो आप ही जानो! ´ वहां पर झाड़ू लगाना छोड़ एक ने डॉक्टर का कोट पहनते कहा, हंसते हुए।
` ये धंधा क्या है भाई साहब!सरकारी डयूटी के वक्त भी प्राइवेट काम! सरकारी डयूटी खत्म हाने के बाद तो चलो मान लेते हैं कि.....´
` तो क्या हो गया! इत्ते गर्म हाने की बात क्या है इसमें? वहां भी तो खराब नजर वालों का ही इलाज हो रहा है। किसीकी आंखें तो नहीं फोड़ी जा रही हैं। कहो, आपको क्या करवाना है! बीस साल से यहीं काम कर रहा हूं। मेरे सामने यहां बीसियों डॉक्टर आए और चले गए।´
`पर तुम हो कौन?´
`आम खाने आए हो या पेड़ गिनने?´
`खाने तो आम ही आया हूं पर नीम के पेड़ पर लगे आम हमें नहीं खाने।´ मैंने कहा तो जो वह एक बार हंसने लगा तो बड़ी देर तक हंसता रहा। लगा इसे अवश्य वेतन हंसने का ही मिलता होगा। जब सब उसे घूरने लगे तो वह हंसने से रूका और गंभीर हो बोला,` बहुत पिछड़े हो यार! बहुत पिछड़े हो!! भारत ने चांद तक सफर तय कर लिया और एक तुम हो कि अभी भी आम के पेड़ वाले आम ही ढूंढ रहे हो। अब तो आम चने के झाड़ पर खाने के दिन आ गए। चलो अंदर तुम्हारी खराब नजरें मैं चेक करता हूं। बड़ों बड़ों की नजरें चैक की हैं मैंने। वैसे भी अगर डॉक्टर यहां हो तो भी वे ये काम मेरे से ही करवाते।´
और साहब, कम से कम समय की बचत करते हुए मैंने उसीसे अपनी खराब नजरें चेक करवा लीं। एक आंख का नंबर नजदीक का प्लस तीन निकला तो दूसरी का प्लस चार!
उस पर विश्वास न हुआ। मन ने कहा,´ कहीं और भी नजरें चेक करवा ले। तेरी नजरें इतनी ही खराब होती तो आज को जूते पड़ चुके होते। कहीं कुछ गड़बड़ है।´
जेब को मार मैंने मन की सुनी और सच्ची को जब दूसरी जगह नजरें चेक करवाईं तो वहां एक आंख का नंबर प्लस एक निकला तो दूसरी का प्लस आधा। मुझे गुस्सा आया, बहुत गुस्सा आया। यार! क्या ऐसे अस्पताल जनता के लिए ही रह गए! वह तब भी डॉक्टर का कोट पहने वहीं बैठा था। तय था कि डाक्टर साहब अभी भी नहीं आए थे।
`यार ! तुमने ये क्या नंबर दे दिए?´ मैंने प्राइवेट हास्पिटल के और उसके द्वारा आंखें चेक करने के बाद के दोनों नंबर उसके आगे रख दिए। उसने दोनों को गौर से देखा और फिर डॉक्टर से भी अधिक गंभीर होते बोला,` क्या हो गया इसमें?´
`तुमने दोनों आखों का दो और साढ़े तीन नंबर ज्यादा दे दिया और कहते हो कि क्या गलत हो गया।´
`कौन से वर्ग से हो?´
`मध्यम वर्ग से, क्यों? उच्च वर्ग से होता तो क्या सरकारी अस्पताल में इलाज करवाने आता क्या!´
` मैंने पहचान लिया था।तभी तो तुम्हें नंबर ज्यादा दिया है सोच समझ कर। इसका एक लाभ तो यह है कि जल्दी चश्मा नहीं बदलना पड़ेगा और दूसरा उससे भी बड़ा फायदा यह है कि कहूंगा तो चक्कर खाकर गिर पड़ोगे।´ मैंने पत्नी को मुझे थामने को कहा और फिर उससे बोला,` लो अब बोलो बड़ा फायदा।´
`बहुत भोले हो यार। छोटे नंबर के चश्में से चीजें छोटी दिखती हैं और बड़े नंबर वाले से बड़ी।´
`मतलब!!!´ मुझे थामे हुए पत्नी ने पूछा।
`देखिए मैम! महंगाई के इस दौर में मध्यम वर्ग के लिए यही ठीक है कि जितने नंबर का चश्मा उसे डॉक्टर कहे वह उससे दो तीन नंबर ज्यादा का चश्मा लगाए। इससे पता है क्या होगा?´
`क्या होगा??´
`छोटी रोटी बड़ी दिखेगी, ये देख लीजिए।´ उसने अपने लंच बाक्स में बची छोटी सी चपाती उस नंबर का चश्मा मेरी आंखों पर लगा दिखाई तो मुझे सच्ची को चक्कर आ गया। उसने मुझे सहारा दे बेंच पर लिटाते कहा,` दो किलो आटे का बैग पांच किलो के आटे का लगेगा। लिफाफे में लाए किलो भर चावल तीन किलो जितने लगेंगे। ये वो नंबर है भाई साहब जो तुम्हें लगते ही सतीयुग में ले जाएगा। सही नंबर का चश्मा लगाकर क्यों अपना मानसिक संतुलन खराब करना चाहते हो? है न फायदे की बात। अब बोलो, कौन तुम्हारे हित वाला है?´
मैंने उसके पांव छुए और उसके नंबर वाला चश्मा लगाए घर आ गया । अब मजे में हूं। थाली में दो चपातियां ही इतनी हो जाती हैं कि... अब फुला महंगाई जितना मन करे सीना।
डॉ. अशोक गौतम
गौतम निवास, अप्पर सेरी रोड,
सोलन 173212 हि.प्र.
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6 बैठकबाजों का कहना है :
महँगाई का तो कुछ नहीं हो सकता हमें ही उसके लिये कोइ दूसरा उपाय ढूँढना होगा. अब चश्मा लगायें या सप्ताह में पाँच दिन व्रत करें अपनी-अपनी पसंद है. अच्छा लेख है.
श्रीमन, अभी आप अपने को मजे में मत समझिये, मत भूलिए कि आपकी एक आख पर प्लस तीन का और दूसरी पर प्लस चार का लेंस लगा है यानी हर सामने वाली चीज को गौर से देखते वक्त एक आख थोडा बंद एवं तिरछी करनी पड़ेगी ! अडोस-पड़ोस में अपना ध्यान रखियेगा
मुझे तो वास्तव में आपकी नज़रें ठीक नहीं लगती...कुछ दिन काला चश्मा क्यूँ नहीं पहनते ?
हास्य से भरपूर व्यंग्य है . मजा आ गया . सरकारी डाक्टरों की हकीकत है .एक शेर है -'नजर मिली जब नजर से उनके
नजर चुराते नजर को देखा
नजर को यू ही नजर आता रहे
नजर का यह 'नजराना '.
लगता है ये कुछ अधिक ही हो गया मंहंगायी मे अस्पताल वलों ने भी तो रोती खानी है कि नहीं एक तो आपकी बचत की फिर भी---- हा हा हा अच्छा व्यंग है आभार
बहुत ही मजेदार व्यंग की कहानी. कई जगह पर व्यंग के संवाद ने इसे और भी जानदार बना दिया.
जैसे
"अपना तो मरना भी सरकारी डॉक्टर की गोली से है तो जीना भी सरकारी डॉक्टर की गोली से।"
"चलो अंदर तुम्हारी खराब नजरें मैं चेक करता हूं। बड़ों बड़ों की नजरें चैक की हैं मैंने। वैसे भी अगर डॉक्टर यहां हो तो भी वे ये काम मेरे से ही करवाते।´"
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