हाल ही में एक एफ़ एम चैनल पर कहते सुना कि वे बाप के जमाने के गाने नहीं सुनायेंगे। और यही बात ज़ोर-ज़ोर से बार बार दोहरा रहे थे। पर ये साबित क्या करना चाहते हैं? मेरी समझ में तो यह आया कि आज की पीढ़ी के सभी गाने अच्छे हैं और पिछली पीढ़ी के "गँवारों" वाले गाने "बेकार" थे (?)। जो वर्तमान पीढ़ी है वो "समझदार" है और पिछली पीढ़ी "मूर्ख" थी जो बेकार गाने बनाती व सुनती थी। यहाँ ये मेरे, आपके और "समझदार" पीढ़ी के सभी पिताओं व संगीत के महारथियों को गलत ठहराने पर तुले हुए हैं जिनके बूते ही आज की फ़िल्म इंडस्ट्री टिकी हुई है।
पुरानी पीढ़ी को "बोर" कहने वाला यह चैनल चाहे-अनचाहे कईं बातें कह जाता है। लता मंगेशकर ने जितने भी सदाबहार गाने गाये इनके हिसाब से सुनने लायक नहीं हैं। "समझदार" पीढ़ी जब प्रीतम व अनु मलिक के चुराये हुए "बेहतरीन" गानों पर नाचे व झूमे तो अच्छा होता है। पर आर.डी बर्मन, नौशाद आदि का संगीत हो तो सुना ही क्यों जाये? चैनल इस बात से खुश होता कि बाप के जमाने के गाने न बजा कर जो बदलाव आया है वो बहुत "अच्छा" है और हमारी पीढ़ी इससे खुश है (?)। ये चैनल किशोर व रफ़ी का मुकाबला आतिफ़ असलम व हिमेश रेशमिया से करता है और अपनी इस "कामयाबी" पर खुश भी होता है। जिन गानों को सदाबहार कहा जाता है उन्हीं गानों को यह चैनल नकार रहा है। क्या आज के गानों को सदाबहार गानों का दर्जा मिला है?
इन सबके बीच जो बात और भी ज्यादा चुभती है वो है उनका विज्ञापन के जरिये "बाप के जमाने" की खिल्ली उड़ाना। क्या यहाँ कोई सेंसर बोर्ड नहीं आता? इसी बात को अलग तरीके से कहा जा सकता था। जिस तरह से अपने फ़ूहड़ चुटकुलों से हँसाने की कोशिश ये करते हैं वो पूरा परिवार मिलकर तो नहीं सुन सकता। अपनी बात स्वतंत्रता से कहने का अधिकार हमारा कानून देता है पर भद्दा मजाक करने का नहीं। सनी देओल की आवाज़ में एक चैनल पर फ़ूहड़ चुटकुले सुनाये जाते थे जिस पर सनी देओल ने बाद में ऐतराज़ भी जताया था। है कोई रेडियो के इन चैनलों पर नकेल कसने वाला? "बाप के ज़माने" को दकियानूसी कहने वाला चैनल है ९३.५ रेड एफ़ एम।
खैर मीडिया को मैं हमेशा बुरा कहता आया हूँ और कहता रहूँगा क्योंकि जो कार्य ये मीडिया कर सकता है वो ये करते नहीं। राजू श्रीवास्तव के बिग बॉस में कपड़े उतरे वो ये चैनल बार-बार दिखाते हैं जिसे बच्चे भी देख रहे हैं। किस तरह का दायित्व ये लोग उठा रहे हैं मेरी समझ से बाहर है। जल्दबाजी के शिकार होते हैं और राम को द्वापर में पहुँचा देते हैं। बिना पड़ताल किये कुछ भी लिख देते हैं और कहते हैं "खबर हर कीमत पर"। काल कपाल व भूत पिशाच दिखाते हैं और फिर एक खबर में कहते हैं कि 21वीं सदी में भारत के लोग अँधविश्वास में जी रहे हैं। समाज को नुकसान पहुँचा रहा है मीडिया। दोहरे मापदंड अपनाता है मीडिया।
हिन्दी के चैनलों व समाचार पत्रों का हाल बुरा है। भारत ने दूसरा मैच जीता था, ठीक उसी दिन अम्पायर डेविड शैफ़र्ड का निधन भी हुआ। लेकिन मुझे अखबार व चैनलों से ये खबर नदारद थी। क्रिकेट के चाहने वाले सभी लोग ये जानते हैं कि डेविड शेफ़र्ड की शख्सियत क्या थी। वे लोगों में अत्यधिक लोकप्रिय अम्पायरों में से रहे। लेकिन फिर भी खेल पृष्ठ पर उनकी मृत्यु की खबर न देख कर मुझे हैरानी हुई। हालाँकि अंग्रेजी के अखबारों में ये खबर छपी थी। इससे पता चलता है कि ये लोग युवराज व धोनी की शोपिंग देखने में ज्यादा व्यस्त रहते हैं।
रेड एफ़. एम द्वारा शुरू किया गया ये "बेहतरीन" कार्य इसी गैर जिम्मेदाराना रवैये को दर्शाता है। जब छोटा बच्चा ये सुनेगा कि "बाप के जमाने" के गाने सुनने लायक नहीं (?) हैं तो आप समझ सकते हैं कि भविष्य में किस तरह के गाने सुनने को मिलेंगे। किशोर, रफ़ी, मुकेश, हेमंत, लता, आशा के गाने अब कूड़े में डाल दीजिये और सुनना शुरु कीजिये रेशेमिया व प्रीतम के "रेडियो" को जो एफ़ एम वाले "बजाते" रहेंगे।
---तपन शर्मा
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37 बैठकबाजों का कहना है :
अपने मतलब के लिये गधे को भी बाप(वैसे इसमे गधे की ही बेईज्जति है) बनाने में ना झिझकने वाले ऐसे लोग पैसे के लिये बाप को भी दांव पर लगा देते हैं। फिर बेचारे पूराने गाने किस खेत की मूली हैं।
पता नहीं ऐसी जाति "टपकती" कहां से है। वैसे कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि अपने को श्रेष्ठ साबित करने के लिये ये "मौसमी तथाकथित गवैये" ही यह सब कहलवाते हों।
Forgive me to use these words on this platform , but they are 'harami kutte' who say so about the old melodies.
जिसने कभी मक्की की रोटी, दाल और गुड नहीं खाया और जो हमेशा पिज्जा, बर्गर पर ही पला हो वह भला स्वाद को क्या जाने? जैसे-तैसे पेट भरने को ये खाना कहते हैं ऐसे ही चीखने चिल्लाने को ये लोग गाना कहते हैं। बेचारे यह स्वाद ही नहीं जानते, इनका कसूर नहीं है। गाने को तो पशु-पक्षी भी पहचानते हैं लेकिन ये आधुनिकता के मारे बेचारे नहीं जानते कि गाना क्या होता है? वे तो समझते हैं कि जब बाप ही गलत है तो उसके जमाने के गाने तो गलत ही होंगे। अच्छी जानकारी दी आपने, हम तो सुनते नहीं हैं यह एफ एम, आपके कारण ज्ञानवर्द्धन हो गया।
एफ़एम चैनलों की मालिक और उस पर बकबक करने वाली पीढ़ी वह है जिसने जन्म से आज तक सिर्फ़ डालडा ही खाया है, असली शुद्ध घी जिसने खाया ही न हो वह क्या जाने उसकी तासीर क्या होती है…। राजू श्रीवास्तव के कपड़े उतारना और उसे बार-बार दिखाना भी इसी डालडा छाप बीमार मानसिकता से ओतप्रोत है…। लेकिन इन्हें इग्नोर करने से भी काम नहीं चलेगा, इस प्रकार का गू ये एफ़एम चैनलों पर परोसते ही रहेंगे, इनका कोई दूसरा "ठोकतांत्रिक" इलाज देखना पड़ेगा… :)
वैसे तो ये कह रहे है बाप के ज़माने के गाने नहीं सुनायेंगे पर जब ये गाने रीमिक्स हो कर आयेंगे तो सबसे ज्यादा ये ही चैनल वाले बजायेंगे
मैने एक फिल्म देखी थी जिसका नाम है "कल, आज और कल" कलाकार- पृथ्वीराज कपूर,राजकपूर एवं रणधीर कपूर. इस फिल्म में भी दादा, बाप और पोते के दरम्या विचारों का अन्तर दिखाया गया है और निष्कर्ष निकलता है कि जो कल बाप था वो आज दादा है, जो बाप है वो दादा बनेगा और बेटा बाप बनेगा. कहने का मतलब यही है कि जिसे आज लोग बाप के जमाने के गीत कह कर ठेंगा दिखा रहे हैं कल बाप बनने पर उनकी पसंद भी बाप के जमाने की श्रेणी में आ जायेगी. ये सिलसिला तो चलता ही रहेगा. अत: सिर्फ इतनी समझदारी की आवश्यकता है कि कल के अनुभव से आज में कार्य करते हुए भविष्य सँवारने की कोशिश की जाये. जरुरत सिर्फ तालमेल की है.
par in fm चैनल वालो को कौन समझाए आज कल के युवा bhi पुराने गाने aur ग़ज़ले भी सुनते है
Achchha hua Tapan ji aap ne ye lekh likh diya,kyonki kal meri bhi kisi se is mudde pe bahas hui aur main bhi aaj ispe ek teekha lekh likhna chah raha tha. Achchha hua aapne pahle hi likh kar mujhe jyada kadwe shabd bolne se bacha liya.
Asal me in radio FM walon ka imaan dharam to kuchh hai nahin, jo bhi hai sirf paisa hai... kal ko koi doodh peeta bachcha bolega ki ''oye sadele bade bhai ke time ke 6 mahine purane gaane nahin chalenge, sirf meri generation ka shor sharaba yani nai release lagao'', to ye wo bhi karenge, agar inhe sangeet ki samajh hi hoti to khud itne besure na hote.
In bewakoofon ko sabak sikhana nihayat hi jaroori ho gaya hai.
मैंने एक बात नोट की है...ये ऍफ़ एम् वाले हर किसी की खिल्ली उड़ते रहते है!जैसे की शिष्टाचार रहा ही नहीं...!आप बकवास करे बिना भी अपनी बात सबके सामने रख सकते है!अभी पिछले दिनों ये पूछ रहे थे की क्या आपने अपनी टीचर को कभी एप्रोच किया है?इस तरह के बेहूदा सवाल पूछने वाले क्या खुद इनका जवाब देना चाहेंगे?
जो भी हो कर्ण प्रिय होना चाहिये।
वैसे मै अपने पापा के जमाने के गीत बहुत सुना करता हूँ . मुझे पुराने गीत आज भी बहुत पसंद आते है
तपन जीआपने बिलकुल सही कहा की बाप के ज़माने वाले गीतों पर ही यह इंडस्ट्री टिकी है. वही असली संगीत था. आजकल तो हर गीत पर चोरी का आरोप है.
93.5 रैड एफ़ एम वाले यदि यह कहते हैं कि नई पीढ़ी के लोग बाप के ज़माने के गाने नहीं सुनना चाहते तो इसमें उनका कोई दोष नहीं क्योंकि कहनेवाले भी आज की पीढ़ी से ही ताल्लुक रखते हैं. आज वर्ष 2009 में यह बात उठी है लेकिन मैं पिछले 20 साल से लोगों की निर्दोष छींटाकशी झेल रहा हूं कि मैं अपने दादा के ज़माने के गाने सुनता आ रहा हूं.
सन् 1980 के आसपास जब मैं पांच साल का था तभी से गीत-संगीत के स्वर्ण युग (1940 से 1970) में छेड़ी गई स्वरलहरियां मुझे आज भी आल्ह्वादित कर देती हैं. बाबा आदम के ज़माने का एक पच्चीस किलो का रेडियो था हमारे घर में जिसे वार्म-अप होने में तीन मिनट लगते थे. उस रेडियो ने मुझे चंद सालों तक इतने मीठे पल दिए जिनका अनुमान वही लगा सकते हैं जो इस अहसास से गुज़र चुके हैं. प्रातःकाल के शास्त्रीय संगीत आधारित नायाब प्रस्तुतियों के बाद आनेवाले कार्यक्रम भूले-बिसरे गीत का इंतज़ार मेरे पिता को ही नहीं बल्कि हमारे घर के हर सदस्य को होता था. मधुर एवं अर्थपूर्ण गीत-संगीत का रस लेने के संस्कार ऐसे ही मिलते हैं. मुझे नहीं लगता कि मेरे सिवाय मेरे किसी भी मित्र को ऐसा माहौल मिला होगा. मिला होता तो वे पुराने संगीत की खिल्ली नहीं उड़ाया करते.
उन दिनों अल-सुबह रेडियो पर लताजी का 'ज्योति कलश छलके', पंकज मलिक का 'तेरे मंदिर का दीपक', सहगल का 'करूं क्या आस निरास भई', रफी का 'मन रे तू काहे न धीर धरे', और ऐसे ही मन्नादा, किशोरदा, हेमंतदा, मुकेश, तलत, आशा आदि के हज़ारों गीत सुनकर बड़ा हुआ हूं मैं. हज़ारों नहीं तो सैंकड़ों गीत मुझे ज़ुबानी याद हैं. आज कहीं जब कोई पुराना गीत बजता सुलकर उसे साथ में गाने लगता हूं तो साथवाले आश्चर्य से पूछते हैं यार, हमने तो ये गाना पहली बार सुना है और तुम्हें ये पूरा याद है. ऐसा कहनेवालों में पत्नीजी सर्वोपरि हैं. मैं पत्नीजी की इस बात पर तो हामी भरता हूं कि पुराने हीरो आज के ज़माने के हीरो के दादाजी जैसे लगते थे पर उसकी इस बात पर पिनक जाता हूं कि पुराने गाने पकाऊ होते थे.
रोज़ रात को जब पत्नीजी टीवी पर थकेले सीरियल और रियलटी शो देखकर अपना मनोरंजन कर रही होती हैं तो मैं उस समय इंटरनेट पर पुराने गानों के ऑडियो-वीडियो तलाश रहा होता हूं. पत्नीजी को तो मेरी इस आदत से झिलाइटिस हो चुकी है.
ये 'पकाऊ', 'थकेले', 'झिलाइटिस' जैसे शब्द मैं कभी नहीं यूज़ करता, पत्नीजी करती हैं. उन्हें आज के जमाने के गाने पसंद हैं. इसका असर उनकी भाषा पर साफ़ दीखता है.
ज्यादा बुरा तब लगता है जब कोई व्यक्ति पुराने गायकों की मिमिक्री बड़े ही फूहड़ अंदाज़ में करता है.
तपनजी
बिलकुल दुरुस्त फरमाया आपने और सही विषय चुना है. मैं इन ऍफ़ एम चैनलों से बेहद त्रस्त महसूस करता हूँ. ऐसा लगता है कि ये चुनकर वही गीत बजाते हैं जिसमे संगीत नाममात्र भी न हो बस composition हो. खुद एक composer होने के नाते मुझे आजकल कि संगीत निर्माण प्रक्रिया के बारे में थोडा बहुत पता है. ज्यादातर संगीतकार एक सॉफ्टवेर कि मदद से एक लूप बनाते हैं जिसे बाद में रिदम कहा जाता है यही वजह है कि सारे गीतों कि रिदम आपको एक जैसी ही लगती है. धिन चक लूप बनाने के बाद अपने कीबोर्ड पर ये लोग सुरों के कुछ combination बजा कर देखते हैं. जो इनके हिसाब से कैची बन जाता है उसे रिकॉर्ड कर लेते हैं. इसीलिए सारे गीत सीधे-सीधे होते हैं न कोई उतार-चढाव, न कोई हरकत जो कि संगीत कि जान होती है. मैं जब रेडियो सुनाता हूँ तो मुझे सारे ही गीत एक जैसे लगते हैं. और आवाजें भी. गायक भी ऐसे हैं जो उतार-चढाव बर्दाश्त नहीं कर सकते. सबकी आवाज़ एक जैसी है तीखी...सोनू निगम के बाद कोई मेहनत करने वाला गायक शायद नहीं आया. लोग जुगाड़ से गायक बनते हैं और रियाज़ कि कमी उनकी आवाज़ में साफ़ नज़र आती है. सुरेश वाडकर के बाद आवाज़ में मिठास कभी सुनाई नहीं दी. बहुत थोड़े से ही संगीतकार ऐसे हैं जिन्हें संगीत कि गहरी समझ है उनमे सबसे ऊपर ए आर रहमान हैं. ये २-३ संगीतकार ही गीत बनाते हैं बाकी सारे लोग तो लूप बनाते हैं और ये ही लूप रेडियो पर पूरे दिन चलते हैं ऊपर से RJs की बकबक सर में दर्द कर देती है. मैं आज भी विविध भारती सुनना पसंद करता हूँ और अपने लैपटॉप पर भी पुराने गीतों का बड़ा भारी संग्रह रखता हूँ क्योंकि मुझे संगीत सुनना है गाने या लूप नहीं...
व्यंग्य का यह पहलू अलग अंदाज में बहुत कुछ कह गया,जो मुझे बहुत ही अच्छा लगा......
मुझ मूर्ख को तो आज भी अच्छा लगता है" कदर जाने ना ........(लता जी )
मुझे लगता है कि संगीत की कोइ उम्र नही होती .वो तो एक धारा है जो हर युग में बहती है. अच्छा संगीत हमेशा ही पसंद किया जाता है. आज भी ऐसे युवा है जो नई ताल पर भले ही थिरकते हो लेकिन संगीत का आनंद पुराने ही गीतों से लेते हैं. अब रीमिक्स का बाजार भी तो पुराने गीतों से ही आबाद है.
BARSATI NALON KI UCHHAL KOOD SE SADANEERA BAHNA NAHIN CHHOD DETI .. KUTON KE BHONKNE SE HATHI RASTA NAHIN BADLATE .. BADKISMATE SE BANDARON KE HATH USTRE LAG GYE HAIN..CHND LOG JINKE TAZE TAZE BAP MARE HAIN UNKE LIYE MOTA MAL AUR KHALI DIMAG CHHOD GYE HAIN VAHI KAHEINGE "BAP KE JAMANE WALE GEET" YE LOG SARI YUVA PEEDI KE NUMAINDE NAHIN HAIN ...INKI NAKEL KASI JANI JAROORI HAI ... YAHI SARTHAK SAHITY KA KARYKESHTR BHI HAI .. INKE MUKABLE BADI REKHA KHEENCHNI HAI HUMEN AUR AAPKO MILKAR .. MUKTIBODH NE BAHUT BADIYA SAMBODHAN DIYA HAI INKE LIYE "ARTH HEEN SMRATH" INKE KARAN HI TO PURA SAMAJ DIGBRIMT HO RAHA HAI ..
वो गाने तो थे, आज की जनरेशन गा कहाँ रही है वो तो रोरही है चिल्ला रही है
मेरा मन तो यही कहता है उनको उंके हाल पर छोड्कर गीत गाता चल ओ साथी गुनगुनाता चल
अच्छा संगीत सबको प्रिय है
पुराने गानों मे अर्थ है और संगीत भी
नए गानों मे सिर्फ धुन है
इसलीये मुझे पुराने गाने पसंद है
जो बात तपन जी ने कही है..
उस से पूरी तरह सहमत हूँ..
और अच्छा ही है ये उन सदा बहार गीतों को ना सुनवाएं...
ये इस लायक ही नहीं हैं के उन गीतों के बारे में बात भी कर सकें...
उनका जिक्र भी कर सकें...
I don't know, but you can't stop it. Can you think of ousting cola companies and cigarette companies? It is as tough to stop all this. If you do not like it, simply change the channel. Hindi me kahawat hai.. Chandan vish vyapat nahi, liptey rahat bhujang :) So try to teach good values to children/people in your influence. All that is value less will die down by itself.
sabse pahale aapko is lekh ki liye bahut-bahut dhanyawaad. dhanyabaad isliye kyunki,aapne is baat ka ahsaas karaya ki kuch galat ho raha hai. kisi sach ko agar baar-baar jhut kaha jaay to sach bhi jhut ban jata hai. aaj jyadtar aisa hi ho raha hai.har taraf ye sabit karne ki kosis ki ja rahi hai ki pizza ko kha kar aap wo sab kar sakte hai jise doodh pine wala backward insaan kabhi soch bhi nahi sakta.
bazaarwaad ki is andhi daud me logo ko lubhane ke liye rooz naye-naye nuskho ki jarurat padati hai. halanki, lubhane ke aur bhi tarike ho sakte hai...lekin wo loog jinhe aur tarike nahi aate wo aise hi satahi aur fuhad tarike apnate hai.
dukh is baat se nahi hota ki ye kya kah rahe hai,balki dukh is baat ka hai ki ye apni in harkatoon se sach ko jhut sabit karne me lage hue hai. bazzar aur uski shaktiyaan inke saath hai,kyunnki bazaar ko matalab sammaj ke bhale se nahi,balki apne phayde se hai.
aise channals bazaar ka to bhala kar sakti hai,lekin antatah ye samaaj ke swasthya ke liye nasur bante ja rahe hai.apni baat ko sunane ke liye aur channal ko chalane ke liye ye kisi bhi had tak ja sakte hai.puraane gano ko gali de kar inhone yehi sabit kiya hai.
अजी बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद, यह साले फ़िरंगियो की नाजायज ओलाद होगी, जो अग्रेजॊ की झुठन को ही अपना भोजन समझता है;) लानत है ऎसी मान्सिकता पर.
धन्यवाद
ऐ मेरे वतन के लोगों जरा आंख में भर लो पानी ... सुनिए ... सुनाइए .... और सुनते रहें... बस इतना। ऐसा जब सुनता, हूं, पढ़ता हूं तो मौन होकर रह जाता हूं।
aap chinta mat kijiye tapan ji, ye chainal koi sangeet ka maapdand thode hi hai, samjha aur parakh akal ke saath aati hai, aa jayegi....yahan ek fm gold chainal bhi hai jise bahut log sunte hain...dekhiye main batata hoon, aajkal radio mirchi jiske malik ek bada media group hai purani jeans ke naam se karyakram de raha hai,aur uska jam kar prachaar bhi kar raha hai, uske javaab dene ke liye is chainal jise bhi ek bada media house chalata hai ye vahiyaat propaganda kiya hai, ab mika singh jaise singer galiyan bhi gaanon men use karte hain par kay har koi unhen sunta hai, isi tarah har koi nahi is chainal ko bhi....ab jinhen apne baap se pyaar nahi let them listen to these channels....
बाप के जमाने के गाने क्यों सुनाओगे जी
अजन्मे गानों का दौर जो चलाना है .....
घंटाघर की सुइयों को रस्सी से बांधकर
सिजियमी कम्पंनो से तेजी से घुमाना है...
ऍफ़ ऍम भी रेड है तो रेड़ ही करेगा भाई
रेडियो से रेड़ कैसे होती है, बताना है ...
फर्ज को जो भूल गए हर्ज़ क्या है आजकल
राघव इसी तर्ज़ पर मर्ज़ को बढ़ाना है ...
रेडियो की ट्यून तो हाथ हमारे ही है
उंगली से आगे पीछे थोडा सा घुमाना है ..
hahahaahahha
aise pareshan hone wali bat nahi hai.purane gane hamare baap ke jamane ke hai ye to satya hai. hamare baap daada sunte the hum bhi sunte hai. agar unko koi kehta hai baap ke jamane ke to hame aakrosh byakt nahi karna chahiye
बिहँस बहस होने लगी कहाँ व्यक्त आक्रोश
ठक ठक पुनि बैठक करें रहे बराबर होश
रहे बराबर होश बात मन कछु जो आये
अवगत नहीं आवाम अगर कहते शर्माए
गहयो नहीं हाथ जुबां नहीं कोइ बरबस
ऐसी वैसी जो भी जैसी करो बातें बिहँस
Theek hai.... Agar aisa hai ki FM wale baap ke jamane ke gane nahi bajayenge.... to sabe pahele is FM channel ko band karo... baap ke jamane se baje jaa raha hai...
they are moron who says as per their level but at musical level they are true... kyonki jo gaane wo sunaane se manaa kar rahe hain wo seriously aajkal ke musicians ke baap hai... aaj kal ke music director music ke naam per paap hain.... bhartiya sangeet ke aasteen ke saanp hain aur ye channel wale naag panchami manana chahte hain... old music greatah -- new music greatah... kah bhedh bich old new--- soothing melody samy prapte.. we will get what's true.. ki bhartiya sangeet bujhaye maansik pyas... aur ye pritam, sunidhi jaise sirf bakwaaas
chaliye achcha hai kam se kam yahan sab ekmat hain ki channel ka ye kehne ka tareeka bhartsana karne yogya hai.
Sangeet chahe jis kaal ko ho agar usmein madhurta hai to wo bazta rahega.
नये गानों में अभी कोई एक ताजा गाना टी.वी. पर चल रहा था शायद कुछ इस तरह था, तू नहीं आई तेरी याद आई । पता नहीं कौन अभिनेता गायक या निर्माता होंगें , मुद्दे की बात यह है कि गाना सेड सोंग (दर्द भरे गीत ) के रूप में गाया गया है और इस पर अभिनेता इस दर्द भरे गीत को मटक मटक कर नाच नाच कर गा रहे थे जैसे यह एक रोमांटिक या पार्टी गीत हो । यानि गीत के भाव और कलाकारों के हाव भाव सर्वथा विरोधाभासी ।
कुछ साल पहले ज्यादा पुरानी भी बात नहीं, लोग इशारों इशारों में प्रेम का इजहार कर लेते थे, और कभी कभी बिना कुछ कहे ही बहुत कुछ कह जाते थे । एक बहुत बढि़या बात इस बारे में है - कहत नटत रीझत खिजत मिलते खिलत लजियात । भरे भुवन में करति है नैनहिं सो बात ।।
इस तासीर पर खरा उतरने वाला अगर कोई नया गीत होगा तो मैं जरूर सुनूंगा , लेकिन पुराने गानों में यह तासीर आज तलक बरकरार है । ओल्ड इज गोल्ड ही रहेगा चाहे कितने भी पागल इकठ्ठे होकर समवेत स्वर में इसे बाप के या दादा के जमाने का कहें । स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि जब आप स्वयं को गाली देते हैं तो आप उन्नति के पहले चरण पर पग धरते हैं, लेकिन जब आप अपने पुरखों को गाली देते हैं तो आपका अवनति के पथ पर यह पहला पग होता है ।
खैर ण्ेसे लोग विवेकानन्द को भी क्या मानेंगे । वे भी तो इनके दादा परदादा के जमाने के हो गये ।
हालांकि ये कौनसा चैनल है रेड एफ.एम. हमारे ग्वालियर चम्बल में तो नहीं आता , आता तो पता चलता कि उसने ऐसा कुछ कहा है, भई अगर ऐसा कुछ कहा गया है तो हम उस पागल की घोर निन्दा करते हैं , अगर हमने या ग्वालियर चम्बल वाले किसी भी संगीत प्रेमी ने ऐसे लफ्ज सुन लिये (ग्वालियर संगीत की राजधानी और संगीत सम्राट तानसेन की जन्म स्थली एवं कर्म स्थली है ) तो जम कर जूते पड़ेंगे । हम तो अभी तक खुद ही कूट देते । - नरेन्द्र सिंह तोमर ''आनन्द'' प्रधान संपादक ग्वालियर टाइम्स समूह
शॆलेश जी, हम तो खुद बाप बने हुए हॆं.अपने जमाने के गीत कभी सुनने की कॊशिश भी करते हॆ,तो साहबज़ादे मॊका देखते ही डिस्को गीत लता देते हॆं.हमें लगता हॆ जॆसे कह रहे हो खिसको.कुछ साल पहले आज की इस संस्कारहीन पीढी के नज़रिये से एक डिस्को गीत लिखा था.कुछ पंक्तियां हॆ:
ओ मेरे अंकल,ओ मेरे नाना
गया वो जमाना गया वो जमाना
राम-राम छोडो,टाटा-बाय बोलो
जिससे हो मतलब,उसके पीछे होलो
काये का गाना,काये का बजाना
ओ मेरे............ नाना.
होता है,होता है!आप जानते हैं हम मानते हैं कि बेटा चाहे कितना ही बडा हो जाए पर बाप का तो बाप नहीं बन सकता ना। ऎसे लोगों को बहुधा बडप्पन की खुशफहमी हो जाती है जिससे आनंदातिरेक में कुछ भी कह जाते हैं। रही बात बाप के जमाने के गीतों की तो भाई तो बाप ही नहीं दादा जी के जमाने के गीत भी सुनते हैं । खैर,ईश्वर ऎसे लोगों को सद्बुद्धि प्रदान करें।
ye saale pata nahi kaha se aa jate hai. jo baat BAAP ke JAMANE ke ganoo main hai wo baat ye aaj paida kar ke dikha hi nahi sakte. main bhi aaj ke jamane ka yuwa hu lekin muje baap ke jamane ke gaane hi acche lagte hai. ye aaj ka cluture yuwa pidhi ko bigad raha hai. Bolne ki bhi tamiz nahi hai innmain.
आप बाप के जमाने कि बात करते हैं? भई हम तो बाप के बाप (दादा जी) के जमाने के भी गीत सुनते हैं. आखिर क्यों ना सुनें? उस जमाने में जो संगीत में मधुरता व शास्त्रीय प्रभाव था वह आजकल कहाँ? जो अपने बीते हुए कल (बचपन) और आने वाले कल (बुढापे) से शर्मिंदगी महसूस करते हैं उन्हें वर्तमान का भी कुछ अच्छा नहीं लगता. ऐसे लोग सिर्फ अच्छा लगने का ढोंग करते हैं. अश्विनी कुमार रॉय
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