Friday, December 03, 2010

आखिर, क्या करें इन बाबाओं का?

*डॉ. रवीन्द्र कुमार पाठक

देश में इस समय बाबाओं की जैसी फ़ौज उमड़ी है, वैसी पहले कभी नहीं थी। ये तिलक-त्रिपुण्डी/दढ़ियल पाखण्डी ‘धर्म’ के नाम पर बाह्याचारों का जाल फेंक कर, परलोक का भय और स्वर्ग का सपना दिखा कर, बेशुमार जनों को निरर्थक कर्मकाण्डों में लगा कर, अन्ततः उन के जीवन को नरक बना डालते हैं। पर, मज़ा यह है कि इन के सम्मोहन में पड़ी जनता को इस का भान तक नहीं होता कि किस तरह हमें नरक में धकेला जा रहा है?

लगातार ‘धर्म’ की माला जपते रहने के बावजूद उस से इन बाबाओं का असल में शायद ही कोई रिश्ता होता होगा। ‘धर्म’ का अर्थ मानवीयता की उस स्थिति से है, जिस में व्यक्ति कुछ विशेष गुणों को धारण करता है, जिस से एक इन्सान दूसरे से प्रेममय जुड़ाव महसूस करता है, आपसी समता में जीता है, दीन-दुखियों की सेवा करता है, आदि-आदि । संस्कृत शब्द ‘धर्म’ के मूल धातु ‘धृ’ का अर्थ धारण करना होता है। इस सन्दर्भ में, उन विशेष गुण-धर्मों को धारण करने की अवस्था है ‘धर्म’,जिन्हों ने किसी वस्तु-विशेष का अस्तित्व बरकरार (धारण कर) रखा है। जिस प्रकार आग का धर्म जलना-जलाना या नदी का धर्म बहना है, उसी प्रकार मनुष्य का धर्म है ‘मनुष्यता’ है, जिस के उपर्युक्त लक्षण कहे जा सकते हैं। नदी में नहाना, तिलक लगाना, पूजा-पाठ करना, प्रार्थना/जप करना, रोजा-नमाज, व्रत, तीर्थयात्रा आदि धर्म नहीं ,बल्कि उस के नाम पर किये जाने वाले बाहरी आचार भर हैं। इन्हें करने से कोई लाभ होता है कि नहीं?—यह बहस का विषय हो सकता है, पर ध्यातव्य है कि इन से अक्सर समय व धन की भारी बर्बादी के साथ कई बार हमारी जान तक चली जाती है। चाहे मक्का में हज़-यात्रियों की भीड़ में हुई भगदड़ हो या नासिक के कुम्भ मेले (२००३) में हुई धक्कामुक्की– ये ‘धर्म’ के नाम पर पोंगापन्थी बाबाओं द्वारा बेशुमार भीड़ जुटा कर जनता को कीड़े-मकोड़ों की मौत देने वाले क्रूर कर्मों के उदाहरण हैं।

ये बाबा जनता को त्याग का पाठ पढ़ाते नहीं थकते, ताकि हर घर खाली हो जाए और उन का मठ-आश्रम, मस्ज़िद या गिरजा चमक जाए। ये खुद हर प्रकार की भौतिक सुख की गंगा में दिन-रात डुबकी लगाते रहते हैं, पर आम जन को उपदेश देते रहते हैं कि भौतिक सुख मिथ्या है। खुद ए.सी.कार या हवाई जहाज में उड़ते हैं, टी.वी.-नेट-मोबाइल से आँख-कान सटाए रहते हैं, पाँचसितारा होटल की समस्त सुविधाओं से युक्त मठों में पूरे राजसी तामझाम के बीच छप्पन भोगों-छतीस व्यंजनों के तर-माल पर हाथ साफ करते हैं। पर, भौतिकवादी माइक से भौतिकवाद को गाली देते, जनता को उपभोक्तावादी जीवन से दूर रखने की ये हर सम्भव कोशिश करते हैं और पवित्र संतोष का पाठ भी पढ़ाते रहते हैं। एक तरफ जहाँ हाड़तोड़ मेहनत कर के भी देश की विशाल जनता भुखमरी की शिकार है, वहीं परिश्रम से दूर,फ़ोकट का माल उड़ाते हर बाबा की काया कैलोरी व खून की अधिकता से भरी रहती है। ये हमें आत्मा की अमरता का पाठ पढ़ाते हैं, पर स्वयं बुलेटप्रूफ़ गाड़ी या सशस्त्र पुलिस-घेरे में ही चलते हैं। लड़के-लड़की के आपस में मिलने-जुलने या प्रेम करने को पाप बताने और उस पर हिंसक फतवे देने वाले इन बाबाओं का असली चेहरा तो तब उजागर होता है,जब इन के मठों/अड्डों पर छापे मार कर उन में से यौन-शोषित बच्चे-बच्चियाँ/स्त्रियाँ मुक्त करायी जाती हैं।

कुछ समय पहले, चित्रकूट के भगवान् भीमानन्द उर्फ शिवमूर्त्ति द्विवेदी द्वारा राजधानी समेत देश के कई भागों में चलाये जा रहे धन्धे का जब पुलिस ने पर्दाफ़ाश किया, तब भी क्या हमारी आँखें खुलीं? इसी तरह, दक्षिण के एक शंकराचार्य पर यौन-शोषण और हत्या का मुकद्दमा चल ही रहा है। बाबावाद का विस्तार महिलाओं को भी अपने आगोश में ले चुका है। एक प्रमुख महिला बाबा साध्वी प्रज्ञा ठाकुर का किस्सा यह है कि उन्हें इस बात का मलाल रहा कि उन के बिछवाये प्राणघाती बम से इतने कम मुसलमान क्यों मरे? केरल के ६३ ईसाई धर्मगुरुओं पर आपराधिक मुकद्दमे दर्ज हैं। वहीं करोड़ों के आराध्य आसाराम बापू के आश्रम में होने वाली काली करतूतें अब उजागर होने लगी हैं। पर, बाबाओं के विराट् सरकस का यह तो एक नमूना मात्र है। कुल मिला कर कहा जा सकता है कि ये बाबा ‘धर्म’ के मूल तत्त्व से उतनी ही दूर होते हैं, जितनी दूर सूरज से अन्धेरा होता है। ‘धर्म’ इनके लिए एक करियर या प्रोफेशन की तरह होता है, कभी-कभी राजनैतिक करियर की तरह भी ; पर उस में भी वे प्रोफेशनल ईमानदारी का परिचय नहीं देते; बल्कि क्षुद्र लाभों/स्वार्थों के लिए कोई भी गुनाह करने को हर क्षण तैयार रहते हैं। इस लाइन में भी लम्बी प्रतिद्वन्द्विता है, जिस में एक बाबा दूसरे का गला काटने तक को उतारू हो जाता है। याद कीजिए, आई.एस.जौहर की ‘नास्तिक’ फ़िल्म, जिस में ठीक दूकान की तरह एक-दूसरे (को नीचा दिखाते) के अगल-बगल में साधुओं द्वारा आश्रम खोले जा रहे थे।

बाबा चाहे हिन्दू हों या मुस्लिम, सिक्ख हों या ईसाई, पुरुष हों या नारी– सब के सब प्रवचनों का अन्धविश्वासमय जाल फेंक कर जनता के मन को आधुनिक युग से हटा कर, वेद-पुराण, कुरान, बाइबिल आदि के ज़माने में ले जाने की कोशिश करते रहते हैं। हमें विवेक व वैज्ञानिक सोच से काटते हुए, तन्त्र-मन्त्र, मुहूर्त्त, हस्तरेखा, ज्योतिष, भूत-प्रेत-जिन्न-चुड़ैल आदि की मायावी दुनिया में भटकाते-भरमाते रहते हैं। टी.वी.जैसे प्रबल जनसंचार-माध्यम (जो जन-शिक्षा/जन-जागरुकता का व्यापक औजार हो सकता था) के कई चैनलों पर इन बाबाओं ने अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कर रखी है, जिस के जरिये अपने सारे उक्त कर्म ये सहजता से सम्पादित करते हैं । वहीं कुण्डली मार कर बैठे, ये स्वयं या अपने दलालों द्वारा, ‘गाँठ के पूरे’ प्रायः शहरी जनों (जो अक्सर ‘आँख के अन्धे’ भी होते हैं) को लक्ष्य कर गण्डा-ताबीज, नज़र-सुरक्षा-कवच, कुबेर-यन्त्र, हनुमान्-यन्त्र, शनि-यन्त्र आदि के विज्ञापन करते हैं और हर विज्ञापन को अधिक पैसा-बटोरू बनाने के लिए उस में विज्ञान का छौंक भी लगाते हैं। सब से ज़्यादा तो गुस्सा और साथ ही तरस आती है इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कर्त्ता-धर्त्ताओं पर, जो अपनी तमाम आधुनिक शिक्षा को ताक पर रख कर, स्टूडियो में किसी बाबा को विशेषज्ञ की हैसियत से बुला कर बैठाते हैं और बड़े विश्वास/श्रद्धा से राशिफल या किसी वास्तविक घटना के ज्योतिषीय-तान्त्रिक व्याख्या के बारे में पूछते हैं। (इस प्रसंग में स्मरणीय है, राजेन्द्र अवस्थी के सम्पादकत्व में हिन्दी-पत्रिका ‘कादम्बिनी’ की बेशर्म भूमिका। तब वह, अपने ‘भूत-प्रेत-तन्त्र-मन्त्र’ विशेषांकों के जरिये अन्धविश्वास फैलाने और पाखण्डियों की दलाली करने का खुला मंच बन कर रह गयी थी।) तब, क्या आम जन को यह पता चल पाता है कि वे खुद मूर्ख बनने से ज़्यादा हमें मूर्ख बना रहे हैं? मामला चैनल के टी.आर.पी. और उन के अपने पत्रकारीय करियर का होता है। सब पूँजी का खेल है,जिसे मज़े से खेल रहे होते हैं हमारे बाबा। इस पर हमें गम्भीरता से विचार करना चाहिए कि आखिर क्या कारण है कि कुछ ही सालों में गुजरात से देखते-देखते इतने बाबा पैदा हो गये? या, जहाँ भी पूँजी का केन्द्रीकरण ज़्यादा हुआ, वहीं बड़ी संख्या में बाबा-तत्त्व क्यों पैदा हो जाते हैं?

ये बाबा हैं, जो हमारी चेतना की आँखों पर मोतियाबिन्द की तरह छाए रहते हैं, राममन्दिर- बाबरी मस्ज़िद-डेरा सच्चा सौदा आदि के नाम पर जनता को धर्म का अफ़ीम पिला कर, आपस में क्रूरता से लड़वाते हैं और समाज-देश की शान्ति भंग कराते हैं। इन के द्वारा प्रचारित मान्यताओं में कई तो घोर जातिवादी और खासकर स्त्री-विरोधी होती हैं। जैसे- ‘पुत्र’ की महिमा गा-गा कर ये हमारे अवचेतन में कन्या-विरोधी मानसिकता मजबूत करते हैं। बाबाआदम-युगीन कथाओं द्वारा ये स्त्री को अशिक्षित व घरेलू बनाए रखने और पति के आगे उस के दब कर रहने और तमाम ज़ुल्म सहते रहने(घरेलू हिंसा) का महिमामण्डन करते हैं। कुछ नहीं, तो स्त्री के पहनावों पर इन की निगाह जरूर रहेगी और कुछ-न-कुछ नसीहत भी जरूर ये देंगे, तब भी बड़े अचरज की बात है कि हमारी दृष्टि में ये अध्यात्म के पुरोधा ही बने रहते हैं। जिन का ध्यान औरत के कपड़ों/देह से ऊपर नहीं उठ सका, जो उसे इन्सान न मान सके, वे खाक आध्यात्मिक होंगे! इन के द्वारा प्रचारित-प्रसारित मूल्य ब्राह्मणवादी भी होते हैं, चाहे पुनर्जन्म व जन्मगत श्रेष्ठता का उन का दर्शन हो (जिस के जरिये वर्तमान ठोस सामाजिक-आर्थिक विषमता/अन्याय को भी चुटकियों में जस्टिफ़ाई कर डालते हैं) या वर्ग/जाति/ज़ेण्डर-गत स्तरीकरणों को बनाए रखने की इन की सोच हो। ये शायद यही चाहते हैं कि जनता इन के चंगुल से कभी न छूटे– वह भेड़-बकरी की तरह इन के बाड़े में अशिक्षित-मूढ़, तंगहाल और हर तरह से लाचार इन पर निर्भर हो कर पड़ी रहे; इन की ‘जय’ बोलती, चारागाह बनी रहे– बाबा के ऐशो-आराम की पालकी को कन्धा देती रहे, बस! अपने भोग-विलास की दुनिया में कोई खलल पड़ते ही या अपने प्रभाव-क्षेत्र में दूसरे बाबा की दखलन्दाजी होते ही, ये अपने प्रतिद्वन्द्वी का खून तक करने/कराने से नहीं चूकते। सब मिला कर ये लोकतान्त्रिक व्यवस्था के सख्त विरोधी होते हैं, पर विसंगति देखिये कि एक-देढ़ दशक पूर्व बड़ी संख्या में ये दण्ड-कमण्डल धर कर संसद तक में जा पहुँचे हैं। परोक्ष रूप से राजनीति में तो ये बराबर ही सक्रिय रहे हैं, पर यह प्रत्यक्ष-राजनीति की कथा है। इन्हों ने ‘भारत का संविधान’ शायद ही पढ़ा हो ( क्योंकि ‘मनुस्मृति’ या ‘शरीयत’ के आगे ये संविधान की कोई हैसियत नहीं समझते होंगे ), पर अपनी (अ)धर्म-संसदों के जरिये नर-नारी के व्यवहार, औरत की पोशाक आदि ही नहीं, बल्कि देश की विदेश-नीति तक तय करने का दुस्साहस ये करते रहते हैं। इन के मठ/आश्रम अवैध कमाई और कई तरह के पापाचारों के साथ, शराब व हथियार के भी अड्डे होते हैं, जिन्हें ईश्वर/धर्म के सुनहरे लेबल से ढँके रहते हैं। इन्हें बचाने का कार्य एक तरफ जनता की अन्ध आस्था करती है, तो दूसरी तरफ इन के चेलों के रूप में मौजूद थोक वोट-बैंक के खिसकने से डर कर हमारे असली राजनेता भी इन के खिलाफ किसी कार्रवाई से अक्सर डरते हैं। (आप को याद होगा कि जामा मस्ज़िद के इमाम बुखारी पर कितनी बार आरोप लगे, पर किसी की हिम्मत हुई उन्हें छूने की भी?) वे क्या खा कर करेंगे कार्रवाई? वे तो उल्टे इन्हीं के चेले बने फिरते हैं। (वोट-बटोरू प्रवृत्ति के तहत?)। ( भला हो (स्व.) राजेश पायलट का, जिन्हों ने कुछ समय के लिए चन्द्रास्वामी को जेल की हवा खिला दी थी)।

अब, अहम सवाल यह है कि मानवता के नाम पर कलंक, लोक-विरोधी इन बाबाओं पर लगाम कैसे लगायी जाए?
बहुत विचार करने पर यह समझ में आता है कि इन की कुत्सित ताकत का मूल स्रोत है इन के पास इकट्ठा हुआ अथाह काला धन तथा जनता में इन के प्रति मौजूद प्रचण्ड अन्धास्था है। बिना इन का मूलोच्छेदन किए ये अपराधी ठिकाने नहीं लगाये जा सकेंगे। सब से पहले इन के मठ/आश्रम को कानूनी दायरे में लाया जाए। समय-समय पर उन की सरकारी जाँच हो। इन की आमदनी के स्रोतों पर कड़ी निगाह रखी जाए तथा इन की आय को टैक्स के दायरे में लाया जाए। इन की काली कमाई पर रोक लगाने का पुख्ता इन्तजाम होना चाहिए। इस के साथ, जनता को इन की करतूतों के प्रति जागरुक करते रहने की जिम्मेदारी स्वीकार कर मीडिया को भी अपना भटकाव रोकना होगा। ऐसा कर पाने में नाकामयाब होने अथवा किसी प्रकार के पाखण्ड का प्रचार करने पर किसी चैनल या पत्र-पत्रिका के संचालक/सम्पादक पर कठोर दण्ड का प्रावधान लागू किया जाना चाहिए। बाबाओं के संविधान/लोकतन्त्र या मानवीय समता के विरोधी प्रवचनों और कार्यों के उजागर होते ही इन पर ‘भारतीय दण्ड-विधान-संहिता’ कड़ाई से लागू होनी चाहिए। साथ ही, राजनीति को बाबाकरण से बचाने के लिए भी ‘निर्वाचन-आयोग’ को मुस्तैद रहना होगा। इस तरह के ढोंगी-पाखण्डी पैदा ही न हों, इस के लिए समाज में शिक्षा द्वारा वैज्ञानिक दृष्टि व इहलौकिक(सेक्यूलर) चेतना की रचना का पुख्ता इन्तजाम भी होना चाहिए। इस के साथ,आम जन का भी कर्त्तव्य है कि इन के पकड़े जाने पर वह भड़के नहीं,बल्कि ऐसे दुष्टों को पकड़वा कर सजा दिलवाने में सरकार की मदद करे । हमें सोचना होगा कि ऐसे क्रूर कर्म वाले,हर तरह के अन्धकार के दूत,इन नराधमों-बाबाओं के प्रति यदि किसी तरह की आस्था रखते हैं, तो जनता को अशिक्षित, भाग्यवादी, फटेहाल और साम्प्रदायिक उन्माद से ग्रस्त रखने के इन के नंगे नाच में साथ दे कर समाज को पीछे धकेलने के हम भी कम अपराधी नहीं हैं ।
०००००००

(लेखक जी.एल.ए.कॉलेज, मेदिनीनगर/डाल्टनगंज, पलामू, झारखण्ड में व्याख्याता हैं। उनसे उनके ईमेल-पते rkpathakaubr@gmail.com और मोबाइल- 09801091682 पर संपर्क किया जा सकता है)

Thursday, December 02, 2010

फेसबुक या फिर...फसबुक ( Fuss Book )?

- शन्नो अग्रवाल

हे भगवान ! फेसबुक पर झंझटों का जमघट..अब ये सब कुछ कहते भी नहीं बनता और सहते भी नहीं बनता.
जो कुछ मैं कहने जा रही हूँ फेसबुक के बारे में वो सभी फेसबुकियों के बारे में सही है या नहीं ये तो नहीं कह सकती पर कुछ फेसबुकियों को जरूर हजम नहीं हो रही हैं ये बातें. और इतना तो क्लियर है ही कि चाहें हर कोई मुँह से ना बताये कि कितना पेन होता है उन्हें ( इन्क्लूडिंग मी ) कुछ लोगों की टैक्टिक से कि अब फेसबुक एक फसबुक यानि झंझट, या कहो कि सरदर्द लगने लगा है. फेसबुक पर भ्रष्टाचार उपज रहा है...कहानियाँ सुनी जा रही हैं..घटनायें होती रहती हैं जिनका उपाय समझ में नहीं आता...ना ही निगलना हो पाता है ना ही उगलना...यानि उन बातों के बारे में साफ-साफ कहने में तकलीफ होती है सबको और पचाने में भी तकलीफ...ये सब फेसबुक देवता की मेहरबानी है...दिमाग में बड़ी उथल पुथल मचती है..कुछ फेसबुकियों को बहुत सरदर्द हो रहा है जो इसमें काफी फँस चुके हैं...अब कश्ती मँझदार में फंसी है और किनारा मिल नहीं रहा है...

फेसबुक पर आना शुरू-शुरू में तो बड़ा ट्रेंडी और खुशगवार लगता है..लेकिन नये-नये होने पर नर्वसनेस भी जरूर होती है..फिर हर इंसान धीरे-धीरे उसमे रमकर जम जाता है. और फिर जैसे-जैसे इसमें धंसते जाओ..मतलब ये कि लोगों से और उनकी रचनाओं से मुलाक़ात करते जाओ तो अक्सर क्या अधिकतर ही बहुत बोझ बढ़ जाता है जिससे एक तरह का प्रेशर भी जिंदगी पे पड़ने लगता है..कुछ लोग फ्रेंड बनते ही पेज पर आकर सबके साथ नहीं बल्कि केवल इनबाक्स में ही अलग-अलग आकर वही एक से पर्सनल लाइफ के बारे में सवाल पूछते हैं और समझाने पर बुरा मान जाते हैं..इनबाक्स में कभी-कभार जरूरत पड़ने पर ही बाते होती हैं..ये नहीं कि किसी को साँस लेने की फुर्सत ना दो..सवाल के बाद सवाल करते हैं व्यक्तिगत जीवन के बारे में उसी समय तुरंत ही मित्र बनने के बाद. कितनी अजीब सी बात है कि पेज पर आकर खुलकर सबके सामने बात नहीं करते..और दूसरी टाइप के वो हैं जो बहुत सारी वाल फोटो लगाकर दुखी करते रहते हैं..पहले बड़ा मजा आता था किन्तु अब उन वाल फोटो की संख्या बढ़ती जाती है..और अगर धोखे से भी ( या कभी-कभी जानबूझ कर भी अपनी सुविधा के लिये ) डिलीट हो जाती हैं तो फिर दुविधा में फँस जाने के चांसेज रहते हैं..वो टैगिंग करने वाला इंसान अपने तीसरे नेत्र से पूरा हाल लेता रहता है..और पूछने की हिम्मत भी रखता है कि...'' क्या आपने हमें अपनी फ्रेंड लिस्ट से निकाल दिया है '' या '' क्या आप मुझसे नाराज हैं '' या फिर अपने स्टेटस में कोई सज्जन लिखते हैं कि '' अगर कोई मेरी रचनाओं पर टैगिंग नहीं चाहता तो साफ-साफ क्यों नहीं बताता मुझे ताकि आगे से उनको टैग ना करें हम '' अब आप ये बताइये कि समझदार के लिये इशारा वाली कहावत का फिर क्या मतलब रह गया...अरे भाई, कभी तो हिंट भी लेना चाहिये ना, कि नहीं ? और साथ में धकाधक भजन के वीडियो भी एक इंसान की वाल पर आ रहे हैं कई-कई लोगों के एक ही दिन में और साथ में उन्हीं की दो-दो रचनायें भी..और बाकी अन्य लोग भी टैग कर रहे हैं तो पढ़ने वाले का दिमाग पगला जाता है सोचकर कि इतना समय कहाँ से लाये सबको खुश करने को..कुछ और अपने भी तो पर्सनल काम होते हैं आखिरकार. एक रचना कुछ दिन तो चलने दें ताकि आराम से सभी की रचनाओं को पढ़ा जा सके और अपना भी काम किया जा सके. पर इस अन्याय / अत्याचार के बारे में कैसे समझाया जाये किसी को. हर किसी को अपनी पड़ी है यहाँ...चाहें किसी के पास टाइम हो या न हो. और ऊपर से मजेदार बात ये कि वो इंसान तुरंत कमेन्ट लेना चाहता है. कुछ लोग तो लगान वसूल करने जैसा हिसाब रखते हैं कि एक भी इंसान छूट ना जाये कमेन्ट देने से. उस बेचारे की मजबूरियों का ध्यान नहीं रखा जाता...शेक्सपिअर के ' मर्चेंट आफ वेनिस ' जैसे उन्हें भी बदले में फ्लेश जैसी चीज चाहिये अगर जल्दी कमेन्ट ना दे पाओ तो पूछताछ चालू कर देते हैं...बस अपने से ही मतलब. और कुछ लोग बड़े-बड़े आलेख लगाते हैं और वो भी एक दिन में दो-दो जैसे कि लोगों को केवल उनका ही लेख पढ़ना है...ये नहीं सोचते कि अन्य लोगों ने भी किसी को अपनी रचनाओं में टैग कर रखा है...एक आफिस के काम से भी ज्यादा समय लग जाता है अब फेसबुक पर. मेल बाक्स के कमेन्ट पढ़ने, लिखने और मिटाने में ही कितना टाइम लग जाता है. खैर...

कुछ लोग कितने स्मार्ट होते हैं कमेन्ट लेने के बारे में इस पर जरा देखिये:

फ्रेंड: नमस्ते शन्नो जी, मुझसे कुछ नाराज हैं क्या ? मैं अपनी खता समझ नहीं पा रहा हूँ...

मैं: अरे आप ये कैसी बातें कर रहे हैं..मैं भला आपसे क्यों नाराज़ होने लगी. इधर काफी दिनों से मुझे समय अधिक नहीं मिल पाता है फेसबुक पर एक्टिव होने के लिये...इसीलिए शायद आपको ऐसा लगा होगा. मैं किसी से भी नाराज नहीं हूँ..बस समय और थकान से मात खा जाती हूँ. इसी वजह से कुछ अधिक लिख भी नहीं पाती हूँ इन दिनों.

फ्रेंड: मेरे कई फोटोग्राफ से बिना कोई प्रतिक्रिया के आपने अपने आप को अनटैग कर लिया. तभी मुझे ऐसा महसूस हुआ था.

मैं: जी, टैगिंग तो इसलिये हटानी पड़ी कि वहाँ पर कमेन्ट बाक्स नही सूझता था मुझे...शायद कोई फाल्ट होने से. और बहुत लोग अब वाल पिक्चर ही लगाते हैं तो बहुत इकट्ठी हो गयी थीं इसलिये एक फ्रेंड ने सलाह दी तो कुछ को छोड़कर बहुत सी हटानी पड़ीं.

( ये अपनी टैगिंग का ध्यान रखते हुये हर किसी से कमेन्ट ऐसे वसूल करते हैं जैसे कि कर वसूली कर रहे हों..किसी को भी छोड़ना नहीं चाहते खासतौर से उन लोगों को जो उनसे शिकायत करने में कमजोर हैं..या झिझकते हैं )

मैं: जब मैं आपको अपनी रचनाओं में टैग करती थी..तो आप कमेन्ट नहीं देते थे तो फिर मैंने आपको टैग करना बंद कर दिया...किन्तु कभी शिकायत करने की हिम्मत नहीं कर पायी फेसबुक पर किसी दोस्त से कि कोई बुरा न मान जाये इसलिये.

( इतना कहते ही मुझे लगा कि वो मेरी जुर्रत से खिसिया गये )

फ्रेंड: क्षमा कीजियेगा मेरे इन्टरनेट अकाउंट की लिमिट प्रतिमाह १ जी बी तक ही है और वह आमतौर पर महीने की २३-से २४ तारीख तक पूरी हो जाती है इसी लिए कमेन्ट कम कर पाता हूँ. यदि आपको कमेन्ट बॉक्स ना मिले तो मेरी फोटो के ऊपर मेरी Profile को क्लिक करियेगा जिससे मेरा पेज खुल जायेगा फिर पेज के साइड में ऊपर की ओर बने हुए "Like" बटन को क्लिक कर दीजियेगा तब कमेन्ट बॉक्स दिखने लगेगा.

मैं: हर किसी की अपनी मजबूरियाँ होती हैं...मैं समझती हूँ..औरतों को तो घर के भी काम करने पड़ते हैं..मैं तो कई बार सारे दिन के बाद फेसबुक पर आ पाती हूँ तो सबकी रचनाओं पर लोगों के कमेन्ट से मेलबाक्स भरा होता है और निपटाते हुये घंटों लग जाते हैं..बड़े-बड़े लेख पढ़ने का तो समय ही नहीं मिलता...इसलिये बहुत कुछ छूट जाता है. जब मैं टैगिंग करती हूँ तो बहुत से लोग जबाब नहीं देते तो मैं समझ जाती हूँ कि उनकी भी कुछ मजबूरियाँ होंगी. और कुछ लोग अपनी रचनायें एक के बाद एक लगाते हैं और तब मुश्किल हो जाती है एक ही दिन में कमेन्ट देने में..वो बस अपनी ही रचनाओं के कमेन्ट पर ध्यान देते हैं....फिर मेरी रचनाओं पर कमेन्ट के समय गायब हो जाते हैं..इस तरह के कई लोग हैं...

( अब उन्हें लगने लगा कि मेरे भी मुँह में जबान है तो...)

फ्रेंड: बिलकुल सही कहा आपने .......सबकी अपनी मजबूरियाँ....... आपका बहुत-बहुत धन्यवाद ......शुभ रात्रि.

मैं: देखिये, मैंने आपको अपनी तरफ से हर बात शत-प्रतिशत ईमानदारी से सही-सही बताई हैं...पर आप बुरा ना मानियेगा...नो हार्ड फीलिंग्स..ओ के ?...शुभ रात्रि !

Wednesday, December 01, 2010

एक सपना

कल ही मुझे एक सपना आया। बड़ा विचित्र सपना कि विश्व हिन्दू परिषद ने राम-मन्दिर पर उच्च-न्यायालय का फैसला इसलिये खारिज कर दिया कि यह आस्था का मामला है और आस्था के मामले में न्यायालय को फ़ैसला सुनाने का कोई अधिकार नहीं है।
तब एक वामपंथी-सेक्युलरवादी नेता आये और वे अपना पुराना बयान दोहरा कर कह रहे थे कि जेरूसलम में व ब्रिटीश शासन में वर्तमान- पाकिस्तान के गुरूद्वारों पर न्यायालय ने आस्था के मामले में फैसले दिये थे तो भारतीय न्यायालय फैसला क्यों नहीं सुना सकती । उन्हे उच्च-न्यायालय का फैसला पूरी तरह से मान्य है; बल्कि इसी न्यायालय के फैसले के आधार पर वे राम के ईश्वररूप को और राम की जन्मभूमी अयोध्या होने की बात को स्वीकार करते हैं। उन्होने यह भी कहा कि वे शास्त्र-पुराण की बात तो नहीं मानते पर पुरातत्व-विभाग की खुदाई के आधार पर परीक्षण द्वारा सत्य को प्रतिपादित करते है। कोई उन्हें कान में बाबरी मस्जिद के नीचे खुदाई में कुछ भी न मिलने की बात कह गया था और जैन-मन्दिर की तरफ बात को मोड़ देने की सलाह दे गया था पर अब जब अदालत ने स्पष्टरूप से हिन्दू-मन्दिर होने की बात कही है तो वे अपने इतिहास के ज्ञान पर भी फिर से विश्लेषण करने के लिये राजी हो गये हैं।
सपना तो सपना ही है! नरेन्द मोदी अपनी दाढ़ी खुजलाते हुये कह रहे थे कि जब वे मुसलमान भाइयों से बातचीत और समझौते की बात करते हैं तो उनका अर्थ वक्फ़-बोर्ड को दी गई एक तिहाई ज़मीन वापस लेना नहीं है; वे तो राम-मन्दिर को मिले हिस्से में से मस्ज़िद को कुछ भाग दे कर भी शांति और भाईचारा बनाये रखने की बात कर रहे है।
वक्फ़-बोर्ड ने कहा है कि पहली बार पता चला कि यह मस्जिद मन्दिर के अवशेष पर बनी है अत: वे तीन में से एक न्यायाधिश की बात का अनुमोदन करते हैं कि यह वास्तव में मस्जिद है ही नहीं । उन्होने एक तिहाई भाग राम-मन्दिर के लिये सहर्ष दे देने का प्रस्ताव रखा इस पर उच्च न्यायालय के जजों ने कहा हमसे गलती हो गई कि राम-लला की मूर्ति चोरी से रखी जाने की बात मानते हुये भी हमने उसी जगह पर राम-मन्दिर बनाने की इज़ाजत दे दी।

एक मार्क्सवादी इतिहासकार ने कहा कि जब उन्हें पता चला था कि मस्ज़िद के नीचे मन्दिर के अवशेष मिल रहे हैं तो मैंने बिना देखे और बिना सोंचे समझे आरोप लगा दिया कि ये साक्ष्य भगवा-ग्रुप वालों ने गुंडागर्दी करके रख दिये हैं । क्या करता ! मेरे इतिहास-ज्ञान की नीव ढहती जा रही थी ! मैं तो औरंगजेब को सेक्यूलर और शिवाजी को साम्प्रदायिक सिद्ध करने पर तुला हुआ हूँ और इस विषय पर Ph. D. भी प्राप्त कर चुका हूँ । सभी तथ्य मेरे ज्ञान के सांचे में ढलने चाहियें । तथ्यों के कारण मैं अपने ज्ञान की कुर्बानी नहीं दे सकता।
तब आये करुणानिधि ! अरे सपना तो अजीब होने लगा ! कहने लगे क्या करूं यह झगड़ा मेरे क्षेत्र का नहीं है पर आश्चर्य है फैसला सुन कर हिन्दु-मुसलमान आपस में झगड़ते नहीं, दंगा-फ़साद भी नहीं करते ऐसा क्यों? इसलिये मैं मेरा वही पुराना आर्य और द्रविण सभ्यता का झगड़ा उठाता हूँ। अरे! बिना इस प्रकार के झगड़ों के पोलिटिक्स भारत में चल सकती है क्या?
मैं सुन कर दंग रह गया । क्या करता? सपने पर मेरा कुछ बस नहीं था। कुछ भी हो सकता था ! पता नहीं उस समय बाबर ने क्यों कब्र से अंगड़ाई ले कर मीर बाँकी को गालियाँ सुनाई “उल्लू के पठ्ठे ! तुझे मस्ज़िद ही बनानी थी तो मेरे नाम पर क्यों बनाई? क्या इसलिये मैने तुझे इतने हक दिये थे कि तू मेरा ही नाम बदनाम करे? देख तेरी हरकत के कारण मैं गुनाह के बोझ से दबा जा रहा हूँ।“ इस पर राजीव गांधी ने उन्हे ढाढस बंधाई और बोले कि गलती मेरी है मैने मुस्लिम-तुष्टिकरण के तुरत बाद हिन्दू-तुष्टिकरण की नीति अपना कर मन्दिर के द्वार खोल दिये और इस तरह सोये भूत को जगा दिया। इस पर दिवंगत और जीवित एक साथ देखने की बारी आई। उनका पुत्र राहुल गांधी बोल पड़ा “पापा, यह तो राजनीति है। इसमें सब चलता है। मैंने भी आर.एस. एस. और सीमी को समद्रष्टि से देखकर बोलना शुरू कर दिया है”
तभी क्या देखता हूँ साक्षात भगवान राम प्रकट हुये। उन्होंने आंखों से आंसू बहाते हुये कहा कि यदि मुझे मालुम होता कि मेरे जन्मस्थल को लेकर इतना विवाद होने वाला है तो मैं जन्म ही न लेता। तो न सीता मेरे साथ वनप्रस्थान करती और न ही सीताहरण होता; कम से कम रावण मुफ़्त में न मारा जाता। इस पर सभी छुटभइये नेता शर्म से पानी पानी हो गये। आ आकर क्षमा मांगने लगे कि माफ़ करो हमने जनता की भावनाओं को भड़का कर राजनीति की रोटी सैंकी है। इसके बाद तो काफी धर्मान्ध समझे जाने वाले लोग भी इकठ्ठे हो गये। वे कह रह थे कि नहीं चाहिये हमें मन्दिर या मस्ज़िद ! क्यों नहीं वहाँ कोई अस्पताल या पुस्तकालय खोल देते ! यह सब हम इसलिये कह रहे हैं कि अब खुल गई हैं हमारी आँखे ! पर इसके साथ ही मेरी आँखे भी खुल गई।
************

-हरिहर झा

Tuesday, November 30, 2010

बिहार में भाजपा-जद(यू) गठबन्धन का चमत्मकार

डॉ. मनोज मिश्र

बिहार विधान सभा चुनाव के परिणाम अप्रत्याशित नहीं बल्कि अपरिहार्य थे। लगभग 15 वर्षों तक लालू राबड़ी एण्ड कम्पनी की गिरफ्त में रहा बिहार विकास सुशासन तथा सुरक्षा के लिये छटपटाता रहा परन्तु जातियों के स्वाभिमान का नारा देकर लालू राबड़ी एण्ड कम्पनी अपना राजनैतिक सर्कस चलाते रहे। जे. पी. आन्दोलन से निकले तीन नेताओं लालू यादव, नितीश कुमार तथा सुशील मोदी में से लालू ने पिछड़ों में मण्डल कमीशन की आड़ लेकर एक सपना जगाया। जनता सपने की हकीकत का 15 वर्षों तक इंतजार करती रही और लालू की बातों पर भी। लालू राज के इन 15 वर्षों में बिहार में भाई-भतीजावाद खूब पनपा, जातिवाद ने हर गम्भीर मुद्दे को निगल लिया, बाहुबलियों की सर्वोच्च सत्ता स्थापित हुई तथा भ्रष्टाचार के आरोप में जातीय स्वाभिमान के सपनों का सौदागर चारा घोटाले में जेल गया। शुचिता की राजनीति को तिलांजलि देकर अपनी पत्नी को अन्य योग्य उम्मीदवारों के होते हुये भी मुख्यमंत्री बनाया तथा लोकतांत्रिक व्यवस्था को पारिवारिक तथा राजतांत्रिक व्यवस्था का बन्धक बनने को मजबूर किया। परिणामस्वरूप बिहार और बिहारी सारे देश में मजाक के पात्र बन गये। विकास के मामले में यह प्रदेश देश में सबसे निचले पायदान पर खड़ा हो गया। बिहार और विकास में छत्तीस का ऑकड़ा बन गया तथा प्रतिभावओं का पलायन एक परम्परा बना महिलाओं की अस्मत लालू राज में सुरक्षित नहीं थी, उद्योग विहीन बिहार में अपहरण को उद्योग का दर्जा मिला। इस प्रकार बिहार जे.पी. आन्दोलन से निकले एक नेता के वैचारिक, राजनैतिक एवं चारित्रिक पतन का गवाह बना।

जिस समय बिहार छटपटा रहा था उसी समय भाजपा-जद(यू) गठबन्धन प्रदेश में गम्भीर विकल्प की तैयारी कर रहे थे। बिहार तथा यहॉ के नागरिक जिस विकास के लिये छटपटा रहे थे उसी का एक मॉडल पिछले 5 वर्षों में भाजपा-जद(यू) ने जनता के समक्ष प्रस्तुत किया। पहली बार सन् 2005 में जद (यू) 88 तथा भाजपा को 55 सीटें सौंपकर यह देखा कि देखें यह दल अपनी कहीं हुई बातों पर कहॉ तक खरे उतरते हैं। नितीश-सुशील मोदी की जोड़ी ने अपने शासन काल में प्रदेश का कायाकल्प कर दिया। प्रदेश में जितने पुल और सड़के पिछले 30 वर्षां में बने उससे ज्यादा सड़के और पुल बनवाये। प्रदेश को बाहुबलियों की गिरफ्त से मुक्त कराया, महिलाओं को सुरक्षा का अहसास कराया तथा वास्तव में सुशासन का राज कायम किया। सबसे बड़ा अन्तर जिस पर लोगों की नजर नहीं गई वह थी नितीश-सुशील मोदी की गम्भीरता एवं सादगी। लालू की जोकर की छवि के उलट इन दोनों नेताओं ने जिम्मेदारीपूर्वक सरकार को चलाया तथा जनता को विश्वास दिलाया कि विकास अब बिहार की हकीकत बन रहा है। इसके परिणाम स्वरूप प्रदेश की वृद्धि दर 11.03 प्रतिशत पहुँची जो गुजरात की वृद्धि दर से मात्र 00.02 प्रतिशत ही कम थी। अपहरण का ग्राफ गिरा, बाहुबलियों ने मैदान छोड़ दिया, भाई भतीजावाद समाप्त हुआ तथा लोगों का सुशासन पर विश्वास जगा।

भाजपा-जद(यू) सरकार की सफलता से देश के समक्ष राजनीति का सकारात्मक पक्ष उभरकर आया जिसकी भारत को आजादी के बाद से आवश्यकता थी। अब चुनाव परिणाम में सुशासन का ईनाम प्रदेश के सत्तारूढ़ दलों को मिलने लगा है तथा कुशासन का दण्ड भी भुगतना पड़ता है। सन् 2004 में भाजपा नीत राजग गठबन्धन बहुत अच्छा काम करने के बाद भी पुनः सत्ता में नहीं आ सका तो लोगों को लगा कि भारत में विकास पर वोट अभी दूर की कौड़ी है। उसके बाद समय ने करवट बदली तथा राज्यों में भाजपा की ज्यादातर सरकारें अच्छे काम के बल पर छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, गुजरात तथा बिहार में पुनः सत्ता में आई। अतः अब चुटीलें नारों, शोशेबाजी, चालबाजी, जातिवादी, सम्प्रदायवादी तथा परिवारवादी राजनीति के दिन लद गये। अब दलों को सकारात्मक राजनीति तथा भारत निष्ट नीति के सहारे ही सत्ता हासिल हो सकेगी।

बिहार चुनाव के परिणाम ऑकड़ों की निगाह से देखें तो हम पायेंगे कि भाजपा की विजय दर सर्वाधिक 89.27 प्रतिशत रहीं, उसके 1.2 उम्मीदवारों में से 91 विजयी रहे। जद(यू) के 141 उम्मीदवारों में से 115 ने जीत हासिल की तथा अच्छी विजय दर 81.50 प्रतिशत के ऑकड़ें को छुआ। राजद, लोजपा गठबन्धन की मिट्टी पलीद हो गई और कांग्रेस के लड़ाये गये 243 उम्मीदवारों में से मात्र 4 ने विजय दर्ज की जबकि पिछली विधान सभा में कांग्रेस के 9 विधायक थे। इस चुनाव में कांग्रेस की यह सबसे खस्ता हालात रहीं और वह मुँह दिखाने लायक मत प्रतिशत भी नहीं जुटा सकी। एक सबसे बड़ा भ्रम राहुल गाँधी का था जो टूट कर चकनाचूर हो गया तथा भविष्य में उत्तर प्रदेश में तथाकथित राहुल बबंडर की हवा निकल गई। राहुल 22 विधानसभा क्षेत्रों में प्रचार करने गये जिसमें मात्र 1 सीट कांग्रेस की झोली में आई तथा लगभग सभी स्थानों में उसके प्रत्याशी तीसरे, चौथे और अन्तिम पायदान पर रहे। राहुल गाँधी की हवाई तथा दिखावे की राजनीति जब सबसे पिछड़े कहे जाने वाले प्रदेश में नहीं चली तो उत्तर प्रदेश की धरातल में उन्हें कौन पूछेगा। रामबिलास पासवान की लोजपा, सपा और बसपा का हाल इतना खराब रहा कि उनकी चर्चा तक नहीं हुई। दो विधान सभा चुनाव पूर्व बिहार की सरकार बनाने में रामबिलास पासवान किंग मेकर बन सकते थे तब स्वार्थवश मुस्लिम मुख्यमंत्री का नाम उछालने का दण्ड बिहार के मतदाताओं ने उन्हें जबर्दश्त तरीक से दिया। गौरतलब है कि भाजपा-जद(यू) गठबन्धन को प्रदेश की महिलओं तथा अल्संख्यकों का मत बड़े पैमाने पर मिला जिससे यह मिथ टूटा कि महिलाओं तथा अल्पसंख्यक भाजपा या उनके सहयोगी दलों को पसन्द नहीं करते। देश के विकास के साथ-साथ महिलायें तथा अल्पसंख्यक भी गम्भीर तथा विकासपरक राजनीति का हिस्सा बन गये हैं। कुल मिलाकार बिहार विधान सभा चुनाव ने कई जमे-जमाये मिथ तोड़े तथा कई सच्चाइयों से देश की जनता का सामना करवाया।

(लेखक डी.ए-वी. कालेज, कानपुर के भौतिक विज्ञान विभाग में एशोसिएट प्रोफेसर हैं।)

संपर्क-
डॉ. मनोज मिश्र
‘सृष्टि शिखर’
4. लखनपुर हाउसिंग सो.,
कानपुर - 24

Tuesday, October 26, 2010

करवा चौथ..या कड़वा चौथ?

हाँ, अपने समाज का यह कड़वा सच है कि एक औरत ही पतिव्रता बन कर वफादार रहती है और पति से अगले सात जन्मों के बंधन के बारे में सोचती है. लेकिन पुरुष के मन में क्या है उसका पता उसे नहीं लग पाता है. और वो शायद जानना भी नहीं चाहती. तो ये तो एक तरह से पति पर ज्यादती हुई कि उसकी पत्नी अगले सात जन्मों में भी उसी पर अपने को थोपना चाहती है, है ना ? अपने पति की असली इच्छा जाने बिना ही अगले सात जन्मों में भी उसी से ही चिपकी रहना चाहती है. आँख-कान बंद करके औरत यही करती आयी है अपने समाज में पतिव्रता बनने की कोशिश में. क्या ये दिखावा है..ढोंग है लोगों को अपने पतिव्रतापन को इस तरह से जताकर ? इन बातों पर जब गंभीरता से गौर किया तो मुझे यह सब लिख कर कहने की प्रेरणा मिली.

मानती हूँ, हर तरह के बिचार व व्यवहार के लोग हर जगह होते हैं..और आज की आधुनिकता में तो लोगों के बिचार लगातार बदल रहे हैं. पहली बात तो ये कि अगले जनम का क्या पता कि कौन क्या होता है और मिलता भी है या नहीं. लेकिन जहाँ चाहत व असली प्यार हो वहाँ तो ऐसी बातें करना अच्छी लगती हैं..वरना औरत अपने को एक तरह से वेवकूफ ही बनाती है इन सब बातों को करके व कहके. चलो मानती हूँ कि जो औरतें पूजा-आराधना करती हैं पति की लंबी उम्र व भलाई के लिये वो सही है किसी हद तक. लेकिन अगला जनम उसी के नाम !!!! WHO KNOWS ABOUT THAT ? पता नहीं दुनिया में कितने शादी-शुदा पुरुष शायद सोचते होंगे कि '' VARIETY IS THE SPICE OF LIFE '' तो फिर वो क्यों अपनी उसी वीवी की अगले आने वाले जन्मों में तमन्ना करने लगे, बोलिये ?

सुनी हुई बातें भी हैं लोगों से कि कितने ही शराबी पति इस दिन भी देर से आकर अपनी पत्नियों को भूखा-प्यासा रखते हैं. और अगर किसी बीमार औरत ने इंतजार करते हुये पति के आने की उम्मीद छोड़कर कुछ मुँह में डाल लिया कमजोरी से चक्कर आने पर तो पति बाद में आकर गाली- गलौज करता है और मारता है उसे कि '' तूने मुझे खिलाये बिना कैसे खा लिया..तेरी हिम्मत कैसे और क्यों हुई ऐसा करने की ? ''

मुझे पता है कि मेरे बिचारों के बिरुद्ध तमाम लोग बोलने को तैयार होंगे. फिर भी कहना चाहती हूँ कि अपने समाज की बातों को देख और महसूस करके मन में जो बिचार उठ रहे थे उन पर मैंने गौर किया. पर उन्हें किसी से डिसकस करते हुये डर लग रहा था तो अपनी बात कहने का ये तरीका सोचा मैंने कि शायद औरतों का ध्यान मेरी कही बात की तरफ कुछ आकर्षित हो सके. और इतना भी बता दूँ कि मैं इस '' करवा चौथ '' की प्रथा के विपक्ष में नहीं हूँ. मुझे बगावत करने का दौरा नहीं पड़ा है. किन्तु क्या उन रिश्तों में ये उचित होगा कि वो औरतें जो खुश नहीं हैं अपनी जिंदगी में अपने पतियों के संग..वो आगे के जन्मों में भी उन्हीं को पति के रूप में अवतरित होने के लिये कहें. अपनी समझ के तो बाहर है ये बात. खैर, आखिर में इतना और कहना है कि इस बात पर हर औरत अपने आप गौर करे और समझे तो उचित होगा...मैंने तो सिर्फ अपने बिचार रखने की एक सफल या असफल कोशिश की है. और सोचने पर मजबूर होती हूँ कि ऐसे पतियों का साथ पत्नियाँ क्यों माँगती है अगले जन्मों में..वो भी सात जन्मों तक ? क्यों, आखिर क्यों..जब कि किसी भी जनम का कोई अता-पता तक नहीं किसी को ? और क्या फिर से यही अत्याचार सहने के लिये उन जन्मों का इंतजार ?????

- शन्नो अग्रवाल

चीन के द्वारा भारत की घेराबंदी

वर्ष 2007 में चीन द्वारा वास्‍तविक नियंत्रण रेखा पर अतिक्रमण या उससे मिलती-जुलती लगभग 140 घटनायें हुई, वर्ष 2008 में 250 से भी अधिक तथा वर्ष 2009 के प्रारम्‍भ में लगभग 100 के निकट इसी प्रकार की घटनायें हुई इसके बाद भारत सरकार ने हिमालयी रिपोर्टिंग, भारतीय प्रेस पर प्रतिबन्‍ध लगा दिया। आज देश के समाचार पत्रों एवं इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया को सूचनायें मिलना बन्‍द हैं। क्‍या उक्‍त प्रतिबन्‍ध से घुसपैठ समाप्‍त हो गयी या कोई कमी आयी। इस प्रतिबन्‍ध से चीन के ही हित सुरक्षित हुये तथा उनके मनमाफिक हुआ। जरा हम चीन के भारत के प्रति माँगों की सूची पर गौर करें - वह चाहता है अरुणाचल प्रदेश उसे सौंप दिया जाये तथा दलाईलामा को चीन वापस भेज दिया जाये। वह लद्‌दाख में जबरन कब्‍जा किये गये भू-भाग को अपने पास रखना चाहता है तथा वह चाहता है। भारत अमेरिका से कोई सम्‍बन्‍ध न रखे इसके साथ-साथ चीन 1990 के पूरे दशक अपनी सरकारी पत्रिका ‘‘पेइचिंग रिव्‍यू'' में जम्‍मू कश्‍मीर को हमेशा भारत के नक्‍शे के बाहर दर्शाता रहा तथा पाक अधिकृत कश्‍मीर में सड़क तथा रेलवे लाइन बिछाता रहा। बात यही समाप्‍त नहीं होती कुछ दिनों पहले एक बेवसाइट में चीन के एक थिंक टैंक ने उन्‍हें सलाह दी थी कि भारत को तीस टुकड़ों में बाँट देना चाहिये। उसके अनुसार भारत कभी एक राष्‍ट्र रहा ही नहीं। इसके अतिरिक्‍त चीन भारत पर लगातार अनावश्‍यक दबाव बनाये रखना चाहता है। वह सुरक्षा परिषद में भारत की स्‍थाई सदस्‍यता पाने की मुहिम का विरोध करता है तो विश्‍व बैंक और अन्‍तर्राष्‍ट्रीय मुद्रा कोष में अरुणाचल प्रदेश की विकास परियोजनाओं के लिये कर्ज लिये जाने में मुश्‍किलें खड़ी करता है। इसके साथ-साथ तिब्‍बत में सैन्‍य अड्‌डा बनाने सहित अनेक गतिविधियाँ उसके दूषित मंसूबे स्‍पष्‍ट दर्शाती हैं।

आज से लगभग 100 वर्षों पूर्व किसी को भी भास तक नहीं रहा होगा, वैश्‍विक मंच पर भारत तथा चीन इतनी बड़ी शक्‍ति बन कर उभरेंगे। उस समय ब्रिटिश साम्राज्‍य ढलान पर था तथा जापान, जर्मनी तथा अमेरिका अपनी ताकत बढ़ाने के लिए जोर आजमाइश कर रहे थे। नये-नये ऐतिहासिक परिवर्तन जोरों पर थे। आज उन सबको पीछे छोड़ चीन अत्‍यधिक धनवान तथा ताकतवर राष्‍ट्र बनकर उभरा है। कुछ विद्वानों का मत है चीन अनुमानित समय से पहले अमेरिका को पीछे छोड़ देगा। भारत भी अपनी पूरी ऊर्जा के साथ लोकतंत्र को सीढ़ी बना अपनी चहुमुखी प्रगति की ओर अग्रसर है। चीन अपने उत्‍पादन तथा भारत सेवा के क्षेत्र में विश्‍व पटल पर अपनी उपस्‍थिति अग्रणी भूमिका के रूप में बनाये हुए है। यह बात सत्‍य है कि चीन भारत के मुकाबले अपनी सैन्‍य क्षमता में लगभग दोगुना धन खर्च कर रहा है। अतः उसकी ताकत भी भारत के मुकाबले दोगुनी अधिक है। उसकी परमाणु क्षमता भी भारत से कहीं अधिक है। इन सबके साथ यह भी सत्‍य है कि चीन की सीमा अगल-अलग 14 देशों से घिरी है अतः वह अपनी पूरी ताकत का उपयोग भारत के खिलाफ आजमाने में कई बार सोचेगा। परन्‍तु चीन की उक्‍त बढ़ती हुई सैन्‍य एवं मारक शक्‍ति भारत के लिए चिन्‍तनीय अवश्‍य है।

एक तरफ चीन अपनी जी.डी.पी. से कई गुना रफ्‍तार से रक्षा बजट में खर्च कर रहा है वहीं वह अपने रेशम मार्ग जहाँ से सदियों पहले रेशम जाया करता था, पुनः चालू करना चाहता है। वह अफगानिस्‍तान, ईरान, ईराक और सउदी अरब तक अपनी छमता बढ़ाना चाहता है। निश्‍चित ही वह वहाँ के प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग अपने हित में करना चाहता है। जिसके उक्‍त कार्य में निश्‍चित ही पाकिस्‍तान की भूमिका महत्‍वपूर्ण रहने वाली है। देखना यह है कि उसकी यह सोच कहाँ तक कारगर रहती है।
चीन महाशक्‍ति बनने की जुगत में है, जिससे भारत को चिन्‍तित होना लाजमी है, उसकी ताकत निश्‍चित ही भारत को हानि पहुँचाएगी। लगातार चीनी सेना नई शक्‍तियों से लैस हो रही है। पाकिस्‍तान तथा बांग्‍लादेश में समुद्र के अन्‍दर अपने अड्‌डे बनाकर वह अपनी भारत के प्रति दूषित मानसिकता दर्शा रहा हैं। वर्ष 2008 में चीन पाकिस्‍तान में दो परमाणु रिएक्‍टरों की स्‍थापना को सहमत हो गया था। जिसका क्रियान्‍वयन होने को है।

हमारे नीति निर्धारकों को उक्‍त विषय की पूरी जानकारी भी है। परन्‍तु फिर भी वे एकतरफा प्‍यार की पैंगे बढ़ाते हुए सोच रहे हैं। कि एक दिन चीन उनपर मोहित हो जाएगा, तथा अपनी भारत विरोधी गतिविधियाँ समाप्‍त कर देगा। हमारे देश के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह का वैश्‍विक मंच पर कहना अन्‍तर्राष्‍ट्रीय व्‍यापार की दुनिया में चीन हमारा सबसे महत्‍वपूर्ण सहोदर है तथा भारतीय विदेशमंत्री का कहना तिब्‍बत चीन का अंग है। उचित प्रतीत नहीं होता। उक्‍त दोनों बयान भारत को विभिन्‍न आयामों पर हानि पहुँचाने वाले प्रतीत होते हैं। चाणक्‍य तथा विदुर के देश के राजनेता शायद यह भूल गये कि राष्‍ट्र की कोई भी नीति भावनाओं से नहीं चलती। अलग-अलग विषयों पर भिन्‍न-भिन्‍न योजनाएँ लागू होती हैं। परन्‍तु भावनाओं का स्‍थान किसी भी योजना का भाग नहीं है। आज भारत को चीन से चौकन्‍ना रहने की आवश्‍यकता है। उसे भी कूटनीति द्वारा अपनी आगामी योजना बनानी चाहिए। उसे चाहिए चीन की अराजकता से आजिज देश उसके विषय में क्‍या सोच रहे हैं। उसके नीतिगत विकल्‍प क्‍या हैं ? भारत को अमेरिका के साथ-साथ दक्षिण पूर्व एशिया के महत्‍वपूर्ण देशों के साथ खुली बात-चीत करनी चाहिए। चीन का स्‍पष्‍ट मानना है कि भारत में कई प्रकार के आंतरिक विवाद चल रहे हैं चाहे वह अंतर्कलह हो, आतंकवाद हो या साम्‍प्रदायिक खींच-तान। भारत क्षेत्रीय विषयों पर भी बुरी तरह बटा हुआ है। चीन उक्‍त नस्‍लीय विभाजन का लाभ देश को बाटने के लिए कर सकता है। वहाँ के दूषित योजनाकारों के अनुसार प्रांतीय स्‍तर पर अलग-अलग तरीके से क्षेत्रीय वैमनस्‍यता एवं विवादों को भड़का भारत का विभाजन आसानी से किया जा सकता है।
निश्‍चित रूप से आगे आने वाले वर्ष भारत के लिए काफी मुश्‍किलों भरे हो सकते हैं। वर्ष 2011 के बाद पश्‍चिमी सेना काबुल से निकल जाएगी। इसके बाद बीजिंग-इस्‍लामाबाद-काबुल का गठबंधन भारत के लिए मुश्‍किलें खड़ी करेगा। चीन नेपाल के माओवादियों को लगातार खुली मदद कर रहा है। वहाँ की सरकार बनवाने के प्रयासों में उसकी दखलंदाजी जग जाहिर है। पाकिस्‍तान भारत में नकली नोट, मादक पदार्थ, हथियार आदि भेज भारत को अंदर से नुक्‍सान पहुँचाने की पूरी कोशिश कर रहा है। उसकी आतंकी गतिविधियाँ लगातार जारी हैं। भारत चीन के साथ व्‍यापार कर चीन को ही अधिक लाभ पहुँचा रहा है। वहाँ के सामानों ने भारतीय निर्माण उद्योग को बुरी तरह कुचल डाला है। यदि आगे आनेवाले समय में भारत सरकार चीनी उत्‍पादनों पर पर्याप्‍त सेल्‍स ड्‌यूटी या इसी प्रकार की अन्‍य व्‍यवस्‍था नहीं करती है तो भारत का निर्माण उद्योग पूरी तरह टूट कर समाप्‍त हो जाएगा। इसे भी चीन का भारत को हानि पहुँचाने का भाग माना जा सकता है।

भारत को चाहिए 4,054 किलोमीटर सरहदीय सीमा की ऐसी चाक-चौबन्‍द व्‍यवस्‍था करें कि परिंदा भी पर न मार सके। इसके साथ-साथ देश के राज्‍यीय राजनैतिक शक्‍तियों को अपने-अपने प्रान्‍तों को व्‍यवस्‍थित करने की अति आवश्‍यकता है। जिससे वह किसी भी सूरत में भारत की आंतरिक कमजोरी का लाभ न ले सके। देश की सरकार को जल, थल तथा वायु सैन्‍य व्‍यवस्‍थाओं को और अधिक ताकतवर बनाना चाहिए। जिससे चीन भारत पर सीधे आक्रमण करने के बारे में सौ बार विचार करे। 1954 के हिन्‍दी-चीनी भाई-भाई तथा वर्तमान चिन्‍डिया के लुभावने नारों के मध्‍य चीन ने 1962 के साथ-साथ कई दंश भारत को दिये हैं। भारत को आज सुई की नोक भर उस पर विश्‍वास नहीं करना चाहिए। चीन जैसे छली राष्‍ट्र के साथ विश्‍वास करना निश्‍चित ही आत्‍मघाती होगा। हमें अपनी पूरी ऊर्जा राष्‍ट्र को मजबूत एवं सैन्‍य शक्‍ति बढ़ाने में लगाना चाहिए।

लेखक- राघवेन्‍द्र सिंह

Sunday, October 24, 2010

ओबामा की चिन्‍ता के केन्‍द्र में भारतीय छात्र

अमेरिकी राष्‍ट्रपति बराक ओबामा की नवम्‍बर की बहुप्रतीक्षित भारत यात्रा पर कई देशों में आम भारतीयों की नजर भी लगी हुई है। कई समीक्षक उनकी विदेशनीति तथा कई अन्‍य विषयों पर उनके रूख की समीक्षा कर रहे है। बराक ओबामा की यह यात्रा निसंदेह उत्‍साहपूर्ण वातावरण में हो रही है संसद के संयुक्‍त अधिवेश्‍न सहित वे कई आर्थिक-राजनैतिक कार्यक्रमों में हिस्‍सा लेगें। बराक ओबामा की सोच भारत के बारे में क्‍या है? वे भारत के विश्‍व पटल पर उभरने की संभावना को राजनैतिक-कूटनीतिज्ञ कारणों से नहीं अपितु अन्‍य कारणों से देख रहे है। ओबामा जब से अमेरिका के राष्‍ट्रपति बने है तब से कई बार भारतीय छात्रों एवं उनकी मेधा की चर्चा विभिन्‍न मंचों पर कर चुके है। उनकी चिन्‍ता उभरती अर्थव्‍यवस्‍था के प्रतीक भारत एवं चीन के वे छात्र हैं जो विश्‍व पटल पर छा जाने के लिए जबर्दश्‍त मेहनत कर रहे है। इन छात्रों के परिवारीजन अपने सारे संसाधन झोंक कर उनको उच्‍च शिक्षा तथा तकनीकी शिक्षा मुहैया करा रहे है।

शिक्षक से अमेरिका के राष्‍ट्रपति बने बराक ओबामा की इन चिन्‍ताओं की जड़ में उनकी अमेरिका के प्रति गहरा लगाव तथा संवेदनशीलता है यह लगाव और संवेदनशीलता उनके द्वारा लिखी गई किताबों ‘‘ड्रीम्‍स फ्राम माई फादर, दि आडोसिटी आफ होप तथा चेन्‍ज वी कैन विलीव इन'' से समझी जा सकती है। पहली किताब ड्रीम्‍स फ्राम फादर में श्‍वेत-अश्‍वेत संदर्भ के साथ-साथ उनके अपने निजी संघर्ष का गहरा चित्रण है। दूसरी तथा तीसरी किताब अमेरिका के सीनेटर तथा राष्‍ट्रपति पद के प्रत्‍याशी बराक ओबामा की अमेरिकी नेता को तौर पर प्रस्‍तुति है। बराक ओबामा निसंदेह अपने कई समकक्षी राष्‍ट्रपतियों की तुलना में जमीन से उठकर राष्‍ट्रपति के पद पर मेरिट से चुने गये राष्‍ट्रपति है यह उनकी योग्‍यता ही लगती है कि श्‍वेत-अश्‍वेत संघर्ष के प्रतीक बनकर पहले अश्‍वेत अमरीकी राष्‍ट्रपति बनने का गौरव उन्‍हे हासिल हुआ। अमेरिकी की रंगभेद नीति के साथ उन्‍हे अपने देश की समस्‍याओं और भविष्‍य की चुनौतियों का अन्‍दाज है। आज का अमेरिका भी अन्‍यों देशों की तरह कई ऐसी चुनौतियों से जूझ रहा है जिसके परिणाम अमेरिका के भविष्‍य के लिए अच्‍छे होने के संकेत नहीं है।

लेखक-डॉ0 मनोज मिश्र
एशोसिएट प्रोफेसर
भौतिक विज्ञान विभाग,
डी.ए-वी. कालेज,
कानपुर।
संपर्कः ‘सृष्‍टि शिखर'
40 लखनपुर हाउसिंग सो0,
कानपुर - 24
फोन नं0 09415133710, 09839168422
email-dr.manojmishra63@gmail.com
dr.manojmishra63@yahoo.com
अपने राष्‍ट्रपति चुनाव के दौरान बराक ओबामा अपने भाषणों में कहा करते थे कि सबसे विकसित देश में 4 करोड़, 70 लाख लोग बिना स्‍वास्‍थ्‍य बीमा के रह रहे हैं। स्‍वाथ्‍य बीमा के प्रीमियम की वृद्धि दर लोगों की आय वृद्धि की दर से कहीं ज्‍यादा है। एक करोड़ से कुछ अधिक अवैध आव्रजक है। अमेरिका तथा सुदूर प्रान्‍तों में धन तथा कम्‍प्‍यूटर के अभाव में स्‍कूल आधे टाइम से बन्‍द हो जाते है। अमेरिकी सीनेट उच्‍च शिक्षा में बजट में कटौती कर रही है। जिससे लाखों छात्रों के उच्‍च शिक्षा में प्रवेश के द्वारा बन्‍द हो जाने का खतरा है। विज्ञान, प्रौद्योगिकी तथा शिक्षा का स्‍तर अपेक्षित तौर पर बढ़ नहीं पा रहा है तथा छात्रों का मन इन विषयों में न लगकर टीवी तथा कम्‍प्‍यूटर गेम्‍स में लग रहा है। देश पर उधारी लगातर बढ़ती जा रही है तथा वैश्‍विक प्रतिस्‍पर्धा में भारत तथा चीन जैसे कई देश बड़ी चुनौती प्रस्‍तुत करने की ओर है। ऊर्जा पर बढ़ती निर्भरता उनकी चिन्‍ता का प्रमुख कारण है। आउट सोर्सिंग के कारण नौकरियॉ विदेश स्‍थानान्‍तरित हो रही है तथा गूगल जैसी कम्‍पनियों में आधे कर्मचारी एशियाई है जिनमें से भारत तथा चीन के ज्‍यादा संख्‍या में है।
अमेरिका के राष्‍ट्रपति चुने जाने के बाद बराक ओबामा ने पूर्व घोषित कार्यक्रमोंं में से दो प्रमुख मुद्‌दों पर ध्‍यान केन्‍द्रित किया। इन दो कार्यक्रमों में से एक सबकी पहुॅच में स्‍वास्‍थ्‍य बीमा तथा अमेरिकी शिक्षा व्‍यवस्‍था को उच्‍च स्‍तरीय तथा प्रतिस्‍पर्धी बनाना। अपने स्‍वास्‍थ्‍य एजेण्‍डा हेतु स्‍वास्‍थ्‍य विधेयक प्रस्‍तुत किया तथा कड़े संघर्ष के बाद जीत दर्ज की। स्‍वास्‍थ्‍य विधेयक के बाद बराक ओबामा की चिन्‍ता प्राथमिक स्‍तर से लेकर उच्‍च शिक्षा तक की सुधार का प्रयास। बराक ओबामा को लगता है कि भारत और चीन के छात्र अपने को वैश्‍विक स्‍तर पर ज्‍यादा प्रतिस्‍पर्धी सिद्ध कर रहे है तथा उनके अभिभावक उनका मार्गदर्शन तथा सहयोग कर रहे है। इसके विपरीत उनके अपने देश में ओबामा के अनुसार छात्रों की रूचि पढ़ाई से घट रही है। भारत तथा चीन अपने-अपने शिक्षा के स्‍तर में निरन्‍तर सुधार कर रहे है तथा अपना बजट बढ़ा रहे है। भारत में दिन प्रतिदिन उच्‍च तथा तकनीकी शिक्षा का विस्‍तार हो रहा है। उनकी गुणवत्‍ता में सुधार के गम्‍भीर प्रयास हो रहे है। भारत सूचना युग में बढ़त बना चुका है तथा अब शैक्षिक इनफ्रास्‍ट्रकचर सुधार कर ज्ञान के युग का दोहन कर रहा है। बराक ओबामा के अनुसार अमेरिकी डाक्‍टरों, इन्‍जीनियरों तथा अन्‍यों पेशेवरों का मुकाबला उनके अपने ही देश के प्रतिस्‍पर्धियों से न होकर भारत तथा चीन के पेशेवरों से होगा। भारत तथा चीन अपने-अपने पेशेवरों को इस वैश्‍विक प्रतिस्‍पर्धा के लिए तैयार कर रहें है, जबकि अमेरिका ऐसे समय में अपने उच्‍च शिक्षा तथा शोध के बजट में 20 प्रतिशत की कटौती कर रहा है उनके अनुसार यह कटौती अमेरिका के भविष्‍य पर पड़ने की संभावना है जिसके कारण लगभग 20 लाख अमेरिकी छात्र उच्‍च शिक्षा से वंचित रह जायेगे।

राष्‍ट्रपति बराक ओबामा की चिन्‍ता के सन्‍दर्भ में भारत को भी सबक लेने की जरूरत है। जो चिन्‍तायें ओबामा के मस्‍तिष्‍क में है वे चिन्‍तायें भारत के लिए संभावना के नये-नये द्वारा खोलती है। आउट सोर्सिंग पर प्रतिबन्‍ध राजनैतिक कारणों से तो ठीक हो सकता है परन्‍तु अमेरिकी कम्‍पनियों के लिए आर्थिक कारणों से उचित नही है। आउट सोर्सिंग के क्षेत्र में भारत कई तरीके के बिजनेश माडल प्रस्‍तुत कर रहा है तथा अमेरिकी कम्‍पनियों को उनके हित लाभ के लिए आकर्षित कर रहा है। विज्ञान, टैक्‍नोलॉजी तथा शिक्षा के क्षेत्र में बजट बढ़ाकर विश्‍व स्‍तरीय छात्र तैयार कर भविष्‍य का मस्‍तिष्‍क युद्ध भारत जीत सकता है। ज्ञान के इस युग में ब्राडबैण्‍ड की उपलब्‍धता तथा विस्‍तार कर देश के सुदूर भाग को शैक्षिक क्रान्‍ति का भागीदार बनाया जा सकता है। प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्‍च शिक्षा तथा तकनीकी शिक्षा को वैश्‍विक स्‍तर का बनाना हमारा प्रथम लक्ष्‍य होना चाहिए। राज्‍य सरकारें तथा केन्‍द्र सरकार को अपने-अपने पार्टी हितों को छोड़कर राष्‍ट्रीय हित में गम्‍भीर प्रयास करने चाहिए। भारत में शिक्षा का प्रसार हो तो रहा है परन्‍तु उनकी गुणवत्‍ता अपेक्षित स्‍तर की नही है। प्रान्‍तीय सरकारों में दूरदर्शी नेतृत्‍व का अभाव है तथा शिक्षा इनकी अन्‍तिम प्राथमिकता है। अतः हमें विश्‍व पटल पर एक सुनहरा अवसर प्राप्‍त हो रहा है जिसे यदि सरकार चाहें तो हम इसकों सफलता में बदलकर वैश्‍विक प्रतिस्‍पर्धा का रूख अपनी ओर कर सकते है। बराक ओबामा ने कहा कि पिछली एक सदी में कोई भी युद्ध अमेरिकी धरती पर नहीं लड़ा गया है। परन्‍तु अब साइबर क्रान्‍ति के कारण हर देश और कम्‍पनी का रूख अमेरिका की ओर है। और उनकी यही चिन्‍ता है। अब युद्ध का हथियार ज्ञान होगा जिसके लिए कड़ी प्रतिस्‍पर्धा का वैश्‍विक मन्‍च तैयार हो रहा है और भारत एक बड़ा खिलाड़ी बनकर उभर सकता है। हमारी आवश्‍यकताओं की पूर्ति के लिए सभी जरूरी संसाधन पर्याप्‍त मात्रा में देश में उलब्‍ध है हमारे यहॉ बहुत सी नीतियॉ और संस्‍थायें है। चुनौती है तो बस शिक्षकों, विद्यार्थियों और तकनीक तथा विज्ञान को एक सूत्र में पिरोकर एक दिशा में सोचने की।

Wednesday, September 29, 2010

अयोध्‍या पर बुनी एक गुमसुम सी गद्य-कविता

अयोध्‍या विवाद के समाधान की ओर अग्रसर होने के पूर्व मामले के दोनों पक्षों हिन्‍दू और मुस्लिम समुदाय के बीच एकता के किसी सूत्र को तलाशना होगा। जब तक हमें कोई ऐसा सूत्र प्राप्‍त नहीं होता जिस पर हिन्‍दू एवं मुस्लिम दोनो पक्ष कोई प्रतिकूल टिप्‍पणी न कर सकें तब तक दोनो समुदाय के बीच किसी समझौते की आशा रखना व्‍यर्थ है।

हिन्‍दू और मुस्लिम समुदाय के बीच वह सम्‍पर्क-बिन्‍दु है, ईश्‍वरीय सत्‍ता का तात्विक बोध, जिसे हिन्‍दुओं ने अद्वैतवाद के माध्‍यम से
निरूपित किया है और मुसलमानों द्वारा जिसे तौहीद (ऐकेश्‍वरवाद) के रूप में व्‍यक्‍त किया गया है। हिन्‍दू और मुस्लिम समुदाय के मध्‍य इसी साम्‍यता को दृष्टि में रखते हुए आगामी पंक्तियों में अयोध्‍या विवाद के समाधान को सुधीजनों के विचारार्थ रेखांकित किया जा रहा है। अयोध्‍या-विवाद के समाधान का बिन्‍दुवार विवरण इस प्रकार है।

1. गर्भगृह के क्षेत्र को पूर्ववत् केन्‍द्र सरकार की अभिरक्षा में रखते हुए ‘श्रीरामजन्‍मभूमि’ नाम देकर मूर्ति-विहीन क्षेत्र के रूप में
संरक्षित रखना चाहिए। इस पावन-भूमि को निराकार-ब्रह्म की प्राकट्यस्‍थली के अनुरूप सदैव प्रकाशित रखना चाहिए। हिन्‍दू मतावलम्बियों को इस बिन्‍दु पर कोई विरोध इसलिए नहीं होना चाहिए क्‍योंकि 'राम' से अधिक महत्व राम के 'नाम' का है। रामचरितमानस सहित अनेक हिन्‍दू ग्रंथों से यह तथ्‍य पुष्‍ट है। मुस्लिम मताव‍लम्बियों को इस बिन्‍दु पर कोई आपत्ति इसलिए नहीं होनी चाहिए क्‍योंकि गर्भगृह क्षेत्र का उपयोग बुतपरस्‍ती के लिए नहीं हो रहा होगा।

2. गर्भ-गृह क्षेत्र में स्थित 'मूर्ति-विहीन' परिसर के चारो तरफ क्षेत्र को हिन्‍दू बाल-संस्‍कारों के कर्मकाण्‍ड संपादन के निमित्‍त सुरक्षित कर दिया जाना चाहिए, जिससे 'बाल-राम' के रूप में राम की सगुणोपासना निरन्‍तर चलती रहे।

3. वर्तमान में गर्भगृह क्षेत्र में पूजित राम-लला विग्रह को स्‍थापित करने एवं उपासना करने हेतु हिन्‍दुओं को मन्दिर निर्माण हेतु विवादित परिसर की बाहरी परिधि प्रदान की जानी चाहिए और मुसलमानों को मस्जिद निर्माण हेतु अयोध्‍या के किसी मुस्लिम-बहुल क्षेत्र में उपलब्‍ध कोई विवाद-विहीन उपयुक्‍त स्‍थल प्रदान कराया जाना चाहिए जहाँ मुस्लिम समाज द्वारा नमाज अदा की जा सके। हिन्‍दू समाज को मस्जिद निर्माण पर आने वाले व्‍यय को सहर्ष वहन करने हेतु आगे आना चाहिए।

हिन्‍दू और मुस्लिम दोनों मतानुयाइयों को पूजा-उपासना को लेकर भविष्‍य में अपनी आगे की पीढि़यों के सामने किसी दुराव की आशंका को निर्मूल करने हेतु उपर्युक्‍त बिन्‍दुओं पर सौजन्‍यता से विचार करना चाहिए।

--आशीष दुबे

Saturday, September 25, 2010

बिन बरसे मत जाना रे बादल- कन्हैया लाल नंदन को प्रेमचंद सहजवाला की श्रद्धाँजलि

हिन्दी के वरिष्ठ कवि व पत्रकार कन्हैया लाल नंदन का आज सुबह दिल्ली में निधन हो गया। वे 77 वर्ष के थे। कन्हैया लाल नंदन एक मंचीय कवि के रूप में बेहद चर्चित थे। हिन्द-युग्म परिवार इनके निधन पर भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है। प्रेमचंद सहजवाला अपने व्यक्तिगत अनुभव बाँट रहे हैं-


इन दिनों कोई भी पत्रकार अगर खबरें पढ़ता सुनता है तो या तो अयोध्या की या कॉमनवेल्थ की. पर किसी किसी क्षण फोन बजता है तो कोई साथी दुखद खबर दे कर मन को संतप्त सा कर देता है. आज दूरदर्शन पर समाचार देखते-देखते शैलेश भारतवासी फोन आया और उसने सूचना दी कि कन्हैयालाल नंदन नहीं रहे! सचमुच, कोई प्रभावशाली शख्सियत यूँ अचानक चली जाए तो हृदय को धक्का सा पहुंचना स्वाभाविक ही है. उनके निधन पर मुझे इसलिए भी विशेष आघात पहुंचा कि इसी 27 सितम्बर के लिये ‘परिचय साहित्य परिषद’ की ओर से उन्हें विशेष आमंत्रण था. ‘परिचय साहित्य परिषद’ ने 27 सितम्बर को ‘सत्य सृजन सम्मान’ देने का विशेष कार्यक्रम रखा था और परिषद की अध्यक्षा उर्मिल सत्यभूषण ने मुझे बताया कि उन्होंने नंदन जी को भी विशेष निमंत्रण दिया था कि वे इस कार्यक्रम में आएं व परिषद की ओर से ‘सत्यसृजन सम्मान’ स्वीकारें. नंदन जी पिछले दिनों कई बार Dyalisis पर रहे, हालांकि जब जब वे स्वस्थ होते तब वे अपनी कर्मशीलता की किसी आतंरिक प्रेरणाल शक्ति से कार्यक्रमों में निरंतर जाते रहते. जब उन्होंने उर्मिल सत्यभूषण से अपने अस्वस्थ होने के कारण असमर्थता ज़ाहिर की तब उर्मिल जी ने निर्णय लिया कि परिषद की ओर से उनके निवास स्थान पर ही कुछ ही दिनों बाद उन्हें सम्मान देने कुछ लोग जाएंगे. परन्तु नियति को कुछ और ही मंज़ूर था और वे 25 सितम्बर प्रातः लगभग पौने चार बजे अपनी जीवन यात्रा संपन्न कर के प्रस्थान कर गए.


1 अक्टुबर 2009 को राष्ट्रीय गाँधी संग्रहालय, नई दिल्ली में 'हिंद स्वराज' के 100 वर्ष और विचार-गोष्ठि कार्यक्रम में बैठे कन्हैया लाल नंदन
पुस्तक-विमोचनों का कन्हैयाल लाल नंदन हिंदी पत्रकारिता में एक बेहद सशक्त हस्ताक्षर थे और उनसे जुड़ी मेरी चंद यादें भी मेरे लिये मूल्यवान धरोहर हैं. साहित्यकार के लिये साहित्य से जुड़े स्वनामधन्य हस्ताक्षरों का सामीप्य सचमुच किसी भी अन्य धरोहर से कहीं अधिक महत्वपूर्ण होता है. पर मुझे पता नहीं चल रहा कि पहले कुछ ताज़ा प्रसंग बताऊँ कि तीन चार दशक पुराने. नंदन जी को मैंने बहुत अरसे बाद 1 अक्टूबर 2009 को ‘राष्ट्रीय गाँधी संग्रहालय’ में स्व. प्रभाष जोशी के साथ देखा था. उन दिनों महात्मा गाँधी की विश्वप्रसिद्ध पुस्तक ‘हिंद स्वराज’ (जो उन्होंने 1909 में लंदन से दक्षिण अफ़्रीका लौटते हुए ‘किल्दोनन’ नाम के जहाज़ में लिखी थी) की शताब्दी जगह जगह मनाई जा रही थी. ‘राष्ट्रीय गाँधी संग्रहालय’ में भी ‘हिंद स्वराज’ से जुडी किसी पुस्तक का लोकार्पण प्रभाष जी के करकमलों द्वारा हो रहा था. संग्रहालय की निदेशक डॉ. वर्षा दास के आमंत्रण पर जब वहाँ गया तो प्रभाष जी के साथ हुई अपनी संक्षिप्त भेंट की रिपोर्ट भी मैं पहले ही दे चुका हूँ. पर उस सभागार में प्रभाष जी के साथ नंदन जी को बतियाते देखा तो बेहद प्रसन्न हुआ. कई पुराने खूबसूरत लम्हे एक नॉस्टालज्या की तरह आ गए. उस दिन कार्यक्रम शुरू हुआ तो नंदन जी दर्शकगण में बैठे थे और मैंने जा कर उन्हें नमन किया. नंदन जी की बेहद आत्मीयता व प्रोत्साहन भरी आकर्षक मुस्कराहट तो मुझे ज़मानों से याद है. अधिक बोलने की गुंजाइश नहीं थी, सो मैं केवल अपना नाम ही बता पाया. वे मुस्करा कर बोले– ‘पहचानता हूँ’, बस इतना कहते ही मंच से कार्यक्रम शुरू होने की आवाज़ आई तो मुझे अपना कैमरा ले कर सक्रिय होना पड़ा. पर नंदन जी को इतने अरसे बाद इतना करीब देख मेरी स्मृति अचानक तीनेक दशक पूर्व की तरफ चली गई. ये वो दिन थे जब ‘टाईम्स ऑफ इण्डिया’ की कथा पत्रिका ‘सारिका’ मुंबई से शिफ्ट हो कर दिल्ली के 10, दरियागंज में आ गई थी. साहित्यप्रेमियों के बीच किम्वदंती यही थी कि कमलेश्वर की ‘टाईम्स ऑफ इण्डिया’ से भिड़ंत हो गई है सो टाईम्स ने ‘सारिका’ कार्यालय ही शिफ्ट कर दिया है. तब 10, दरियागंज में अच्छी रौनक सी लग गई थी. ‘पराग’ ‘दिनमान’ ‘सारिका’ व ‘वामा’ – इन चार पत्रिकाओं के कार्यालय एक ही जगह. कभी जाओ तो नंदन जी, अवधनारायण मुद्गल जी व मृणाल पांडे के दर्शन एक साथ हो जाते. नंदन जी उस से पूर्व ‘दिनमान’ के संपादक थे. अचानक ‘सारिका’ की बागडोर उन्हें सौंप दी गई तो मैं बेहद प्रसन्न था क्योंकि मैं उन दिनों कहानी लिखने पढ़ने में खूब सक्रिय था. नंदन जी की तीखी प्रखर लेखनी से मैं ‘दिनमान’ द्वारा ही परिचित था पर उनका ‘सारिका’ में आना मेरे लिये व्यक्तिगत प्रसन्नता की बात थी. मैं तब सोनीपत में था और वहाँ की ‘लिट्रेरी सोसायटी’ के प्रमुख लोगों में से था. हिंदी गीतकार शैलेन्द्र गोयल उस सोसायटी के कर्ता-धर्ता थे. सोसायटी केवल कविता पाठ या कहानी पाठ ही नहीं करती थी वरन् अनेक बड़े कार्यक्रम भी करती: जैसे विष्णु प्रभाकर के सम्मान में एक विशाल समारोह रखा गया जिसमें सोनीपत शहृ के असंख्य लोग सोनीपत के हिंदू कॉलेज प्रांगण में एक विशाल शामियाने में बड़ी उत्सुकता से एकत्रित हो गए थे. विष्णु जी के ‘आवारा मसीहा’ से संबंधित अनुभवों में साईकिलों के लिये प्रसिद्ध इस शहृ के लोगों ने खूब उत्सुकता दिखाई. उसी से अगले दिन उसी शामियाने में एक कवि सम्मलेन भी रखा गया और मेरे लिये उस क्षण प्रसन्नता की सीमा नहीं रही जब कर्ता-धर्ता शैलेन्द्र गोयल जी ने बताया कि इस कवि सम्मलेन में दिल्ली से आपके मनपसंद कन्हैयालाल नंदन भी आ रहे हैं. मुझे ऐसा लगा था जैसे उनका आगमन विशेष मेरी खुशी के लिये ही हो रहा है, हालांकि उस संस्था में ‘ऐटलस साईकिल फैक्ट्री’ से जुड़े कई युवा साहित्यप्रेमी थे जो उस कवि सम्मलेन में उतने ही उत्साह से काम कर रहे थे जितना कि मैं. शाम छः बजे हमें आदेश हुआ कि हुल्लड़ मुरादाबादी, शैल चतुर्वेदी व नंदन जी आदि कई कवि अलग अलग रेलगाड़ियों से स्टेशन पहुँच रहे हैं. मुझे स्वाभाविक रूप से कहा गया कि आप किसी को साथ ले कर नंदन जी को लेने जाइए. पर उनकी गाड़ी शैल चतुर्वेदी आदि कवियों की गाड़ी से पहले है और शायद भिन्न प्लेटफॉर्म पर हो. मैं उस कार का इंतज़ार करने लगा जिसमें मुझे नंदन जी को लेने जाना था, हालांकि हिंदू कॉलेज से स्टेशन ज़्यादा दूर नहीं था पर इतने गणमान्य कवियों को रिक्शे में या पैदल लाने का ‘आईडिया’ किसी को पसंद नहीं था. शैल चतुर्वेदी समूह को लेने जाने वाली कार के कार्यकर्ताओं को मैंने उत्साहवश कह दिया कि तुम लोग मेरी कार के भी दस मिनट बाद आना. पर वे हँसते खिलखिलाते पहले ही निकल गए और स्टेशन पर हुआ उल्टा ही. नंदन जी वाली ट्रेन ‘लेट’ हो गई और शैल चतुर्वेदी व हुल्लड़ मुरादाबादी आदि एकदम विरोधी प्लेटफोर्म पर उतरते नज़र आए. हमारे कार्यकर्ता उन्हें हार पहना कर स्वागत कर रहे थे. इस से चंद मिनटों बाद ही नंदन जी की गाड़ी आ गई और मैं लपक कर उनके सामने गया. बड़े बड़े साहित्यकारों को अपना नाम बताने का उत्साह हर नए लेखक में होता है. मैं हांफता हुआ बोला– ‘नंदन जी मैं प्रेमचंद सहजवाला. आप को लेने आया हूँ’. और ज्यों ही मैंने हाथों में पकड़ी फूलमाला उनके गले की ओर बढ़ाई, उन्होंने मुस्करा कर हाथ थाम लिया – ‘बस, आपका स्वागत करना बहुत है भाई’. उन दिनों मुझे यह भी बखूबी अहसास होता था कि नंदन जी की शक्लो- सूरत व उस पर विराजमान मुस्कराहट सचमुच बेहद आकर्षक हैं. पर इस से भी बड़ी बात कि उनकी आवाज़ बहुत सशक्त थी जिसमें गज़ब का असर रहता था. उन्होंने कहा – ‘मैं आप के नाम से तो परिचित हूँ. आप ‘सारिका’ में भी छपे हैं शायद’. मैंने उत्साह से कहा – ‘अभी लेखन में नया नया हूँ. कमलेश्वर ने ‘सारिका’ के ‘नवलेखन अंक’ में मेरी कहानी छापी थी. अप्रैल ‘76 में’. तब तो कमलेश्वर जिसे छाप दे समझो वह लेखक चर्चित हो गया. किसी नवोदित लेखक के लिये भला इस से ज़्यादा खुशी की क्या बात कि एक इतना बड़ा पत्रकार जिसे कई सम्मान व पुरस्कार मिल चुके हैं, उस के साथ कार में घुसते घुसते पूछ रहा है – ‘आप कैसी कहानियां लिखते हैं’?
मैंने कहा – ‘मैं मध्यवर्गीय परिवारों के संघर्षों को कहानियों में वर्णित करने के लिये कुछ चर्चित हुआ हूँ. श्रीपतराय ने एक प्रकार से मुझे कहानी विधा में जन्म दिया. एक संग्रह छपा है जिसकी भूमिका श्रीपतराय ने स्वयं लिखी है’.

सोनीपत के उस कवि सम्मलेन में नंदन जी की शख्सियत का यह पहलू भी उजागर हुआ कि कवि रूप में वे एक बेहद खुद्दार व्यक्ति थे और उन्हें लगता था कि साहित्यकार कहीं भी निवेदन कर के नहीं जाता, वरन साहित्यकार ज़रूरत समाज को होती है. वह प्रसंग तो छोटा सा था पर फिर भी यहाँ उसे अलग से देने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा. उस कवि सम्मलेन में सोनीपत के डी.सी मुख्य अतिथि थे पर उन्हें किसी कारणवश कार्यक्रम शुरू होने के कुछ ही देर बाद जाना था जब कि अभी केवल एक दो स्थानीय कवि ही अपने कविता प्रस्तुत कर चुके थे. डी.सी. को इसीलिए निवेदन कर के मुख्या अतिथीय भाषण के लिये बुलाया गया. डी.सी ने बहुत रोचक भाषण दिया व कवियों के प्रति बेहद सम्मान भी व्यक्त किया. पर डी.सी ने अपने भाषण में प्रहसन के तौर पर यह कह दिया कि एक बार एक व्यक्ति दूसरे के पीछे भाग रहा था. पूछे जाने पर वह बोला कि वह व्यक्ति मुझे अपनी कविता सुना गया मेरी नहीं सुन रहा. इसे सभागार ने तो प्रहसन के तौर पर लिया पर डी.सी साहब के मंच छोड़ कर नीचे जाते ही नंदन जी मंच पर अपने स्थान से खड़े हो कर माईक तक आए. वे मुस्करा कर बोले कि माननीय मुख्य अतिथि से मैं कहना चाहता हूँ कि हम सब कवियों को यहाँ बुलाया गया है, और हम यहाँ ज़बरदस्ती कविता सुनाने नहीं आए. कुछ क्षण सब लोग हक्के बक्के रह गए कि अब हमें कैसा महसूस करना चाहिए. पर डी.सी साहब भी उतने ही दिलदार व्यक्ति थे. वे मुस्कराते हुए मंच पर आए और क्षमा मांगते हुए बोले कि मेरा उद्देश्य केवल एक रोचक बात कहना था. अपने समस्त भाषण और जीवन में मैंने कवियों का आदर करना ही सीखा है. पर नंदन जी ने भी तुरंत उनका मूड ठीक करते हुए मुस्करा कर यही कहा कि वे तो आम धारणा को ठीक कर रहे थे और कि उनका उद्देश्य व्यक्तिगत रूप से आपत्ति करना नहीं था .

-प्रेमचंद सहजवाला
नंदन जी मृदुभाषी व गूढ़ गंभीर साहित्यकार पत्रकार की तरह कार में मेरे साथ बैठे रहे पर उन्होंने प्रोत्साहनवश अपनी नज़रें मुझ पर फोकस सी रखी थी व उनके चेहरे पर वही सौम्य मुस्कराहट ज्यों की त्यों स्थापित थी जैसे छोटों के लिये वह सुरक्षित हो. हिंदू कॉलेज जल्दी आ गया और शैलेन्द्र गोयल अन्य कई कवियों के बीच खड़े नंदन जी का इंतज़ार कर रहे थे. कुछ उत्साही बालिकाओं ने बढ़ कर स्वागत करते हुए उनके माथे पर तिलक लगाया. एक के हाथ में आरती थी. जब सब लोग एक स्वागत कक्ष में पहुंचे तो मैं शेष कवियों से भी मिल लिया. शैल चतुर्वेदी इतने गंभीर क्यों बैठे हैं भला? कहकहा क्यों नहीं लगा रहे? पर सोचा कहकहा तो वे मंच पर लगाएंगे. अभी कार्यकर्ताओं के बीच तो वे सौम्य से बैठे शैलेन्द्र जी को यात्रा-वात्रा की तकलीफें बता रहे थे. शैलेन्द्र जी एक एक का परिचय करवा रहे थे. मेरे विषय में सब से बोले – ‘इन्होने हिंदी साहित्य को ‘सदमा’ दिया है (यानी मेरे पहले संग्रह का नाम ‘सदमा’ है). इस पर सब लोग खूब हंस पड़े और नंदन जी बोले – ‘साहित्यकार का का काम ही होता है ‘शॉक’ देना, यानी सदमा देना. इस के कुछ देर बाद नंदन जी से सब की एक गंभीर बातचीत आनन् फानन शुरू हो गई. मैं ने पूछा – ‘साहित्यकार व्यवस्था का विरोधी माना जाता है, पर इतने सारे साहित्य के बाद व्यवस्था तो ज्यों की त्यों है, ऐसा क्यों भला’?
नंदन जी ने कहा – ‘इस का कारण सिर्फ यही है कि आप के पास चिंता है पर समाधान नहीं और जिन के पास समाधान है उनके पास चिंता नहीं है.’ नंदन जी के इस उत्तर पर आसपास के पूरे मौऔल को एक रोशनी सी मिल गई मानो, जैसे देश के एक विख्यात पत्रकार ने सब को दो टूक सच्चाई बता दी.

व्यक्तित्व के तौर पर यह श्रद्धांजलि लेख लिखते लिखते मुझे कवयित्री अर्चना त्रिपाठी की बात याद आ रही है जिन्होंने फोन पर बताया कि नंदन जी की आत्मकथा ‘गुज़रा कहाँ कहाँ’ से वे बेहद प्रभावित हुई. अपने इलाहाबाद से ले कर मुंबई तक के बहुत सुन्दर संस्मरण व धर्मवीर भारती की प्रशंसा और आलोचना एक साथ लिखी उनहोंने. इसलिए कुछ बातें विवादस्पद हो गई. कुछ लोगों ने नंदन जी की ही आलोचना की कि डॉ. धर्मवीर भारती के जीते जी अगर वे उनके विषय में यह सब लिखते तो बेहतर था. पर कुछ अन्य लोगों का मत रहा कि कई बार शालीनतावश व्यक्ति सामने कुछ नहीं कह पाता, इसलिए धर्मवीर भारती के साथ अपने खट्टे मीठे अनुभव उन्होंने उनके के जाने के बाद कहे. अर्चना त्रिपाठी को इस बात की भी प्रसन्नता थी कि उनके पिता श्री ब्रजकिशोर त्रिपाठी कानपुर में कन्हैयालाल नंदन के अध्यापकों में से रहे तथा एक बार त्रिपाठी जी स्टेशन पर खड़े थे तो एक नौजवान ने आ कर उन्हें सैल्यूट किया. त्रिपाठी जी के पूछने पर उस नौजवान ने अपना परिचय दे कर कहा कि ‘मैं कन्हैयालाल नंदन हूँ. मैं आप का ही एक विद्यार्थी हूँ’.

साहित्यकार पत्रकार के रूप में उनकी लेखनी बेबाक रही हमेशा. मुझे याद है कि उनका एक लेख छपा था जिसमें उन्होंने बहुत तीखे स्वर में लिखा था कि साहित्य में कुछ लोग ऐसे भी आ गए हैं जो सोचते हैं कि साहित्य केवल उनकी बदौलत है. हमें चाहिए कि ऐसे दादागीर लोगों को साहित्य से निकाल बाहर करें. उनके विषय में सुप्रसिद्ध कवि लक्ष्मीशंकर बाजपेयी ने बताया कि वे पत्रकारिता के महान स्तंभ थे. मुक्तछंद कविता के कवि होते हुए भी वे मंचों पर जाते रहे छंदबद्ध कविता को भी सम्मान देते रहे. देश के अनेक प्रतिष्ठित रचनाकार उनके ऋणी रहेंगे क्योंकि नंदन जी ने उन्हें राष्ट्रीय पहचान दिलाई’. लक्ष्मीशंकर बाजपाई जी की बात पर मेरी एक हाल ही की स्मृति भी ताज़ा हो गई. दिल्ली के मॉडर्न स्कूल में ‘श्रीराम मिल्स द्वारा आयोजित एक कवि सम्मलेन में मैंने 2009 में ही नंदन जी से बहुत प्यारी आवाज़ में एक गीत व एक छंदमुक्त कविता सुनी थी. मंच पर गोपालदास नीरज जैसी हस्तियाँ भी उपस्थित थी.

उन्हें ले कर हाल ही की एक ताज़ा स्मृति यह भी कि दिल्ली के प्रसिद्ध ‘हिंदी भवन’ में एक कविता पुस्तक ‘बूमरैंग’ का लोकार्पण हो रहा था जिसमें ऑस्ट्रेलिया में रहने वाले कुछ भारतीय कवियों की कविताएं संकलित थी और संकलन का संपादन ऑस्ट्रेलिया की ही रेखा राजवंश ने किया था. प्रायः लोकार्पण में संबंधित पुस्तक के रचनाकारों को बधाई दी जाती है तथा पुस्तक की भी भरपूर प्रशंसा की जाती है. लेकिन मंच पर उपस्थित नंदन जी को यह गवारा नहीं था कि रचनाकारों को उनकी सीमाएं बताए बिना ही लोकार्पण कार्यक्रम समाप्त किया जाए. उन्होंने अपने भाषण में बेहद दृढ़ तरीके से कहा कि इस संकलन में जो भारतीय ऑस्ट्रेलिया में रहते हैं, उन्हें अपना वतन हिंदुस्तान बहुत याद आता है, सो उन्होंने ये तमाम कविताएं लिखी हैं. पर मैं पूछता हूँ क्या अपने वतन की याद आना भर काफी है, क्या केवल याद आने भर से ही कविता हो गई? क्या कविता में शिल्प नाम की कोई चीज़ नहीं होती. क्या उदगारों को मांजना संवारना ज़रूरी नहीं है?’ उस सभागार में उपस्थित होते हुए मुझे लगा कि आज का रचनाकार केवल अपनी प्रशंसा सुनने का लोलुप है. कई तो चलते फिरते चेखव या मोपांसा वोपंसा भी यहाँ मिल जाते हैं. ज़रा सी भी आलोचना करने वालों की खैर नहीं. संबंधित लेखक आपका नाम सहज ही अनाड़ियों में शामिल कर देगा. लेकिन नंदन जी की दो टूक कटु बातों ने स्पष्ट कर दिया कि रचनाकार को प्रोत्साहित करने का एक तरीका यः भी है कि उसके प्रति सच्ची सद्भावना रखते हुए उसे उसकी सीमाओं से परिचित करवाया जाए. इतनी बेबाकी केवल नंदन जैसों में ही सम्भव है.

साहित्यकार डॉ. वीरेंद्र सक्सेना ने बताया कि दिल्ली में रह कर हर कोई उनके संपर्क में रहता था तथा किसी दुर्घटना के बाद छड़ी ले कर चलने के बावजूद और यहाँ तक कि बेहद अस्वस्थ होने के बावजूद वे कई कार्यक्रमों में देखे गए थे जो उनकी कर्मठता का ही प्रतीक है. लेकिन नंदन जी के विषय में जो कुछ चित्रा मुद्गल ने फोन पर कहा, वही इस कर्मठ साहित्यकार का असली परिचय है. चित्रा जी ने कहा कि वे अभी अभी दिल्ली से बाहर से लौटी तो उन्हें यह दुखद समाचार मिला. उन्होंने कहा कि ‘नंदन जी अपने जीवन का एक एक पल (उन्होंने ‘एक एक पल’ खूब ज़ोर दिया) पूरी सक्रियता से जीते रहे. ऐसा प्रेरणास्पद व्यक्ति हमें भी अपने जीवन का ‘एक एक पल’ सार्थक तरीके से जीने की प्रेरणा दे गया है. चित्रा ने कहा कि ऐसा व्यक्ति जीते जी तो प्रेरणा देता ही रहता है पर वह स्वर्गीय होते हुए भी स्वर्गीय नहीं रहता, क्यों कि जा कर भी हमें वह उसी सक्रियता व सार्थकता की प्रेरणा देता रहता है.

साहित्य व पत्रकारिता जगत के इस प्रेरणा स्रोत को मेरा शत शत प्रणाम.


मॉडर्न स्कूल, नई दिल्ली के कार्यक्रम में काव्यपाठ करते कन्हैया लाल नंदन






(जब मैंने उन्हें आखिरी बार काव्यपाठ करते हुए देखा)।

--प्रेमचंद सहजवाला

Thursday, August 26, 2010

एक बीमारी, जो दोस्तों से भी प्यारी है...

कमाल की चीज़ है ये टेंशन..इसके जलवे हर जगह देखने में नजर आते हैं और इतनी पॉपुलर होती जा रही है ये..हाँ जी, ऐसा ही है..लेकिन गलतफहमी ना हो आपको तो इसलिये लाजिमी है बताना कि यह किसी चिड़िया का नाम नहीं है और ना ही कोई ऐक्ट्रेस, माडल या ब्यूटी प्रोडक्ट है..बल्कि एक खास तरह का सरदर्द है..या सोशल बीमारी..इसी तरह ही इसकी व्याख्या की जा सकती है..आजकल लोगों को जरा-जरा सी बात पर टेंशन हो जाती है...कोई जरा सी बात पूछो तो बिदक जाते हैं..टेंशन हो जाती है..तो सोचा कि आज टेंशन के बारे कुछ मेंशन किया जाये...लोग कहते तो रहते हैं कि '' यार कोई टेंशन नहीं देने का या लेने का '' तो सवाल उठता है कि लोग फिर क्यों टेंशन देते या लेते है...ये टेंशन एक लाइलाज बीमारी हो रही है..अब कुछ लोग नेट पर काम करते हुये नेट पर ही खाने का ऑर्डर देकर पेट भरते हैं..बीबी को टेंशन नहीं देने का...या फिर बीबी को घर पर रोज खाना बनाने की सोचकर टेंशन हो जाती है ..दोस्त अपने दोस्त का हाल पूछते हैं तो कहेंगे '' कैसे हो पाल..तुम्हें कोई टेंशन तो नहीं होगी एक बात के बारे में सलाह लेनी है ''


एक वह दिन था जब लोग चटर-पटर जब देखो अपने घरों के आँगन, वरामदे, दरवाजे पर खड़े, छत पर बैठे, या फिर किसी चौपाल में, दूकानों में या कहीं पिकनिक पर बातें करते हुए दिखते थे..खुलकर बातें करते थे और खुलकर हँसते थे. स्टेशन ट्रेन, बस, दुकानों, फुटपाथ जहाँ देखो मस्त होकर बातें करते थे और सहायता करने में भी कोई टेंशन नहीं होती थी उन्हें..लेकिन अब आजकल कमरे में बंद करके अपना काम करते हैं, नेट पर जोक पसंद करते हैं और अगर बीच में कोई दखल दे आकर तो टेंशन हो जाती है. फैमिली के संग बात करना या बोलना मुश्किल..सब अजनबी से हो गये..सब नेट पर बिजी...दोस्तों के लिये समय है लेकिन दुखियारी बीवी के लिये नहीं...लेकिन उसमे भी कब टेंशन घुस जाये कुछ पता नहीं..वेटर को सर्व करने में टेंशन, हसबैंड को बीबी के साथ में शापिंग जाने की बात सुनकर टेंशन..बच्चों को माँ-बाप से टेंशन..तो दुनिया क्या फिर गूँगी हो जाये..अरे भाई, कोई हद से ज्यादा बात करे या किसी बात की इन्तहां हो जाये तब टेंशन हो तो अलग बात है..कहीं जाते हुए घर के बाहर कोई पड़ोसी दिख गया तो हाय, हेलो कर ली लेकिन उसके बाद हाल पूछते ही जबाब सुनने से वक्त जाया न हो जाये ये सोचकर उनको टेंशन होने लगती है..किसी बात का सिलसिला चला तो लोग बहाने करके चलते बनते हैं. डाक्टर मरीजों की चिकित्सा करते हैं तो कुछ दिनों बाद उस मरीज की बीमारी में दिलचस्पी ख़तम हो जाती है और अपनी टेंशन का मेंशन करने लगते हैं...तो मरीज़ को भी अपनी समस्या को मेंशन करते हुये टेंशन होने लगती है..और अपना इलाज खुद करने लगता है..जिस डाक्टर को मरीज की बीमारी की कहानियाँ सुन कर टेंशन होती है वो क्या खाक सही इलाज करेगा...डाक्टर ऊबे-ऊबे से दिखते हैं सभी मरीजों से..उनका वक्त कटा, पैसे मिले..मरीज भाड़ में जाये..जॉब को सीरियसली नहीं लेते..क्योंकि मरीजों से उन्हें टेंशन मिलती है. मन काँप जाता है कि जैसे इंसान किसी और ग्रह के प्राणी की विचित्र हरकतें सीख गया हो..बच्चे को उसके कमरे से खाने को बुलाओ तो उसे नेट पर ईमेल भेजना पड़ता है ऐसा सुना है किसी से...'' जानी डिअर, कम डाउन योर डिनर इज वेटिंग फार यू..मील इज गेटिंग कोल्ड. योर डैडी एंड आई आर वेटिंग ''..उसे पुकार कर बुलाओ तो कहेगा कि टेंशन मत दो बार-बार कहकर..अब तो मित्रों से भी बोलते डर लगता है..चारों तरफ टेंशन ही टेंशन दिखती है..हवा भी खिड़की से आती है तो उसे भी शायद टेंशन हो जाती होगी..किसी भिखारी को अगर पैसे दो तो उसके चेहरे पर संतोष की जगह टेंशन दिखने लगती है..दुकानदार से किसी चीज़ के बारे में तोल-मोल करो तो उसे टेंशन हो जाती है..लोग टेंशन देने या लेने की तमीज और तहजीब के बारे में सिर्फ अपने ही लिये सोचते हैं ..किसी का समय लेने में टेंशन नहीं लेकिन अपना समय देने में टेंशन हो जाती है..आखिर क्यों सब लोग चाहते हैं कि उनकी बातों से दूसरों को टेंशन ना हो लेकिन उनको दूसरों की बातों से टेंशन हो जाती है..और तो और खुद के लिये भी कुछ करते हैं लोग तब भी टेंशन नाम की इस बला से पिंड नहीं छूटता. घर का काम हो या बाहर का, पैकिंग करो, यात्रा करो, कहीं किसी की शादी-ब्याह में जाओ..हर जगह ही टेंशन इंतज़ार करती रहती है आपका. किसी से हेलो करना भूल जाओ, तो बाद में आपको टेंशन..ये सोचकर कि ना जाने उस इन्सान ने आपकी तहजीब के बारे में क्या सोचा होगा..ये जालिम '' टेंशन '' शब्द बहुत कमाल दिखाता है..इस टेंशन का क्या कहीं कोई इलाज़ है ? नहीं..शायद नहीं...मेरे ख्याल से यह आधुनिक बीमारी लाइलाज है.

आज कल जिसे इसका अर्थ भी नहीं पता है वो भी अनजाने में इसका शिकार बन गया है...ये जमाना ही टेंशन का है...जो लोग इससे जरा सा मुक्त हैं या जिनके पास कोई अच्छी चीज़ है तो उनकी ख़ुशी देखकर औरों को टेंशन होने लगती है..किसी के बिन चाहे ही ये चिपक जाती है..इसलिये अब जानकर इतना विचित्र नहीं लगता..जहाँ देखो वहाँ एक फैशन सा हो गया है कहने का 'अरे यार आजकल मैं बहुत टेंशन में हूँ .' आप किसी को पता है कि नहीं पर अब इसका इलाज करने वाले लोग भी हैं ( लोग ठीक नहीं होते है वो अलग बात है ) ये लोग पैसा बनाने के चक्कर में हैं..और जिन्हें अंग्रेजी में सायकोलोजिस्ट बोलते हैं या अमेरिका में श्रिंक नाम से जाने जाते हैं..वहाँ पर तो ये धंधा खूब जोरों पर चल रहा है..पर क्या टेंशन दूर होती है उनके पास जाने से..मेरे ख्याल से नहीं..बल्कि शायद बढ़ जाती होगी जेब से मोटी फीस देने पर..पैसे वाले लोगों के लिये श्रिंक के पास जाना और मोटी फीस देकर डींग मारना एक फैशन सा बन रहा है वहाँ..अब तो हमें बनाने वाले उस ईश्वर को भी शायद टेंशन हो रही होगी.

और अब मुझको भी टेंशन हो रही है सोचकर कि कहीं आप में से किसी को इस लेख को पढ़कर टेंशन तो नहीं होने लगी है..तो चलती हूँ..बाईईईई...दोबारा फिर मिलेंगे कभी...

शन्नो अग्रवाल

Tuesday, August 24, 2010

यही दुआ है मेरे भैया, तेरा-मेरा साथ रहे....

कहते हैं ये रेशम का धागा जब बहन अपने भाई की कलाई पर बांधती है तो दुआएँ बांधती है अपनी, दुआ करती है कि उसके भाई को दुनिया की कोई बुराई छू भी ना पाए, और भाई बदले में वचन देता है कि हर मुश्किल में वो अपनी बहन की रक्षा करेगा. बदलते वक़्त के साथ इस रेशम के धागे के रंग रूप बदल गए लेकिन इतने बदलाव के बाद भी भाई बहन के इस अटूट प्रेम में कोई कमी नहीं आई, राखी का ये त्यौहार भारत भर में, बड़े प्रेम के साथ मनाया जाता है. आज इस सुन्दर त्यौहार पर हमने सोचा क्यूँ न कुछ बहनों के विचार इस त्यौहार के सन्दर्भ में इकट्टे किये जाए,

दिल्ली से राशिका कहती हैं : मेरा अपना कोई भाई नहीं है, पर मेरे पड़ोस में मेरे एक भाई हैं जो कि मुस्लिम हैं, पर कई सालों से मैं उन्हें राखी बांधती आ रही हूँ, और याद भी नहीं इस बात को कितना वक्त हुआ, हर साल मैं उन्हें राखी बांधती हूँ, ढेर सारा स्नेह, और प्यारे से गिफ्ट्स भाई मुझे हर साल तोहफे में देते हैं, और साथ ही हमेशा से वो हर मुश्किल में, हर खुशी में, हर तकलीफ में साथ ही खड़े मिले हैं. एक बहन को और क्या चाहिए.

मेरे पड़ोस में एक छोटी सी बच्ची जिसकी उम्र है पाँच साल, कहती हैं, मैं तो राखी पे भैया से बहुत सारे पैसे लेती हूँ. :)

ऋतु और इनु का कहना है कि, हम दो बहने हैं, और हम दोनों से छोटा है हमारा भाई, छोटे थे तो त्यौहार को खेल समझ कर मनाते थे, अब समझ आई है, तो ईश्वर से बस यही दुआ करती हैं कि हमारे भाई को भगवान हमेशा बुरी बलाओं से बचाए.

पूनम का कहना है कि राखी आते ही एक ही बात ज़ेहन में आती है, गिफ्ट.. पूनम के दो बड़े भाई हैं, तो राखी के दिन तो पूनम जो जी में आता है भाई से माँग लेती है, और भाई अपनी प्यारी बहन को मन मर्ज़ी के गिफ्ट दिलाते हैं, पूनम कहती हैं, यह सब तो मजाक है, मैं ईश्वर से दुआ करती हूँ, कि वो मेरे भाई को हमेशा खुश रखे, वो जहाँ भी रहे खुशियाँ उनके साथ रहे.

अंबाला से ममता अपने भाई के लिए कहती हैं, 'जब शादी करके आ गई थी तब छोटे थे तुम...जब साल भर बाद मिलने गई तो चेहरे पर छोटी-छोटी दाढ़ी उग आई थी.....मैंने तुम्हें बड़ा होता नहीं देखा, बहुत मिस करती हूं तुम्हें...'

मेरा भाई बहुत नटखट है, हर बार गिफ्ट देने के नाम पे पहले खुद गिफ्ट मांगेगा.. पर बिना मांगे, हर बार उसे पता चल जाता है कि मुझे क्या चाहिए, और मेरी जरुरत की चीज़ें हाज़िर हो जाती है, मिठाई खिलाते वक्त कभी नाक पे कभी मुह पे लगा देता है, बड़ी मुश्किल से खिलाता है, पर मेरा भैया सबसे प्यारा है, मेरे लिए मेरा भाई मेरे सर की छत है जिसकी छाया में मैं महफूज़ हूँ, आज के दिन और हमेशा मेरी भी रब से बस यही दुआ है कि भगवान मेरे भाई को हर खुशी दे, और बुरी नज़र से बचाए.

दीपाली सांगवान

Saturday, August 21, 2010

बारिश बहा ले गई कपास और दलहन के दुख...

इस वर्ष जून में भले ही वर्षा कम हुई हो लेकिन जुलाई की वर्षा और अधिक भाव के कारण देश में कपास की बिजाई रिकार्ड स्तर पर पहुंच गई है। प्राप्त जानकारी के अनुसार 6 अगस्त तक देश के विभिन्न राज्यों में 103.37 लाख हैक्टेयर पर कपास की बिजाई की जा चुकी है जबकि गत वर्ष पूरे वर्ष में 103.29 लाख हैक्टेयर पर की गई थी। अभी तमिलनाडु में बिजाई जारी है और जानकारों का कहना है कि इस वर्ष रकबा 105 लाख हैक्टेयर के स्तर को पार कर जाएगा।
देश में बीटी कपास का रकबा दिनों दिन बढ़ता जा रहा है। इस वर्ष 103.37 लाख हैक्टेयर में से 91.10 लाख हैक्टेयर पर बीटी कपास की बिजाई की गई है। आंध्र प्रदेश में कपास का रकबा 10.26 लाख हैक्टेयर से बढ़ कर 15.96 लाख हैक्टेयर हो गया है जबकि महाराष्ट्र में 33.30 लाख हैक्टेयर से बढ़ कर 39.22 लाख हैक्टेयर हो गया है। इन दोनों ही राज्य में शानदार वर्षा हुई है और कपास का रिकार्ड उत्पादन होने का अनुमान है।
पंजाब और कर्नाटक में भी कपास की बिजाई अधिक क्षेत्र पर की गई है लेकिन गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान और हरियाणा में रकबा कम हुआ है। व्यापारियों का कहना है कि चालू वर्ष में अधिक निर्यात के कारण देश के किसानों को कपास के ऊंचे भाव मिलें हैं। विश्व बाजार में कपास के भाव लगभग 87 सेंट प्रति पौंड के आसपास चल रहे हैं जबकि गत वर्ष 64 सेंट चल
रहे थे। सरकार घोषणा कर चुकी है कि वह नए सीजन के आरंभ में निर्यात पर लगे प्रतिबंध को समाप्त कर देगी। इससे आगामी दिनों में देश में कपास के भाव में तेजी का अनुमान है। इसे देखते हुए देश में कपास का उत्पादन 300 लाख गांठ (प्रति गांठ 170 किलो) से ऊपर पहुंच जाने का अनुमान है। वास्तव में बीटी काटन के कारण भारत विश्व में कपास का दूसरा सबसे बड़ा कपास उत्पादक देश बन गया है। कुछ वर्ष पूर्व तक इसका स्थान तीसरा था, लेकिन अब अमेरिका तीसरे स्थान पर पहुंच गया है। पहला स्थान चीन का है। जानकारी के लिए चीन विश्व का सबसे बड़ा कपास उत्पादक, आयातक और उपभोक्ता देश है। सूती कपड़े के निर्यात में भी चीन का स्थान पहला है।

दलहन अधिक

इस वर्ष देश में दलहनों की बिजाई भी किसानों ने अधिक की है। अनेक स्थानों पर किसानों ने तिलहन के स्थान पर दलहनों की बिजाई की है। इस वर्ष दलहनों की बिजाई 88.37 लाख हैक्टेयर पर की जा चुकी है। गत वर्ष की इसी अवधि की तुलना में यह लगभग 12 लाख हैक्टेयर अधिक है। अरहर की बिजाई 27.62 लाख हैक्टेयर से बढ़ कर 34.13 लाख हैक्टेयर पर हो गई
है। उड़द और मूंग का रकबा भी बढ़ा है लेकिन अरहर की तुलना में कम। तिलहन के क्षेत्रफल में केवल 3 लाख हैक्टेयर की वृद्धि हुई है और 153.20 लाख हैक्टेयर पर की गई है। मूंगफली का क्षेत्रफल 35.73 लाख हैक्टेयर से बढ़ कर 46 लाख हैक्टेयर पर
पहुंच गया है। इसका प्रमुख कारण समय पर वर्षा के कारण आंध्र प्रदेश में रकबा 8 लाख हैक्टेयर बढ़ कर 12.57 लाख हैक्टेयर हो गया है। अरंडी का रकबा भी कुछ बढ़ा हैट लेकिन सोयाबीन, तिल और सूरज मुखी की बिजाई गत वर्ष की तुलना में पीछे चल रही है। मध्य प्रदेश और राजस्थान में सोयाबीन का रकबा कम है।

चावल व मोटे अनाज
चावल का रकबा 225.75 लाख हैक्टेयर से बढ़ कर 244.83 लाख हैक्टेयर हो गया। मक्का के रकबे में में लगभग 3 लाख हैक्टेयर की बिजाई हुई है। बाजरा का रकबा 64.14 लाख हैक्टेयर से बढ़ कर 75.90 लाख हैक्टेयर हो गया लेकिन ज्वार
का रकबा कुछ कम हुआ है।

राजेश शर्मा

Friday, August 20, 2010

वो कौन थी-1

रघुनाथ त्रिपाठी महुआ न्यूज़ चैनल में नौकरी करते हैं....दुबले-पतले से दिखते हैं, मगर ज़िंदगी का भारी अनुभव है....बैठक पर उनका पहला लेख आया है.....एक अनुभव है, जो उन्होंने किसी बारीक लम्हे में महसूस किया था...थोड़ा लंबा लेख था, इसीलिए दो भाग में लगाने का फैसला किया है...बैठक पर इनका स्वागत करें....

उस दिन बारिश हुई थी, तपती धरती की पूरी प्यास तो बारिश की बूंदे भी ना मिटा पाई लेकिन कुछ राहत जरूर हुई थी..दिल्ली में बारिश का होना भी खबर है...ऐसी खबर जिसके मायने हैं...वो पिछले दो दिन से अपने ऑफिस में था... नोडया सेक्टर 13 बी के दूसरे फ्लोर पर उसका ऑफिस था काम ज्यादा था लोग कम ...सो दो दिन से घर गया ही नहीं था... एक ही कपड़े में,बिना शेव किए,जुटा था काम पर मन थोड़ा अजीब सा हो रहा था लेकिन काम निपटाना था ...दूसरे दिन प्रियंका ने टोका भी था आप घर क्यों नहीं जाते ...उसने कहा था ये लोग ऐसे ही हैं..प्रियंका उसके साथ ही काम करती थी...प्रोडक्शन हाउस में उसके सिवा कुल 11 लोग ही थे ...दूरदर्शन और और दूसरे क्लाइंट के लिए प्रोग्राम बनता था वहां...एक और भी जरूरी काम था इसलिए भी वो रूक गया था.... ..उसे पहली सैलरी मिलनी थी...मिली नहीं थी लेकिन व्यस्त होने पर पर भी वो जब इस बारे में सोंचता तो एक झुरझुरी सी पूरे बदन में होती.....आखिरकार वो वक्त भी आया और उसे उसकी पहली सैलरी मिली.. पूरे चार हजार..... कैश में मिला था पैसा...100-100 के 40 नोट ...उसे तब 'वर्षा वशिष्ठ' की याद आई थी..'मुझे चांद चाहिए' की नायिका वर्षा वशिष्ठ ...पैसे जेब में डालने के बाद उसने सीधा बाथरूम का रूख किया ...दरवाजा बंद करने के बाद उसने जेब से पैसे निकाले थे और फिर उसे अपनी हथेलियों में फैला लिया था...फिर उसके रूपयों के गंध को अपने जेहन में उतारने की कोशिश की..ठीक वैसे ही जैसे वर्षा ने की थी ...वो उस पल को याद रखना चाहता था हमेशा के लिए ...बाद में उसे याद आया कि घर मां को भी इस बारे में बताना है...फोन पर उसने कहा कि वो इन पैसों को किसी के हाथ भेज देगा...मां ने कहा कि इसकी जरूरत नहीं है समझ लो मैने ले लिए ...हां हिदायत देते हुए कहा कि जूते जरूर खरीद लेना.. दिल्ली में अपने भाई के साथ वो रहता था जूते पहनने की आदत उसे थी नहीं और इस बात पर बड़ा भाई उससे हमेशा नाराज़ रहा करता था...भाई ने मां से शिकायत की थी ..तब उसने टाला था...अपने पैसे से जूते खरीदूंगा...सो इस बार बचने का कोई रास्ता नहीं था...कॉलेज के दिनों में भी हवाई चप्पलों में हास्टल से क्लासेज के लिए चला जाता ...जिंस खादी के कुर्ते और हवाई चप्पल उसकी पहचान बन गई थी...लोग कई बार उसे नाम से नहीं उसके कुर्ते से पहचान जाते..लेकिन प्रोडक्शन हाउस में लिबास बदलना पड़ा था उसे ..पैंट शर्ट पहनना पड़ता था ....बारिश अब रूक गई थी.कल के एपिसोड का एंकर शूट का काम भी खत्म हो गया था...रात के आठ बजे थे...उसने अंदाजा लगाया तुरंत निकला जाए तो 10.30 तक घर मुखर्जी नगर किराए के अपने घर पहुंच सकता है...उसने बॉस से इजाजत मांगी..बॉस ने जाने को कह तो दिया लेकिन ऐसे जैसे बहुत बड़ा एहसान किया हो... बाहर निकला तो बारिश की वजह से उमस बढी हुई थी बारिश तेज नहीं हुई थी लिहाजा सड़क साफ होने की बजाए कीचड़ से भरी थी...अब उसे लगा जूता खरीद ही लेना चाहिए...सेक्टर 13 बी से मेन रोड तक जाने में दस मिनट पैदल लगते थे रिक्सा उन दिनों उधर चलते नहीं थे पैदल ही जाना पड़ता था...सो कीचड़ से सने पैरों को लथेड़े वो बस स्टैंड तक जा रहा था ...नोएडा उस बस स्टैंड पर उस वक्त कम ही लोग होते थे ....अकेला निर्जीव से खड़ा रहता है था वो बस स्टैंड ..याद नहीं क्या नाम था लेकिन अब वहां काफी चहल-पहल रहती है... चमचमाती बिल्डिग में मैकडॉल्नड का और दूसरी कंपनियों के वजह की वहज से काफी चहल पहल रहती है...खैर वो जा अकेला घर जल्दी पहुंचने के लिए तेजी से चला जा रहा था...अभी एक जद्दोजहद और भी करनी थी..आईएसबीटी तक जाने के लिए 347 नंबर के बस में उस वक्त काफी भीड़ होती थी...बस 20 मिनट की देरी से आई थी भारी भीड़ के साथ....किसी तरह वो चढ तो गया लेकिन भीड़ इतनी ज्यादा थी कि उसे अपने हाथों के ना होने का एहसास होने लगा था..बारिश के बाद उमस काफी बढ़ गई थी लोगों के पसीने और खुद के पसीने से उसे उबकाई सी आने लगी...लेकिन ये रोजमर्रा की कवायद थी लिहाजा आदत तो नहीं समझौता कर ही लिया था.... समझौता भी कितना आसान सा शब्द है..जरा बोल कर देखिए एक अजीब का सकून का द्वंद उठता है...सपने टूटे तो कह दो समझौता कर लिया ...तरीके का काम ना मिले तो समझौता कर लो..समझौते की सीमा नहीं होती जब जी चाहे मन मुताबिक कर लो ...कम से कम किसी ग्रंथी से बचने के काम तो ये 'समझौता' आ ही जाता है...उसने भी सपने देखे थे...सपने अजीब से थे..ये सपना उसका अकेले का नहीं था चार दोस्तों ने एक साथ देखा था .......दोस्त थे इसलिए सपने भी साथ-साथ देखे थे... या यू समझ लीजिए दोस्त भी इसलिए बन गए क्योकि चारों के सपने एक जैसे थें.. रामजस हॉस्टल मे चारों जब शरूर में होते तो पूरी रात बहस करते...सुबह हो जाया करती ...बहस में कभी झगड़े जैसे बात नहीं हुई...दोस्त जो थे...किसी ने कभी किसी के पसंद को खराब नहीं कहा ...हॉस्टल में लोग डरते भी थे..लेकिन ये शायद ही किसी को पता था कि जब इलेक्सन होते तो चारों अपनी मर्जी से अपने लोगों के लिए काम करते....लोगों को लगता चारों किसी एक के लिए काम कर रहे हैं लेकिन ये हॉस्टल और कॉलेज इलेक्शन के तीन सालों में केवल एक बार हुआ था...जब चारों किसी एक का समर्थन किया था ..... चारों ने कभी किसी के लिए या फिर दोस्ती की खातिर भी समझौते नहीं किए.. लेकिन बाद मे सब ने समझौते किए...कुछ अलग करने का भूत उतर गया था एक ने ऑस्ट्रेलिया की राह पकड़ी आजकल वहीं किसी कॉलेज मे पढ़ा रहा है और बच्चों को समाज सुधार की प्रेरणा दे रहा है...गल्फ्रेंड से बनी नहीं.. इतना कायर नहीं था कि दुनिया छोड़ने की सोंचता लिहाजा देश छोड़ दिया......अब उससे तीनों का संपर्क भी नहीं है...एक ने इंश्योरेंस कंपनी ज्वाइन कर ली और लोगों का भला कर रहा है....एक आईपीएस है जम्मू कैडर पसंद ना आया तो गुजरात कैडर की लड़की पसंद कर ली, पत्नी आईएएस है दोनों मिलकर समाज सुधार रहे हैं...चौथा वो खुद था जिसने पत्रकारिता को पेशा चुना था और समाज सुधार का जरिया भी ...शुरू के दिनों में उसे लगा था तीनों से ज्यादा सही तो वहीं है लेकिन काम करते वक्त उसे समझ नहीं आ रहा था कि वो आखिर कर क्या रहा है...उसने खीज़कर एक बार तीनों से कहा भी था..'ब्लडी होल सिस्टम इज फेक एंड फुल ऑफ हिप्पोक्रेशी' उसे दमघोटू भीड़ में कॉलेज के दिन याद आते रूम नंबर 77 में दो साल फिर रूम नंबर 88 के दो साल उसे याद आते ..इन चार सालों में उसमें बदलाव आया बड़ा बदलाव ..तब लोग उसे जानते थे लेकिन लोगों को वो पहचानता नहीं था...कॉलेज में जब निकलता तो कई अनजान चेहरे उससे हाथ मिलाते, गर्मजोशी से मिलते कई बार उसे अजीब भी लगता लेकिन कॉलेज में उसे लोग जानते थे....दो साल डिपार्टमेंट में अनअपोज्ड जेनरल सेकेट्री रहा ...हॉस्टल कमिटी में चारों साल उसके नाम को प्रोपोज किया गया..कभी किसी ने विरोध नहीं किया...तीसरे साल प्रेसिडेंट के लिए जोर देने पर भी वो नहीं माना...उसने ये समझ लिया था कि किंगमेकर किंग से ज्यादा मायने रखता हैं उसने प्रिसेडेंट बनवाया था जिसके नाम को उसने प्रोपोज किया किसी ने विरोध नहीं किया...कई बार पूरे पैनल को खुद डिसायड करता लोग मुहर लगाते...बीए ऑनर्स हिस्ट्री उसका सब्जेक्ट था उसे बखूबी पता था कि मध्यकाल में कभी राजा की नहीं चली थी हमेशा किंगमेकर का महत्व रहा ....कई बार वो गलती करता लेकिन पछतावा होने पर भी जाहिर नहीं करता ....इससे उसकी अकड़ जो कम होती...सैंकेण्ड इयर में जाते जाते उसने सिगरेट पीने शुरू कर दी थी...उसके एक सीनियर राम द्विवेदी ने इशारे में समझाने की कोशिश की थी वो हमेशा इशारे में बोलते ...उन्होनें कहा था कि हां भाई 'टफ लुक' के लिए ये जरूरी है...उसने उनकी बात तो समझ ली लेकिन मानी नहीं ...उसे अपने आप पर भरोसा था कि जब चाहेगा वो छोड़ देगा...लेकिन ये हो नहीं पाया उसकी आदत में ये शुमार हो गया...कई बार देर रात, गेट मैन रामबीर से बीड़ी मांगने की नौबत तक आ जाती...या फिर 'एमकेटी' यानि 'मजुना का टिला' जाने की पैदल नौबत आ जाती लेकिन फिकर किसी बात की थी नहीं,कोई रोकने वाला नहीं कोई टोकने वाला नहीं ...फर्स्ट इयर के लड़के 'फच्चे' यानि फ्रेशर हुए तो भेज दिया तलब पूरी करने का जोगाड़ लाने नहीं तो किसी को भी सोते जगाया और निकल पड़े .... एक बार मेस में थाली गंदी होने पर उसने थाली हॉल में नचाकर फेकी थी...जानबूझकर किया था उसने...अटेंडेट घबरा गया था उसने कहा गल्ति हो गई...बाद में उसका एक सीनियर जिसकी वो बहुत इज्जत करता था उठकर उसके पास आए थे..उन्होने कहा था चलो आज तुम्हे बाहर खिलाता हूं ,मेस का खाते खाते उब हो गई है...वो समझ गया था उसने गल्ति की है वो उनके साथ चला गया था वो राम द्विवेदी ही थे...फिजिक्स ऑनर्स के डियू टॉपर ,यूपी बोर्ड में उन्होने पहला स्थान हासिल किया था... बिडला मेमोरियल नैनीताल के बोर्डिंग में सालों बिताया था ... मेस के घटना की चर्चा उससे नहीं की ..ये बात उसे और भी खराब लगी थी...उसने हॉस्टल लौटते समय पूछा था सर (सीनियर को सर ही कहते थे)कुछ बोलेंगे नहीं ...उन्होने इतना कहा कि तुम समझदार हो ..चीजे बदलती हैं ..बाहर दुनिया आपको भी बर्दास्त नहीं करेगी...इतना गुस्सा ठीक नहीं है...गुस्से में भी इनर्जी होती हो उसे पॉजेटिव बनाओं...मुझे दिल्ली की बसों में तरह तरह के लोग मिलते लेकिन गुस्से पर काबू करना मैने तभी से सीखा था... बर्दाश्त करना उसके बाद से हीं उसने सीखा...आज भी लोगों को बर्दाश्त कर रहा है.कभी इसे समझौता करना उसने नहीं माना हमेशा यही माना की एवरी डाग्स हैव ए डे..समय बदलता है उसका भी समय बदलेगा...बस में जेबकतरे भी होते हैं अचानक उसके जेहन में ये बात आई...पसीना और तेजी से बहने लगा था...वो कर भी क्या सकता था...कोई उस वक्त उसकी जेब में हाथ डाल उसके पैसे निकाल भी लेता तो इसका एहसास होने के बावजूद वो कर भी क्या सकता था.......उसके बस में कुछ था भी नहीं यहां तक की उसका फिलहाल बस में खड़े होना भी ..तभी किसी औरत ने चीख कर कहा था ...वो उसके थोड़े ही आगे थी इसलिए उसकी आवाज़ सुनाई दे गई...लेकिन जिसके बारे में कहा था उसे देख नहीं पाया...औरत ने कहा था इतनी भीड़ में खड़े होने की जगह नहीं है और तूने उसे भी खड़ा कर रखा है....बस में जोरदार ठहाका लगा था...उसने सोंचा इतने लोगों की बीच कितनी परेशानी में उस महिला ने ये बात कही होगी...पहले उसने जरूर कुछ इशारा किया होगा लेकिन फिर भी लड़के के हरकतों से बाज ना आने पर अपनी और उसकी दोनों की फजीहत की होगी....

रघुनाथ त्रिपाठी

Tuesday, August 17, 2010

देश का असली हीरो नत्था, जिसे हर हाल में मरना है...

अभी-अभी पीपली लाइव देखकर लौटा हूँ. मुझे लिखना तो थी समीक्षा लेकिन दिल नहीं करता कि इसकी एक फिल्म की तरह समीक्षा करूँ. क्योंकि सोचने वालों के लिए ये फिल्म एक फिल्म से कहीं ज्यादा है. ये सिर्फ एक तमाशा जिसमे कुछ कलाकार अपने जौहर का प्रदर्शन करते हैं, नहीं है. हालांकि फिल्म बनाने का तरीका ऐसा है कि हंसी-हंसी में बात हो जाए. आमिर खान ने फिर अपने आप को साबित किया...अपने आप को साबित करने से मेरा मतलब? कितने लोग हैं जो वो करते हैं जो वो करना चाहते हैं? बड़े-बड़ों से लेकर छोटे-छोटों तक हर कोई बाज़ार को देखकर चलता है, बड़ा आदमी उस चीज़ में पैसा लगाता है जिसके चलने की गारंटी हो और छोटा आदमी वो काम करता है जो चल रहा है. और फ़िल्मी दुनिया में ऐसे लकीर के फ़कीर भरे पड़े हैं. मैं खुद इस दुनिया में कुछ हद तक अन्दर जा चुका हूँ इसलिए मुझे पता है कि यहाँ एक कहानी फिल्म में तब्दील कैसे होती है. पैसे लगाने वाला सबसे पहला सवाल जो करेगा वो यही कि हीरो कौन है...अगर आपके पास एक चलता हुआ हीरो है तब तो आपकी कहानी किस्मतवाली है वरना आप कितने ही जूते रगड़ दीजिये कुछ नहीं होगा....तो ऐसे में नत्था को हीरो लेकर आपकी फिल्म कैसे बनेगी? फिर अगर हीरो आपके पास है भी तो गाँव की कहानी है सुनकर पहले तो लोग आप पर हँसेंगे और फिर आपकी कहानी कि ऐसी कि तैसी की जायेगी, उसमे आयटम सॉन्ग डाला जाएगा, कुछ गरमा-गरम डाला जाएगा और यो जेनेरेशन को ध्यान में रखकर धिन चक संगीत (?) बनाया जाएगा. ऐसे में अगर पीपली लाइव बनती है तो मैं कहूँगा कि निर्देशिका अनुषा रिज़वी की किस्मत ज़ोरदार है और आमिर खान को इस बात के लिए शाबाशी मिलनी ही चाहिए कि इस माहौल में रहते हुए भी वो ऐसी कहानियाँ चुनते हैं जो सचमुच कुछ कहती हैं. आप अगर पीपली लाइव देखें तो इसमें न तो कोई हीरो है, न कोई आयटम गर्ल है, न गरमा-गरम सीन हैं और न ही धिन चक संगीत है बल्कि ठेठ गावठी लोक संगीत है.
फिल्म की कहानी सभी को पता है, एक किसान अपनी ज़मीन को बिकने से बचने के लिए आत्महत्या की घोषणा करता है, करता क्या है उसका बड़ा भाई उससे ये करवाता है. फिर गन्दा खेल शुरू होता है मीडिया और राजनीति का. फिल्म को हास्य का रंग देकर बनाया गया है क्योंकि गंभीर बात न कोई करना चाहता है न सुनना चाहता है. और मैं तो कहूँगा कि हास्य का ये रंग भी सफल होगा इसमें संदेह ही है क्योंकि फिल्म देखने के बाद बाहर निकलने वाले संभ्रांत लोग बात को बिलकुल नहीं समझे, कुछ इसे आर्ट फिल्म कहकर खारिज करते पाए गए तो कुछ मुह बिगाड़ कर चले गए या फिर एक कॉमेडी फिल्म की रेटिंग दे कर चले गए. हो सकता है कुछ लोग उस बात को देख पाए हों जिसे फिल्मकार दिखाना चाहती थी, काश कि कुछ लोग तो हों ऐसे. कुछ लोगों की शिकायत है कि फिल्म मीडिया में उलझ कर रह गई लेकिन एक कहानी को आगे बढ़ने के लिए घटनाएं चाहिए और ये कहानी इसी तरह से आगे जा सकती थी जिस तरह इसे ले जाया गया है...मज़ाक-मज़ाक में गहरी बातें कही गई हैं क्योंकि सीधे-सीधे कोई बात कहना अब उपदेश कहलाता है. कुल मिलाकर फिल्म से जो उभर कर आता है वो एक ऐसे देश की सच्ची तस्वीर है जो हद दर्जे का भ्रष्ट है, संवेदनाहीन है और नकली है.
फिल्म में एक अंग्रेजी न्यूज़ चैनल की पत्रकार कहती है - "लोग डॉक्टर बनते हैं, इंजीनियर बनते हैं, हम जर्नलिस्ट हैं. ये हमारा पेशा है. और अगर तुम ये नहीं कर सकते तो तुम गलत पेशे में हो". ये बात वो कहती है एक ऐसे लोकल पत्रकार को जिसका ज़मीर उसे अन्दर से कचोट रहा है इस सब नाटक पर. ये इस देश की सबसे सच्ची तस्वीर है, यहाँ सब कुछ पेशा है....एक संगीतकार अगर संगीत के बारे में सोचता है तो वो गलत पेशे में है....एक कलाकार अगर कला के बारे में सोचता है तो वो गलत पेशे में है....एक डॉक्टर अगर मरीज़ के बारे में सोचता है तो वो गलत पेशे में है.....एक वकील अगर क़ानून और जुर्म के बारे में सोचता है तो वो गलत पेशे में है.......नेता अगर जनता के बारे में सोचता है तो वो गलत पेशे में है....हर किसी को वो माल बनाना है जो बिकता है...फिर चाहे उसके लिए उस मूल विचार की ही हत्या हो जाए जो उस काम के पीछे है. सब कुछ बाज़ार से चल रहा है....
और देश के महानगरों में रहने वाले लोगों को ये पता भी नहीं है कि उनके शायनिंग और २१वी सदी के इंडिया में ऐसी जगहें और ऐसे लोग और ऐसी जिंदगियां भी हैं. और मैं सचमुच ऐसे लोगों से मिला हूँ जिन्हें नहीं पता कि लोग इतने गरीब भी हो सकते हैं और इसी देश में रहते हैं. महीने के आखिर में जब मोटी-मोटी पगार उनकी जेबों में आती है तो उन्हें लगता है कि सभी की जेबों में ये पहुँच गई हैं. जबकि सच्चाई यही है कि असली इंडिया वही है जो इस फिल्म में दिखाया गया है. फिल्म के अंत में एक खेतिहर किसान आखिर में शहर पहुँच कर मजदूर हो जाता है और इस सन्देश के साथ कि १९९१ से २००१ के बीच ८० लाख किसान खेती छोड़कर मजदूर हो गए फिल्म ख़त्म हो जाती है. और आखिर वो आदमी क्या करे जिसका जीना मुश्किल हो जाए. खेती-किसानी की अगर बात करें तो अब तो ये हाल हैं कि खेती कोई करना नहीं चाहता. दूर क्यों जाएँ मैं अपनी खुद की कहूं तो मेरे पिताजी ने खेतों की ही बदौलत मुझे पढाया-लिखाया लेकिन मुझे हमेशा उससे दूर रखा...कोई भी आदमी जो खेती से जीवन बसर कर रहा है वो अपने बच्चों को ये कहकर डराता है कि पढ़ लो वरना खेती करना पड़ेगी जैसे खेती करना कोई बेहद गलीज काम हो. इस सब ने खेती को सबसे निचले स्तर पर ले जाकर पटक दिया है. ज्यादा से ज्यादा लोग खेत और गाँव छोड़कर शहर जाना और एक अदद नौकरी पाना चाहते हैं.....फिर यही दौड़ और चाह ऐसे लोग बनाती है जो बिना रीढ़ के हैं, जो तरक्की के लिए किसी के भी तलुवे चाट लेते हैं. सोचिये वो दिन जब सारे किसान खेती-किसानी छोड़ चुके होंगे और उनके बच्चे कहीं न कहीं नौकरी कर रहे होंगे....फिर उनके खाने के लिए अनाज कहाँ से आएगा...? और ऐसे बिना रीढ़ के नागरिक कैसा देश बनायेंगे?
बहुत सी बातें हैं....बातें ख़त्म नहीं हो सकती....सौ बातों कि एक बात ये कि मेरे ख़याल में ये देश तरक्की नहीं कर रहा है बल्कि ख़त्म हो रहा है. सब कुछ धीरे-धीरे नकली हो रहा है...अपनी सारी चीज़ें धिक्कारी जा रही हैं और एक अंधी दौड़ लगी हुई है. एक समय वो आएगा जब सब कुछ उधार होगा...अपना कुछ भी नहीं होगा. अब फिल्म की थोड़ी बातें करें तो एक बेहतरीन फिल्म है पीपली लाइव....अभिनय, निर्देशन, संगीत, संवाद...सब कुछ बेहतरीन. फिल्म में नत्था के बहुत थोड़े से संवाद हैं लेकिन वो अपने चेहरे और आँखों से वो सब कुछ कहता है. बहुत तकलीफ होती है ये देखकर कि किसान को हर किसी के पैर छूने पड़ते हैं, हर टटपुन्जिये के सामने गिडगिडाना पड़ता है. गरीब आदमी अपना स्वाभिमान कैसे बनाए रखे? अगर रखता है तो उसे आत्महत्या करनी ही पड़ेगी...नत्था तो हर तरह से मरेगा ही, या तो शर्म से या निराशा से या भूख से...समाज ऐसा ही बन गया है. नत्था की कहानी के बीच एक बहुत ही छोटी सी कहानी और भी है, हीरा महतो की...ऐसा किसान जिसकी ज़मीन नीलाम हो चुकी है और जो रोज़ बंजर ज़मीन से मिटटी खोदता है बेचने के लिए...उसके शरीर की हालत सब कुछ कहती है. और एक दिन उसी गड्ढे में वो मरा हुआ मिलता है...गाँव के लोकल पत्रकार का दिल दहल जाता है ये देखकर, उसे सब व्यर्थ लगने लगता है और किसी को भी चोट पहुंचेगी अगर उसके अन्दर भावनाएं हैं...ये एक छोटी सी कहानी उस सब नौटंकी की पोल खोलने के लिए जो मीडिया और नेता मचाये हुए हैं. फिल्म के हर कलाकार ने अपनी ज़िम्मेदारी बखूबी निभाई है. एक लम्बे समय के बाद राजपाल यादव को देखना बहुत अच्छा लगा. फिल्म में जो गाँव और जो घर दिखाया गया है वो बिलकुल असली है, इसी तरह के होते हैं गाँव और घर....कम से कम हमारे मध्यप्रदेश में तो हर तरफ यही तस्वीर है...गरीबी, गन्दगी और असुविधाएं...और फिल्म की शूटिंग भी मध्यप्रदेश के ही एक गाँव में हुई है. पहले उड़ान और अब पीपली लाइव...उम्मीद जगाती हैं कि कुछ अच्छे लोग पहुँच गए हैं फिल्म इंडस्ट्री में और हम और अच्छी फिल्मों की उम्मीद कर सकते हैं. अगर ४-५ भी आमिर के जैसे निर्माता हो जाएँ तो हमारी फिल्मों का कायापलट हो जाए. मैं ये सलाह दूंगा कि हर किसी को पीपली एक बार ज़रूर देखनी चाहिए क्योंकि जहां बाज़ार से सब कुछ तय होता है वहां अगर एक अच्छी चीज़ चल जाए तो आगे और अच्छी चीज़ मिलने की उम्मीद बढ जाती है.

अनिरुद्ध शर्मा

Sunday, August 15, 2010

असली पीपली लाइव

फ़िल्म जगत में बहुत कम ऐसी फ़िल्में आती हैं जिनका इंतज़ार महीनों से लोग किया करते हैं। उन्हीं में से एक फ़िल्म आई है ’पीपली लाइव’। अनुषा रिज़्वी द्वारा निर्देशित और आमिर खान प्रोडक्शन्स की यह फ़िल्म किसानों की आत्महत्या पर आधारित है। अब चूँकि पन्द्रह अगस्त नज़दीक था और दो दिनों की "छुट्टी" थी तो मेरी टीम ने सोचा कि क्यों न फ़िल्म देख ली जाये। बाहर भी जाना हो जायेगा और एक अच्छी फ़िल्म भी देख ली जायेगी। शुक्रवार दोपहर की टिकटें बुक करवाईं और हम पहुँच गये हॉल।
फ़िल्म की शुरुआत में ही ’देस मेरा रंग्रेज़’ बजा। "राई पहाड़ हैं कंकड़ शंकड़..बात है छोटी बड़ा बतंगड़.." और फिर आगे चलकर "जेब दरिदर, दिल समन्दर" दिल को छूने वाले बोल और इंडियन ओशन का टिपिकल संगीत। कहानी तो सब को मालूम है कि किसान कर्ज़ा न चुकाने की वजह से आत्महत्या करने का ऐलान कर देता है। हमारे यहाँ हर कोई अपने आप को फ़िल्म समीक्षक समझता है तो सोचा कि मैं भी अपने कुछ विचार रखूँ। हर समीक्षक अपने तरीके से किसी फ़िल्म को अंक देता है। पाँच में से जितने स्टार उतनी उम्दा फ़िल्म।
जिस कहानी को आधार बना कर आमिर खान और अनुषा रिज़्वी ने फ़िल्म बनाई उस लिहाज से ये मील का पत्थर साबित हो सकती थी। हो अभी भी सकती है क्योंकि इसके पीछे आमिर खान हैं। आज की तारीख में किसी फ़िल्म की सफ़लता का श्रेय काफ़ी हद तक की उसकी पब्लिसिटी को जाता है। शाहरूख और आमिर की फ़िल्में रिलीज़ होने से पहले ही हिट हो जाती हैं। इस फ़िल्म को भी देखने दर्शक जरूर पहुँचेंगे और आमिर होंगे मालामाल।
मुद्दे की बात पर आता हूँ। यह फ़िल्म आपको ’रंग दे बसंती’ अथवा ’तारे जमीन पर’ जैसी बिल्कुल नहीं लगेगी। इस फ़िल्म की शुरुआत गालियों से हुई तो समझ में आया कि इसे ’ए’ रेटिंग क्यों दी गई है। गाँव की देसी बोली दिखाने के लिये निर्देशक ने इनका प्रयोग किया। विशाल भारद्वाज से प्रेरित हुईं हैं शायद। खैर शुरुआत तो ठीक-ठाक हुई पर बीच में जाकर निर्देशिका उलझी हुई नजर आईं। करीबन एक घंटे तक मीडिया के बारे में ही दिखाती रहीं और मूल मुद्दा कहीं पीछे छूट गया। मीडिया कैसे बात का बतंगड़ और राई का पहाड़ बनाता है वो दिखलाया जाने लगा। ’नत्था’ के घर के बाहर मेला लग गया था। तरह तरह से मीडिया कर्मी "सबसे तेज़ खबर" दिखाने में लगे हुए थे। कोई जान बूझ कर नकली खबर बनाता दिखाया गया तो कोई लोगों से तरह तरह के सवाल पूछता है..वे ऊलजुलूल सवाल जो अमूमन प्रेस वाले पूछते हैं। दो लड़कियों को मंदिर के आगे बाल फ़ैलाते हुए दिखाया जाता है क्योंकि उन पर माता आ गई थी। इसी बीच ये भी दिखाया जाता है कि मीडिया राजनैतिक पार्टियों की कठपुतली के अलावा कुछ नहीं और इनका मकसद केवल टीआरपी बढ़ाना चाहें खबर हो ’हर कीमत पर’।
उस समय मैं दुविधा में था कि पौने दो घन्टे की फ़िल्म में सवा घंटे तक मीडिया वाले छाये रहते हैं और किसान की बात हाशिये पर होती है। लोग हँसते रहे क्योंकि हँसना सेहत के लिये लाभकारी है। शायद निर्देशिका कॉमेडी के जरिये अपनी बात पहुँचाना चाह रहीं हैं। हो सकता है। बीच में जब तीन -चार मिनट तक अंग्रेजी न्यूज़ चैनल पर किसानों की आत्महत्या की खबर आती है और केंद्रिय मंत्री नसीरुद्दीन शाह अंग्रेजी में ही जवाब देते हैं तो मेरी समझ के परे होता जाता है कि किसानों की बात किसानों तक ही नहीं पहुँचेगी तो कैसे काम चलेगा?
अंत में नत्था को गुड़गाँव की गगन चुम्बी निर्माणाधीन इमारतों में काम करते हुए दिखाया जाता है। आंकड़ों की मानें तो १९९१ से २००१ के बीच ८० लाख किसान खेती छोड़ चुके थे। मुझे लगता है कि ये संख्या अब कईं करोड़ों में होगी क्यों शहर "विकास" की ओर अग्रसर है। किसानों की खेती की जमीन ले कर उसी पर मॉल बनाने को विकास का दर्जा दिया जाता है। कुल मिलाकर जिस ’नत्था’ के लिये यह फ़िल्म बनाई गई उसको केवल आधे घंटे की कवरेज दी गई होगी। क्योंकि शायद आमिर खान भी जानते हैं कि नत्था को देखने कोई नहीं आता। लोग हॉल तक पहुँचेंगे और हँसते हुए लौटेंगे। ये फ़िल्म आपको कुछ भी सोचने पर मजबूर नहीं करती। ये ’रंग दे बसंती’की तरह दिलों में खून नहीं खौलाती, ये ’तारे जमीन पर’ की तरह आपको नहीं रुलाती। ये हँसाती है..आप हँसते हैं मीडिया हँसता है और ’नत्था’ रोता है।
जाते-जाते एक बात और। ’सब टीवी’ पर रात दस बजे एक धारावाहिक आता है "लापता गंज"। हर रोज़ आम आदमी से जुड़ी हुई बात को इसमें इतने सरल तरीके से बताया जाता है कि आदमी हँसबोल भी लेता है, गालियाँ भी नहीं सुननी पड़ती और दिल पर असर भी करती है बात। इसमें महँगाई पर भी दिखाया गया है, बड़ों का आदर करना भी, नेताओं और अफ़सरों का भ्रष्टाचार भी है, नाले में गिरे हुए ’प्रिंस’ को कवर करता मीडिया भी है। इसमें वो सब कुछ है है जो आम लोग की आम ज़िन्दगी पार असर करे। लोगों को इस सीरियल का नहीं पता होगा क्योंकि इसमें आमिर खान नहीं हैं। समीक्षक इसको रेट नहीं करेंगे क्योंकि यहाँ से पैसा नहीं मिलता। यदि आपको ’पीपली’ लाइव देखनी है तो आप ’लापतागंज’ देखिये। यही है असली ’पीपली’।

~ जय हिन्द।

--तपन शर्मा

Saturday, August 14, 2010

स्वतंत्रता दिवस और मेरी पॉजिटिव सोच

स्वतंत्रता दिवस के लिए कुछ लिखने बैठा तो इस बार सोचा था कि कुछ पॉजिटिव ही लिखूंगा…बहुत सोचा, कुछ अच्छी बातें आईं भी दिमाग में लेकिन हर चीज़ घूम कर फिर नकारात्मक हो जाती है. फिर मैंने सोचा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरी सोच ही नकारात्मक है लेकिन ये विचार भी आगे जाकर वहीँ पहुँच गया. अगर मेरी सोच नकारात्मक है तो ये सोच कैसे बनी, किसने बनाई….किसी भी इंसान का व्यक्तित्व कौन सी चीज़ें मिलकर बनाती हैं? उसका परिवार…उसके आस-पास का माहौल, समाज…फिर अगर मेरी सोच नकारात्मक दिशा में जा रही है तो उसका गहरा कारण है और मेरी ही नहीं इस देश में रहने वाले ज़्यादातर लोगों की सोच नकारात्मक है. ऐसा क्यों है? अभी कुछ दिन पहले ही मैं एक सर्वे पढ़ रहा था जिसके अनुसार भारत का नाम रहने लायक देशों की फेहरिस्त में बहुत नीचे था, साथ ही किस देश के लोग सबसे ज्यादा खुश रहते हैं, इसमें भी भारत का नाम बहुत नीचे है और इसके लिए सर्वे करने की ज़रुरत नहीं, हम अगर अपने आस-पास नज़र दौडाएं तो साफ़ हो जाएगा…सभी लम्बे-लम्बे चेहरे दिखाई देंगे. जीवन की वो उर्जा बहुत कम लोगो में दिखाई पड़ती है. हर आदमी डरा-सहमा सा जी रहा है. हर कोई असुरक्षा की भावना से लबालब भरा हुआ है. जीने का एकमात्र मक़सद सिर्फ पैसा कमाना है…सब घिसट रहे हैं. प्रतिभा का कोई मोल नहीं है, जो चीज़ बाज़ार में गर्म है सब के सब उस तरफ दौड़ पड़ते हैं. हर कोई अपने साथ जबरदस्ती कर रहा है. ऐसे में कोई खुश रहे भी तो कैसे? हर वक़्त तलवार लटकी है. वो काम कर रहे हैं जिसमे बुध्धि नहीं चलती लेकिन अपनी जगह से ज़रा भी हिल-डुल नहीं सकते, पीछे असुरक्षित लोगों की लम्बी कतार लगी है और ये कतार हर जगह है, एक जगह गई तो दूसरी जगह के लिए फिर कतार में लगना. ऐसे में सब येन-केन-प्रकारेण कोई जगह हासिल करने की जुगत में रहते हैं…भ्रष्टाचार को गाली दो लेकिन अपना मौका आये तो चूको मत. हर किसी के मुह से यही तर्क सुनाई देता है कि हम नहीं करेंगे तो दूसरा करेगा, क्या करें ज़माना ही ऐसा है करना पड़ता है...हर तरफ भ्रष्ट लोग, दोमुहे लोग, दोगले लोग, मौकापरस्त लोग, गन्दगी से भरे लोग………………………………………..
अब बात करें उस भारत की जिसके बारे में कहानियाँ कही जाती हैं, जिसे हर स्वतंत्रता दिवस पर महान बताया जाता है, ऐसा देश जिसमें सभी लोग प्रेम से भरे हुए हैं, एक के दर्द में सारे शामिल हो जाते हैं, जहां दया है, करुणा है, सत्य है, स्वाभिमान है. अच्छा लगा ना?
मुझे भी अच्छा लगता है ये सोचकर कि मैं ऐसे लोगों के बीच में हूँ जहां मैं आँखें बंद करके किसी पर भरोसा कर सकता हूँ…जहाँ अगर मैं बाज़ार में कुछ लेने जाता हूँ तो यकीन होता है कि मुझे जो मिलेगा वो अच्छा ही होगा उसमे बेईमानी की कोई गुंजाइश नहीं होगी. मैं दूधवाले को दूध लाने को कहूँगा तो मुझे दूध ही मिलेगा पानी नहीं और मुझे उससे उसके दामों के लिए झिकझिक नहीं करनी पड़ेगी. मैं जब रिक्शा में बैठता हूँ तो पहले मुझे २० मिनट कितने पैसे लोगे के शीर्षक से बहस नहीं करनी पड़ती, वो चुपचाप मुझे पंहुचा देता है और जो वाजिब दाम हैं वो मैं दे देता हूँ. जिसका जो काम है वो उसे अच्छी तरह से करता है. मुझे रोज़मर्रा की छोटी-छोटी बातों के लिए अपना खून नहीं जलाना पड़ता,…लेकिन ऐसा नहीं होता ना? सबका अनुभव इसका उल्टा ही होगा. आदमी को हर वक़्त चौकन्ना रहना पड़ता है कब कौन ठग ले कुछ नहीं कह सकते. इतना अविश्वास? अपने ही लोगों पर? लेकिन ऐसा है इसे कोई झुठला नहीं सकता. ये डर, ये असुरक्षा, ये तनाव, इन सबके साथ कोई खुल के कैसे जी सकता है? इंसान की आत्मा बंधी हुई रहती है, फडफडाती है…और ये आत्मा जब तक उड़ने के लिए खोल नहीं दी जाती तब तक किसी भी आजादी का क्या मतलब है?
अगर अंगरेजों की बात करें तो हम आज़ाद हैं लेकिन हमारी मानसिकता अब भी गुलामी में है. हर एक पीढ़ी के मन में पुरानी पीढ़ी इतना डर और असुरक्षा भर देती है कि आत्म सम्मान, उसूल वगैरह सब फ़ालतू लगने लगते हैं. ये ज़िन्दगी कोई गुलामों से बेहतर नहीं है…बात तो तब होगी कि हरेक आत्मा आज़ाद हो, वो जब चाहे पंख फैला कर आसमान में उड़ सके…….सब एक दूसरे के चेहरों से घबराए ना हो…
ये देश जो बातें अब तक दोहराता है (और सिर्फ दोहराता ही है, अमल में नहीं लाता), महानता की, उर्जा की, विद्वत्ता की ऐसा नहीं कि सब झूठ है, ऐसा एक ज़माना निश्चित रूप से था वरना ये वेद, ये उपनिषद क्या हैं? ऐसा संगीत जो आग जला दे या पानी बरसा दे...ये संगीत क्या है? वरना कृष्ण, बुद्ध, महावीर, नानक, कबीर, रामकृष्ण, विवेकानंद..............आदि-आदि, ये इतनी सारी महान आत्माएं क्या हैं? ये ज़मीन ज़रूर ही उपजाऊ रही होगी. वेद, उपनिषद हमारे ज्ञान का बेहतरीन नमूना बेशक हैं लेकिन कब तक इन्ही नामों के सहारे अपने को महान मनवाएंगे….अब और नया उपनिषद कोई क्यों नहीं लिखता…..हज़ारों सालों से क्यों भारत कुछ रचनात्मक नहीं कर पाया? ज़रुरत है आगे आने वाली पीढ़ी को इस तरह तैयार करने की कि वो कुछ मौलिक कर सके. अभी तो सब कुछ उधार ही चल रहा है, शिक्षा, संगीत, कला, भाषा….सब कुछ नक़ल है. और तुर्रा ये है कि इस नक़ल को ही अब ऊँची नज़र से देखा जाता है, हर वो इंसान जिसे अपनी खुद की किसी ऐसी चीज़ से प्यार हो पिछड़ा समझा जाता है.
ये देश फिर से उस उंचाई पर जा सकता है….हालात पूरी तरह निराशाजनक नहीं है….ज्यादा पुरानी बात नहीं है, अभी, इसी सदी में कुछ बहुत महान आत्माएं हुई हैं ....शिर्डी के साईं बाबा, कृष्णमूर्ति और ओशो……इतने महापुरुष आते हैं और चले जाते हैं लेकिन क्यों हम लोग सोये ही रह जाते हैं? अब भी समय है स्वतंत्रता दिवस एक मौका है अवलोकन का और कमियों को दूर करने का…हम इस तरह मनाएं ये दिन कि अपने अन्दर की हर तरह की गुलामी से हम आज़ाद हो जाएँ….किसी और की फिक्र छोड़ दें….एक आदमी अगर बदलता है तो उसके आस-पास का माहौल अपने आप बदलने लगता है, बिना कुछ किये ….कभी ना कभी आस-पास के लोग भी बदल जायेंगे. किसी शायर ने क्या अच्छी बात कही है - "कौन कहता है कि आसमान मे सूराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों"
तो इसी कामना के साथ कि हम अपनी हर तरह की गुलामी से आज़ाद हों ….स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ

-अनिरुद्ध शर्मा