Thursday, April 30, 2009

भूतपूर्व का महत्व

संदीप कुमार मील राजस्थान राज्य के सीकर जिले के रहने वाले हैं। वहाँ के एक स्थानीय कॉलेज से ग्रेजुएशन कर और अपने गाँव-जवार की बातें लेकर जब ये दिल्ली के जेएनयू में पोस्ट-ग्रेजुएशन करने पहुँचे तो हिंदी माध्यम के विद्यार्थी को अचानक ऐसा लगा कि एक गाँव से आने वाले किसान के लड़के के साथ पैसे वालो के व्यवहार में बहुत फ़र्क होता है, वे एक ऐसी नज़र से देखते है कि गरीब और उनके बीच कोई दीवार हो। इस हालत में इन्हें लगा कि ये सिर्फ संदीप नहीं हैं- ये उन लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो समाज कि मुख्यधारा से अलग है, इन्हें उनके स्वाभीमान को नहीं मरने देना चाहिए। इसीलिए अंतराष्ट्रीय संबंधों का विधार्थी होते हुए भी अपनी बात कहने का जरिया इन्होंने हिन्दी साहित्य को बनाया है। पत्रिकाओ में छपते रहते हैं। बैठक पर प्रकाशित होने का पहला अनुभव है। कला से कुछा ज्यादा ही प्रेम होने के कारण नाटक में अभिनय करना शुरू कर दिया है।. पिछले दो सालों से 'सहर' नामक संस्था के साथ रंगकर्म से जुड़े हैं। जेएनयू में लोग एक नाटककार, पोस्टर चिपकाने वाला, नारा देने वाला, कहानी लिखने वाला आदि कई नामों से इन्हें जानते हैं। वैसे प्रगतिशील आदमी हैं। कहते हैं-जिनगी का कोई ठिकाना नहीं है जो मन में आता है वही करता हूँ॰॰॰॰

जबकि हर तरफ नेता-चुनाव-लोकतंत्र की चर्चा है तो ये भी इससे अछूते नहीं है। अपने व्यंग्य के ज़रिए 'भूतपूर्व' की महिमा बता रहे हैं।



साधारणतया लोग भूतों से डरते हैं मगर इस देश के राजनेता, प्रशासक, सैनिक अधिकारी आदि लोगों को भूतों से बहुत प्रेम हैं। वे जब तक पद पर बने रहते हैं तब तक बेचारे भूत की कोई फिक्र नही करते और पद छोड़ते ही श्रीमान जी अपने पीछे `भूतपूर्व' हो जाते हैं। जैसे- भूतपूर्व प्रद्यानमंत्री, भूतपूर्व मुख्यमंत्री, भूतपूर्व सचिव आदि। इन दिनों तो यह प्रचलन इतना बढ़ चुका है कि लोग अपने नाम के पीछे 'भूतपूर्व चोर' भी लगा लेते हैं। जिसका अर्थ बताते हैं कि वो पहले चोर थे मगर अब आध्यात्म अपना लिया है। फिर भी उन्हे अपने भूतकाल पर इतना फ़क्र होता है कि वो आज भी पहले `भूतपूर्व चोर' लिखते हैं फिर अपना नाम।
हाल ही में इस देश में एक आदमी बीमार था। यूं तो हजारों लोग यहाँ मरते है जिनकी कहीं कोई चर्चा नही होती मगर वो भूतपूर्व प्रद्यानमंत्री होने के नाते रोज समाचार पत्रों की दो बाई दो की जगह घेरे रहता है। मेरा भी आजकल मन करता है कि मैं भी `भूतपूर्व' हो जाऊँ मगर मुझे भूतों से बहुत डर लगता है, इसलिए यह क्रांतिकारी कदम नहीं उठा सकता।
भूतपूर्व लगाने से आदमी को उसका भूतकाल हमेशा याद रहता है। वैसे सारे मनुष्य लगा सकते है `भूतपूर्व जानवर' ताकि आदमी को यह अहसास रहे कि वो कभी जानवर था, इसीलिए आज भी जानवरों जैसी हरकतें कर देता है। कल श्री राम सेना वाले भी अपने नाम के पीछे लगाएँगे `भूतपूर्व पब कलचर पर हमलाकारी'। मेरे दादा जी के एक दोस्त भूतपूर्व मंत्री हैं। वो कहते हैं कि जब हम मंत्री थे तब यह भ्रष्टाचार जैसी चीजों के लिए कोई जगह नहीं थी मगर अब क्या करें हम तो भूतपूर्व हो गये। वो बात अलग थी कि उनके सरकारी कार्यकाल के दौरान उनकी सम्पति मे अभूतपूर्व वृद्धि हुई। आज भी उनके यहॉँ आयकर विभाग का छापा नहीं पड़ता है क्योंकि उनके पास `भूतपूर्व मंत्री' का कवच है। उनकी गाड़ी को कोई पुलिस वाला नहीं रोकता क्योंकि वो अपनी गाड़ी की नम्बर प्लेट पर बड़े-बड़े लाल अक्षरों में छपवा रखा था `भूतपूर्व मंत्री'। बेचारे पुलिस वाले डरते है कि कहीं भूत इनका पीछा छोड़ दिया और यह सिर्फ मंत्री हो गये तो उनके बच्चों को मिड डे मिल पर काम चलाना पड़ेगा, और यह अपना भूत उनके पीछे लगाकर उन्हें `भूतपूर्व इन्सपेक्टर' बना देंगे।
वाह रे! कुर्सी जब तक नीचे है तब तक तो मजा है ही और नीचे से हटते ही लोग `भूतपूर्व' लगा कर मजा करेंगे। अगर उपयोगितावाद का यह सिद्धान्त बेचारे जरमी बेंथम को पता होता तो वह छाती पीट-पीटकर रोता कि वो हिन्दुस्तान में क्यों नही जन्मा?
कुछ दिनों पहले राजस्थान के विधानसभा चुनाव में मैं वहँ एक गावँ में था, उसी दिन एक विधायक पद के उम्मीदवार का भाषण था जो पहले मुख्यमंत्री थे और अब `भूतपूर्व मुख्यमंत्री' रह गये थे। वे सभा में आये और बोले, `भाइयों और बहनों मुझे बचा लिजिए, मेरी जान आपके हाथों में है, मुझे भूत से बहुत डर लगता है। आप इस बार अपना अमूल्य वोट देकर मेरा भूतपूर्व हटा दें ताकि मैं मुख्यमंत्री रह जाऊँ।"
मुझे भी इस भूतपूर्व शब्द से इतनी मोहब्बत हो गई है कि मैंने उठकर पूछा, "श्रीमान जी आपके भूतपूर्व वादों का क्या हुआ?"
वे जोश के साथ बोले, "मैं वादा करता हूँ कि मेरा भूतपूर्व हटने के साथ ही मैं वादों का भी भूतपूर्व हटा दूँगा तब मैं सिर्फ मुख्यमंत्री रह जाऊँगा और भूतपूर्व वादे सिर्फ वादे।"

Wednesday, April 29, 2009

आज़ादी से पहले और बाद के जूता-काण्ड

हि्द-युग्म के प्रबुद्ध पाठकों के लिए प्रेमचंद सहजवाला चंद चुनाव सम्बन्धी प्रश्न लाये हैं। इन दिनों नेता पर जूता-चप्पल फेंको प्रतियोगिता ज़ोरों पर है। उसी से जुड़े कुछ सवाल हैं। एक-एक प्रश्न के चार-चार विकल्प हैं जिन में से एक सही है और शेष ग़लत। पाठक Comment (टिप्पणी) में अपने उत्तर दे सकते हैं। शीघ्र ही मैं इनके उत्तर आपको बताये जायेंगे।

प्रश्न 1: आज़ादी से पहले कौन से कांग्रेस नेता पर एक कांग्रेस अधिवेशन में जूता फेंका गया था?
(a) मोतीलाल नेहरू
(b) मुहम्मद अली जिन्ना
(c) लोकमान्य तिलक
(d) महात्मा गाँधी

(संकेत - जूता जिस नेता पर फेंका गया उसे न लग कर दो अन्य नेताओं को लगा जिन में से एक पारसी था एक बंगाली)

प्रश्न 2 : आज़ादी के बाद एक लोक सभा चुनाव की रैली में कौन से नेता पर पत्थर फेंका गया जिस के फलस्वरूप उस की नाक fracture हो गई थी?

(a) अटल बहरी वाजपेयी
(b) इंदिरा गाँधी
(c) मार्गरेट अल्वा
(d) तारकेश्वरी सिन्हा

प्रश्न 3 : 'दो बैलों की जोड़ी' और 'हाथ' के चुनाव चिन्हों के बीच की अवधि में कांग्रेस का चुनाव चिन्ह क्या था?

(a) चरखा कातती औरत
(b) हल चलाता किसान
(c) चरखा
(d) गाय-बछड़ा

सोचिए-सोचिए। हैं ना मज़ेदार सवाल!

Tuesday, April 28, 2009

15वीं लोकसभा चुनाव को याद रखने के कई कारण

अबयज़ ख़ान टीआरपी बटोर रहे मीडिया चैनलों में से एक का अदना-सा हिस्सा हैं.....'हम ख़बर हैं' का भ्रम फैला रहे वॉयस ऑफ इंडिया न्यूज़ चैनल में इनके साथ काम करने का मेरा अनुभव महज़ तीन महीनों का है, मगर जब सोच एक-सी हो तो रिश्तों की मियाद बढ़ते देर नहीं लगती....हमने जब इनसे बैठक पर आने का न्योता दिया तो इन्होंने हिंदयुग्म को अच्छी-तरह देखभाल कर हामी भरी.....अब ये बैठक पर अक्सर नज़र आयेंगे.....ये भी बता दें कि ब्लॉगिंग की दुनिया में भी ये नये नहीं हैं.....

2009 का आम चुनाव कई मायनों में ख़ास रहेगा। मुद्दों से दूर इस बार का लोकसभा चुनाव बेमतलब की फूहड़ बयानबाज़ी के लिये याद रखा जाएगा। वरुण गांधी के ज़हर बुझे तीरों से शुरू हुआ चुनावी सफ़र अब तक के सबसे घटिया दौर से गुज़र रहा है। जनता को बेवकूफ़ बनाने के लिए नेता मुद्दों के बजाए एक-दूसरे पर कीचड़ उछाल रहे हैं। वरुण ने हाथ काटने की बात की, तो बिहार में राबड़ी देवी नीतीश कुमार के बारे में ऐसे-ऐसे बोल बोल गईं जो न सिर्फ़ तहज़ीब के खिलाफ़ थे, बल्कि देश की इमेज पर भी बट्टा लगा रहे थे। राबड़ी ने शुरूआत की तो लालू कहाँ पीछे रहने वाले थे। वरुण ने ज़हर उगला तो लालू वरुण पर रोड-रोलर चलवाने की धमकी दे गये। मतलब हर नेता तू सेर तो मैं सवा सेर साबित होने की कोशिश कर रहा था। लेकिन मज़े की बात ये है कि इस बार के चुनाव को नेताओं ने गंभीरता की बजाए प्रैक्टिकल ग्राउंड बना दिया। समाजवादी पार्टी ने ये जानते हुए भी कि संजय दत्त मुंबई मामले में दोषी हैं, उन्हें लखनऊ से लड़ाने का ऐलान कर दिया, लेकिन जब बाद में परमिशन नहीं मिली, तो संजय की जगह नफ़ीसा अली को मैदान में उतार दिया। इसका मतलब ये है कि यूपी की इस बड़ी पार्टी को लगता है कि लखनऊ के सिर्फ़ वही ठेकेदार हैं, और लखनऊ की आवाम को इसका फैसला करने का कोई अधिकार नहीं है। संजय दत्त को नेता बनाने पर तुली पार्टी ने उन्हें महासचिव बना दिया, तो मुन्ना बहनजी के खिलाफ़ ऐसी घटिया ज़ुबान का इस्तेमाल कर गये कि उन्हें लेने के देने पड़ गये। वैसे भी ले-देकर उन्हें एक ही डायलॉग आता है, 'मैं मुन्ना और आप मेरे सर्किट' वैसे उनके सर्वहारा भाई (जो अमूमन सभी फिल्मी सितारों के भाई बन जाते हैं) अमर सिंह ने तो रामपुर से जया प्रदा के चुनाव को अहम की लड़ाई बना लिया और अपनी ही पार्टी के आज़म खान को खरी खोटी सुना डाली। बयान बहादुर बनते-बनते अमर इतने भारी हो गये कि मंच भी उनका वज़न नहीं संभाल पाए।

चलिए अब यूपी से आगे बढ़ते हैं। नेशनल लेवल पर नज़र डालें तो मौजूदा पीएम और पीएम इन वेटिंग ने एक दूसरे के खिलाफ़ तलवारें निकाल रखी हैं। अभी तक दोनों एक-दूसरे को कमज़ोर साबित करने पर तुले हैं, लेकिन शायद दोनों को ही सियासत का कॉम्पलान पीने की ज़रूरत है। तो उधर बिहार में लालू और पासवान अपनी ही सरकार के खिलाफ़ मोर्चा खोले खड़े हैं। तलवारें तन गईं हैं और सभी की नज़र देश को एक मज़बूत सरकार देने के बजाए पीएम की कुर्सी पर लगी हैं। तो बिहार में प्रणव मुखर्जी, लालू को उन्हीं के अंदाज़ में जवाब दे गये। ये अलग बात है कि बाद में वो कमज़ोर हिंदी का हवाला देकर बयान से किनारा कर गये। तो यूपी में दिग्विजय सिंह मायावती को सीबीआई की धमकी दे गये। और तो और बीजेपी में जेटली और राजनाथ सिंह में ही तलवारें खिंच गई, वो भी सिर्फ़ इसलिये कि जेटली को लगने लगा कि राजनाथ, सुधांशु मित्तल को आगे कर उनके पर कतर रहे हैं। हालात ये हो गई कि बयान बहादुर नेताओं के आगे चुनाव आयोग भी बेबस नज़र आ रहा है। चुनाव कराने से ज्यादा बड़ा काम तो उसके सामने नेताओं को नोटिस जारी करने का है। हालात ये हो गई है कि चुनाव आयोग को भी शायद याद नहीं होगा कि इस बार उसने कितने नोटिस बांटे हैं। लेकिन इस बार के चुनाव को बिना जूते के कैसे भूल सकते हैं। चिदंबरम पर जूता पड़ा तो टाइटलर और सज्जन कुमार चुनावी आंधी में उड़ गये। जिंदल पर जूता पड़ा को कांग्रेस की और भी फ़ज़ीहत हो गई। जूते पर कांग्रेस को घेरने वाली बीजेपी भी इस वार से नहीं बची, भले ही पीएम इन वेटिंग चप्पल का निशाना बने हों, लेकिन ये तो साफ़ हो गया कि भगवा पार्टी में भी सब कुछ ठीक नहीं है। यानि अब तक जनता से जुड़े मुद्दे कहीं भी नहीं। मंदिर पर फेल हुई बीजेपी इस बार काले धन का रोना रो रही है, जिसका न तो आम आदमी से कोई मतलब और न ही पैसा आने से रहा। लेकिन सबसे दिलचस्प रहा समाजवादी पार्टी का मेनीफेस्टो। मुद्दों की बात तो दूर, जनाब तो अंग्रेजी और कंप्यूटर के सफ़ाये की बात ही कर गये। इस बार के चुनाव में क्या-क्या नहीं हुआ जो बताया जाए, जब नेताजी को कुछ नहीं सूझा तो उन्होने नोट बांटना ही शुरु कर दिये। मतलब लिखने को इतना कुछ कि किताब छप जाए, और शायद अगर इस पर किताब आ जाए तो बेस्ट सेलर भी बन जाए। ये उस देश के महासंग्राम का हाल है जहां दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कायम है। जहां सत्ता की कुंजी आम आदमी के हाथ में मानी जाती है, लेकिन चुनाव के बाद नेताजी की झोली भरती है और आम आदमी रह जाता है खाली हाथ। वैसे भी इस बार का ड्रामा देखकर तो यही लग रहा है कि ये नेता मंडली के कलाकार हैं और सब तमाशाई हैं, जिसका नाटक ज्यादा पसंद आयेगा उस पर वोट लुटा देंगे, और फिर उनके हाथ में सौंप देंगे अपनी किस्मत पांच साल के लिए। शायद इसीलिए ये चुनाव 'अमर' रहेगा। धन्य हो...मेरा भारत महान

Monday, April 27, 2009

चुनाव से पहले इम्तिहान देंगे नेता तब वोट करेगी जनता

"इस लोकसभा चुनाव में अब तक दो चरणों में औसतन 55 प्रतिशत मतदान हुआ। यदि देश भर की मीडिया 'वोट दो, वोट दो' नहीं चिल्लाती, तब शायद यह मतदान 35 प्रतिशत तक भी पहुँच सकता था। मतलब लोगों का इन चुनावों के ऊपर से विश्वास उठ रहा है। यह चिंता का विषय है।"

यह शब्द मेरे नहीं हैं, बल्कि देश के सबसे प्रसिद्ध बाबा स्वामी रामदेव के हैं, जो कल राष्ट्रीय सहारा द्वारा आयोजित 'चुनावः चिंता, चुनौती और समाधान' में मुख्य-अतिथि के तौर पर पधारे थे। मैं वहा उपस्थित था। बाबा ने इस बात की हिमायत की कि हमें वोट ज़रूर देना चाहिए। उन्होंने कहा कि लोग मुझसे पूछते हैं कि 100 में 99 बेईमान हैं, बाबा हम किसे वोट दें। मैं कहता हूँ, हालाँकि नहीं कहना चाहिए कि कम बेईमान को वोट दो।

बाबा ने बताया कि मैं आरोग्य विषय से हूँ लेकिन देश के आरोग्य को सर्वोपरि मानता हूँ। देश बीमार हो गया है, जिससे हम सब ग्रसित हैं। देश का प्रतिनिधित्व युवा करे या बुजुर्ग, इस विषय पर बोलते हुए रामदेव ने कहा कि बुजुर्ग कमजोर हो सकता, बीमार हो सकता है लेकिन युवा भी शराबखोर, चरित्रहीन, बेइमान, मक्कार हो सकता है।

एक बहुत ही रोचक और चौकाने वाले तथ्य की ओर बाबा ने इशारा किया। उन्होंने बताया कि एक पोलिंग बूथ पर कम से कम 700-800 मतदान करने की व्यवस्था होती है। इस कार्यक्रम में पूर्व चुनाव आयुक्त जीवीजी कृष्णमूर्ति भी सम्मिलित थे, उनसे रामदेव ने पूछा कि एक मतदाता को वोट करने में औसतन कितना समय लगया है? 4-5 मिनट। मतलब कि चुनाव आयोग ही एक पोलिंग बूथ से 200-250 मतों की ही उम्मीद करता है? यानी बाकि वोट फर्जी पड़ते हैं।

बहुत से चुनाव सुधारों की बात भी बाबा ने कही। जैसे-राजनेताओं की न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता निर्धारित हो, अदालत में प्रथम दृष्ट्या अपराधी चुनाव लड़ने से वंचित हों, व्यापारियों को देश नहीं चलाना चाहिए, उन्हें व्यापार करना चाहिए। चुनाव कराये जाने का समय निर्धारित होना चाहिए। गर्मी का मौसम है। पोलिंग बूथ पर पीने के पानी की व्यवस्था नहीं है। बुजुर्गों के लिए बैठने के लिए जगह नहीं है।

बाबा रामदेव के बाद जे॰एन॰यू॰ के कुलपति प्रो॰ बी॰बी॰ भट्टाचार्य ने अपनी बात कही। उन्होंने कहा कि उम्मीदवारों का पैन कार्ड बनना व आयकर रिटर्न भरना आवश्यक होना चाहिए ताकि यह पता तो चले कि उम्मीदवारों कहाँ से कितना कमाया है। मैं यह मानता हूँ कि वह सीए से हेर-फेर करके गड़बड़ रिटर्न बनवा लेगा, लेकिन फिर भी एक दबाव बनेगा।

भट्टाचार्य ने राजनेताओं की उदासीनता का उदाहरण देते हुए बताया कि हर बार बजट या किसी आर्थिक मुद्दे पर बहस के लिए टीवी वाले मुझे कार्यक्रम में बुलाते हैं। एक तरफ सत्तापक्ष का नेता और दूसरी तरफ विपक्ष का नेता और बीच में मैं। अपने देश की आर्थिक नीतियाँ बनाने वालों के बीच मैं बैठा हूँ। जैसे ही ब्रेक होगा, एक नेता पूछेगा, भट्टाचार्या जी इस बजट में जो-जो अच्छा है हमें बता दीजिए बोलना है, और दूसरा है वो पूछेगा जो-जो बुरा है वो बता दीजिए।

प्रो॰ भट्टाचार्य ने बताया कि इतने उदासीन लोग, इतने अनपढ़, गाँवार लोग हमारी लोकतंत्र की दिशा तय करते हैं, यह शर्म की बात है। उन्होंने नेता बनने के लिए न्यूनतम योग्यता निर्धारित करने की बात को दुबारा उठाते हुए कहा कि चुनाव लड़ने से पूर्व उम्मीदवारों की ऐसा परीक्षा अनिवार्य हो जिसमें भारतीय संविधान, देश की सुरक्षा, अर्थव्यवस्था व नीतियों से संबधित सवाल पूछे जाएं।

भट्टाचार्य ने कहा कि यदि सर्वे किया जाय तो शायद 15 प्रतिशत भी एसे पी॰ एम नहीं निकलेंगे जो आम बजट पढ़ते हों।

एक और महत्वपूर्ण बात भट्टाचार्य जी ने कही कि अभी तक किसी ने यह नहीं कहा कि भारत में चुनाव नहीं होने चाहिए, यह आशा की किरण है कि लोगों का लोकतंत्र से विश्वास नहीं उठा है।

इसके बाद पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जीवीजी कृष्णमूर्ति माइक पर आये। उन्होंने कहा कि चुनाव सुधार के लिए भारतीय संविधान में परिवर्तन के साथ-साथ जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 और कंडक्ट ऑफ इलेक्शन रूल 1961 में भी व्यापक संशोधन आवश्यक है। उन्होंने कहा कि चुनाव आयोग संविधान के अनुसार ही चलता है। इसलिए संविधान को बदलना जरूरी है।

कंस्सीट्यूशन क्लब (दिल्ली) में आयोजित इस संगोष्ठी के दो सत्र थे। पहले सत्र में सहारा परिवार के उपाध्यक्ष ओ॰ पी श्रीवास्तव भी बोले। उन्होंने बताया कि सहारा परिवार देश की स्थितियों को लेकर बहुत पहले से ही सजग है। यह चुनाव अभियान उस बीज-सजगता का विस्तार है।

गोष्ठी के दूसरे सत्र में सुप्रसिद्ध समाजसेवी अन्ना हजारे के उद्‍बोधन से गोष्ठी आगे बढ़ी। अन्ना ने बताया कि व्यक्ति यदि ठान ले तो बहुत कुछ कर सकता है। मैंने 26 वर्ष की उम्र में ही ठान लिया था कि मुझे शादी नहीं करनी, मुझे छोटा परिवार नहीं बसाना, बड़ा परिवार बनाना है। और मुझे बहुत खुशी है कि आज मेरे लाखो-करोड़ों बच्चे हैं। आज 72 वर्ष का होने के बाद भी दिल में समाज के लिए कुछ करने का जज्बा कम नहीं हुआ है। हमने ठान लिया था गाँव-गाँव में पर्यावरण (जमीन-पानी) के प्रति लोगों को जागरूक करना है। मुझे खुशी है पूरे महाराष्ट्र के किसी भी गाँव में पर्यावरण के प्रति लोगों में जागरूकता का अभाव नहीं है। गाँव के विकास से ग्रामीणों का शहर की तरफ पलायन घटता है।

अन्ना ने यह भी बताया कि वे लगातार आंदोलन करते रहे। सरकार तब तक आपकी बात नहीं मनाती जब तक उसे अपनी कुर्सी का खतरा ना हो। जब महाराष्ट्र सरकार को कुर्सी छूटने का खतरा महसूस हुआ तो 2001 में 'सूचना का अधिकार' कानून बना। बाद में 2005 में ये पूरे देश में लागू हुआ।

अन्ना ने कहा कि कि चुनाव सुधार के लिए जरूरी है कि जनता को ‘राइट टू रिकॉल’ मिले और बैलेट पर एक निशान मतदाता की नापसंदी का भी हो, अगर नापसंदी पर ज्यादा वोट मिलते हैं तो चुनाव निरस्त कर दिया जाए। उन्होंने कहा कि चुनाव में मतदान न करने वालों की सभी सुविधाएं बंद कर दी जानी चाहिए। मैं इसके लिए लड़ाई लड़ रहा हूँ।

दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश राजिन्दर सच्चर ने कहा कि इन दिनों राजनीति के अपराधीकरण का मुद्दा प्रमुख है लेकिन असल में यह अपराधियों का राजनीतिकरण है। पहले केवल राजनीतिज्ञ ही चुनाव जीतने के लिए अपराधियों का इस्तेमाल करते थे, लेकिन अब बाहुबलि जान गये कि जब हमारे ही बल पर चुनाव जीते जा रहे हैं तो हम ही क्यों जीतें? अन्ना हजारे के विचारों से ये भी सहमत दिखे।

भारतीय चुनाव आयोग के पूर्व सलाहकार केजे राव ने कहा देश को इस स्थिति से उबारने के लिए गंभीर लोगों को एक मंच पर आना होगा और लड़कर चुनाव सुधार करना होगा। आंध प्रदेश में उनकी संस्था ने बहुत से आशचर्यजनक परिवर्तन किये हैं।

सबसे अंत में बोलने के लिए पधारे उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण। इन्होंने बोला कि भारत की डेमोक्रेसी को रिप्रेजेंटेटिव (प्रतिनिधित्व) की जगह पार्टीसिपेटरी (भागीदारी) या डायरेक्ट (सीधा) होना चाहिए। कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर पूरे देश का विचार लेना आवश्यक है। आज का युग इंटरनेट का युग है। गाँव-गाँव से इंटरनेट के माध्यम से जनता का मत जाना जा सकता है। इन्होंने शक्तियों के विकेन्द्रीकरण की बात कही। प्रशांत भूषण ने कहा कि जनता लोकसभा चुनाव में जनता उम्मीदवार को वोट नहीं देती, बल्कि उसे वोट देती है जो सरकार बनाने में अहम भूमिका निभाएगा। अगर यह सोचा जाय कि आज एक अच्छा और ईमानदार आदमी चुनाव में खड़ा होता है तो क्या वो जीत पायेगा?

इन्होंने न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता पर अपनी असहमति जताई और बताया कि अनपढ़ लोगों में, इलीटरेट लोगों में पोलिटिकल अंडरस्टैंडिंग (राजनैतिक समझ) पढ़े-लिखे लोगों से भी ज्यादा होती है। के॰जे॰ राव सबसा अनूठा उदाहरण हैं। उनमें लो लीडरशिप क्षमता थी, वह किसी पढ़े-लिखे लोगों में भी नहीं देखने को मिली। प्रशांत भूषण ने उम्मीदवार के खिलाफ चार्जशीट दाखिल होने के चुनाव न लड़ने देने वाले विचार पर भी असहमति जताई। कहा कि मजिस्ट्रैड पुलिस के एफ आई आर के विना पर ही चार्जशीट तैयार करता है। विपक्षी पार्टियाँ किसी भी पार्टी के उम्मीदवार के खिलाफ एफ आई आर दर्ज करवा कर, चार्ज शीट दाखिल करवाकर चुनाव लड़ने देने से रोक सकती हैं।

उन्होंने कहा कि सबसे ज़रूरी है कि भारत की न्यायिक प्रणाली में सुधार हो। निर्णय जल्दी आयें। अभी जो 20 साल लगने वाला एक स्लो सिस्टम है वह भारत को आने नहीं बढ़ने दे रहा।

सहारा समूह प्रकाशन के प्रधान संपादक रणविजय सिंह के सबका धन्यवाद ज्ञापित किया। संगोष्ठी का संचालन जेएनयू के प्रो॰ आनंद कुमार ने किया। इन लोगों के अलावा गोष्ठी में दिल्ली विश्वविघालय के डिप्टी डीन (स्टूडेंट वेलफेयर) डा.गुरप्रीत टुटेजा, खालसा कालेज के प्रधानाचार्य डा.जसविंदर सिंह, दयाल सिंह कालेज के प्रधानाचार्य डा.दीपक मल्होत्रा, फेडकूटा के पूर्व अध्यक्ष प्रो.कपिल कुमार, आईआईएमसी के एसो.प्रो.आनंद प्रधान, डीयू के हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो. सुधीर पचौरी, प्रो.गोपेश्वर सिंह, जेएनयू के प्रो.देवेन्द्र चौबे, पूर्व मेयर आरती मेहरा, पदमश्री श्याम सिंह शशि, दिल्ली हिन्दी अकादमी के सचिव डा. ज्योतिष जोशी, एनएसडी के सुरेश शर्मा, दिल्ली कैथेलिक आर्चडाइज के निदेशक फादर डोमोनिक इमैनुअल, आईसीआई के सदस्य सहदेव कन्दोई, मौलाना आजाद दंत विज्ञान संस्थान के सहायक प्रोफेसर डा. ज्ञानेन्द्र कुमार, सर गंगाराम अस्पताल के सर्जन डा. विवेक कुमार, एम्स के हिन्दी विभाग के प्रमुख प्रेम सिंह, श्रीनीलम कटारा, वरिष्ठ पत्रकार तरूण विजय, प्रो. कपिल कुमार, लेखिका मैत्रेयी पुष्पा, सुप्रसिद्ध कवयित्री अनामिका, केन्द्र सरकार के एडवोकेट नवीन कुमार मारा, दिल्ली सरकार की मुख्य अधिवक्ता नजमी वजीरी, अधिवक्ता अशोक अग्रवाल, उपहार अग्निकांड पीड़ित एसोसिएशन के संयोजक नीलम कृष्णामूर्ति, शेखर कृष्णामूर्ति, गांधी शांति प्रिष्ठान के सचिव सुरेंद्र कुमार, दरस्गाह तफहीम कुरआन के संस्थापक अध्यक्ष हसन अमीर, मदरसा जीनतुल कुरआन के मोहतमिम मौलाना ताहिर, यूपीएससी के पूर्व चेयरमैन डा.एसआर हाशिम, पूर्व एयर मार्शल आरसी वाजपेयी, जेएनयू के प्रोफेसर तुलसी राम, कथक नृत्यांगन पुनीता शर्मा, युद्धरत आम आदमी पत्रिका की संपादक रमणिका गुप्ता, वाशिंगटन से आए टेक्नोक्रेट और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के विदेश नीति सलाहकार रहे शेखर तिवारी, बुंदेलखंड यूनिवर्सिटी के पूर्व उपकुलपति और भीमराव अम्बेडकर इंस्टीट्यूट ऑफ बायो मेडिकल साइंस के डाक्टर रमेश चंद्रा, पंजाब सरकार के अतिरिक्त महाधिवक्ता रणजीत कपूर आदि उपस्थित थे।

Sunday, April 26, 2009

किसानों के साथ भेदभाव

हालांकि सरकार दावा करती है कि वह किसानों की हमदर्द है और उसके हितों की रक्षा करती है लेकिन उत्तर प्रदेश के गेहूं उत्पादक किसानों के बारे में सरकार का यह दावा गलत साबित हो रहा है। सरकारी की गलत नीतियों के कारण आज उत्तर प्रदेश के किसान को उसके उत्पाद के सही दाम नहीं मिल पा रहे हैं और इसका लाभ चंद व्यापारी उठा रहे हैं।
तीन वर्ष पूर्व देश में गेहूं की कमी को देखते हुए और किसानों को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार ने गेहूं के न्यूनतम समर्थन मूल्यों में भारी बढ़ोतरी की शुरूआत की थी। उसका लाभ किसानों ने उठाया भी और जहां देश में गेहूं का उत्पादन बढ़ा वहीं सरकारी एजेंसियों ने भी रिकार्ड मात्रा में गेहूं की खरीद की।

गत वर्ष देश में गेहूं का उत्पादन 785.70 लाख टन हुआ था और इसमें से सरकारी एजेंसियों ने 227 लाख टन की थी। इसमें अधिकांश योगदान पंजाब व हरियाणा का रहा था और तीसरा स्थान उत्तर प्रदेश का था। पंजाब में सरकारी एजेंसियों ने 99.1 लाख टन की और हरियाणा में 52.37 लाख टन की खरीद की थी। उत्तर प्रदेश मे गेहूं की खरीद केवल 31.37 लाख टन की ही थी।

उल्लेखनीय है कि गेहूं के उत्पादन में पहला स्थान उत्तर प्रदेश का है जहां पर गत वर्ष 256.79 लाख टन का उत्पादन हुआ था जबकि 157.20 लाख टन के उत्पादन के साथ पंजाब का स्थान तीसरा और 102.36 लाख टन के साथ हरियाणा का स्थान तीसरा था।

इस प्रकार गत वर्ष गेहूं उत्पादन में पहला स्थान होने के बावजूद उत्तर प्रदेश में गेहूं की खरीद तीसरे स्थान पर रही।
इस वर्ष तो खरीद के मामले में स्थिति और भी खराब बनी हुई है। नवीनतम प्राप्त आंकड़ों के अनुसार सरकारी एजेंसियों ने 165.41 लाख टन गेहूं की खरीद की है। इसमें से 86.68 लाख टन की खरीद पंजाब में और 57.34 लाख टन की खरीद हरियाणा में की है। इस प्रकार कुल खरीद में से 144.02 लाख टन की खरीद तो केवल दो राज्यों में ही की गई है। उत्तर प्रदेश में इस वर्ष अब तक केवल 4.79 लाख टन की ही खरीद की गई जबकि राजस्थान में खरीद 5.97 लाख टन की हो हो चुकी है।

खराब स्थिति
गत वर्ष तो स्थिति काफी ठीक थी लेकिन इस वर्ष वहां के किसानों की स्थिति अच्छी नहीं है। चालू रबी विपणन वर्ष 2009-10 के लिए सरकार ने गेहूं के न्यूनतम समर्थन मूल्य 1080 रुपए प्रति क्विंटल तय किए हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश की मंडियों में गेहूं 930-940 रुपए प्रति क्विंटल तक बिक रही है। इसका कारण सरकारी खरीद के प्रबंध न होना है। दूसरी ओर, पंजाब और हरियाणा की मंडियों में सरकारी मशीनरी सक्रिय होने के कारण गेहूं के भाव न्यूनतम समर्थन मूल्य या इससे ऊपर चल रहे हैं।

उत्तर प्रदेश में सरकारी खरीद नहीं होने के कारण बरेली, हरदोई, शाहजहां पुर आदि के कुछ व्यापारी किसानों ने 930-940 रुपए के भाव पर गेहूं खरीद कर हरियाणा की मंडियों में ले जाकर उसे 1080 रुपए के भाव पर सरकारी एजेंसियों को बेच रहे हैं।

हरियाणा की सीमा से सटे क्षेत्रों मथुरा, कोसी, आगरा, मेरठ आदि में गेहूं के भाव 1025 रुपए के आसपास चल रहे हैं। इन क्षेत्रों के किसान अपनी गेहूं हरियाणा की मंडियों में बेच रहे हैं।
उत्तर प्रदेश ही नहीं केंद्रीय सरकार की नाक के नीचे यानी दिल्ली की मंडियों में भी गेहूं 1040 रुपए से 1060 रुपए के बीच बिक रही है। यहां से भी कुछ व्यापारी गेहूं खरीद कर हरियाणा की मंडियों में बेच रहे हैं। दिल्ली से गेहूं लेकर हरियाणा में बेचने पर लगभग 13 रुपए प्रति क्विंटल का खर्च आता है जबकि भाव 20/40 रुपए अधिक तो मिलते हैं ही बारदाना यानि बोरी भी बच जाती है।

--राजेश शर्मा

Saturday, April 25, 2009

सोने का पिंजर (12)

बारहवां अध्याय

मैंने पचास दिन तक अमेरिका तुझे देखा है, तेरे यहाँ की मानसिकता को अनुभव किया है। लेकिन केवल पचास दिनों की ही मैं बात नहीं कर रही है। मैंने तो तुम्हें तभी से जानना शुरू कर दिया था तब बेटा तुम्हारे आकर्षण से बँधा तुम्हारे यहाँ पढ़ने गया था। सितम्बर 2001 से तुम्हें मैंने जाना और धीरे-धीरे पहचाना। तभी से अपने आसपास, घर-बार में देखती रही हूँ तुम्हारे विभिन्न रूप और साथ ही भारतीय युवा-पीढ़ी का एक नवीन रूप। जो तुम पर आसक्त है। तुम पर मोहित है। भारत के बंधनों से दूर वे खुली हवा में सांस ले रहे हैं। हमारे यहाँ तो ठेठ गाँव से निकल कर आप कितनी ही दूर किसी भी महानगर में जाकर बस जाओ, आपके घरवाले और रिश्तेदार घूमते हुए आ ही जाएँगे। यदि आप दर्शनीय स्थानों पर रह रहे हैं तब फिर तो एक बहाना ही रहता है कि अरे अब तो अपना बेटा, भाई, भतीजा वहाँ रहता है, चलो उससे मिल भी आएँगे और जगह देख भी आएँगो। लेकिन अमेरिका जाना इतना आसान नहीं!
लेकिन अब अमेरिका भी तो कहाँ दूर रह गया है? अब तो माता-पिता और रिश्तेदार वहाँ भी पहुँचने लगे हैं। मुझे एक कहानी याद आ रही है। राजस्थान के एक राजा, युद्ध में हार जाते हैं। मरने के भय से वापस अपने शहर लौट आते हैं। लेकिन रानी इस कायरता को बर्दास्त नहीं कर पाती। वे शहर के दरवाजे बन्द करवा देती है। राजा सहित सारी फौज कई दिनों तक शहर के बाहर ही पड़ी रहती है।
आखिर एक दिन राजा की माँ आदेश देती है कि नगर के दरवाजे खोल दिए जाएं और मेरे बेटे को सम्मान सहित राजमहल में प्रवेश दिया जाए।
दरवाजे खुल गए और राजा रनिवास में आ गए।
माँ ने बहु से कहा कि बहु मेरा बेटा इतने दिनों बाद युद्ध से लौटा है, जाओ इसके लिए हलुवा बनाकर लाओ।
रानी हलुवा बनाने लगी। वह गुस्से में तो थी ही। कढ़ाई में हलुवे को जोर-जोर से पलटे से हिला रही थी।
माँ वहीं से चिल्लाई, बहु मेरा बेटा इतने दिनों बाद घर लौटा है। वहाँ लोहे से लोहे के टकराने की आवाज सुनकर माँ के आँचल में छिपने चला आया था, यहाँ भी तू लोहे से लोहा टकरायेगी तो फिर बेचारा अब छिपने के लिए कहाँ जाएँगा?
राजा तत्काल अपनी फौज लेकर रण के लिए चला गया।
हमारी नवीन पीढ़ी भी गृह-युद्ध से बचने के लिए तुम्हारे आँचल में शरण ली है, यदि अब पुनः उनके परिवारजन वहाँ भी जा पहुँचे तो फिर बेचारे किसकी शरण में जाएँगे? मेरा तो तुम से यही कहना है कि तुम हमारी राजमाता की तरह मन बनना। उन्हें कभी अपना कर्तव्य याद मत दिलाना। नहीं तो बेचारे वे कहाँ जाएँगे? उन्होंने यहाँ एक धारणा बना रखी है कि वे बहुत खुश है, खुशहाल भी हैं बस इसे बनाए रखना। भारत तो वैसे भी बूढ़ा हो चुका है। हजारों वर्षों से जी रहा है। आखिर कब तक और जीएगा? कभी तो इसका भी अन्त होना ही चाहिए न! तुम अभी जवान हो, अतः दुनिया के जवानों को अपने यहाँ एकत्र करो। अपना उत्थान करो। भारत के बूढ़ों का क्या है, उन्हें तो वैसे भी एक दिन मरना ही है।
भारत में राजस्थान ऐसा प्रदेश है जहाँ रेत के गुबार थे। पानी का नामोनिशान नहीं। फिर भी सेठाना था, लोग बड़ी-बड़ी हवेलियाँ बनाते थे। 10-20 कमरे तो आम बात थी, बड़े लोगों की हवेली में 100-100 कमरे हुआ करते थे। लेकिन धीरे-धीरे युवा-पीढ़ी को लगा कि यदि हम इन रेत के धोरों से बाहर निकलेंगे तो ज्यादा रईस हो जाएँगे और वे निकल गए, मुम्बई, कलकत्ता, मद्रास आदि बड़े महानगरों में। घर में बड़ी-बड़ी हवेली और मुम्बई में एक छोटी सी चाल! लेकिन जब गाँव लौटकर आते तो उनके लिए बग्गी लगती, ड्रेस वाला कोचवान सजता। धीरे-धीरे आकर्षण बढ़ा और राजस्थान के ये रेतीले धोरे रिक्त हो गए युवा-पीढ़ी से। रह गयी सुनसान, बाट जोहती हवेलियाँ। हवेलियों में उनके बूढ़े। शुरू-शुरू में तो बेचारा अकेले ही जाता था, अपनी नई नवेली दुल्हन को भी हवेली में ही छोड़कर जाता था। लेकिन फिर दुल्हन भी साथ ही जाने लगी। हवेली छोड़कर वो भी एक या दो कमरे के फ्‍लेट में रहने लगी।
मैं एक बार ऐसे ही एक सेठाने में गयी। मेरी एक सहेली वहाँ ब्याह करके गयी थी। देखा बड़ी सी हवेली है, बड़े-बड़े कमरे हैं। एक बैठक खाने में मोटे-मोटे गद्दे बिछे हैं, उनपर सफेद दूधिया चादरे बिछी हैं। दूसरे बैठक खाने में सोफे लगे हैं, गलीचे बिछे हैं। हमारे लिए बड़े से थाल में नाश्ता आया। जिसमें नाना प्रकार के व्यंजन थे। हवेली के पीछे धोबीखाना था, बड़ी सी गाड़ी का गेराज था। नौकरों के रहने की जगह थी। दिन में बहु-बेटियाँ बाजार में नहीं निकलती, रात होगी तब गाड़ी में पर्दे लगेंगे और फिर बहु-बेटियाँ शहर देखेंगी। हम अभिभूत थे, वो सेठाना देखकर। फिर महानगरों में भी इन्हीं सेठों का जीवन देखने का अवसर मिला। कोई चाल में रह रहा था और कोई दो कमरों के लेट में। ऐसी कोठियाँ तो शायद वहाँ टाटा-बिरला के पास भी न हो!
लेकिन अब वे हवेलियाँ उजड़ गयी हैं। रह गए हैं चैकीदार या किराएदार। मालिक कभी-कभार आते हैं। घर में जब विवाह का प्रसंग उपस्थित होता है तब ही गाँव की हवेली याद आती है। महानगर में तो शादी करें तो कहाँ करें? फिर दादा लोग अपना टेक्स वसूलने भी आ जाते हैं। इसलिए ये हवेलियाँ तभी सजती हैं और तभी इनमें चहल-पहल होती है। लेकिन तुम्हारे यहाँ तो सेठों के बच्चे नहीं गए, वे तो हमारे जैसे आम आदमी के बच्चे हैं। लेकिन अब वे आम घर भी सूने हो गए हैं। पहले राजस्थान में ही हवेलियाँ सूनी पड़ी थी लेकिन अब तो पूरे भारत के ही घर सूने हो रहे हैं।
बूढ़ों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। वे बेचारे नौकरों के भरोसे रह रहे हैं और नौकर भी मौका देखकर उनका गला काट लेते हैं। रोज ही की खबर है, बूढ़ों की हत्या। सरकार भी क्या तो करे? कोई भी नहीं समझ पा रहा कि जिस देश ने दुनिया को ही एक परिवार के रूप में माना आज वहीं परिवार संस्था टूटती जा रही है। अब भारत की सरकारें भी कानून बना रही है, उनके पालन-पोषण का। कैसा जमाना आ गया है, पहले मेरे घर में भी ताले नहीं हुआ करते थे। अब तो मुझे रोज ही नए ताले खरीदने पड़ते हैं। वे हवेलियां कम से कम वार-त्यौहार, शादी-ब्याह के अवसर पर तो गूँजती हैं, लेकिन यहाँ तो सारे घर ही सूने हो गए। किसी के भी घर चले जाओ, एकेले बूढ़े माता-पिता बाहर बराण्डे में बैठे मिलेंगे। वे खोज रहे हैं उस आवाज को जो उन्हें पुकार ले। उनसे बतिया ले।
अमेरिका तुम वो अप्सरा हो, जिसके पीछे हमारी नौजवान पीढ़ी भाग रही है। वे तुम्हें पाना चाहती है, तुम में रमना चाहती है। हमारे यहाँ से श्रवण कुमार, राम, भीष्म जैसे पुत्रों की परम्परा समाप्त हो गयी है। अब उन्हें वे भी मिथक मानने लगे हैं। उन्हें तो बस याद है केवल तुम्हारा भौतिक स्वरूप। वे उसे पाने के लिए कोई भी कीमत चुकाने को तैयार हैं। लेकिन फिर भी मेरा तुझको सलाम! कम से कम तुमने हमारी पीढ़ी को अहंकार से तो निजात दिला दी। पुरुष और महिला के अन्तर को तुमने इक सीमा तक समाप्त भी कर दिया। मुझे तो गर्व है कि अब हमारी महिलाएं भी वहाँ पति की तरह रहती हैं।
अमेरिका तुझे मेरा नमन! तेरे भौतिक स्वरूप को नमन! तेरे यहाँ बसी हमारी भारतीय पीढ़ी को नमन! नमन! किसलिए?
नमन इसलिए कि भारत अब भारत नहीं रहा। लेकिन वहाँ बसे भारतीयों के मन में भारत जन्म ले रहा है। हमारे त्यौहार बस एक परम्परा बनकर रह गये हैं जबकि तुम्हारे यहाँ वे उत्सव बने हुए हैं। युवा-पीढ़ी के आकर्षण के कारण बड़े लोगों का आकर्षण भी तुम्हारे प्रति बढ़ा है। अतः वे भी अब तुम्हें देखने जाने लगे हैं और तुम्हारा सच बाहर आने लगा है। जो कल तक तुमने हमारे अन्दर हीन भावना भरी थी अब वो मिटने लगी है। तुम्हारे यहाँ से आए माता-पिता अब कहने लगे हैं कि नहीं सुख तो भारत में ही है। जुबान का स्वाद तो भारत में ही है। तब मैं अपनी नवी पीढ़ी से कहती हूँ कि जब तुम्हें वहाँ अपनी खुशबू, अपने स्वाद की याद आए तब तुम भारत में आना। हमारे लिए नहीं आना। जब भी आओ स्वयं के लिए ही आना, तभी तुम भारत की कद्र कर सकोंगे। मेरी ये चंद पंक्तियां उन सभी को समर्पित हैं -

पीर गंध की जगने पर
हूक उठे तब तुम आना
मन के डगमग होने पर
अपने देश में तुम आना।

सन्नाटा पसरे मन में
दस्तक कोई दे न सके
चींचीं चिड़िया की सुनने
अपने देश में तुम आना।

घर के गलियारे सूने
ना ही गाड़ी की पींपीं
याद जगे कोलाहल की
अपने देश में तुम आना।

शोख रंगों की चाहत हो
फीके रंग से मन धापे
रंगबिरंगी चूंदड़ पाने
अपने देश में तुम आना।

सौंधी मिट्टी, मीठी रोटी
अपना गन्ना, खट्टी इमली
मांगे जीभ तुम्हारी जब
अपने देश में तुम आना।

बेगानापन खल जाए
याद सताए अपनों की
सबकुछ छोड़ छाड़कर तब
अपने देश में तुम आना।

कोई सैनिक दिख जाए
मौल पूछना धरती का
मिट्टी का कर्ज चुकाने तब
अपने देश में तुम आना।

वीराना पसरे घर में
दिख जाए बूढ़ी आँखें
अपनी ठोर ढूंढने तब
अपने देश में तुम आना।

तेरे वैभव से लौटने के बाद मेरी निगाहें पक्षियों पर चले गयी। यहाँ की गुलाबी सर्दियों में हजारों पक्षी विदेश से भारत चले आते हैं। उन्हें किसने बताया कि भारत स्वर्ग है? लेकिन उन्होंने खोज लिया। मुझे लगा कि हमारे पक्षी भी तो कभी चाहते होंगे, तेरे जैसे देशों का वैभव देखना। तो मैंने एक कल्पना की। तू देख कितना सच है और कितनी कल्पना है?

Thursday, April 23, 2009

मुसलमान बेआवाज़ क्यों

यह देख कर अफसोस होता है कि केरल में तो मुसलमानों का राजनीतिक संगठन है, पर अन्य राज्यों में नहीं। चुनावों के दौरान हमेशा यह सवाल उठता है कि मुसलमान किधर जाएंगे। सबका अपना-अपना अनुमान होता है और अपने-अपने तर्क। खुद मुसलमान नहीं बोलते कि वे किस दल का साथ देंगे और क्यों। अपना संगठन होने का एक और फायदा यह है कि वे विभिन्न दलों से मुसलमानों के हित में मोलभाव भी कर सकते हैं। मोलभाव में कोई बुराई नहीं है, क्योंकि लोकतंत्र में तरह-तरह के दबाव समूह काम करते ही हैं। यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है।

केरल में मुस्लिम लीग है। वह आम तौर पर वाम मोर्चे के साथ होती है। केरल में मुस्लिम लीग के बने रहने तथा राजनीतिक सफलता प्राप्त करने के दो मुख्य कारण हैं। एक कारण यह है कि वहाँ कई चुनाव क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ मुसलमान बहुमत में हैं या स्थनीय आबादी का बड़ा हिस्सा हैं। दूसरे, वाम मोर्चे का अंग होने के कारण वामपंथी दल यह खयाल रखते हैं कि मुस्लिम लीग कुछ सीटों पर विजय हासिल करे। एक तीसरा कारण यह भी है कि इस प्रगतिशील राज्य में मुस्लिम तबके के प्रति कोई असामान्य दृष्टिकोण दिखाई नहीं देता। जैसे ईसाई समाज का सामान्य और स्वीकृत अंग हैं, वैसे ही मुसलमान भी। किसी भी अच्छे समाज में ऐसा ही होना चाहिए।

उत्तर भारत में ऐसा नहीं है। सच तो यह है कि इसी क्षेत्र में मुसलमानों की सबसे ज्यादा सांसत है। वे न केवल अपेक्षया गरीब और कम पढ़े-लिखे हैं, बल्कि सामाजिक स्तर पर उन्हें भेदभाव का शिकार होना पड़ता है। सबसे बड़ी बात यह है कि उनका कोई राजनीतिक संगठन नहीं है। भाजपा को छोड़ कर सभी दल उन्हें अपनी ओर खींचने तथा उनका प्रतिनिधित्व करने का दावा करते हैं। लेकिन इससे उनकी किसी भी समस्या का समाधान नहीं होता। हाँ, यह जरूर होता है कुछ मुसलमान नेता मंत्री बन जाते हैं। जाहिर है, वे मंत्री पद अपने लिए ग्रहण करते हैं, न कि आम मुसलमानों के हित में।

राजनीतिक संगठन से कितना फर्क पड़ता है, यह बहुमत समाज पार्टी बनने के बाद दलितों में आए स्वाभिमान के उदाहरण से देखा जा सकता था। पहले उत्तर प्रदेश में दलितों की हालत बहुत खराब थी। अकसर उनके साथ सरकारी और गैरसरकारी हिंसा की जाती थी। समाज ही नहीं, प्रशासन भी उनका दमन और शोषण करता था। पर अब ऐसी स्थिति नहीं है। जाहिर है, अपना राजनीतिक संगठन हो, तो मुसलमानों की हालत में भी सुधार हो सकता है।

ऐसा क्यों नहीं हो पाता? इसका प्रमुख कारण यह है कि उत्तर प्रदेश और बिहार में कोई चुनाव क्षेत्र ऐसा नहीं है जहाँ से कोई उम्मीदवार सिर्फ मुसलमान मतदाताओं के भरोसे जीत सके। कुछ चुनाव क्षेत्रों में मुसलमान मतदाताओं का असर जरूर है, पर यह असर किसी मुसलमान उम्मीदवार को तभी जीता सकता है जब उसे अन्य समुदायों का भी समर्थन मिले। यह कोई कठिन बात नहीं है, बशर्ते मुसलमानों का जो राजनीतिक संगठन बने, वह अन्य समुदायों को अपना दुश्मन मान कर न चले। जब अन्य अनेक राजनीतिक संगठन मुसलमान को अपना दुश्मन या विरोधी मान कर नहीं चलते, तो मुस्लिम संगठन ऐसा क्यों नहीं कर सकते?

कायदे से तो जाति और धर्म के आधार पर कोई राजनीतिक संगठन नहीं बनना चाहिए। राजनीति का आदर्श रूप सर्व जनता की सेवा है। कोई भी सच्चा राजनीतिक संगठन यह दावा नहीं कर सकता कि वह किसी खास समुदाय के लोगों की सेवा करेगा, किसी अन्य समुदाय का नहीं। संत की तरह राजनेता का दरवाजा भी सभी समाजों और समूहों के लिए खुला रहना चाहिए। दुर्भाग्यवश ऐसा हो नहीं पाता। जाति और धर्म राजनीतिक संरचना में बुरी तरह हावी हो गए हैं। इसी को वोट बैंक की राजनीति कहा जाता है। प्रत्येक दल को किसी खास समुदाय या समुदायों का समुच्चय माना जाता है। इसका अर्थ यह है कि कोई भी राजनीतिक दल पूरे समाज का प्रतिनिधित्व नहीं करता, न करना चाहता है। इस स्थिति की मांग है कि मुस्लिम समाज के हितों की रक्षा के लिए एक या दो ऐसे राजनीतिक संगठन होने चाहिए जो मुसलमानों का सच्चा प्रतिनिधित्व कर सकें। जब पंजाब में अकाली दल हो सकता है, तो उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल में मुसलमानों का अपना दल क्यों नहीं हो सकता? यह प्रवृत्ति तभी समाप्त होगी जब राजनीति में जाति और धर्म का स्वर कम होता जाए और सभी राजनीतिक दल समाज के सामान्य हितों का संवर्धन करने के लिए प्रतिबद्ध हों। लेकिन हमारे भाग्य ऐसे कहां? अभी तो राजनीतिक और सामाजिक विखंडन का समय है।

चूंकि मुसलमानों का कोई दल अपने बल पर चुनाव नहीं जीत सकता, क्या इसलिए उनका राजनीतिक संगठन नहीं बनाया जा सकता? यह एक संकीर्ण दृष्टिकोण है। ऐसा संगठन अन्य दलों से तालमेल कर अपने लिए कुछ सीटों की व्यवस्था कर सकता है। इस तरह विधान सभा और लोक सभा में मु्स्लिम प्रतिनिधित्व बढ़ सकता है। लेकिन किसी भी मुस्लिम दल की सामाजिक भूमिका ज्यादा विस्तृत होगी। वैसे जरूरत तो यह भी है कि अन्य दल भी समाज सुधार की भूमिका निभाएं, पर मुस्लिम संगठनों के लिए यह और भी आवश्यक है। दुर्भाग्य से मुस्लिम समाज का मार्गदर्शन करने के लिए सिर्फ उनके धार्मिक संगठन ही हैं और उनमें से किसी की भी भूमिका आधुनिक या प्रगतिशील नहीं है।

मुस्लिम समाज का हित इसी में है कि वह अपने अहितकर रीति-रिवाजों से बाहर निकले। यह काम उनके राजनीतिक संगठन बखूबी कर सकते हैं। स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान कांग्रेस, कम्युनिस्ट पार्टी और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी यह काम किया करती थी। मुस्लिम लीग ने इस तरह के कामों की ओर ध्यान नहीं दिया। मिस्टर जिन्ना खुद आधुनिक थे, पर उन्होंने अपने अनुयायियों को आधुनिक बनाने की कोशिश नहीं की। उसका नतीजा आज का पाकिस्तान है। वहां कट्टरवाद ने लोगों का जीना हराम कर रखा है। आतंकवाद का जन्म भी उसी के पेट से हुआ है। हिन्दुस्तान का मुसलमान अपेक्षया ज्यादा लोकतांत्रिक है। पर उसका पारिवारिक और सामाजिक जीवन कई दृष्टियों से बाधित बना हुआ है। मुंबई के बम कांड के बाद मुस्लिम बुद्धिजीवियों में चेतना और उत्साह की लहर आई थी। पर वह जल्दी ही ठंडी पड़ गई। इसी के साथ भारत का मुसलमान बेआवाज भी हुआ है। यह जड़ता जल्द से जल्द टूटनी चाहिए। इसमें मुस्लिम समाज के साथ-साथ भारतीय समाज का भी हित है।

---राजकिशोर

Wednesday, April 22, 2009

अजय माकन को अपनी तथा मनमोहन सिंह दोनों की छवियों का दोहरा लाभ

प्रेमचंद सहजवाला हिन्द-युग्म के वरिष्ठ लेखक हैं। इन दिनों वे पाठकों के साथ भारतीय आमचुनावों की यादें बाँट रहे हैं। अभी कुछ ही समय पहले इनके इलाके रमेश नगर में कांग्रेस प्रत्याशी अजय माकन का आना हुआ। प्रेम ने सिटीजन पत्रकर का धर्म निभाया, माकन को कैमरे के मकान में बिठा लिया। आइए हम भी देखते हैं और पढ़ते भी-


दिल्ली के सात लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों में नई दिल्ली निर्वाचन क्षेत्र सर्वाधिक गर्मजोशी वाला निर्वाचन क्षेत्र रहा है. इस निर्वाचन क्षेत्र से जहाँ एक ओर अटल बिहारी वाजपेयी, एम एल सोंधी, मोहिनी गिरी, जगमोहन व लाल कृष्ण आडवानी जैसे सांसद रह चुके हैं, वहीं सन 1957 के लोकसभा चुनाव में इसी सीट से सुचेता कृपलानी ने 73% से भी अधिक वोट हासिल किए जो कि आज तक एक कीर्तिमान रहा है। यहीं से राजेश खन्ना व शत्रुघ्न सिन्हा की टक्कर हुई थी। राजेश खन्ना ने शत्रुघ्न सिन्हा को हरा दिया तो बाद में जब लाल कृष्ण आडवानी ने राजेश खन्ना को हरा दिया तब मीडिया ने चुटकी काटी के राजेश खन्ना तो शत्रुघ्न सिन्हा से बड़े अभिनेता हैं, पर लाल कृष्ण शायद राजेश खन्ना से भी बड़े अभिनेता हैं। जब सन् 80 में नई दिल्ली से चुनाव लड़ने के बाद मत-गणना केन्द्र पर वाजपेयी बारिश में छाता पकड़े खड़े अन्दर की स्थिति का जायजा ले रहे थे और मत-गणना के एक मुकाम पर उन्हें पता चला कि वे हारने वाले हैं तो पास खड़े विक्षिप्त से माने जाने वाले नेता राजनारायण जो यहीं से चुनाव लड़ रहे थे, को अपना छाता पकड़ा कर वाजपेयी मीडिया से मज़ाकिया बातें करते कार में अपने घर चले गए। इसी निर्वाचन क्षेत्र से आई एस जोहर जैसे विचित्र से माने जाने वाले हास्य अभिनेता व Bandit Queen फूलन देवी चुनाव लड़ कर ज़मानतें ज़ब्त करा चुके हैं। परन्तु सन् 2004 यानी पिछला लोक सभा चुनाव भी इस निर्वाचन क्षेत्र के लिए कम दिलचस्प नहीं था। यहाँ एक युवा नेता अजय माकन ने जगमोहन जैसे धुंरधर नेता, जिन्होंने बुलडोज़र द्वारा दिल्ली के कई मकान व इमारतें धराशायी करवा दी थी, की आशाओं पर बुलडोज़र चला कर सब को चौंका भी दिया व अपना लोहा भी मनवा लिया। परन्तु दिल्ली निवासियों ने इन्हीं 5 वर्षों में सीलिंग तथा मकान गिरने के दुखद दिन भी देखे जिस में कि एक बार तो पुलिस की गोलियों से चार लोगों की मृत्यु भी हो गई। कांग्रेस को सन् 2007 में नगर निगम चुनावों में बुरी तरह पिटना पड़ा। परन्तु अजय माकन जिन्हें कि 'मास्टर प्लान माकन' नाम से जाना जाता है, का दावा है कि उनके विशेष प्रयासों से ही दिल्ली वासियों के दुखद दिनों का अब अंत हो चुका है. रमेश नगर जहाँ मैं रहता हूँ, वहां की एक जन सभा में उन्होंने कहा कि शहरी विकास राज्य मंत्री के रूप में उनके द्वारा कार्यान्वित 'मास्टर प्लान' के बाद दिल्ली-निवासी अब अपनी इमारत का निचला तल 'कार पार्किंग' के लिए रख कर उस के ऊपर चार मंज़िलें और बनवा सकते हैं तथा एक मंज़िल भूमिगत (basement) भी बनवा सकते हैं। इस प्रकार अब कोई भी इमारत कुल छह मंजिलों की बन सकती है। माकन के प्रतिद्वंद्वी विजय गोयल भले ही लोकप्रिय हों और स्वयं को एक कर्मठ नेता के रूप में प्रस्तुत करते हों, (वे भी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एन डी ए सरकार में राज्य मंत्री रह चुके हैं, पर अजय माकन की अपेक्षाकृत साफ़ सुथरी व सादगी पसंद छवि के आगे विजय गोयल बौने से पड़ जाते हैं) । अधिकाँश मतदाता स्पष्टतः अजय माकन की ओर झुके हुए हैं। तालियों की गड़गडाहट के बीच अजय माकन अपना भाषण बहुत प्रभावशाली तरीके से निभाते हैं।

अजय माकन का भाषण

भाषण का दूसरा तथा तीसरा भाग


प्रेमचंद सहजवाला की वोटरों (मतदाताओं) की बातचीत

अजय माकन के पास अपने चाचा, अपने समय में दिल्ली के धुआंधार नेता ललित माकन की राजनैतिक विरासत है, जिन्हें जुलाई 1985 में खालिस्तानी आतंकवादियों ने सपत्नीक गोलियों की बौछारों से उड़ा दिया था। दिल्ली हो या केन्द्र, अजय माकन की शख्सियत में कई सितारे टंके हैं। सन् 93 के दिल्ली विधान-सभा के चुनाव में घोर कांग्रेस विरोधी आंधी थी और 70 में से केवल 14 सीटें कांग्रेस के पाले में गई, तब अपेक्षाकृत नए प्रत्याशी अजय माकन न केवल चुनाव जीते वरन उन्हें वोटों की बहुत अच्छी प्रतिशत संख्या मिली। जब वे दिल्ली विधान सभा के अध्यक्ष बने तब देश की किसी भी विधान सभा के सब से युवा अध्यक्ष थे वे। तालियों की गड़गडाहट के बीच वे गर्व से कहते हैं कि दिल्ली के विद्युत् मंत्री के रूप में उन्होंने दिल्ली में विद्युत् का निजीकरण किया। केन्द्र में राज्य मंत्री के रूप में वे आज़ादी के बाद कांग्रेस के तब तक के सब से युवा मंत्री बने। अपने भाषण में उन्होंने गर्व से कहा कि उनकी जीत की बढ़त हमेशा बढ़ती ही रही। पहले 4000, फिर 20000 फिर 24000। अपने प्रतिद्वंद्वी विजय गोयल पर चुटकी लेते हुए वे कहते हैं कि गोयल हमेशा अपना निर्वाचन क्षेत्र बदलते रहे हैं। पहले सदर, फिर चांदनी चौक और अब नई दिल्ली। श्रोताओं के बीच कहकहों की एक लहर सी पैदा करते वे कहते हैं कि अब जब वे यहाँ भाषण कर के वोट मांगने आएं तो आप लोग उन से यह ज़रूर पूछियेगा कि अगला चुनाव आप कहाँ से लड़ेंगे। अजय माकन डॉ मनमोहन सिंह की छवि को भी खूब निपुणता से भुनवाते नज़र आते हैं। वे मतदाताओं को याद दिलाते हैं कि जब नरसिम्हा राव प्रधान-मंत्री थे और देश में केवल तीन दिन और की विदेशी पूंजी बची थी, तब उन्होंने रिज़र्व बैंक के ही गवर्नर डॉ मनमोहन सिंह को वित्त-मंत्री बनाया जिन्होंने आते ही चमत्कार सा कर के देश को उस विपत्ति भरी स्थिति से उबारा। वे गर्व से कहते हैं कि भारत तो क्या, पूरी दुनिया के प्रधान-मंत्रियों व राष्ट्रपतियों की तुलना में सब से अधिक साफ़ सुथरी छवि डॉ मनमोहन सिंह की है, जिन पर कभी कोई आरोप नहीं लगा। हालांकि गोयल ने यहाँ से टिकट लेने के लिए एड़ी चोटी के ज़ोर लगा दिया था, पर यहाँ माकन से यह सीट छीनना उनके लिए टेढी खीर होगी क्योंकि इस निर्वाचन क्षेत्र में अजय माकन के पाँव मजबूती से गड़े हुए हैं।

Tuesday, April 21, 2009

अहंकारी होते ब्लॉगी कवि

करीबन सवा तीन वर्ष पूर्व मैंने पहली कविता लिखी थी। कविता थी या नहीं ये तो पता नहीं, पर मेरे लिये तो वो कविता ही थी। तब से अब तक हर महीने में एक कविता तो हो ही जाती है। और जब से इंटेरनेट पर हिन्दी का खेल शुरू हुआ है तब से कविताओं की भरमार हो गई है। बचपन में आठवीं तक ही हिन्दी पढ़ी थी, इसलिये महान लोगों की कवितायें पढ़ने से वंचित रहा। जो कुछ कविताओं में सीखा वो पिछले तीन वर्षों में सीखा। पर आज एकाएक मैं कवियों की बात लेकर क्यों शुरु हो गया?

एक जगह दो पंक्तियाँ पढ़ीं थीं, शायद गोपालदास ’नीरज’ द्वारा लिखित हैं। यदि मैं गलत हूँ तो कृपया मुझे बता दें।


आत्मा के सौंदर्य का शब्द रूप है काव्य।
मानव होना भाग्य है, कवि होना सौभाग्य॥

इन पंक्तियों को पढ़कर हर कोई कवि होना सौभाग्यशाली मानेगा। अगर किसी को पता चले कि फ़लां व्यक्ति कवितायें लिखता है तो वो अचम्भित हो जाता है। कविता लिखना आसान काम नहीं समझा जाता। कवि के सारे भाव उस कविता में समाहित हो जाते हैं। कवि गोपालदास की बात मानें तो काव्य और कुछ नहीं बल्कि आत्मा का सौंदर्य है जो कवि की लेखनी से बाहर आता है।

एक और पंक्ति है- जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि... कवि अपने शब्दों में ऐसी उपमायें लगा देता है कि साधारण से लगने वाले शब्द भी पढ़ने वाले के दिल को छू जाते हैं। लेकिन दिल से लिखने वाले कवि क्या दिल से अच्छे भी होते हैं? क्या जो लिखा जाता है वो कवि के मन में भी होता है? हो सकता है आज से दशकों पहले ये सवाल न उठता हो, पर आज मैं ये प्रश्न पूछने पर मजबूर हो गया हूँ।

हिन्दी ब्लॉगों की बढ़ती संख्या कहें, हिन्दी अब अधिक से अधिक लोगों तक पहुँच रही है। जिस हिन्दी को हम नवीं दसवीं तक पढ़कर छोड़ दिया करते थे, आज उस हिन्दी में रोज़ लिख-पढ़ रहे हैं। शायद यही कारण है कि जो कागज़ पर लिखा करते थे, वे अब कम्प्यूटर पर लिखते हैं। जितनी अधिक ब्लॉगों की संख्या, उसी गति से कविताओं के ब्लॉग व साइट की संख्या में बढ़ोतरी।

ब्लॉगजगत पर आजकल एक अजीब सा ट्रैंड दिखाई देने लगा है। कवि एक दूसरे में गलतियाँ निकालने में रहने लगे हैं। उदाहरण देखिये एक ये और एक यहाँ। कोई कहता है कि "मेरी कविता उससे अच्छी", तो कोई कहता है कि फ़लां व्यक्ति की कविता छपने लायक ही नहीं थी। कभी कोई दोष तो कभी कोई। जिस तरह हमारे देश में हर कोई क्रिकेटरों को क्रिकेट सिखाने में लगा रहता है, ठीक उसी तरह ब्लॉग की दुनिया में हर "कवि" दूसरे को सिखाने में लगा हुआ है। क्योंकि हर कोई कहता है कि उसने खूब साहित्य पढ़ा है, इसलिये वो ही ठीक है।

कवि कहने लगते हैं कि फ़लां मंच उनकी कविताओं के लायक ही नहीं है। कवि कहने लगे हैं कि "मेरी कविता का कोई सानी नहीं इसलिये इस साइट पर मैं नहीं छापूँगा क्योंकि अच्छे पाठक नहीं आते"। कविता-अकविता पर विवाद होता है। अकविता क्या होती है ये कोई नहीं बताता। कविता क्या होती है इसकी परिभाषा भी मैंने कभी नहीं पढी क्योंकि मैंने खुद आठवीं के बाद हिन्दी नहीं पढ़ी। पर विवाद जरूर पढें हैं। उदाहरण के तौर पर यह कविता। एक उदाहरण यहाँ है । ऐसे अनेकों उदाहरण मिल जायेंगे। शायद फिर कोई पाठक एक और उदाहरण चिपका जाये।

कुछ साइट तो अपने ब्लॉग पर से कमेंट तक ये कहकर हटा देती हैं कि वे "अभद्र" हैं। इस लिंक पर आप जायेंगे तो पाठकों की टिप्पणियों को पढ़कर आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि इनमें से कुछ कमेंट हटा लिये गये हैं। ये हाल तब है जब इस साईट को चलाने वाले खुद एक "कवि" हैं। अब कमेंट क्यों हटा लिये गये इन कारणों का पता नहीं। हटाई गई टिप्पणी तो मैं आपको नहीं पढ़ा सकता, लेकिन ऐसा कुछ साइट पर होता है इसका अंदाज़ा आप यहाँ जाकरपहली टिप्पणी पढ़ कर ही लगा सकते है। जब कवि ही कवि की बातों को अभद्र करार दे! आज हालात यह हैं कि कवि कोर्ट-केस की धमकी देने लगे हैं। ज़रा यहाँ जा कर पढें। हालाँकि टिप्पणीकार ने अपनी टिप्पणी को हटा लिया किन्तु फिर भी विवाद तो पता चल ही जायेगा। जिस प्रकार फिल्म इंडस्ट्री में एक दूसरे के गीत चुराने के इल्जाम लगते रहते हैं, वैसे ही अब कविता-जगत में भी शुरु हो गया है।

आजकल "अनामी" टिप्पणीकारों की संख्या में भी इजाफ़ा हो रहा है। ये पढ़िये। ऐसे "कवि" शायद डर गये हैं कि उनकी असलियत सामने न आ जाये। सच कहने से कैसा डर!! ऐसे तो न होते थे गुजरे जमाने के कवि। इसी कविता पर जा कर देखिये कैसे छुपकर "वार" करते हैं "कवि"। यहाँ भी एक डरपोक कवि बैठे हैं। समझ में यह नहीं आता कि सच बोलने से क्यों डरते हैं हम।

मैंने बचपन में संस्कृत के किसी श्लोक में पढ़ा था, जब आपके वाक्यों में "मैं" शब्द आ जाता है तो समझ लें कि "अहम" यानि अहंकार का प्रवेश हो गया है। कमोबेश वही हाल आजकल के कवियों का भी है। या यूँ कहें कि "ब्लॉगी कवि"। मेरा सवाल सरल है। क्या आजकल के इस प्रतियोगी युग में कवि भी कलियुग के शिकार हो गये हैं?

--तपन शर्मा

Sunday, April 19, 2009

चीनी: राजनीति का शिकार- बिकेगी 30 रुपए

देश में महंगाई की दर भले ही गिर कर 0.18 प्रतिशत रह गयी हो लेकिन यह एक कटु सत्य है कि देश में महंगाई कम नहीं हुई और चीनी के भाव तो मानो केंद्रीय सरकार को मुँह चिड़ा रहे हैं। सरकार की हर कार्यवाही के बाद चीनी के भाव में तेजी ही आ रही है। और शायद यही कारण है कि केंद्रीय सरकार चीनी के भाव पर लगाम लगाने के लिए कदम उठाती आ रही है।
वास्तव में सरकार चीनी के भाव को रोकने के लिए अपने तरकश के सभी तीरों को प्रयोग कर चुकी है लेकिन किसी का स्थाई असर भाव पर नहीं हुआ है। इसका कारण सरकारी नीतियाँ ही हैं।
चीनी के भाव में तेजी की नींव तो दो वर्ष पूर्व उस समय ही पड़ गई थी जब देश में चीनी का रिकार्ड उत्पादन हुआ था और चीनी के भाव सरकारी नियंत्रण के कारण बढ़ नहीं पा रहे थे जबकि सभी जिंसों के भाव में तेजी आ रही थी। इससे चीनी मिलों को घाटा हुआ और वे गन्ना उत्पादकों को समय पर भुगतान नहीं कर पाई। परिणाम स्वरुप किसानों ने गन्ने की बुआई कम की और गन्ने का उत्पादन कम हुआ और उसका नतीजा अब उपभोक्ता को भुगतना पड़ रहा है।
यह एक कटु सत्य है कि देश में चीनी उत्पादन में सरकारी नीतियां महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है और यह भी हकीकत है कि गन्ने पर राजनीति भी होती है। और इसके साथ यह भी कटु सत्य है कि चीनी और गन्ना लॉबी सशक्त भी है।
चीनी और गन्ने के उत्पादन में पहला स्थान महाराष्ट का है और दूसरा उत्तर प्रदेश का। दोनों ही राज्यों में गन्ने के भाव को लेकर राजनीति होती है और गन्ना उत्पादकों के वोट प्राप्त करने के लिए राज्य सरकारें गन्ने के जो भाव तय करती हैं वे केंद्रीय सरकार द्वारा तय किए गए कानूनी भाव की तुलना में कहीं अधिक होते हैं। इससे चीनी की उत्पादन लागत बढ़ती है।
दूसरी ओर, चीनी के भाव पर केंद्रीय सरकार का अप्रत्यक्ष नियंत्रण है। सरकारी राशन में देने के लिए मिलों के कुल उत्पादन का 10 प्रतिशत भाग लेवी के रूप में लेती और उसके भाव बाजार भाव की तुलना में बहुत ही कम होते हैं।
मिलें शेष मात्रा को खुले बाजार में बेचती हैं लेकिन वह मात्रा केंद्रीय सरकार तय करती है। बस यहीं से गड़बड़ आरंभ होती है। केंद्रीय सरकार चीनी के भाव रोकने के लिए अधिक मात्रा जारी करती है और मिलों को अनेक बार घाटे में चीनी बेचनी पड़ती है लेकिन जल्दी ही इसकी भरपाई कर ली जाती है।
वास्तव में कानून कहता है कि जो मिलें आबंटित मात्रा को बाजार में न बेचें सरकार उसे लेवी के भाव-जो खुले बाजार की तुलना में कम हैं-पर खरीद लें। लेकिन ऐसा आज तक नहीं हुआ है। इससे मिलों में कोई डर नहीं है। वे अपनी इच्छानुसार बाजार में चीनी बेचती हैं और अनबिकी मात्रा को अगले माह बेचने के लिए सरकार से अनुमति ले आती हैं।

वर्तमान स्थिति
चीनी में वर्तमान स्थिति के लिए भी सरकार ही दोषी है क्योंकि उसने समय रहते स्थिति का अनुमान नहीं लगाया। चीनी वर्ष 2008-09 अक्टूबर-सितम्बर के दौरान आरंभ में ही चीनी का उत्पादन कम होने के अनुमान मिल गए थे लेकिन सरकार अधिक उत्पादन की बात करती रही। पहले सरकारी अनुमान 220 लाख टन के उत्पादन का था लेकिन अब इसके घटकर 150 लाख टन पर सिमट जाने का अनुमान है। गत वर्ष यह 264 लाख टन था।
बकाया स्टाक पर मिलों और सरकार के बीच मतभेद है। सरकार कहती है कि गत वर्ष का बकाया स्टाक 105 लाख था लेकिन मिलें, जिनके पास वास्तव में चीनी होती है, कहती हैं कि बकाया स्टाक 80 लाख टन से अधिक नहीं है। बकाया स्टाक और चालू वर्ष के उत्पादन को मिलाकर चीनी की कुल उपलब्धता 230 लाख टन बैठती है जबकि खपत का अनुमान लगभग 250 लाख टन का है। कुछ माह पूर्व पूर्व सरकार ने कच्ची चीनी के आयात की अनुमति दी है और लगभग 20 लाख टन के आयात का अनुमान है लेकिन एडवांस लाईसेंस के तहत लगभग 30 लाख टन चीनी निर्यात भी की जा चुकी है।
इससे स्पष्ट है कि देश में चीनी की कुल उपलब्धता खपत की तुलना में कम होगी।
अब सरकार ने सरकारी एजेंसियों को 10 लाख टन रिफाईंड चीनी का आयात शुल्क मुक्त करने की अनुमति दी है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इससे देया में चीनी की उपलब्धता बढ़ेगी लेकिन आयातित लागत देश में चल रहे भाव के आसपास ही होगी।

30 रुपए किलो
चीनी की उपलब्धता और खपत का गणित और विश्व बाजार में चीनी के भाव को देखते हुए एक बात स्पष्ट है कि इस वर्ष जल्दी नहीं तो त्यौहारों के अवसर पर तो खुदरा बाजार में चीनी 30 रुपए प्रति किलो बिक ही जाएगी और यदि यह स्तर पार कर जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होगा।
इस समय खुदरा बाजार में भाव 28 रुपए प्रति किलो तो हो ही चुके हैं।

--राजेश शर्मा

Friday, April 17, 2009

भारत का आम आदमी कब महान होगा ?

अनिरुद्ध शर्मा हिंदयुग्म के पुराने पाठकों में से हैं.....पुणे की एक सॉफ्टवेयर कंपनी में नौकरी करते हैं...चुनाव के दौरान इनके भीतर का नागरिक जगा और इन्होंने हमें एक लेख भेज दिया....आप भी पढें इनके विचार.....

हाल की ख़बरों में एक निराली बात सुनने को मिली. समाजवादी पार्टी का मेनिफेस्टो जिसमे हमारे देश के महान(!) नेता मुलायम सिंह यादव ने कहा है कि वो इंग्लिश स्कूल्स बंद करवाएंगे, ट्रैक्टर की जगह बैल चलवाएंगे, कंप्यूटर बंद करवाएंगे, मशीनें बंद करवाएंगे वगैरह वगैरह… मैं सदमे में हूँ... क्या कहा जाये इस आदमी को? क्या इसे समझाना संभव है?बिलकुल नहीं.जिस आदमी की सोच इतनी घटिया है वो कितने सालों से इतना बड़ा प्रदेश चला रहा है. शर्म की बात है जनता के लिए और यहाँ हद दर्जे के मूर्खों की भरमार है वरना क्यों नहीं इन सड़े हुए नेताओं के इस तरह की बातें करते ही मंच से नीचे खींचकर जूतमपैजार कर दी जाती ? और क्यों मुलायम, मायावती जैसे लोग बार-बार आ जाते हैं? कुंठितों का पूरा कुनबा है जो देश को डुबोने पर आमादा है. ये नेता कुंठित हैं इंग्लिश नहीं जानने से, कंप्यूटर के डर से और इन्ही के तरह की जनता है जो सिर्फ अपना मन समझाने के लिए ऐसे लोगों को अपना भविष्य सौंप देती है.मुझे गुस्सा आता है, असहनीय गुस्सा आता है लेकिन जब गहरे में जाता हूँ तो गुस्सा निराशा का रूप ले लेता है.मेरा भारत महान चिल्लाते हुए बरसों बीत गए लेकिन इमानदारी से कहूं तो मुझे कभी इसका कारण समझ में नहीं आया. अब तो मैंने मुद्दत हुई ये वाक्य नहीं दोहराया है लेकिन जब नारे लगाने पड़ते थे तब भी मुझे ये समझ में नहीं आया. किस बात के लिए हम महान हैं? आज जो हालत मैं देखता हूँ उसमें तो निहायत ही नामुमकिन सी बात है महानता को ढूंढ़ना. और अगर इतिहास की बात करें तो समय-समय पर हमारे यहाँ महान लोग हुए हैं इसमें कोई दो राय नहीं लेकिन दुनिया में सभी जगह हुए हैं. देश उसमें रहने वाले सारे लोगों से मिलकर बनता है यानी कि आम आदमी से . अब देखिये न प्रजातंत्र में सरकार चलती है और सरकार कौन बनाता है? यही आम आदमी… लेकिन मैं जब इतिहास पर गौर करता हूँ तो महानता तो दूर की बात मुझे आम आदमी में किसी भी दौर में समझदारी भी नहीं दिखाई दी. ये हमेशा से उन लोगों का समूह रहा है जिसे जो जैसे चाहे वैसे हांक देता है और वो भी बहुत ओछी बातों से. वरना वरुण गाँधी को आज सफलता के लिए कोई और शॉर्ट कट ढूंढ़ना पड़तासबसे बड़ी चीज़ जो ऑब्ज़र्व करने जैसी है वो है हमारी कौम की हीन भावना. ये भावना हमेशा से रही है और आज भी है. एक दौर था जब राजा-महाराजा शोषण करते थे, आम आदमी शाही लोगों से हीन था और शाही लोग? विदेशियों से… कुछ सचमुच के महान राजाओं को छोड़ दिया जाये तो सभी आखिरकार चाटुकार ही साबित होते थे. जब मुग़ल यहाँ आये तो ये लोग उनके पैरों में गिर गए. कई सालों तक मुग़लों ने राज किया और आम आदमी तो कभी कुछ करता ही नहीं हैं न? समय-समय पर कुछ स्वाभिमानी राजाओं ने विरोध किया लेकिन उन्हें मुग़लों के साथ अपने लोगों का भी विरोध सहना पड़ा. धीरे-धीरे मुग़ल इसी देश का हिस्सा हो गए… ठीक है अगर अपनापन कहीं है तो वो ग़लत नहीं है लेकिन फिर आये अंग्रेज और इस बार हमारे लोगों की हीन भावना देखने के काबिल थी. अंग्रेजों की ठोकरों में रहकर भी उन्हें ऊँची नज़र से ही देखा जाता था. फिर से कुछ लोगों ने बड़ी मुश्किलों से लड़ाई लड़ी. यहाँ ये बात उल्लेखनीय है कि आज जो संगठन स्वाभिमान का झूठा झंडा उठा कर ज़हर फैलाने का काम कर रहे हैं वो तब भी थे और उन्होंने हमेशा की तरह असली समस्या को हटाने की बजाय नकली समस्याएँ पैदा करने का ही काम किया. खैर, जैसे-तैसे हम आज़ाद हो गए लेकिन हमारा स्वाभिमान आज भी धूल में पड़ा हुआ है. हम अपने देश के आदमी को कभी इज्ज़त नहीं देते लेकिन आज भी कोई विदेशी आ जाये तो मुस्कराहट 4 इंच से कम ही नहीं होती. मैं IT इंडस्ट्री से हूँ और मैंने बहुत करीब से इसे देखा है. अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ों को लेकर इतना क्रेज बाप रे! जहाँ अपनी भाषा में बोलना गवार होने की निशानी मन जाता है, जहाँ अमेरिका जाने के लिए आदमी मर जाता है… वहां किस तरह की महानता निवास करती है मैं नहीं जानता. ठीक है ये बिज़नेस है और हमारा ग्राहक और दुकानदार का रिश्ता है, IT की भाषा में कहें तो वो हमारे क्लाइंट हैं लेकिन क्या हमारे यहाँ के दुकानदार देसी ग्राहक को इतनी इज्ज़त बख्शते हैं? क्यों हम उनके पैरों की धूल चाटने को लालायित रहते हैं, क्यों अपने बच्चों के हिंदी बोलने पर शरमाते हैं, क्यों अपने ही लोगों की इज्ज़त करना हमें छोटी बात मालूम होता है?मैंने देखा है छोटे गाँव से लेकर, छोटा शहर और मेट्रो सब देखा है और ये हीन भावना मैंने सभी जगह पाई है. और अगर कहीं स्वाभिमान की बात भी होती है तो वो दरअसल कुंठा ही होती है जो आपस में ही दंगे करवाती है. स्वाभिमान का सबसे अच्छा उदाहरण हैं स्वामी विवेकानंद, अपने देश अपनी भाषा सबके लिए स्वाभिमान और दूसरे देश की भाषा, संस्कृति के लिए भी सम्मान. उन्हें अपनी भाषा से प्रेम था लेकिन दूसरी भाषाओँ से बैर नहीं था उन्हें भी वे समान आदर देते थे लेकिन प्राथमिकता हमेशा अपनी विरासत ही रही.कुछ लोग हैं, और हमेशा रहे हैं जो स्वाभिमान का सही मतलब समझते हैं लेकिन तादाद में कम ही हैं. मेरे ख़याल से एक राम, एक कृष्ण, एक गाँधी. सिर्फ इन नामों का सहारा लेकर हम आम तौर पर महानता का दावा नहीं कर सकते. ये देश तब तक महान नहीं है जब तक यहाँ का आम आदमी महान नहीं है, उसमें स्वाभिमान नहीं है.
जय हिंद

अनिरुद्ध शर्मा

Wednesday, April 15, 2009

तपन का चीन विरोधी अभियान - क्या आप साथ हैं ?



हमारा भारत देश आसपास से कईं देशों से घिरा हुआ है। अफ़्गानिस्तान, पाकिस्तान, नेपाल, चीन, बांग्लादेश, भूटान और श्रीलंका। अब ज़रा इन नामों को पढेंगे तो पायेंगे कि इनमें से दोस्त बनाने लायक कोई नहीं। या यूँ कहें कि हर ओर दुश्मन ही दुश्मन। कहीं तालिबान, कहीं उल्फ़ा, हूजी, कहीं माओवादी और तस्कर, कहीं लिट्टे और इनमें सबसे बड़ा है ड्रैगन। जी हाँ, चीन। अभी हाल ही में चीन ने हमारे साथ एक मज़ाक किया। बल्कि उसे मज़ाक नहीं धृष्टता कहनी चाहिये।

हुआ यूँ कि हमारी प्रथम महिला राष्ट्रपति श्रीमति प्रतिभा पाटिल अरूणाचल प्रदेश के दौरे पर थीं। यह जगजाहिर है कि चीन अरूणाचल की कुछ हिस्से को अपना मानता आया है। यूँ तो वो सिक्किम के भी कुछ हिस्से को खुद का बताता फिरता है। कश्मीर का कुछ हिस्सा तो उसका है ही। वो हर बार दहाड़ता है और भारत सरकार हर बार छोटा सा मुँह बनाकर चुप हो जाती है। चीन के साथ न जाने कितनी ही द्विपक्षीय वार्ता हुईं पर सब विफल। दमदार तरीके से अपनी बात कहने से पहले ही हम चीन की बात स्वीकार कर लेते हैं। बांग्लादेश जैसा छोटा सा देश भी हमें आँख दिखाता है तो चीन तो बड़ा ड्रैगन है। प्रतिभा पाटिल जी का अरूणाचल के तवांग जिले में जाना हुआ। यहाँ इनके पैर पड़े वहाँ चीन ने अपनी नाराजगी व्यक्त कर दी। गौरतलब है कि तवांग तिब्बत और चीन से जुड़ा हुआ इलाका है। और चीन उसको अपना हिस्सा मानता है। प्रतिभा पाटिल से पहले मनमोहन सिंह अरूणाचल के दौरे पर गये पर तवांग नहीं गये। पिछले नौ सालों में किसी प्रधानमंत्री का यह पहला दौरा था। तवांग न जाने से चीन को ये गलत संदेश भी गया कि जैसे भारत ने उसकी बात मान ली हो और तवांग को चीन को सौंप दिया हो।

आखिर क्यों जवाब नहीं देता भारत चीन को? क्या भारत १९६२ की हार से अभी तक डरा हुआ है? भारत जानता है कि चीन सीधे तौर पर न सही पर पाकिस्तान को नई तकनीक देकर भारत के खिलाफ ही इस्तेमाल कर रहा है। चीन भारत का सबसे बड़ा दुश्मन है ये भारत की सरकार को समझ में नहीं आ रही है क्या? सिक्किम और अरूणाचल प्रदेश को अपना बनाने की कोशिश ये करता रहता है। हमें शुक्रगुज़ार होना चाहिये इन पूर्वोत्तर राज्यों के निवासियों का जो चीन में जाने की बजाय भारत में रहना पसंद करते हैं। यदि वे चीन में मिलना चाहते तो आज वहाँ भी कश्मीर जैसे हालात हो चुके होते। ये भी सभी जानते हैं कि पूर्वोत्तर में बांग्लादेशी घुसपैठ अब आम हो गई है। वहाँ कोई रोकटोक नहीं रह गई है। उल्फ़ा में अधिकतर बांग्लादेशी हैं और हूजी जैसे संगठन भी इन राज्यों को नुकसान पहुँचा रहे हैं। लेकिन चुनाव और वोट बैंक के चलते बांग्लादेशियों को हटाने के बारे में सोचा तक नहीं जाता।

लेकिन हम बात कर रहे थे चीन की। न हमसे बांग्लादेश सम्भलते बन रहा है और न ही चीन को मुँहतोड़ जवाब दे पा रहे हैं। हर तीसरे दिन वही राग अलापना अब इसकी आदत बन गया है। पूर्वोत्तर राज्यों के साथ सौतेला व्यवहार करने के बावजूद वे हमारे साथ हैं। आप ने सही पढ़ा। हम सौतेला व्यवहार ही करते हैं। मणिपुर, मिज़ोरम आदि जगह से आये लोगों को हम "चिंकी" कह कर बुलाते हैं। उनका मजाक उड़ाते हैं। आपसी भाईचारा बनाना बहुत जरुरी है। असम में ब्लास्ट होते हैं, पाँच मिनट तक सुर्खियों में रहते हैं और फिर खत्म हो जाते हैं। वहीं अगर बैंग्लोर, मुम्बई, दिल्ली जैसे शहरों में १ सिलेंडर भी फटे तो पूरे दिन चैनल पर उसी सिलेंडर का पोस्टमार्टम करते देखा जा सकता है। आखिर क्यों करते हैं हम इनके साथ सौतेला व्यवहार? क्या हम इन राज्यों को अपना नहीं समझते? सरकारी एजेंडे में सिर्फ कश्मीर है पर अरूणाचल, असम और सिक्किम नहीं? अभी सम्भलना होगा हमें। अभी जवाब देना होगा चीन को। अभी भगाना होगा ६२ का भूत। वरना उत्तर-पूर्व से अरूणाचल जायेगा चीन में, सिक्किम मिल जायेगा तिब्बत में और असम बन जायेगा कश्मीर। जागना होगा हमें। जागना होगा सरकार को। भारत को टूटने से बचाना होगा।

तपन शर्मा

Monday, April 13, 2009

मधुशाला हाट बिकाय....

विनोद द्विवेदी मध्यप्रदेश के पिछड़े आदिवासी इलाके से ताल्लुक रखते हैं.....बहुत कुछ करने की तमन्ना थी, अब पत्रकारिता में आकर अटक गए........जबलपुर से कैरियर शुरू कर हैदराबाद होते हुए दिल्ली पहुँच गए.....आजकल जी न्यूज़ में कैमरे के आगे ड्यूटी बजाते हैं......हिन्दयुग्म खोल कर देखा तो उन्हें लगा कि इसकी आदत बना लेना ही मुनासिब है.....सो, हमें ये लेख भेज दिया.....बैठक पर आप इनका स्वागत करें..... न्यूज रूम में खबर आयी कि इलाहाबाद में हरिवंश राय बच्चन जी का पुराना मकान बिकने वाला है।
मिट्टी का तन मस्ती का मन....क्षण भर जीवन मेरा परिचय…. बाजार बनती इस दुनिया में आज भी बच्चन जी की पहचान प्रेम के चितेरे के तौर पर है। 1935 में जब से हरिवंश जी मधुशाला लिखी, तब से आज तक प्रेमी इसमें डूबते-उतराते रहे हैं।
कान में शहद की तरह घुल जाती है, मधुशाला। इस सदी की सबसे लोकप्रिय रचना अगर कोई है, तो वो मधुशाला है। सुरा के सहारे डॉ हरिवंश राय बच्चन ने जिंदगी का जो फलसफा बुना था, वो करीब आधी सदी बाद भी आंखों में चमक और लबों पर मुस्कराहट ला देता है। सैकड़ों सालों बाद शायद किसी ने शराब को मधु कहकर इतनी इज्ज़त बख्शी होगी। मधुशाला पढ़ते हुए एक पीढ़ी जवां हुई है, और उस दौर के किस्से सुनते-सुनते कई पीढ़ियों ने यौवन की अंगड़ाई ली है। अब वो मधुशाला बिकने वाली है।
मधुशाला जब छपकर आई, तो इसने लोकप्रियता के सारे पैमाने तोड़ दिए। हरिवंश जी ने इलाहाबाद के मुठ्ठीगंज के जिस मकान में मधुशाला को अपने जेहन से कागज पर उतारा था, उसे बाद में मधुशाला निवास का नाम ही दे दिया।
मेरे शव पर वह रोए, हो जिसके आंसू में हाला
आह भरे वो जो हो सुरभित मदिरा पीकर मतवाला
दें मुझको कांधा वो जिनके पग मद डगमग होते हों
और जलूं उस ठौर जहां पर कभी रही हो मधुशाला
मौत के बाद भी जिस कवि का मन मधुशाला में ही रमता हो क्या उसकी मधुशाला यूं ही उजड़ जाएगी। क्या कोई सूरत नहीं कि इसे कायम रखा जाए ताकि आज भी जब कोई शख्स प्रेम की राह पकड़े तो उसे सीधे बच्चन की मधुशाला तक पहुंचने में कोई मुश्किल ना हो।
अमिताभ जब भी बाबूजी की बात करते हैं, तो उनकी एक बात का जिक्र करना कभी नहीं भूलते- मन का हो अच्छा, ना हो तो और भी अच्छा।
अमिताभ कहां हैं, क्या उन्हें नहीं पता कि उनके बाबूजी की मधुशाला बिक रही है। वो तो बचा ही सकते हैं।
ये तो वो बातें थीं ,जो खबर के तौर पर लिखी गईं, दिल का दूसरा कोना कहता है, कि अगर बिकने से बच भी गई तो क्या....अभी नहीं बिकी थी इतने दिनों तो क्या फर्क पड़ गया....कोई संग्रहालय या पर्यटनस्थल तो थी नहीं....बहुतों को तो पता भी नहीं होगा कि इस घर की अहमियत क्या है, गुजर जाते होंगे लोग आसपास से, अपनी गाड़ी का धुआं इसी घर पर छोड़ते हुए...कोई और देश में होता तो इस मकान को तीर्थ का दर्जा मिला होता....पर ये हिंदोस्तां है, सारे जहां से अच्छा....हम किताब पढ़कर ही खुश हो लें....ऐसे में अगर इस मकान के मालिक,, हरिवंश जी के नाम पर इस मकान से थोड़ी सी लोकप्रियता या थोड़ा ज्यादा पैसा कमाने की सोच रहे हों तो हर्ज क्या है।



विनोद द्विवेदी

Sunday, April 12, 2009

चाय की चुस्की होगी अब और महँगी

आगामी दिनों में चाय की चुस्की और महँगी होने जा रही है क्योंकि विश्व में इसका उत्पादन लगातार कम हो रहा है। पिछले वर्ष भी चाय के भाव में तेजी रही थी लेकिन इस वर्ष यह और बढ़ सकती है।
हालांकि 2007 और 2008 में देश में चाय का उत्पादन अधिक हुआ है था लेकिन प्रतिकूल मौसम के कारण इस वर्ष उत्पादन में कमी की आशंका है।
गत वर्ष चाय का उत्पादन अधिक होने के कारण देश में इसके भाव में तेजी रही थी। इसका एक कारण जहां बकाया स्टाक कम होना था वहीं केनिया में उत्पादन कम होने से भारत से निर्यात बढ़ना भी था।
आगामी वर्ष में चाय के भाव में तेजी या मंदी का रुख जानने के लिए चाय उत्पादन के बारे में कुछ आधारभूत बातें जानना जरुरी है।
विश्व में केनिया सबसे बड़ा चाय निर्यातक देश है जबकि भारत सबसे बड़ा उत्पादक देश। केनिया में चाय के उत्पादन कमी या वृद्वि का असर पूरे विश्व में पड़ता है।
पिछले तीन वर्षों से केनिया में चाय का उत्पादन लगतार घट रहा है। वर्ष 2007 में वहां पर 3690 लाख किलो चाय का उत्पादन हुआ था जो 2008 में घट कर 3450 लाख किलो रह गया। चालू वर्ष में वहां पर चाय का उत्पादन और घट कर 3280 लाख किलो ही रह जाने का अनुमान है।

केनिया का असर
गत वर्ष केनिया में चाय का उत्पादन कम होने और भाव अधिक होने के कारण पाकिस्तान व कुछ अन्य देशों ने चाय के आयात के लिए भारत की ओर रुख किया। इससे 2008 के दौरान भारत से चाय निर्यात 1960 लाख किलो तक पहुंच गया हालांकि टी बोर्ड ने लक्ष्य 2000 लाख किलो का तय किया था। वर्ष 2007 के दौरान देश से 1767 लाख किलो का निर्यात किया गया था।
वर्ष 2008 के दौरान देश में चाय का उत्पादन 9808 लाख किलो होने का अनुमान है जबकि 2007 में 9447 लाख किलो था लेकिन देश में बढ़ती खपत और अधिक निर्यात के कारण भाव पर मंदे का कोई असर नहीं पड़ा। चालू वर्ष में अभी तक चाय का उत्पादन गत वर्ष की तुलना में पीछे चल रहा है। देश में चाय की सालाना खपत 8250 लाख किलो रही जबकि 2007 में यह 8100 लाख किलो थी। देश में 2008 के दौरान चाय का आयात लगभग 190 लाख किलो होने का अनुमान है जबकि 2007 में यह 160 लाख किलो था।

विश्व उत्पादन
केनिया के अलावा इस वर्ष रवांडा, इंडोनेशिया, मलावी आदि में भी चाय का उत्पादन कम होने की आशंका है। जनवरी से मार्च के दौरान देश के सभी देशों में चाय का उत्पादन गत वर्ष की तुलना में कम हुआ है।
भारत में भी चाय का उत्पादन कम होने की आशंका है क्योंकि मौसम प्रतिकूल है। उत्तरी भारत में असम व पश्चिमी बंगाल में अभी तक सूखा चल रहा है। इन राज्यों में चाय की आवक अप्रैल में आरंभ होती है लेकिन इस वर्ष देरी आरंभ होगी। चालू वर्ष में अब तक जो नीलामियां हुई हैं उनमें आवक कम रही है और भाव 15/20 रुपए प्रति किलो तक तेज हो चुके हैं।
दक्षिणी भारत में भी सूखा चल रहा है। एक अनुमान के अनुसार जनवरी मार्च के दौरान वहां पर चाय का उत्पादन लगभग 35 प्रतिशत गिर कर 320 लाख किलो रह गया है।

वहां के नीलामी केंद्रों पर आवक कम हो रही और भाव में औसतन लगभग 15 रुपए प्रति किलो की तेजी आ चुकी है।
चालू वर्ष के पहले दो महीनों के दौरान देश से चाय का निर्यात 330.2 लाख किलो से घट कर 247.2 लाख किलो रह गया है लेकिन निर्यात से प्राप्त आय 299 करोड़ रुपए से बढ़ कर 318 करोड़ रुपए हो गई। गत वर्ष की तुलना में निर्यात 25 रुपए प्रति किलो के अधिक भाव पर किया गया।
विश्व में चाय के भाव में तेजी को देखते हुए आगामी महीनों में चाय के निर्यात में गति आने का अनुमान है। संभव है कि निर्यात 200 लाख किलो के स्तर पर पहुं जाए।

आयात
देश में चाय के आयात मे भी बढ़ोतरी हो रही है। इस वर्ष जनवरी में 17.3 लाख किलो चाय का आयात किया गया जबकि गत वर्ष इसी माह में केवल 8.9 लाख किलो का आयात किया गया था। देश में हल्की क्वालिटी की चाय का आयात बढ़ सकता है।
भारत सहित विश्व में चाय के उत्पादन में कमी, देश से अधिक निर्यात और कम बकाया को देखते हुए आगामी महीनों में चाय के भाव में और तेजी की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है।

--राजेश शर्मा

Saturday, April 11, 2009

जो खुद आवारा नहीं था, शायद मसीहा भी नहीं


सुबह-सुबह सोकर उठा तो राजेश चेतन का एसएमएस था- विष्णु प्रभाकर नहीं रहे। देह दान दोपहर २ बजे होगा। ऐसा लगा कि जैसे सुबह ने ठग लिया हो। अजीब संयोग है सितम्बर २००८ की ११ तारीख को ही साहित्यकारों का १५ सदस्यीय समूह विष्णु प्रभाकर की खैरियत लेने गया था। और अप्रैल महीने की ११ तारीख को उन्होंने इस लोक से विदा ले ली।

मैंने प्रेमचंद सहजवाला जी से बलदेव वंशी का नं॰ लिया और उनसे बात की। उन्होंने कहा कि -"विष्णु प्रभाकर सबसे बड़े साहित्यकार थे। बड़े ऐसे कि उन्होंने समाज की निम्नत्तम से निम्नत्तम वर्ग की पीड़ा को शब्द दिये और उच्च सामाजिक आदर्शों को स्थापित करने की कोशिश की। वे एक ऐसे साहित्यकार थे जो खेमेबाज़ी से बचते थे, सभी वरिष्ठ-कनिष्ठ लेखकों के वे घनिष्ठ थे। मेरे दोनों बेटों की शादियों में परिवार के सदस्य की भाँति आये। आज से २३ दिन पहले ४० वर्षीय मेरे छोटे बेटे का देहांत हो गया। मेरा दुःख दुगुना हो गया है। प्रभाकर ने आवारा मसीहा और अर्धनारीश्वर जैसी रचनाएँ कर खुद को अमर कर दिया। विष्णु ऐसे लेखक थे जिन्होंने दक्षिण-उत्तर भारत की मौसिक रेखा को पार किया था। वे दक्षिण में भी उतनी ही इज्जत पाते थे, जितनी की उत्तर में। विष्णु प्रभाकर प्रेमचंद, जैनेन्द्र कुमार, अज्ञेय, भवानी प्रसाद मिश्र, नागार्जुन आदि की साहित्यिक परम्परा के अंतिम स्तम्भ थे। आज हम साहित्यप्रेमी खुद को बहुत निर्धन महसूस कर रहे हैं।"

बलदेव वंशी लगभग हर महीने विष्णु प्रभाकर के घर जाते रहे और उनके बेटे अतुल प्रभाकर से विष्णु जी के स्वास्थ्य-समाचार लेते रहे।

NCERT के लिए पहले ही मर चुके थे प्रभाकर

फिर पता चला कि वरिष्ठ साहित्यकार केदार सिंह की बेटी संध्या सिंह (जोकि NCERT में हिन्दी-रीडर हैं) ने विष्णु प्रभाकर पर हिन्दी को दूसरी भाषा के तौर पर पढ़ने वालों NCERT के १०वीं कक्षा के विद्यार्थियों के लिए एक पुस्तक (संवाद-२) पर काम किया है। मैंने उनका भी नं॰ जुगाड़ा और उनसे बात की। उन्होंने बताया- "मैं विष्णु प्रभाकर से अधिक नहीं मिली हूँ। शायद १ या दो बार मिलना हुआ है। लेकिन जितना जाना है, उससे यह कह सकती हूँ कि वे साहित्यिक राजनीति से सर्वथा दूर रहने वाले व्यक्ति थे। उन्होंने साहित्य सेवा बहुत चुपचाप तरीके से और पूरी लगन से की।"

संध्या सिंह ने आगे बताया कि एक बार NCERT की किसी पुस्तक में यह प्रकाशित कर दिया गया था कि विष्णु प्रभाकर नहीं रहे (लोगों ने सोचा होगा कि शायद ९५ वर्ष के बाद कहाँ कोई जीवित रहता है)। इस पर विष्णु प्रभाकर जी ने NCERT को पत्र लिखा था कि आपलोगों को ऐसा नहीं प्रकाशित करना चाहिए।


विष्णु से प्रभाकर

विष्णु के नाम में प्रभाकर कैसे जुड़ा, उसकी एक बेहद रुचिपूर्ण कहानी है। अपने पैतृक गाँव मीरापुर के स्कूल में इनके पिता ने इनका नाम लिखवाया था विष्णु दयाल। जब आर्य समाज स्कूल में इनसे इनका वर्ण पूछा गया तो इन्होंने बताया-वैश्य। वहाँ के अध्यापन ने इनका नाम रख दिया विष्णु गुप्ता। जब इन्होंने सरकारी नौकरी ज्वाइन की तो इनके ऑफिसर ने इनका नाम विष्णु धर्मदत्त रख दिया क्योंकि उस दफ़्तर में कई गुप्ता थे और लोग कंफ्यूज्ड होते थे। वे 'विष्णु' नाम से लिखते रहे। एक बार इनके संपादक ने पूछा कि आप इतने छोटे नाम से क्यों लिखते हैं? तुमने कोई परीक्षा पास की है? इन्होंने कहा कि हाँ, इन्होंने हिन्दी में प्रभाकर की परीक्षा पास की है। उस संपादक इनका नाम बदलकर रख दिया विष्णु प्रभाकर।

विष्णु प्रभाकर- एक परिचय

चूँकि मैंने प्रभाकर को बहुत अधिक नहीं पढ़ा है, इसलिए इनके लेखन पर अपने विचार नहीं दे सकता। नये पाठकों के लिए इनका परिचय दे रहा हूँ।

२९ जनवरी १९१२ को उ॰प्र॰ के मुज़फ़्फरनगर जिले के एक छोटे से गाँव मीरापुर में जन्मे विष्णु प्रभाकर के पिता दुर्गा प्रसाद एक धार्मिक व्यक्ति थे और अपने बेटे आधुनिक दुनिया से लम्बे समय तक दूर रखे। इनकी माँ महादेवी इनके परिवार की पहली साक्षर महिला थी जिन्होंने हिन्दुओं में पर्दा प्रथा का विरोध किया। १२ वर्ष के बाद, अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद, प्रभाकर आगे की पढ़ाई करने के लिए अपने मामा के पास हिसार (उस समय पंजाब का हिस्सा, अब हरियाणा का) चले गये, जहाँ इन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की। यह १९२९ की बात है। वे आगे भी पढ़ना चाहते थे, लेकिन आर्थिक हालत इसकी इजाजत नहीं देते थे, अतः इन्होंने एक दफ़्तर में चतुर्थ श्रेणी की एक नौकरी की और हिन्दी में प्रभाकर, विभूषण की डिग्री, संस्कृत में प्रज्ञा और अंग्रेजी में बीए की डिग्री हासिल की।

चूँकि पढ़ाई के साथ-साथ इनकी साहित्य में भी रुचि थी, अतः इन्होंने हिसार की ही एक नाटक कम्पनी ज्वाइन कर ली और १९३९ में अपना पहला नाटक लिखा हत्या के बाद। कुछ समय के लिए इन्होंने लेखन को अपना फुलटाइम पेशा भी बनाया। २७ वर्ष की अवस्था तक ये अपने मामा के ही परिवार के साथ रहते रहे, वहीं इनका विवाह १९३८ में सुशीला प्रभाकर से हुआ।

आज़ादी के बाद १९५५-५७ के बीच इन्होंने आकाशवाणी, नई दिल्ली में नाट्य-निर्देशक के तौर पर काम किया। ये ख़बरों में तब छाये रहे, जब २००५ में इन्होंने राष्ट्रपति भवन में हुए दुर्व्यवहार के कारण पद्यभूषण का सम्मान लौटा दिया।

इनकी कुछ महत्वपूर्ण कृतियाँ

उपन्यास- छलती रात, स्वप्नमयी, अर्धनारीश्वर
ड्रामा- नव प्रभात, डॉक्टर
कहानी-संग्रह- संघर्ष के बाद
नाटक- प्रकाश और परछाइयाँ, बारह एकांकी, अशोक
जीवनी- आवारा मसीहा
अन्य- जाने-अनजाने
विशेष- आवार मसीहा के लिए पद्मभूषण और अर्धानारीश्चर के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार ।

स्रोत- वीकिपीडिया

विष्णु प्रभाकर के अन्य चित्र और उनके वीडियो देखने के लिए यहाँ क्लिक करें

Wednesday, April 08, 2009

एक वेबसाइट ऐसी भी.....

मंगलवार की सुबह ही अखबार में पढ़ा कि हिन्दुस्तान टाइम्स ने गूगल के सहयोग से एक नई वेबसाइट बनाई है http://www.google.co.in/intl/en/landing/loksabha2009/ या http://hindustantimes.com/loksabha2009 जो केवल लोकसभा चुनाव २००९ पर केंद्रित होगी। आजकर हर कोई चुनाव पर ही अपनी वेबसाइट, चैनल आदि बना रहा है। सोच कर देखिये कि अंग्रेजी पत्रकारिता में अग्रणी समाचारपत्रों में जिसका शुमार हो और वेबसाइट जगत की सबसे मशहूर वेबसाइट एक साथ हो तो वो साइट कितनी बढ़िया होगी। यही सोचकर मैं उस साइट पर गया। मैंने पाया कि उस साइट पर गूगल की सभी तकनीक लगी हुई है। बाईं ओर गूगल-मैप से नक्शे देखे जा सकते हैं। गूगल का खोजी-तन्त्र (सर्च-इंजिन) तो है ही। और भी काफी जानकारियाँ बेहद सरल तरीके से दी हुई हैं। यही तो गूगल की पहचान है। मैंने दो-चार लिंक देखना शुरु किया। पर ये क्या... मुझे कोई भी जानकारी ठीक नहीं लग रही थी। उदाहरण के तौर पर जगदीश टाइटलर के बारे में आप देखेंगे तो आपको उनके नाम के आगे " No Criminal Record" लिखा हुआ है। अब टाइटलर साहब के ऊपर कोई केस दर्ज नहीं हुआ हो, ऐसा मुझे तो नहीं लगता। इनके पास कोई सम्पत्ति भी नहीं है। लालू प्रसाद यादव जी का क्रिमिनल रिकार्ड तो है पर लोकसभा वे केवल ४ प्रतिशत दिनो के लिये ही आये हैं। मैंने इसके आगे और कुछ नहीं देखा क्योंकि मुझे यह समय की बर्बादी लगा। पुरानी और गलत जानकारियों की भरमार है इस साइट पर। आप जा कर देख सकते हैं। हँसहँस कर लोट-पोट हो जायेंगे। इतने बड़े दिग्गजों ऐसी साइट लेकर आयेंगे मैंने सोचा भी न था। हो सकता है आने वाले समय में इसमें कुछ सुधार हो पर अंग्रेजी में एक कहावत है "First Impression is the last impression"।

तपन शर्मा

Monday, April 06, 2009

सबसे बड़ा आतंकी है मीडिया...



चार महीने हुए मुम्बई में आतंकी हमला हुए। उतना या उसके आसपास ही समय था जब पाकिस्तान के स्वात में तालिबान ने कब्ज़ा करना शुरु किया था। कम से कम टीवी पर तो उन्हीं दिनों खबरें आनी शुरू हुई थीं। वो दिन है और आज का दिन कोई "प्राइम टाइम" ऐसा नहीं जाता जब तालिबान-पाकिस्तान की चीखें न सुनाई दे रही हों। न्यूज़रूम में बैठे न्यूज़रीडर गला फाड़-फाड़ कर तालिबान की कहानी सुनाते आ रहे हैं। तालिबान क्या करता है, कहाँ रहता है, कब किस से मिलता है, क्या खाता है, पीता है..ऐसे कितने ही अनगिनत बातें हैं जो खुद तालिबान को नहीं पता होंगी।

लगता है आजकल की खबरें मीडियारूम में बैठ कर ही बन जाती हैं। कुछ वीडियो तो इन चैनलों के "होनहार दर्शक" भेज देते हैं तो कुछ यूट्यूब की मेहरबानी से मिल जाते हैं। ऐसी-ऐसी भयानक खबरें दिखाई जाती हैं जिसे कमजोर दिल वाले न ही देखें तो अच्छा। और ऐसी चेतावनी लिखी भी होती है। एक बार दिखा रहे थे कि तालिबानी कैसे किसी की हत्या कर देते हैं, तो एक वीडियो में लाश के साथ खेलते हुए दिखाया गया। ऐसे दृश्य होते हैं जिससे घिन्न आने को भी होती है। तालिबान ने स्वात पर कब्ज़ा कर लिया है, यहाँ बमबारी हो रही है, फाटा की ओर बढ़ रहे हैं, अब कराची पर हमला करेंगे, लाहौर के हमले में उनका हाथ था, भारत से कितनी दूर है तालिबान और ऐसी ही बहुत सी बातें हैं, किस्से हैं, कहानियाँ हैं जो आये दिन टीवी पर देखे जा सकते हैं। फलां आतंकवादी तालिबानी था... ये उनका कमांडर है... और कईं बार तो गौर से देखने को कहते हैं। मुझे लग रहा था कि अब तो चुनाव आ गये हैं, तो ये खबरें कुछ कम हो जायेंगी। पर मेरा सोचना गलत था। आज भी ये बदस्तूर जारी हैं।

कभी कभी सोचता हूँ कि क्या ११० करोड़ की आबादी वाले हमारे देश में खबरें खत्म हो गई हैं? क्या संवाददाताओं ने बाहर निकलना बंद कर दिया है? भारत में लोग भूखे मर रहे हों तो कोई बात नहीं, तालिबान के पास खाने को कुछ न हो तो ख़बर बनती है। पूर्वोत्तर के राज्यों में बम ब्लास्ट की खबर स्क्रीन के नीचे लिखी जाती हैं (कईं बार तो पता भी नहीं चलता)पर लाहौर, कराची के हमले ब्रेकिंग न्यूज़ में जगह बनाते हैं। उड़ीसा में तूफान आये तो कोई बात नहीं, इस्लामाबाद में एक गोली भी चले तो ब्रेकिंग न्यूज़ बनती है। भारत में मंत्री चाहें रहे या न रहें, लेकिन पाकिस्तान में प्रधानमंत्री कौन बनेगा इस पर चर्चा जरुर होती है। आखिर क्यों?

पाकिस्तान और तालिबान ने हमारे चैनलों पर कब्जा कर लिया है। अब हमें भारत के बारे में जानने की जरूरत नहीं है। हमें चिंता होनी चाहिये तालिबान की, पाकिस्तान की। अमरीका ड्रोन हमला करता है तो सबसे पहले आप तक मीडिया पहुँचाता है, कभी रोबोटी कुत्ता भेजता है तो आधे घंटे का एपिसोड तो बनेगा ही। तालिबान के वीडियो दिखाये जाते हैं। उनका इलाका दिखाया जाता है। आतंकवादी दिखाये जाते हैं।

आखिर ये सब दिखा कर मीडिया चाहता क्या है? यदि हम ये मान लें कि इससे हम सचेत होते हैं, तो मुझे लगता है कि यह कहना गलत होगा। बल्कि इससे हमारे मन में ख़ौफ़ पैदा हो रहा है। ख़ौफ़ तालिबान के हमले का..खौफ ओसामा बिन लादेन का। खौफ दिल्ली में बम ब्लास्ट का, खौफ पाकिस्तान के खत्म होने का.... और न जाने ऐसे कितने ही खौफ हैं जिन्हें हम अपने मन में लिये चलते हैं। हाँ, ये बात सही है कि हमें पाकिस्तानी और तालिबानी गतिविधियों पर निगरानी रखनी चाहिये ताकि भविष्य में किसी भी हमले के लिये हम तैयार हो पायें। लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं कि आप टी.आर.पी की होड़ में दर्शकों और जनता के दिलों में डर पैदा करें। मीडिया में पाकिस्तानी-तालिबानी प्रेम इतना फ़ैला हुआ है कि एक बार इसके विरोध में रहने वाला एक चैनल भी यही प्रोग्राम दिखाने पर मजबूर हो गया। आम दर्शक सहमा हुआ रहता है। पूरे दिन लोगों में आपस में भी यही चर्चा गरम रहती है। पाकिस्तान-तालिबान, तालिबान-पाकिस्तान...पर इन दोनों को बीच में पिस गया है हिन्दुस्तान...कहते हुए मुझे कोई संशय नहीं है कि पड़ोसी देश इतना आतंक नहीं फैला रहा है जितना हमारे देश का ये गैरजिम्मेदार मीडिया...

तपन शर्मा

Sunday, April 05, 2009

गेहूं सिर दर्द बनी सरकार के लिए

लगभग 3 वर्षों के बाद गेहूं एक बार फिर सरकार के लिए सिरदर्द बन गई है। उस समय देश में गेहूं की कमी के कारण यह सरकार के लिए परेशानी का सबब बनी थी और अधिकता के कारण।
उल्लेखनीय है कि तीन वर्ष पूर्व देश में गेहूं की कमी थी और बढ़ते भाव को काबू में करने के लिए सरकार ने इसका आयात किया था। यह आयात अनेक वर्ष बाद किया गया था।
बहरहाल, अब स्थिति बदली हुई है। देश में गेहूं की अधिकता है (लेकिन यह बाद दूसरी है कि भाव अधिक चल रहे हैं।) और नई फसल सिर पर है और वह भी रिकार्ड। देश की अनेक मंडियों में नई गेहूं की आवक आरंभ हो चुकी है और कुछ क्षेत्रों में इसके भाव सरकार द्वारा तय किए गए समर्थन मूल्यों से भी नीचे चल रहे हैं क्योंकि सरकारी खरीद सभी स्थानों पर आरंभ नहीं हुई है।
एक अनुमान के अनुसार एक अप्रैल को सरकारी गोदामों में लगभग 140 लाख टन गेहूं का स्टाक था, जबकि खाद्य सुरक्षा के लिए बफर स्टाक के अनुसार एक अप्रैल को सरकारी गोदामों में केवल 50 लाख टन का स्टाक ही होना चाहिए।

देश के दो प्रमुख राज्यों-पंजाब व हरियाणा-में भारतीय खाद्य निगम के गोदाम गेहूं और चावल के स्टाक से भरे पड़े हैं और लगभग 20 लाख टन गेहूं का स्टाक खुले में रखा हुआ है।

सरकार जिम्मेदार

वास्तव में सरकारी गोदामों स्टाक के लिए सरकारी नीतियां ही दोषी हैं। दो वर्ष पूर्व सरकारी खरीद कम होने के कारण गत वर्ष सरकार ने व्यापारियों, आटा मिलों और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों पर गेहूं की खरीद के लिए अनेक अंकुश लगा दिए और इसके साथ ही गेहूं के न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाकर 1000 रुपए प्रति क्विंटल कर दिए।
इससे सरकारी खरीद में भारी वृद्वि हुई। रबी मार्केटिंग वर्ष 2008-09 (अप्रैल-मार्च) के दौरान सरकारी एजेंसियों ने लगभग 226 लाख टन गेहूं की खरीद की जो एक रिकार्ड है। यह पूर्व वर्ष की खरीद की तुलना में डबल थी। समर्थन मूल्य अधिक होने के कारण लगभग पूरे वर्ष मंडियों में गेहूं की आवक बनी रही और सरकारी गोदामों से गेहूं का उठाव अधिक नहीं हो पाया। हालांकि सरकार ने रोलर फ्लोर मिलों को गेहूं बेचने की घोषणा की लेकिन गलत नीतियों के कारण इस स्कीम के तहत उठाव सीमित ही रहा।

अब हालात यह कि सरकारी गोदाम लबालब भरे पड़े हैं और नई फसल आने लगी है। बाजार में धन की तंगी के कारण व्यापारी, स्टाकिस्ट और बहुराष्ट्रीय कम्पनियां इस वर्ष भी खरीद करने के मूड में नहीं लगती हैं क्योंकि चालू वर्ष के लिए सरकार ने समर्थन मूल्य बढ़ा कर 1080 रुपए कर दिया है। व्यापारियों का कहना है कि ये भाव अधिक हैं।
गेहूं के निर्यात पर सरकार ने प्रतिबंध लगाया हुआ है। व्यापारियों का कहना है कि यदि सरकार प्रतिबंध समाप्त भी कर देती है तो भी निर्यात की संभावनाएं नहीं हैं क्योंकि विश्व बाजार में भाव भारत सरकार द्वारा तय समर्थन मूल्यों की तुलना में कम हैं। वास्तव में विश्व बाजार में जो भाव चल रहे हैं उन पर तटीय प्रदेशों में आयात किए जाने की संभावनाएं नजर आ रही हैं।
वास्तव में गेहूं की आवक बढ़ने पर आगामी दिनों में सरकारी एजेंसियों को गेहूं की खरीद करनी पड़ेगी और गोदामों में इसका स्टाक और बढ़ जाएगा और मजबूरन स्टाक को खुले में मौसम के सहारे छोड़ना पड़ेगा।
यदि सरकार गत वर्ष गेहूं के न्यूनतम समर्थन मूल्य 150 रुपए बढ़ाकर 1000 रुपए नहीं करती तो वर्तमान स्थिति से बचा जा सकता था। लोकसभा के आम चुनाव को देखते हुए अब सरकार ने भाव और बढ़ाकर 1080 रुपए प्रति िक्वंटन कर दिए हैं। इससे परेशानी और बढ़ जाएगी।

--राजेश शर्मा

Saturday, April 04, 2009

सोने का पिंजर (11)

ग्यारहवां अध्याय
आम भारतीय के लिए सचमुच स्वर्ग है अमेरिका.....

पश्चिम और फैशन दोनों शब्द अपने आप में भारत में पूरक समझे जाते हैं। लेकिन अमेरिका में फैशन सड़कों पर दिखायी नहीं देता, हो सकता है फिल्मों तक ही सीमित हो। वहाँ की वेशभूषा हमसे अलग है लेकिन उसे फैशन का नाम नहीं दिया जा सकता। फिर अमेरिका में इतने देशों के बाशिंदे रहते हैं कि सभी कुछ गड्डमड्ड हो गया है। पैन्ट और टी-शर्ट एक कॉमन ड्रेस बन गयी है। उच्च स्तरीय अमेरिकी कुछ नफासत से रहता है जबकि आम अमेरिकी या अन्य नागरिक बहुत ही साधारण वेशभूषा में, जिसे कतई फैशन का नाम नहीं दिया जा सकता। हम भारत के गाँव में भी निकलते हैं तब भी कपड़ों के प्रति सावचेत रहते हैं लेकिन वहाँ कही भी जाना हो, जैसे बैठे हो, उठकर चले जाओ। एक दिन कुछ लोग सूटेड-बूटेड दिखायी दे गए, मालूम पड़ा कि कोई सेमिनार है। व्यक्तित्व को निखारना भी यहाँ की आदत नहीं। जैसी आवश्यकता है, वैसी वेशभूषा है। भारत में सोना, चाँदी, हीरे, मोती, अमूमन महिलाओं के शरीर पर लदे हुए दिखायी दे जाएँगे। लेकिन वहाँ तो इनके दर्शन कभी-कभार ही होते हैं। मैंने हाथों में सोने की चूड़ियां पहन रखी थी। मुझे समझ नहीं आया कि इनमें भी क्या कोई बम छिपा सकता है? एयरपोर्ट पर कहा गया कि इन्हें भी उतारिए और ट्रे में रखकर एक्सरे कराइए। वहाँ चूड़ी क्या होती है, शायद कोई जानता ही नहीं। कभी शाम पड़े घूमने जाते, तब लगता कि नहीं भारत की तरह बन-सँवरकर जाना चाहिए, लेकिन वहाँ कोई देखने वाला ही नहीं।

जब व्यक्तित्व की बात आ ही गयी है तब एक बात बताना चाहती हूँ कि वहाँ जाकर लगा कि हम जैसे लोग अपना व्यक्तित्व खो देते हैं। क्या कभी आपने जिन्दगी में ऐसे दिन बिताए हैं, जब आपकी पहचान मिट जाए या खो जाए। आप अपने आपको खोजते रहें कि मैं कौन हूँ? अमेरिका में रहकर पूरा एक महीना से भी अधिक समय ऐसे ही अपने आपसे रिक्त होकर बिताया है। कुछ लोग कहते हैं कि अरे आप इन दिनों में माँ के रूप में रहे, कुछ कहेंगे कि आप इन दिनों में दादी के रूप में रहीं, लेकिन सच क्या है? अमेरिका आने के बाद समझ आता है कि व्यक्ति केवल एक जीव है। चलता-फिरता, खाता-पीता, सोता-जागता। इसके शरीर का कोई शिकार नहीं करता लेकिन इसके मन का शिकार प्रतिपल होता है। लाखों भारतीय यहाँ बसे हैं और कभी न कभी उनके माता-पिता यहाँ आकर रहते हैं, कुछ ज्यादा दिन और कुछ महीने-दो महीने। कुछ ने यहाँ ही बसेरा बना लिया है और कुछ आते-जाते रहते हैं। गाँव में चाची होती थी, ताई होती थी, जो सारे गाँव पर हुकम चलाती थी, फिर शहर में अपने मोहल्ले में हम सिमट गए और महानगरों में अपनी सोसायटी तक। लेकिन यहाँ विदेश में आप केवल आप हैं, आपकी पहचान आपके घर में भी नहीं होती। आप अच्छे से अच्छा खा सकते हैं, घूम सकते हैं लेकिन अधिकार आपके पास कुछ नहीं होता। अपने अधिकारों के लिए हमने शिक्षा पायी थी, जैसे-जैसे हम शिक्षित हुए, हम अधिकार विहीन हो गए।

मेरी एक मित्र भी उन दिनों न्यूयार्क में ही थी। मैंने भारत आने के बाद उनसे पूछा कि आपके क्या अनुभव रहे?

वे बोली कि सबसे अच्छी बात यह थी कि मुझे अपने आपसे बात करने का अवसर मिला। हम अक्सर जीवन की आपाधापी में सभी से बात करते हैं लेकिन कभी अपने आपसे बात नहीं करते। मुझे वहाँ इतना समय था कि मैं स्वयं से बात कर सकूँ। बेटा-बहू नौकरी पर चले जाते थे और मैं अकेली रह जाती थी। उस खाली समय में मैंने या तो पुराने पत्र पढ़े या फिर स्वयं से बातें की।

ऐसे ही एक मेरे पड़ोसी हैं, उनसे भी मैंने कभी प्रश्न किया था कि आप वहाँ क्या करते हैं? आपका समय कैसे व्यतीत होता है?

उन्होंने बताया कि घर के नीचे ही एक किताबों की दुकान है, मैं वहाँ चले जाता हूँ। सारा दिन किताबें पढ़ता हूँ। लेकिन सर्दियों में कठिनाई आती है, जब बर्फ के कारण घर में ही रहना पड़ता है, तब हम भारत लौट आते हैं।

भारत में हमारा ध्यान व्यक्तित्व विकास की ओर रहता है, हम बाह्य और आन्तरिक व्यक्तित्व विकास के लिए सदैव प्रयासरत रहते हैं। बाहरी सौंदर्य के लिए हमारी वेशभूषा, सौंदर्य प्रसाधन के लिए हम चिंतित रहते हैं वहीं आन्तरिक विकास के लिए रोजगार प्रधान शिक्षा के अतिरिक्त ज्ञान प्राप्त करने के लिए और अपनी सृजनात्मक क्षमता विकसित करने के लिए भी प्रयत्नरत रहते हैं। लेकिन अमेरिका में ऐसा नहीं है। यहाँ शारीरिक सुंदरता के लिए लोग चिंतित नहीं हैं। कुछ भी पहनो, कैसे भी घर से बाहर निकल जाओ, किसी को चिन्ता नहीं। कुछ उच्च वर्ग है जो सूटेड-बूटेड दिखायी देते हैं, बाकि देशी तो बस वार-त्यौहार ही सजते हैं। केवल कमाना और ऐश्वर्य भोगना जहाँ की संस्कृति का मूल मंत्र हो वहाँ व्यक्तित्व विकास के लिए कोई प्राथमिक स्थान नहीं है। बस पाँच दिन काम करो और दो दिन आनन्द। इसलिए मेरा यहाँ आना केवल आनन्द लेने तक ही सीमित होकर रह गया। मैंने अपने आप से पूछा कि बता तू कौन है? मन ने कहा कि एक लेखक, लेकिन वातावरण ने कहा कि एक नारी मात्र।

ऐसा नहीं है कि अमेरिका में भी लोग सृजन की ओर नहीं खिंचते। वे सारे हैरतअंगेज़ कार्य करते रहते हैं। लेकिन उनमें भारतीय नहीं हैं। भारतीयों का वहाँ पैसा कमाना ही जीवन का उद्देश्य है, इसी के लिए शिक्षा प्राप्त की जाती है और इसी के लिए व्यापार किया जाता है। इस कारण भारतीयों का ध्यान एक सूत्र तक ही सीमित होकर रह जाता है। अमेरिका में अर्थसंचय को प्रमुखता नहीं है। शिक्षा, मकान, गाड़ी सभी के लिए ऋण सुविधाएं हैं और शत-प्रतिशत लोग इसी का उपयोग करते हैं। सामाजिक बंधन नहीं के बराबर हैं और विवाह आदि पर खर्च भी न के बराबर ही है। वृद्धावस्था में सरकार अच्छी-खासी पेंशन देती है अर्थात वृद्धावस्था परिवार के अधीन न होकर सरकार के अधीन है। भारतीयों को सामाजिक बंधनों के कारण अर्थसंचय की मानसिकता है और यह हमारे खून में शामिल हो चुकी है। जो भारतीय वहाँ बसे हैं, वे अब सारे सामाजिक बंधनों से मुक्त हैं लेकिन फिर भी अर्थसंचय की मानसिकता समाप्त नहीं होती। यही कारण है कि वे केवल अर्थ की ही भाषा जानते हैं। वे किसी भी सृजन की ओर नहीं मुड़ पाते। हाँ, जब से वर्ल्‍ड ट्रेड सेंटर पर आक्रमण हुआ है तब से भारतीयों के मन में भी असुरक्षा का भाव आया है और उन्हें अपने देश की चिन्ता होने लगी है। क्योंकि वे जानते हैं कि हम अमेरिकी कभी नहीं कहला सकते। इसलिए इस दुनिया में हमारे लिए भी कहीं जमीन का टुकड़ा सुरक्षित रहना चाहिए। जैसे-जैसे दुनिया में लादेन का भय फैल रहा है और भारत में भी धार्मिक आतंकवाद दहशत पैदा करता है, वैसे-वैसे विदेश में बसा भारतीय भी अपने देश को सुरक्षित देखने के लिए प्रयासरत हो रहा है। इसलिए अब कुछ मात्रा में भारतीयों का ध्यान अपने देश की सुरक्षा की ओर भी जाने लगा है। वे भारतीय सामाजिक संस्थाओं को पैसा देने लगे हैं। इतना भर ही भारतीय जीवन शैली में बदलाव आया है।

जब सृजन की बात निकली है तो साहित्य की बात अछूती नहीं रह सकती। वहाँ साहित्य और लेखन के क्षेत्र में बहुत काम हो रहा है। उसका पता इसी बात से लगता है कि जहाँ भारत में पुस्तकों की दुकाने छोटी से छोटी होती जा रही हैं वहाँ पुस्तकों की विशाल दुकाने हैं। लोग वहाँ आते हैं और सारा दिन वहीं बैठकर पुस्तकें पढ़ते हैं। पुस्तकालयों में भी लोग आकर पढ़ते हैं और पुस्तकालयों से अधिक भीड़ पुस्तकों की दुकान पर होती है। क्योंकि वहाँ नयी से नयी पुस्तक उपलब्ध रहती है। अमेरिकन्स या यूँ कहूँ कि यूरोपियन्स मूलतः व्यापारी बुद्धि के होते हैं। अमेरिका में प्रमुख रूप से यूरोपियन्स ही आकर बसे हैं और आज वे ही अमेरिकन्स कहला रहे हैं। उन्हें मालूम है कि मुनाफा कैसे कमाया जाता है। हाल ही में हेरी पौटर की पुस्तक के नवीन खण्ड का विमोचन हुआ। मैं उस दिन वहीं थी। मालूम पड़ा कि उन्होंने सम्पूर्ण शहरों के विभिन्न केन्द्रों पर पुस्तक का विमोचन समारोह आयोजित किया। बच्चों के लिए विशेष कार्यक्रम रखे गए और उन्हें पुरस्कार भी दिए गए और फिर पुस्तक की बिक्री हुई। हम भारतीय साहित्यकार कहाँ ऐसी व्यापारी बुद्धि रखते हैं? तभी तो हमारे यहाँ 500 से एक हजार प्रतियां भी बिकना दूभर हो जाता है और उनकी पुस्तकें करोड़ों की संख्या में बिकती हैं। हम साहित्य के स्थान पर टेलीविजन से चिपक गए हैं लेकिन वे अभी भी साहित्य को महत्त्व देते हैं। उनका वीकेण्ड किसी जंगल में या समुद्र किनारे बीतता है और वे उन फुर्सत के क्षणों में साहित्य पढ़ते हैं। हम पर्यटन स्थानों में केवल पर्यटन करने ही जाते हैं, जबकि वे उन स्थानों में एकान्त ढूँढते हैं। लेकिन कुछ भारतीय भी अब अभिव्यक्ति के साधन ढूँढने लगे हैं और साहित्य की ओर मुड़ने लगे हैं। उन्हें समझ आने लगा है कि हमारी पहचान हिन्दी साहित्य से ही हो सकती है अतः वे हिन्दी की ओर लौट रहे हैं। वहाँ वे हिन्दी के पत्र निकाल रहे हैं, पत्रिकाएं निकाल रहे हैं और अपनी सोच को अभिव्यक्त कर रहे हैं। लेकिन उनकी सोच भी क्या? किसी भारतीय की सोच भारतीयता के अतिरिक्त क्या हो सकती है? वे भारत की बात लिखते हैं, भारतीय संस्कृति की बात लिखते हैं, लेकिन भारत को सम्पन्न बनाने के लिए प्रयत्न नहीं करते।

आम भारतीय सोचता है कि मैं अमेरिका में नहीं, स्वर्ग में रह रहा हूँ और भारत में लोग नरक में रह रहे हैं। वाकई अमेरिका स्वर्ग है। हमारे पुराणों में स्वर्ग की सारी कल्पना वहाँ साकार है। सुरा और सुन्दरी का भरपूर प्रयोग, कोई प्रतिबन्ध नहीं। अप्सराओं को बच्चे पैदा करने की छूट नहीं, उनका यौवन अक्षुण्ण रहना चाहिए। कभी भ्रमण के लिए निकली उर्वशी, पुरुरवा से मिलती है और मनुष्य के सुख और दुख, मिलन और विरह से परिचित होती है। एकरसता भंग होती है, सारे ही रसों को प्राप्त करने के लिए उर्वशी पृथ्वी पर रह जाती है। ऐसा ही है अमेरिका का स्वर्ग। वहाँ भी नारियां बच्चे नहीं चाहती, पुरुष को आनन्द समाप्त होने का भय सताता रहता है। किसी जीवन्त प्राणी को खिलाने का मन करे तो कुत्ता पाल लो। शायद युद्धिष्ठिर इसीलिए कुत्ते को अपने साथ स्वर्ग ले गए थे। सब कुछ साफ-सुथरा, एक सी बनावट, प्रकृति के साथ जीवन। केवल मनुष्य और मनुष्य की सत्ता। कोई किसी को रोकता नहीं, टोकता नहीं। कोई पारिवारिक बंधन नहीं, कोई मानसिक बंधन नहीं। लेकिन वास्तविक स्वर्ग में भी उर्वशी जैसी अप्सराएं कहाँ मानी थी? वे भी संतान के सुख को चखना चाहती थी, वहाँ भी एक दिन संतान की इच्छा अंकुरित हो ही जाती है और फिर संतान होने के बाद उस अद्भुत सुख के आगे स्वर्ग के सारे सुख फीके लगने लगते हैं।

अमेरिका में बच्चों के लिए विशेष मापदण्ड हैं। जैसे भारत में गाड़िये-लुहारों का जीवन गाड़ी से शुरू होता है और गाड़ी में ही समाप्त होता है वैसे ही अमेरिका में भी जीवन बिना गाड़ी के सम्भव नहीं है। बच्चे को गोद में बैठने की इजाज़त नहीं है, उसके लिए ‘कार-सीट’ का प्रबन्ध किया गया है। कार-सीट में बच्चे को बेल्ट से बाँधकर, उसका मुँह पीछे की तरफ रखो। बच्चे को चोट नहीं आनी चाहिए। लेकिन बच्चे तो मचलते रहते हैं, गोद में बैठने को, या फिर खिड़की से झाँकने को। बच्चा कब बंधन की भाषा समझता है? लेकिन उसे बंधन की भाषा तो समझनी ही पड़ेगी, यदि अमेरिका में रहना है तो। फिर अमेरिका में पैदा हुआ है तो वह अमेरिकी नागरिक बन गया है। वहाँ भारतीय बच्चे और अमेरिकी बच्चों में अन्तर दिखाई देता है। शायद यह अंतर हमारे जीन्स का ही होगा। वहाँ के बच्चे चुपचाप कार-सीट या स्ट्रोलर में बँधकर, चूसनी के सहारे पड़े रहते हैं, लेकिन भारतीय बच्चे बंधन पसन्द नहीं करते। हमारे यहाँ माँ की गोद चाहिए, सोते समय माँ की गर्मी चाहिए, लेकिन वहाँ पृथकता का सिद्धान्त ही लागू है। न गोद में बिठाओ और न बिस्तर में साथ सुलाओ। ममता का विस्तार नहीं होना चाहिए। बच्चे को दुनिया में संघर्ष करना है, उसे मजबूत होना है, तो अकेले रहने दो। बच्चा भी सोलह साल का होते-होते पंछी की तरह नीड़ से उड़ जाता है। तुम्हारी दुनिया अलग और मेरी दुनिया अलग। कुछ भी साँझा नहीं। न सुख साँझे और न दुख साँझे। जिन प्रश्नों को भारत में पूरा परिवार ही नहीं, पूरा समाज हल करता है, वे सारे प्रश्न वहाँ निजी हैं। यदि माता-पिता साथ भी रहते हैं तो परायों की तरह, क्योंकि उनके भविष्य के बारे में पूछने का अधिकार उन्हें नहीं हैं। माता-पिता अपने भविष्य के बारे में तो खैर बात कर ही नहीं सकते।

भगवान ने या प्रकृति ने ममता नामक एक भावना मनुष्यों में ऐसी भर दी है जिससे न तो वह निजात पा सकता है और न ही उसे धारण कर सकता है। इसलिए वहाँ का युवा ममता के इस अंकुर को अपने अंदर पनपने ही नहीं देना चाहते। वे जानते हैं कि हम कुछ दिन ही बच्चे के साथ रह सकेंगे और फिर जब हमारे हाथ धूजने लगेंगे, थर-थराने लगेंगे तब मन करेगा कि कोई मजबूत, जवान हाथ इन्हें आकर थाम ले। वे जानते हैं अपना भविष्य, इसलिए इस ममता को अंकुरित नहीं होने का प्रयास करते रहते हैं। फिर जिस देश की परम्परा में ही सहारा नहीं हो, वहाँ तो व्यक्ति परम्परा मानकर संतोष कर लेता है, लेकिन जिस देश में कूट-कूटकर एक ही भावना भरी गयी हो कि हम एक-दूसरे के सहारा हैं, वहाँ का व्यक्ति क्या करे? कैसे अपने मन को समझाए कि नहीं अब यह परम्परा भारत के बच्चों ने यहाँ आकर समाप्त कर दी है अतः तुम भी इसे भूलने का प्रयास करो। वहाँ जन्मे बच्चों का पालन-पोषण अमेरिकी बच्चों की तरह ही करना पड़ता है, क्योंकि अब वे अमेरिकी नागरिक बन गए हैं और उन्हें वैसे ही विकसित होना चाहिए। उनको वहीं के स्वाद का आस्वादन करना पड़ेगा। वहाँ बच्चों के लिए खिचड़ी, दलिया नहीं है। पैक फूड उपलब्ध है। कुछ अमेरिकी, बच्चे नहीं चाहते और कुत्ते-बिल्लियों से ही काम चलाते हैं, जबकि कुछ अमेरिकी ढेर सारे बच्चे चाहते हैं। वे बच्चों को जन्म भी देते हैं और गोद भी लेते हैं।

अमेरिका में सभी देशों के लोग रहते हैं अतः आपको कई घरों में कई देशों के बच्चे मिल जाएँगे, जिनको गोद लिया गया है। अमेरिका में ताकत की पूजा है अतः वे बच्चों को ताकतवर बनाना चाहते हैं। केवल उच्च शिक्षा में उनका विश्वास नहीं हैं। किताबी कीड़ा नहीं बनाना चाहते, वे जानते हैं कि दुनिया में जीवित रहना है तो अपने दम पर रहना पड़ेगा, अतः ताकतवर बनो।

मेरा मानना है कि भारत और अमेरिका की संस्कृति में रात-दिन का अन्तर है अतः अमेरिका देश अमेरिकन्स के लिए तो श्रेष्ठ स्थान है लेकिन भारतीयों के लिए संघर्ष करने का स्थान है। वहाँ प्रतिपल स्वयं से लड़ना पड़ता है। कभी जीभ के स्वाद को मारना पड़ता है, कभी पहनावे के साथ समझौता करना पड़ता है। सरकार को टेक्स दे-देकर कभी मन में अपने देश के उत्थान की बात को भी मन में ही दबाना पड़ता है। परिवार के प्रेम को मन में ही दफनाना पड़ता है। सबसे कठिन संघर्ष तो तब शुरू होता है, जब बच्चे 16 साल के हो जाते हैं। उनका नीड़ अलग बस जाता है, आप केवल अकेले होते हैं, केवल अकेले। तब तक भारत आने के रास्ते बन्द हो चुके होते हैं और वहाँ रहना एक मजबूरी बन जाती है। तब याद आती है, अपने देश की मिट्टी, अपनी बोली, अपने लोग। फिर हाथ में आ जाती है कलम, जो बिखेरने लगती है स्याही। फिर हम अपने देश पर लिखते हैं, भारतीय संस्कारों पर लिखते हैं और लिखते हैं अकेलेपन पर। भौतिक साधनों के आदि हुए हम, मन को मारते रहते हैं। भारत गरीब, पिछड़ा देश है, वहाँ कैसे सभ्य इंसान रह सकता है, यही सोच उन्हें वापस नहीं आने देती। इसलिए जब तक उनमें तड़प उत्पन्न न हो, तब तक भारतीयों को उस पारिवारिक-उष्माविहीन शीतल देश में रहने दो। एक दिन यही अपनेपन की उष्मा उन्हें भारत में खींच लाएगी, जब तक आप इंतजार कीजिए।

डॉ अजित गुप्ता

Friday, April 03, 2009

जनता ने भर दी है हामी, एम एल ए होंगे गोस्वामी

जब मस्ती के दिन थे...
सन् 1969 की बात है. तब उत्तर प्रदेश में अचानक मध्यावधि चुनाव घोषित हो गए थे. एक तो हमारी पढ़ाई में खलल, ऊपर से बाज़ार जाओ तो कानों में बेइंतहा चुनावी शोर. मैं उन दिनों चूड़ियों के शहर फ़िरोज़ाबाद में एम.एस.सी (गणित) पढ़ रहा था.

वैसे शोर के बावजूद बाज़ार में घूमना रोचक भी लगता था. सदर बाज़ार तो था भी बहुत लंबा. कम से कम दो किलो मीटर तो होगा ही. संकरी और लगभग पथरीली सी सड़क, जिस पर आम दिनों में जाओ तो लोगों का एक अंतहीन रेला सा नदी की तरह बह रहा होता. उस पर रिक्शों का सैलाब. चूड़ियों वाले तो हर दस कदम पर. फ़िरोज़ाबाद में छोटे बड़े कई कारखाने थे.. चूड़ियों के जब बाज़ार जाते थे तो कांग्रेस का गीत ज़ोर ज़ोर से बज रहा होता-

भूल न जाना भारत वालो किसी की होड़ा-होड़ी में
देख भाल कर मोहर लगाना दो बैलों की जोड़ी में

यानी दो बैलों की जोड़ी तो कांग्रेस का चुनाव-चिह्न था. बाद के वर्षों में जब बाबू जगजीवन राम कांग्रेस से अलग हो गए, तो दो बैलों की जोड़ी का चुनाव चिन्ह ख़ुद हड़पना चाहते थे. ऐसे में दिल्ली के करोल बाग़ में अटल जी (वाजपेयी) ने अपनी एक सिंह गर्जना में कहकहों का तूफ़ान सा बर्पा करते कहा था- 'अरे दो बैल हैं. चुनाव चिह्न पर लड़ते क्यों हो. एक बैल इंदिरा जी ले लें, एक जगजीवन राम बाबू!'

चुनाव के वो दिन सचमुच बहुत रोचक होते थे. आज की तरह दूरदर्शन नहीं था, इस लिए सब नेता करीब से दर्शन देने नज़दीक नज़दीक आते थे. यानी मोहल्लों या बाज़ारों में जन-सभाएं होती थी. बाज़ार से गुज़रो तो दुकानों के काउंटरों पर मुक्के पड़ रहे होते, क्यों कि गर्मजोशी से बहुत लोग आपा खो कर बहस कर रहे होते थे - 'जनसंघ ख्वामख्वाह टांग अड़ाता है'.

दूसरा चीख पड़ता- 'यहाँ निर्दलीय का निर्वाचन क्षेत्र है. पर कांग्रेस-जनसंघ मिल कर चलें तो निर्दलीय जो बिकाऊ होते है, सब की मिट्टी पलीत हो जाए'

-'ये तो बेवकूफों वाली बात हो गई. कांग्रेस-जनसंघ कब मिले थे कब मिलेंगे भला? इस जनम में तो नहीं'.
भारतीय जनता पार्टी का पहला अवतार भारतीय जनसंघ होता था, जो डॉ श्यामाप्रसाद मुख़र्जी ने बनाया था. जगह जगह डॉ श्यामा प्रसाद मुख़र्जी के पोस्टर लगे होते. साथ में चुनाव चिह्न छापा होता. दीपक. पर सचमुच, फ़िरोज़ाबाद तो निर्दलीय का निर्वाचन क्षेत्र था. चूड़ियों के तीन कारखाने चलाने वाले एक राजाराम चुनाव लड़ते थे, जिन का चुनाव चिन्ह था शेर. राजाराम को अपने कारखानों के मज़दूरों व मज़दूर-परिवारों का ज़बरदस्त समर्थन हासिल रहता था.

अक्सर रात 11 बजे तक पढ़ते पढ़ते बाज़ार घूमने निकल जाओ तो कभी पता चलता था वहां, अन्नपूर्णा होटल के नीचे अटल जी आ रहे हैं. तेज़ तेज़ दौड़ कर उत्तेजना में लोग वहां पहुँचते थे. वाजपेयी का भाषण 'मिस' कर गए तो बाकी ज़िन्दगी में बचा क्या. जा के जहर खाएं और क्या. वाजपेयी उस संकरी सी सड़क की जन-सभा में अक्सर मुस्करा कर लोगों से बतिया से रहे होते. कहते - 'भई, चन्द्रभानु गुप्त कहते हैं कि मेरी 295 सीटें आएंगी विधान-सभा में! अगर शेखियां ही बघारनी हैं तो चन्द्रभानु जी कहो कम से कम चार सौ सीटें आएंगी मेरी! यह क्या कि जैसे 'बाटा' के जूते के भीतर कीमत छपी होती है - चौंतीस रूपए पच्चानवे पैसे'!

लोगों का हँस हँस कर बुरा हाल होता.

सिनेमा के बहाने चुनाव प्रचार...

पर यह लेख तो मैं एक अन्य, निर्दलीय प्रत्याशी पर लिखने जा रहा था. वैसे कुछेक अपवादों को छोड़ कर देखा जाए, तो एक बार जनसंघ नेता बलराज मधोक ने दिल्ली की एक जनसभा में जो कहा था, वह अक्षरशः सत्य है. निर्दलीय तो होते ही नीलामी की चीज़ हैं. फ़िरोज़ाबाद में भी जब पढ़ पढ़ कर थक जाओ तो जा कर कुछ मित्र लोग सिनेमा-हॉल में बैठते थे. कोई कोई रिक्शे वाला मज़ाक करता था - 'बाबूजी विजय टाकीज़ में आग लग गई'!

-'हैं! मैं चीख पड़ता, विजय टाकीज़ में आग लग गई? कब? कब'?

रिक्शे वाला हंस पड़ता. उसके पीले दांतों वाली बतीसी को मैं पीछे, रिक्शे की सीट पर बैठे बैठे ही महसूस कर लेता. वह रिक्शा खींचता खींचता खींईं खींईं कर के हँसता और कहता- 'बाबूजी 'आग' तो फ़िल्म का नाम है. फिरोज़ खान की. विजय टाकीज़ में 'आग' फ़िल्म लग गई'!

मुझे लगता कि अब वह ऐसे खींईं खींईं करेगा कि मुंह से झाग निकलने लगेगी.

सिनेमा शुरू होने से पहले चुनावी स्लाइड्स देखो जी!

कोई हाथ जोड़ कर बगुला -भक्ति करता वोट मांग रहा है, कोई गरजने वाले पोज़ में खड़ा भाषण झाड़ रहा है, जैसे फ़िल्म का मज़ा किरकिरा करने आया है. एक प्रत्याशी ने तो गज़ब कर दिया. पहले हफ्ते स्लाइड आई, हाथ जोड़ कर कह रहा है - 'मैंने जनसंघ के पक्ष में नाम वापस ले लिया है. कृपया मुझे वोट न दे कर जनसंघ को दें'. कुछ दिन बाद उसी प्रत्याशी का एक और स्लाइड. हाथ जोड़ कर बगुला-भक्ति - 'मैंने नाम वापस लेने का निर्णय वापस ले लिया है. कृपया मुझे ही वोट दें'. फ़िर कुछ दिन बाद वही बगुला भगत सामने- 'मैंने कांग्रेस के पक्ष में अपना नाम वापस ले लिया है. कृपया मेरे मतदाता कांग्रेस को वोट दें'!

पता चला कि उस का तो मकान गिरवी रखा हुआ था. ऐसे बार बार कलाबाज़ियां करते करते गिरवी मकान छूट गया! वाह भई वाह! जय हो...

अथ श्री गोस्वामी कथा....

एक श्रीमान गोस्वामी पर यह संस्मरण लिखने चला था. जाने कितनी बातें और लिख गया. पर अब बस केवल गोस्वामी जी की बातें. पूरे फ़िरोज़ाबाद में तहलका मचा रखा था. जितनी हँसी उन के बारे में सोच कर आती, किसी भी प्रत्याशी के बारे में सोच कर न आती. उन का चुनाव चिह्न था साइकिल. खासे मोटे थे. चुनाव जीत गए तो विधान सभा में अच्छा खासा नमूना भी बन जाएंगे. कोई कहता- 'ये चुनाव जीत गया तो सब इसे कांग्रेसी ही समझेंगे, क्यों कि कांग्रेसी बहुत खाते पीते हैं न'! कोई कहता 'क्या बात करते हो भई? क्या जनसंघियों के खाने के दांत नहीं हैं? या उनकी पत्तल में कोई कुछ डालता नहीं. वो तो और भूखे हैं. पॉवर नहीं है न'!

- 'सब के सब एक ही थैली के हैं स्साले...'

बहरहाल. गोस्वामी जी कहीं भी चुनाव प्रचार करने नहीं जाते थे. जिस अन्नपूर्णा होटल का ज़िक्र ऊपर आया है, उस के साथ वाली तीन-मंज़िला इमारत में सब से ऊपर वाली मंज़िल गोस्वामी जी का घर. उस के ऊपर घर की छत. वहां एक बड़े से तख्त पर गोस्वामी जी ने खूबसूरत सा एक मंच बना रखा था. रंगीन डिज़ाइन-दार चद्दरों से ढका हुआ. मंच पर हर समय गोस्वामी जी हाथ में माइक लिए पल्थी मार कर विराजमान रहते. उन के पीछे एक और ऊंचे तख्त पर उन की सुंदर सी साइकिल रखी रहती, जो चुनाव में नामांकन भरते ही शायाद नई नई ख़रीदी गई थी. साइकिल बड़ी शानदार सी लगती. साइकिल के पीछे रंगीन कपड़े का एक विशाल सा बैनर होता, जिस पर लिखा होता-

जनता ने भर दी है हामी, एम एल ए होंगे गोस्वामी
जनता ने भर दी है हामी, एम एल ए होंगे गोस्वामी!

और केवल लिखे रहने से क्या होता है! गोस्वामी जी के हाथ में माइक जो है. सुबह सात बजे से रात ग्यारह बजे तक वे एक ही राग आलापते-

जनता ने भर दी है हामी, एम एल ए होंगे गोस्वामी!
जनता ने भर दी है हामी, एम एल ए होंगे गोस्वामी!

अब आप कल्पना करें ज़रा. सुबह नौ बजे के बाद ही सदर बाज़ार की पतली सी सड़क की हालत कुछ और पतली होनी शुरू हो जाती. सड़क पर लोगों का, रिक्शों का और रिक्शों में घूमते पोस्टरों का एक सैलाब सा. उस पर कई आवाज़ें एक साथ आती हैं:

जीतेगा भाई जीतेगा
दीपक वाला जीतेगा!

दीपक के बिल्ले भी बच्चे -बच्चे की कमीज़ पर होते, और दो बैलों की जोड़ी के भी. कांग्रेस का चलता फिरता ग्रामोफोन ज़ोर ज़ोर से बज रहा होता-

भूल न जाना भारत वालो किसी की होड़ा-होड़ी में
देख भाल कर मोहर लगाना दो बैलों की जोड़ी में
कांग्रेस ही पार करेगी इस भारत की नैया को
भूल न जाना भूल के देश की नैया के खेवैया को


इतने में एक लंबे से टेंपो को चारों तरफ़ से ढकते चार खूंखार शेर पहियों पर धीरे धीरे आगे बढ़ रहे होते. ये राजाराम चूड़ियों वाले के होते. शेरों के जबड़े इतने खूंखार तरीके से खुले होते, जैसे ये जनसंघ-कांग्रेस, दोनों को निगल जाएंगे. यह सारा सैलाब मानो इन शेरों को ही समर्पित है...

और इस सब के बीच लोगों के कानों में रस घोलता सा एक चुनावी भजन-

जनता ने भर दी है हामी, एम एल ए होंगे गोस्वामी!
लोग गर्दन में दर्द के बावजूद मुस्कराते और ऊपर देखते, क्यों कि केवल भजन की आवाज़ से ही पूरा मज़ा कहाँ आता है भला. गोस्वामी जी देखो तो, कितनी लय में आगे पीछे झूमते भी रहते हैं. जैसे विधान-सभा की बैकुंठ में पहुँच ही गए हों... जैसे ठुमरी में भाव बदल-बदल कर एक ही पंक्ति गई जाती है, 'पिया तोरी मुरली की धुन्न लागे प्यारी', 'पिया तोरी मुरली की धुन्न लागे प्यारी' कभी उलाहना तो कभी चुनौती. गोस्वामी जी भी सुर बदल बदल कर गाते-

जनता ने भर दी है हामी एम एल ए होंगे गोस्वामी...



कभी कभी तो कई लोग रुक कर खूब हँसते. जितने मोटे गोस्वामी जी, उतनी ही, उनसे मुकाबला सा करती उन की घरवाली. हालांकि जब वह छत पर प्रकट होती, तो हाथ में चाय का कप या पानी का गिलास लिए होती. पति की तरफ़ बढ़ते बढ़ते उसे भी ज़ोरों की हँसी आ रही होती. वह पति से माइक ले कर मोटी लेकिन बेहतर आवाज़ में गाती-

जनता ने भर दी है हामी एम एल ए होंगे गोस्वामी...
जनता ने भर दी है हामी एम एल ए होंगे गोस्वामी...


इस बीच गोस्वामी जी या तो चाय पी लेते या पानी-वानी. या थोड़े से अदृश्य हो कर खाना खा लेते. कभी उन की, कॉलेज में पढ़ने वाली, सांवली और अच्छे हाव-भाव वाली, आकर्षक, लम्बी सी बिटिया भी आ जाती. उसे तो और अधिक हँसी आती रहती, जिसे देख गोस्वामी भी मुस्करा देते. बेटी खड़े खड़े ही माइक ले कर सुरीली आवाज़ में गुनगुनाती सी, जैसे केवल साथ दे रही हो-

जनता ने...
चुनाव से दो दिन पहले ही शाम साढ़े चार बजे प्रचार बंद. सारा शोर-गुल थम गया. केवल दुकानों पर चिल्लाते लोग. और काउंटरों पर पड़ते मुक्के. या तेज़ तेज़ बहस कर के जाते लोग. गालियाँ भी उछलती. संवेदनाएं भी उमड़ती. शर्तें भी लगती. किसी किसी का रक्त-चाप भी 'हाई' हो जाता. और बस, इंतज़ार की घड़ी ख़त्म. चुनाव की सुबह आ गई. लोग सुबह से ही तैयार हो कर जाने लगे हैं. पार्टियों के कार्यकर्ताओं की साइकिलें दौड़ रही हैं. कैसे भी, दोपहर से पहले ही काफ़ी ऊंची-प्रतिशत में मतदाता मतदान केन्द्र पर पहुँच जाने चाहियें. बस, अधिक से अधिक मोहरें हमारी पार्टी के नाम लगें... नहीं तो... राजा राम का श्श्शेर ही गरजता रहेगा इस शहर में स्साला...

इस बीच गोस्वामी जी के क्या हाल हैं? क्या वे घर में आराम कर रहे हैं? अजी नहीं. जनता इतनी बड़ी हामी भर दे, और गोस्वामी जी आज के दिन भी घर बैठे रहें! गोस्वामी जी तो अपने उसी आसन पर विराजमान हैं. गोल-गोल से तकिये पर पीठ टिकाए. आज हाथ में माइक नहीं है, क्यों कि आज तो अनुमति ही नहीं है न!...

पर गोस्वामी जी अब लोगों के सैलाब को बढ़ते देख यह आभास देने लगे हैं कि सारी जनता उन से आशीर्वाद ले कर जा रही है. सो वे अच्छी तरह पल्थी मार कर हाथ जोड़ कर बैठ जाते हैं. जब उन्हें लगता है कि कुछ लोग ऊपर देख मुस्करा रहे हैं, तो वे मुस्करा कर दाहिनी हथेली से उन्हें आगे बढ़ने का इशारा कर देते हैं, जैसे सैलाब की लहर को आगे उलीच रहे हों. जब वे अदृश्य होते हैं तो उनके स्थान पर विराजमान है उन की घर वाली! बेटी आस-पास ही खड़ी-खड़ी नीचे की रौनक देख रही है, और मुस्कराती ऐसे है, जैसे न जाने किस हसरत से सब को जाता देख मुस्करा रही है. जैसे वह ख़ुद, उन का हिस्सा बन कर कहीं जाना चाहती है. लोग यहाँ से गुज़रते हुए खींईं खींईं करते अपने आगे बढ़ कर जाते हुए साथियों को रोक कर कहते जा हैं-

जनता ने भर दी है हामी!

और अब क्लाईमैक्स...

शाम चार बजे ही गोस्वामी जी ख़ुद हरकत में आ जाते हैं. उन की जो साइकिल उन के पीछे रखी रही इतने दिन, वह उतर जाती है. देखते देखते वह साइकिल तिमंज़िले मकान की छत से उतर कर नीचे सड़क पर आ जाती है. वोट देने को बाकी आधा घंटा लगभग बचा है. गोस्वामी जी तड़कती-भड़कती धोती व कमीज़ पहने, जिस पर सोने के बटन चमकते हुए दूर से नज़र आ रहे हैं, नीचे अपनी साइकिल पर सवार नज़र आ रहे हैं. एक पत्रकार ने क्डिच कर के उन की एक तस्वीर ले ली. बहुत प्रसन्न हुए गोस्वामी जी. साथ में खड़ा है एक रिक्शा जिस का चालक अपेक्षाकृत कुछ कम तड़कते -भड़कते कमीज़-पाजामे में है. रिक्शे में विराजमान हैं उन की पत्नी और बेटी. अब ये तीनों ख़ुद वोट देने जाएंगे.

रास्ते में भीड़ है. संकरी सड़क पर कुछ ट्रैफिक जाम सा है. रिक्शा धीरे धीरे ही बढ़ पा रहा है. 'Polling Station' आ गया है. पर लगता है, देर हो गई है. वो देखो...

-'अरे ए! रुको न!' गोस्वामी जी की घरवाली चिल्लाती है.

'Polling Station' का फाटक बंद किया जा रहा है. गोस्वामी जी जैसे Olympian की तरह तेज़ी से साइकिल बढ़ा कर बंद होते फाटक में घुस जाते हैं. पत्नी और बेटी वाला रिक्शा भी आधे बंद हो चुके फाटक में घुसते घुसते लड़खड़ा सा जाता है. पत्नी फ़िर चिल्लाई- 'क्या कर रहे हो? रुको...

पर शुक्र, तीनों अन्दर पहुँच गए. और लो, तीनों वोट देने वाले कमरे में से हाज़िर हैं अब. मतदान अधिकारी नाम पूछ कर अपनी अंगुली मतदाता सूची पर दौड़ाते हैं, और सहसा चौंक से जाते हैं.

- 'गोस्वामी जी...आप ही हैं'?

- 'हाँ हाँ, मैंने अभी कहा न, मैं भी प्रत्याशी हूँ और यहाँ मेरा वोट भी है'!

- 'ये...ये...कैसे हो गया'?


- 'क्या कैसे हो गया? क्या कहना चाहते हो तुम'?...

- 'आप के नाम का वोट तो पहले ही दिया जा चुका है'!

- 'क्या बात करते हो. तुम लोग यहाँ बैठे बैठे करते क्या हो? मैं अभी 'चीफ मिनिस्टर' को फ़ोन करता हूँ. यहाँ एक इतने बड़े 'कैंडीडेट' का वोट ही कोई और दे गया! और आप लोग चुपचाप देखते रहे? आप को पता ही नहीं चला'!

- 'हम कोई यहाँ के लोगों को जानते थोड़ेई हैं'! मतदान अधिकारी लाचार.

- 'जानते नहीं हैं! लेकिन यहाँ पार्टियों के इतने लोग बैठे हैं'?


गोस्वामी जी को लगा कि ज़रूर, यह इन पार्टियों के कार्यकर्ताओं की ही शरारत होगी.

अधिकारी बोला - 'आप भी बिठाते किसी को'!

पर मूड ख़राब हो चुका था. गोस्वामी जी की घरवाली क्या करने लगी कि मतदान अधिकारी को अपना नाम बोल कर धमाके से कहने लगी- 'मेरा ढूँढिये. अंगुली पर निशान कहाँ पर लगाओगे'?
अधिकारी ने गोस्वामी जी की घरवाली और बिटिया के नाम ढूंढ लिए. मूड ख़राब सही, गोस्वामी जी चले आए. माँ-बेटी ने बारी-बारी कोने में जा कर छुप कर वोट दे दिए और मत-पेटी में डाल दिए. जब तीनों फाटक से बहार निकले तो कोई शरारती सा वर्कर पीछे से गुनगुनाने लगा- 'जनता ने भर दी है...' गोस्वामी जी की बिटिया ने पीछे पलट कर देखा. न जाने क्या सोच कर कभी गंभीरता से अपनी मुस्कराहट ढक देती, कभी मुस्कराहट से गंभीरता ढक देती. जैसे समझ न आ रहा हो, उसे अब कैसे भाव चेहरे पर लाने चाहियें. लड़का लपक कर कहीं दुबक गया.

अब तीसरा दिन है. मतगणना ज़ोर शोर से हो रही है. राजाराम शेर वाला जीत गया भईई... अरे अभी नतीजा कहाँ आया है यार, अफवाह तो न फैलाओ... वोही जीतेगा और किस में दम है भईई, राजाराम से पंगा ले ले...

शाम तक रिक्शों से कार्यकर्त्ता लौटने लगे. राजाराम का जीतना तो चुनाव से पहले ही निश्चित था. मतगणना कभी भी ख़त्म हो. रात एक बजे, या उस से भी बाद. पर जीतेगा राजाराम शेर वाला ही. राजाराम चूड़ियों वाला. सब को चूड़ियाँ पहना दी उसने. परिणाम तो अगली सुबह आया, पर रात भर राजाराम के कार्यकर्ता देसी ठर्रे पी पी कर गलियों में या इधर उधर लुढ़के रहे...

...पार्टियों के कार्यकर्त्ता एक दूसरे को दोष देने लगे. 'तुम्हारी पार्टी ने टांग अड़ाई'. 'तुम्हारी पार्टी ने अड़ाई'...

पर अगली शाम शहर में एक अफवाह कैसी फ़ैली है! सच ही होगी न! कहते हैं, गोस्वामी जी के घर में झगड़ा मचा हुआ है. अखबार में किस को कितने वोट पड़े, सब आया है. 'अमर उजाला' में तो पूरे आंकड़े आए हैं. फिरोज़ाबाद के भी...राजाराम इतने लाख इतने हज़ार. जनसंघ इतने हज़ार. कांग्रेस इतने हज़ार... 'और... और वो गोस्वामी? गोस्वामी का भी तो बताओ'...

-'अरे यार वही तो झगड़ा पड़ा है उस के घर में'.


-'भई बताओ न, उसे कितने वोट पड़े! बेचारे ने भजन कर कर के गला बिठा दिया अपना!

-'गला-वाला ना बिठाया. जलेबी खाता रहा वो तो. इलेक्शन लड़ के अपनी ठरक पूरी कर रहा था. मोटा उतना ही रहा. जनसंघी देख कितने पतले हो गए. चिल्ला चिल्ला कर पागल हो गए. पर जित्ते फ़िर भी ना...हा हा'...

-'और कांग्रेसी स्साले'!

- 'कांग्रेसी तो इतना खावें इतना खावें कि आख्खा देश पतला हो जावे, कांग्रेसी ना होवें'!

- 'ही ही... पर प्यारे, गोस्वामी को कितने वोट पड़े'?

- 'जानते हो कितने'?

- 'पच्चीस? तीस'?
- 'अरे नहीं भईई, गोस्वामी को पड़ा सिर्फ़ एक वोट'!

- 'एक वोट! पर वोट तो उस की बीबी और बेटी दोनों ने दिया था! गोस्वामी का अपना वोट तो जनसंघी खा गए थे न'?


-'जनसंघी खा गए तुझे कैसे पता स्साले'?


- 'वो तो बताया ना, ज़्यादा भूखे हैं. पॉवर में जो नहीं हैं'!

- 'पर गोस्वामी के नाम सारे फ़िरोज़ाबाद में सिर्फ़ एक वोट पड़ा! गज़ब हो गया यार'!


- 'यही तो झगड़ा है. तुम लोग समझ नहीं पा रहे हो. गोस्वामी ने घर में झगड़ा खड़ा कर रखा है कि या तो मेरी बीबी या फ़िर बेटी, दोनो में से एक ने मेरे साथ गद्दारी की है. बेटी ज़िद पर कि 'बाप्पू मैन्ने तो आप को ही वोट दिया'. और बीबी भी बोल्ये 'मुन्नी के बापू मैंने साइकिल पर ही मोहर लगाई थी'...
अजीब सस्पेंस में फंस गया था सारा शहर...

लेखक- प्रेमचंद सहजवाला