Friday, July 30, 2010

सावन न सही, सावन की बतिया ही सही...

सावन आया बरसने को आँगन नहीं रहा
घटाओं में बरसने का पागलपन नहीं रहा
आती है बारिश, लोगों के दिल भीगते नहीं
नीम और पीपल के पेड़ों पे झूला नहीं रहा.
यही अब सच है...शायद. किसी ने डूबे-डूबे मन से बताया कि भारत में सावन के समय अब उतना मजा नहीं आता जितना पहले आता था...वो बरसाती मौसम..पानी बरसने के पहले वो मस्त बहकी हवायें..जो बारिश आने के पहले आँधी की तरह आकर हर चीज़ अस्त-व्यस्त कर जाती थीं..कहाँ हैं ? होंगी कहीं...पागल हो जाते थे हम सब उनके लिये...अब भी उनके आने का सब इंतज़ार करते हैं....उनका सब लोग मजा लेना चाहते हैं...और वो बादल कहाँ हैं जो सावन में बरसने के लिये पागल रहते थे...सुना है कि अब उनके बहुत नखरे हो गये हैं..बहुत सोच समझकर आते हैं बरसने के लिये...साथ में बदलते हुये समय के रहन-सहन के साथ सावन मनाने की समस्या भी सोचनीय हो गयी है...उन हवाओं की मस्ती का आनंद लेने को अब हर जगह खुली छतें नहीं...खुले आँगन नहीं..कहीं-कहीं तो बरामदे भी नहीं..घरों के पिछवाड़े नहीं जहाँ कोई नीम या पीपल जैसे पेड़ हों जिनपर झूला डाला जा सके. जहाँ बड़ी-बड़ी इमारतें हैं वहाँ शहरों में बच्चे पार्क में खेलते हैं तो वहाँ खुले में स्टील के फ्रेम पर झूले होते हैं जिन पर प्लास्टिक की सीटें होती हैं...आजकल कई जगह टायर आदि को भी सीट की जगह बाँध देते हैं...सबकी अपनी-अपनी किस्मत...आज के बच्चे पहले मनाये जाने वाले सावन का हाल सुनकर आश्चर्य प्रकट करते हैं...और उन बातों को एक दिलचस्प कहानी की तरह सुनते हैं.
लो अब बचपन की बातें करते हुये अपना बचपन भी सजीव हो गया जिसमें..आँगन, जीना, छत, झूला, आम के बौर, और पेड़ों पर पत्तों के बीच छिपी कुहुकती हुई कोयलिया, नीम और पपीते के पेड़ ..जंगल जलेबियों के सफ़ेद गुलाबी गुच्छे..दीवारों या पेड़ों पर चढ़ती हुई गुलपेंचे की बेल जो अब भी मेरी यादों की दीवार पर लिपटी हुई है...हरसिंगार के पेड़ से झरते हुये उसके नारंगी-सफ़ेद महकते कोमल फूल...सबह-सुबह की मदहोश हवा में उनींदी आँखों को मलते हुये सूरज के निकलने से पहले जम्हाई लेकर उठना और अपने दादा जी के साथ बागों की तरफ घूमने जाना...पड़ोस के कुछ और बच्चे को भी साथ बटोर लेते थे...और उन कच्ची धूल भरी सड़कों पर कभी-कभी चप्पलों को हाथ में पकड़ कर दौड़ते हुये चलना..आहा !! उस मिट्टी की शीतलता को याद करके मन रोमांचित हो उठता है...आँखों को ताज़ा कर देने वाली सुबह के समय की हरियाली व उन दृश्यों की बात ही निराली थी. जगह-जगह आम के पेड़ थे कभी जमीन पर गिरे हुये आम बटोरना और कभी आमों पर ढेला मारकर उन्हें गिराना...उसका आनंद ही अवर्णनीय है. अपने इस बचपन की कहानी में एक खुला आँगन भी था..बड़ी सी छत थी जहाँ बरसाती हवायें चलते ही उनका आनंद लेने को बच्चे एकत्र हो जाते थे. और बारिश होते ही उसमें भीगकर पानी में छपाछप करते हुए हाथों को फैलाकर घूमते हुए नाचते थे...एक दूसरे पर पानी उछालते थे...और उछलते-कूदते गाना गाते थे...बिजली चमकती थी या बादलों की गड़गड़ाहट होती थी तो भयभीत होकर अन्दर भागते थे और फिर कुछ देर में वापस बाहर भाग कर आ जाते थे...फिर भीगते थे कांपते हुये और पूरी तृप्ति होने पर ही या किसी से डांट खाने पर अपने को सुखाकर कपड़े बदलते थे...छाता लगाकर बड़े से आँगन में एक तरफ से दूसरी तरफ जाना...हवा की ठंडक से बदन का सिहर जाना....और मक्खियाँ भी बरसात की वजह से वरामदे व कमरों में ठिकाना ढूँढती फिरती थीं...अरे हाँ, भूल ही गयी बताना कि ऐसे मौसम में फिर गरम-गरम पकौड़ों का बनना जरूरी होता था...ये रिवाज़ भारत में हर जगह क्यों है...हा हा...क्या मजा आता था.
अब बच्चे उतना आनंद नहीं ले पाते..उनके तरीके बदल गये हैं, जगहें बदल गयी हैं ना घरों में वो बात रही और ना ही बच्चों में. ये भी सुना है कि सावन का तीज त्योहार भी उतने उत्साह से नहीं मनाया जाता जितना पहले होता था...लेकिन हम लोगों के पास मन लगाने को यही सिम्पल साधन थे मनोरंजन के..क्या आनंद था ! तीजों पर झूला पड़ता था तो उल्लास का ठिकाना नहीं रहता था...पेड़ की शीतल हवा में जमीन पर पड़ी कुचली निमकौरिओं की उड़ती गंध..वो पेड़ की फुनगी पर बैठ कर काँव-काँव करते कौये...और पास में कुआँ और पपीते का पेड़ जिस पर लगे हुये कच्चे-पक्के पपीते...काश मुझे वो सावन फिर से मिल जाये...नीम के पेड़ पर झूला झूलते हुये..ठंडी सर्र-सर्र चलती हवा में उँची-उँची पैंगे लेना..अपनी बारी का इंतजार करना..दूसरे को धक्का देना...गिर पड़ने पर झाड़-पूँछ कर फिर तैयार हो जाना झूलने को...आज भी सब लोग आनंद लेना चाहते इन सब बातों का पर अब वो बात कहाँ ..लोग बदले बातें बदलीं..रीति-रिवाजें बदलीं..बस बातों में ही सावन रह गया है.

शन्नो अग्रवाल

(तस्वीर बैठक के पुराने साथी अबयज़ खान ने भेजी है)

Thursday, July 29, 2010

भारतीय गृहिणी की कीमत 1250 रुपये महीने !

24 जुलाई का नवभारत टाइम्स पढा...मुखपृष्ठ पर ही खबर थी कि..'घर की नारी और भिखारी एक बराबर'... यहीं से जानकारी मिली कि जनगणना में कुछ लोगों को गैरकमाऊ लोगों की श्रेणी में रखा गया है!...इनमें गृहिणियां, भिखारी, कैदी और वेश्याएं है!... हद हो गई!... जो स्त्रियां घर में सारा दिन बच्चों के लिए और पतियों के लिए खटती रहती है....खाना बनाना, कपडे धोना, घर की सफाई और...और भी बहुत-से काम करती हैं...उनको गैरकमाऊ की श्रेणी में जगह देना क्या न्यायसंगत है?....अगर गृहिणियां घर नहीं संभालेगी तो पुरुष बाहर के काम कैसे कर पाएंगे?... पुरुष के बाराबर ही कमाई का श्रेय एक स्त्री को भी जाता है!... सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में केन्द्र सरकार को निर्देश दिया है कि महिलाओं का नए सिरे से सम्मानजनक मूल्यांकन करें!.. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक स्त्री के सड़क हादसे से मारे जाने पर उसके परिवार को पर्याप्त मुआयजा देने से इन्कार किया था..क्यों कि गृहिणियों की हैसियत महज 1250 रु.प्रतिमाह आंकी गई है!....इस पर सुप्रीम कोर्ट ने मुआवज़े की रकम रु.600000 दिलवाई है!..और कहा है कि गृहिणियों को भिखारी, कैदी और वेश्याओं की श्रेणी में रखना अपमानजनक है!
..... क्या भारत सरकार की आंखें अब भी खुलेगी?.... अगर 'मेरा देश महान' कहने वाले नेता जब अपनी ही मां, बहनें और पत्नियों को सम्मानजनक स्थान नहीं दे पाते तो...इस देश की छवि दुनिया के सामने कैसी होगी?

डॉ अरुणा कपूर

Tuesday, July 27, 2010

क्या ‘बालिका वधु’ धारावाहिक सचमुच बाल-विवाह के विरुद्ध है?

दूरदर्शन पर अनेकों धारावाहिकों की एक बाढ़ सी नज़र आती है. अक्सर यह भी कहा जाता है कि ये धारावाहिक तो द्रौपदी की साड़ी की तरह लंबे खिंचते जाते हैं. कई एपीसोड चल कर दिशाहीन व उबाऊ से भी हो जाते हैं. ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ जैसे धारावाहिक तो अंततः ऐसे मोड़ पर आ गए जब उन्हें झेलना भी मुश्किल हो गया था. फिर भी एकता कपूर का तुर्रा यह कि वह पहुँच गई थी अदालत, कि धारावाहिक बंद न किया जाए. अदालत ने उसे उलटे पाँव लौटा दिया.
                                                            धारावाहिक ‘बालिका वधु’ जब शुरू हुआ तो मुझे चारों तरफ से अपने संबंधियों परिचितों से सन्देश आने लगे कि यह धारावाहिक साहित्यिक उपन्यास जैसा लगता है, इसे ज़रूर देखो, और मैंने इसे बड़े चाव से देखना शुरू किया, शुरू में इसे बेहद पसंद भी किया. राजस्थान में आखा तीज के दिन सामूहिक बाल विवाह होते हैं, जिस की तरफ समाज सुधारकों का ध्यान नहीं गया. सरकारें कुछ हद तक कोशिशें करती रही पर जब तक मानसिक रूप से कोई समाज नहीं बदलेगा तब तक कितने भी कड़े क़ानून बन जाएँ, समाज नहीं सुधर सकता, चाहे वे खाप पंचायतों के निर्दयी आदेश हों, चाहे Honour killings के अभिशाप. ये सब समाज में बने रहेंगे, जब तक कोई महापुरुष इन समाजों का हृदय ही परिवर्तित न कर के रख दे. राजस्थान में कहते हैं कि यदि हम बच्चों की शादियाँ न करें तो देवता नाराज़ हो जाएंगे और देवताओं के कोप के रूप में न जाने कौन सा अनर्थ हम पर आन पड़ेगा. राजा राम मोहन रॉय ने जब सती प्रथा के विरुद्ध संघर्ष शुरू किया तो ब्रिटिश से केवल क़ानून ही नहीं बदलवाया, वरन दिन रात एक कर के गांव गांव जा कर लोगों की सुषुप्त चेतनाओं को झकझोरा, उन का मन बदला था. यहाँ तो यह हालत है कि राजस्थान में ‘सती महिमा’ पर भी लोग उच्च न्यायालय गए थे कि सरकार होती कौन है, हमें सती महिमा पर उत्सव करने से रोकने वाली. बहरहाल, बात तो ‘बालिका वधु’ धारावाहिक की चल्र रही थी. इस धारावाहिक में एक अबोध बालिका आनंदी का बचपन में ही ब्याह तय हो जाता है. ब्याह होता क्या है, यह उस बच्ची को पता ही नहीं. वह माँ से यह खबर सुनते ही आस पड़ोस में दौड़ी दौड़ी चली जाती है. जो जहाँ बैठा या खड़ा है, सब को खुशी से बताती जाती है – ‘मेरा ब्याह तय हो गया... मेरा ब्याह तय हो गया...’. पर जिस घड़ी सासरे जाना होता है, तब सचमुच रोने लगती है. उस की कोई टीचर पुलिस लाती है, पर आनंदी इस सारे घटनाचक्र की विभीषिका से डर कर केवल इतना ही समझ पाती है कि यदि पुलिस को पता चल गया कि उस का ब्याह हो रहा है तो पुलिस उस के बापू को पकड़ लेगी, और वह टीचर की इस चेतावनी के बावजूद कि झूठ बोलने वालों की नाक फूल जाती है, पुलिस से झूठ बोलती है. उधर टीचर को गांव छोडना पड़ता है क्यों कि गाँव के लोग उस के घर में ही तोड़-फोड़ कर के उस के घर को तहस-नहस कर डालते हैं. ये सब बहुत वास्तविक और प्रभावशाली लगा. कुछ वर्ष पहले ‘स्टार न्यूज़’ पर जब मैंने एक खबर सुनी कि बाल विवाह रुकवाने की कोशिश करने वाली एक महिला के हाथ ही काट दिए गए, तब रूह सचमुच, अविश्वसनीयता के मारे काँप गई थी. इसलिए इस धारावाहिक की साहित्यिक सामाजिक गहराई को मैं पहचान गया था. गांव के पिछड़ेपन की सूरत चंपा नाम की एक लड़की की व्यथा कथा से पता चलती है. बचपन में ही चंपा की शादी तय हो गई थी, पर चंपा अपने मंगेतर के ही एक हमनाम लड़के के साथ भाग गई और वापस आई तो बर्बाद सी हालत में थी क्यों कि वह माँ बनने वाली थी और उस का प्रेमी भाग चुका था. किशोरावस्था की अबोधता में की हुई भूल के कारण जिस स्थिति में चंपा पहुँच चुकी थी, उस में उस का सहारा बनना तो दूर, पूरा गांव अपने सरपंच की शरण में आ खडा हुआ कि अब क्या किया जाए. सरपंच उस समय दरिंदगी की एक प्रतिमा सा लगता है और घोषित करता है कि चंपा को मार डालने में गांव का एक एक व्यक्ति अब उस का साथ देगा. पूरा गांव दौड़ पड़ता है, उस अभागी लड़की की खोज में जो एक मंदिर में भयभीत, कांपती सी छुपी है और आनंदी जैसी कुछ सहेलियों की मदद से ही गांव से भाग जाती है. सासरे में आनंदी के पति की ज़ालिम दादी सा कल्याणी है, जो पिछड़े हुए गांवों के ज़ालिम समाज की गली सड़ी प्रथाओं की ही प्रतीक है. जो समाज अपनी ही बालिकाओं पर न जाने कैसे कैसे ज़ुल्म ढाता है, कोई परम्पराओं के नाम पर तो कोई देवताओं के नाम पर. आनंदी अपने पति जगदीसा के साथ एक ही मेज़ पर खाना नहीं खा सकती. पहले उस का बीं (पति) खाना खाएगा, फिर उस की जूठी प्लेट में बींदड़ी (पत्नी) खाएगी. ये सब तो आनंदी को सहना ही पड़ा. पर गांव की किसी बाल विधवा को चूडियां पहनाने के जुर्म में आनंदी को दादी सा रात भर कोठरी में बंद कर देती है. उस के सास-ससुर या पति या ताई उसे निकाल न सकें, या पानी तक न पहुंचाएं, इसलिए बंद कोठरी के बाहर कुर्सी डाल कर बैठ जाती है दादी सा. पिछले 500 एपिसोड में आनंदी पर हो रहे अत्याचारों का एक लंबा सिलसिला है, जिस में कोई बड़ी उम्र की बहूरानी भी शायद जीते जी मर जाए. आनंदी को स्कूल में पढ़ने नहीं दिया जाता, जब कि पढ़ने में वह बहुत प्रखर है, पूरे स्कूल के सभी विद्यार्थियों में. कभी किसी भूल पर उसे घर से निकाल कर मायके भेज दिया जाता है, वह भी दूसरे गांव में जाने के लिए अकेले ही बस में चढ़ा दिया जाता है. जब उस की टीचर कुछ साल बाद अचानक गांव आती है और उस के घर किसी उत्सव में शामिल होती है तो वह सब के सामने इस बात का भांडा भी फोड़ती है कि कल्याणी देवी (दादी सा) ने उस की किताबें खुद आनंदी से ही जलवा दी हैं. यही नहीं, पिता की मार खा कर आनंदी का किशोर पति गांव से भाग कर मुंबई चला जाता है और वहां किसी अपराधी गिरोह में फंस जाता है जो बच्चों के शरीर के अंग काट कर उन्हें भिखारी बना देता है. वहां भी आनंदी ही पहुँचती है ससुर के साथ और पति को अपराधियों की गोली से बचा कर खुद अपने सिर पर गोली झेलती है. पर दादी सा को इतनी बड़ी घटना के बावजूद बींदड़ी पराई और ज़ुल्मों की हक़दार ही अधिक नज़र आती है. आनंदी के बीमार हो चुके होने का बहाना बना कर वह चुपके चुपके जगदीसा का दूसरा विवाह भी करवा देती है जहाँ से महापंचायत के ज़रिये ही जगदीसा को दूसरी पत्नी से छुटकारा मिलता है. आनंदी की तरह और भी बहू-बेटियां हैं जो एक नारकीय जीवन जीती हैं. जैसे दादी सा की अपनी ही पोती सुगना जिस का पति गौने वाले दिन ही डाकुओं की गोली का शिकार हो कर मर जाता है. सुगना क्यों कि विधवा हो चुकी है, इसलिए उसे कोठरी में एक ज़लील सी जिंदगी जीनी पड़ती है, जहाँ वह फर्श पर सोए और अपना खाना खुद बनाए. दादी सा के बड़े सुपुत्र की पहली पत्नी कुल का चिराग जनने की प्रक्रिया में उस चिराग के बचने की उम्मीद में शहीद हो जाती है तो दादी सा उस बड़े पुत्र का ब्याह उस से भी बीस वर्ष छोटी लड़की से करा कर आती है. ये सब के सब एक अभिशप्त जीवन जीने को बाध्य हैं. पर सवाल ये है कि इतने अत्याचार सहने के बावजूद आनंदी का पिता खज़ान सिंह आनंदी को अपने सासरे से वापस मायके ला का उस संबंध को तोड़ क्यों नहीं सका. आनंदी तो दिन-ब-दिन सासरे से जुड़ती चली जाती है. वह जब आई तो अबोध थी पर पांच साल बीतते न बीतते वह मूर्खता की सीमा तक अबोध बन जाती है और खुद ही घोषित करती है कि क्यों कि दादी सा को मेरा पढ़ना अच्छा नहीं लगता, इस लिए मैं आगे ना पढूंगी. जगदीसा से इस कदर अटूट तरीके से जुड गई सी दिखती है आनंदी कि अब उस से बिछोह के समय उसे स्वयं पर कोई बहुत बड़ा अत्यचार सा होता लगता है. क्या आनंदी का इस कदर सासरे से अति प्यार करना और पति से बुरी तरह भावनात्मक स्तर तक जुड़ जाना बाल विवाह करवाने वालों की हिम्मत नहीं बढ़ाएगा? आनंदी हर मुसीबत सह कर भी अपने सासरे में खुश बल्कि बेहद खुश सी नज़र आती है. यदि पहली बार जब उसे किसी गलती के कारण मायके भेज दिया गया तभी वह न लौटती और अपने पिता के पास रह कर पढ़ लिख कर बड़ी होती तब उसे अपने फैसले स्वयं लेने की पूरी आज़ादी होती और उसे बचपन में हुआ वह विवाह महज़ एक मूर्खता ही लगता. पति जगदीसा भी बड़ा हो चुका होता और यदि ये दोनों बचपन के पति-पत्नी युवा हो कर पिछला सब भूल कर अपने अपने समाज में कहीं अन्यत्र प्यार कर बैठते तो? तब क्या समाज की आँखें न खुलती कि इन के प्यार करने की, अपना पति स्वयं चुनने की उम्र तो अब आई है, और वह बचपन वाली शादी सचमुच व्यर्थ सी है जिस में अत्याचारों से लड़ने की कोई चेतना तक बचपन में असंभव है. युवा आनंदी जिस से प्यार करती, बराबरी के स्तर पर करती और अपने ससुराल में वह पति के साथ एक ही मेज़ पर खाना खाती. सास-ससुर की इज्ज़त करती पर अपनी शर्तों पर जीती. दादी सा जैसी ज़ालिम औरत को दो टूक जवाब देती या उस के विरुद्ध विद्रोह करती. कोई कह सकता है कि धारावाहिक में इतनी सारी बालिका-वधुओं की जिंदगी दिखा दी गई तो धारावाहिक विफल कैसे हुआ. पर यह पूरा धारावाहिक आनंदी पर इतना अधिक फोकस करता कि बाकी सब बातें अनायास ही बेहद गौण हो जाती हैं. पिछले 10-15 एपिसोड में तो पति के प्रति आनंदी का जूनून सीमा पार कर गया है. जगदीसा और आनंदी का प्रेम वयस्क जोड़ों को भी मात कर देता है. पांच वर्ष के लिए मायके भेज दिए जाने पर आनंदी की पति के लिए असह्य तड़प और पति का स्कूल से ही बिना किसी को बताए अपने गांव जैतसर से आनंदी के गांव बेलारिया आ जाना. और रेगिस्तान में दूर से करीब आते हुए आनंदी और जगदीसा को जिस तरीके से स्लो कैमरा में फिल्मांकित किया गया है, वह सचमुच किसी वयस्क जोड़े की प्रेम कहानी सा लगता है. आनंदी का frustration तो कहीं भी नज़र नहीं आता. बाल विवाह के कारण आनंदी की कोई क्षति भी हुई होगी, यह कहीं द्रष्टव्य ही नहीं है. बल्कि मायके में एक मंदिर की तरह उस ने सब की तस्वीरें सजा रखी हैं और खाना खाते समय पहले पति को भोग भी लगाती है. वह बावलियों की तरह एक एक तस्वीर को देख पहाडा सा रटती है – ये सासू माँ ... ये बापू सा ...और ये? रेगिस्तान में 5 वर्ष प्रतिदिन दूर तक इंतज़ार में देखते देखते उस की पथराई आँखें और एक छोटी सी सहेली के पूछने पर कि किसी का इंतज़ार कर रही हो क्या, उस का कहना कि 5 साल से इंतज़ार ही तो कर रही हूँ. यह सब देख कर लगता है कि नायक- नायिका की केवल उम्र छोटी है, बाकी सब तो किसी जनम जनम के साथ की प्रेम कहानी जैसा लगता है. धारावाहिक में बीच में लम्बाई प्राप्त करने के लिए स्टंट प्रसंग भी आए जैसे कि दादी सा के देवर महावीर सिंह को पता चलना कि दादी सा का बड़ा बेटा वसंत दरअसल उस का बेटा है आदि. कुल मिला कर यह सारा धारावाहिक आनंदी पर इतना ज़्यादा केंद्रित हो गया है कि किसी भी प्रकार से यह लगता ही नहीं कि यह बाल विवाह के विरुद्ध प्रचार करता है. इसे देख देख कर तो माँ बाप अपने बच्चों को आनंदी जैसी बहादुर लड़की बनने की प्रेरणा देंगे जिसने मुसीबतों पर मुसीबतें देखी पर अपनी जगह अडिग रही और अपना पूरा जनम ऐसी मुसीबतों वाली ससुराल को दे दिया. ऐसी शिक्षा दे कर कोई आश्चर्य नहीं कि समाज में बाल-विवाह बढ़ने शुरू हो जाएँ.

प्रेमचंद सहजवाला
(लेखक स्वतंत्र लेखक और स्तम्भकार हैं)

Monday, July 26, 2010

गोरों की रसोई में हिंदुस्तानी मसालों का राज

जहाँ तक भारतीय मसालों की खुशबू विदेशों में फैलने का सवाल या जिक्र है तो वो विदेशों में अभी से नहीं बल्कि पता नहीं कितने बरसों से फैली हुई है...सभी बड़े-बड़े फूड और ग्रॉसरी स्टोर भरे पड़े हैं भारतीय मसालों और आटा, दाल, चावल, घी, तेल से...सभी गोरे और काले लोग भारतीय खाने के क्रेजी यानी दीवाने हुए जा रहे हैं। 'करी' उन सबकी फेवरट डिश है..और चिकेन टिक्का मसाला तो सरताज बना है भारतीय '' करी '' में उन सबके लिये..मसालेदार चिकेन कोरमा भी चावल के साथ बहुत खाते हैं.. काफी समय पहले इटैलियन खाना टॉप पर समझा जाता था ब्रिटेन में फिर चाइनीज खाना हुआ टॉप पर लेकिन अब सालों से भारतीय खाना ही टॉप पर है और छा गया है उन सबके दिल-दिमाग और पेट पर. गोरे लोग तो हैं ही दीवाने भारतीय खाने के..जिसे वह जमकर खाते हैं..साथ में अफ्रीकन, चाइनीज, इटैलियन भी अब हमारे देसी खाने के शौक़ीन होते जा रहे हैं...और जर्मन लोगों की तो पूछो ही ना...हर जर्मन चाहें किसी उम्र का भी हो उसे भारतीय खाना बहुत पसंद है...यहाँ पर कुछ गोरों के कुत्ते भी करी पसंद करते हैं...उनके संग खाते-खाते उनकी भी आदत पड़ गयी....ये मजाक की बात नहीं बल्कि सही है...और '' करी '' शब्द से उनका मतलब होता है..भारतीय मसाले वाली डिश...यानी दाल या सब्जी..चाहें वह '' मीट करी '' हो '' वेजिटेबिल करी '' या '' लेंटिल करी '' ( दाल ). लस्सी भी बड़े शौक से पीते हैं ये लोग. अधिकतर गोरों को कहते सुना हैं कि उन्हें उनका खाना अब अच्छा नहीं लगता क्योंकि वह फीका होता है...यानि कि स्वादरहित...यहाँ हर तरह के मूड का फूड मिलता है और लोग अपने मूड के हिसाब से फूड खाते हैं...मतलब कि अब तो फ्यूजन फूड का भी कबसे फैशन चल पड़ा है...फ्रेंच फ्राइज ( french fries: आलुओं की तली हुई लम्बी फांके ) इन्हें यहाँ पोटैटो चिप्स भी कहते हैं...हाँ, तो इनके साथ करी भी खाते हैं अब लोग...पैकेट में जो बिकते हैं उन्हें क्रिस्प बोलते हैं...तो अब कुछ क्रिस्प या चिप्स भी यहाँ ब्रिटिश स्टोर्स में मसाला पड़े बिकने लगे हैं..पिज्जा के साथ फ्रेंच फ्राइज और आग में या ओवेन में भुने हुये आलू में सोया मिंस और राजमा की सूखी मसाले वाली सब्जी भर कर खाते हैं..जिसे जैकेट पोटैटो के नाम से बोलते हैं.
यहाँ भारतीय लोग तो हैं ही अपने खाने के शौक़ीन..घर में भी बनाते हैं और बाहर भी खाते हैं रेस्टोरेंट में. जो लोग भारत के जिस ख़ास क्षेत्र से आये हैं और जिन मसालों का इस्तेमाल उन क्षेत्रों में होता है भारत में वह सभी मसाले यहाँ भारतीय ग्रासरी या फूड स्टोर्स में उपलब्ध हैं. और कई सालों से यहाँ के अपने भी बड़े-बड़े नामी स्टोर्स जैसे कि: Asda,Tesco, Sainsbury, Waitrose, Marks & Spencer, Iceland, Co Op, Lidl (जर्मन) आदि ग्रासरी स्टोर्स या कहो फूड स्टोर भी तमाम भारतीय मसाले बेचने लगे हैं...कुछ मसाले तो जैसे काली मिर्च, तेजपत्ता, इलायची आदि और कुछ अन्य भी मसाले भारतीय दुकानों की तुलना में अब इन स्टोर्स में सस्ते मिलते हैं...साथ में इन स्टोर्स में स्वाद में बहुत ही उम्दा तरीके का दही मिलता है. जिन इलाकों में भारतीय लोगों की तादाद अधिक है वहाँ के ग्रासरी स्टोर्स में अब इंडियन कुल्फी जिसमे सभी तरह की जैसे केसर, बादाम, पिस्ता, आम से बनी हुई और साथ में गुलाबजामुन और गाजर का हलवा इत्यादि भी बिकने लगे हैं. उत्तर भारत, दक्षिण भारत, गुजरात और पंजाब सब तरह के खानों के रेस्टोरेंट हैं जहाँ मिठाइयाँ भी मिलती हैं...और ब्रिटिश लोग भी भारतीय मिठाइयों के शौक़ीन हो रहे हैं वह चाहें काले लोग हों अफ्रीका के या गोरे किसी भी देश के...समोसा और पकौड़े तो बड़े ही शौक से खाते हैं जैसे कि हम लोग...और उनमें अगर मिर्च कम लगे तो कहते हैं कि जितना अधिक चटपटा हो उतना मजा आता है खाने में.. हर बिदेशी के घर में यहाँ कई तरह के भारतीय मसाले मिलेंगे..ये बात और है कि सभी प्रकार के नहीं क्योंकि अब तक उन लोगों को सब तरह के मसालों का खाने में उपयोग करना नहीं आता..लेकिन उनका उपयोग जानने के लिये बहुत उत्सुक रहते हैं...मेक्सिकन और मोरक्कन लोग अपने खाने में जीरा का प्रयोग काफी करते हैं, मोरक्कन लोग हरीसा सौस बहुत खाते हैं अपने खाने में..जिसमे मुख्य रूप से सूखी लाल मिर्च होती हैं जिन्हें तेल, धनिया पाउडर व नीबू का रस डालकर पीस कर बनाते हैं और यह एक लाल रंग के पेस्ट की तरह दिखती है, ग्रीक लोग मसालों को अधिक इस्तेमाल नहीं करते बस जीरा, काली मिर्च पाउडर और मिर्च पाउडर का इस्तेमाल करते हैं, चाइनीज लोग जब करी बनाते हैं तो उसमें फाइव स्पाइस यानि कि पंच पूरन पिसे मसाले का प्रयोग करते हैं जो मेथी, सौंफ, कालीमिर्च, दालचीनी, लौंग और सोंठ ( सूखी अदरक ) का मिश्रण होता है...और इटैलियन लोग जब tomato sauce बनाते हैं pizza या pasta के लिये तो कभी-कभी उसमे bayleaf यानि तेजपत्ता डालकर बनाते हैं उससे sauce का flavour कुछ बढ़ जाता है. और वह लोग लाल सूखी मिरचों का इस्तेमाल उसे पीसकर भी करते हैं और साबुत मिरचों का इस्तेमाल हर्ब और चिली आयल बनाने में भी करते हैं...मतलब साबुत सूखी मिरचें ओलिव आयल में कुछ दिन डालकर रखते हैं फिर उस चटपटे तेल को pizza पर छिड़क कर खाते हैं या उसे अन्य प्रकार से भी इस्तेमाल करते हैं अपने खाने में ( हर्ब कई प्रकार के होते हैं जो इटैलियन खानों में ऐसे इस्तेमाल करते हैं जैसे हम लोग अगर धनिया या पोदीना का इस्तेमाल अपने खाने में डालकर करें ) और ब्रिटिश गोरे लोग कुछ मसाले जैसे हल्दी, मिर्च, धनिया और जीरा पाउडर, गरम मसाला, कालीमिर्च पाउडर का और जायफल पाउडर का इस्तमाल ही अधिक करना जानते हैं...मेथी व सौंफ का इस्तेमाल करना वह लोग नहीं जानते...जायफल के पाउडर को सेव की चटनी, कुछ ख़ास प्रकार के केक व पालक की सब्जी में बहुत इस्तेमाल करते हैं. अमरीकन लोग apple यानि सेब से और pumpkin यानि कद्दू से मीठी डिश pie जिसे आप पेस्ट्री भी कह सकते हैं खूब बनाते हैं और जिसमे दालचीनी पाउडर का खूब प्रयोग होता है.
कई बार ऐसा हुआ कि जब सुपरमार्केट में कुछ खरीदने गयी तो किसी गोरी या गोरा ने मुझसे पूछा कि मैं उस मसाले का इस्तेमाल कैसे और किस तरह के खाने में करूँगी और वह फिर मेरे बताने पर बड़े कौतूहल से सुनते हैं...और कई बार सब्जियाँ खरीदते हुये वो लोग पूछते हैं कि मैं उस सब्जी को किस मसाले से बनाउँगी...बैंगन का उपयोग करना यहाँ के बहुत लोग नहीं जानते और एक बार जब मैं बैंगन खरीद रही थी तो एक लेडी को जिज्ञासा हुई कि उसका कैसे इस्तेमाल होता है..तो मैंने उसे बैगन से बनने वाली तमाम तरह की चीजें बतायीं और उनमें पड़ने वाले मसालों के नाम भी..अक्सर इसी तरह ये लोग नये मसालों का इस्तेमाल करना भी जानते रहते हैं..और हाँ, ये लोग रोटी, पराठा, पूरी, और नान बगैरा बनाने को झंझट समझते हैं और बचते रहते हैं...उन चीजों को रेडीमेड ही खरीदते हैं...इन लोगों को इलायची, नारियल और केसर का उपयोग भी करना नहीं आता..क्यों कि इनके खाने में ये नहीं पड़ती और मिठाइयों में वैनिला व अन्य प्रकार के एसेन्स पड़ते हैं...लन्दन में न जाने कितने भारतीय रेस्टोरेंट हैं जहाँ खाने वाले गोरों की संख्या उतनी ही मिलेगी जितनी कि भारतीय लोगों की..बल्कि कई बार उनसे भी ज्यादा..कुछ भारतीय रेस्टोरेंट सारा दिन खुलते हैं..कुछ केवल दोपहर और शाम को यानि कि लंच व डिनर के लिये और कुछ शाम को ही जो Take Away फूड कहलाते हैं जहाँ लोग खाना खरीदकर घर ले जाकर खाते हैं..और ऐसी जगहों पर अधिकतर अंग्रेज ही खरीदते हुये देखे जाते हैं जो भारतीय खाने के शौक़ीन हैं. आम की भी इन दिनों भरमार है हालांकि इस साल अभी लंगड़ा आम नहीं आया है..लेकिन चौंसा आम आ रहा है..और भी प्रकार के आम जैसे हनी पाकिस्तान से आ रहा है...एक आम करीब ५० रूपए का मिलता है यहाँ.

स्ट्राबेरी, सेव, नाशपाती, प्लम, रास्पबेरी , ब्लैकबेरी, रेड करेंट और आड़ू यहाँ ब्रिटेन में खूब उगाये जाते हैं. यूरोप के अन्य देशों से व अफ्रीकन देशों से भी तमाम खाने की चीजें आती हैं...स्पेन से तरबूज, खरबूजा, कई प्रकार के संतरे, वेस्ट इंडीज से केले, साइप्रस से भी तरबूज और खरबूजा, इटली से अँगूर, पीचेज, टमाटर, संतरे और अफ्रीका से तमाम तरह की सब्जियाँ जिनमे जमीन के अन्दर उगने वाली भी होती हैं, कद्दू व कच्चे केले...भारत से तो तमाम फल और सब्जियाँ आती हैं...उनकी तारीफ में क्या और कितना कहूँ...कई सालों पहले न इतने स्टोर थे और ना ही इतनी विविध प्रकार के फल व सब्जियाँ..लेकिन अब अन्य सभी चीजों के साथ मसालों की भी हर जगह भरमार है...
मसालों ने बनाया हर देश में मुकाम, हिंदुस्तान का ऊँचा कर दिया नाम...है ना कमाल की बात..? जय हिंद !!!!!

शन्नो अग्रवाल
(लेखिका लंदन में रहती हैं)

Sunday, July 25, 2010

अब तेरा क्या होगा चीनी?

देश में गन्ने की बिजाई को देखते हुए चीनी उद्योग ने आगामी सीजन के लिए उत्पादन अनुमान जारी कर दिया है। हाल ही में चीनी उद्योग ने कहा है कि एक अक्टूबर से आरंभ होने वाले चीनी वर्ष 2010-11 के दौरान चीनी का उत्पादन 255 लाख टन होने का अनुमान है। चालू वर्ष में उत्पादन 188 लाख टन होने का अनुमान है।
उल्लेखनीय है कि इस वर्ष 8 जुलाई तक देश में गन्ने की बिजाई 47.37 लाख हैक्टेयर पर हो चुकी है जबकि गत वर्ष इसी अवधि में 41.79 लाख हैक्टेयर पर हुई थी। चीनी उद्योग का कहना है कि गन्ने की बिजाई अधिक होने के साथ ही हाल की वर्षा से उत्पादकता भी अधिक होगी और रिकवरी में भी सुधार होगा।
इससे कुल मिलाकर चीनी उत्पादन में बढ़ोतरी होगी। अब तक देश में केवल दो ही बार ही चीनी का उत्पादन 250 लाख टन के आंकड़े को पार कर पाया ह। पहली बार 2006-07 में और दूसरी बार 2007-08 में। चीनी उद्योग का कहना है कि 250 लाख टन के उत्पादन और 40 लाख टन के बकाया स्टाक को मिलाकर कुल उपलब्धता 290 लाख टन ही हो जाएगी जबकि खपत का अनुमान 230 लाख टन का ही है। इस प्रकार आगामी वर्ष चीनी की अधिकता हो जाएगी। इसी को आधार मान कर चीनी उद्योग आयात पर शुल्क लगाने की मांग कर रहा है।

यकीन नहीं
एक ओर जहां चीनी उद्योग उत्पादन 250 लाख टन होने के अनुमान लगा रहा है यहीं दूसरी ओर सरकारी अनुमान 230 लाख टन का ही है। हाल ही में एक समारोह के दौरान 240 लाख टन के चीनी उत्पादन के आंकड़ों पर असहमति व्यक्त करते हुए स्वयं कृषि व खाद्य मंत्री श्री शरद पवार ने कहा था कि ‘मुझे इसका भरोसा नहीं है।’ इसी बीच, खुले बाजार में चीनी के भाव में गिरावट आ रही है। जनवरी-फरवरी में चीनी के भाव थोक बाजार में 4,300-4,400 रुपए प्रति क्ंिवटल पर पहुंच गए थे जो अब गिर कर 2,800-2,900 रुपए पर आ गए हैं।
विश्व बाजार में भी चीनी के भाव फरवरी में 30.4 सेंट प्रति पौंड का स्तर छूने के बाद अब गिर कर 17 सेंट के करीब आ गए हैं। चीनी व्यापारियों का कहना है कि चीनी उद्योग अधिक अनुमान के आंकड़े बता कर सरकार पर चीनी पर आयात शुल्क लगाने और इसे नियंत्रण मुक्त करने का दबाव बना रहा है। स्वयं कृषि भवन के अधिकारी इस समय चीनी के उत्पादन के अनुमान के बारे में कुछ भी कहने से करता रहे हैं। अधिकारियों का कहना है कि इस समय चीनी के उत्पादन के बारे मंे कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। यह समय किसी ठोस अनुमान लगाने का नहीं है।
वास्तव में अधिक उत्पादन के आंकड़े दर्शा कर चीनी उद्योग नियंत्रण से मुक्ति चाहता है। अब देखना यह है कि सरकार इन आंकड़ों को सही मानते हुए नए सीजन में चीनी को कन्ट्रोल से मुक्त कर देगी या कुछ महीनों तक उत्पादन की स्थिति का आंकलन करेगी।

राजेश शर्मा

Friday, July 23, 2010

पिता की समझ पर बेटे की मासूम हंसी है 'उड़ान'

यूं तो एक हफ्ते की कीमत कुछ भी नहीं, मगर रिलीज़ के एक हफ्ते बाद भी किसी फिल्म को बेतहाशा दर्शक मिलें तो समझ लेना चाहिए कि फिल्म की कुछ न कुछ तो कीमत है ही। मैं इस मनहूस उम्मीद में था कि उड़ान जैसी कम चर्चित फिल्म को दर्शक नहीं मिलेंगे मगर मैं गलत था। दर्शक मिलने की एक वजह ये हो सकती है कि फिल्म देखने वाला बड़ा दर्शक वर्ग या तो किशोर उम्र का है या फिर इस उम्र की एक-दो सीढ़ियां आगे चढ़ चुका है। उड़ान इसी उम्र के दर्शकों के लिए ढाई घंटे के सुख की पुड़िया लेकर आई है, जो हर दर्शक पॉपकॉर्न की तरह बांट नहीं सकता, अंधेरे में अकेले चखना चाहेगा। हिंदी सिनेमा में कितनी फिल्मों के नायक किशोर बालक हैं, या फिर पिता...शायद बहुत कम। ये साहस फिल्म बनाने वालों में कम ही रहा है। उड़ान इसलिए एक अलग, उम्दा और काबिले-तारीफ फिल्म है कि निर्देशक विक्रमादित्य मोटवाने ने फिल्म में कई तरह के साहसी प्रयास किये हैं और अनुराग कश्यप जैसे निर्माता ने उस साहस को पर्दे पर उतारने की क्षमता दी है।
फिल्म की कहानी बेहद सीधी है, मगर कहने का अंदाज़ उतना ही कसा हुआ। एक बोर्डिंग स्कूल में आठ साल से पढ़ रहा लड़का रोहन अपने दोस्तों के साथ एडल्ट फिल्म देखता हुआ पकड़ा जाता है क्योंकि उसका वॉर्डन भी उसी हॉल में ‘किसी’ के साथ बैठकर पिक्चर देख रहा है। फिर, पूरी कहानी ऐसे ही विरोधाभासों के साथ आगे बढ़ती है। फिल्म निर्देशक सईद मिर्ज़ा ने कहा था कि निर्देशक के पास कहानी अलग नहीं होती, कहने का तरीका अलग होता है। फिल्म में आसान दृश्यों की महीनता दिखा पाना ही कला है। ये महीन पल उड़ान मे खूब हैं। किशोर उम्र का उतावलापन, बेवकूफियां और बहुत-सा आक्रोश। दर्शक जब पहली बार जान रहे होतें हैं कि फिल्म का 16 साल का नायक रोहन कविताएं लिखता हैं तो ये बताना भी ज़रूरी था कि ये एक विलक्षण कला है जो हर किशोर के पास नहीं होती। उसका दोस्त पूरी कविता सुनने के बाद झूठी दाद देता है तो रोहन पूछता है, समझ आई और दोस्त मासूमियत से कहता है नहीं। निर्देशक ने कविता लिखने के हुनर को जो सम्मान इस फिल्म में दिया है, वो हिंदी सिनेमा में शायद ही कभी मिली हो। लिखने के इस हुनर को रोहन के पिता भी कूड़ा समझते हैं और पूरी फिल्म पिता की इसी समझ को तौबा करती है, रोहन की गुस्ताखियों के ज़रिए।
शिमला के बोर्डिंग स्कूल से निकाले जाने के बाद जमशेदपुर में अपने पिता के घर वापस आना पड़ता है। रोहन की मां नहीं है, उसके पिता आठ सालों से बोर्डिंग में मिलने नहीं आए और रोहन की टीस इन आठ सालों में बहुत बड़ी हो चुकी है। उसे घर आकर मालूम होता है कि पिता ने दूसरी शादी कर ली और उसका एक छोटा भाई भी है। वो अपने पिता से उतना ही चिढ़ता है जितना उसके पिता उससे। पिता उसे जमशेदपुर की स्टील कंपनी में भट्ठी में काम करने वाला इंजीनियर बनाना चाहते हैं और रोहन लेखक के सिवा कुछ बनने की सोच ही नहीं सकता। ये घर-घर की कहानी है, मगर रोहन फिल्म में जो कर पाया, वो हर बेटा कर सके मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी है।
फिल्म में पिता को क्रूरता की हद तक सख्त दिखाया गया है जो शायद फिल्म का कमज़ोर पक्ष कहा जा सकता है। फिल्म में पिता बिल्कुल नीरस है और बेटों पर हुक्म चलाना ही अपना पितृ-धर्म समझता है। उसे पिता की बजाय सर कहलाना पसंद है और वो दो बेटों के घर मे होने के बावजूद अकेलेपन को वजह बताकर तीसरी शादी की सोच सकता है। खैर, पिता की इतनी भयानक कल्पना शायद बेटे रोहन का किरदार और मज़बूत उभारने के लिए की गई होगी।
चूंकि मैं जमशेदपुर में लंबे वक्त तक रह चुका हूं इसीलिए कह सकता हूं कि जमशेदपुर कैमरे के ज़रिए उतना खूबसूरत नहीं लगा जितना सचमुच है। शायद विक्रमादित्य कंपनी का धुंआ और सुस्त-सी हरियाली दिखाकर हर सीन में ये बताना चाहते हों कि इस फिल्म का जमशेदपुर क्रूर पिताओं का शहर है और जिस शहर में पिता क्रूर हों, वो इससे खूबसूरत नहीं दिख सकता। पिता अपनी हुकूमत चलाने के दरमियां रोज़ सुबह अपने बेटों को उठाता है और साथ दौड़ लगाता है। रोहन अक्सर इस उबाऊ दौड़ में थककर हार जाता है, पर पिता आगे निकल जाते हैं। इस एक उबाऊ दौड़ को आखिरी सीन में फिल्म का हथियार बनाकर विक्रमादित्य ने ग़ज़ब का काम किया है। इस सीन के दौरान हॉल में तालियां बजती रहती हैं जो अहसास दिलाती हैं कि अंधेरे हॉल में कई रोहन बैठे हैं, जो अपने पिताओं को उजाले में कुछ नहीं कह सके। यही फिल्म की असली जीत है, सच्ची उड़ान है।
फिल्म के गीत कहानी के हिसाब से लिखे गए हैं और जादू-सा असर करते हैं। जमशेदपुर के जुबिली पार्क में पिकनिक मना रहे बाप-बेटे-चाचा जब बोर हो रहे होते हैं तो चाचा रोहन से कुछ सुनाने को कहता है कि पिता भी शायद सुन-समझ पाए। रोहन सुनाता है और पिता और गुस्से से भर जाता है। फिल्म में कई ऐसे दृश्य हैं जब आप खुद को रोहन समझने लगते हैं, भले ही पिता का चेहरा आपके पिता से मेल न खाता हो।
निर्देशक का धन्यवाद कि उड़ान के ज़रिए कई पुराने साथियों से फिल्म के पर्दे पर ही मुलाकात हो गई। मेरे कॉलेज (जमशेदपुर) के कुछ साथियों ने फिल्म में छोटी भूमिका निभाई है। उन्हे अचानक कुछ साल बाद देखना ऐसा अनुभव था कि बता नहीं सकता। उड़ान एक भावुक कर देने वाली बेहतरीन फिल्म है, जिस पर ज़्यादा लिखना ठीक नहीं। आप देख कर आएं तो ज़रूर लिखें। ये सबको देखनी चाहिए और देखने के बाद लिखना भी चाहिए। शायद फिल्म देखने के बाद वो हिम्मत आ जाए कि हम अपने पिताओं से आंखें मिलाकर कह सकें कि हम आपके बेटे हैं, कोई फिक्स डिपॉज़िट नहीं।

निखिल आनंद गिरि

Wednesday, July 21, 2010

कॉमनवेल्थ का काम कभी खत्म होगा क्या?


कॉमनवेल्थ गेम्स सर पर हैं पर अभी तक कईं परियोजनायें पूरी नहीं हो पाई हैं। कई परियोजनाओं का तो ये आलम है कि ये खेलों के बाद ही पूरी हो पायेंगी। २००३ में दिल्ली को खेलों की मेजबानी सौंपी गई थी। उसके बाद से दिल्ली में मेट्रो, फ्लाईओवरों का काम तो तेजी से हुआ लेकिन बाकि सब पीछे छूट गया। बुनियादी जरूरतें जैसे बिजली, पानी, सीवर, नाले ये सब पीछे रह गये। फुटपाथ का काम अभी जारी है। मुख्यमंत्री ने दस अगस्त तक सड़कों पर से मलबा हटाने को कह दिया है। बारिश का मौसम आ गया है तो जाहिर तौर से रूकावटें भी आती रहेंगी। लेकिन सोचने वाली बात यह है कि सात साल मिलने के बावजूद हमारे नेता व सरकार कुछ कर क्यों नहीं पाई।

पिछले दिनों बारिश हुई तो नगर निगम के हिसाब से नालों की सफ़ाई करवाई जा चुकी है और जहाँ-जहाँ पानी भरा है वो उनके अंतर्गत नहीं आती हैं। इसका क्या मतलब हुआ? कितनी एजेंसियाँ सड़क निर्माण में जुटी हुई हैं? नगर निगम के अलावा पी.डब्ल्यू.डी, डी.एम.आर.सी (मेट्रो), राईट्स (RITES) और एन.डी.एम.सी (NDMC) सब जुटी हुई हैं दिल्ली को बुनियादी सुविधायें देने व सौंदर्यीकरण के लिये। आइये जानते हैं कि इन विभागों व एजेंसियों के क्या क्या काम हैं। लोक निर्माण विभाग यानि पी.डब्ल्यू.डी दिल्ली सरकार का ही एक विभाग है जिसके पास सड़क,फ्लाईऑवर निर्माण, फुटपाथ, अस्पताल, स्कूल कॉलेज व सबवे इत्यादि के निर्माण के कार्य आते हैं। यानि निर्माण जो हमें दिल्ली की सड़कों पर नजर आता है वो दिल्ली सरकार के विभाग करते हैं। जो सड़क दिल्ली मेट्रो के आस-पास आती हैं उनका निर्माण उसी विभाग को करना होता है। इसी तरह एक और कम्पनी है RITES| ये भारत सरकार के अंतर्गत आने वाली कम्पनी है जिसकी शुरुआत १९७४ में हुई थी। अभी हाल ही में खबर आई थी कि बीआरटी कॉरीडॉर पर इस कम्पनी ने पिछले वर्ष ही फुटपाथ बनवाया वो नगर निगम ने इसी माह में पाईपलाईन डालने के लिये तुड़वा दिया। यानि एक एजेंसी काम करवाती है दूसरी बिगाड़ती है। इतने विभाग हैं तो तालमेल कैसे बैठाया जाये। हर कोई चाहेगा कि काम कम किया जाये और वाह-वाही अधिक हो।

अब आप समझ ही गये होंगे कि राष्ट्रकुल खेलों का काम समय पर खत्म क्यों नहीं हो पा रहा है। जब कुछ काम समय पर पूरा होता है तो ये सरकारी विभाग श्रेय लेने के लिये आगे आ जाते हैं। विकास के नाम पर नगर निगम और राज्य सरकार दोनों अपना अपना "विकास" कर रहे हैं जबकि सच्चाई यह है कि दिल्ली फ़्लाईऑवरों व पुलों के जाल में ही फ़ँसी रह गई है जबकि बुनियादी सुविधायें पीछे छूट गईं हैं। लगभग सभी अंडरपास में बारिश के दिनों में जलभराव की शिकायतें आती हैं। क्या निकासी का कोई प्रावधान नहीं किया गया? इतने पुल बनाये गये पर यातायात की परेशानी अभी तक है।
किसी राज्य के लिये निगम और सरकार दोनों को अलग करने की क्या आवश्यकता है? क्या मात्र सरकार के रहते ही यह काम नहीं हो सकता? दिक्कत तब बढ़ जाती है जब नगर निगम और सरकार में दो अलग पार्टियों का कब्जा हो, जैसा कि दिल्ली में है। यहाँ सरकार है कांग्रेस की और नगर निगम में भाजपा काबिज है। इस परिस्थिति में दिल्ली का उत्थान कैसे हो सकता है? कांग्रेस १२ सालों से पैसा खा रही है तो भाजपा सरकार में न होने की भरपाई कर रही है।

कोई सड़क मेट्रो की, कोई पीडब्ल्यू.डी, कोई RITES तो कोई नगर निगम की और कोई एन.डी.एम.सी। किसको शिकायत करें? निगम पार्षद के पास जायें या विधायक के पास इसी में उलझा रहता है आम आदमी। जनता आस लगाये बैठी रहती है कि उसका दिया हुआ टैक्स शायद किसी काम आ सके लेकिन उन पैसों की बरबादी करने में अव्वल हैं ये सरकारी विभाग व एजेंसियाँ।

खेल आयेंगे और १० दिन में चले भी जायेंगे पीछे रह जायेंगी परियोजनायें, जनता की इच्छायें, बुनियादी सुविधायें, हर विभाग व नेता ठोकेंगे के अपनी पीठ कि उन्होंने भारत व दिल्ली को दुनिया में रोशन किया। पर अँधेरे में खो जायेंगी गरीब आदमी की आस। इतनी बढ़ती महँगाई में शायद ये खेल उन्हें रहने को घर, पहनने को कपड़ा और खाने को रोटी दे जायें....

तपन शर्मा

Monday, July 19, 2010

हिमानी के हसीन सपने : जाति बिना समाज

जीने के लिए क्या ज्यादा जरुरी है
पानी या शराब?
रोटी या कबाब?
पैसा या व्यापार?
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जाति या समाज
?

नही जानती कि जाति के मामले में मेरी जानकारी का स्तर क्या है? मैंने वर्णव्यवस्था को कितना समझा है? मैं समाज के विभिन्न धर्मो और वर्गो के बारे में कितना जानती हूं? लेकिन इसके बावजूद भी ये सब कुछ ठीक से न समझने को कहीं न कहीं मैं अपना सौभाग्य मानती हूं। ये आधा-अधूरा ज्ञान मुझे पूरा हक देता है हर किसी से बात करने का, हर किसी के साथ खाना खाने का और वो सब कुछ करने का जो समाज में रहते हुए आम व्यवहार में हम एक दूसरे के साथ करते हैं। काश कि कोई भी न जानता होता इस वर्ण व्यवस्था के बारे में । इस बारे में कि फलाना इंसान दलित है और फलाना ऊंची जाति का है। ये एक निरी कल्पना है जिसका साकार होना निरा मुश्किल भी है। लेकिन जाति के नाम पर जो कुछ समाज में होता आया है और हो रहा है उसकी कल्पना करना भी तो निहायत कठिन है। हाल की ही खबर है कि उत्तर प्रदेश के कन्नौज में मिड डे मील में दलित महिला के खाना बनाने को लेकर वहां के लोगों ने हंगामा किया। और अब फिर वही सवाल कि जीने के लिए जाति ज्यादा जरुरी है या बराबरी का समाज। ये जात वो बिरादरी। इसके साथ खाना ,उसके साथ मत घूमना। इसका जूठा मत खाना, उसके बर्तन भी मत छूना। अपने आस-पास के लोगों से हर वक्त इस तरह की दूरियां बनाने में न जाने कितना दिमाग और वक्त खर्च कर देते हैं लोग। कहने को भारतीय संस्कृति बहुत कुछ है लेकिन दूसरा सच ये है कि आज हम सभ्यता के उस मुहाने पर खड़े हैं जहां जाति गालियों में शुमार एक ऐसा दस्तावेज है जिसकी परतें जब खुलती हैं तो इंसान का अस्तित्व ही मैला नजर आता है। अबे चमार कहीं के, अरे वो तो ब्राहम्ण कुल का है। जाति सूचक ये शब्द इस तरह इंसान का दर्जा तय कर देते हैं कि एक तबका तो जाति के बोझ तले ही दब जाता है और दूसरा जाति की छत्रछाया में अपने महल बना लेता है। छठवीं शताब्दी में उपजी समूह व्यवस्था ने जाति को सामाजिक संरचना से लेकर आर्थिक और राजनीतिक हर स्तर पर एक मुख्य पहचान और पुख्ता हथियार बना दिया। परिणाम हमारे सामने है- अनेकता में एकता वाला भारत टूट रहा है और बिखर रहा है। एक इमारत में रहने वाले विभिन्न जातियों के लोगों से लेकर एक प्रदेश में जीवन-यापन करने वाले अलग-अलग जातियों के लोगों में आपस में दिली तौर पर इतनी दूरियां पैदा कर दी गई हैं कि लोग अपनी जाति पर आधारित एक अलग प्रदेश चाहते हैं। समाज में पैठी ये दूरियां सत्ता में बैठे लोगों के लिए भी एक हथियार बन चुकी हैं। जाति बनाने वाले बनाकर चले गए शायद ही उन्होंने सोचा होगा कि आने वाली पीढिय़ां इस बनावट को इतनी शिद्दत से निभाएंगी। लेकिन अब इस पीढ़ी को ये प्रथा तोडऩी होगी, बरसों पुरानी शिद्दत को तिलांजलि देनी होगी, छोडऩा होगा एक ऐसे बंधन को जो सिर्फ एक हथकड़ी है हमारे और आपके बीच में। छठवी शताब्दी की शुरूआत को भूलकर एक ऐसा प्रारंभ इक्कीसवी सदी में करना होगा जिससे ये सारे भेद मिट जाए। जाति का वो पिरामिड जिसमें सबसे ऊपर के माले पर ब्राहम्ण का सिंहासन है और दलित की झोपड़ी जमीन में धंसी हुई है, उस पिरामिड की व्यवस्था और विचारधारा को बदलना बहुत जरुरी है।
ये सब लिख्रते हुए मैं इस बात से भी पूरा सरोकार रखती हूं कि भारतीय समाज की व्यवस्था में जाति गहरे पैठी हुई है इसका त्याग करना इतना आसान नही होगा उन लोगों के लिए जिन्होंने तथाकथित नीच जाति के लोगों से कभी बात करना भी गंवारा नहीं किया लेकिन अगर वही लोग घर में भात की जगह मैगी को दे सकते हैं तो विचारधारा का ये बदलाव भी लाजंमी है जिससे जिंदगी की वास्तविक नफासत वापस आ सकती है।

हिमानी दीवान

Saturday, July 17, 2010

बड़े बेआबरू होकर लौट आए विदेश मंत्री

पाकिस्तान से बेआबरू होकर लौटे हमारे विदेश मंत्री की मुस्कुराहट पर बहुत कुछ लिखने का मन था, मगर फिलहाल बीबीसी पर ये लेख पड़ा मिला तो सोचा बैठक पर इसी से शुरुआत की जाए....

कौन माई का लाल कहता है कि एसएम कृष्णा और शाह महमूद क़ुरैशी का वार्तालाप सफल नहीं रहा. पहली बार ऐसा हुआ कि एसएम कृष्णा इस्लामाबाद के बेनज़ीर इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर उतरे तो उन के स्वागत के लिए नया क़ालीन बिछाया गया.
दोनों विदेश मंत्रियों ने इस बात पर सहमति जताई कि डिनर में जो खाने परोसे गए वह स्वादिष्ट थे और इसी तरह से खानों से दोनों देशों के बीच विश्वास और बढ़ेगा.
जिस गाड़ी में शाह महमूद क़ुरैशी और एसएम कृष्णा राष्ट्रपति ज़रदारी और प्रधानमंत्री गिलानी से मिलने गए उस गाड़ी के एसी की ठंडक की मेहमान विदेश मंत्री ने प्रशंसा की और प्रस्ताव दिया कि इस तरह से एसी बनाने वाली फैकट्री में साझा निवेश में भारत और पाकिस्तान के बीच आर्थिक संबंधों को बढ़ावा मिल सकता है.
शाह महमूद क़ुरैशी ने श्री कृष्णा की भावनाओं की प्रशंसा करते हुए प्रस्ताव दिया कि इस परियोजना के लिए एमओयू की स्क्रिप्ट को अगली मुलाक़ात में डिस्कस किया जा सकता है.
जब दोनों विदेश मंत्री संयुक्त प्रेस कांफ़्रेस करने के लिए पाँच घंटे पत्रकारों को इंतिज़ार कराने के बाद मुस्कराते हुए हॉल में पहुँचे तो एक कर्मचारी ने मुझे एक कोने में ले जा कर बताया कि कृष्णा-क़ुरैशी बातचीत इसलिए लंबी हो गई क्योंकि इस में बहुत सा एजेंडा कवर किया गया.
मसलन जिस मेज़ के इर्द गिर्द दोनों प्रतिनिधिमंडल बैठे उस की बनावट विस्तार से डिस्कस की गई. कृष्णा जी यह भी जानना चाहते थे कि क़ुरैशी साहब चाय में दो चम्मच चीनी किस लिए डालते हैं.
उस अवसर पर क़ुरैशी साहब ने यह प्रस्ताव दिया कि अगली बार जब भी भारत और पाकिस्तान के डेलीगेशन मिलेंगे तो दोनों डेलीगेशन के लोग बग़ैर चीनी के चाय पिएँगे ताकि दक्षिण एशिया से ग़रीबी के ख़ात्मे के लिए ग़ैर-ज़रूरी ख़र्चों में कमी की शुरुआत हो सके.
मैंने उस कर्मचारी से कहा कि मगर हम तो समझ रहे थे कि मुंबई, कश्मीर, आतंकवाद, अफग़ानिस्तान, सियाचिन, सर क्रीक, न्यूक्लियर...... उस कर्मचारी ने मेरी बात काटते हुए कहा, ओहो... आप पत्रकार लोग जब भी सोचेंगे बुरा ही सोचेंगे... अरे भाई यह कोई डिस्कस करने की बातें हैं. हज़ार बार तो इन विषयों पर बात हो चुकी है. इंडिया को इस बारे में पाकिस्तान का पक्ष मालूम है और पाकिस्तान को इंडिया का. तो फिर समय बरबाद करने का क्या मतलब? भला डेडलॉक तोड़ने का इस से अच्छा एजेंडा और क्या हो सकता था जो कृष्णा क़ुरैशी ने डिस्कस किया.....
हाँ, तो मैं आप को बता रहा था कि दोनों शिष्टमंडलों ने इस बात पर भी सहमति जताई कि सांस्कृतिक संबंधों को आगे बढ़ाने के लिए अगली समग्र वार्ता में रवि शंकर और मेंहदी हसन को भी शामिल किया जाए.... और राग बागेश्वरी और झंजोटी को आम करने के लिए दोनों देशों.....

(माफी चाहता हूँ मैं उस कर्मचारी की पूरी बात नहीं सुन सका क्योंकि प्रेस कॉंफ़्रेंस ख़त्म होने से पहले ही मीडिया चाय की मेज़ की तरफ लपक चुका था. और दोनों विदेश मंत्रियों के चेहरे फ्लैश गनों की लपक झपक में टिमटिमा रहे थे.)..

वुसतुल्लाह खान
(बीबीसी ब्लॉग से साभार)

Thursday, July 15, 2010

सात समंदर पार फैली भारतीय मसालों की खुशबू

भारतीय मसालों का वैश्विक बाजार लगातार बढ़ता जा रहा है। विश्व में मसालों के उत्पादन में भारत सबसे आगे है और यहां पर लगभग 3,000 मसालों का उत्पादन होता है। छोटी इलायची, काली मिर्च, हल्दी, लाल मिर्च आदि के उत्पादन ने विश्व में भारत पहले या दूसरे पासदान पर है।हाल ही में समाप्त हुए वित्त वर्ष के दौरान देश से सभी प्रकार के मसालों के निर्यात में 7 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई और यह बढ़ कर 5.02 लाख टन पर पहुंच गया। मूल्यानुसार निर्यात 53 बिलियन रुपए से बढ़ कर 55.61 बिलियन रुपए के रिकार्ड स्तर पर पहुंच गया। अनेक वर्षों के बाद छोटी इलायची का निर्यात चार अंकों मं पहुंचा है। वर्ष 2009-10 के दौरान 1,975 टन छोटी इलायची का निर्यात किया गया जो पिछले 10 वर्षों का रिकार्ड है। गत वर्ष केवल 750 टन का ही निर्यात किया गया था।
ग्वाटेमाला में उत्पादन कम होने के कारण भारत से सऊदी अरबिया, यूएई, कुवैत, मिस्र आदि देशों को अधिक मात्रा में निर्यात किया गया। आलोच्य वर्ष में छोटी इलायची का निर्यात 839 रुपए प्रति किलो की दर पर किया गया जबकि गत 2008-09 में 630.20 रुपए प्रति किलो की दर पर किया गया था। लाल मिर्च का निर्यात भी 9 प्रतिशत बढ़ कर 2.04 लाख टन हो गया। बोर्ड के अनुसार मलेशिया, श्रीलंका, बांग्लादेश और इंडोनेशिया आदि को अधिक मात्रा में निर्यात किया गया लेकिन पाकिस्तान को निर्यात केवलन 175 टन का किया गया। वर्ष 2008-09 में निर्यात 22,375 टन का किया गया था।
कुल मसाला निर्यात में लाल मिर्च की हिस्सेदारी मात्रा अनुसार भी और मूल्यानुसार भी सबसे अधिक है। देश से बड़ी इलायची का निर्यात 1,875 टन से गिर कर 1,000 टन का रह गया। बहरहाल, निर्यात से प्राप्त औसत भाव 121.64 रुपए प्रति किलो से बढ़ कर 178.86 रुपए प्रति किलो हो गया। धनिया निर्यात 56 प्रतिशत बढ़ कर 47,250 टन हो गया। लहसुन का निर्यात भी गत वर्ष की तुलना में अधिक रहा।
प्राप्त आंकड़ों के अनुसार काली मिर्च का निर्यात 22 प्रतिशत गिर कर 19,750 टन रह गया। इसका प्रमुख कारण अमेरिका और यूरोपीय समुदाय की मांग कम होना है।
हल्दी और जीरे के निर्यात में मामूली कमी आई और घट की क्रमशः 50,750 टन और 49,750 टन रह गया। निर्यात की यह गति अप्रैल में भी बनी रही।

राजेश शर्मा
(लेखक बैठक पर बिज़नेस और अर्थव्यवस्था से जुड़े कॉलम लिखते रहे हैं...अगर आपके पास भी इस मुद्दे से जुड़ा कोई सवाल हो तो लेखक से rajeshsharma1953@gmail.com या baithak.hindyugm@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं )

Wednesday, July 14, 2010

मैथिली शरण गुप्त ने "भारत-भारती" क्यों लिखी?

मैथिली शरण गुप्त ने "भारत-भारती" क्यों लिखी?

इसका उत्तर जानने के लिए हमें कहीं और जाने की जरूरत नहीं। "भारत-भारती" की प्रस्तावना में वे खुद इसका कारण बताते हैं:

यह बात मानी हुई है कि भारत की पूर्व और वर्तमान दशा में बड़ा भारी अन्तर है। अन्तर न कहकर इसे वैपरीत्य कहना चाहिए। एक वह समय था कि यह देश विद्या, कला-कौशल और सभ्यता में संसार का शिरोमणि था और एक यह समय है कि इन्हीं बातों का इसमें शोचनीय अभाव हो गया है। जो आर्य जाति कभी सारे संसार को शिक्षा देती थी वही आज पद-पद पर पराया मुँह ताक रही है! ठीक है , जिसका जैसा उत्थान, उसका वैसा हीं पतन! परन्तु क्या हम लोग सदा अवनति में हीं पड़े रहेंगे? हमारे देखते-देखते जंगली जातियाँ तक उठकर हमसे आगे बढ जाएँ और हम वैसे हीं पड़े रहेंगे? ्क्या हम लोग अपने मार्ग से यहाँ तक हट गए हैं कि अब उसे पा हीं नहीं सकते? संसार में ऐसा कोई काम नहीं जो सचमुच उद्योग से सिद्ध न हो सके। परन्तु उद्योग के लिए उत्साह की आवश्यकता होती है। इसी उत्साह को , इसी मानसिक वेग को उत्तेजित करने के लिए कविता एक उत्तम साधन है। परन्तु बड़े खेद की बात है कि हम लोगों के लिए हिन्दी में अभी तक इस ढंग की कोई कविता-पुस्तक नहीं लिखी गई जिसमें हमारी प्राचीन उन्नति और अर्वाचीन अवनति का वर्णन भी हो और भविष्य के लिए प्रोत्साहन भी। इस अभाव की पूर्त्ति के लिए मैंने इस पुस्तक के लिखने का साहस किया।

प्राचीन समय में हम कितने उन्नत थे, यह बताने के लिए गुप्त जी ने कई सारे उदाहरण दिये हैं।
"अतीत खंड" के "वैद्यक" शीर्षक के अंतर्गत उनकी ये पंक्तियाँ विशेष ध्यान आकर्षित करती हैं:

है आजकल की डाक्टरी जिससे महा महिमामयी,
वह "आसुरी" नामक चिकित्सा है यहीं से ली गई।


इन पंक्तियों.. इस तुकबंदी.. इस अन्त्यानुप्रास के माध्यम से गुप्त जी यह कहते हैं कि आजकल का "अंग्रेजी-उपचार" और कुछ नहीं बल्कि एक तरह की हिन्दुस्तानी चिकित्सा हीं है। अपनी बात के समर्थन में उन्होंने कुछ references दिए हैं:

क) आयुर्वेद में चिकित्सा के तीन भेद हैं यथा-

"आसुरी मानुषी दैवी चिकित्सा त्रिविधा मता,
शस्त्रै: कषायैर्लोहाद्यै: क्रमेणान्त्या सुपूजिता:"


किसी किसी ने आसुरी चिकित्सा को राक्षसी भी लिखा है-

"रसादिभिर्या क्रियते चिकित्सा दैवीति वैद्यै: परिकीर्तितता सा
सा मानुषी या अथ कृता फलाद्यै: सा राक्षसी शस्त्रकृता भवेद्या"


अर्थात वैद्य लोग रसादिक से की हुई चिकित्सा को दैवी, फलफूलादि से की ही को मानुषी और शस्त्रादि से चीर-फाड़ की चिकित्सा को राक्षसी चिकित्सा कहते हैं।

ख) प्राचीन काल में हिन्दुओं को शस्त्रचिकित्सा करने में संकोच न था। उन्होंने वैद्यक में यूनानियों से कुछ भी नहिं सीखा, बल्कि उन्हीं को बहुत कुछ सीखाया। आठवीं शताब्दी में संस्कृत से जो पुस्तकें अनुवादित हुईं उन्हीं पर अरब के वैद्यक की नींव पड़ी और सत्रहवीं शताब्दी तक यूरोप के वैद्य अरब वालों के (वास्तव में हिन्दुओं के) नियमों पर चलते थे। आठवीं शताब्दी से पन्द्रहवीं शताब्दी तक वैद्यक की जो पुस्तकें यूरोप में बनती रहीं, उनमें चरक के वाक्यों के प्रमाण दिए गए हैं। - डाक्टर हंटर

गुप्त जी ने न सिर्फ़ हिन्दुतानियों की प्रगति की सीधी बातें कहीं है, बल्कि कुछ ऐसी भी घटनाएँ, कुछ ऐसे भी वाक्यात "भारत-भारती" में दर्ज़ हैं, जिन्हें जानकर मुँह खुला का खुला रह जाता है।

मसलन "यवन राजत्व" के अंतर्गत इस "परिवर्तन" का ज़िक्र:

बनता कुतुबमीनार यमुनास्तम्भ का निर्वाद है,
उस तीर्थराज प्रयाग का बनता इलाहाबाद है।


यमुनास्तम्भ कुतुबमीनार बन गया .. यह बात उन्होंने ऐं वैं हीं नहीं कही है, बल्कि इसका स्पष्टीकरण भी दिया है। इसके लिए उन्होंने "दीपनिर्वाण" से कुछ पंक्तियाँ उद्धृत की हैं:

यमुनास्तम्भ अब कुतुबमीनार के नाम से प्रसिद्ध है। इसी नाम के कारण वह हिन्दू लोगों का बनाया होकर भी छिप रहा है। प्रकृत प्रस्ताव में यमुनास्तम्भ पृथ्वीराज का बनवाया हुआ है। कन्या-वत्सल पृथ्वीराज ने अपनी कन्या के प्रतिदिन संध्याकाल में यमुना-दर्शन के निमित्त इसे बनवाया था। यह बात हम लोगों की कपोलकल्पित नहीं हैं। आजकल भी दिल्ली के आस-पास और प्राचीन काल के सब लोगों में यही चर्चा प्रचलित है और मेटकाफ, हिवर इत्यादी अनेक अंगरेज और मुसलमान लोगों ने भी इसको प्रमाणित किया है कि यमुनास्तम्भ हिन्दू लोगों का बनवाया हुआ है। यमुनास्तम्भ के बनाने के कौशल के संग मुसलमान लोगों के स्तम्भ बनाने के कौशल में अनमेल देखकर बगलार महोदय ने सिद्धान्त किया है कि यमुनास्तम्भ हिन्दुओं का बनाया हुआ है। (Journal A.B. Bengal for 1864 Vol. 33) अलीगढ के प्रसिद्ध सर सैयद अहमद खाँ ने कर्नल केनिंगहम को जो इस विषय में एक पत्र लिखा था (Cunningham's Archaeological Survey of India Vol. IV), उसमें उन्होंने दिखलाया है कि यमुनास्तम्भ कभी मुसलमान-कृत नहीं हो सकता। विशेषत: यमुनास्तम्भ के नीचे की ओर हिन्दुओं के पूजन घाट इत्यादि जो अंकित हैं, उनसे वह हिन्दू लोगों का बनाया हुआ प्रमाणित है। यमुनास्तम्भ पहले जितना ऊँचा था अब उतना ऊँचा नहीं है क्योंकि कुतुबद्दीन ने उसका शिखर तोड़कर मुसलमानी ढंग से बनवाया और उसे अपने नाम से प्रसिद्ध किया।

भारत-भारती १९१२-१३ में लिखी गई थी। अगर उस समय तक इतना कुछ शोध हो चुका था, तो आश्चर्य है कि पुस्तक लिखे जाने के लगभग १०० साल बाद भी हम उन शोधों से अनभिज्ञ हैं, जबकि होना यह चाहिए था कि इन १०० सालों में और भी हज़ार नई बातें हमें ज्ञात हो चुकी हों। खैर.. नई बातें छोड़िये, हम उतना हीं जान जाएँ, जितना गुप्त जी ने लिखा है तो हम इस "भ्रान्ति" से ऊपर उठ जाएँगे कि "हिन्दुस्तान अमेरिका या फिर ऐसे हीं किसी देश का पिछलग्गु था या पिछलग्गु है" जबकि असल में तो "हिन्दुस्तान ने हीं औरों को रास्ता दिखाया है।" हाँ, इस बात पर विवाद हो सकता है कि गुप्त जी ने हिन्दुस्तान को बस "आर्य्यों" या फिर "हिन्दुओं" का घर बताया है, लेकिन यह सोच स्वाभाविक है क्योंकि गजनवी और गौरी के आने से पहले यहाँ बस हिन्दू हीं रहते आए थे और यहाँ सुख-समृद्धि भी थी। गुप्त जी ने मुसलमान शासकों में बस "अकबर" की प्रशंसा की है, क्योंकि उसने हिन्दुओं को "धर्म-परिवर्त्तन" के लिए बाध्य नहीं किया। इस विषय पर तथा और भी बाकी विषयों एवं उदाहरणों पर चर्चा हम अगली कड़ी में करेंगे।

तब तक के लिए खुदा हाफ़िज़!

विश्व दीपक

Tuesday, July 13, 2010

विज्ञान की एक सीमा है, प्रकृति असीमित है...

ये टिप्पणी डॉ अरुणा कपूर के ज्योतिषियों पर व्यंग्य के जवाब में झारखंड के बोकारो से आई है...संगीता पुरी हिंदी ब्लॉगिंग पर बेहद सक्रिय हैं...रांची यूनिवर्सिटी से अर्थशास्त्र में एम.ए. के बाद पिताजी की विकसित ज्योतिष की एक नई शाखा गत्यात्मक ज्योतिष पर गूढ़ अध्ययन शुरू किया, जो आज तक जारी है....ज्योतिष को नई तकनीक के ज़रिए ई-पाठकों को पहुंचाने का इनका प्रयास सराहनीय है...ऑक्टोपस की अटकलों पर जब विकसित देश भी आंख मूंदकर भरोसा कर रहे हैं तो ज्योतिष में गहरी आस्था रखने वालों का कुढ़ना लाज़मी है...

ऑक्‍टोपस ‘पॉल’ किसी ऋषि महर्षि का अवतार है या फिर उसके मालिकों ने उसे खास प्रकार की शिक्षा दी है या फिर यह संयोग-दुर्योग का खेल, कुछ नहीं कहा जा सकता। क्‍यूंकि विज्ञान मानता है कि जबतक हम किसी चीज के कारण न ढूंढ लें , उस नियम को मानने से ही इंकार कर दें, जबकि मेरे जैसे लोगों का मानना है कि प्रकृति के रहस्‍य असीमित है और विज्ञान की एक सीमा है। जरूरी नहीं कि जिस कारण को हम ढूंढ न सके, वह घटना दुनिया में हो ही नहीं सकती। विश्‍व कप में 'पॉल' नामक ऑक्‍टोपस की एक दो नहीं, सभी भविष्‍यवाणियों के सही साबित होने से दुनियाभर के आम लोगों का विश्‍वास या अंधविश्‍वास..जो भी कहें,बन ही गया है। इसके साथ ही ज्‍योतिष विरोधियों को इसके विरोध के लिए एक महत्‍वपूर्ण बिंदु भी मिल गया है कि जब इस हद तक तो तुक्‍का सही हो सकता है, तो अब तक ज्‍योतिषियों द्वारा की जाने वाली भविष्‍यवाणियां भी तुक्‍का ही थी। वास्‍तव में यदि एक ‘ऑक्‍टोपस’ द्वारा किया जाने वाला तुक्‍का ही इस ढंग से सच होता दिखे, तो फिर ज्‍योतिषीय अध्‍ययन और गणना में दिन-रात खपाने वाले हम ज्‍योतिषियों की मेहनत को कोई महत्‍व नहीं दिया जा सकता।
वर्तमान तो हमेशा मनुष्‍य के हाथ में होता आया है, पर आनेवाले समय और आनेवाली पीढी को कुछ बेहतर स्थिति में बनाने के लिए ही आज तक सबका संघर्ष जारी है। ऐसे में अनिश्चित भविष्‍य को एक निश्चित रूवरूप दे पाने की भला किसकी इच्‍छा न होगी। भविष्‍य का पूर्वानुमान लगाना हमेशा से मनुष्‍य का शगल रहा है। इसके लिए ही वह प्रकृति के हर नियम की जानकारी के लिए बेचैन रहा करता है। वर्षों तक अपने अध्‍ययन के बाद ही हम हर प्रकार के बीज को देखते ही उसको बोए जाने पर होनेवाले पेड़, फूल, फल, बीज और अन्‍य बातों का अनुमान लगा लेते हैं , वह भी तो बीज का भविष्‍य ही है। अब अनुमान करने के बाद बीज मर ही जाए, तो उसमें अनुमान लगानेवालों का क्‍या दोष ?
‘पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं’ इस कहावत से स्‍पष्‍ट है कि बच्‍चों के पालन-पोषण के क्रम में उसके जीवन की उपलब्धियों के बारे में जाना जा सकता है। यह भी तो बच्‍चे के भविष्‍य का पूर्वानुमान ही है, पर इसमें भी कुछ न कुछ अपवाद देखा ही जाता है। इसी प्रकार मौसम, व्‍यापार या अन्‍य क्षेत्रों में भी हम तरह-तरह के आंकड़ों का विश्‍लेषण और उनमें से कुछ तथ्‍यों का तालमेल करते हुए भविष्‍य में होने वाली घटनाओं के बारे में जानकारी प्राप्‍त करने की कोशिश करते आ रहे हैं। वर्षों के अनुभव के आधार पर विकसित किए गए सिद्धांतों की वजह से अधिकांश समय घटनाएं हमारे अनुमान के अनुरूप होती है।
इसके बावजूद हमारे ग्रामीण अंचल तक में प्रचलित यह कहावत कि ‘होनी , जानी , पानी , व्‍यासो मुनि न जानी’ भी इस बात की पोल तो खोल ही देती है कि भविष्‍य हमेशा अनिश्चित रहता है और इसे पूर्ण तौर पर समझ पाना मनुष्‍य क्‍या ऋषि और मुनियों के हाथ में भी कभी नहीं रहा। पर ऐसा नहीं है , चाहे कोई भी आधार हो , भविष्‍य के कुछ संकेत तो हमें मिल जाते हैं, पर हमारी महत्‍वाकांक्षा अधिक से अधिक जानने की होती है, यही कारण है कि हम धोखा खा जाते हैं। भविष्‍य जानने के लिए हम किसी बात के गुणात्‍मक पहलू पर ही ध्‍यान दें तो हमें कभी भी निराश नहीं होना पड़ेगा, पर हम सिर्फ गुणात्‍मक की ओर न जाकर संख्‍यात्‍मक पहलू की ओर चले जाते हैं , इससे हमें हमेशा निराशा ही मिल सकती है।
एक उदाहरण देना चाहूंगी कि यदि किसी बीज को देखकर उससे होनेवाले पेड़, फूल और फल की बनावट की चर्चा की जाए , तो हम कभी भी पूर्वानुमान करने में असफल नहीं होंगे। अब वह बीज बोए जाने के बाद सूख जाए और हमारी भविष्‍यवाणी को गलत मान लिया जाए, तो यह लोगों की भूल है। हां, हमारी भूल तब होगी , जब हम इससे आगे बढकर बीज की मज़बूती को देखते हुए इसके पेड की लंबाई-चौडाई और उसमें लगने वाले फल फूल की संख्‍या का आकलन करने लगेंगे। याद रहे, किसी भी चीज का संख्‍यात्‍मक पहलू देश , काल और परिस्थिति के अधीन होता है , इसकी भविष्य‍वाणी नहीं की जा सकती। पर गुणात्‍मक पहलू आंतरिक विशेषता होती है और किसी बीज को देखकर उसकी आंतरिक विशेषताओं का चित्रण किया जा सकता है।
हम जैसे ज्‍योतिषी बच्‍चे के जन्‍म के समय आसमान में मौजूद ग्रहों की स्थिति से बच्‍चे के चरित्र और उसकी जीवनयात्रा का अनुमान लगाते हैं , इसमें हमें काफी हद तक सफलता मिल सकती है। पर इससे लोगों को संतुष्टि नहीं मिलती , वे यहां तक जानना चाहते हैं कि बच्‍चा बडा होकर क्‍या बनेगा, किस अक्षर से शुरू होने वाले देश , शहर या कंपनी में नौकरी करेगा। ये सब बातें देश, काल और परिस्थिति पर निर्भर करती हैं। बस यहीं से भविष्‍यकथन में दिक्‍कतें शुरू होती हैं। इसके साथ हमलोग कुछ महत्‍वपूर्ण घटनाओं का आसमान के ग्रहों से तालमेल बिठाते हुए आने वाली घटनाओं का आकलन करते हैं। पर चाहे जो भी आधार हो , यह समझना चाहिए कि कोई सर्वज्ञ नहीं होता। वैसे भविष्‍य का आकलन करने में गुणात्‍मक पहलू तक जाने में बहुत कम अपवाद होते हैं, पर जैसे ही हम संख्‍यात्‍मक पहलू को लेने लगते हैं, हमें निराशा मिलने लगती है। बेहतर है हम अपनी सीमा के अंदर रहकर भविष्‍य के लिए आकलन करें , इससे न तो किसी की अपेक्षा बढेगी और न ज्‍योतिष का महत्‍व कम हो पाएगा।
तोते या ऑक्‍टोपस द्वारा की जानेवाली शत-प्रतिशत सटीक भविष्‍यवाणियों की जहां तक बात है, वहां कोई आधार नहीं है और इसलिए इसके कारण को ढूंढ पाना किसी के वश का नहीं। जब तक प्रकृति की इच्‍छा होगी , भाग्‍य का साथ मिलता रहेगा , उसकी भविष्‍यवाणियां सही होती रहेगी। पर इस बात को आधार मानकर ज्‍योतिष जैसी दैवी विद्या का मजाक उडाया जाए , तो यह कदापि उचित नहीं!!

संगीता पुरी

Monday, July 12, 2010

इंसान तो इंसान जानवर भी हो गए ज्योतिषी !

आप एक व्यक्ति को देख रहे हैं, यह व्यक्ति कमर से आधा झुका हुआ है । आप कयास लगाते हैं कि या तो अब वह बैठने वाला है, या तो सीधा खडा होने वाला है! लेकिन वह आगे कोई भी हरकत नहीं करता, वैसा ही आधा झुका हुआ रहता है। इसे ज्योतिषी कहते है। थोडी ही देर बाद उसे आस-पास कुर्सी नजर आती है तो वह बैठ जाता है और कहता है 'मै बस! बैठने ही वाला था' उसे सडक दिखाई देती है तो सीधा हो कर चलना शुरु कर देता है। कहता है 'मै बस..जाने ही वाला था' उसे नदी या तालाब दिखाई देता है, तो सीधे उसमें छ्लांग लगा कर कहता है - 'मैं नहाने की ही सोच रहा था' इस तरह से यह ज्योतिषी चौतरफा देखते हुए सबसे नजदीकी तत्व के साथ सांठ-गांठ बना लेता है। मेरे कहने का मतलब साफ है, ज्योतिषियों की भविष्यवाणी अधर में लटकी होती है ।'होने' से या ' नहीं होने' से ज्यादा होने और न होने की 'संभावना' पर विशेष जोर दिया जाता है। उनकी भविष्यवाणी के मुताबिक घटित होता ही है! 'संभावना' का बखूबी इस्तेमाल जो किया होता है।
मुझे याद है...कुछ ही साल पहले मैंने एक चैनल पर प्रख्यात ज्योतिषी बेजान दारुवाला का प्रोग्राम देखा था। तब ऐश्वर्या राय और अभिषेक बच्चन की होने वाली या ना होने वाली शादी की चर्चा जोरों पर थी! समाज का एक वर्ग मान कर चल रहा था कि यह शादी अवश्य होगी और दूसरा वर्ग मान रहा था कि यह शादी नहीं हो सकती । चैनलों को बदलते हुए मैं इस चैनल पर रुक गई...बेजान दारुवाला बताने वाले थे कि यह शादी होगी या नही। टी.वी एंकर ने उनसे यही सवाल सीधे तरीके से पूछा। ज्योतिषी बेजान दारुवाला पहले इधर-उधर की बातें करने लगे। फिर ब्रेक तो बीच में आना ही आना था, हम भी कहीं नहीं गए... फिर बेजान दारुवाला हंसते हुए छोटे परदे पर आए...बोले "अभिषेक और ऐश्वर्या राय की शादी की संभावना क्षीण है... अगर शादी हुई तो दिसम्बर के आसपास हो सकती है!"... भविष्यवाणी हमने भी सुन ली और उस समय वह चैनल लगा कर बैठे अन्य लोगों ने भी सुन ली। यह भी दिसम्बर महीना था, मतलब अगर शादी हुई तो एक साल बाद होने वाली थी। तब तक खैर! हमें इंतजार ही करना था.... लेकिन इंतजार ज्यादा नहीं करना पडा... दो महीने बाद ही फरवरी में अभिषेक और ऐश्वर्या की शादी हो गई!
अब ज्योतिषी बेजान दारूवाला ने क्या भविष्यवाणी की थी? ऐसी भविष्यवाणी हम या आप भी कर सकते थे... शादी होने की संभावना क्षीण होने का मतलब ...'हां' भी हो सकता है और 'ना' भी हो सकता है!.. घटना घटित हुई तो भी हमारी भविष्यडवाणी सही कहलाएगी और नहीं हुई तो भी हम सही ही कहलाएंगे। आपने भी ऐसे भविष्यवाणियां नोट की होंगी!
किसी ने भी डंके के जोर पर..अमेरिका के ट्विन टावर पर हवाई हमला, अक्षरधाम पर हमला, मुंबई में बम-ब्लास्ट या ट्रेन या हवाई हादसों की भविष्यवाणी की नहीं थी!... क्यों?
अब 'पॉल' नामक ऑक्टोपस और' मनी' नामक तोता भविष्यवाणियां कर रहे हैं... कम से कम वे 'यस' या 'नो' में जवाब तो दे रहे है...संभावित ज्योतिषियों की तरह 'संभावना' की बात तो नहीं कर रहे... आप क्या कहना चाहेंगे?.

डॉ अरुणा कपूर

Saturday, July 10, 2010

आओ कुछ देर के लिए नास्तिक हो जाएं...

ऐसा अक्सर होता है कि मैं जब कहता हूं ‘मैं नास्तिक हूँ’ तो लोग कहते हैं तुम निराश हो इसीलिये ऐसी बात कर रहे हो। उनके अनुसार सिर्फ असफल और निराश व्यक्ति ही नास्तिक होता है। नास्तिक होने को किसी मुम्बईया फिल्म की तर्ज़ पर भगवान से गुस्सा हो जाने की तरह लिया जाता है और माना जाता है कि अंत में व्यक्ति को भगवान के पास आना ही होगा। नास्तिकता भगवान के प्रति किसी तरह के गुस्से से नहीं बल्कि एक बहुत लम्बी विचार-प्रक्रिया तथा तर्क पर आधारित होती है। यह असफलता या निराशा से नहीं बल्कि अपने दम पर सफल हो सकने के विश्वास से पैदा होती है। अगर आप नास्तिक हैं तो आप शत-प्रतिशत प्रयास करेंगे ना कि किसी आस्तिक की तरह आधा-अधूरा काम करके भगवान से उम्मीद करेंगे कि वो साथ दे। आस्तिक लोग असफल होने पर भगवान को दोष दे सकते हैं मगर नास्तिक कहता है कि मेरे प्रयास में कमी थी क्योंकि उसके लिये किस्मत कुछ नहीं होती। सब कुछ सिर्फ कर्म और कर्म ही होते हैं।
भगवान इंसान द्वारा ही बनाया हुआ हैं। हम जिन सवालों का उत्तर नहीं जानते उन्हे भगवान पर छोड देते हैं। इसी तरह धर्म भी इंसान ने ही खुद को बांधे रखने और डराने के लिये बनाया है। धर्म की बात इसीलिये कर रहा हूं क्योंकि धर्म और भगवान एक दूसरे से जुडे हुए हैं अगर धर्म इंसान ने बनाया है तो ईश्वर भी इंसान ने ही बनाया है। आप ध्यान से सोचेंगे तो हमारी हर धार्मिक प्रथा के पीछे एक वैज्ञानिक कारण पायेंगे।
एक उदाहरण देता हूं - हम कहते हैं कि बारिश के समय देव सो जाते है इसीलिये शादी-ब्याह नहीं किये जा सकते। जब देवउठनी-ग्यारस पर देव उठते हैं तब शुभ कार्य शुरु होते हैं। जब हमारा धर्म बनाया गया तब आवागमन के साधन नहीं थे। बारिश के समय में जब नदी-नाले पूर होते थे, रास्ते बन्द हो जाते थे और लोग एक दूसरे से सम्पर्क भी नहीं कर पाते थे ऐसी स्थिति में कोई विवाह सम्बन्ध होने का सवाल ही नहीं पैदा होता। इसीलिये कहा गया कि देव सो गये है और यह एक नियम बना दिया गया। चूंकि हर समय हर बात को तर्क की सहायता से नहीं समझाया जा सकता है इसीलिये भगवान का डर बता दिया गया और यह निश्चित हो गया कि अमुक समय में कोई शादी नहीं होगी। धर्म इंसान को नियमों में बांधने के लिये बनाया गया। ऐसे नियम जिनके अनुसार चलने पर जीने में सहूलियत हो। अगर नियम होते हैं तो उनके टूटने का खतरा भी होता है। लोग नियमों को ना तोडें यानि धर्म पर चलें इसके लिये कोई डर बताया जाना आवश्यक था इसीलिये भगवान को जन्म दिया गया परंतु समय के साथ जब नियमों में कोई बदलाव नही होता तो वो अप्रासंगिक हो जाते हैं जैसा कि आज हो रहा है।
वास्तव में भगवान का जन्म ही दुर्बलता से हुआ है। यह उन लोगो के लिये है जो कमज़ोर और भीरू हैं। अगर आप स्वयं अच्छा और बुरा समझते हैं; सही और गलत में भेद कर सकते हैं तो आपको भगवान की कोई ज़रूरत नहीं। अपनी यह बात एक उदाहरण से समझाने की कोशिश करता हूँ। जब बच्चा छोटा होता है तो उसे सुलाने के लिये माँ कहती है कि बेटा सो जा वरना बाबा आ जायेगा तो बच्चा बाबा के डर से सो जाता है। यहां स्वघोषित मां धर्म है बेटा आस्तिक और बाबा है ईश्वर जो वास्तव में है ही नहीं। हालांकि माँ बेटे के भले के लिये उसे सुला रही है पर गलत तरीके से। अगर बेटा समझदार है तो उसे बाबा से डराने की क्या ज़रूरत ? कुछ ऐसी ही नास्तिकता है।
नास्तिकता तर्क पर आधारित है, आस्तिकता की तरह झूठी श्रद्धा और विश्वास पर नहीं। आस्तिक स्वयं कहते है कि "भगवान आस्था का भूखा है"। वास्तव में भगवान आस्था का भूखा नहीं बल्कि उसका अस्तित्व ही आस्था से है। भगवान आस्था के बिना कुछ नहीं। तभी तो सारे चमत्कार और यहां तक की दुआयें भी विश्वास ना होने पर असर नहीं करती। आस्तिक जिसे भगवान की शक्ति कहते हैं वो वास्तव में विश्वास की शक्ति होती है परंतु नास्तिक किसी भगवान नाम की स्वनिर्मित संस्था में विश्वास करने की बजाय खुद में विश्वास करना पसंद करते हैं। आस्तिक कायर होता है जिसे अपने साथ भगवान का साथ चाहिए होता है। मुश्किल पलों का सामना करने में उसे डर लगता है। ऐसी स्थिति मे भगवान उसे एक मनोवैज्ञानिक आधार देता है जिससे प्रार्थना करके उसे थोडी राहत मिलती है। नास्तिक भगवान को नहीं मानता इसीलिये खुद ही लडता है चाहे वक़्त कैसा भी हो ।
अब एक बार फिर से सोचिये। जो नहीं मानता उसके लिये भगवान कुछ नहीं है और जो मानता है उसके लिये भगवान सब कुछ है इसका मतलब हुआ कि भगवान इतना कमज़ोर है कि वो सिर्फ मानने से ही ज़िन्दा है तब तो यह महज़ भ्रम से ज्यादा कुछ नहीं!
आखिरी में एक बात फिर कहूंगा कि नास्तिकता निराशा का नहीं बल्कि खुद और सिर्फ खुद पर विश्वास का नाम है। अगर सारे पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर आप खुले दिमाग से सोचेंगे तो शायद नवीन सागर की इस पंक्ति का मतलब समझ पायेंगे।
“जिसका कोई नहीं है उसका भगवान है... क्योंकि भगवान कोई नहीं है"
जो इतना कहने के बाद भी समझ नहीं पा रहे तो मतलब साफ है कि वो समझना चाहते नहीं है। वैसे भी उनके अनुसार भगवान तो विश्वास का नाम है तो ऐसी स्थिति में तर्क क्या कर सकता है। अगर नास्तिकता को समझना चाहते हैं तो सबसे पहले आपको इस विश्वास से मुक्त होना होगा; इस पर सन्देह करना होगा, इससे सवाल करने होंगे. और खुद ही सत्य खोजना होगा।

विपुल शुक्ला
39, प्रगति नगर, इन्दौर
मो.- 9907728575


(विपुल हिंदयुग्म के बुनियादी सदस्यों में से हैं...पढाई और नौकरी के फेर में हिंदयुग्म पर आवाजाही घटती-बढ़ती रही, मगर इंदौर में हिंदयुग्म के बैनर तले हमेशा आयोजन करवाते रहे...उम्र छोटी है पर नास्तिक होने के लिए बड़ा होना भी कोई शर्त नहीं)

Friday, July 09, 2010

अमेठी का नाम बदला, अब देश का भी बदलेगा?

शेक्सपियर ने कहा था "नाम में क्या रखा है?"। मुझे नहीं पता कि यह किस संदर्भ में कहा गया लेकिन इतना जरूर है कि आज की तारीख में यह कथन उपयुक्त नहीं लगता। हाल ही में "माया प्रदेश" (यूपी) में एक और शहर का नाम बदला गया। अमेठी को जिला बनाया गया और नाम रखा गया श्री छत्रपतिशाहू जी महाराज नगर। यह पहला मौका नहीं है कि किसी शहर का नाम बदला गया हो। बम्बई का मुम्बई, मद्रास बना चेन्नई और कलकत्ता का बन गया कोलकोता। लेकिन वे नाम उस जगह की भाषा व संस्कृति को ध्यान में रखते हुए बदले गये। जबकि ये दलित नेता के नाम पर रखा गया जिनका अमेठी के लिये कोई योगदान नहीं रहा है।

मायावती की "माया" को हर कोई जानता है। जो ठान लेती हैं वो कर देती हैं। आजकल अपने और हाथी के पुतले लगाये जा रहे हैं चाहे सुप्रीम कोर्ट से फ़टकार ही क्यों न लगी हो। वैसे तो वे गाँधी परिवार से पंगा लेती ही रहती हैं। रायबरेली और अमेठी में अड़ंगा पड़ा ही रहता है। इस बार भी अमेठी ही हत्थे चढ़ा। अगर कोई दूसरा शहर होता तो बात कुछ और थी। पर उन्होंने छेड़ा है गाँधी परिवार की "धरोहर" को। कांग्रेस का आग-बबूला होना बनता था।

पर कांग्रेस नहीं जानती कि उसके खुद के दामन पर कितने छींटे हैं। कोई ऐसा शहर नहीं होगा जिसमें नेहरू नगर, इंदिरा नगर या इंदिरा विहार जैसी जगह न हों। अपने खुद के नेताओं के नाम पर हर जगह के नाम रखे हैं कांग्रेस ने। कोई सड़क बने या यूनिवर्सिटी या कोई बिल्डिंग सबसे आगे कांग्रेसी ही नजर आयेंगे। इंद्रप्रस्थ विष्वविद्यालय का नाम गुरू गोबिन्द सिंह इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय रखकर शीला सरकार ने सिखों को रिझाने की पूरी कोशिश की। कनॉट प्लेस जो सी.पी के नाम से मशहूर है उसका नाम राजीव चौक रखने में यही कांग्रेस आगे थी। कनॉट सर्कस भी इंदिरा चौक बन गया। आने वाला समय इस देश को इंडिया या भारत या हिन्दुस्तान नहीं कहेगा बल्कि गाँधीस्तान के नाम से जाना जायेगा। कुल मिलाकर कहना यह कि नामों के खेल में कांग्रेस से सब पीछे ही रहेंगे। क्या पता आगे मायावती उन्हें पीछे छोड़ सके फ़िलहाल तो यह मुश्किल लगता है।

लेकिन अगर आप कांग्रेस पर उंगली उठायेंगे तो आप को यह दलील सुनने को मिलेगी कि इन नेताओं ने देश की "सेवा" की है। इसका अर्थ यह हुआ कि कांग्रेस के बाकी नेता "बेकार" और निठल्ले थे और आज भी हैं। अगर हम यह कहें कि इन "महापुरुषों" ने देश की सेवा की है तो जब सड़कों के नाम "शहाजहाँ रोड", जहाँगीर रोड, लोदी रोड, औरांगअजेब रोड और तुगलक रोड रखा जाता है तो यह दलील कहाँ तक सही है? तुगलकाबाद व लोदी कॉलोनी के बारे में क्या कहा जाये? लोदी ने इस देश को लूटा, औरंगजेब ने देश को लूटा, मुगलों ने देश पर राज किया तो फिर उनके नाम पर सड़कों के नाम? तुगलक के आतंक को हम लोग भूल जाते हैं !!! इन सड़कों व जगहों के नाम लेते हुए दिल में आक्रोश सा भर जाता है।

किसी जाति व सम्प्रदाय को खुश करना हो तो इन्हीं नामों का सहारा लिया जाता। अम्बेडकर स्टेडियम हो या अम्बेडकर नगर या फिर उनके "मेमोरियल" पर बना कोई इंजीनियरिंग अथवा मेडिकल कॉलेज। भगत-तिलक-लाला लाजपत राय-राजगुरु-चंद्रशेखर आज़ाद-राम प्रसाद बिस्मिल-इन्होंने शायद देश के लिये ज्यादा योगदान नहीं दिया या फिर ये नाम किसी अल्पसंख्यक धर्म-सम्प्रदाय से नहीं जुड़े-ये दलित नहीं थे-वगैरह वगैरह और भी कारण हो सकते हैं (शायद इनके नाम में "गाँधी" नहीं था । शायद इसलिये इनके नाम पर सड़क-बिल्डिंग-कॉलेज का नाम रखते हुए दस बार सोचा जाता है। ये नाम किसी दल को वोट नहीं दिला सकते। बस इतनी सी बात है और यही सच्चाई है।

क्या आप जानते हैं कि वाघा बॉर्डर कहाँ है? आप कहेंगे कि अमृतसर में तो मेरा जवाब होगा कि नहीं। वाघा तो पाकिस्तान की सीमा में आता है, हमारे देश में तो अटारी आता है। शायद हमें वाघा नहीं अटारी बॉर्डर कहना चाहिये। यही उपयुक्त है या फिर वाघा-अटारी बॉर्डर। इस पर बहस हो सकती है। राज नेताओं को छोड़िये। लोगों की अंग्रेज़ी में लिखने की स्पेलिंग बदल जाती है। तो कोई अपनी फ़िल्म का नाम एक ही अक्षर से शुरु करता है। लोग अपनी किस्मत बदलने के लिये नाम तक बदल लेते हैं। ’राम’ व ’अल्लाह’ के नाम पर दुनिया टिकी है और आप कहते हैं कि "नाम में क्या रखा है!!!" अरे जनाब नाम का ही सारा खेल है। अब अगर राजनीति भी इस खेल में कूद जाये तो फिर कहना ही क्या!!

तपन शर्मा

Thursday, July 08, 2010

बॉलीवुड में नायिकाओं का दौर कब लौटेगा?

डॉ अरुणा कपूर पेशे से आयुर्वेदिक डॉक्टर हैं! डॉक्टरी के पेशे से फुरसत निकालकर लिखने का शौक ज़िंदा रखा है...हिंदी के अलावा मराठी और गुजराती में भी लेख, कविताएं और कहानियाँ प्रकाशित हुई है! हिंदयुग्म के सहयोग से जल्द ही एक उपन्यास भी प्रकाशित होने को है। बैठक पर इनका पहला लेख कोई आयुर्वेदिक नुस्खा नहीं बॉलीवुड की नायिकाओं पर है...आपका स्वागत है

एक ज़माना था जब स्त्री प्रधान भूमिकाओं वाली फिल्में बॉक्स ऑफिस पर खूब धूम मचाती थी। मीना कुमारी, नर्गिस, नूतन और वैजयन्तीमाला जैसी अभिनेत्रियाँ अपने अभिनय से दर्शकों का मन मोह लेती थी! मीना कुमारी की लगभग सभी फिल्मों की कहानियाँ नायिका प्रधान ही हुआ करती थी। दिल अपना और प्रीत पराई, भाभी की चूड़ियां, शारदा, पाकीज़ा...जैसी फिल्मों को कौन भूल सकता है? पाकीज़ा फिल्म आज भी जिस जगह पर दिखाई जाती है, दर्शक उमड़ पडते हैं! पाकिस्तान में तो इस फिल्म ने अलग ही धूम मचाई थी!
धर्मेन्द्र के साथ की हुई फिल्म 'फूल और पत्थर ' में मीना कुमारी ने ही धर्मेन्द्र को लोकप्रियक नायक का दर्जा दिलवाया था! लेकिन मीना कुमारी किसी एक नायक के साथ कभी भी जोड़ी बना कर आई नहीं थी! हाल यह था कि मीना कुमारी को मध्य में रखकर ही फिल्मों की कहानियां लिखी जाती थी! मीना कुमारी की खासियत थी की वो गंभीर भूमिकाओं की एक्सपर्ट मानी जाती थी! लेकिन 'कोहिनूर' और 'आजाद' फिल्म में मीना कुमारी ने दिखा दिया कि वह एक कलाकार है और हर तरह की भूमिका निभाने में माहिर हैं! हल्की-फुल्की और हास्य मिश्रित भूमिका निभाने वाले राज कपूर के साथ मीना कुमारी ने 'शारदा' फिल्म में अभिनय किया था, दर्शकों के दिल को द्रवित कर गया था। यह फिल्म खूब चली थी ।
यही हाल नर्गिस का भी था ! 'मदर इण्डिया' फिल्म के नाम से कौन परिचित नहीं है? भारत और विदेशों भी 'मदर इण्डिया' ने सफलता के झंडे गाड़े थे। इसी फिल्म ने सुनील दत्त और राज कुमार जैसे नायकों को अपनी पहचान दिलवाई थी.. फिल्म की कहानी नर्गिस के मज़बूत (या नाजुक?) कंधों पर टिकी हुई थी। नर्गिस ने महान निर्माता, अभिनेता, और निर्देशक राज कपूर के साथ जोड़ी बनाई थी। वैसे अन्य नायकों के साथ भी कई फिल्में की थी । राज कपूर जैसे दिग्गज के साथ नायिका प्रधान फिल्मों में अभिनय करने जैसा कठिन काम नर्गिस ने किया। राज कपूर के साथ 'चोरी-चोरी 'जैसी मनोरंजन से भरपूर फिल्म...यह भी नायिका प्रधान थी...और ऐसी फिल्म करना मानो नर्गिस ही के बस की बात थी! अधेड़ उम्र में नर्गिस ने बलराज सहानी जैसे संजीदा कलाकार के साथ फिल्में की... 'घर संसार' ऐसी ही एक फिल्म थी जो नायिका प्रधान थी। नर्गिस ने सस्पेंस फिल्म भी की थी ...जिसका नाम था...आधा दिन आधी रात.. जो प्रदीप कुमार के साथ की हुई नायिका प्रधान फिल्म थी!
नूतन भी नायिका प्रधान फिल्मों की नामचीन हस्ती थी! महानायक अमिताभ बच्चन के साथ की हुई फिल्म 'सौदागर' मुझे याद आ रही है... इस फिल्म में नूतन ही छाई हुई थी! अमिताभ बच्चन तो जैसे सह-नायक की भूमिका में थे... उन्हें इस फिल्म में नायक नहीं बल्कि खलनायक की भूमिका ही करनी पड़ी थी! नूतन की अशोक कुमार और धर्मेन्द्र के साथ की हुई फिल्म 'बंदिनी' भी नायिका प्रधान थी! नूतन की फिल्म 'सुजाता' खूब चली थी...यह भी नायिका प्रधान फिल्म थी...इसमें नायक सुनील दत्त थे!
वैजयंतीमाला अपने समय की बहुत अच्छी डांसर हुआ करती थी...इन्होंने भी साधना, कठपुतली और मधुमती जैसी नायिका प्रधान फिल्मों में यादगार भूमिकाएं निभाई है! बाद में शर्मिला टैगोर, शबाना आजमी और स्मिता पाटील ने नायिका प्रधान फिल्मों की परिपाटी को बनाए रखा...इन नायिकाओं ने भी अपनी भूमिकाओं में नायिका के अस्तित्व को बनाए रखा!.. लेकिन अब आज नायिका प्रधान फिल्में कहाँ छिप गई है?
हां! इक्का दुक्का फिल्में सामने आ रही हैं.. काजोल और करिश्मा कपूर ने भरसक कोशिश इस दिशा में की है..लेकिन अब काजोल और करिश्मा की जगह लेने कौन-सी नायिका आगे आई है?.. शायद प्रियंका चोपड़ा का नाम लिया जा सकता है जो...'सात खून माफ़ ' में प्रधान नायिका के किरदार में है... फिल्म की कहानी ही बता सकती है की यह फिल्म नायिका प्रधान है या नहीं! मुझे लग रहा है कि अब दर्शक फिर से इस तरह की फिल्में पसंद करेंगे जिसमें कहानी नायिका के इर्दगिर्द घूमती हो! फिर वह फिल्म चाहे रोमांटिक हो, सस्पेंस हो, हॉरर हो, धार्मिक हो या हास्य-प्रधान हो!.. बदलाव की आवश्यकता तो हमेशा होती ही है।

डॉ अरुणा कपूर

Tuesday, July 06, 2010

धोनी संग साक्षी : DOGS & MEDIA NOT ALLOWED !

ज़रा सोचिए, अगर महेंद्र सिंह धोनी भारतीय क्रिकेट में अपनी जगह नहीं बना पाते और झारखंड के ही मैदानों पर चौके-छक्के लगा रहे होते। फिर, उनकी उम्र 29 साल की होती और वो शादी कर रहे होते। तो एक कैमरामैन लड़केवालों की तरफ से और एक लड़कीवालों की तरफ से भाड़े पर मंगाया जाता। ये तो नहीं होता कि देश के सबसे अच्छे कैमरे और सबसे बुद्धिमान होने का भ्रम पाले मीडिया वाले मुफ्त में धोनी की शादी पर खर्च हो रहे होते। मगर, ऐसा हुआ और हमें ताज्जुब इसलिए नहीं हुआ कि मीडिया की ऐसी दीवानगी पहली बार नहीं थी....सानिया-शोएब की शादी भी मीडिया के लिए कूदने-फांदने का ऐतिहासिक दिन था...ऐसे जैसे भारत और पाकिस्तान दोस्ती के सात फेरे लेने जा रहे हों...इसी बीच दंतेवाड़ा में 76 जवान मारे गए, मगर सानिया-शोएब की खबर टीवी के पर्दों पर ज़्यादा ज़रूरी बनी रही....
खैर, धोनी की शादी पर लौटते हैं.... ज़ी न्यूज़(इसी के एक छोटे-से हिस्से में मैं भी नौकरी करता हूं...) भी बाक़ी चैनलों की तरह शादी के मंडप से कोसों दूर कैमरा टिकाए इंतज़ार में था कि कब क्या ब्रेकिंग न्यूज़ मिल जाए......देहरादून में हमारे रणबांकुरे साथी और नोएडा के न्यूज़रूम में हम....देहरादून से नोएडा सिग्नल पर मिल रहे वीडियो में कोई भी गाड़ी दिखती तो लगता ये साक्षी होगी, ये साक्षी की अम्मा होगी...और न जाने क्या-क्या....इतनी बारीकी से तो मैंने कभी किसी शादी में हिस्सा नहीं लिया....
खैर, हमारी एक रिपोर्टर ने तो उस घोड़ी का 'जायज़ा' ले लिया जिस पर धोनी सवार होने वाले थे....इतना उत्साह था रिपोर्टर में कि दर्शक अपने भोलेपन में ये तक समझ लें कि धोनी की शादी इसी घोड़ी से हो रही है! और तो और, हमारी एक एंकर ने शादी पर विशेष बुलेटिन के लिए खास तौर पर एक लाल रंग का लहंगा पहन लिया था ...ऐसा लग रहा था कि वहां देहरादून में बारात निकलेगी और यहां हम नाच उठेंगे...
सबसे मज़ेदार था पसीने से लथपथ घोड़ीवाले का 'एक्सक्लूज़िव' इंटरव्यू जो हर चैनल पर चल रहा था....घोड़ीवाला ही मीडियावालों के लिए सबसे विश्वस्त सूत्र था कि धोनी ने क्या पहना, भज्जी ने कितना नाचा और खाने में क्या-क्या था वगैरह-वगैरह....बेचारा घोड़ीवाला इतने सारे कैमरे एक साथ अपने मुंह पर देखकर राहत की सांस ज़रूर ले रहा होगा कि उसके सामने उससे भी 'बेचारे' कितने लोग हैं...
एनडीटीवी के रवीश कुमार ने अपने ब्लॉग पर पहले ही लिख दिया है कि उन्हें आदर्शवादी होकर टीवी के गिरते स्तर पर मर्सिया पढ़ने वाला पत्रकार न समझा जाए....नहीं समझेंगे जी, बस कुछ सलाह और दे दें ताकि आने वाले समय में शादियों की कवरेज में पत्रकारों को टीवी पर मंडप बनाने में और आसानी हो जाए.... सलाह नंबर एक... हो सकता है कि मीडिया चैनल कुछ बड़ी हस्तियों के शादी के ऑर्डर अभी से ही बुक कर लें....जैसे, राहुल गांधी, युवराज सिंह, भज्जी और 'प्रिंस' (गड्ढे में गिरने वाला महान बालक)....फिर इन्हीं चैनलों के ज़िम्मे कैटरिंग का सारा ज़िम्मा हो...पत्तलें बांटने से लेकर पत्तले उठाने तक का...शॉट्स की दिक्कत ही नहीं आएगी साहब...बड़े-बड़े एंकर बड़े-बड़े लोगों की पत्तले उठाएं...वाह! देश की सबसे बड़ी शादी....सबसे बड़ी कवरेज.....सबसे बड़ा पंडाल....हम सबसे बड़े युग में जी रहे हैं....वाह!
सलाह नं दो... शादी के सारे छोटे-बड़े काम छोटे-बड़े चैनल्स आपस में बांट लें...मसलन, पंडित जी को लाने-ले जाने का ज़िम्मा किसी एक चैनल को.....जनवासे (जहां बारात ठहरती है) का इंतज़ाम किसी और चैनल को....न्योता (वो लिफाफा या तहफा जो शादी में आने वाले मेहमान लेकर आते हैं) लिखने का काम किसी और चैनल को...हां, मंगल गीत वगैरह गाने का काम किसी एफएम चैनल को भी सौंपा जा सकता है.....
मेरी बड़ी दीदी की शादी हुई थी तो दस-पंद्रह दिन बाद शादी की कैसेट बनकर आई थी...अलग-अलग फिल्मी गानों और पहाड़-समुंदर वाले लोकेशन्स पर उड़-उड़कर दीदी और जीजाजी की तस्वीरें आती थीं और हम रोमांचित होते थे....मैं दसवीं में पढ़ता था तब....अब एमए पास हूं...नौकरी भी करने लगा हूं...मगर, काम वही शादी के वीडियो बनाने का ही रहा...देहरादून से दूर जहां ये शादी हो रही थी, दूर-दूर तक मीडिया के लिए कोई व्यवस्था नहीं थी....कैमरे पर भूख-प्यास से बेहाल रिपोर्टर ऐसे जंगल में खड़े लग रहे थे कि दंतेवाड़ा से कवरेज कर रहे हों...फिर भी कवरेज किए जा रहे थे...कोई चैनल बता रहा था कि धोनी ने गोल्डन शेरवानी पहनी थी, किसी ने कहा भूरी शेरवानी पहनी थी...सबको रतौंधी हो गई थी...जिसे जो दिखा, अपने-अपने चैनल को बता दिया...देश अलग-अलग शेरवानी में धोनी की शादी देख रहा था...जैसे धोनी धोनी न रहे हों, धोनी शिव का अवतार हो गए हों....देहरादून की पहाड़ियां कैलाश हों और साक्षी साक्षात पार्वती....मीडिया वाले भूत-बेताल बनकर नाच रहे थे और कोई खाने तक को नहीं पूछ रहा था....
खाने से एक और खबर याद आई जो इस दिन हल्के में कहीं-कहीं चल रही थी....हमारे प्रधानमंत्री 3 जुलाई को आईआईटी कानपुर गए थे तो उनके खाने में 26 व्यंजनों में मिलावट पाई गई थी ! ऐसे-ऐसे ज़हरीले केमिकल पाए गए कि मुझे नाम ही समझ नहीं आ रहे थे....मगर, प्रधानमंत्री की किसी को फिक्र नहीं थी.....अजी, इस देश में खाने में मिलावट कोई खबर है क्या....पीएम ने पहली बार खाया तो क्या हो गया...धोनी रोज़-रोज़ थोड़े ही शादी करेगा....मीडिया को नहीं बुलाया, न सही....जाना तो ज़रूरी है...बिन बुलाए पहुंचने का मजा ही कुछ और है...

निखिल आनंद गिरि
(फोटो : बीबीसी से साभार)

Sunday, July 04, 2010

जाति की राजनीति का फायदा सिर्फ कांग्रेस को होगा?

२०११ के लिये जनसंख्या की गिनती शुरु हो चुकी है। दुनिया के सबसे बड़े गण्तंत्र की अब तक की सबसे बड़ी गिनती है। पिछले तीन-चार वर्षों से आरक्षण की माँग जोर उठाती जा रही है। "भोपाल कांड" में फ़ँसी कांग्रेस और उनके अर्जुन सिंह ने आरक्षण का वो अस्त्र चलाया था जो किसी भी दल के लिये भेद पाना कठिन हो गया। उनके इस कदम का विरोध दबे शब्दों में किया गया लेकिन कोई भी दल सामने नहीं आया। वोट के लालच को दूर रख पाना हर दल के बस की बात नहीं है। राजनीति की पहली शर्त कुर्सी का लालच ही है। जाति के आधार पर आरक्षण की शुरुआत जो की गई वो अब हर दल की मजबूरी बन गई है।
भारत में जाति कोई नया विषय नहीं है। सहस्त्राब्दियों पहले भी जाति थी, आज भी जाति है। कहते हैं कि सब कुछ बदलता है पर यह देश ऐसा है जहाँ जाति कभी नहीं जाती। भारत में जाति-गत राजनीति कोई नई नहीं है। मंडल कमीशन की स्थापना १९७९ में की गई। मकसद था जाति की गणना करना ताकि सभी वर्गों को बराबर का "हक़" मिल सके। बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, जनता दल, राष्ट्रीय जनता दल ऐसी गिनी चुनी पार्टियों में से हैं जो "जाति" का दिया ही खाती हैं।
मंडल ने जो गणना उसके अनुसार हमारे देश में १६ फ़ीसदी अनुसूचित जाति, सात फ़ीसदी अनुसूचित जनजाति व ५२ फ़ीसदी पिछड़ा वर्ग है। यानि कि कुल ७५ प्रतिशत जनता पिछड़ी मानी गई। हालांकि एक और सर्वे में ओ.बी.सी ३२ फ़ीसदी माने गये। १९८९ में वी.पी सिंह की सरकार ने मंडल पर मोहर लगाई और आरक्षण का मुद्दा उछाला।
मंडल के आकड़ों को ध्यान में रख कर ही सीटों को आरक्षित कोटे में रखा गया। १६, ७.५ व २७ प्रतिशत सीटें क्रमश: एस.सॊ, एस.टी व ओ.बी.सी को दी गईं। अनुसूचित जाति व जनजाति में अलग आरक्षण होता है। पिछड़ों को भी उनका हक मिलता है। पर अगर को "अन्य" हो यानि कि "जनरल" केटेगरी हो तो उसके लिये आरक्षण नहीं होता। इंजीनियरिंग की पढ़ाई का खर्चा कोई गरीब नहीं उठा सकता। तो अमीर "अनुसूचित जाति वर्ग" के व्यक्ति को दाखिला मिलने से बेहतर है गरीब "सवर्ण" को मौका मिलना। ये गौर तलब है कि जब प्राइवेट कम्पनी किसी को नौकरी पर रखती है तब उसका धर्म या जाति नहीं देखती।
वर्ष २००६ में आरक्षण का मुद्द फिर गर्म था। इसके विरोध और समर्थन में खूब धरना व प्रदर्शन हुए। कभी कोई जाति ओ.बीसी में आने की बात करती तो कोई एस.सी में शामिल होने को कहती। एक ही जाति किसी प्रदेश में अल्पसंख्या में है तो किसी राज्य में उसको "वोटों" के आधार पर तरजीह दी जाती है। इसी आरक्षण के पेंच में फ़ँसी है इस बार की जनसंख्या भी। इस बार की जनसंख्या मे जाति भी पूछी जा रही है। यानि कि किस जाति के कितने लोग हैं, सब पता चल जायेगा। उसी के आधार पर फिर आरक्षण निर्धारित होगा। आज हर कोई "आरक्षित जाति" में आना चाहता है। पैसे के आधार पर सर्टिफ़िकेट बनाये जाते हैं। मेरे ९० प्रतिशत है और मुझे दाखिला नहीं, किसी के ५० प्रतिशत और वो इंजीनियर बन जाये उससे बेहतर है कि मैं भी नकली सर्टिफ़िकेट बनवा लूँ। अभी ५० प्रतिशत सीटें आरक्षित हैं। सोचिये अगर यह पता चले कि ये संख्या ६० प्र.श. हो गई है तो फ़ार्म भरते हुए आप "अन्यों"को कोटे के लिये लड़ते देखेंगे। और ज्यादा चक्का जाम होंगे और ज्यादा हड़तालें। हर ओर अफ़रा--तफ़री का माहौल होगा। हर जाति "गुर्जर" और "मीणा" होगी। हर तरफ़ मंडल कमीशनों का दौर चलेगा। हर दल अपना "वोट बैंक" बढाने में लगी रहेगी। कुल मिलाकर एक ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जायेगी जो इस देश की प्रगति की दिशा दुर्गति की ओर ले जा सकती है। वैसे भी इस देश का एक हिस्सा ही प्रगति कर रहा है। लेकिन कोई भी समाज सेवक या दल आगे नहीं आयेगा जो इसका विरोध करे।
ऐसे में ज्वलंत सवाल एक और भी है कि इस सर्वे में धर्म के आधार पर गिनती क्यों नहीं हो रही? कितने हिन्दू, मुस्लिम व ईसाई हैं इसकी गिनती नहीं होगी। ऐसा क्यों हो रहा है इसके बारे में जरा सोचियेगा।
अगर कोई यह कहता है कि इससे हममें से किसी का भला होगा तो यह हास्यास्पद ही कहा जायेगा। कांग्रेस सरकार का यह दूसरा ब्रह्मास्त्र है जिससे उसने अपना वोट बैंक और मजबूत करने की ओर कदम बढ़ाया है।

तपन शर्मा
(लेखक हिंदयुग्म के बुनियादी सदस्यों में से एक हैं....हिंदयुग्म के सबसे सक्रिय कार्यकर्ता भी हैं...फिलहाल शादी करके इंटरनेट से बाहर की दुनिया बसाने में जुटे हैं)

Saturday, July 03, 2010

शन्नो अग्रवाल को गुस्सा क्यों आता है?

मेरे शांत चित्त में एक चिंगारी सी भड़क पड़ती है जिसके बारे में पीड़ित महसूस करते हुए भी..अधिकतर नारियाँ चुप रहती हैं..मैं भी चारों तरफ का माहौल देख-भाल के सहम जाती हूँ कि कौन लोगों के मुँह लगे...लेकिन कुछ बातें जो नश्तर की तरह चुभ जाती हैं अन्दर ही अन्दर..जो समस्त नारी जाति पर लागू होती हैं..और जिन बातों को अब भी लोग जबरदस्ती करने/ कहने पर तुले हुए हैं..तो मेरा शांत चित्त कुछ समय के लिये भड़क पड़ता है... जिसकी बात से मन में ज्वाला धधकी उसे लिखने वाला एक पुरुष ही है.. स्वयं को स्वाहा कर .....औरों के जीवन का प्रकाश बन.... इस पंक्ति को पढ़ते ही मन बहुत ख़राब सा हो गया...चिंगारी पैदा हुयी और आग बन गयी...कोई इंसान नारी को स्वाहा करने की बात करता है ताकि वह एक शक्ति बन सके...तो पढ़ते ही मैं सोचने पर मजबूर हो गयी कि लोग क्यों हर समय नारी को आगे कर देते हैं स्वाहा होने को..ये रटी-रटाई पंक्तियाँ बिना इनकी विस्तृत समालोचना किये ही लोग कह देते हैं..जैसे कि वह कोई घास-फूस या समिधा-सामग्री हो..जिसे स्वाहा किया जा सकता है.
लोग उसे भस्म करके उससे शक्ति की अपेक्षा रखते हैं..अरे वो तो वैसे भी इतना कुछ करती और सहती आई है युग-युग से कई रूपों में..बिना किसी के कहे ही वह अपने कर्तव्यों को निभाती रही है. और फिर एक तरफ तो उसे अबला कहा जाता है..तो दूसरी तरफ उसे भस्म करके शक्ति की आशा करते हैं..तो भई, उसे किस तरह भस्म होना चाहिये और किस तरह की शक्ति मिलेगी उसे भस्म करके ? अपने मन में तो वह समाज के लोगों की किसी ज्यादती या रीतियों-कुरीतियों का शिकार बन कर भस्म होती ही रहती है...उसके बाद भी लोग पता नहीं क्या चाहते हैं..कभी तो उसे दुर्गा कहते हैं तो यह नहीं सोचते की उसमे वो दैविक शक्ति नहीं है जिससे सीता जी जल गयीं थी..और कभी जब औरत के बलिदानों की बात चलती है की '' आज की औरत सतयुग की सीता से भी अधिक अग्नि परीक्षाएं देती है '' तो तमाम गहन धार्मिक प्रवृति के लोग इसे सीता जी का अपमान समझते हैं..और भड़क पड़ते हैं कहते हुये कि सीता जी से आज की औरत की कोई समानता नहीं...और तरह-तरह के उदाहरण देते हुये पूरी रामायण ही उठा लाते हैं बहस करने के लिये..अगर ऐसा है तो फिर आज के पढ़े लिखे लोग ये क्यों कहते हैं बिना सोचे समझे कि '' स्वयं को स्वाहा कर .....औरों के जीवन का प्रकाश बन ''.
यह पढ़कर व सोचकर मेरे मन को लगा कि नारी को लोग कोसने से बाज नहीं आते..समय बदला है, और वह पढ़ी-लिखी व समझदार है फिर भी समय-समय पर उसकी अवहेलना की जाती है और जरा-जरा सी बातों में मखौल उड़ाया जाता है उसका..और अपने को बहादुर कहने वाली औरतें भी सहमी रहती हैं पुरुषों के मगरूर व्यवहार पर अपनी गलती न होने पर भी...औरत डर से व पुरुष अपने बचाव में कहते रहते हैं कि अब समय बदल गया है..अब वह हालत नहीं रही औरत की..वह मजबूत है समझदार है..आदि-आदि.. लेकिन यह बातें कितनी लागू होती हैं...और तुर्रा यह कि औरत को भस्म करके उससे शक्ति हासिल करने की भी बात की जाती है...अरे, उसे भी तो पुरुष की इन्ही खूबियों की जरूरत हो सकती है जीवन में कभी...तो कितने पुरुष हैं जो उसकी शक्ति बनते हैं..अधिकतर को तो जलन होने लगती है..और औरत की उपेक्षा करके उसे सताने लगते हैं..औरत कोई घास-फूस या लकड़ी तो है नहीं जो उसे आज्ञा दी जा रही है कि '' स्वाहा हो जा '' और फिर ऐसा होने पर तो वह राख बन जायेगी और किसी काम की ना रहेगी..तो उसे अपनी स्वाभाविक मौत ही क्यों नहीं मरने दिया जाता..क्यों उसके लिये जीते-जी चिता सुलगा कर झोंकने का प्रयास करते हैं लोग ऐसी बातें करके...औरत की इज्ज़त की बात करने वाले समाज के ठेकेदार खुद बुरी नज़र रखते हैं उसपर..और अपनापन दिखाने वाले लोग उसपर मुसीबत आने पर निगाहें बचाकर बगलें झाँकने लगते हैं...ऊपर से जुर्रत यह कि उसे जीते जी भस्म भी करना चाहते हैं..क्यों...आखिर क्या बिगाड़ा है उसने किसी का..क्या उसे दर्द नहीं होगा...क्या उसे अपने तरीके से जीने का अधिकार नहीं है..??????
वास्तव में लोगों की इस तरह की बातें पढ़कर या विचार जानकर मेरे मन को बहुत पीड़ा होती है और लगता है कि नारी को समाज में बस दिखावे के लिये ही ऊँचा दर्ज़ा दिया जाता है लेकिन '' भस्म '' , '' स्वाहा '' या अन्य तमाम शब्दों का इस्तेमाल करके उसे कोसा जाता है...कोई मुझे बताये कि यह शब्द कह कर लोग कोस नहीं रहे है तो क्या कर रहे हैं..? अगर वह भस्म हो गयी तो कहाँ से ताकत देगी ? ये शब्द मुझे नारियों के लिये एक गाली से लगते हैं....

शन्नो अग्रवाल
(लेखिका लंदन में रहती हैं और हिंदयुग्म पर इनकी आवाजाही बहुत पुरानी है। बैठक पर आप इन्हें पहले भी पढ़ चुके हैं...)

Thursday, July 01, 2010

गर्व से कहो हम वर्जिन (नहीं) हैं...

हाल ही में किसी अंग्रेज़ी अखबार में एक ख़बर पढी कि पाकिस्तान की आधुनिक सड़कों पर कुछ अलग किस्म के बैनर और होर्डिंग्स इन दिनों खूब दिखने लगे हैं । इन होर्डिंग्स के ज़रिए महिलाओं को लुभाने की कोशिश की जा रही है। ये विज्ञापन हैं चिकित्सा विज्ञान द्वारा वर्जिनिटी बचाए रखने के तरीकों के !  हाइमन सर्जरी या हाइमनोप्लास्टी तकनीक के ज़रिए उन महिलाओं का कौमार्य यानी वर्जिनिटी बरकरार रखने में मदद मिलती है जो शादी के पहले सेक्स संबंध बनाती हैं और चाहती हैं कि उनके संबंधों का पता उसके पति को न चले ताकि वैवाहिक जीवन में कोई बाधा न आए । ऐसे में हाइमन सर्जरी तकनीक 40-50 हज़ार रुपये में ' कुंवारेपन' की गारंटी देती है। एक तरह से रुढ़िवादी देशों में ये तकनीक महिलाओं के लिए हथियार की तरह है जो सेक्स की आज़ादी भी ले सकती हैं और फिर सामान्य वैवाहिक जीवन भी गुज़ार सकती हैं। बाद में जब कुछ साथियों से पूछा तो पाया कि भारत में भी ये तकनीक ठीकठाक लोकप्रिय है। मुझे इसके बारे में पता नहीं था। (और न ही इसका कोई आंकड़ा कहीं से मिल पाया है)
इसीलिए जानकर हैरत भी हुई और उत्सुकता भी। हैरत इसीलिए कि क्या सचमुच कट्टर, तालिबानी (या फिर भारत जैसे रुढिवादी)देशों की महिलाएं सेक्स को लेकर इतनी सजग हो गई हैं कि वो अपनी पसंद से संबंध भी बनाएं और फिर बाद में दकियानूसी सोच वाले समाज से बचाकर इस सच पर पर्दा डाल दें?  उत्सुकता इसीलिए कि क्या सेक्स सचमुच इतना 'आसान' और  'हल्का' विषय हो गया है कि  जब चाहा किया और फिर भुला  दिया ।  पता नहीं।
कुछ महीने पहले मध्यप्रदेश के शहडोल में शिवराज सिंह चौहान की सरकार ने कन्यादान योजना के तहत एक सामूहिक विवाह का आयोजन किया था। शादी से ठीक पहले मंडप से दुल्हनों को उठाकर मेडिकल टेस्ट करा दिया गया । ये टेस्ट कौमार्य परीक्षण का था। मतलब, ये जांचने की कोशिश कि कौन-सी लड़की वर्जिन है और कौन नहीं ! मुझे नहीं मालूम उस टेस्ट के बाद उन जोड़ों का क्या हुआ। मुझे नहीं मालूम उनमें से कितनी लड़कियों ने इस कौमार्य परीक्षण को समझा भी होगा। और कितनों को हाइमनोप्लास्टी जैसी मेडिकल तकनीक के बारे में पता होगा जो इस परीक्षण से पहले वो करवा चुकी होंगी। मगर, इतना मालूम है कि उस परीक्षण के लिए सिर्फ दुल्हनें ही आई थीं, दूल्हे नहीं।

सवाल ये है कि वर्जिनिटी को लेकर सारी मुश्किलें लड़कियों से ही क्यों जुड़ी हैं। क्या लड़कों को वर्जिनिटी छिपाने की ज़रूरत नहीं पड़ती। क्या उन्हें मालूम होता है कि वर्जिनिटी से जुड़ा सवाल भारत में अब भी लड़की (पत्नी) शायद ही लड़के (पति)  से पूछे। या फिर, उन्हें इस बात से कोई फर्क ही नहीं पड़ता कि लड़की उसके 'चरित्र' के बारे में क्या सोचती है। वैसे भी लड़कों की वर्जिनिटी मापने का कोई तरीका शायद है भी नहीं । तो उन्हें छिपाने की ज़रूरत भी क्या है।
दरअसल, भारत जैसे देश में समाज का दोहरापन शुरू से रहा है। लड़के और लड़की के लिए नैतिक मापदंड अलग-अलग हैं। देहरादून की एक दोस्त (महिला) से इस बारे में राय ली तो उसने कहा कि शहर में हर लड़का चाहता है कि एक लड़की का साथ उसे ज़रूर मिले। लड़की जो खुलकर बातें कर सके, सब कुछ शेयर कर सके, मतलब 'इज़ी-गोइंग गर्ल' (ये मेरी दोस्त का इजाद किया हुआ शब्द है)। मगर, जब शादी की बात आएगी तो कैसी भी लड़की चल जाएगी, सिवाय उस इज़ी-गोइंग  गर्ल के ! 
ये लड़कियों के लिए समाज का पैमाना है जो उसकी सब खूबियों को एक झटके में दरकिनार कर सकता है, अगर उसे ये पता चल जाए कि 'लड़की' ने शादी से पहले 'आज़ादी' का अपराध किया है।
फिर, ऐसे समाज में मेडिकल साइंस का सहारा बुरा विकल्प तो नहीं है। क्या आधुनिक समाज का रास्ता देह की आज़ादी से होकर नहीं जाता है?  आप क्या सोचते हैं?

निखिल आनंद गिरि