ब्लू फिल्म-भाग 7
जब मैं चौथी कक्षा में पढ़ता था, मुझे पूजा से प्यार हुआ था। वह मेरे साथ वाले बेंच पर बैठती थी, लता के साथ। वह प्यार भी बिना कुछ कहे-सुने जल्दी ही बुझ सा गया था, लेकिन तब से ही मुझे पूजा की याद लगातार आती थी। मैंने चौथी की कॉपियाँ किताबें अब तक सँभालकर रखी थी। एक दिन जब बहुत याद आई तो संदूक की तली से उन्हें ही निकालकर पढ़ने लगा। उन पर चढ़ी हुई अख़बारों की ज़िल्द पढ़ता रहा। उन साधारण सी ख़बरों में मेरे बचपन की खुशबू थी। मैंने सोचा कि तेरह साल पहले भी रोज़ मैं इन्हीं ज़िल्दों को पढ़ता होऊंगा।
एक तरफ़ सार्वजनिक निर्माण विभाग, बीकानेर के अधिशाषी अभियंता ने निविदाएँ आमंत्रित की थी। उसके ऊपर लिखा था- पॉलीथिन का करो बहिष्कार, यही है प्रदूषण का उपचार। फ़ेमस फ़ार्मेसी का विज्ञापन था, जिसमें कमज़ोर मर्दों से शर्म-संकोच छोड़ने के लिए कहा गया था। कच्ची बस्तियों की नियमन दरों का समाचार था। रेलवे की किसी भर्ती का परिणाम था, जिसमें सामान्य, ओबीसी, एससी और एसटी श्रेणियाँ थीं। अख़बार ग्यारह मई का था। उसके कुछ दिन बाद स्कूल बन्द हो गया था। जब दुबारा स्कूल खुले तो वह नहीं आई थी। प्रार्थना गाते हुए मेरा गला भर्रा जाता था।
ग्यारह मई को उसका जन्मदिन भी था। उसने क्लास में टॉफियाँ बाँटी थीं। जब वह मुझे टॉफ़ी देने लगी तो मैंने उसकी कलाई पकड़ ली थी। वह मुस्कुराई थी। डॉक्टर ने लता के लिए कुछ दवाइयाँ दी थी। माँ किसी बाबा से मंत्र बुझी राख लाई थी, जो उसे चटा दी गई थी। माँ और लता सुबह-शाम नियमित रूप से पूजा भी करने लगी थी। हर तीसरे दिन डॉक्टर अकेले में आधा घंटा उसे कुछ समझाया करता था। मैं लता से पूछता कि क्या डॉक्टर उसे क्या समझाता है तो वह कहती कि ज़्यादा समय तो वही बोलती है। वह उसके सपने सुना करता था- सोने वाले भी और जागने वाले भी। मेरे सपने कोई नहीं सुनता था। मुझे लगता था कि उसे सपनों की ही कोई बीमारी है और उस इलाज़ से वह ठीक भी होने लगी थी। माँ-पिताजी ने आस पड़ोस में किसी को कुछ नहीं बताया था और अब उन्हें उसकी शादी की चिंता भी सताने लगी थी। मैं चाह कर भी उनकी चिंताओं का साझेदार नहीं बन पाता था।
शिल्पा अकेली रहती थी लेकिन मैं उसे फ़ोन नहीं करता था, रुक रुक कर तीन बार घंटी ही बजाता था। ऐसा रागिनी ने कह रखा था। वे घंटियाँ अक्सर खाली ही लौटती थी। रागिनी का जब मन होता, वह तभी फ़ोन करती। उसकी आवाज़ मुझे पागल कर देती थी। मेरा अपने आप पर से नियंत्रण ख़त्म होने लगता था। प्यार मुझे असहाय बनाता था। मैं उससे कुछ नहीं पूछता था, फ़ोन न करने पर झगड़ता भी नहीं था। उसे फिर से खो देने के डर से मैं सिर्फ़ उसे हँसाता था। सब लड़कियों की तरह उसे भी हँसना बहुत पसन्द था और हँसाने वाले लड़के। मैं उसे अपने दोस्तों के चटपटे किस्से सुनाता, उसकी बेतुकी बेदिमागी बातों पर ठहाके मारकर हँसता। उसे लगता था कि मैं बहुत ख़ुश हूँ। मुझे लगता था कि उसने मेरी उदासी देख ली तो वह मुझसे दूर भागेगी। मैं अपनी बेकारी पर भी हँसता था, अपनी बहन की बीमारी पर भी और रागिनी की शादी पर भी। वह भी बेशर्मी से हँसती थी और अपनी शादी की रात की बातें फुसफुसाकर सुनाती थी। यह क्रूरता अक्षम्य थी।
कभी कभी आँखें इतनी दुखती थी कि मैं रात रात भर अपने बिस्तर पर पड़ा रोता रहता था। मैं कहीं भाग जाना चाहता था। मुझे हरे रंग के सपने आते थे या जलते हुए लाल रंग के। बाढ़ में बहते हुए शहर, जलते हुए घर, राख होते पेड़, काला आसमान।
एक दिन मैंने उससे कहा- मैं ख़त्म होता जा रहा हूं रागिनी।
- ख़त्म मतलब?
क्या यह किसी विदेशी भाषा का शब्द था या ख़त्म होना उसकी संस्कृति में ही नहीं था?
- ख़त्म मतलब ख़त्म....
- तुम्हें पता है, इस रंग का नाम क्या है?
- मुझे कुछ नहीं पता। मेरे भीतर आग सी लगी रहती है।
- मेजेंटा...
- हाँ?
- इस कलर का नाम।
मैं चुप रहा। वह तर्जनी से होती हुई अनामिका तक पहुँची। बीच में एक बार सिर उठाकर उसने मुझे देखा। मेरी दाढ़ी बढ़ी हुई थी। मुझे ‘जिस्म’ याद आई और जॉन अब्राहम।
मैंने पूछा- तुमने जिस्म देखी है?
- ना...
- तुमने ब्लू फ़िल्म देखी है कभी?
वह रुक गई, मुस्कुराई और चुप रही।
मैंने फिर पूछा- देखी है?
- नहीं।
वह मुस्कुराती रही। मुझे चिढ़ होती थी कि कोई अचानक इतना दुखी और तीसरे ही दिन इतना ख़ुश कैसे दिख सकता है!
- चलो मेरे साथ। हम शादी करेंगे।
उसे छटांक भर भी फ़र्क नहीं पड़ा। उसके होठ खूबसूरती से फैले रहे। उस कमरे में आमिर ख़ान का एक बड़ा सा पोस्टर चिपका था, जिसकी निगाह हर समय रागिनी की ओर ही रहती थी। मैं खड़ा हुआ और नाखूनों से वह पोस्टर खुरचने लगा। वह अब भी कुछ नहीं बोली। दीवार के पास रखी प्लास्टिक की कुर्सी मैंने हवा में फेंककर मारी। वह सामने की दीवार पर अपने अपमान के निशान छोड़ते हुए नीचे जा गिरी। मेरी साँसें दौड़ रही थीं। मैं खड़ा उसे देखता रहा। वह लेट गई। मुझे पता था कि वह लेट जाएगी।
तहलका डॉट कॉम उन दिनों सुर्खियों में थी। उन्होंने देश को शर्ट के बटन में लग सकने वाले वीडियो कैमरों से परिचित करवाया था। मेरी सफेद शर्ट के सबसे ऊपर वाले बटन पर जो कैमरा लगा था, यादव ने मुझे दिया था। वह दिल्ली से यह कैमरा लाया था। उसने मेरे हाथ में कैमरा पकड़ाते हुए रागिनी का वीडियो बनाने की सलाह दी थी तो मुझे बहुत गुस्सा आया था।
- तुम लोग साले कभी प्यार को समझ ही नहीं सकते...
मैं बौखला कर बोला तो वह हँस दिया था।
- मेरे देखने के लिए थोड़े ही बनाने को कह रहा हूं यार।
- मुझे नहीं चाहिए यह....
- फिर से भाग जाएगी तो पछताएगा कि फ़िल्म बना ली होती तो अच्छा रहता।
- वो प्यार करती है मुझसे....और तू चाहता है कि मैं उसे ब्लैकमेल करूं?
- तुझसे प्यार करती है, तभी तो उसके साथ सोती है। क्या नाम है उसका? ....हाँ, विजय।
यह कोई बॉलीवुड की फ़िल्म होती तो मैं उसका गिरेबान पकड़ लेता और हमारे बीच में एक दरार बनी आती, जिस पर इंटरमिशन लिखा होता। लेकिन वह मेरे बचपन का दोस्त था और सच बोल रहा था और मैं शाहरुख़ ख़ान नहीं था। यह सच इतना भारी था कि फिर कुछ देर तक कमरे में चुप्पी छाई रही। फिर उसने अपने टेपरिकॉर्डर पर मोहम्मद रफ़ी के गाने चला दिए और अख़बार पढ़ने लगा। ‘गुलाबी आँखें जो तेरी देखी’ के पहले अंतरे के बाद मैं निकल आया था।
मुझे दुख था कि मैं शाहरुख खान नहीं था। मेरी उम्र के सब लड़कों को यही दुख था। मैं न उतना खुशमिजाज था और न ही उतना हाज़िरजवाब। मैं मद्धम होते सूरज और जलते हुए चाँद के बीच के किसी समय में रागिनी को पहाड़ या रेगिस्तान पर ले जाकर नहीं चूम सकता था। मैं भीड़ भरी सड़कों पर चिल्ला चिल्लाकर उसे नहीं पुकार सकता था। मेरे पास उसे तोहफ़े देने के पैसे नहीं थे। मैं बेरोज़गार था और निराश भी और मेरे बाल सफेद होने लगे थे। मैं अंग्रेज़ी बोलना भी नहीं जानता था। मेरे पास मोटरसाइकिल भी नहीं थी। रागिनी को बस में उल्टियाँ लगती थी और चक्कर आते थे।
मैंने उस शाम लता को यह सब बताया और उसकी गोद में सिर रखकर लेटा रहा। वह मेरी बन्द आँखों पर अपनी ठंडी हथेलियाँ रखे बैठी रही। मैं उसके या माँ के पास होता था तो अपने साधारण होने की हीनता कुछ देर के लिए कम हो जाती थी। मैंने उससे कहा कि मैं बहुत कमज़ोर हूं और डरकर कहीं भाग जाना चाहता हूं। मैंने उसे अपने जले हुए लाल रंग के अंगारों वाले सपनों के बारे में बताया।
बहुत शोर था और मुझे कुछ सुनाई नहीं देता था। पढ़ने या टीवी देखने से मेरी आँखें दुखने लगती थीं, ब्लू फ़िल्म देखने से भी। सब बताते थे कि बहुत रोशनी है और मुझे कोई रास्ता नहीं सूझता था। मुझसे रंभाती हुई गायों और भौंकते हुए कुत्तों की बेबसी नहीं देखी जाती थी। लता ने मुझसे कहा कि मेरे पैरों की उंगलियों के नाखून बहुत बढ़ गए हैं। मैंने उससे कहा कि मेरा उन्हें काटने का मन नहीं करता।
बस अड्डों और रेलवे स्टेशनों पर उन दिनों ‘व्यस्त रहिए मस्त रहिए’ और ‘जीत आपकी’ जैसी किताबों की भरमार थी। मैं सब बुक स्टॉलों को जला देना चाहता था। मैं निराश नहीं था, केवल उदास था और अकेली रागिनी ही इसके लिए उत्तरदायी नहीं थी। कुछ और भी था जो हममें से किसी को पता नहीं चलता था। हम सब कनफ्यूज़ थे। लता ने बताया कि उसे उस पीछा करने वाले लड़के से प्यार हो गया है। मैं उतना नहीं चौंका। मैंने उसे रागिनी के वीडियो के बारे में भी नहीं बताया, जो मैंने उस दोपहर बनाया था। मैं रोना चाहता था।
गौरव सोलंकी
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5 बैठकबाजों का कहना है :
मुकलमा अच्छा लगा.
तुम लोग साले कभी प्यार को समझ ही नहीं सकते...
मैं बौखला कर बोला तो वह हँस दिया था।
- मेरे देखने के लिए थोड़े ही बनाने को कह रहा हूं यार।
- मुझे नहीं चाहिए यह....
- फिर से भाग जाएगी तो पछताएगा कि फ़िल्म बना ली होती तो अच्छा रहता।
- वो प्यार करती है मुझसे....और तू चाहता है कि मैं उसे ब्लैकमेल करूं?
- तुझसे प्यार करती है, तभी तो उसके साथ सोती है। क्या नाम है उसका? ....हाँ, विज
बचपन की याद भरी अनुभव..बढ़िया रहा..
फ्लेश बेक बचपन का अच्छा लगा .बधाई .
bahut khoobsoorat, dil ko chhoo lene wali rachna...padh kar dil udhaas udhaas sa ho gaya
बहुत ही दिलचस्प कहानी |
यूँ लगता है जैसे अपने आस-पास से ही गुज़रती जा रही है | एक आम लड़के के मनोभावों का सही-सही चित्रण और आज के दौर के प्रेम का भी |
गौरवजी को हार्दिक बधाई |
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