Thursday, March 19, 2009

फिर भी कुंवारे रह गये अटलजी...

लोकसभा चुनाव : यादों के झरोखे से

चुनाव की प्रतीक्षा शायद लोकतान्त्रिक देश के हर नागरिक को बेसब्री से रहती है. पर मुझे यहाँ कुछ बेहद दिलचस्प और सच्ची सच्ची बातें याद आ रही हैं, जो मुझे भूलती ही नहीं हैं. सच्ची!
सन 80 के चुनावों की बात है. चौधरी चरण सिंह की सरकार गिरने के बाद मध्यावधि चुनाव हो रहे थे. हर आदमी की तरह मुझे भी बेसब्री से इंतज़ार था, यह जानने का कि अब की सरकार किस की बनेगी आख़िर. मैं एक दिन दिल्ली की सड़कें नाप रहा था, यह देखने के लिए की चुनाव की तैयारियों की सरगर्मी कहाँ तक पहुँची. एक जगह मैं एक दीवार की तरफ़ बढ़ रहा था, जहाँ पहले जब भी आता था, तो एक Matrimonial कंपनी का विज्ञापन मोटे मोटे व काले अक्षरों में छपा होता था “योग्य जीवन साथी के लिए, संपर्क करें डी सी अरोड़ा Matrimonials, 28 रेगड़पुरा दिल्ली”.
पर समय के साथ उस के अक्षर काफ़ी फीके भी पड़ चुके थे. उस पर हुआ यह कि उसको मिटाने की कोशिश कर के उस पर भारतीय जनता पार्टी ने अपना चुनावी विज्ञापन मोटे काले अक्षरों में छाप दिया था. पर पुराना विज्ञापन पूरी तरह मिटा कहाँ था! और उस पर चुनाव का विज्ञापन! मैं दीवार के नज़दीक पहुँचते पहुँचते उस पर लिखे को पढने की निरंतर कोशिश करता जा रहा था. ऊपर तो यही लिखा था, योग्य जीवन साथी के लिए...
पर दीवार के एकदम सामने पहुँचा तो हैरान था. पुराना नया विज्ञापन मिल कर कुछ इस तरह पढ़े जा रहे थे:
योग्य जीवन साथी के लिए
नई दिल्ली से
अटल बिहारी वाजपेयी
को चुनें!

बहराहाल, मुझे फ़िर सन 77 के चुनावों की भी एक बात याद आ गई. सन 77 में क्या हुआ था कि इंदिरा गाँधी के विरुद्ध देश में आक्रोश की लहर फ़ैल गई थी, क्यों कि पिछले 19 महीने से देश की सभी प्रमुख विरोधी पार्टियों के नेताओं को इंदिरा सरकार ने गिरफ्तार कर रखा था. सन 75 में देश में आपातकाल की घोषणा होते ही सब विरोधी नेता गिरफ्तार हो गए थे. पर ज्यों ही चुनाव घोषित हुए, और नेताओं को जेलों से निकाला गया तो सभी पार्टियों ने मिल कर एक नई पार्टी बनाई 'जनता पार्टी'. चुनाव में इस पार्टी की तूफानी लहर थी. मैं तब सोनीपत में तैनात था. हर दूसरे तीसरे दिन दिल्ली भाग आता था. चुनावी तैयारियों की रौनक देखने के लिए. एक दिन मैं ट्रेन से सब्ज़ी मंडी स्टेशन उतर कर राजेन्द्र नगर अपने घर जाने के लिए एक मिनी बस में बैठ गया. बस खचाखच भरी थी पर सौभाग्य से सब से पिछली, छह मुसाफिरों वाली सीट से ज्यों ही एक मुसाफिर उठा, मैंने लपक कर उस सीट पर कब्ज़ा कर लिया. काफ़ी सिकुड़ कर बैठना पड़ा. दम घुट सा रहा था. पर राहत पाने को ज्यों ही थोड़ी सी हवा मिली तो मैं अच्छी तरह बैठ कर पास बैठे एक सरदार लड़के जो किशोरावस्था में था, से चुनाव की बातें करने लगा. मैंने कहा - 'कहो भाई, यहाँ दिल्ली में किस का ज़ोर है? लड़का उत्तेजना में शुरू हो गया - 'सत्तों दी सत्तों जनता पार्टी!'

मैं बोला कैसे?
वह उसी उत्तेजना में बोलता गया - 'समझ लो नई दिल्ली से वाजपेयी जित्ते-जिताए! चांदनी चौक से सिकंदर बख्त को कोई हराने वाला पैदा नहीं हुआ. जी, करोल बाग़ की सीट भी अपनी ही समझो. साउथ दिल्ली बाहरी दिल्ली पूर्वी दिल्ली पश्चिमी दिल्ली! सब अपनी ही हैं जी!
मैंने अपनी अक्कलमंदी दिखने की कोशिश की. उसे रोकते हुए कहा - अरे भाई चुनाव है, अभी से क्या भरोसा!

मेरी बात पर उस किशोर का जैसे दिल टूट गया. मुझ से जबरन दूर सरकता और किसी और ही दिशा में देखता हुआ मायूस सा बोला - फ़िर तुसी पुछिया ही क्यों?
मैं सचमुच, चुनाव की लहर में अपनी अक्कलमंदी दिखाने की कोशिश का नतीजा देख रहा था. उस लड़के की मायूसी पर फ़िर वही प्रश्न था - फ़िर तुसी पुछिया ही क्यों...

अब चुनाव 2009 में कोई wave ही नहीं है….. खूब बोरियत होती है ना!

प्रेमचंद सहजवाला

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5 बैठकबाजों का कहना है :

Anonymous का कहना है कि -

चुनाव में वेव या लहर की बात ही अलग अब तो किसी की कोई दिलचस्पी भी नहीं है। 1977 के चुनाव हर ओर एक ही आवाज थी वह थी परिवर्तन। उसकी जड़ में जेपी का आंदोलन था और आपातकाल का विरोध। अब तो चुनाव में कोई मुद्दा ही नहीं रह गया। चुनाव में दिलचस्पी या तो नेताओं की है या उनके रिश्तेदारों या चमचों की या उनकी जिन्हें चंद दिनों के लिए `रोजगार´ मिल जाता है। अधिकांश वोटर तो केवल औपचारिकता ही निभाते हैं। लेकिन हमें अपना मत का प्रयोग अवश्य करना चाहिए। जिस दिन सभी में यह जोश आ गया उस दिन राजनीतिक का स्वरुप ही बदल जाएगा।

अजित गुप्ता का कोना का कहना है कि -

सच बहुत ही बोरियत होती है। सारा उत्‍साह ही एकदम से समाप्‍त हो गया। एक चुनाव में हमारा वोटर लिस्‍ट से नाम गायब हो गया, मन वोट डालने को तड़पने लगा। आसपास के सारे ही पोलिंग बूथ पर जाकर चक्‍कर काट आए कि कहीं भी फर्जी वोट डालने को मिल जाए लेकिन सभी जगह परिचित थे। एक जगह लाइन में भी लग गए लेकिन फिर वहाँ भी वही समस्‍या। लोगों ने कहा कि आप ऐसी भूल मत करना, आपको सभी पहचानते हैं। उस चुनाव में लगा कि जैसे सब सूना सूना हो गया। आज बस एक रश्‍म अदायगी सा है वोट डालना।

Anonymous का कहना है कि -

चुनाव में वेव या लहर की बात ही अलग अब तो किसी की कोई दिलचस्पी भी नहीं है। 1977 के चुनाव हर ओर एक ही आवाज थी वह थी परिवर्तन। उसकी जड़ में जेपी का आंदोलन था और आपातकाल का विरोध। अब तो चुनाव में कोई मुद्दा ही नहीं रह गया। चुनाव में दिलचस्पी या तो नेताओं की है या उनके रिश्तेदारों या चमचों की या उनकी जिन्हें चंद दिनों के लिए `रोजगार´ मिल जाता है। अधिकांश वोटर तो केवल औपचारिकता ही निभाते हैं। लेकिन हमें अपना मत का प्रयोग अवश्य करना चाहिए। जिस दिन सभी में यह जोश आ गया उस दिन राजनीतिक का स्वरुप ही बदल जाएगा।

तपन शर्मा Tapan Sharma का कहना है कि -

लहर न होने से बोरियत तो हो रही है.. :-(
पर सोच रहा हूँ अगला प्रधानमंत्री भारतीय तो नहीं कहलाया जा सकता है... :-)
या तो वो मराठा होगा.. बिहारी होगा.. हिन्दू होगा...या मुसलमान.. या सिख...या ईसाई..या देशी..या विदेशी... या युवा.. या बुजुर्ग... या महिला..या पुरुष..

Divya Narmada का कहना है कि -

नाग सांप बिच्छू खड़े, जनता है मजबूर
जिसे चने वह डसेगा, होकर मद में चूर.

लोकतंत्र तो मर गया, लोभतंत्र है शेष.
सत्ता के प्रेमी लडें, जनता दुखी अशेष.

लहर स्वार्थ की, है अजित, रोक सके तो रोक.
लोकतंत्र की लाश पर, जनता करती शोक.

केवल रस्म अदायगी, है यह आम चुनाव.
मँहगाई नभ छू रही, जन गण सहे अभाव.

खंड-खंड नेता सभी, कोई नहीं अखंड.
जन गण तो यह चाहता, हर दल पाए दंड.

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