यानी हमारी चार माँ हैं?
भाग-3
लता ने कहा - वहाँ देखो, कितने जाले लगे हैं।
और माँ दौड़कर मेज उठा लाई और उस पर चढ़कर फूलझाड़ू से जाले उतारने लगी। मैंने कहा- मुझे और भूख लगी है। माँ दौड़कर रसोई में गई और आटा छानकर गूंथने लगी।
पिताजी ने कहा- मैं आज खाना नहीं खाऊँगा। माँ ने उनकी रोटियों पर थोड़ा ज़्यादा घी चुपड़ दिया। वैसे घी पश्चिमी चिकित्साशास्त्र का दुश्मन था, जो किसी भी रोग में सबसे पहले बन्द करवा दिया जाता था। मैंने देखा कि मेरी तीन माँएं हैं, एक रोशनदान पर टँगी हुई, एक आटा छानती हुई, एक घी चुपड़ती हुई। मैंने लता को दिखाया- देख लता। तीन तीन माँ। - हाँ। उसने भी देखा। मैं दौड़कर बरामदे में बैठे पिताजी के पास गया। - देखो पिताजी, तीन तीन माँएं। - हाँ। उन्होंने भी देखा।
मैंने लता से पूछा- क्या टाइम हुआ है? - साढ़े दस। - फिर तो एक माँ स्कूल में भी गई होगी। - यानी हमारी चार माँ हैं?
- और एक को सुबह मैंने कपड़े धोते हुए भी देखा था। - मतलब पाँच हैं? - हाँ। - यानी घर में हम आठ लोग हैं? पिताजी ने बीच में कहा- नहीं, चार ही हैं।
- पिताजी आपका पेट दर्द कैसा है? पिताजी बीच में बोले तो मुझे याद आया। - खाना खाने के बाद हल्का हल्का होता है। आजकल जी कुछ ठीक नहीं रहता। पिताजी अपना पेट पकड़कर सहलाने लगे। लता उनके लिए पानी लाने चली गई। मैंने कहा कि मेरे भी सीने में बहुत दर्द रहता है। उन्होंने सुना नहीं। लता ने रसोई में से ही सुन लिया था। वह दो गिलास पानी लेकर आई। स्टेनलेस स्टील के गिलास थे जिनपर लता का नाम खुदा हुआ था।
मैंने उससे पूछा, “पानी पीने से दर्द ठीक हो जाता है?”
पिताजी ने कहा, “नहीं, दवा खाने से भी नहीं होता।”
मैंने कहा, “आजकल नकली दवाइयाँ बहुत बनने लगी हैं।” मेरी इस बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। हम दोनों ने पानी पी लिया।
तकलीफ़ के बदले तकलीफ़ देना प्यार के बदले प्यार देने से ज़्यादा ज़रूरी लगता था। रागिनी एक लड़की का नाम था जिसके दो हाथ, दो पैर, दो आँखें, दो कान, दो वक्ष, एक नाक, एक माथा, एक सिर था। रागिनी पहली लड़की नहीं थी, जिससे मुझे प्यार हुआ, और न ही आखिरी थी। वह सब लड़कियों जैसी थी। अब मुझे लगता था कि वह बुरी थी। जिन जिन लड़कियों से मैंने प्यार किया था वे बेहद स्वार्थी लड़कियाँ थीं। उनमें और लड़कियों से अलग कुछ भी नहीं था इसलिए मुझे सब लड़कियाँ बुरी लगने लगी थीं। लेकिन ऐसा सबको नहीं लगता था। ऐसा सबको नहीं लगता था इसलिए इसे खुलकर कहना फ्रस्ट्रेशन कहा जाता।
लेकिन ऐसा था। ऐसा था तो लता भी बुरी लड़की होगी। मेरी अच्छी बहन बुरी लड़की लता गिलास लेकर चली गई।
लता जाते जाते बोली- आज यस बॉस आएगी।
हम सबने अनसुना कर दिया। पिताजी अख़बार उठाकर पढ़ने लगे। मैं उठकर अपने जूते पॉलिश करने चल दिया। लता एक पुराना और एक कम पुराना गाना गुनगुनाने लगी। ऐसे जैसे कि गीत की किसी पंक्ति को गलत सुनकर ‘आज यस बॉस आएगी’ समझ लिया गया हो।
आजकल तेरे मेरे प्यार के चर्चे हर जबान पर...
और नया गाना चालू सा था। वह उसने कुछ मन्द आवाज़ में गाया। आज अभी इसी वक़्त ही मुझको पता चला है...कि मुझे प्यार प्यार प्यार हो गया है...
हमारे घर में बुश कंपनी का एक पुराना टीवी था जिसमें चित्र कभी स्थिर नहीं रहते थे। वे ऊपर से नीचे नदी की तरह लगातार बहते रहते थे। टीवी पर आगे लगी चार घुंडियों में से एक पर वी. होल्ड लिखा हुआ था जिसका अर्थ हममें से किसी को नहीं पता था। उसको घुमाने से नदी का प्रवाह धीमा और तेज होता था और एक सीमा के बाद प्रवाह की दिशा भी उलट जाती थी। हम उसको झटके से लगातार दोनों तरफ ऐसे घुमाते थे जिससे पर्दे पर दृश्य लगभग स्थिर दिखता रहे। यह बहुत मेहनत और धैर्य का काम था। इसके लिए एक व्यक्ति को टीवी के बराबर में बैठे रहना पड़ता था। सब टीवी देख रहे होते थे तो मैं और लता बारी बारी से यह ज़िम्मेदारी संभालते थे। अकेले टीवी देखना बहुत मुश्किल काम लगता था। हम बड़े होते गए तो हमारा टीवी देखना कम होता गया। हमें टीवी न देखने का शौक हो गया था। ‘यस बॉस’ लता की फ़ेवरेट फ़िल्म थी जो उसने कभी नहीं देखी।
मैं और पिताजी शाम को घूमने गए। ऐसा कई सालों बाद हुआ था कि हम बिना काम के एक साथ घर से बाहर निकले हों। मैं लाल दरवाजा, रामनाथ पुल, श्रीकृष्ण मन्दिर, गोल बाज़ार, शहद की छतरी और शहर की और भी बहुत सारी जगहों से बचता था। जिन जिन जगहों पर रागिनी की यादें चिपकी हुई थीं, उन जगहों के पास जाते ही आत्महत्या के ख़याल आते थे। मूंगफली खाना भी मर जाने जैसा लगने लगा था। मुझे लगने लगा था कि मैंने एक बार और प्यार किया तो इस छोटे से शहर में मेरे जाने को कोई जगह नहीं बचेगी। मुझे लगता था कि इसीलिए ज़्यादातर लोग नौकरियों के बहाने से अपने बचपन और जवानी का शहर छोड़ देते होंगे। नए शहरों में नए प्रेम होते होंगे। फिर कुछ साल बाद पैसे देकर तबादला करवाना पड़ता होगा। जिनके पास तबादले के पैसे नहीं होते होंगे, उन्हें खुदकुशी के ख़याल के साथ जीना पड़ता होगा। मैंने अपने पिता की ओर देखा। वे बीस साल से इसी शहर में थे। उनके चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ रही थीं। वे और दुबले होते जा रहे थे। - पिताजी आपने कभी कछुआ देखा है? - नहीं। - आप पढ़ाते तो थे कि बहुत धीरे धीरे चलता है कछुआ। - रोज़गार समाचार देखता रहता है ना? - हाँ पिताजी। हरियाणा में वेकेंसी निकली हैं। - वहाँ तो पैसा चलता है बस। - पैसा कैसे चलता होगा? कछुए की तरह धीरे धीरे तो नहीं ना? उन्हें नहीं सुना।
आधी बातें बिना सुने भी जीवन उसी तरह जिया जा सकता था। वैसे भी हमारे शहर में सुनने को ज़्यादा बड़ी बातें नहीं होती थीं। दो पड़ोसी एक कीकर के पेड़ को लेकर सालों तक झगड़ते रहते थे और फिर अगली पीढ़ी जवान होकर लड़ने लगती थी। लड़के अनजान लड़कियों के लिए झगड़ बैठते थे और हॉकी स्टिक और लाठियाँ लेकर आ जाते थे। अनजान ‘बुरी’ लड़कियों को अक्सर ख़बर भी नहीं होती थी और ख़बर हो जाती थी तो यह गर्व का विषय होता था। लड़के बसों की यात्रा मुफ़्त करवाने के लिए कभी कभार स्कूल कॉलेजों में दस बीस दिन की हड़ताल भी कर देते थे। किसी दिन सरकारी स्कूल का कोई शिक्षक अपने ही छात्रों के हाथों पिट भी जाता था। बसें और सिनेमाहॉल जी भर के तोड़े जाते थे। कोल्ड ड्रिंक की बोतलें उठाकर भाग जाना होता था। पुलिस आँसू गैस छोड़ती थी। आँसू गैस नाइट्रस ऑक्साइड नहीं थी। नाइट्रस ऑक्साइड हँसाने वाली गैस थी लेकिन कुछ भी करवाने वाली गैस का नाम पूछा जाए तो नाइट्रस ऑक्साइड का नाम ही दिमाग में सबसे पहले आता था। नाइट्रस ऑक्साइड की दुनिया में भारी कमी हो गई लगती थी। पुलिस हँसाने वाली गैस छोड़ती तो शायद दुनिया ज़्यादा बेहतर बन सकती थी।
गौरव सोलंकी
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7 बैठकबाजों का कहना है :
कहानी आगे बढ़ते हुए और भी धारधार होती जा रही है.. अंतिम पंक्ति असरदार है... पुलिस हँसाने वाली गैस छोड़ती तो शायद दुनिया ज़्यादा बेहतर बन सकती थी।
मैंने लता को दिखाया- देख लता। तीन तीन माँ। - हाँ। उसने भी देखा। मैं दौड़कर बरामदे में बैठे पिताजी के पास गया। - देखो पिताजी, तीन तीन माँएं। - हाँ। उन्होंने भी देखा।
मैंने लता से पूछा- क्या टाइम हुआ है? - साढ़े दस। - फिर तो एक माँ स्कूल में भी गई होगी। - यानी हमारी चार माँ हैं?
- और एक को सुबह मैंने कपड़े धोते हुए भी देखा था। - मतलब पाँच हैं? - हाँ। - यानी घर में हम आठ लोग हैं? पिताजी ने बीच में कहा- नहीं, चार ही हैं।
माँ के रूप का अच्छा चित्रण किया है.सच एक माँ कितनों को सँभाल लेती है और हम एक माँ को नही सँभाल सकते बढ़िया है
माँ का वात्सल्य हर माँ में पाया जाता है.हर का दुःख ,पीडा हरती है कहानी रोचक है .
बधाई
आपने माँ को बहुत ही ख़ूबसूरत तरीके से बयां किया. बात को सीधे न कहकर symbolic ढंग से बताया. माँ के इस चित्रण से मुझे याद आई अलोक श्रीवास्तव जी की एक ग़ज़ल.
चिंतन, दर्शन, जीवन, सर्जन, रूह, नज़र पर छाई अम्मा
सारे घर का शोर-शराबा,सूनापन,तनहाई अम्मा
सारे रिश्ते- जेठ-दुपहरी, गर्म-हवा, आतिश, अंगारे
झरना, दरिया, झील, समंदर, भीनी-सी पुरवाई अम्मा
उसने ख़ुद को खोकर; मुझ में एक नया आकार लिया है
धरती, अंबर, आग, हवा, जल जैसी ही सच्चाई अम्मा
बाबूजी गुज़रे, आपस में सब चीज़ें तक़्सीम हुईं,तब-
मैं घर में सबसे छोटा था,मेरे हिस्से आई अम्मा
घर में झीने रिश्ते मैंने लाखों बार उधड़ते देखे
चुपके-चुपके कर देती है, जाने कब तुरपाई अम्मा
आपकी कहानी बहुत ही अच्छी लगी.
अच्छी कहानी घुमते-फिरते आखिरकार खत्म हो गई। चेहरे पर एक साथ हास्य, संवेदना , आश्चर्य और दु:ख के भाव उभरे। गौरव की कहानी पढते हुए अक्सर हीं ऐसा होता है।
-विश्व दीपक
शायद मे बहुत लेट हू पर एक शानदार अनुभव है इस तरह के लेखन को पढना आपकि आज्ञा मिले तो अपनी फेसबुक वाल पर शेयर करना चाहूगा
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