सुबह-सुबह सोकर उठा तो राजेश चेतन का एसएमएस था- विष्णु प्रभाकर नहीं रहे। देह दान दोपहर २ बजे होगा। ऐसा लगा कि जैसे सुबह ने ठग लिया हो। अजीब संयोग है सितम्बर २००८ की ११ तारीख को ही साहित्यकारों का
१५ सदस्यीय समूह विष्णु प्रभाकर की खैरियत लेने गया था। और अप्रैल महीने की ११ तारीख को उन्होंने इस लोक से विदा ले ली।
मैंने
प्रेमचंद सहजवाला जी से
बलदेव वंशी का नं॰ लिया और उनसे बात की। उन्होंने कहा कि -
"विष्णु प्रभाकर सबसे बड़े साहित्यकार थे। बड़े ऐसे कि उन्होंने समाज की निम्नत्तम से निम्नत्तम वर्ग की पीड़ा को शब्द दिये और उच्च सामाजिक आदर्शों को स्थापित करने की कोशिश की। वे एक ऐसे साहित्यकार थे जो खेमेबाज़ी से बचते थे, सभी वरिष्ठ-कनिष्ठ लेखकों के वे घनिष्ठ थे। मेरे दोनों बेटों की शादियों में परिवार के सदस्य की भाँति आये। आज से २३ दिन पहले ४० वर्षीय मेरे छोटे बेटे का देहांत हो गया। मेरा दुःख दुगुना हो गया है। प्रभाकर ने आवारा मसीहा और अर्धनारीश्वर जैसी रचनाएँ कर खुद को अमर कर दिया। विष्णु ऐसे लेखक थे जिन्होंने दक्षिण-उत्तर भारत की मौसिक रेखा को पार किया था। वे दक्षिण में भी उतनी ही इज्जत पाते थे, जितनी की उत्तर में। विष्णु प्रभाकर प्रेमचंद, जैनेन्द्र कुमार, अज्ञेय, भवानी प्रसाद मिश्र, नागार्जुन आदि की साहित्यिक परम्परा के अंतिम स्तम्भ थे। आज हम साहित्यप्रेमी खुद को बहुत निर्धन महसूस कर रहे हैं।"बलदेव वंशी लगभग हर महीने विष्णु प्रभाकर के घर जाते रहे और उनके
बेटे अतुल प्रभाकर से विष्णु जी के स्वास्थ्य-समाचार लेते रहे।
NCERT के लिए पहले ही मर चुके थे प्रभाकरफिर पता चला कि वरिष्ठ साहित्यकार
केदार सिंह की बेटी संध्या सिंह (जोकि NCERT में हिन्दी-रीडर हैं) ने विष्णु प्रभाकर पर हिन्दी को दूसरी भाषा के तौर पर पढ़ने वालों NCERT के १०वीं कक्षा के विद्यार्थियों के लिए एक पुस्तक
(संवाद-२) पर काम किया है। मैंने उनका भी नं॰ जुगाड़ा और उनसे बात की। उन्होंने बताया-
"मैं विष्णु प्रभाकर से अधिक नहीं मिली हूँ। शायद १ या दो बार मिलना हुआ है। लेकिन जितना जाना है, उससे यह कह सकती हूँ कि वे साहित्यिक राजनीति से सर्वथा दूर रहने वाले व्यक्ति थे। उन्होंने साहित्य सेवा बहुत चुपचाप तरीके से और पूरी लगन से की।"संध्या सिंह ने आगे बताया कि एक बार NCERT की किसी पुस्तक में यह प्रकाशित कर दिया गया था कि विष्णु प्रभाकर नहीं रहे (लोगों ने सोचा होगा कि शायद ९५ वर्ष के बाद कहाँ कोई जीवित रहता है)। इस पर विष्णु प्रभाकर जी ने NCERT को पत्र लिखा था कि आपलोगों को ऐसा नहीं प्रकाशित करना चाहिए।
विष्णु से प्रभाकरविष्णु के नाम में प्रभाकर कैसे जुड़ा, उसकी एक बेहद रुचिपूर्ण कहानी है। अपने पैतृक गाँव मीरापुर के स्कूल में इनके पिता ने इनका नाम लिखवाया था विष्णु दयाल। जब आर्य समाज स्कूल में इनसे इनका वर्ण पूछा गया तो इन्होंने बताया-वैश्य। वहाँ के अध्यापन ने इनका नाम रख दिया विष्णु गुप्ता। जब इन्होंने सरकारी नौकरी ज्वाइन की तो इनके ऑफिसर ने इनका नाम विष्णु धर्मदत्त रख दिया क्योंकि उस दफ़्तर में कई गुप्ता थे और लोग कंफ्यूज्ड होते थे। वे 'विष्णु' नाम से लिखते रहे। एक बार इनके संपादक ने पूछा कि आप इतने छोटे नाम से क्यों लिखते हैं? तुमने कोई परीक्षा पास की है? इन्होंने कहा कि हाँ, इन्होंने हिन्दी में प्रभाकर की परीक्षा पास की है। उस संपादक इनका नाम बदलकर रख दिया विष्णु प्रभाकर।
विष्णु प्रभाकर- एक परिचयचूँकि मैंने प्रभाकर को बहुत अधिक नहीं पढ़ा है, इसलिए इनके लेखन पर अपने विचार नहीं दे सकता। नये पाठकों के लिए इनका परिचय दे रहा हूँ।
२९ जनवरी १९१२ को उ॰प्र॰ के मुज़फ़्फरनगर जिले के एक छोटे से गाँव मीरापुर में जन्मे विष्णु प्रभाकर के पिता दुर्गा प्रसाद एक धार्मिक व्यक्ति थे और अपने बेटे आधुनिक दुनिया से लम्बे समय तक दूर रखे। इनकी माँ महादेवी इनके परिवार की पहली साक्षर महिला थी जिन्होंने हिन्दुओं में पर्दा प्रथा का विरोध किया। १२ वर्ष के बाद, अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद, प्रभाकर आगे की पढ़ाई करने के लिए अपने मामा के पास हिसार (उस समय पंजाब का हिस्सा, अब हरियाणा का) चले गये, जहाँ इन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की। यह १९२९ की बात है। वे आगे भी पढ़ना चाहते थे, लेकिन आर्थिक हालत इसकी इजाजत नहीं देते थे, अतः इन्होंने एक दफ़्तर में चतुर्थ श्रेणी की एक नौकरी की और हिन्दी में प्रभाकर, विभूषण की डिग्री, संस्कृत में प्रज्ञा और अंग्रेजी में बीए की डिग्री हासिल की।
चूँकि पढ़ाई के साथ-साथ इनकी साहित्य में भी रुचि थी, अतः इन्होंने हिसार की ही एक नाटक कम्पनी ज्वाइन कर ली और १९३९ में अपना पहला नाटक लिखा हत्या के बाद। कुछ समय के लिए इन्होंने लेखन को अपना फुलटाइम पेशा भी बनाया। २७ वर्ष की अवस्था तक ये अपने मामा के ही परिवार के साथ रहते रहे, वहीं इनका विवाह १९३८ में सुशीला प्रभाकर से हुआ।
आज़ादी के बाद १९५५-५७ के बीच इन्होंने आकाशवाणी, नई दिल्ली में नाट्य-निर्देशक के तौर पर काम किया। ये ख़बरों में तब छाये रहे, जब २००५ में इन्होंने राष्ट्रपति भवन में हुए दुर्व्यवहार के कारण पद्यभूषण का सम्मान लौटा दिया।
इनकी कुछ महत्वपूर्ण कृतियाँउपन्यास- छलती रात, स्वप्नमयी, अर्धनारीश्वर
ड्रामा- नव प्रभात, डॉक्टर
कहानी-संग्रह- संघर्ष के बाद
नाटक- प्रकाश और परछाइयाँ, बारह एकांकी, अशोक
जीवनी- आवारा मसीहा
अन्य- जाने-अनजाने
विशेष- आवार मसीहा के लिए पद्मभूषण और अर्धानारीश्चर के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार ।
स्रोत- वीकिपीडिया
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18 बैठकबाजों का कहना है :
सर्जक,आलोचक कहलाने के उपक्रम से ज्यादा मरम्मती के काम में व्यस्त,इस मरम्मती के दौरान छवि,रचना और साहित्य को नया रुप देने की जद्दोजहद करनेवाला व्यक्तित्व। अंतिम बार मिलने पर तीन घंटे के दौरान पच्चीसो बार डाक-डाक,आज की डाक,हमारी डाक,डाक से भेजी गयी पत्रिका। ये शब्द उनकी सक्रियता को,घुप्प कमरे में बैठकर भी बाहर की हलचलों को जानने और उससे जुड़ने की छटपटाहट बहुत ही कम साहित्यकारों में देखता हूं। साहित्य को विरासत से ज्यादा लगातार बदलते रहनेवाले संदर्भ के रुप में देखने की कोशिश करनेवाला विकट साहित्यकार।
साहित्य के एक स्तम्भ का ढह जाना, दुखद है। मेरी उन्हें विनम्र श्रद्धांजली।
विचारों में आवारा चाहे न मानें
पर शब्दों का मसीहा तो मानना चाहिए हमें
।
विष्णु प्रभाकर जी को जिस डाक की तब चिंता रही
वह आज ई मेल और ब्लॉग पोस्टों की
टिप्पणियों में अबाध रूप से बह रही।
डाक अपना रूप बदल कर आई है
।
देह से दूर हुए पर विचार उनके रहेंगे सदा। यही है मेरी श्रद्धा की भावना।
विष्णु जी का जाना हिंदी साहित्य जगत को सूना कर गया....
हिंदयुग्म परिवार की ओर से उन्हें शत-शत नमन.
श्री विष्णु प्रभाकर जी नहीं रहे। वे लंबे समय से बीमार थे।दिल्ली का कोई भी ऐसा साहित्यकार नहीं होगा जो उनके संपर्क में न आया हो। हमारा उनसे अनेक बार संपर्क हुआ। अन्तिम भेंट डॉ हरीश नवल की बिटिया के विवाह- समारोह में हुई थी । अस्वस्थ थे फिर भी विवाह में आए थे । डॉ हरीश नवल डॉ विजयेन्द्र स्नातक जी के दामाद हैं। स्नातक जी और विष्णु प्रभाकर जी घनिष्ठ मित्र थे। उपस्थित समस्त साहित्यकार उनका आशीर्वाद ले रहे थे। उन्हें कम दिखाई दे रहा था। पहचानने में कठिनाई हो रही थी। सुनने की भी समस्या थी। फिर भी पहचान गए थे। पूछा था - और तुम्हारी लघुकथाओं का क्या हाल है ? खूब लिख रहे हो।
विष्णु जी अजमेरी गेट से पैदल आकर कनाट प्लेस के मोहन सिंह पैलेस के काफ़ी हाउस में पहुँचते थे । वहाँ वे साहित्यकारों से घिरे रहते थे । वे क्या नए क्या पुराने , क्या वामपंथी क्या अन्य , सब साहित्यकारों के प्रिय थे। वे साहित्यिक-राजनीति से दूर थे । इसलिए सबके थे। उनके साथ अनेक लघुकथा - संग्रहों में प्रकाशित होने के अवसर मिले हैं । वे दिल खोलकर प्रशंसा करते थे। विष्णु जी ने हमेशा नए साहित्यकारों को प्रोत्साहित किया था । कौन क्या और कैसा लिख रहा है उन्हें इसकी जानकारी रहती थी ।
वे पीतमपुरा के अपने निवास में आ गए तो कनाट प्लेस की गोष्ठियां बंद हो गईं।
प्रातः उनके निधन का समाचार टी वी पर सुनकर मन उदास हो गया।
अनेक स्मृतियाँ साकार हो गईं ।
ashok lav
यह साहित्य जगत को गहरा सदमा है। मैं विष्णू प्रभाकर को अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूँ और उनकी आत्मा की शांति की कामना करता हूँ।
प्रकाश बादल।
साहित्य जगत की एक हस्ती इस संसार से विदा हो गयी है जानकर मुझे भी बहुत दुःख हुआ. मैं भी अपनी श्रद्धांजलि देती हूँ. हम सब उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करें.
विष्णुप्रभाकर जी को हमारी श्रद्धाजंलि..हिन्दी साहित्य ने एक महान व्यक्तित्त्व खो दिया.
आवारा मसीहा चला गया अपने अंतिम भ्रमण पर.
साहित्यिक मसीहाई का एक सम्पूर्ण युग हुआ समाप्त.
रिक्तता जो भरना नितांत असम्भव है. श्रेष्ठ साहित्यकारों के बीच भी दूर दूर तक कोई नहीं जो ले सका उनका स्थान .
मेरी विनम्र श्रद्धांजलि.
आवारा मसीहा जैसी रचनाओं के इस मशहूर लेखक का हमारे बीच न होना, सही में बहुत सालता है। लेकिन प्रकृति का यही नियम है। दरअसल नागर साहब ने जो योगदान साहित्य समाज को दिया है, उसे कभी नहीं भूला जा सकता। सही मायनों में आज जब अच्छे साहित्य लिखे नहीं जा रहे हैं, उनकी बहुत याद आएगी..................
अचानक विष्णु पभाकर जी के चले जाने की खबर सुन कर धक्का लगा साथ ही इस बात का गहरा पश्चाताप भी हुआ की इतनें दिनों से दिल्ली में होनें के बावजुद एक बार भी उनसे मिलना नहीं हो सका। कालजयी पुस्तक 'आवारा मसीहा' के रचियता को विनम्र श्रधांजलि।
हिंदी साहित्य की निस्संदेह इक बहुत बड़ी क्षति है.
विष्णु प्रभाकर जी को भावभीनी श्रधांजलि एवं
शत् शत् नमन जो अपनी महान कृतियों में हमेशा अमर रहेंगे
विष्णु प्रभाकर जी को भावभीनी श्रधांजलि | Iishwar unki aatma ko shanti pradan kare.
विष्णु प्रभाकर को विनम्र श्रद्धांजलि , ईश्वर से उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करते हैं.
विष्णु प्रभाकर को श्रद्धांजलि ,
इश्वेर उनकी आत्मा को शान्ति दे.....
हिंद युग्म और समस्त हिंदी ब्लॉग जगत की तरफ से उन्हें नमन,,,,
विष्णु प्रभाकर सिर्फ साहित्यकार नहीं, महामानव भी थे. दिव्य नर्मदा का प्रकाशन प्रारंभ करते समय उनसे आशीष पाने का मन हुआ, पत्र लिखा लौटती डाक से उत्तर मिला...उन्होंने खुले मन से आशीष दिया था बिना किसी परिचय के. अंक भेजने पर वार्धक्य व रुग्णता के बावजूद उनका पत्र आता...वे बाहुत सहज, सरल तथा समर्पित व्यक्तित्व के धनी थे. उनके साथ एक युग का अंत हो गया...शोक संतप्त स्वजनों के प्रति शोक संवेदना...
डा.रमा द्विवेदी said..
पद्मश्री विष्णु प्रभाकर जी से एक बार हैदराबाद में मुलाकात हुई थी हमने उन्हें कादम्बिनी क्लब की गोष्ठी में आमंत्रित किया था और उनका सम्मान भी किया था आज भी मेरे पास उनका चित्र है। वे बहुत सरल-सहज और हँसमुख थे। इतने बड़े साहित्यकार थे फिर भी अभिमान रत्तीभर भी नहीं था। उन्होंने अपने युवाव्स्था के संस्मरण सुनाए थे जो हमारे लिए नितान्त नवीन अनुभव था । मैंने उन्हें जब अपना काव्यसंग्रह ’दे दो आकाश’ भेजा था तब उन्होंने उसे पढ़कर अपना आशीर्वाद पत्र में लिखकर भेजा था। वह पत्र आज भी थाती की तरह मेरे पास सुरक्षित है। कहने का तात्पर्य इतना ही है कि मैं उनके समक्ष एक बूँद भर भी नहीं थी फिर भी उन्होंने अस्वस्थता के बावजूद पत्र लिखकर भेजा ऐसी सरलता आज के युग में दुर्लभ है। नि:संदेह वे अप्रतिम व्यक्तित्व के धनी थे एवं महान साहित्यकार थे। हिंदी साहित्य जगत ने एक महान विभूति खो दी है और जो स्थान रिक्त हो गया है उसकी पूर्ति असंभव है। हम उन्हें अपने श्रद्धासुमन अर्पित कर शत-शत नमन करते हैं। ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति प्रदान करे एवं उनके परिवार को इस गहन वेदना को सहन करने की शक्ति दे।
शैलेश जी!
एक सुझाव युग्म के पाठकों के पास स्व. विष्णु प्रभाकर जी से जुडी जो स्मृतियाँ हैं उन्हें संकलित कर एक विशेषांक देने पर विचार करें. त्रयोदशी के दिन दे सकें तो...
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