Tuesday, August 04, 2009

वह बार-बार बुदबुदाती कि मैं बहुत बुरा हूं

ब्लू फिल्म-भाग 5

लता कम्प्यूटर सीखने लगी थी। उसकी नई चीजों को सीखने की ललक देखकर मुझे अचरज होता था। मुझ पर तो पुरानी बातों और यादों का बोझ ही इतना बढ़ता जाता था कि मैं ठीक से जीता रहूं, यही मुझे काफ़ी लगने लगा था। वह अब शाम को एक घंटा और देर से आती थी। तब तक अँधेरा होने लगता था। माँ-पिताजी मुझे उसे लेने जाने के लिए कहते थे, लेकिन मेरा मन नहीं करता था। मैं चुप अँधेरे में पड़ा रहता। माँ पिताजी बूढ़े होते जा रहे थे। मैं उनके लिए भी चिंतित होता था, लेकिन कुछ नहीं कर पाता था। नई सरकार आने में अभी वक़्त था।
लता पड़ोस के चार पाँच बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाने लगी थी। कभी कभी मुझे लगता था कि वह मुझे अपमानित करने के लिए ऐसा कर रही है। उस पर वह दिनभर झूठा लाड़ भी दिखाती थी तो मुझे गुस्सा आता था। वह रात को सोने से पहले मेरे लिए दूध लेकर आती तो मैं उसे डाँट देता था। वह रूआँसी हो जाती और दूध रखकर चुपचाप चली जाती। हमारे घर में दो कमरे थे। एक में मैं सोता था और एक में माँ, पिताजी और लता। मुझे अक्सर बहुत देर में नींद आती थी।
एक दिन रागिनी का फ़ोन आया। फ़ोन माँ ने उठाया। अमूमन मेरे लिए कोई फ़ोन नहीं आता था, इसलिए मैं फ़ोन के बिल्कुल पास भी बैठा होता तो भी फ़ोन नहीं उठाता था। हमारी कई माँएं थीं, इसलिए एक माँ बाहर आँगन धो रही होती थी तो दूसरी दौड़कर फ़ोन उठाने आती थी। उस दिन भी ऐसा ही हुआ। माँ बहुत अच्छे स्वभाव की थी लेकिन शक्की थी। कोई लड़की मुझे फ़ोन करेगी, यह सोचकर ही वह काँप जाती होगी। रागिनी ने मुझे बुलाने के लिए कहा तो माँ ने ढेर सारे सवालों की झड़ी लगा दी। .....कौन हो, कहाँ से हो, किसकी बेटी हो, क्या काम है..... उसने नाम बताया और अगले सवाल पर फ़ोन काट दिया। वैसे उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था। फ़ोन काटना ही था तो बिना नाम बताए काटती। माँ ने मुझसे पूछा कि रागिनी कौन है? मैंने कहा कि मैं किसी रागिनी को नहीं जानता। ऐसा कहते हुए मैंने विशेष ध्यान रखा कि मेरी नज़रें माँ की नज़रों से मिली रहें। उसके बाद दिनभर माँ चुप-चुप खोई खोई सी रही। मैं जानता हूं कि माँ के ख़यालों में एक चित्र बना होगा जिसमें मैं एक सुन्दर लड़की के होठ चूम रहा हूंगा। बैकग्राउंड में हरियाली होगी या दस बाई दस का छोटा सा कमरा। बहुत संभावना है कि माँ ने बैकग्राउंड पर या मुझ पर ध्यान ही नहीं दिया होगा। माँ ने लड़की की आँखें-नाक-कान जाँचे होंगे। कल्पना के चित्र में अच्छे नैन-नक्श वाली लड़की ही आई होगी, इसलिए माँ को हल्की सी संतुष्टि मिली होगी। माँ ने सोचा होगा कि चित्र में कहीं कोने में लड़की की जाति भी लिखी रहती तो अच्छा रहता। फिर शाम को मैंने यादव के घर से रागिनी को फ़ोन किया। उन दिनों दिनभर मेरी आँखें दुखती थीं। मेरी दृष्टि धुंधली होती जा रही थी। मुझे डर लगने लगा था कि कहीं मैं जल्दी ही अंधा न हो जाऊँ। यह डर दुनिया के सबसे बड़े डर की तरह लगता था। रागिनी फ़ोन पर देर तक रोती रही। उसने मुझे बताया कि वह विजय से प्यार नहीं करती और उसके साथ बहुत दुखी है। उसने कहा कि उसे मेरी बहुत याद आती है। उसका रोना और ख़ासकर रोने का कारण मुझे बहुत अच्छा लग रहा था। मैं खुशी से चिल्लाना चाहता था। मैंने उसे बताया कि मैं उसे कितना प्यार करता हूँ। यह मैंने इतना बताया कि सुनते सुनते वह चुप हो गई और फिर खिलखिलाकर हँसने भी लगी। उसने कहा कि मेरी माँ की बातें सुनकर लगता है कि वह मुझसे बहुत प्यार करती है। मैंने कहा कि हाँ। उसने कहा कि वह मुझसे मिलना चाहती है। मैंने उसे याद दिलाया कि हमने उस दिन सुनार की दुकान के बाहर एक दूसरे को देखा था। उसने कहा कि उस दिन विजय उसके साथ था। मैंने कहा कि हाँ। उसने कहा कि वह शकरकंद खा रही है। मैंने उसे कहा कि मुझे भी खिलाए। उसने पूछा, “फ़ोन में से कैसे खिलाऊँ?”
यह हम पहले भी बहुत बार एक-दूसरे से पूछते थे और हँसते थे। फिर मैंने उसे अपनी आँखें बताई। उसने मुझे जल्द से जल्द डॉक्टर को दिखाने की हिदायत दी। वे बरसात के दिन थे, जब मैंने चलना सीखा था। जब मैंने संसार को ठीक से देखना सीखा था, वे भी बरसात के ही दिन थे। बरसात की ही एक शाम में मैंने रागिनी को पहली बार देखा था। उस फ़ोन के बाद हम बारिश के ही एक दिन मिले। उसने बताया कि वह उसकी एक सहेली शिल्पा का घर था। शिल्पा अकेली रहती थी। सामान से भरे उसके घर को देखकर ऐसा लगता नहीं था, लेकिन रागिनी ने मुझे यही बताया। उस दिन शिल्पा अपने घर की चाबी रागिनी को देकर चली गई थी। हर शहर में इस तरह की आपसी सहयोग की बहुत व्यवस्थाएँ होती थी।
मैं जब पहुँचा तो वह मेरा ही इंतज़ार कर रही थी। उसने हल्की नीली जींस और किसी गहरे रंग का टॉप पहन रखा था। उसके बाल खुले थे। दरवाज़ा खोलते ही वह मुस्कुराई। ड्रॉइंग रूम में टीवी चल रहा था, जिसके चित्र लहरों की तरह नहीं बहते थे। ड्रॉइंग रूम की छत पीली और दीवारें हरी थीं। एक फ़ानूस भी लटक रहा था। मुझे लगा कि मैंने उसे गले लगा लिया है, लेकिन जब उसने सोफे पर बैठने को कहा तो मेरी तन्द्रा टूटी। मैं बैठ गया। वह ख़ुश थी। मैं भी। वह मेरे पास आकर बैठ गई। उसकी जींस मेरी जींस को छू रही थी।
हमारी जान-पहचान के शुरु के दिनों में हम एक साइबर कैफ़े में मिला करते थे। वह पहले जाती थी। मैं क़रीब दस मिनट बाद घुसता था। हम एक ही केबिन में बैठते थे। मैं जब भी जाता, साइबर कैफे वाला मुझे देखकर मुस्कुराता था। मुझे अच्छा लगता था। गर्वीला अच्छा। मुझे कम्प्यूटर के बारे में उतना ही मालूम था, जितना अंटार्कटिका के बारे में था। अंटार्कटिका में बर्फ़ ही बर्फ़ थी, जो वायुमण्डल का तापमान बढ़ते जाने से साल दर साल पिघल रही थी। ओज़ोन परत में एक छेद था जो इसके लिए उत्तरदायी था। फ़्रिज़ से कोई हानिकारक गैस निकलती थी। समुद्रों में पानी का स्तर बढ़ता ही जा रहा था। अंटार्कटिका में लोग नहीं रहते थे। बस इतना ही।
वह केबिन इतना छोटा होता था कि हम न भी चाहते तो भी सटकर बैठना पड़ता और हम चाहते थे, इसलिए और भी सटकर बैठते थे। उसके घर में भी कम्प्यूटर था, इसलिए वह काफ़ी कुछ जानती थी। वह एक दो वेबसाइट भी खोलती थी। वह अपना ईमेल मुझे दिखाती। उसे हमेशा कई लड़कों के प्यार के प्रस्ताव वाले मेल आते थे। वह मुझे पढ़वाती थी। मैं उसकी हथेली और कसकर पकड़ लेता था। हमारी हथेलियाँ पसीज जाती थीं। हम मेल पढ़ते पढ़ते हँसते थे। फिर वह मेरे घुटने पर अपना हाथ रखती थी, अक्सर घुटने से कुछ ऊपर। उसका अर्थ जाने क्या होता था! लेकिन जो भी होता हो, मुझे उत्तेजना होती थी। वह बाल खोल लेती थी। वह बताती थी कि उसने बाल आज ही धोए हैं। मुझे लगता था कि वह रोज़ बाल धोती होगी। मैं यह उससे पूछता था तो वह मेरी नादानी पर हँसती थी। वह मुझे अपने बाल छूकर उनका गीलापन देखने के लिए कहती थी। मैं उसके बालों में उंगलियाँ फिराने लगता था। वह जैसे सर्दी में थरथराती थी और उसकी आँखें बन्द होने लगती थी। उसका चेहरा मेरे चेहरे के क़रीब आता जाता था। मैं दोनों हाथों से उसका चेहरा पकड़कर उसे बेतहाशा चूमने लगता था। उसके होठ, उसकी नाक, माथा, बन्द आँखें, उसके बड़े बड़े कान, गर्दन की नीली नसें, उसकी ब्यूटी बोन और ब्यूटी बोन का गड्ढ़ा। वह मेरे हाथ पकड़कर अपनी छातियों तक ले जाती थी। मैं पागल हो जाता था। वह बार बार बुदबुदाती थी कि मैं बहुत बुरा हूं। मैं उसे इतना देखना चाहता था कि मेरी आँखें कभी बन्द नहीं होती थीं।
वह उन दिनों बहुत सारे वादे करती थी मसलन मेरे बिना वह मर जाएगी और मर भी गई तो भी मुझे भूल नहीं पाएगी। उसके हर वादे पर मुझे लगने लगता था कि अब वह ज़ल्दी ही मुझे छोड़ने वाली है। मैं उसके होठों पर हाथ रख देता था। हम बस में साथ साथ बैठकर पास के शहर तक जाया करते थे और चाय पीकर लौट आते थे। उसे मूँगफलियाँ बहुत पसन्द थीं और मुझे वह।
उस दिन, जब उसकी जींस मेरी जींस को छू रही थी, वह मेरे कंधे पर सिर रखकर सुबकने लगी। उसके बाल मेरे गालों को छू रहे थे। मैंने उससे पूछा कि यह कौनसा हेयर स्टाइल है? उसने भर्राए गले से कहा- लेयर स्टेप। उसने कहा कि उसे अपने पापा की बहुत याद आती है और मेरी भी। उसने बताया कि उसके पापा तीन महीने पहले एक कार दुर्घटना में चल बसे थे। मुझे दुख हुआ। मेरा मन हुआ कि मैं कुछ भी करके उसका दुख मिटा दूं। मैंने उससे कहा कि मैं अभी ज़िन्दा हूं, इसलिए कम से कम मुझे याद करके तो उसे रोना नहीं चाहिए। मैंने कहा कि उसके पापा यदि उसे कहीं से देख रहे होंगे तो उसे रोते हुए तो नहीं देखना चाहेंगे ना!
यह दिलासा देने का बहुत पुराना तरीका था। इस समझाइश ने काम नहीं किया। वह बदस्तूर रोती रही। मैंने कुछ मनगढंत बातें यह कहकर कही कि ऐसा गीता में लिखा है। वे बातें सुनकर वह कुछ शांत होने लगी। मैंने उससे कहा कि मैं उससे बहुत प्यार करता हूं और उसे हमेशा खुश देखना चाहता हूं और उसके लिए कुछ भी कर सकता हूं। मुझे अपनी बातें कुछ बाज़ारू सी भी लगीं लेकिन मैंने उसका चेहरा अपने हाथों में लेकर, उसकी आँखों में आँखें डालकर ऐसा कहा। वह चुप हो गई और उसने अपने आँसू पोंछ लिए।
मेरे लौटने से पहले हमने मूंगफलियाँ खाईं, चाय पी और एक दूसरे को चूमा। उसने कहा कि वह मुझमें समा जाना चाहती है, लेकिन उसके लिए पहले विजय को अपनी ज़िन्दगी से दूर करना चाहती है। मैंने कहा कि मैं इंतज़ार करूंगा। उसने कहा कि इंतज़ार के अलावा कुछ और भी है, जो मैं उसके लिए कर सकता हूँ। मैंने पूछा, क्या? उसने कहा कि क्या मैं उसे पच्चीस हज़ार रुपए दे सकता हूं? उसे तलाक़ की कार्रवाई के लिए इन रुपयों की ज़रूरत थी। ऐसा उसने मेरा चेहरा अपने हाथों में लेकर, मेरी आँखों में आँखें डालकर पूछा। मैंने कहा कि हाँ। जबकि मैं बेरोज़गार था और मेरे पिता की तनख़्वाह सात हज़ार रुपए महीना थी, माँ की डेढ़ हज़ार और लता ट्यूशन से बारह सौ रुपए कमाने लगी थी, मैंने उसके सिर पर हाथ रखकर यह वचन दिया।

गौरव सोलंकी

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7 बैठकबाजों का कहना है :

Arun का कहना है कि -

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कुश का कहना है कि -

बह रहा हूँ.. कहानी के साथ साथ..

विनोद कुमार पांडेय का कहना है कि -

badhiya kahani hai .
achcha laga...nirantata banaye rakhiye..

dhanywaad

Manju Gupta का कहना है कि -

कहानी को जीवन की बारीकियों से जोड़ कर रोमांचक और प्रभावशाली बन रही है ,बधाई .

Aniruddha Sharma का कहना है कि -

Gauravji, kahani kahne ka tareeka bahut hi dilchasp hai. pahla bhag padhne ke baad kahani ne is tarah baandh liya ki main samay nikaal kar padh hi leta hoon...

Anonymous का कहना है कि -

अगर यही कहानी है तो हर कोइ लिख सकता है,,,,

ना इसमें नयापन है, ना भाष की खूबसूरती , ना कोइ सही बात बस लेख के ख़राब दिम्माग की फालतू बात ....



गौरव जाओ और नया ज्ञानोदय पर लिखो जहां से तुम्हे पोपुलारिटी और पैसा मिलेगा ,,,

हिन्दी युग्म भी तुम्हे इसलिए ही छपता है नहीं तो बहुत अच्छी लोग है पहले से ही

अपनी गन्दगी को टेकलीकल फील्ड तक ही रहने दो न..,,



हा हा हा,,,


सादर

सुमित दिल्ली

Shamikh Faraz का कहना है कि -

कहानी जैसे जैसे आगे बढ़ रही है रोमांचक होती जा रही है. लम्बी होने के बावुजूद बंधे हुए है.

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