Thursday, March 05, 2009

खींच लाई है सभी को कत्ल होने की उम्मीद ....

हिन्द-युग्म के प्रेमचंद्र सहजवाला पिछले ६ महीने से भगत सिंह की जीवनी और उनसे जुड़े दस्तावेजों पर पुनर्विचार कर रहे हैं तथा इंटरनेट के पाठकों के लिए हिन्दी में छोटे-छोटे आलेखों के रूप में जानकारियाँ दे रहे हैं। अब तक इस शृंखला क १० कड़िया प्रकाशित हो चुकी हैं। आज पढ़िए ११वीं कड़ी॰॰॰


पिछली कड़ियाँ
  1. ऐ शहीदे मुल्को-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार

  2. आशिकों का आज जमघट कूच-ए-कातिल में है

  3. क्या तमन्ना-ऐ- शहादत भी किसी के दिल में है (1)

  4. क्या तमन्ना-ऐ- शहादत भी किसी के दिल में है (2)

  5. देखना है ज़ोर कितना बाज़ू ए कातिल में है...

  6. सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है...

  7. हम अभी से क्या बताएं क्या हमारे दिल में है...

  8. रहबरे राहे मुहब्बत रह न जाना राह में...

  9. लज्ज़ते सहरा-नवर्दी दूरिये - मंजिल में है

  10. अब न अहले-वलवले हैं और न अरमानों की भीड़

इस लेख माला में यह पहले ही कहा गया है कि तत्कालीन कानून के अनुसार यदि कोई अभियुक्त अदालत में प्रस्तुत ही न हो, तो अदालत मुक़दमे को आगे नहीं बढ़ा सकती, जब तक कि अअभियुक्त का कोई वकील न हो. इन नौजवानों की भूख हड़ताल ने और इस कारण उनके अदालत में सर्वथा अनुपस्थित रहने ने ब्रिटिश को सचमुच एक धर्म-संकट में डाल दिया था. भूख हड़ताली अदालत में आते नहीं थे और न ही अपना कोई वकील करने को तैयार थे. इस धर्मसंकट से उबरने के लिए ब्रिटिश महारानी की तरफ़ से उच्च न्यायालय में एक अर्ज़ी रखी गई, कि अभियुक्तों की मर्ज़ी के खिलाफ सही, अदालत को उनकी तरफ़ से एक बचाव-पक्ष वकील नियुक्त करने की अनुमति दी जाए. पर उच्च न्यायालय ने अदालत को और भी मुश्किल में डाल दिया, उस अर्ज़ी को खारिज कर के. अब सरकार खिसियानी बिल्ली सी बन चुकी थी. सब से बड़ा अफ़सोस यह था कि सरकार न तो इन क्रांतिकारी नौजवानों को राजनैतिक कैदी का दर्जा देना को तैयार थी, और न ही उनकी किसी भी मांग को स्वीकार करने को तैयार थी. इस पर भी तुर्रा यह कि हम यहाँ अपनी अदालतों में न्याय करने ही तो बैठे हैं, यह दुनिया को दिखा दें. इस खिसियानी बिल्ली के पास अब एक और पंजा बचा था. वह था कि क़ानून में ही कोई संशोधन कर दो. और सितम्बर 1929 में एक दिन सदन की हालत विचित्र थी. ब्रिटिश की तरफ़ से गृह-सदस्य सर जेम्स क्रेरार एक निर्लज्ज से संशोधन का बिल प्रस्तुत करने को खड़े थे. उन्हें इस बात का आभास नहीं था कि जब बिल पर चर्चा होगी और मतदान होगा, तब सदन के विभिन्न सदस्य उनकी क्या गत करने वाले हैं. सर क्रेरार ने Code of Criminal Procedure (संशोधन) बिल सदन में रखा, जिस में प्रचलित कानून में एक नई संहिता S-540 B जुड़नी थी. इस के अनुसार:

'यदि किसी भी अभियुक्त ने स्वेच्छा से स्वयं को अदालत में प्रस्तुत होने के अयोग्य बना दिया है, तो जज या मजिस्ट्रेट उस अभियुक्त की अनुपस्थिति को दरगुज़र कर के अपनी जांच व अभियुक्त पर मुकदमा जारी रख सकता है, चाहे उस अभियुक्त का प्रतिनिधित्व कोई वकील कर रहा हो या नहीं...'

जबकि क़ानून के पास तो S-540-A के रूप में पहले से यह प्रावधान था कि:

यदि किसी अभियुक्त का प्रतिनिधित्व कोई वकील कर रहा है, और अभियुक्त ने स्वयं को अदालत में प्रस्तुत करने में अक्षम कर दिया है, तब अदालत उस की अनुपस्थिति को दरगुज़र कर सकती है, बशर्ते कि अभियुक्त ने कोई वकील कर रखा हो. और यदि उस का प्रतिनिधित्व कोई नहीं कर रहा तो अदालत मुक़दमे को फिलहाल मुल्तवी रखे. अदालत किसी भी हालत में अभियुक्त की अनुपस्थिति में मुकदमा नहीं चला सकती.

सदन में क्रेरार महोदय निर्लज्जता से ही कहे जा रहे हैं कि 'सदन के गणमान्य सदस्यों के मन में यह सवाल उठना लाज़मी है, कि क्या सचमुच सरकार के पास इस विकट परिस्थिति से उबरने का कोई इलाज नहीं था? क्या सरकार इन सभी अभियुक्तों को राजनैतिक कैदी मान कर उन की मांगों को पूरा नहीं कर सकती थी? मैं यह ईमानदारी से बता देना चाहता हूँ कि सरकार ने परिस्थिति की विकटता से मुक्ति पाने की भरपूर कोशिश की थी, परन्तु पंजाब सरकार ने न केवल इन अभियुक्तों को राजनैतिक कैदी मानने से इनकार कर दिया, वरन इन की एक भी मांग को मानने से भी पंजाब सरकार मुकर गई' (pp 77-78 The Trial of Bhagat Singh - Politics of Justice by AG Noorani). अपने संशोधन बिल का बिगुल बजाते हुए गृह सचिव एमरसन ने एक ऐसी बात कह दी कि सदन आक्रोश से भर उठा और सदस्य आक्रोश के मारे शोर मचाने लगे. एमरसन ने कहा कि कानून कैदियों की नस्ल भी देखता है. कि कैदी योरपीय है कि भारतीय. उस का रहन-सहन यदि योरापियों जैसा है तो भी उसे योरापियों के बराबर रखा जा सकता है. एमरसन ने यह भी कहा कि यदि भारतीय और योरपीय कैदियों को एक साथ रखा जाए तो प्रतिवर्ष सरकार का खर्चा 40 लाख के करीब अधिक हो जाएगा. जिस कौम के गवर्नर प्रारम्भ में अपनी ही सरकार को ख़त लिखते रहे कि यह बहुत विचित्र देश है, जातिवाद से पीड़ित है, अपढ़ सा है, उसी कौम के एक गृह-सचिव आज सदन को नस्लवाद का मन्त्र बता रहे थे, शायद इस से अधिक शर्मनाक बात भारत के ब्रिटिश-कालीन इतिहास में कोई और हो ही नहीं सकती थी.

इस बिल पर जो बहस हुई, उस में मोतीलाल नेहरू व मदन मोहन मालवीय ने तो ब्रिटिश सरकार को खूब लताड़ा फटकारा ही, पर आश्चर्य कि जिस नेता ने इस बिल को ले कर एक प्रकार से गृह-सदस्य व गृह-सचिव की चमड़ी उधेड़ कर रख दी, वे थे मोहम्मद अली जिन्ना. जिन्ना बहुत ऊंचे स्तर के बैरिस्टर थे. संविधान का अक्षरशः अनुसरण करना ही उनका उस समय मज़हब था. संविधान को क्षति पहुँचते समय शेर की तरह गरजना उन की शख्सियत का एक अहम् हिस्सा था. संवैधानिक तरीके से काम करना उन की दुखती रग थी. इस पर शुक्र कि उस समय तक उन के सर पर पाकिस्तान बनाने का भूत सवार नहीं हुआ था. पाकिस्तान का सपना उन्होंने सन 1937 के चुनावों में बुरी तरह हारने के बाद ही देखना शुरू किया था. तब तक वे कांग्रेस छोड़ कर पूर्णतः मुस्लिम लीग के हो कर रह गए थे और मुस्लिम समुदाय के एकमात्र प्रतिनिधि होने की गलतफहमी में जीते थे, जब कि सन् '37 के प्रादेशिक चुनाव में उन की पार्टी को केवल 4.5 % वोट मिले थे. इस सदमे की प्रतिक्रिया अस्वस्थ रूप से सामने आयी थी और देश ने विभाजन जैसी दर्दनाक चोट सही थी.

इस समय सदन में अध्यक्ष पद पर आसीन थे विट्ठल भाई पटेल और जिन्ना गरज रहे थे:

'जो व्यक्ति भूख हड़ताल पर जाता है, उसके पास एक आत्मा होती है. वह उस आत्मा द्वारा संचालित होता है और वह अपने मक्सद के प्रति न्याय में विश्वास करता है... सरकार न्याय के मूल अधिकारों का बलिदान करना चाहती है और धोखे का सृजन करने के लिए चाहती है कि सदन इस सरज़मीन का क़ानून ही बदल दे (p 76 The Trial of Bhagat Singh - Politics of Justice by AG Noorani).

जिन्ना ने स्पष्ट किया कि गृह सचिव महोदय ने यह फरमाया है कि मुमकिन है कि माननीय सांसदों को अभियुक्तों से सहानुभूति हो. मैं यह कहना चाहूंगा कि मुझे अभियुक्तों से केवल इस सीमा तक सहानुभूति है कि वे सरकारी तंत्र के शिकार हो गए हैं, जिस का अर्थ यह नहीं कि मैं उन के अपराध का समर्थन करता हूँ. जिन्ना ने गृह सचिव की खिल्ली से उड़ाते कहा कि सचिव महोदय ने योरपीय होने की परिभाषा देते हुए कहा है कि यदि कोई टोपी पहनता है, तो कम से कम जेल के शब्दकोष में वह योरपीय ही है. पर भगत सिंह की जीवन शैली से तो यही दिखता है कि वे योरपीय हैं, क्यों कि वे तो हैट भी पहनते हैं और बरमूडा भी. बटुकेश्वर दत्त भी टोपी पहनते हैं. जिन्ना ने पंजाब सरकार को लताड़ते हुए कहा कि यदि सरकार के पास मस्तिष्क होता, तो इस समस्या का समाधान कब का कर चुकी होती. पर सरकार की मनःस्थिति कुछ इस प्रकार की रही होगी कि हम तुम अभियुक्तों पर मुकदमा भी चलाएंगे, और देखेंगे कि या तो तुम फांसी के तख्ते पर झूल जाओ या फ़िर उम्र भर के लिए देश निकला दे दिया जाए, पर जब तक तुम हमारी जेल में हो, हम तुम्हारे साथ सभ्य व्यहवार कतई नहीं करेंगे. जिन्ना ने अपनी सशक्त वकीलाना भाषा के शस्त्र से सरकार की आँखों में घूरता सा एक सवाल भी दागा : ' Do you wish to prosecute them, or persecute them (क्या आप इन पर अभियोग चलाना चाहते हैं, या अत्याचार करना चाहते हैं?). जिन्ना ने चेतावनी दी कि यह बिल पारित करने के बाद मैजिस्ट्रेट के सामने सारा मुकदमा एक तरफा हो जाएगा, क्यो कि अभियुक्त अपनी सफाई में कुछ कह ही नहीं पाएंगे. क्या यह एक बहुत बड़ा धोखा नहीं होगा?...मैं माननीय सदस्य से कहना चाहूँगा कि इस प्रकार भूख हड़ताल द्वारा मृत्यु की तरफ़ जाना हर किसी के बस का रोग नहीं है. यदि विश्वास नहीं तो थोड़ी सी कोशिश ही कर के देख लीजिये.. 'जो व्यक्ति भूख हड़ताल पर जाता है, उसके पास एक आत्मा होती है...' जिन्ना ने भाषण में जो सब से महत्वपूर्ण बात कही, वह यह कि कोई भी जज या मैजिस्ट्रेट जिसे ज़रा सी न्याय बुद्धि हो, वह अपने विवेक में ज़रा भी झटका महसूस किए बिना इस प्रकार का मुकदमा नहीं चला सकता या मुकदमा चला कर मृत्यु दंड नहीं दे सकता... जिन्ना ने तो सरकार के मुक़दमे की भी खिल्ली उड़ा कर कहा कि क्या कोई ऐसा भी मुकदमा है, जिस के लिए सरकारों को छः सौ गवाह प्रस्तुत करने पड़ रहे हैं. यह तो सचमुच एक बहुत बड़ा चुटकुला सा हुआ न... ((pp 81-82 वही पुस्तक). पंडित मोती लाल नेहरू ने अपने भाषण में एक महत्वपूर्ण बात कही कि उन के मन में उस व्यक्ति के लिए ज़रा भी सम्मान नहीं हो सकता, जिस पर चोरी या गबन का इल्ज़ाम साबित हो चुका है, परन्तु उन के मन में उस व्यक्ति के लिए पूरा सम्मान है, जिस ने जो किया, मन में यह पूर्ण विश्वास रख कर किया कि वह यह सब देश के लिए कर रहा है, भले ही उस ने जो किया, वह दिग्भ्रमित हो कर किया हो, भले ही जो उस ने किया वह वे स्वयं कभी न करें...' (p 93 वही पुस्तक). एक सदस्य जयाकर ने भी सभी क्रांतिकारियों की शान में प्रशंसा करते हुए कहा कि सदन में कुछ सदस्यों ने तो यह प्रामाणित करने की भी कोशिश की कि ये नौजवान, जिन में से कुछ तो बहुत ऊंचे हौसले वाले हैं, जो कुछ कर रहे हैं, वह अपने निजी स्वार्थ के लिए कर रहे हैं. पर क्या मुझे यह कहने की इजाज़त मिलेगी कि यदि भारत एक आज़ाद देश होता, तो इन में से ही कई नौजवान देश के जहाज़ों में कप्तान बनते, या सेना के कमांडर!' (pp 93-94 वही पुस्तक).

इस बिल को औधे मुंह गिरना था, सो गिरा. पर क्या सरकार ने अपना दृष्टिकोण बदला? क्या इन सभी बहादुर नौजवानों को राजनैतिक कैदी का दर्जा मिला? नहीं. जबकि ये तो अपनी मातृभूमि के वे सपूत थे, जिन के बारे में बिस्मिल की गज़ल कहती है:

खींच लाई है सभी को कत्ल होने की उम्मीद,
आशिकों का आज जमघट कूचा-ऐ-कातिल कातिल में है


पर सरकार का अगला कदम क्या था, और कैसे इन देश-भक्त जाँबाजों के मुकदमों के फैसले कर दिए गए, यह भी ब्रिटिश की निर्लज्ज तानाशाही की एक और ज़िंदा मिसाल थी, है, जिस के बारे में अगली बार.

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बैठकबाज का कहना है :

Divya Narmada का कहना है कि -

अमर शहीद भगत सिंह के मुकदमे का प्रमाणिक विवरन आँखें खोलने वाला है. इससे क्रातिकारियों के ज़ज्बात ज़ाहिर होते हैं यह भी पाता चलता है की गांधीजी के विरोध के बाद भी अधिकांश कांग्रेसी क्रातिकारियों से सहानुभूति रखते थे. लेखक साधुवाद के पात्र हैं. नयी पीढी के लिया यह एतिहासिक सचाई जानना ज़ुरूरी है.

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