Saturday, January 16, 2010

चांस पे डांस : नाच ना जाने, आँगन टेढ़ा

प्रशेन ह. क्यावल द्वारा फिल्म समीक्षा

जब किसी स्टार की लगातार तीन फिल्में सुपर हिट होती हैं, तो ये लाजमी है कि उसके नए फिल्म से लिए लोगों की अपेक्षाए बढेंगी ही। उस पर अगर वह फिल्म नाम से डांस फिल्म लगती हो और वह स्टार शाहीद कपूर जैसा अतुलनीय डांसिंग स्टार की हो तो कुछ जलवे की उम्मीद रखना कोई गलत बात भी नहीं है।

क्या केन घोष अपनी तीसरी फिल्म में इतनी सारी उम्मीदों पर खरे उतर पाये हैं?

कथा सारांश :

कहानी है समीर बहल (शाहीद कपूर) की जो एक बड़ा ब्रेक मिलने के लिए संघर्ष कर रहा है। दिन में कोरियर ऑफिस में काम करते-करते वह बहुत सारी जगह काम पाने की कोशिश करते रहता है। नाकारा भी जाता है तो उसे दिल पे न लेते हुए और कोशिश करते रहता है।

एक दिन एक म्यूजिक वीडियो के टेस्ट में वह चुना जाता है पर किसी और सिफारिश वाले बन्दे के कारण वह काम भी उसे नहीं मिलता। पर वहीं उसकी पहचान एक नृत्यनिर्देशिका सोनिया (जेनिलिया डिसौज़ा) से होती है। फिर से एक जगह काम पाने के लिए गए समीर को हीरो के लिए डायरेक्टर (मोहनीश बहल) चुन लेता है। और वहाँ फिर से समीर की मुलाकात सोनिया से होती है जो उस फिल्म की डांस डायरेक्टर है। दोनों दोस्त हो जाते है।

इस ख़ुशी के दिन ही समीर का मकानमालिक उसे घर से निकल देता है। ऐसी कठिनाइयों का सामना कर के क्या समीर अंत में जीत पाता है?

पटकथा:

कथा जब ख़ास नहीं होती है (बार-बार सुनी सी नहीं लगती क्या?) तो भी उसे पटकथाकार उभार कर एक अलग ऊँचाई पर ले जा सकता है। पर यहाँ ऐसा नहीं हो पाया है। पटकथाकार बार-बार कहानी को वहीं-वहीं घुमाता रहा है और कहानी जैसे एक ही जगह रुकी सी लगती है। फिल्म का प्रॉब्लम पटकथा में है क्योंकि इसी तरह की एक कहानी को "लक बाय चांस' फिल्म में अच्छी तरीके से पेश किया गया है.

दिग्दर्शन:

कमजोर कहानी को सशक्त पटकथा संभाल सकती है पर कमजोर पटकथा को अच्छा दिग्दर्शक भी संभाल नहीं सकता। और यहाँ तो केन घोस जी ने भी नहीं किया है। वे हर दृश्य को और ज्यादा धीमा कर के फिल्म को और बोरिंग बनाते हैं। अगर फिल्म की गति को तेज रखा होता तो शायद फिल्म कुछ हद तक ठीक हो सकती थी। पर यहाँ केन घोष ऐसा करने में नाकामयाब रहे है।

अभिनय:

अभिनय के मामले में शाहीद और जेनेलिया ने इमानदारी से मेहनत की है। शाहीद ने अच्छी एक्टिंग, डांसिंग एंड बॉडी सबका प्रदर्शन किया है पर जहाँ लेखन में ही कमजोरी है वे भी क्या कर सकते है। खून अगर कम हो तो शरीर तो पीला पड़ता ही है। बाकी सभी किरदारों ने अपना काम ठीक-ठाक किया है। पर फिल्म में किसी भी किरदार को निखारा नहीं गया है।

चित्रांकन :

चित्रांकन आज के ज़माने में ज्यादातर फिल्मों में अच्छा ही होता है। इस मामलेमें बॉलीवुड का तकनीकी स्तर ऊँचा हो ही गया है। यह फिल्म भी चकाचक है।

संगीत और पार्श्वसंगीत:

जहाँ शहीद हीरो है और फिल्म के नाम में ही डांस है तो लोग खूब मजेदार डांस की अपेक्षा करेगे ही। पर यहाँ ये डिपार्टमेंट भी कुछ ज्यादा असरदार नहीं हो पाया है। इस तरह के डांस तो हमलोग आजकल टीवी शो में भी देखते हैं। कई बार इससे ज्यादा अच्छे भी।

संकलन:

पटकथा में कंटेंट नहीं है, दिग्दर्शक ने शूटिंग के वक्त कुछ खांस किया नहीं है, तो निर्देशक ने सब जैसे के तैसे लगा दिया है। अगर फिल्म और छोटी की गयी होती और गतिमान रखी गयी होती तो शायद देखने लायक हो सकती थी।

निर्माण की गुणवत्ता:

निर्माण की गुणवत्ता अच्छी है। यू टीवी की फिल्म होने के कारण इस डिपार्टमेंट में कोई कमी नहीं है।

लेखा-जोखा:

*१/२ (१.५ तारे)

फिल्म में कुछ दृश्य मजेदार हैं पर उतने फिल्म को असरदार बनाने में काफी नहीं हैं। फिल्म एक ही जगह अटकी रहती है और किसी भी किरदार से दर्शक खुद को जोड़ नहीं पाते हैं। यह फिल्म देखने की सलाह मैं किसी को भी नहीं दे सकता-इसका मुझे खेद है।


चित्रपट समीक्षक:--- प्रशेन ह.क्यावल

तुम जिओ हजारों काल

अबके उनके जन्मदिन पर फेस टू फेस उन्हें शुभकामनाएं देने के लिए मैं उतावला था। पर मेरे उतावले होने से क्या होता है? जितनी बार भी उनके कार्यालय में फोन लगाता तो हर बार पीए कहता,’ अभी तुम उनसे से नहीं मिल सकते। पंद्रह दिन तक तो उन्हें बधाई देने वालों की रिजर्वेशन हो चुकी है। रोज फोन कर अपना समय तो खराब कर ही रहे हो मेरा भी समय खराब करते हो?’
‘उनका जन्मदिन कब तक चलने की संभावना है?’
‘यार ! झुग्गी वाले तो हैं नहीं। दमखम वाले हैं। जब तक उनके नियाोक्ताओं की इच्छा होगी तब तक जन्मदिन का जश्न चलता रहेगा। पर तुम हो कौन?’
‘ मैं... मैं तो रामजी दास हूं सर जी। जिसने उन्हें वोट दिया है। जो जबसे उनकी सरकार बनी है तबसे अभावों में जी रहा है। ’
‘यार बड़े बदतमीज हो। चार साल पहले एक वोट क्या दिया, जैसे उन्हें ही खरीद लिया।’
‘एक एक वोट कर ही तो वे नेता बने हैं। कभी कहते हैं कि मैं ज्योतिषी नहीं जो यह बता दूँ
कि कब चीनी सस्ती होगी। और दूसरे ही दिन भविष्यवाणी कर देते हैं कि आने वाले समय में जल्दी ही चीनी सस्ती हो जाएगी। उनसे मेरी ओर से यह तो पूछना कि उन्हें हमने जिताकर भविष्यवाणियाँ करने के लिए भेजा है या आम जनता के लिए काम करने के लिए?’
‘ अच्छा चल यार! जो नेता चरित्र और जबान फिसले लानत है उस नेता पर। ज्यादा दिमाग मत खा! कल आ जाना उनसे मिलने ठीक चार बजे। बीच में से उनका कीमती समय चुराकर तुझे दे रहा हूं।’
‘दो बजे क्यों नही?’
‘दो बजे तो उनका जनता का पेट काटने सॉरी, केक काटने का प्रोगाम है।’
‘धन्यवाद सर जी! बहुत बहुत धन्यवाद सर जी!’
‘ अच्छा अब बंदकर फोन! हिंदुस्तान का तभी तो विकास नहीं हो रहा है जब तुम लोग हिंदी को मरी बंदरिया के बच्चे की तरह गले से लगाए हो।’
....और मैं कल दस बजे कोहरे को चीरता हुआ उनके कार्यालय की ओर कूच कर गया। न कहीं ठंड लग रही थी न ही महीने से चल रहे जुकाम का दूर दूर तक कोई नामोनिशान था। इन दोनों को पता था कि मैं किस से मिलने जा रहा हूं। बड़ी से बड़ी बीमारियां इनका नाम सुनते ही समाज से छू मंत्र हो जाती हैं।
पीए द्वारा बताए टाइम के दो घंटे आद मेरी बारी आई। मर गया बैठ बैठ कर,‘ हूं! क्या नाम है?’ मुझे बिलकुल खाली देख उनका पीए घूरा।
‘ रामजी दास! जनाब को जन्मदिन की शुभकामनाएं देना चाहता हूं! बस!!’
‘क्या काम करते हो?’
‘ प्रधानमंत्री रोजगार योजना में सबको देने के बाद जो बचता है, करता हूं।’
‘चलो अंदर! पता नहीं कहां कहां से उठकर खाली हाथ चले आते हैं।’ और मैं उनसे मिलने अंदर। वे कुर्सी पर जन्मदिन इतने दिन जक मना शुभकामनाएं ले लेकर पूरी तरह थके हुए।
‘नमस्कार जी!’
‘ कौन??’
‘जी मैं रामजी दास !’
‘पर तुम तो मेरे जलसे के लिए हो। यहां कैसे आ गए?’
‘ जन्मदिन की शुभकामनाएं देने आया हूं।’
देख लो ,साथ में कोई समस्या तो नहीं लाए हो? समस्या से मुझे बहुत चिढ़ है।’ उनके कहने पर मैंने खुद को झाड़ा तो पता नहीं कहां से मरी एक समस्या झड़ गई। मैं इसे साथ लेकर तो आया नहीं था। समस्या फर्श पर गिरते देख वे गुस्साए,‘ यार! कम से कम जन्मदिन वाले दिन तो रंग में भंग मत डाला करो। जब देखो! कपड़ों की जगह समस्याओं को ओढ़े घूमते रहते हो। तुम लोगों के साथ यही तो एक प्राब्लम है। तभी तो तुम लोगों से सरकार में आने के बाद हम लोगों को मिलना कतई भी अच्छा नहीं लगता। प्राब्लम के अतिरिक्त कभी तो कुछ और भी लाया करो यार!’
‘अपने जन्म महीने में आप जनहित में क्या करना चाहते हो सर जी!’
‘सबसे पहले तो जनहित में इस महीने अपने लिए चार फार्म हाउस बनाऊंगा। जनता के कामों से जब जब थका करूंगा तो जनता के लिए रीफ्रेश होने कहीं भी चला जाया करूंगा ताकि मीडिया को पता ही न चले कि मै थक कर कहां हूं। फिर जनहित में इसी महीने अपने दिल का इलाज करवाने विदेश जाऊंगा ताकि लंबे समय तक जनता की सेवा कर सकूं। फिर जनहित में पक्की सड़कों को तुड़वा उन्हें फिर और पक्की करवाऊंगा। इसी महीने जनहित में अपनी दवाई की फैक्टरी की सप्लाई सरकारी अस्पतालों में लगवाऊंगा जनहित में गरीब बस्ती उठवा वहां फाइव स्टार होटल का पत्थर रखवाऊंगा। जनहित में अपने जन्म महीने में अपने नाम के दस और शिक्षा संस्थान खुलवाऊंगा ताकि वहां पर जनता के बच्चे चैन से पढ़ सकें। इसी महीने जनहित में ऊंचे पदों पर अपनों को बिठाऊंगा ताकि वे बेहिचके मेरे एंगिल से जनसेवा कर सकें।
‘और??’
‘अपने जन्म महीने में जनहित में शहर के अपने बंगले को और बड़ा करूंगा ताकि दूसरे नेताओं के आगे तुम्हारे नेता का कद बौना न लगे। विपक्ष की ऐसी तैसी घूमा कर रख दूंगा।‘
‘और????’
‘यार! बहुत नहीं हो गया एक महीने के लिए! काम करवा करवाकर मुझे मारने का इरादा है क्या!! तुम लोगों के साथ यही तो एक सबसे बड़ी मुश्किल है। दारू की बोतल ले एक वोट क्या देते हो सोचते हो स्वर्ग जमीन पर उतारने वाला मिल गया।’
‘जन्म मुबारक हो सर जी। आप जिओ हजारों साल, दिन के एक घंटे हो एक लाख!’

डॉ.अशोक गौतम

Saturday, January 09, 2010

क्या न्याय के लिये जान देना जरूरी है?

जी हां, शायद लग तो यूँ ही रहा है। रुचिका जैसी तमाम कई लड़कियाँ रोज आत्महत्याएँ करने के लिए मजबूर हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि इनकी पुकार न्याय के मंदिर तक नहीं पहुंच पातीं...और दुनिया बदस्तूर चलती रहती है। न्याय पाने में उन्नीस वर्ष का समय लग जाना और डीजीपी को बचाने के लिये हरियाणा के मुख्यमंत्रीी समेत पूरी राज्य व्यवस्था द्वारा अपनी पूरी ताकत लगा देना हमारी समूची कानूनी व्यवस्था को नग्न कर देता है। दोषी डीजीपी राठौर का साथ देने वाले भी उतने ही गुनाहगार हैं जितने कि स्वयं डीजीपी। राठौर को केवल छह माह की सजा और एक हजार जुर्माना लगाया जाना क्या न्याय संगत था ? जबकि छेड़छाड़ के लिए धारा 354 के तहत 2 साल की सजा का प्रावधान है। आखिर क्यों डीजीपी जैसे लोगों के लिए अलग और आम आदमी की सजा के लिए अलग कानून हैं? हालांकि अब इस मामले को मीडिया द्वारा उछाले जाने के बाद और लोगों की प्रतिक्रियाओं को देखते हुए सीआरपीसी के तहत अहम संशोधन लागू हुआ है। पर अब देखना यह है कि यह किस हद तक लागू होगा। क्योंकि इससे पहले भी कई ऐसे कानून बनाये गये हैं, और तोड़े भी गये हैं तो इन्हीं कानून के रक्षकों द्वारा ही।
अब यह सोचने वाली बात तो यह है कि आखिर क्यों रुचिका को जान देने के लिए मजबूर होना पड़ा? यदि पुलिस ने सही समय पर पीड़िता की शिकायत पर संज्ञान लिया होता तो आज रुचिका जिंदा होती। रुचिका जैसी लड़कियां प्रताड़ित होकर या तो आत्महत्या कर लेती हैं या फिर परिवार वालों पर पुलिसिया दवाब के चलते चुप रह जाती हैं ताउम्र सिसकने के लिए। यह कोई पहला किस्सा नहीं जब कोई रक्षक ही भक्षक बन गया हो । ऐसे ही भ्रष्ट अफसरों की लंबी फेहरिस्त है। शिवानी हत्याकांड में दोषी पाये गये आई पी एस अधिकारी आर के शर्मा, और अभी-अभी सुर्खियों में आया 13 साल पहले पूर्व डीआईजी टंडन पर आदिवासी लड़की को अगवा कर बलात्कार का मामला दर्ज है। इन सभी केसों में यह देखा गया है कि भ्रष्ट अफसरों के आरोप कभी सामने आये भी हैं तो यह सर्वविदित है कि उन्हें सत्तासीन किसी वरिष्ठ नेता का प्रश्रय मिला होता है जिससे यह सजा पाने में साफ बच निकलते हैं या फिर इनकी सजाओं में रियायत हो जाती है। दूसरे हमारे देश की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि जब निचली अदालतें राजनीतिक प्रभुत्ववालों के सामने या उंचे पदों पर बैठे भ्रष्ट अफसरों के सामने न्याय करने में अवश सी नजर आती है तब रही सही कसर उंची अदालतें उनके फैसलों को अनपेक्षित ढंग से बदल कर उनके हित में फैसले कर देती है। उससे भी बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण बात तो यह है कि यदि कोई ईमानदार अफसर अपने काम के प्रति ईमानदारी बरते तो उस पर रोक लगाना, उसका तबादला करा देना या फिर उसे हाशिये पर डाल दिया जाना कोई नयी बात नहीं। आईपीएस अधिकारी किरन बेदी को सच बोलने की सजा ’’सोशल इनजस्टिस‘‘ के तौर पर मिलेगी इसकी उन्हें कत्तई उम्मीद न थी। आला दर्जे की अधिकारी ने ऐसी संड़ांध व्यवस्था से क्षुब्घ होकर ही स्वैच्छिक सेवा निवृति ले ली थी।

मौजूदा न्याय व्यवस्था इतनी रुग्ण और अनउपयुक्त है जिसके इलाज के लिये सख्त से सख्त रास्ता खोजा जाना बेहद जरुरी हो गया है। कानून का चाबुक केवल आम आदमियों को पड़ता है क्योंकि वह बचने के उटपटांग रास्ते नहीं जानता या फिर किसी का वरदहस्त उसके सिर पर नहीं होता। सबसे पीड़ादायक बात तो तब होती है जब वर्षों तक न्याय नहीं हो पाता और उस पर भी जब अफसरों के नाम मामला दर्ज होता है,तब या तो वे प्रमोशन पा जाते हैं या लंबित जांच का उनके प्रमोशन पर कोई असर नहीं पड़ता। यानिकि कानून को ठेंगा दिखाने वाले स्वयं ही सरकारी तंत्रा के लोग होते हैं। उदाहरणार्थ कुछ समय पहले ही अपहरण के मामले में एक डीसीपी पर आरोप लगा था। आलम यह कि न तो उस पर कोई कार्रवाई हुई और न ही उसे गिरफतार किया गया। जबकि हुआ यूं कि प्रमोशन के तौर पर इसी डीजीपी ने सीआईडी में भी काम किया।

भारत को तात्कालिक न्यायिक सुधार की जरुरत है खासकर बलात्कार के मामले में कठोर से कठोर दंड की, जहां दुधमुंही बच्चियों को तक शिकार बनाने से नहीं चूका जाता। आये दिन बलात्कार की घटनाओं से पटे पड़े रहते हैं हमारे न्यूज पेपर जैसे कि यह आम बात हो गई हो। सरकार को चेतना होगा आखिर क्यों बार-बार ऐसी पुनरावृत्तियां होतीं हैं ? यौन उत्पीड़न और बलात्कार जैसे मामलों के लिये सख्त कानून क्यों नहीं बन रहे हैं? आखिर सवाल यह भी पैदा होना लाजमी है कि कौन हैं वे लोग जो ऐसे कठोर कानून नहीं चाहते ? और कौन हैं वे लोग जो ऐसे घृणित लोगों की पैरवी करते हैं ?क्या उन्हें सजा का प्रावधान नहीं होना चाहिए? आखिर कब तक ऐसी कई और रुचिकाओं को न्याय पाने के लिये जान देनी पड़ती रहेगी??
सुमीता केशवा