Saturday, January 31, 2009

सोने का पिंजर (3)

तीसरा अध्याय

गोरा रंग है तो राजा और काला रंग है तो गुलाम....!

एक नाम सबको याद हो जाता है, वीजा। लेकिन यह होता क्या है? कैसे बनता है? अधिकांश नहीं जानते। तुम्हारे यहाँ से संदेशा आता है कि वीजा बनवाना है, तो पासपोर्ट चाहिए।
अरे आप लोगों ने अपना पासपोर्ट भी नहीं बनवाया? कैसे लोग हैं आप?
लेकिन बेटा हम पासपोर्ट का क्या करते? यहाँ तो एक शहर से दूसरे शहर जाने के लिए केवल टिकट चाहिए।
नहीं, नहीं, सब फालतू की बाते हैं, आधुनिकता का यही तकाज़ा है कि आपके पास पासपोर्ट हो, क्रेडिट कार्ड हो, एटीएम कार्ड हो। चलिए अब बना लीजिए फटाफट।
तीन महीने पासपोर्ट में लग गए, अब वीज़ा की तैयारी शुरू करो। आपकी इनकम का स्टेटमेंट चाहिए। बेंक में कम से कम दो-चार लाख रूपए पड़े होने चाहिए। वह भी सेविंग अकाउण्ट में। दो-चार एफ.डी. भी होनी चाहिए। लगना चाहिए कि आप के पास धन-दौलत है, आप वापस आएँगे। घर का मकान होना तो निहायत ज़रूरी है। स्वयं का व्यापार है तो वीज़ा मिलना आसान है, क्योंकि अपना व्यापार करने तो वापस आना ही पड़ेगा। आपके बैंक में इतना रूपया होना चाहिए कि आपको अमेरिका में अकेले भी रहना पड़े तो रह सकें। क्या पता आपका बेटा आपको धक्का मारकर निकाल दे या फिर आपको ही वहाँ उसके साथ रहना नहीं भाए। फिर क्या करेंगे आप? सरकार क्यों आपका बोझा उठाए? इसलिए मकान के कागज़ भी चाहिए, इनकम टेक्स के कागज़ भी। जितने सबूत ले जा सको, ले लो। पता नहीं कब किसकी जरूरत पड़ जाए। यहीं से शुरू होता है हमारा हीनता-बोध। बात-बात पर झुँझलाहट सुनायी पड़ती है कि अरे, आपके पास यह नहीं है, यह नहीं है। अरे आपका वेतन इतना कम है? यहाँ तो चपरासी को भी इससे ज़्यादा मिलता है। हमे लगने लगता है कि हम वाकई बहुत ग़रीब हैं। हमारे पास दिखाने को तो कुछ भी नहीं है। क्या हुआ जो हम यहाँ स्वाभिमान से रहते हों, लेकिन तुम्हारे लिए पर्याप्त नहीं है।
अब कैसे बताएँ कि हमने तो पूरे परिवार का पेट पाला है। भारत में वेतन हज़ारों में ही मिलता है। एक डॉक्टर हो या फिर इंजीनियर, वेतन तो कुछ हज़ार बस। अब उसमें से कहाँ से लाएं लाखों की जमा रकम? भारत में तो बुद्धि-सम्पन्न संतानों की प्राप्ति के लिए संस्कार किए जाते हैं। बस एक ही बात का ध्यान रखा जाता है कि संतान बुद्धिशाली हो, जिससे वह पढ़-लिखकर माँ-बाप का सहारा बन सके। घर में बेईमानी का पैसा नहीं आना चाहिए, नहीं तो संतान बिगड़ जाएगी, पैसे का दुरूपयोग नहीं होना चाहिए, नहीं तो संतान के संस्कार बिगड़ जाएँगे। बस एक ही बात रहती है कि कैसे भी हों, संतान को संस्कारवान बना दें। बस एक बार संतान कुछ बन जाए तो हम गंगा नहायें। हमारा धर्म तो संतान में ही सीमित रहता है। संतान कुछ बन गयी तो पुण्य, नहीं बनी तो पाप। हम तो बुद्धि के भरोसे ही संतानों को श्रेष्ठ बनाना चाहते हैं। पैसे के भरोसे तो विद्या नहीं खरीदी जाती है। कोई भी नहीं चाहता कि हम हमारे बच्चों के लिए विद्या खरीदें। लेकिन अब तो चलन ही दूसरा हो गया। बच्चे पूछते हैं कि तुमने हम पर कितना रूपया खर्च किया? रूपया खर्च किया हो तो ठीक, नहीं तो तुमने कुछ नहीं किया।
सारा खेल ही पैसे का हो गया। हमने तो बुद्धि को महत्त्व दिया और तुमने कहा कि नहीं पैसा होना चाहिए। अब कहाँ से लाएं पैसा, जिसके सहारे वीजा मिले? खैर, जैसे-तैसे करके दिखा ही दिए कि कुछ लाख रूपये तो हमारे पास भी हैं। मकान भी है, गाड़ी भी है आदि, आदि। थैला भरकर सबूत एकत्र कर लिए और चल दिए खुशी-खुशी तुम्हारे दरबार में। हमने सोचा था कि भला तुम्हें क्या तकलीफ होगी हमारे वहाँ जाने में? हम कौन सा बसने जा रहे हैं, हम तो बस देखने ही तो जा रहे हैं तुम्हारा स्वर्ग। लेकिन तुमने कहा कि नहीं। तुम सब लालची देश के हो, जब तुम्हारी युवा-पीढ़ी हमारे लालच में आ जाती है, तब तुम क्यों नहीं? क्या गारंटी है कि तुम वहाँ बसना नहीं चाहोगे? फिर तुम्हारे पास तो ममता का कारण भी है।
वीजा साक्षात्कार के समय एक प्रश्न उछाला गया- “क्या करते हो?”
मेरे पति ने कहा- “डॉक्टर हूँ। “
“तुम्हारे पेशेंट को बाद में कौन देखेगा? नहीं, तुम्हें नहीं मिल सकता वीजा।“
एक मिनट के कुछ हिस्सों में ही फरमान जारी हो गया कि, स्वर्ग के दरवाजे तुम्हारे लिए नहीं खुल सकते। बहस की गुंजाइश नहीं, धक्के मारकर बाहर कर दिए जाओगे।
लोग कहने लगे कि डाक्टर से उन्हें डर लगता है कि कहीं वहीं बस नहीं जाए।
लेकिन वहाँ तो दो साल और पढ़ना पड़ता है, तब ही नौकरी सम्भव है? और इस उम्र में कौन पढ़ेगा? क्या कोई भी डॉक्टर अपनी कमाई छोड़कर वहाँ बसेगा, इस उम्र में?
लेकिन तुम्हारा स्टैम्प मौत का फरमान जैसा होता है। सारे सपने एक बार में ही बिखर जाते हैं। बरसों का सिंचित स्वाभिमान चूर-चूर हो जाता है।
लोग पूछते हैं- “अरे तुम्हें नहीं मिला वीजा? उसे तो मिल गया था। “
“क्या पूछा था तुमसे?”
“तुम्हें बताना ही नहीं था कि हम डॉक्टर हैं।“ जितने मुँह उतनी सलाह। आप क्षण-क्षण टूटते रहते हो। तुम्हारे वीजा-ऑफिस में लोग घण्टों बैठे रहते हैं, अब आस जगे? कुछ हँसते हुए बाहर निकलते हैं और कुछ रोते हुए। बाहर घूम रहे भिखारियों को कोई सौ रूपया दान देता है तो कोई दस रूपया। भिखारी भी जानते हैं कि किसे वीजा मिला है और किसे नहीं। तुम्हारे लिए तो रोज़ की ही बात है लेकिन हमारे लिए तो जीवन में पहली बार होती है। ‘बे मुरव्वत से तेरे कूँचे से हम निकले’ कहते हुए हमारे जैसे जाने कितने ही लोग तुम्हारे यहाँ से धकियाए जाते हैं। क्या पैसे वाले और क्या बिना पैसे वाले।
आदमी को कहा जाता है कि एक बार और प्रयास कर लो, पहले तो तुमसे चूक हो गयी अब सावधानी बरतना। कितने ही ऐसे लोग हैं जो दूसरी बार में भी धकियाए जाते हैं। उन्हें पता नहीं होता कि उन्हें किस बात के लिए उम्र-कैद की सजा सुनायी गयी है। क्यों नहीं वह अपने बच्चों से मिलने जा सकता? एक असुरक्षा-बोध मन में समाने लगता है। कहीं ऐसा नहीं हो कि हम कभी जा ही नहीं पाएँ? जरा सा बुखार भी मन को चिन्तित कर देता है कि हम बेटे के पास नहीं हैं, उसके सर पर हाथ फेरने को मन तरस जाता है। हर तरफ बेचारगी छा जाती है। बार-बार तुम्हारे यहाँ आकर बेइज्जत होने का मन भी नहीं करता। भारत में हर आदमी अपनी इज्जत को ही रोता है, उसे चाहे रोटी नहीं मिले लेकिन वह जिल्लत की रोटी कभी नहीं चाहता।
कितने चक्कर काटे आखिर तुम्हारे यहाँ? फिर कौन सी तुम्हारी फीस कम है? एक बार मैं पूरे दस हजार से भी ज्यादा खर्च हो जाते हैं, एक आदमी के। हजारों रूपयों में कमाने वाला भारतीय भला इतना पैसा तो अपने ऊपर कभी एक-बारगी में भी खर्च नहीं करता है और वह एक मिनट में ही तुम्हें दे आता है! केवल तुम्हारी ना सुनने के लिए! लोग तो कहते हैं कि यह भी तुम्हारे लिए एक धंधा है, पैसे कमाने का। रोज ही लोगों को धकियाते हो और उनकी फीस डकार जाते हो। बेचारे कुछ करना चाहें तो फिर डरा देते हो। बच्चे कहते हैं कि ऐसा भूल कर भी नहीं करना, नहीं तो जिन्दगी भर कम्प्यूटर में फीड हो जाएगा आपका नाम-ब्लैक लिस्ट में। फिर क्या पता बेटे-बेटियों को भी कठिनाई का सामना करना पड़े? ना बाबा ना, ऐसा काम नहीं करना। अपमान का घूँट पीकर रह जाओ।
मुझे तो लगता है कि तुम शरीफों के साथ ही ऐसा व्यवहार करते हो, बदमाशों को तो तुम रोक नहीं पाते। सारे ही आतंककारियों के पास तुम्हारा ग्रीन कार्ड है। सभी को तो तुमने सुरक्षा प्रदान की है। हाँ शायद तुम्हें ऐसे आतंककारियों की भी तो जरूरत पड़ती होगी न? तुम्हें तो कभी अफगानिस्तान को, कभी ईराक को नेस्तनाबूत करना जो पड़ता है। सारी दुनिया पर बादशाहत करने के लिए हिंसक लोग भी चाहिए ही न?। कैसी है तुम्हारी दुनिया, सारी दुनिया ही तुमने समेट रखी है। तुम भी क्या करो? यूरोपियन्स ने तुम पर आकर अधिकार जो कर लिया है। तुम्हारे वाशिंदे तो बेचारे बहुत सीधे-सादे लोग हैं। वे इतने आराम-तलब हैं कि उन्हें केवल आराम से मतलब है, काम से नहीं। उनके इतने बड़े देश को न जाने कितने यूरोपीय देशों के वासियों ने अपने कब्जे में कर रखा है?
जब तुम्हारी भूमि वीरान पड़ी थी, कुछ लाख लोग ही तो थे तुम्हारे पास। उस समय अंग्रेज वहाँ घुस आए थे। उन्होंने कितनी मार-काट की थी तुम्हारे यहाँ, तुम्हें कुछ याद है? तुम्हारा इतिहास कहता है कि अंग्रेज यहाँ आए और उन्होंने लाखों अमेरिकन्स को मारा। जो जितने अमेरिकन्स को मारता था उसे उतना ही बड़ा पुरस्कार मिलता था। उन्हें लगा कि अरे यह स्थान तो सुरक्षित है। यूरोप तो एशिया से लगा हुआ है, यहाँ तो सुरक्षा पर खतरा मँडरा सकता है। उन्होंने तुम्हारी धरती पर ही अपना आशियाना बनाने का प्रण कर लिया। सौलहवीं शताब्दी में तुम्हारे यहाँ जंगल और समुद्र के अलावा और क्या था? इंसानों की बस्ती कैसे बसे यही प्रश्न था अंग्रेजों के पास। तब वे अफ्रीका से गुलामों के रूप में ले आए थे वहाँ के वाशिंदों को। कुदरत भी कैसा खेल खेलती है, गोरा रंग है तो राजा और काला रंग है तो गुलाम! तुम्हें तब जरूरत थी ऐसे मेहनतकश इंसानों की जो तुम्हारी धरती को निखार सके, उसे रूप दे सके। तब तुमने किसी को भी वीजा से नहीं बाँधा। बस बेचारे काले लोग बँधे तुम्हारे एग्रीमेंट से। आज जो तुम देख रहे हो, वह सब उन काले लोगों की मेहनत का ही परिणाम है। कल क्या आज भी तो तुम्हारे यहाँ काले लोग ही तुम्हारे शहरों को साफ-सुथरा रख रहे हैं। तुम्हारे यहाँ के गोरे तो आज भी आराम-तलब ही बने हुए हैं।
मैं तुम्हारे वीजा-नियमों की बात कर रही थी। मैंने लाइन में खड़े लोगों के मन में एक भय देखा है जो उनकी आँखों में उतर आता है।
तुम कहते हो कि हमारे यहाँ हर कोई आकर बसना चाहता है। हम क्या करें? हमें नियम कड़े रखने पड़ते हैं।
लेकिन क्या तुम्हारे ये कड़े नियम सुपरिणाम देते हैं? कितने पंजाबी, कितनी बार शादी कर-कर के तुम्हारे यहाँ अपने पूरे परिवार को ले गए हैं? तुमने कितनों को रोक लिया? एक बार रोका, दो बार रोका, लेकिन उन्होंने कोई न कोई रास्ता निकाल ही लिया। लेकिन बेचारे वो माँ-बाप जिनके लाड़ले वहाँ पढ़ते हैं, नौकरी करते हैं, तुमने उन्हें भी रोक लिया। एक तरफ तो तुम अपने नियमों की दुहाई देते हो, दूसरी तरफ तुम लाचार दिखायी देते हो।
तुम्हारे शहरों के नियम इतने कड़े हैं कि आदमी वीजा समाप्त होने के बाद एक दिन भी नहीं रह सकता तो फिर तुम्हें वीजा देने में डर क्यों है? लेकिन यह बात नहीं है, तुम केवल माँ-बाप को ही रोकते हो। पंजाबी व्यक्ति जो वहाँ बसे भारतीयों को भोजन खिलाते हैं भला उन्हें तुम क्यों रोकोगे? यदि तुमने उन्हें रोक लिया तो भारतीय भूखा नहीं मर जाएगा? आज सारे ही अमेरिका में पंजाबी लोग अपने खाने से भारतीयों को वहाँ टिकने में सहयोग कर रहे हैं। यदि उन्हें भारतीय खाना नहीं मिलेगा तब फिर वे कैसे आजीवन तुम्हारी सेवा कर सकेंगे? इसलिए तुम्हारा वीजा-कार्यालय केवल डर पैदा करता है, वह भी केवल सीधे लोगों के मन में। तुम जिसे चाहते हो उसे बुला लेते हो और जिसे नहीं, उसे भगा देते हो।
फिर तुम बूढ़े माँ-बापों को अपने यहाँ आने भी क्यों दो? यदि भारत के सारे ही माता-पिता वहाँ जाकर बस गए तब तो तुम्हारा बहुत नुक्सान हो जाएगा। तुम तो सामाजिक-सुरक्षा के नाम पर बहुत बड़ा टैक्स वसूल करते हो। बूढ़े माता-पिता की सुरक्षा करना तुम्हारी सरकारों का कार्य है। अतः वे बुढ़ापे में इस टैक्स की सहायता से उन्हें आर्थिक सहयोग देते हैं। भारतीय भी टैक्स देते हैं लेकिन उनका टैक्स तो पुनः उनके माता-पिता के लिए काम नहीं आता। वह तो तुम्हारे पास ही रह जाता है। न ही इस अतुल धनराशि को तुम भारत भेजते हो। कभी देखी है तुमने भारत में आकर उन माता-पिता की स्थिति को? हमारे भारत में हमारा एक ही सपना होता है कि हम अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा कर योग्य बनाएं जिससे हमारा बुढ़ापा सुधर जाए। इसलिए बेचारे माता-पिता खुद रूखी खाते हैं लेकिन अपने बच्चों को अच्छे स्कूल में भेजते हैं। अपने जीवन की सारी जमा-पूँजी बच्चों की पढ़ाई पर खर्च कर देते हैं। जब बच्चों के मन में आता है कि वे भी अमेरिका जाएं तब भी वे उन्हें भेजते हैं। यहाँ ऐसे बहुत से माता-पिता मिल जाएँगे जिन्होंने लाखों रूपया कर्ज लिया है अपने बच्चों को तुम्हारे पास भेजने के लिए। आज वे बेचारे कर्ज में डूबे हैं और तुम उनके बच्चों से अपना देश उन्नत कर रहे हो।
हमने हिम्मत करके एक बार और तुम्हारे वीजा-कार्यालय में दस्तक दी। इस बार हमारी बेटी कि जिद थी कि नहीं भैया से मिलकर आएँगे। हम इस बार भी बड़ी आशा से तुम्हारे दरबार में चले आए कि शायद इस बार तुम्हारे यहाँ हमारी सुनाई हो जाए। लेकिन इस बार भी तुमने हमें टका सा जवाब दे दिया। कारण भी बड़ा अजीब था, हमारे आगे एक वृद्ध दम्पत्ति थे, उनका साक्षात्कार पूरा हुआ और हम आगे बढ़े।
मेरी बेटी ने उनसे पूछ लिया कि अंकल क्या हुआ?
तुम्हारी ऑफीसर ने देख लिया। बस फिर क्या था, वह एकदम चिढ़ गयी। गुस्से में बोली कि उनसे क्या पूछ रही थीं?
मैंने बात को सम्भालने की कोशिश भी की लेकिन बात तो बिगड़ गयी थी। उनका डर कायम रहना चाहिए, यदि यह डर ही मिट गया तब फिर कैसे काम चलेगा?
बस हमसे पूछा कि वेतन कितना है? बेचारे भारतीयों का वेतन तो हजारों में ही होता है, बता दिया। अरे यह तो बहुत कम है, और धड़ाक से लगाया स्टेम्प और हो गया हजारों रूपयों का नास। बेटी कुछ बोलने को हुई तो जवाब मिला कि तुम चुप रहो, तुम्हारे कारण ही नहीं दे रही हूँ, इन्हें तो मैं एक बार कन्सीडर कर भी लेती लेकिन तुम्हें तो कदापि नहीं।
कैसा मानसिक अवसाद दे जाते हैं तुम्हारे ये अफसर? कभी तुमने सोचा है? लेकिन तुम क्यों सोचोंगे? तुम्हारे लिए तो हम केवल कीड़े-मकोड़े हैं। तुम्हारे यहाँ आकर भीड़ बढ़ाने वाले और तुम्हारे संचित धन को हड़पने वाले। तुम जानते हो कि हमारी संताने कभी प्रतिक्रिया स्वरूप तुम्हें नहीं छोड़कर आएँगी। तुम्हें तो उनसे मतलब है। वे तुम्हारे देश की उन्नति में सहायक जो हैं। फिर तुम चालीस प्रतिशत के करीब उनसे टेक्स भी तो वसूलते हो। तुम उन्हें क्या देते हो? वे तो वहाँ जाकर अपना शाही जीवन ही भूल जाते हैं। बेचारे किस मानसिक तनाव में रहते हैं। आधे के करीब तो तुम पैसा वापस ले लेते हो, फिर वे क्या तो खाए और क्या बचाए? वे कैसे अपने माता-पिता को पैसे भेजे? वे तो स्वयं पाई-पाई बचाकर वीकेण्ड मनाते हैं। उनसे ज्यादा सुख से तो उनके माता-पिता भारत में रहते हैं जो हजारों रूपया ही कमाते हैं।
हमारे यहाँ टैक्स बचाने के कितने साधन हैं, लेकिन तुम्हारे यहाँ नहीं। चालीस प्रतिशत मतलब चालीस प्रतिशत। कहीं कमी नहीं। तुम्हारे यहाँ एक साधारण भारतीय को पाँच या छः हजार डॉलर मिलते हैं, तुम उसमें से दो हजार डॉलर से अधिक तो काट ही लेते हो। एक-डेढ़ हजार मकान किराए में चला जाता है। बाकी बचते हैं दो या तीन हजार। अब उसमें क्या खाए और क्या बचाए? हमने जिन बच्चों को फूल जैसा पाला था, पानी भी जिन्होंने कभी हाथ से नहीं पीया था आज वे ही हाथ बर्तन माँज रहे हैं। हमारे यहाँ लड़के तो कभी हिलते भी नहीं, लड़कियों को तो हम कह भी देते हैं कि हमारा रसोई में हाथ बँटा दो। लेकिन तुम्हारे यहाँ तो बेचारे लड़के ही बर्तन माँजते रहते हैं।
यहाँ हर आदमी पूछता है कि अरे नौकर नहीं है क्या? कितना ही समझा दो लेकिन यहाँ के आदमी के सर से नौकर का भूत निकलता ही नहीं। वे समझ ही नहीं पाते कि वहाँ नौकर रखना आसान नहीं है? एक घण्टे के दस डॉलर देने पड़ते हैं। नौकर को इतना पैसा दे दें तो फिर खाएँगे क्या? हमारे जैसे नहीं कि हजार-पाँच सौ में बाई मिल जाती है जो सारा दिन काम कर देती है। गरीब से गरीब आदमी भी बर्तन-वाली तो रख ही लेता है। हमारे यहाँ घर की बहू को अगर बर्तन माँजने पड़े तो हमें शर्मिंदगी होती है। लोग कहते हैं कि कैसा घर है जहाँ बेचारी बहु को बर्तन माँजने पड़ रहे हैं? लोग बहु के आते ही बर्तनवाली तो लगा ही लेते हैं। अब तुम्हारे यहाँ क्या बहु और क्या दामाद, सभी तो गू-मूत साफ करते हैं।
फिर भी होड़ लगी है तुम्हारे यहाँ आने की। जैसे स्वर्ग किसी ने नहीं देखा लेकिन सभी स्वर्ग ही जाना चाहते हैं। वैसे ही तुम्हारा जाप करते हैं लोग यहाँ। अमेरिका जाने का अर्थ है जीवनभर के पापों का धुलना। जब कुछ लोगों को वीजा नहीं मिलता तो वे भी गलत तरीके अपनाते हैं। दलालों के झाँसे में आते हैं और कभी तो उन्हें दलाल अमेरिका के जहाज में बैठा पाता है और कभी नहीं। न जाने कितने ही युवा और बुजुर्ग इस झाँसे में आकर अपना सब कुछ खो बैठते हैं। एक तरफ तुम्हारा ऐलान है कि हमारे यहाँ नियम इतने कड़े हैं कि हमारी मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता। और दूसरी तरफ तुम इतने डरते हो वीजा देने से? क्या तुम्हारी पुलिस उन्हें पकड़ने में नाकारा है जो बिना वीजा के वहाँ रहते हैं? यह दोष तो हमारी पुलिस पर ही तुम लगाते हो। फिर तुम्हें डर कैसा?

डॉ अजित गुप्ता
क्रमश:

Friday, January 30, 2009

मदमस्त पीढियां, लड़खड़ाती सभ्यताएं....

मैंगलौर में पब में क्या हुआ, ये सब को पता है। किसने क्या कहा, ये बात दोहराने की जरूरत नहीं है। लेकिन जो कुछ हुआ, उसका दोषी कौन है, ये जानना जरूरी है। उसी की पड़ताल करते हैं आज। कठघरे में खड़े होंगे राजनैतिक दल, श्री राम सेना, मीडिया और हम।

पब में युवा नाच रहे थे, शराब पी रहे थे, और क्या क्या कर रहे थे..ये हमें नहीं पता। रेव पार्टी थी या नहीं, ये भी नहीं पता। रेव पार्टी गैरकानूनी है क्योंकि वहाँ ड्रग्स का सेवन होता है। उस पब में क्या वैसा हो रहा था? यदि हाँ, तो क्या हमारा युवा वर्ग अपने भविष्य को लेकर चिंतित नहीं है? ड्रग्स सेहत के लिये हानिकारक है, क्या उसके नशे में हमारा युवा खोता जा रहा है? इस सबके जिम्मेवार वे खुद हैं, उनके माता-पिता हैं। और अगर वैसा नहीं था..और केवल लोग नाच-गा रहे थे..तो..?

वैसे कोई अपनी व्यक्तिगत ज़िन्दगी में क्या करता है उससे किसी को क्या दिक्कत हो सकती है? हम कौन होते हैं किसी की ज़िन्दगी में दखल देने वाले। पूछिये किसी से भी यही जवाब मिलेगा...मेरी पर्सनल लाइफ है..तू कौन होता है? बात भी सही है। अब श्रीराम सेना या मनसे या शिवसेना या और भी कोई "संस्कृति समर्थक" दल कौन होता है लड़के-लड़कियों को पीटने वाला? उन्होंने कोई ठेका नहीं लिया हुआ देश का। और न ही वे हमेशा सही होते हैं। ये दल वैलेंटाइन डे का विरोध करेंगे लेकिन युवाओं में बसंत पंचमी के बारे में जागरुकता नहीं फैलायेंगे। भई प्यार का इज़हार हर कोई अपने तरीके से करता है। भारतीय तरीका यदि है तो लोगों तक पहुँचा जाये। अब पाश्चात्य की कब तक बुराई करेंगे? वहाँ से पैसा भी तो बहुत आता है... ये केवल हिंदू दल करते हों ऐसा नहीं है। सानिया मिर्ज़ा को कैसी ड्रेस पहननी चाहिये, ये उलेमा और फतवा जारी करने वाले संगठन बताते हैं। फलाने पर १ करोड़ का इनाम, कभी ये फतवा कभी वो फतवा। जिन लोगों को फ़तवे का मतलब नहीं पता वे भी इस शब्द से वाकिफ़ हो गये हैं।

अब बात करते हैं राजनैतिक दलों की। ये दल अब नैतिक दल बन गये हैं। कर्नाटक में येदुरप्पा बोले कि पब कल्चर गलत है तो कांग्रेस शासित प्रदेश राजस्थान के सी.एम. अशोक गहलोत भी यही जुबान बोले। पर इनको समझाओ की शराब से इन्हें कितनी कमाई होती है। पब कैसे बंद करोगे? दिल्ली में शीला आँटी ने कुछ समय पहले कहा था कि मॉल में भी ठेके खुलने चाहिये। अब? भई जब पैसा दिख रहा हो तो थोड़ा सोच कर बोलिये। कर्नाटक के ४००० पबों को कैसे बंद करोगे? बंद करना है तो ड्रग्स के बारे में जागरूकता फैलाये। किसी पर पाबंदी ठीक नहीं। डेमोक्रेसी के खिलाफ है। लोकतंत्र खतरे में पड़ जायेगा। वैसे अगले ही पल कांग्रेस और बीजेपी दोनों पीछे हट जायेंगी..हम जानते हैं...

अब बात करते हैं उस क्षेत्र की जो अपनी ही धुन में चला जा रहा है। यानि कि मीडिया। श्री राम सेना नामक संगठन का हमला होने वाला है। ये बात कुछ मीडिया वालों को पता थी। तो बस पहुँच गये कैमरा लेकर। पुलिस को सूचित करना अपना धर्म नहीं समझा। लड़कियों को पिटते हुए देखते रहे पर खुद कुछ नहीं किया सिवाय शूट करने के। अगर रोक देते तो ब्रेकिंग न्यूज़ कैसे दिखा पाते? हद है पत्रकारों की... या सोच का फर्क है....

मैंगलौर में जो कुछ हुआ वो गलत हुआ। हमें कोई हक नहीं कुछ करने का, किसी को कुछ कहने का। पुलिस व कानून अपनी जगह है। पब चलते रहेंगे। उन्हें बंद करना कोई उपाय नहीं है। ज़ोर जबर्दस्ती से अपनी बात कोई नहीं मनवा सकता है। युवाओं को खुद समझना होगा कि उनके लिये क्या सही है व क्या गलत। राजनैतिक दल, मीडिया, 'सेना', उलेमा या हम..सब इसी समाज का हिस्सा हैं... थोड़ा सोच समझकर काम लिया जाये तो स्थिति से निपटा जा सकता है।

तपन शर्मा

Thursday, January 29, 2009

पद्मश्री का बनता मजाक...

इसे मजाक नहीं तो और क्या कहेंगे। पद्मश्री वो सम्मान है जो भारतीय नागरिक को उसके क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान के लिये दिया जाता है। हर वर्ष कभी खेल रत्न तो कभी अर्जुन अवार्ड विवादों में घिरे रहे। इस बार भी विवाद कम नहीं है। महाराष्ट्र और कर्नाटक की दो सेनाओं की वजह से इस सम्मान से जुड़े कुछ सवाल थोड़े समय के लिये पीछे चले गये।

कहते हैं कि जरूरत पड़ने पर गधे को भी बाप बनाना पड़ता है। लेकिन राजनीति में हर ओर गधे ही गधे हैं। कांग्रेस सरकार की मदद की समाजवादी पार्टी ने। तो एहसान तो उतारा ही जाना चाहिये। सपा नेता अमर सिंह के बड़े भाई की बहू, यानि ऐश्वर्य राय बच्चन को पद्मश्री से सम्मानित करने की घोषणा के साथ ही विवाद ने जन्म ले लिया था। सवाल है कि इस वर्ष ऐश्वर्या राय ने ऐसा क्या काम किया है जो लोगों को नज़र नहीं आ रहा और सरकार देख पा रही है। ऐश्वर्या का कला के क्षेत्र में योगदान उतना ही है जैसा पिछले सालों में था। उसमें कोई बदलाव देखा नहीं गया है।अब सरकार या अमर सिंह कुछ भी कहें लेकिन दाल में कुछ काला तो जरूर है।

अब बात एक और बड़े सवाल की जो पिछले से ज्यादा बड़ा और गम्भीर है। दुनिया जानती है भारत को ओलम्पिक में बॉक्सिंग के खेल में पहली बार पदक मिला। पदक दिलवाने वाले थे विरेंद्र कुमार और अखिल कुमार। पर खेल में पद्मश्री ले गये भज्जी और धोनी। अभिनव बिंद्रा को जरूर पद्म विभूषण दिया गया। लेकिन इन दोनों मुक्केबाजों को कुछ हाथ नहीं लगा। कोई सम्मान नहीं मिला। क्रिकेट के खिलाड़ी जब जीत कर घर लौटते हैं तो उनके स्वागत में सड़कें खाली की जाती हैं। पर इन विजेताओं का समान ही नहीं होता है। कोई पूछे सरकार से कि हरभजन सिंह ने क्या किया है भारत के लिये, कम से कम २००८ के कैलेंडर वर्ष में। मुझे नहीं लगता है कि इन मुक्केबाज़ों से बड़ा योगदान महेंद्र सिंह धोनी या हरभजन सिंह ने किया है। अलबत्ता भज्जी तो नित नये विवाद में फँसे रहे। पहले साइमंड्स के साथ "मंकी" विवाद हो या रावण का भेष धर कर सीता संग रियलिटी शो में नाचना। या फिर शराब का विज्ञापन करना या खुले बाल कर रैम्प पर चलना। इतना सब होने के बाद भी सरकार यदि इसको खेल के प्रति उनका महत्वपूर्ण योगदान समझती है तो मुझे सरकार की आँखों पर पट्टी लगी नजर आ रही है जो क्रिकेट से ऊपर सोच ही नहीं पा रही है। शायद उन्हें क्रिकेट की जगह पैसा दिख रहा है। सानिया नेहवाल मलेशिया से वापस आती हैं तो उनका स्वागत नहीं होता। इससे पहले तो उन्हें वीज़ा के चक्कर काटने पड़ते हैं। यदि इसी तरह बाकी खेलों और खिलाड़ियों को नज़रंदाज़ करने का सिलसिला चलता रहा तो बाकि खेल समाप्त ही हो जायेंगे। यदि सरकार इन खेलों के उत्थान के लिये कुछ नहीं करती तो इन खिलाड़ियों की हौंसला-अफ्ज़ाई तो कर ही सकती है।

पद्मश्री जैसे सम्मान से साथ राजनीति करके सरकार क्या साबित करना चाहती है उसको जवाब देना चाहिये।

तपन शर्मा

Tuesday, January 27, 2009

मीडिया को नियंत्रित कैसे करें

बैठक में अब लोग जुटने लगे हैं.....नए चेहरे भी हैं और जाने-पहचाने नाम भी....अलग-अलग विचारों के, अलग उम्र-मिज़ाज के...इसकी चर्चा भी होने लगी है....आज से बैठक में राजकिशोर भी आयेंगे....राजकिशोर इस दौर के सबसे चर्चित स्तंभकारों में से हैं....अमूमन हर अखबार में आप राजकिशोर को पढ सकते हैं...हिंद-युग्म के प्रयासों को खूब पसंद करते हैं और ब्लॉगिंग को भी अहम विधा मानते हैं...मार्क्सवादी राजनीति को गांधीवादी शैली में अमल करने के पक्षधर राजकिशोर हर मुद्दे पर लिखते हैं...बैठक में हम इनका स्वागत करते हैं और अक्सर इनसे विचारों की खुराक लेते रहेंगे...


महाकवि अकबर इलाहाबादी की शिकायत थी:
"रक़ीबों ने रपट लिखवाई है जा-जाके थाने में,
कि अकबर नाम लेता है खुदा का इस जमाने में।"
कहां अकबर और कहां यह नाचीज़। फिर भी मैं खुदा का नाम लेना चाहता हूं। साथ ही, यह उम्मीद भी करना चाहता हूं कि रक़ीब नाखुश नहीं होंगे, बल्कि समर्थन ही करेंगे।

मुद्दा मीडिया पर नियंत्रण का है। मीडिया की स्वतंत्रता वस्तुत: अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ही हिस्सा है। भारत में इसकी शुरूआत अंग्रेजी हुकूमत के दौर में हुई। वरना, एकाध अपवाद को छोड़ कर, इस देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक लगाने की बात किसी ने सोची तक नहीं। यह दुनिया का अकेला देश है, जहां शास्त्रार्थ (पब्लिक डिबेट) की लंबी परंपरा रही है। शास्त्रार्थ में भाग लेनेवाला विद्वान कुछ भी कह सकता था, किसी भी मत का प्रतिपादन कर सकता था और किसी भी सिद्धांत की आलोचना कर सकता था। वेदों के प्रति श्रद्धा भारत की चिंतन परंपरा का एक प्रमुख स्तंभ रहा है, पर वेद निंदकों को भी सहन किया जाता था और उन्हें अपनी बात कहने का अवसर दिया जाता था। यहां तक कि ईश्वर का अस्तित्व भी सर्वमान्य नहीं रहा है। जो ईश्वर को मानते हैं, उनके बीच भी यह स्वीकार करने की उदारता रही है कि ईश्वर तक पहुंचने का कोई एक निश्चित पथ नहीं है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक लगाने से सत्य तक पहुंचने का रास्ता और ज्यादा दुरूह तथा कंटकाकीर्ण हो जाता है, यह सभी चिंतकों को मालूम था।

मालूम तो यह बात तो ब्रिटिश शासकों को भी थी। लेकिन इस तरह की स्वतंत्रता उनके राजनीतिक-आर्थिक हितों के प्रतिकूल थी। इसीलिए जब ग्रेट ब्रिटेन के लेखक, पत्रकार और नागरिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे थे, तब भारत में उनके साम्राज्यवादी प्रतिनिधि इस स्वतंत्रता को कुचलने के लिए तरह-तरह के तरीके अपना रहे थे। स्वाधीन भारत में बहुत समय तक इसकी जरूरत नहीं पड़ी, क्योंकि राज्य और मीडिया एकमएक हो चुके थे। जब राज्य से लोगों का मोहभंग शुरू हुआ, तब मीडिया को भी अपनी स्वाभाविक मुद्रा में आना पड़ा। ध्यान देने की बात है कि इमरजेंसी में विपक्ष और प्रेस, दोनों पर एक साथ हमला हुआ। बाद में भी प्रेस पर नियंत्रण रखने की कई कोशिशें हुर्इं। ऐसी हर कोशिश स्वयं बदनाम हो कर और कोशिशकर्ता प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री को बदनाम करके इतिहास की अंधेरी गलियों में बिला गई। मीडिया को नियंत्रित करने की इच्छा एक बार फिर देखने में आ रही है। मनमोहन सिंह के कूटनीतिक आश्वासन (कूटनीतिक इसलिए कि मीडिया पर नियंत्रण का विधेयक उन्हीं के मंत्रिमंडल ने बनवाया है) के बाद बाघ जंगल में लौट चुका है। पर यह आदमखोर बाघ है, यह हम कैसे भूल सकते हैं?

इस बार लेकिन मामला थोड़ा अलग भी है। मीडिया से शिकायत सिर्फ सरकार को नहीं है। जहां तक सरकार की शिकायत का सवाल है, देश के लोग अब यह मानने लगे हैं कि जिस बात से सरकार को शिकायत है, वह जरूर ठीक होगी। इसी आधार पर कुछ सिरफिरे बुद्धिजीवी आतंकवाद के विरुद्ध बोलना भी उचित नहीं मानते। परंतु जब शिकायत (गंभीर शिकायत) सामान्य जन को भी होने लगे, तब यह स्वीकार करने में ही बुद्धिमानी है कि कारण वाजिब होंगे। आज मीडिया का आतंक बढ़ रहा है, पर उसका यश धूमिल हो रहा है। जनता की यह शिकायत वाजिब है, तभी मीडिया के प्रतिनिधि भी समय-समय पर आश्वासन देते रहते हैं कि हम आत्म-नियंत्रण के पक्ष में हैं, हमें बाहर से नियंत्रित करने की कोशिश न की जाए। ऐसा कहते समय वे यह भूल जाते हैं कि मीडिया के आत्म के साथ-साथ राष्ट्र का भी एक आत्म है और दोनों के बीच अंतर्विरोध पैदा हो जाए, तो पहला स्थान राष्ट्र के आत्म को ही मिलेगा। राष्ट्र से भी ऊंची चीज मानवता है। इसलिए सही क्रम यह होगा -- मीडिया से बड़ा देश और देश से बड़ी मानवता।

जहां तक मीडिया द्वारा आत्म-नियंत्रण का प्रश्न है, मैं इसे बोगस सिद्धांत मानता हूं। पहले बोगस नहीं था, पर अब बिलकुल बोगस है। पूरी दुनिया में कहीं भी मीडिया अभिव्यक्ति और विचार-विमर्श का निष्पक्ष माध्यम नहीं रह गया है। कुछ विचार पत्रों को छोड़ दिया जाए, तो मीडिया के सभी माध्यम ज्यादा से ज्यादा रुपया कमाने के लिए चलाए जा रहे है। बल्कि बहुत-से मीडियाकर्मी भी सार्वजनिक तौर पर यह दावा करते देखे जाते हैं कि मुनाफा करने में बुराई क्या है? अगर हम कमा कर कंपनी को मुनाफे में नहीं रख सकते, तो कल हमारा अखबार या चैनल ही बंद हो जाएगा। फिर हम क्या करेंगे? यह इस बात से भी प्रमाणित होता है कि सभी मीडिया संस्थान ज्वायंट स्टॉक कंपनी के रूप में रजिस्टर कराए जाते हैं -- कोई भी कंपनी ट्रस्ट या सोसायटी के रूप में रजिस्टर नहीं कराई जाती। मीडिया कंपनियों के शेयर जब स्टॉक एक्सचेंज में खरीदे-बेचे जा सकते हैं, तब उद्देश्य की वह पवित्रता कहां रही जिसका लोकतांत्रिक औजार के रूप में बखान किया जाता है? ऐसी हालत में सामाजिक नियंत्रण से कैसे बचा जा सकता है? आत्म-नियंत्रण के आश्वासन पर कितना भरोसा किया जा सकता है? अगर आत्म-नियंत्रण का सिद्धांत काम करता होता, तो मीडिया से किसी को शिकायत ही क्यों होती?

दरअसल, जब भी मीडिया को नियंत्रित या अनुशासित करने का मुद्दा सामने आता है, यह भुला दिया जाता है कि नियंत्रण का प्रावधान तो हमारे संविधान में ही है। संविधान में स्वतंत्रता की अन्य किस्मों की ही तरह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भी निरंकुश नहीं छोड़ा गया है। उस पर लोक व्यवस्था, शिष्टाचार, कदाचार, अपराध उद्दीपन, राज्य की सुरक्षा आदि के हित में अंकुश लगाने की व्यवस्था है। ये सभी शर्तें मीडिया पर भी लागू होती हैं। मीडिया के किसी भी प्रतिनिधि ने यह दावा नहीं किया है कि हम संविधान और कानून से ऊपर हैं। फिर मीडिया पर अलग से नियंत्रण लागू करने की बात सोची या कही ही क्यों जाती है?

इसलिए सोची या कही जाती है कि संविधान में विहित अंकुशों का अनुपालन हो रहा है या नहीं, यह देखने के लिए देश में कोई एजेंसी नहीं है। अपराधों को रोकने के लिए कानून हैं, आर्थिक अपराधों पर नजर रखने के लिए प्रकोष्ठ हैं, भ्रष्टाचार का निरोध करने के लिए एजेंसियां हैं, मानव अधिकारों की रक्षा करने के लिए मानवाधिकार आयोग हैं, परंतु इस पर निगाह रखने के लिए कोई संस्थागत प्रबंध नहीं है कि प्रेस और मीडिया अपनी सीमाओं का अतिक्रमण तो नहीं कर रहे हैं। ऐसी संस्था का प्रबंध न होना संविधान की अवमानना है। जिस समाज में ऐसी संस्था नहीं है, वह मीडिया की तानाशाही झेलने के लिए अभिशप्त है।

कहने को हमारे यहां प्रेस परिषद नाम की कानून द्वारा गठित संस्था है। वह काफी पुरानी भी है। लेकिन उसका कोई प्रभाव नहीं है, न उससे कोई डरता है। इसलिए कि वह सिर्फ मीडिया के कदाचार की भत्र्सना कर सकता है, उसे दंडित नहीं कर सकता। प्रेस परिषद को और अधिक अधिकार देने की मांग समय-समय पर उठाई जाती है। यह मांग बेमानी है। बजाय इसके प्रेस परिषद को यह जिम्मेदारी सौंपी जानी चाहिए कि वह मीडिया की गतिविधियों पर निगरानी रखे तथा वह जब भी कानून तोड़े, परिषद उसे नोटिस जारी करे। अगर परिषद कानून तोड़क के स्पष्टीकरण से सहमत नहीं है, तो वह मामले को न्यायालय में ले जाए। मेरे खयाल से, यही एक जनतांत्रिक, आपत्तिमुक्त और कारगर व्यवस्था है जिसके जरिए मीडिया को नियंत्रित किया जा सकता है। यह प्रक्रिया खर्चीली, लंबी और कुछ हद तक उबाऊ जरूर है। लेकिन जब मामले का संबंध अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसी बुनियादी चीज से हो, तो खर्च और परिश्रम की चिंता करना बेवकूफी है। एक किलो सर्फ से शहर भर के कपड़े नहीं धोए जा सकते।

(लेखक इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, नई दिल्ली में वरिष्ठ फेलो हैं।)

Sunday, January 25, 2009

चीनी के भाव कम कर सकते हैं मिठास...

सूचना तंत्र में आई क्रांति के बाद अंग्रेजी में कृषि व अन्य जिंसो की जानकारी देने वाली अनेक साईट/ब्लाग मिल जाएंगे लेकिन हिन्दी में इस जानकारी की कमी अभी अखरती है। बैठक पर हम आज से इसी के तहत ये विशेष स्तंभ शुरू कर रहे हैं...हमारा प्रयास रहेगा कि पाठकों (जिनमें किसान,विद्यार्थी, व्यापारी व निवेशक शामिल हैं)को कृषि व अन्य जिंसों के देश व विदेश में उत्पादन, आयात, निर्यात, भाव चक्र, भविष्य के रुझान के बारे में विस्तृत और ठोस व विश्वसनीय जानकारी उपलब्ध कराई जाए। फ़िलहाल, इस स्तंभ के नियमित लेखक होंगे अनुभवी पत्रकार राजेश शर्मा...

राजेश शर्मा : संक्षिप्त परिचय


राजेश तीन दशकों से पत्रकारिता में हैं...
वर्ष 1976 से नैशनल न्यूज सर्विस (एनएनएस) आर्थिक पत्रकारिता में, वर्ष 1982 में यूएनआई की हिन्दी सेवा-यूनीवार्ता-में आथिर्क डेस्क पर कार्य। बाद में आर्थिक समाचार पत्र व्यापार भारती में समाचार सम्पादक का पद संभाला।
अप्रैल 1987 में मुंबई से जन्मभूमि समाचार पत्र समूह के दिल्ली कार्यालय में संवाददाता। समूह के विभिन्न पत्रों जिनमें व्यापार गुजराती व हिन्दी, राजकोट से फूलछाब, भुज से कच्छमित्र शामिल हैं को समाचार प्रेषण का कार्य। कुछ समय के लिए संसद की कार्यवाही व समाचार संकलन का कार्य किया।
अप्रैल 2000 से स्वतंत्र पत्रकारिता में। इस समय दिल्ली से प्रकाशित हिन्दी दैनिक अमन व्यापार, भीलवाड़ा से प्रकाशित टैक्सटाईल वल्र्ड, वेबसाईट इंडिया स्टैट डॉट काम, एक विदेशी समाचार एजेंसी आदि के लिए कार्यरत
ईमेल: rajeshsharma1953@gmail.com
चीनी के उत्पादन, बकाया स्टॉक और खपत को देखते हुए आगामी महीनों में उपभोक्ता के लिए चीनी के भाव कड़ुवाहट घोल सकते हैं। बाजार में खुदरा में चीनी अब 23 रुपए प्रति किलो का स्तर छू चुकी है और जल्दी ही 25 रुपए पर पहुंचने के कयास लगाए जा रहे हैं। चीनी में तेज़ी का कारण उत्पादन, बकाया स्टॉक और खपत का गणित है। अनेक वर्ष की उपलब्धता खपत की तुलना में काफी अधिक रही, लेकिन इस वर्ष इसमें असंतुलन की आशंका बन रही है।

चीनी वर्ष 2008-09 (अक्टूबर-सितम्बर) के दौरान देश में चीनी का उत्पादन 180 लाख टन होने का लगाया जा रहा है। हालांकि आरंभ में सरकार का कहना था कि उत्पादन 220 लाख टन होगा लेकिन महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और कर्नाटक आदि में गन्ने का उत्पादन व रिकवरी की मात्रा देखते हुए सरकार ने इसे घटा कर 180 लाख टन कर दिया है। गत वर्ष उत्पादन 264 लाख टन था। इससे पूर्व वर्ष यानि 2006-07 में उत्पादन 283.28 लाख टन था।
पिछले बकाया स्टॉक के बारे में सरकार का कहना है यह 105 लाख टन है। बकाया स्टॉक और 180 लाख टन के उत्पादन को मिलाकर चालू वर्ष में चीनी की उपलब्धता 285 लाख टन हो जाएगी। दूसरी ओर, आंतरिक खपत का अनुमान 230 लाख टन है। मिलों को पूर्व में एडवांस लाईसेंस के तहत आयात की गई कच्ची चीनी के बदले लगभग 8 लाख टन का निर्यात भी करना है। इस प्रकार कुल खपत 238 लाख टन हो जाएगी। इसे चालू वर्ष के अंत में केवल 47 लाख टन चीनी का स्टॉक बचेगा। यह स्टॉक कठिनता से केवल ढाई महीने की चीनी की मांग को पूरा कर पाएगा।

दूसरा पहलू
लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू भी। जानकारों का कहना है कि वास्तव में चीनी मिलों के पास एक अक्टूबर को 105 लाख टन चीनी का स्टॉक नहीं था(सरकारी अधिकारी भी इस विषय में छानबीन कर रहे हैं)। जानकारों के अनुसार बकाया स्टॉक केवल 81लाख टन था। इस गणित के अनुसार 180 लाख टन जमा 81 लाख टन कुल उपलब्धता 261 लाख टन ही होगी जबकि कुल खपत का अनुमान 238 लाख टन का है। इस प्रकार चालू वर्ष के अंत में बकाया स्टॉक केवल 21 लाख टन ही बचेगा जो एक माह की आवश्यकता को ही पूरा कर पाएगा। इस कमी को पूरा करने के लिए आयात का सहारा लेना पड़ेगा लेकिन विश्व बाजार में भी चीनी का उत्पादन कम होने के कारण तेजी का माहौल बना हुआ है।
उल्लेखनीय है कि चीनी उत्पादन में भारत का स्थान दूसरा है। पहले स्थान पर ब्राजील है।
यही गणित आगामी महीनों में चीनी में तेजी कारण बनेगा और त्यौहारी सीजन में भाव बढ़ने से उपभोक्ता के लिए चीनी की मिठास गायब हो सकती है।

Saturday, January 24, 2009

एक महोदय बोले लड़कियों को कम फैशन करना चाहिए

पेशे से पत्रकार सुनील डोगरा ज़ालिम 'नारी की कहानी' नाम से ब्लॉग चलाते हैं, जिसपर बहुत लम्बे समय ये नारियों के पक्ष, उनके अधिकारों के पक्ष में खड़े होते रहे हैं। गाँधीवाद सोच रखने वाले जालिम हिन्द-युग्म के यूनिपाठक भी रह चुके हैं। आज राष्ट्रीय बालिका दिवस पर अपनी बात इन कतरनों में कह रहे हैं॰॰॰


आज फिर बालिका दिवस है। मतलब आज फिर लोग चिल्लायेंगे.. नारे लगेंगे और टीवी पर फोटो खींचेंगे. हाँ ब्लॉग भी खूब चमकेंगे... लेकिन....

कार्टून- मनु बेतखल्लुस
बहुत दिन नहीं हुए... शायद १५ दिन.. मैं अपने दोस्त के घर में था . तभी एक फ़ोन आया.. मेरे दोस्त के पिताजी को. उनके किसी साथी को यहाँ बच्चे का जन्म हुआ था...
क्या हुआ लड़का..? उन्होंने पूछा..
स्पीकर बंद था.. दूसरी तरफ की आवाज़ मैं न सुन सका..
अंकल के चेहरे से ख़ुशी गायब हो गयी.. वो जोर से बोले ...क्या करते हो गुप्ता जी फिर लड़की ....मेरी आँखों के आगे अँधेरा छा गया... स्पीकर अभी भी बंद था..लेकिन दूसरी तरफ से आवाज सुनाई दी... ऐसा नहीं होता अंकल जी... लड़कियां बहुत अच्छी होती हैं.. मुझे लड़की ही चाहिए थी.

टीवी पर चर्चा हो रही थी. एक लड़की का बलात्कार हो गया था. एक महोदय बोले लड़कियों को कम फैशन करना चाहिए... लेकिन क्यों.....
कई प्रश्न उठते हैं.. सबसे पहला कि क्या कम फैशन करने से ऐसे अपराध नहीं होंगे? इससे भी खतरनाक प्रश्न यह है कि ऐसे अपराध करने वाले लोग भेड़िये हैं... जो लड़कियों को देखते ही आप खो देते हैं.. अगर सचमुच ऐसा है तो पर्दा करने की जरूरत किसे है?.. ऐसे संदिग्ध लोगों की आखों पर पट्टियाँ बांध देनी चाहिए.. पर्दे की जरूरत उन लोगों को है न की मासूम लड़कियों को..
दूसरी बात क्या सचमुच फैशन ही जिम्मेदार है ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के लिए? तो क्या कारण है की दूध पीती बच्चियों के बलात्कार हो जाते हैं? क्यों मानसिक रूप से विक्षिप्त लड़कियों पर कहर टूटता है..
यह कैसी सोच है कि फैशन पर रोक लगा दो... रोक तो उन लोगों पर लगनी चाहिए जो ऐसे भयानक बयान देते हैं.. सोच बदलनी होगी ऐसी लोगों की.. अगर नहीं तो ऐसी सोच रखने वालों को ही बदल देना होगा..
सुनील डोगरा 'ज़ालिम'

इससे जुड़ी प्रविष्टियाँ-

1. बालिका दिवस का नारा
2. एक अज्ञात कन्या का मर्म
3. मेरी बगिया की नन्ही कली
4. अपराधबोध!!!
5. कठपुतलियां तो नारी हैं
6. कन्या भ्रूण हत्या
7. दोषी कौन?
8. क्या नारी शक्ति आवाज़ उठा पायेगी?

सोने का पिंजर (2)

दूसरा अध्याय

क्या धरा है ऐसी ममता में जहाँ की धरती पर मच्छर हैं, मक्खी हैं।

चूल्हे पर चाय का पानी चढ़ा है, अल्मारी से शक्कर का डिब्बा जैसे ही उतारा तो पता लगा कि अरे शक्कर तो है ही नहीं। अब चाय कैसे बने? बैठकखाने में मेहमान बैठे हैं। माँ धीरे से बेटी को पुकारती है, और फुसफुसाहट करती हुई बेटी को समझाती है कि ‘पीछे के दरवाजे से जा और पड़ौस की काकी से एक कटोरी शक्कर माँग ला।’ शक्कर पीछे के दरवाजे से आ जाती है। लेकिन तुम्हारे यहाँ, बहुत कठिन है, रीत गये डिब्बे में शक्कर की आवक, वह भी पीछे के दरवाजे से। बेटा-बहू नौकरी पर गए, माँ अकेली है। घर का सारा काम निपट गया है, अब घर की डोली पर बैठकर पास वाली से बातें करेंगे। कितना सकून भरा है यह क्षण। एक पल भी एकान्त नहीं, अकेले होने का डर नहीं।
तुम्हारे पास एकान्त-साधना का बहुत समय है। बेटा-बहू या बेटी-दामाद नौकरी पर गए और अकेले हो गए बूढ़ा-बूढ़ी।
बूढ़ा बोलने लगा कि "अरी भागवान कैसे सुंदर दिन आए हैं, सारा जीवन बीत गया लेकिन तुझ से एकान्त में बात करने का अवसर ही नहीं मिला। अब देख यहाँ केवल तू है और मैं हूँ। सारा दिन अपना है।"
बुढ़िया भी खुश हो गयी, बोली कि "हाँ तुम सच कहते हो। और देखो कैसा आराम भी है! नल में गर्म और ठण्डा पानी दोनों ही आते हैं, फटाफट बर्तन साफ हो जाते हैं। अपने देस में तो मरी महरी के सौ नखरे थे, कभी आती और कभी नहीं। सर्दी में उसे गर्म पानी चाहिए था तो पहले मरी सिगड़ी पर गर्म करके देती थी पानी और बाद में जब गैस आ गयी तब उस पर पानी गर्म करके देती थी, तभी उसके हाथ चलते थे। यहाँ सारे नखरों से ही दूर हैं, देखों तो हम कैसे सब मिलजुल कर काम कर लेते हैं।" फिर हँसकर बोली कि "वहाँ तो तुम भी खटिया तोड़ते थे, लेकिन यहाँ तो मेरे साथ हाथ बँटा ही लेते हो।"
बूढ़ा बोला कि "मेरे मन में विचार आता है कि हम गाँव में बेचारी बड़ी बहू को बेकार में ही डाँटते रहते थे। सारा काम वो ही करती थी, तू भी खटिया पर पड़ी चाय पीती थी और बेचारी बहू खाना भी वहीं खिला देती थी। तब भी तू उसे गाली दिए बिना रहती नहीं थी। आज क्या हुआ तेरी जुबान को? अब तो तू एकदम चुपचाप है, कभी तूने अपने हाथ से पानी भी नहीं पीया और यहाँ तो तू बर्तन भी माँज रही है।"
सब समय-समय का खेल है। क्या करें, अब दोनों ही नौकरी करे हैं तो हमें भी तो कुछ करना ही पड़ेगा न! फिर ठाले बैठे यहाँ करे भी तो क्या? मरा टी.वी. पर भी तो अंग्रेजी में ही गिट-पिट आती रहे है। फिर अचानक ही मायूस हो जाती है और बोलती है कि "जी, अपने देस कब चलोगे?"
"क्यों यहाँ आने को तू ही तो बड़ी तड़प रही थी।"
"वो तो सही है, लेकिन अपने घर-बार की याद आने लगी है। पड़ौसन की बहु के बाल-बच्चा होने वाला था, अब तक हो गया होगा। घर में गीत गँवे होंगे। सारी ही मुहल्ले की औरते आयी होंगी।"
"लेकिन तेरे बिना तो गीतों में मजा ही नहीं आया होगा। तेरा गला ही तो सबसे अच्छा था।"
"अजी ऐसा नहीं करें कि अपन भी यहाँ गीत गवा लें।"
"कहाँ गवाएँगी? आस-पड़ौस से गौरी-काली औरतों को बुलाएँगी कि मेरे साथ गीत गाओ।"
"नहीं जी, तुम तो मजाक करो हो, मैं कह रही थी कि एक दिन मंदिर ही चलें, वहाँ भजन ही गाएँगे।"
"चल अच्छा है, बेटे को आने दे, बात करेंगे।"
"अरे अपन ही चल चलें, नीचे मोटर-गाड़ी कुछ तो मिल ही जाएगी, पूछते-पूछते चले जाएँगे।"
"नीचे मोटर-गाड़ी? यहाँ तेरा शहर है जो घर के बाहर ही टेम्पों मिल जाएगा? तूने देखा नहीं कैसी बड़ी-बड़ी सड़कें हैं। सड़कों पर बस गाड़ियाँ ही दौड़ती रहे हैं, आदमी तो दिखे ही ना है। किससे पूछेगी रास्ता? अब बेटे को आने ही दे।"
"अरे बेटा तो नौकरी से थका-हारा आएगा, रात को। तब कौन सा मन्दिर और कौन से भजन?"
"अब के शनिवार को कह देखेंगे।" बूढ़े ने आश्वासन दिया।
"कल ही तो शनिवार है। आज शाम को ही बात चलाएँगे।"
शुक्रवार की शाम है, बेटा-बहू दोनों ही काम से जल्दी आ गए हैं। आते ही बेटा बोला कि "माँ, कल हम सब घूमने जाएँगे। बहुत दिनों से कहीं गए नहीं हैं तो इस वीकेंड पर समुद्र किनारे घूमेंगे। वहाँ के होटल की बुकिंग बहुत मुश्किल से मिली है।"
"बेटा हम वहाँ जाकर क्या करेंगे? हमें कहीं किसी मंदिर में ही छोड़ आ। सारा दिन भजन गाने में ही निकल जाएगा।"
"अरे यहाँ इतना आसान नहीं है, जितना अपने गाँव में था। वहाँ छोड़ भी दूँगा तो सारा दिन क्या करोगे? फिर आप मेरा मूड मत बिगाड़ो। बस मैं जैसा कहता हूँ वैसा करो।
समुद्र किनारे देखना कैसी-कैसी मछलियाँ हैं? ऐसा सी-वर्ल्‍ड तुम्हारे गाँव में नहीं है।"
"बेटा, गाँव तो वह तेरा भी है।"
"हाँ, वही।" बेटे ने बड़ी अनिच्छा से कहा।

देखा तुमने, कैसे बेटा अपने ही गाँव को अपना कहने में शर्म कर रहा है। वह तुम्हें अपना बता रहा है। भला तुम उसके कैसे हो सकते हो? तुम क्या नहीं जानते कि मनुष्य की तन की और मन की जरूरते अलग-अलग होती हैं। तन कुछ और चाहता है और मन कुछ और। तन तो सारे ही सुख चाहता है लेकिन मन अपने अतीत में ही लौट जाना चाहता है। मुझे लगता है कि तुमने दुनिया को कितना दिया है इसका हिसाब तो मेरे पास नहीं है, लेकिन लोगों के मन के संतोष को तुमने जरूर छीन लिया है। सारे ही सुखों के बीच भारतीय व्यक्ति तुम्हारी धरती पर रहता है, लेकिन उसका मन उसे अपनी धरती की ओर खींचता है। मैं अपने मन की बात बताऊँ, मेरी उम्र 57 वर्ष होने को है, मैंने अपना बचपन जिस धरती पर बिताया उसे छूटे तैतीस वर्ष से भी अधिक हो गए। लेकिन आज भी सपने चाहे किसी के आएँ, सपने में घर तो वहीं बचपन का होता है। यह क्या रहस्य है, मुझे अभी तक समझ नहीं आया! मैं तुम्हें बस इतना ही कहना चाहती हूँ कि मन का ऐसा ही रहस्य है। बचपन का स्वाद ही उसकी जुबान पर होता है। बचपन में जब माँ गुड़ का हलुवा बनाती थी, तो उसकी महक आज भी नथुनों में बसी है। तुम्हारे यहाँ कहाँ है वह महक? बस जब मन उस बचपन की महक के लिए तड़पता है तब तुम्हारे गुदगुदे बिस्तर पर उसे नींद नहीं आती। यौवन में तो मन के ऊपर तन हावी रहता है लेकिन जैसे ही यौवन ढलने लगता है, मन अपना करतब दिखाना शुरू कर देता है।
यौवन में तुम्हारी चकाचौंध सभी को तो अपनी ओर आकर्षित करती है। भारत के घर से बाहर कदम रखते ही नाक पर रूमाल रखना पड़ता है। टूटी सड़क पर, पानी का जमाव आम बात है। घर से धुले-साफ कपड़े पहनकर बाहर निकले, सड़क पर आए और तेज गति से आती मोटर-साइकिल ने छपाक से पानी को उछाल दिया। सफेद कलफ लगे कपड़े कीचड़ से सन गए। कहीं कच्ची बस्तियाँ बसी हैं, नीले प्लास्टिक के कपड़ों से तने है छोटे-छोटे घर। वहीं सूअर भी हैं और कुत्ते भी। मनुष्य के बच्चे और जानवरों के बच्चों में अंतर नहीं दिखायी देता इन बस्तियों में। एक तरफ ऐसी बस्तियाँ हैं तो दूसरी तरफ आलीशान कोठियाँ खड़ी हैं। यही अन्तर लोगों को तुम्हारी ओर आकर्षित करता है। सपने सत्य करने के लिए तुम्हारी धरती उन्हें पुकारती है। वे अपने चारों तरफ पसरी गन्दगी को मिटाने का संकल्प नहीं लेते, अपितु स्वयं ही भागने का मार्ग ढूँढ लेते हैं। जरा सा पढ़ने में तेज क्या हुआ, वह सपने में तुम्हें ही देखता है। पंजाब का लड़का तो तुम्हारे यहाँ ही ढाबा खोलना चाहता है। उसे पता है कि भारत की जीभ बहुत चटोरी होती है, उसे यहीं के मसालों की आदत होती है। वह तुम्हारे यहाँ आ जाता है अपना तंदूर लेकर। नान बनने लगती है, भटूरे बनने लगते हैं।
तुम भी जानते हो कि भारत के खाने का जवाब नहीं, अतः आने दो पंजाबियों को। भारत से इतने इंजीनियर, डाक्टर यहाँ आएँ हैं, उन्हें भारत का खाना नहीं मिलेगा तब कहीं वे भाग नहीं जाएँ? तुमने उन्हें आने दिया। तुमने हर उसको आने दिया जो तुम्हारे काम का था। लेकिन तुमने उसे नहीं आने दिया जो तुम्हारे काम का नहीं था। इसी आवाजाही में हमारी अँगुली से भी हाथ छूट गया। तुम्हारे यहाँ की शिक्षा का एक स्तर है, ऐसा विश्वप्रसिद्ध हो चला है। हमारे जैसे लाखों माँ-बापों ने सोचा कि बेहतर शिक्षा जरूरी है। हम भी गाँव की देहरी से निकलकर बेहतर शिक्षा के लिए शहर आए थे तो आज हमारे बच्चों का भी अधिकार बनता है कि वे भी बेहतर शिक्षा पाएँ। हम गौरव से भरे हुए थे, कि हमने हमारे बच्चों को बेहतर शिक्षा का विकल्प दे दिया। हम भी फूले नहीं समा रहे थे, हम भी अपने आपको विशेष अनुभव करने लगे थे। लेकिन हमारी विशेषता तो हीनता में बदल गयी। तुम्हारी धरती का सम्मोहन ऐसा ही था। वे कहने लगे कि ऐसी स्वर्ग सी धरती पर बसने का सौभाग्य यदि हमें मिला है तब हम आपकी नरक सी धरती पर क्यों आएँ? हम रातों-रात हीन हो गए। हमारा प्रेम, हमारी ममता, इस धरती का जुड़ाव सभी कुछ जाया गया।
क्या धरा है ऐसी ममता में जहाँ की धरती पर मच्छर हैं, मक्खी हैं। अकेले स्वाद के लिए तो उस नरक में आकर नहीं रहा जा सकता। एक प्रश्न भारतीयों से तुम्हारे पास से आया कि तुम भी छोड़ दो इस धरती को।
कैसे छोड़ दें हम हमारी धरती को, हमारे सुख-दुख को? लेकिन बच्चों को लगने लगा कि एक बार यदि माँ-बाप इस धरती को देख लेंगे तब फिर भारत का नाम ही नहीं लेंगे। वे भी जुट जाएँगे, तुम्हारी धरती पर आने के लिए। यह बात तुम भी जानते हो, तभी तो तुमने इतने कड़े नियम बना रखे हैं। भारत में बसे माता-पिता बेचारे अपनी संतानों के मोह में तुम्हारे यहाँ का सुख देखने को लालायित हो उठते हैं। वे सोचते हैं कि एक बार तो जा ही आएँ। जैसे-तैसे पैसा एकत्र करते हैं, कभी बेटा भेजता है, कभी बेटी भेजती है और मन सपने देखने लगता है तुम्हारी धरती के। क्योंकि भारत में स्वर्ग के बाद दूसरे नम्बर पर तुम्हीं आते हो, बस एक बार तुम्हारे यहाँ जा आएँ, यही एकमात्र इच्छा रहती है। व्यक्ति बात-बात में तुम्हारा उदाहरण देता है कि जब मैं अमेरिका में था उन दिनों यह हुआ था, आदि, आदि। वह कैसे न कैसे बता ही देता है कि वह अमेरिका जा आया है। एक बार मैं एक मीटिंग में थी। मेरे पास एक घरेलू सी महिला बैठी थी। उसने अपनी कोई बात रखी लेकिन जो महिलाएँ स्वयं को बहुत ही पढ़ा-लिखा समझ रही थीं वे उनकी किसी भी बात पर ध्यान नहीं दे रही थीं। आखिर उन्होंने भी तुम्हारी ही तुरूप काम में ली। वे बोली कि -वेन आई वाज इन अमेरिका..........। इतना बोलना था कि वे अचानक विशेष हो गयीं। यह है तुम्हारा प्रभाव।
क्रमश:

डॉ अजित गुप्ता

Friday, January 23, 2009

एक रहस्य थे सुभाष चंद्र बोस

आज महान देशभक्त और महामानव नेता जी सुभाष चंद्र बोस की ११२वीं जयंती है। इस महापुरूष के जीवन की कुछ बातें सँजोकर लाई हैं शोभा महेन्द्रू॰॰॰


हमारे इतिहास में सुभाष के अतिरिक्त ऐसा कोई व्यक्तित्व नहीं हुआ जो एक साथ महान सेनापति, वीर सैनिक, राजनीति का अद्भुत खिलाड़ी और अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पुरूषों, नेताओं के समकक्ष साधिकार बैठकर चर्चा करने वाला, तथा कूटनीतिज्ञ हो। उन्होंने करीब-करीब पूरे यूरोप में भारत की स्वतंत्रता के लिए अलख जगाया। वे प्रकृति से साधु, ईश्वर भक्त तथा तन एवं मन से देशभक्त थे। एक ऐसा व्यक्तित्व जिसका मार्ग कभी भी स्वार्थों ने नहीं रोका, जिसके पाँव लक्ष्य से पीछे नहीं हटे, जिसने जो भी स्वप्न देखे, उन्हें साधा और जिसमें सच्चाई के सामने खड़े होने की अद्भुत क्षमता थी।

अल्पावस्था में अंग्रेजों का भारतीयों के साथ व्यहार देखकर पूछ बैठे- दादा हमें कक्षा में आगे की सीटों पर बैठने क्यों नहीं दिया जाता? वह जो भी करता, आत्म विश्वास से करता। अंग्रेज अध्यापक उसके अंक देखकर हैरान रह जाते। कक्षा में सबसे अधिक अंक लाने पर भी जब छात्रवृत्ति अंग्रेज बालक को मिली तो उखड़ गया। मिशनरी स्कूल छोड़ दिया। उसी समय अरविन्द ने कहा- हममें से प्रत्येक भारतीय को डायनमो बनना चाहिए जिससे कि हममें से यदि एक भी खड़ा हो जाए तो हमारे आस-पास हजारों व्यक्ति प्रकाशवान हो जाएँ। अरविन्द के शब्द उसके मस्तिष्क में गूँजते थे।
सुभाष सोचते- हम अनुगमन किसका करें? भारतीय जब चुपचाप कष्ट सहते तो वे सोचते-धन्य हैं ये वीर प्रसूत। ऐसे लोगों से क्या आशा की जा सकती है?

वे अंग्रेजी शिक्षा को निषेधात्मक शिक्षा मानते थे। किन्तु पिता ने समझाया -हम भारतीय जब तक अंग्रेजों से प्रशासनिक पद नहीं छीनेंगें, तब तक देश का भला कैसे होगा? सुभाष आई सी एस की परीक्षा में बैठे। वे प्रतियोगिता में उत्तीर्ण ही नहीं हुए, चतुर्थ स्थान पर रहे। किन्तु देश की दशा से अनभिज्ञ नहीं थे। नौकरी से त्याग पत्र दे दिया। सारा देश हैरान रह गया। उन्हें समझाते हुए कहा गया- तुम जानते भी हो कि तुम लाखों भारतीयों के सरताज़ होगे?हज़ारों हज़ार तुम्हारे देशवासी तुम्हें नमन करेंगें? सुभाष ने कहा- मैं लोगों पर नहीं उनके मनों पर राज्य करना चाहता हूँ। उनका हृदय सम्राट बनना चाहता हूँ।

वे नौकरी छोड़ भारत आ गए। २३ वर्ष का नवयुवक विदेश से स्वदेशी बनकर लौटा। इस समय पूरा देश किसी नेतृत्व की प्रतीक्षा कर रहा था। सुभाष पूरे देश को अपने साथ ले चल पड़े। वे गाँधी जी से मिले। उनके विचार जाने, पर उनको यह बात समझ नहीं आई कि आन्दोलनकारी हँसते-हँसते लाठियाँ खा लेंगे। कब तक? वे चितरंजन दास जी के पास गए। उन्होंने उनको देश को समझने और जानने को कहा। सुभाष देश भर में घूमें और निष्कर्ष निकाला- हमारी सामाजिक स्थिति बद्तर है, जाति-पाति तो है ही, गरीब और अमीर की खाई भी समाज को बाँटे हुए है। निरक्षरता देश के लिए सबसे बड़ा अभिशाप है। इसके लिए संयुक्त प्रयासों की आवश्यकता है।

कांग्रेस के अधिवेशन में उन्होंने कहा- मैं देश से अंग्रेजों को निकालना चाहता हूँ। मैं अहिंसा में विश्वास रखता हूँ किन्तु इस रास्ते पर चलकर स्वतंत्रता काफी देर से मिलने की आशा है। उन्होंने क्रान्तिकारियों को सशक्त बनने को कहा। वे चाहते थे कि अंग्रेज भयभीत होकर भाग खड़े हों। वे देश सेवा के काम पर लग गए। दिन देखा ना रात। उनकी सफलता देख देशबन्धु ने कहा था- मैं एक बात समझ गया हूँ कि तुम देश के लिए रत्न सिद्ध होगे।

अंग्रेजों का दमन चक्र बढ़ता गया। बंगाल का शेर दहाड़ उठा- दमन चक्र की गति जैसे-जैसे बढ़ेगी, उसी अनुपात में हमारा आन्दोलन बढ़ेगा। यह तो एक मुकाबला है जिसमें जीत जनता की ही होगी। अंग्रेज जान गए कि जब तक सुभाष, दीनबन्धु, मौलाना और आज़ाद गिरिफ्तार नहीं होते, स्थिति में सुधार नहीं हो सकता। उन्होंने कहा- सबसे अधिक खतरनाक व्यक्तित्व सुभाष का है। इसने पूरे बंगाल को जीवित कर दिया है।

इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। मातृभूमि के प्रति, उसकी पुन्य वेदी पर इनका पहला पुण्य दान था।
सुभाष ने जेल में चितरंजन दास जी से काफी अनुभव प्राप्त किया। उन्हें मुसलमानों से भी पूर्ण समर्थन मिला। वे कहते थे- मुसलमान इस देश से कोई अलग नहीं हैं। हम सब एक ही धारा में बह रहे हैं। आवश्यकता है सभी भेदभाव को समाप्त कर एक होकर अपने अधिकारों के लिए जूझने की। ६ महीनों में ज्ञान की गंगा कितनी बही, किसी ने न देखा किन्तु जब वह जेल से बाहर आए तो तप पूत बन चुके थे। इसी समय बंगाल बाढ़ ग्रस्त हो गया। सुभाष ने निष्ठावान युवकों को संगठित किया और बचाव कार्य आरम्भ कर दिया। लोग उन्हें देखकर सारे दुःख भूल जाते थे।

वे बाढ़ पीड़ितों के त्राता बन गए। सुभाष चितरंजन जी की प्रेरणा से २ पत्र चलाने लगे। साधारण से साधारण मुद्दों से लेकर सचिवालय की गुप्त खबरों का प्रकाशन बड़ी खूबी से किया। कोई भारतीय इतना दबंग हो सकता है- अंग्रेज हैरान थे। १९२४ को पुनः गिरफ्तार हुए। कुछ समय बाद उन्हें माँडले जेल ले जाया गया। सुभाष ने कहा- मैं इसे आज़ादी चाहने वालों का तीर्थ स्थल मानता हूँ। मेरा सौभाग्य है कि जिस स्थान को तिलक, लाला लाजपत राय, आदि क्रान्तिकारियों ने पवित्र किया, वहाँ मैं अपना शीष झुकाने आया हूँ

सारा समय स्वाध्याय में लगाया। वहाँ जलवायु वर्षा, धूप, सर्दी का कोई बचाव ना था और जलवायु शिथिलता पैदा करती थी, जोड़ों के अकड़ जाने की बीमारी होती थी तथा बोर्ड लकड़ी के बने थे। अंग्रेज बार-बार उनको जेल भेजते रहे और रिहा करते रहे। उन्होंने एक सभा में कहा- यदि भारत ब्रिटेन के विरूद्ध लड़ाई में भाग ले तो उसे स्वतंत्रता मिल सकती है। उन्होंने गुप्त रूप से इसकी तैयारी शुरू कर दी। २५ जून को सिंगापुर रेडियो से उन्होंने सूचना दी कि आज़ाद हिन्द फौज का निर्माण हो चुका है। अंग्रेजों ने उनको बन्दी बनाना चाहा, पर वे चकमा देकर भाग गए।

२ जुलाई को सिंगापुर के विशाल मैदान में भारतीयों का आह्वान किया। उन्होंने अपनी फौज में महिलाओं को भी भर्ती किया। उनको बन्दूक चलाना और बम गिराना सिखाया। २१ अक्टूबर को उन्होंने प्रतिज्ञा की- मैं अपने देश भारत और भारतवासियों को स्वतंत्र कराने की प्रतिज्ञा करता हूँ। लोगों ने तन, मन और धन से इनका सहयोग किया। उन्होंने एक विशाल सभा में घोषणा की- तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा। कतार लग गई। सबसे पहले महिलाएँ आईं। आर्थिक सहायता के लिए उन्होंने अपने सुहाग के आभूषण भी इनकी झोली में डाल दिए।

१९४४ में उन्होंने जापान छोड़ा। १८ अगस्त को नेताजी विमान द्वारा जापान के लिए रवाना हुए और विमान दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई। किसी को विश्वास ही नहीं हुआ। लोगों को लगा कि किसी दिन वे फिर सामने आ खड़े होंगे। आज इतने वर्षों बाद भी जन मानस उनकी राह देखता है। वे रहस्य थे ना, और रहस्य को भी कभी किसी ने जाना है ?

-शोभा महेन्द्रू

Thursday, January 22, 2009

कृपया ये अश्लील कविताएं न पढ़ी जाएं....

आकाशवाणी से मोह लगभग 10 साल पुराना है....जमशेदपुर में था जब पहली दफा युववाणी कार्यक्रम के ज़रिये अपनी आवाज़ रिकॉर्ड हुई थी....देश के हर शहर में युववाणी ही है, जिसकी कृपा से युवा लोग अपनी आवाज़ पर खुश हुआ करते हैं...माने, युववाणी मुझ जैसे हज़ारों मुंगेरीलालों के हसीन सपने की तरह हुआ करता है...
बहरहाल, युववाणी से आगे आवाज़ का सफ़र बहुत आगे बढ़ चुका है मगर दिल्ली में जब भी मौका मिलता है, युववाणी के कार्यक्रमों में शिरकत ज़रूर करता हूं.....आज भी जब युववाणी से गणतंत्र दिवस पर आयोजित काव्य गोष्ठी में अपनी कविता पढने का निमंत्रण मिला तो खुशी-खुशी गया....
स्टूडियो में बैठना बहुत पुराना अनुभव है, मगर बतौर कवि कम ही मौके मिले हैं.....रिकॉर्डिंग रूम के सामने हमारा ऑडियो लेवल वगैरह सेट करने बैठी थीं युवववाणी की प्रोग्राम अधिकारी रंगोली श्रीवास्तव.....दिल्ली में युववाणी से परिचित हर कोई इस नाम से परिचित ज़रूर होगा....रिकॉर्डिंग रूम में तीन युवा कवि बैठे थे...पंडित प्रेम बरेलवी, जितेंद्र प्रीतम और मैं...संचालक प्रेम ने जितेंद्र को अपनी कविता पढ़ने को कहा तो जितेंद्र मंचीय कवि की तरह आलाप भरकर कुछ गाने लगे....कविता में एक आशावादी पंक्ति ऐसी थी जिसमें कोई हिंदू नाम कुरान पढे और मुसलमान पात्र गीता तो अमन फैले....बस, इतना पढ़ते ही रिकॉर्डिंग रोक दी गयी...रंगोली जी को लगा कि यहां जो भी पढ़ा जा रहा है, वो भावनाओं को भड़का देगा....उनके चेहरे पर चिंताएं तो थीं, मगर वजह मुझे समझ नहीं आ रही थी....उन्होंने कहा कि मुझसे ग़लती हो गयी कि मैंने सभी कवियों की कविताएं पहले से पढ़ी नहीं....
फिर, जो कविताएं मुझे पढनी थीं, वो भी उन्हें पेश की गयीं...उस कागज़ पर भी रंगोली जी ने कलम चला दी थी....कुछ पंक्तियों को उनकी कलम ने काट खाया था....

एक देश जहां शौचालयों से वाचनालयों तक,
व्यर्थ ही होती दिखी है ऊर्जा....

(पूरी कविता यहां है- ....एक ख़ास पल)
मतलब, मुझे कविताएं पढनी थीं, मगर उन पंक्तियों के बग़ैर....मैंने हंसते हुए कारण पूछा तो उन्होंने कहा कि ये पंक्तियां अच्छी हैं, मगर "अश्लील" हैं...शौचालय जैसा शब्द कविता में आना ही नहीं चाहिए....इसे ग़लत संदेश जायेगा...उन्होंने कहा कि गणतंत्र दिवस के अवसर पर कविता पढने आये हैं तो कुछ देशभक्ति की रचनाएं पढिए, क्यूं ये सब पढ रहे हैं....
मेरे पास दो और कविताएं थीं जिनपर रंगोली जी ने अपनी कलम चलायी थी...ये हैं वो पंक्तियां..आप भी ये अश्लील पंक्तियां पढें....(पूरी कविता यहां पढ सकते हैं..."हम ख़बर हैं,बाक़ी सारा भ्रम है")

मुझको तो हर एक क़दम पर डर लगता है,
कहां-कहां तक तुमको मैं बतलाऊं पापा...
चार दवाओं की पुर्जी भर लिख देने के,
डॉक्टर पूरे दिन की कमाई ले लेता है,
धरती के भगवान अगर ऐसे होते हैं,
वो भगवान नहीं दिखता है, मुझे सुकूं है....

(अथ रंगोली उवाच- आप डॉक्टर जैसे महान पेशे के बारे में ऐसा कैसे लिख सकते हैं...लोग सुनेंगे तो बुरा असर पड़ेगा...आप अपने अनुभव के बल पर सबको बुरा नहीं कह सकते...)....

डर लगता है दूध के पैकेट में ना जाने,
बनिए ने कोई जादू-वादू घोल रखा है,
ताकि अगली बार उसी दुकान पे आऊं,
ना आया तो “पेट बिगड़ जाए ससुरे का”

(अथ रंगोली उवाच- बनिया एक जातिसूचक शब्द है, इसका प्रयोग अश्लील लग रहा है..... इसके बदले दूधिये वगैरह जैसा शब्द इस्तेमाल किया सकता है....वैसे पंक्ति ही हटी दी जाये, तो बेहतर)

एक और कविता थी, मॉल पर....उसकी अश्लील पंक्तियां ये रहीं-
(पूरी कविता यहां है- "मॉल है या कि अजायबघर है")

रोज़ परफ्यूम छिड़ककर किसी अजीज़ के साथ,
लोग पहुचते हैं उस बियाबां तक...


ख़ैर, जैसे-तैसे वहां से लौटा और मुझे लगा कि गणतंत्र दिवस पर ये ज़रूरी है कि हम बैठक में इस पर गहनता से सोचें कि आखिर देश के अनगिनत लोगों तक पहुंचने वाला सरकारी भोंपू आकाशवाणी कब अपनी परिभाषाएं बदलेगा....हो सकता है, आकाशवाणी में ऐसी दायित्व भरी कुर्सी पर बैठने वाला हर अधिकारी रंगोली जी जैसा आलोचक व काव्य प्रेमी न हो, मगर सरकारी महकमे में ऐसे किस्से आज से 60 साल बाद भी मिलेंगे, ये मुझे पूरा विश्वास हो गया....आदरणीय रंगोली जी, ठीक है कि बेहद ऊंची कुर्सी पर आसीन हैं, मगर विनम्र निवेदन है कि हम स्लमडॉगनुमा कवियों को अश्लील रचनाएं पढने दी जाएं, कैंची चलाने का काम उन्हीं को करने दीजिए, जो इसकी काबिलियत रखता हो....जय हो....

ग़ालिब का एक शेर भी याद आ रहा है, कहता चलूं-
न सताइश की तमन्ना, न सिले की परवाह,
ग़र नहीं हैं मेरे अशआर में मानी, न सही....


निखिल आनंद गिरि

Wednesday, January 21, 2009

हिन्द-युग्म की बैठक में ओबामा...

दुनिया नये दौर में प्रवेश कर रही है तो हम भी इस आयोजन में शिरकत करते हैं...पेश है अमेरिका के 44वें राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा का वाशिंगटन डीसी के लिंकन मेमोरियल हॉल में शपथ ग्रहण के दौरान 20 लाख लोगों की मौजूदगी में दिया गया भाषण...आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा....

"मैं बराक हुसैन ओबामा बोल रहा हूं"
मैं उन सभी वक्ताओं और प्रदर्शकों का शुक्रिया अदा करना चाहता हूं जिन्होंने हमें अपने गीतों और शब्दों के जरिए याद दिलाया कि अमेरिका की वह कौन सी बात है जिसे हम इतना प्यार करते हैं। मैं इस भयानक ठंड और भीड़ का सामना करने के लिए आप सबका शुक्रिया अदा करता हूं और कुछ लोग तो आज यहां इस कार्यक्रम में शिरकत करने के लिए हज़ारों मील का सफर तय करके आए हैं। उन सभी का शुक्रिया। वॉशिगंटन में और नए अमेरिका के निर्माण के इस उत्सव में आपका स्वागत है।
हमारे देश के इतिहास में कुछ मुट्ठी भर पीढ़ियों को ही ऐसी गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ा है, जिनका सामना आज हम कर रहे हैं। हमारे देश में जंग छिड़ी है। हमारी अर्थव्यवस्था संकट में है। लाखों अमेरिकी अपनी नौकरियां और आशियाने गंवा रहे हैं। वे चिंतित हैं कि अपने बच्चों के कॉलेज की फीस कैसे चुकाएंगे और उनकी रसोई की मेज पर जो बिलों का अंबार लगा है, उसके पैसे कैसे भरेंगे और सबसे ज़्यादा वे अपने भविष्य को लेकर अनिश्चितता और चिंताओं से घिरे हैं। उन्हें इस बात की फ़िक्र है कि क्या अमेरिकियों की यह पीढ़ी हमारे बच्चों और उनके बच्चों तक यह बात पहुंचा सकेगी कि इस देश को लेकर सबसे अच्छी बात क्या है?
मैं यह दावा तो नहीं करूंगा कि इनमें से किसी भी चुनौती से निपटना आसान होगा। इसके लिए एक महीने या एक साल से ज़्यादा या हो सकता है और भी ज़्यादा लग जाएं। इस दौरान कुछ गतिरोध आएंगे, कई बार शुरुआत ग़लत होगी और ऐसे भी दिन आएंगे जब एक राष्ट्र के बतौर हमारे बुनियादी संकल्प की परीक्षा होगी। लेकिन इस सब के बावजूद हमारे सामने जो लक्ष्य है, उसकी विशालता के बावजूद मैं यहां हमेशा की तरह उसी उम्मीद के साथ खड़ा हूं कि संयुक्त राज्य अमेरिका इसे दृढता के साथ सहेगा और इस देश की नींव रखने वालों के स्वप्न हमारे समय में और मजबूत होंगे।
वह क्या है,जो मुझे यह उम्मीद बंधाता है। ये लिंकन मेमोरियल हॉल, जब मैं चारों ओर इन पर नज़र डालता हूं, इन स्मारकों में वह असंभव कहानियां खुदी हुई हैं जो हमारे हठी विश्वास को और भी दृढ करती हैं। यह विश्वास कि अमेरिका में कुछ भी संभव है। हमारे सामने एक ऐसे व्यक्ति का स्मारक है, जिसने थोड़े-से किसानों और दुकानदारों को साथ लेकर एक समूचे साम्राज्य की सेना के विरुद्ध क्रांति की और यह सब एक विचारधारा के लिए किया गया था। इसकी सतह में ऐसी पीढ़ी के लिए श्रद्धांजलि है, जो युद्ध और अवसाद के खिलाफ डटकर खड़ी हुई, मेरे दादा-दादी की तरह जिन लोगों ने बांबर एसेंबली लाइन पर पसीना बहाया और निरंकुशता के चंगुल से दुनिया को मुक्त करने के लिए पूरे यूरोप में अभियान चलाया। हमारे ठीक सामने एक जलाशय है, जो आज भी एक राजा के स्वप्न और एक व्यक्ति की महिमा का बखान करता है, जिसने अभियान छेड़ा और अपनी रक्त बहाया ताकि उसके बच्चों को चारित्रिक खूबियों के कारण जाना जाए और मेरे पीछे उस संघ को निहारता वह व्यक्ति बैठा है, जिसने इसे बचाया और कई मायनों में इस दिन को संभव बनाया।
आज जो मैं आप सबके सामने यहां खड़ा हूं, कौन मुझे इतनी गहरी उम्मीद देता है। चारों ओर से घेरे हुए ये पत्थर और संगमरमर नहीं, बल्कि इनके बीच जो मौजूद है, वहां से मुझे ये उम्मीद मिलती है। वो आप हैं-हर नस्ल, क्षेत्र और शहरों के अमेरिकी, जो यहां आये क्योंकि आपको भरोसा है कि यह देश क्या हो सकता है और क्यूंकि आप वहां तक पहुंचने में हमारी मदद करना चाहते हैं। यही वह चीज़ है, जिसने मुझे उसी दिन से उम्मीद दी, जब तक़रीबन दो साल पहले इस राष्ट्रपति पद की मुहिम शुरू की थी; एक भरोसा कि यदि हम ख़ुद को एक-दूसरे के रूप में पहचान लें और डेमोक्रेट्स, रिपब्लिकन्स व इंडिपेंडेंट्स; लातिनी, एशियाई और मूल अमेरिकी, श्वेत व अश्वेत, समलैंगिक व विपरित लैंगिक, अपंग व आम सभी को एक साथ ले आयें तो न सिर्फ उम्मीदों और अवसरों को फिर से बहाल कर पायेंगे, जो हम सभी की इच्छा है, बल्कि संभव है कि इस प्रक्रिया में हम अपने संघ को और भी मजबूत करें।
यहीं है मेरा विश्वास, लेकिन आपने इस विश्वास को सच कर दिखाया है। आपने एक बार फिर यह साबित कर दिया है जो लोग इस देश से प्यार करते हैं, वे इसे बदल सकते हैं। अब जबकि मैं राष्ट्रपति पद संभालने जा रहा हूं, आप लोग ही वह आवाज़ है, जिसे में हर दिन उस ओवल ऑफिस में प्रवेश करते हुए अपने साथ ले जाउंगा। उन स्त्रियों और पुरूषों की आवाज, जिनकी कहानीयां अलग-्लग हैं, लेकिन जिनके स्वपन एक हैं। जो सिर्फ यह सवाल करेंगी कि एक अमेरिकी के बतौर हमारा वादा क्या था, कि हम अपने जीवन को वौसा बना सकें, जैसा हम चाहते हैं. और अपने बच्चों को खुद से भी ज्यादा बुलंदियों तक पहुंचते हुए देखें।
यही वह धागा है, जो इस साझा कोशिश में हमें एक साथ बांधता है, जो इस इमारत की प्रत्येक स्मृति के साथ चलता है, जो महें उन सबसे जोड़ता है, जिन्होंने संघर्ष किया, बलिदान दिया और यहां पहले खड़े हुए।
इस तरह इस राष्ट्र ने महान मतभेदों और लंबे समय की असमानताओं पर विजय प्राप्त की, क्योंकि ऐसा कोई अवरोध नहीं है, जो बदलाव की मांग कर रहे लाखों लोगों की आवाज़ की राह में टिक सकें।
यही वह भरोसा है, जिसके साथ हमने इस मुहिम की शुरूआत की। उसी की ताकत से हम उस सब पर विजय प्राप्त करेंगे, जो हमें तकलीफ पहुंचा रहा है। इसमें कोइ संदेह नहीं कि हमारी राह लंबी होगी. हमारी चढ़ाई सीधी होगी। लेकिन यह कभी न भूलें कि हमारे देश का असली चरित्र सरल और आसान समय में उजागर नहीं हुआ, बल्कि तब सामने आया ,जब हम मुश्किलों मे थे। मैं आप सबसे अपील करता हूं कि एक बार फिर उसी चरित्र को उभारने में मेरी मदद करें और इस तरह हम एक साथ मिलकर बतौर एक राष्ट्र अपने पूर्वजों की उसी विरासत को आगे ले जाएं, जिसका आज हम जश्न मना रहे हैं।
साभार : दैनिक भास्कर

Tuesday, January 20, 2009

मदरसों को सी.बी.एस.ई. जैसा सर्टिफिकेट??

तपन शर्मा हिंदयुग्म के उन कार्यकर्ताओं में से हैं जिन्हें पर्दे के पीछे रहकर काम करने में मज़ा आता है...हिंदयुग्म के हर आयोजन में वो चुपचाप अपने जिम्मे का काम करते हैं और प्रेरणा देते हैं....इंडियन एक्सप्रेस में हाल ही में छपी एक ख़बर पर उन्होंने हमें ये लेख भेजा है...मदरसों की पढाई को सीबीएसई के बराबर मान्यता मिलने की संभावनाओं के बीच बैठक पर ये विमर्श दूर तक जाए, ऐसी हसरत है...

कांग्रेस सरकार में कुछ मंत्री हमेशा चर्चा में रहे। शिवराज पाटिल नामक शख्स जो अब चले गये हैं, रामादौस जिन्होंने एम्स को बीमार कर रखा है और तीसरे हैं अपने अर्जुन सिंह। समझ में नहीं आता कि चाहते क्या हैं। आरक्षण नाम की बैसाखी तो इन्होंने पहले ही हाथों में दे रखी है। जो सीटें आरक्षित होती हैं वे दाखिले की प्रक्रिया पूरी होने के बाद भी नहीं भरती। फिर भी उन्हें बढ़ा दिया गया वो भी जाति के नाम पर। आर्थिक आधार होता तो समझ भी आता। आंध्र में सीटें बाँटी जाती हैं धर्म के नाम पर। फिर भी सरकार अपने को सेक्युलर कहती है। सुप्रीम कोर्ट कहता है कि बची सीटें जनरल छात्रों को दी जायें तो उस पर अमल नहीं होता, उलटा कोर्ट को अपनी हद में रहने की सलाह दी जाती है। खैर अभी मामला आरक्षण का नहीं। मानव संसाधन मंत्रालय कुछ और ही करने की तैयारी में जुटा है। देश भर में जितने मदरसे हैं उनसे पढ़े गये छात्र वही दर्जा पायेंगे जो सी.बी.एस.ई. से उत्तीर्ण छात्र पाते हैं। कहने का मतलब ये कि मेहनत करने की, रात भर जागने की जरूरत नहीं है। कारण बताया गया है कि मुस्लिम छात्र भी आम छात्रों की तरह आगे आ पायेंगे। आपको मदरसों से भी वही सर्टिफिकेट मिलेगा जो आम स्कूल से पास करने पर मिलता है।

इसमें कोई दोराय नहीं है कि इस देश में मुसलमानों का फायदा उठाया गया है। यदि ऐसा न होता तो आजादी के ६० बरस बाद भी शिक्षा के मामले में पिछड़े न कहलाते। वे शिक्षा के मामले में पिछड़े हैं इसमें भी किसी को कोई शक नहीं होना चाहिये। लेकिन सर्टिफिकेट बाँटे जाने का तरीका ठीक नहीं। सरकार चाहे तो मुस्लिम बहुल इलाकों में स्कूलों की तादाद बढ़ा सकती है। उन्हें जागरूक कर सकती है। मुझे नहीं पता और न ही लगता है कि मदरसों में वही पढ़ाई होती है जो कि बोर्ड करवाता है। इस तरह से हम उन्हें और भी कमजोर कर देंगे। वे बोर्ड से पास हुए छात्र के बराबर दर्जा तो पा लेंगे पर पढ़ाई में फिर भी पिछड़ जायेंगे। गलत तरीके से फायदा उठा कर पहले से ही त्रस्त समुदाय के वोट माँगने में ये सरकार कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती।

तीन विश्वविद्यालयों- जामिया हमदर्द, जामिया मिलिया और अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में स्नातकोत्तर में दाखिले के लिये मदरसों के सर्टिफिकेट मान्य हैं। मानव संसाधन ने यूजीसी को कहा है कि बाकि विश्ववैद्यालयों में भी इसे लागू किया जाये। परन्तु इसका विरोध होने के कारण यूजीसी ने एक कमेटी बैठाने का निर्णय लिया है।

आई.आई.टी और आई.आई.एम जैसे संस्थानों में आरक्षण दे कर भारत में शिक्षा के स्तर को मंत्रालय पहले ही गिरा चुका है। कहीं ये कदम भी गलत राह पर न पहुँचा दे।

तपन शर्मा

Monday, January 19, 2009

"बे-तक्ख्ल्लुस" पूछता है : कौन-सा साहित्य पढें भाई?

मनु "बे-तक्ख्ल्लुस" हिंदयुग्म के मंच पर लगातार टेढ़ी-मेढ़ी लकीरें खींचते रहे हैं...हमारे यूनिपाठक भी हैं...कार्टूनों के ज़रिये कई बार उन्हॉने बेहद सहजता से महीन बातें कही हैं...इस बार उन्होंने कार्टून के साथ एक सवालनुमा ज़रूरी लेख भी भेजा है....साहित्य जगत में कथापाठ के आयोजन कम ही देखने-सुनने को मिलते हैं...15 जनवरी को गांधी प्रतिष्ठान भवन में जब हिंदयुग्म ने भी कथाकार तेजेंद्र शर्मा, गौरव सोलंकी का कथापाठ और असग़र वजाहत, अजय नावरिया और अभिषेक कश्यप को विमर्श करते सुना तो मनु के मन में एक सवाल बेचैन कर गया...ये सवाल उन्होंने अब सबसे पूछने का मन बनाया है...कोई जवाब हो तो बताएं....

हिंद युग्म द्वारा आयोजित कहानी पाठ:एक विमर्श, मेरी नज़र में एक बहुत ही सफल और ज्ञानवर्धक कार्यक्रम रहा मंच पर विराजमान कथाकारों के तालमेल से लेकर कथा-वाचन, लघु कथाएँ, तेजेंद्र जी का वो ड्रामाई अंदाज में किया कहानी पाठ जो कभी भी नहीं भूलेगा और उस पर सोने पे सुहागा ये के अंत में मंच पर बैठे माननीय लेखकों से कोई भी प्रश्न कहानी पर आप पूछ सकते हैं. एक बिंदास सा सवाल मन में कुलबुला तो रहा था काफ़ी देर से और पूछने की कोशिश भी की, मगर बस पूछा ही नहीं गया मंच पर कुछ तो ख़ुद का संकोच और कुछ दिल की लाचारी....के जाने किस को कैसा लग जाए...? ये "जाने किस को कैसा लग जाए" आमतौर पर सबके लिए नहीं सोचता अब... पर जब किसी के लिए सोचता हूँ तो पूरी शिद्दत से... खैर...छोडिये ..ये भी हो सकता है के ये सवाल वहाँ के बजाय यहाँ इस तरह तसल्ली से पूछा जाना होगादरअसल इस
कार्यक्रम के दौरान तेजेंद्र जी के लिए एक शब्द कहीं से कानों में उतरा था "प्रवासी लेखक" शुरू में कुछ अजीब सा लगा ..पर सोच कर देखा तो कुछ भी अजीब नहीं था अब भाई एक भारतीय जो विदेश में रह रहा है ..तो उसका तो
पूरा माहौल ही बदल गया न..? अब वहाँ का कल्चर अलग है..मान्यताएं अलग है..लोग अलग हैं ...सरकार अलग है...

कायदा...क़ानून...नेता..पुलिस...भ्रष्टाचार के तरीके...मौसम...मिजाज़ ...सब अलग हैं..वहाँ शायद ना तो राशन के लिए लम्बी लाइने हों और ना ये आदमखोर ब्लू लाइनें और भी जाने क्या क्या नेमतें आफतें हों जो यहाँ पर और विदेश में अलग अलग हों... सो लेखक का "प्रवासी लेखक " सुना जाना मुझे बड़े आराम से हज़म हो गया.. इसी महफ़िल में हालांकि शायद पुकारा ना गया हो पर एक नाम मुझे "महिला साहित्य जगत" से भी लगा इस महिला साहित्य पर झांकना वैसे तो मुझे कुछ अटपटा सा लगता है..कुछ झिझक सी महसूस करता हूँ कि जाने यहा पर क्या निकल आए, पर एक दिन सोचा कि यहाँ पर अचार और बड़ी-पापड की कोई बढिया रेसिपी भी तो हो सकती है...आख़िर महिलायें भी तो अच्छी कुक होती हैं...तो खान पान से सम्बंधित जानकारी महिला साहित्य में नहीं तो और कहाँ मिलेगी ...सो बड़ी-पापड की बड़ी
तमन्ना लेकर यहाँ भी ढूँढा ...पर ऐसा कुछ ना पाया ...बस साहित्य जैसा साहित्य था ..लेखन जैसा लेखन .....

फ़िर एक और चेहरा दिखा "दलित-लेखक"....अब ये क्या बला है..? यूँ तो वहाँ पर एक "बाल-लेखन" वाला चेहरा भी
मौजूद था ..पर उसकी छोडिये .....प्रवासी की तरह ही बच्चों की दुनिया भी एकदम अलग होती है...सो इस बाल-साहित्य को भी अलग ही रखा जाना चाहिए .....मगर ये बाकी के सब अलग अलग रास्ते क्यूं...? दलित या महिला क्या
किसी और परिवेश में रहते हैं..? क्या ये किसी और समाज का अंग है..? क्या इनकी सभी समस्यायें मुख्यधारा से अलग हैं..? अगर मैंने कुछ लिखा है तो क्या वो "पुरूष-लेखन" है....? क्या अपने लेखन में इन शब्दों का प्रयोग इतना ज़रूरी हो गया है....कि आपको इनके बगैर पहचाना ही ना जाए....? ये शब्द समय समय पर अपना रूप अवश्य बदलते रहे पर कभी भी हमारे अंतर्मन से विदा नहीं हुए क्या इन्हें विदा नहीं हो जाना चाहिए...? इनके प्रयोग से हम परस्पर जुडाव महसूस करते हैं या अलगाव...? अगर जुडाव महसूस करते हैं तो क्या सोचकर और अलगाव महसूस करते हैं तो इन शब्दों से मुक्त क्यूं नहीं हो जाते....? क्या लेखक वर्ग को इस तरह से बांटना ठीक है...? हम क्यूं रोते हैं अंग्रेजों को...नेताओं को......धरम वालों को...जात वालों को...और सरहदों को ...कि हाय हाय, इन्होने सब ने हमें बाँट रखा
है....वरना हम तो....!! जी नहीं , कोई किसी को नहीं बाँट सकता ...कोई मुझे बतायेगा के जो सवाल मैं उठा रहा हूँ उसके लिए नेता, धर्म, सांसद, पुलिस, क़ानून या सिस्टम ..... कौन जिम्मेवार है.........??? शायद कोई
नहीं न..? हाँ, कोई भी नहीं...हम ख़ुद ही बनते फिरते हैं बँटे हुए ..हमीं को स्वाद नहीं आता बगैर अलगाव के...हमें कुछ और बांटने को नहीं मिला तो यूँ ....अपनी कलम को ही आधार बनाकर हम ने एक दूसरे से ख़ुद को अलग अलग कर
लिया...बाँट लिया......! वाह री एकता और अखंडता के लिए चलने वाली कलम...वाह...क्या खूब...???

एक दिन इन शब्दों को कभी न कभी बहुत ही भयावह शक्ल अख्तियार करना लाजिम है तो क्यूं नहीं इस काम को आज ही कर लें...ज़रा सोचिये इन शब्दों को साहित्य के साथ चस्पां कर देने से क्या हो जाता है ...और हटा देने से क्या हो जायेगा...?क्या इस से कोई लाभ है... है तो क्या है...और अगर वाकई कुछ है भी तो शायद इसके बदले दूसरे को हानि भी होगी जब महिला, पुरूष,दलित,सवर्ण,युवा आदि सब एक ही ढाँचे में जी रहे हैं तो ऐसा क्यूं जरूरी है..अगर एक महिला को महिला होने के नाते कुछ अलग समस्या है भी तो पुरूष को भी तो है....यही बात बाकी सब जगह भी लागू होती है....और फ़िर भी आपको लगता है कि आपकी व्यक्तिगत समस्यायें ही समाज की या समूचे राष्ट्र की समस्या है तो माफ़ कीजिये कि आप देश को, समाज को जोड़ने का काम नहीं कर रहे.....और ज्यादा तोड़ रहे हैं, खोखला कर रहे हैं....जिसका आने वाला रूप मेरे हिसाब से ज्यादा घिनौना होगा ........

"क्यूं अलग ये राह पकड़ी, किसके बहकाए हो तुम,
"बे-तक्ख्ल्लुस" से ये क्यूं, मुंह फेर के बैठे हो तुम"


मनु

Saturday, January 17, 2009

हमारे सपने तुम्हारे क्यों नहीं हो सके?? (1)

डॉ अजित गुप्ता की यादों का सफ़र फिर प्रस्तुत है....धनवान होते अमेरिका में ग़रीब होती संवेदना और बिछोह का दुख झेलते दूर देश के मां-बाप इनके लेख में कई-कई बार हैं.. पिछली बार आपने इस लंबी कड़ी का पहला भाग पढा...अब पढिए इसी कड़ी में आगे....


सोने का पिंजर
अध्याय 1


तू मेरे ख्वाबों में भी कभी नहीं आया, मेरे मन में तेरे लिए कभी किसी चाहत ने जन्म भी नहीं लिया। बस तेरा एक अस्तित्व है, इतना भर ही तो जानती रही हूँ मैं। लेकिन मुझे नहीं पता था कि एक दिन ऐसा आएगा जब तू मेरे जीवन का अंग बन जाएगा। तेरी विशालता के आगे मेरा व्यक्तित्व एकदम बौना बन जाएगा। बेटा जब बड़ा होने लगता है तो माँ के मन में एक धुकधुकी सी होने लगती है। कभी उसका घर बसाने के सपने आते हैं तो कभी उसके भविष्य के। एक कोना आशंका से ग्रस्त भी रहता है। एक अनजान भय मुंडेर पर चिड़िया के बोलने के साथ ही चला आता है। परायेपन का डर नींदे भी उड़ा देता है। लेकिन डर इस रूप में आएगा यह तो चिंतन में ही नहीं था। सभी कुछ तो ठीक चल रहा था। एक ठहरी हुई जिन्दगी की तरह साफ-सुथरा।
लेकिन तुम्हारे नाम का कंकड़ जब कलकल बहती नदी में फेंका गया तब भी मन में उद्वेग नहीं आया था। एक प्रसन्नता का भाव ही मन में था। एक ऐसा स्थान जहाँ सुरक्षा है, भविष्य की सम्भावनाएँ हैं, तब तुम्हारा नाम अच्छा ही लगा था। सपने ताजिन्दगी देखे नहीं तो तब भी नहीं देखे। अच्छा या बुरा कुछ भी तो नहीं सोच पाया था मन। बस एक विश्वास था, एक अटूट प्यार था। पल-पल, क्षण-क्षण अपने मन के कण-कण से निर्माण किया था अपनी ही एक प्रतिकृति को। प्यार सागर सा दिखाई पड़ता था, जिसका न कोई ओर था और न कोई छोर। लेकिन तभी तुम आ गए थे, हमारे मध्य। उस विशाल सागर में पहली बार लगा कि यहाँ नमक भी है जिस कारण यहाँ का पानी आँसुओं की तरह खारा भी है। अब कई समुद्र उग आए थे मेरे और मेरी प्रतिकृति के मध्य। मन उसे छूने का करता लेकिन यही समुद्र दूरी बनकर बीच में खड़ा हो जाता। लेकिन सुरक्षा बोध उस पार से निकल-निकलकर आता रहा। चिन्ता का सैलाब आता और चले जाता। हर शब्द में बसी थी केवल सुरक्षा। अपने आस-पास खून की होली दिखाई देती। अनाचार, अत्याचार सामने ही तो खड़े थे। भविष्य की चिन्ता रातों को सोने नहीं देती थी। अब मन आश्वस्त हो चला था। छू नहीं सकती तो क्या, सुरक्षा तो है। लेकिन सुरक्षा का भाव भी कितने दिन टिक पाया? जो कभी स्थाई लगता था वह चन्द दिनों में ही कपूर की तरह उड़ गया। अभी एक माह भी तो नहीं हुआ था, मन तड़पता और सुरक्षा का आश्वासन, मरहम लगा देता। हमारा क्या है, बच्चों का भविष्य सुरक्षित होना चाहिए।
वो कैसी तो शाम थी? लेकिन तुम्हारे यहाँ तो सुबह थी।
शाम का भी क्या फितूर होता है? अपने साथ एक घुटन लेकर आती है। एकान्त के पल धुएँ से घिरे दिखाई देते हैं। कभी यह धुआँ आँखों में समा जाता है, जलन के साथ पानी बनकर बहने लगता है। कभी इस धुएँ में भविष्य धुँधला हो जाता है। भला हो टी.वी. का, एकान्त में भी साथी बना डटा रहता है। रिमोट पकड़ो और आपका साथी बोलने लगता है, आपको गुदगुदाने लगता है। लेकिन वह शाम गुदगुदाने नहीं आयी थी, एक मिथक को तोड़ने आयी थी। एक डर का विस्तार करने आयी थी। सुरक्षा-चक्र के घेरे को तोड़ने आयी थी। तुम्हारे तन पर भी खून की होली खेलने आयी थी। मेरी वो शाम, रात बन गयी थी, तुम्हारी वो सुबह कभी न खत्म होने वाले डर में बदल गयी थी।
मेरे देखते ही देखते एक हवाई-जहाज जा टकराया था विशाल 110 मंजिला इमारत से। ताश के महल की तरह ढह गयी थी वो इमारत, जिसमें करोड़ों टन लोहा लगा था, करोड़ों टन सीमेंट लगा था। कितने पल लगे उसे भरभराकर ढहने में? वह 11 सितम्बर 2001 तुम्हारे लिए प्रारम्भ था एक डर का, हमारे लिए अन्त था सुरक्षा-बोध का। सारा जीवन ही बदल गया। आसान रास्ते, कंटकों से भर गए। दूरियाँ अब अन्तहीन हो चली। लेकिन समय कब रुकता है? समय तो चलता ही रहता है। घाव बनते हैं, समय भर भी देता है। लेकिन चिह्न तो वहीं रह जाते हैं। डर का चिह्न भी सदा के लिए रह गया।
दिन सरकते रहे, एक दिन इच्छा जागृत हुई, खून ने खून को पुकार लिया। तब न तो सात समुन्दर पार जाने में भय दिखाई दिया और न ही कोई व्यवधान मन में आया। सभी कुछ सरल लग रहा था। लेकिन 26 अप्रेल 2002 हमारे लिए बहुत बड़ा सबक लेकर आया। तुम तक पहुँचना इतना आसान नहीं है। तुम्हारी धरती पर पाँव रखने के लिए न तो करोड़ों की जायदाद थी, न ही तुम्हारे काम आने वाली शिक्षा। एक साधारण सी बात ने समाप्त कर दिया बरसों के सिंचित स्वाभिमान को। वीजा के रूप में तुमने नकार दिया हमारे व्यक्तित्व को। मेरी धरती पर तुम्हारा उपयोग नहीं है, अतः तुम्हें वीजा नहीं मिल सकता। ऐसे साधारण लोग मेरी धरती को भी साधारण नहीं बना दें, शायद यही डर तुम्हारे मन में रहा हो। तुम एक विशेष देश हो, दुनिया के सारे ही देशों में अग्रणी। अब तो तुम्हारी ही चौधराहट पूरी दुनिया में चलती है। लेकिन तुमने एक मिनट भी नहीं सोचा कि पुत्र तुम्हारे पास, तुम्हारे वैभव से चकाचौंध और माँ सात समन्दर पार! तुमने न टूटने वाले ताले लगा दिए? कैसी मानवता है तुम्हारी? तुम तो सारी दुनिया को श्रेष्ठता का संदेश देते हो, मानवता की बात करते हो, फिर होनहार पुत्रों के माँ-बापों को तरसाते क्यों हों? क्यों नहीं पूछते उनसे कि तुम्हारे माँ-बाप का भविष्य क्या होगा? लेकिन मैं भी तुमसे कैसे प्रश्न पूछने लगी? तुमने कब परिवार को महत्त्व दिया है? तुम तो एक व्यापारी हो। जो भी दुनिया का श्रेष्ठ हो उसे तुम ले लेते हो। बाकि भावनाओं से तुम्हें क्या मतलब? भारत का व्यक्ति हजारों में कमाता है लेकिन जैसा तुम्हारा आकार बड़ा है वैसे ही तुम्हारे डॉलर का आकार भी बहुत बड़ा है। भला भारत के माँ-बापों के पास इतना धन कहाँ जो तुम्हारे डॉलर का मुकाबला कर सकें? हाँ हमारा दिल जरूर बहुत बड़ा है। हम संतानों को अपनी छाती से लगाकर रखते हैं। हमारे सुख-दुख साँझी होते हैं। तुम बात-बात में उपहार देते हो, हम पल-पल अपना कर्तव्य पूरा करते हैं। हमारी संताने बैंक-लोन पर आश्रित नहीं रहती, वे हम पर ही आश्रित रहती हैं।
तुम्हारा वीजा-ऑफिस, स्वर्ग में जाने वाले चित्रगुप्त के दरबार जैसा ही है। सारे ही जीवन का लेखा-जोखा देखा जाता है। जरा सी चूक हुई कि दरवाजे बन्द। बेचारे लोग लम्बी-लम्बी कतारों में घण्टों खड़े रहते हैं। उनके हाथ में लदे होते हैं बही-खाते। जिसे स्वीकृति मिल जाती है, उसके घर में दीवाली मनती है और जिसे नहीं, वह अमावस में रहने को ही मजबूर होता है।
तुम अकस्मात् ही मेरे जीवन में आ गए। मेरे बरसों के सिंचित स्वाभिमान पर तुमने एकदम से प्रहार कर दिया। मैं, मेरा समाज और मेरा देश, तुमने गौण कर दिया, हमारी संतानों के समक्ष। मैं तो समझती थी कि शिक्षा का अर्थ स्वाभिमान जागृत करना होता है, लेकिन तुम्हारे यहाँ कि शिक्षा ने तो सम्पूर्ण भारत के स्वाभिमान को ही पददलित कर दिया। हमारे यहाँ जब गाँव का नौजवान पहली बार महानगरों में जाता है तब वह एकदम से बौरा जाता है। वह स्वयं को गँवार समझ बैठता है और महानगर में बसने के ख्वाब पाल बैठता है। कभी कच्ची बस्ती में, कभी चाल में, कभी सोसायटी में। वह सारे दुख उठाकर भी गर्व से तना रहता है कि मैं महानगर में रह रहा हूँ। छूट जाते हैं पीछे कहीं, शुद्ध हवा, प्रकृति के साथ जीने का तरीका, घर, चौबारे। तुम्हारे यहाँ भी ऐसा ही है, एक बार तुम्हारी धरती पर पैर रखा नहीं कि तुम्हारे सौंदर्य की चकाचौंध से हमारे पुत्रों की आँखें चुँधिया जाती हैं। साफ-सुथरा शहर, चौड़ी-चौड़ी सड़के, चारों तरफ रोशनी से नहाया शहर। रात को मद्धिम रोशनी, एक खुमारी सा जगा देती है। इसी खुमारी में वह विस्मृत कर देता है अपना अतीत। भूल जाता है उस माँ को जो उसके लिए सिगड़ी जलाए बैठी होती है, गर्म रोटी खिलाने को। भूल जाता है उस बाप को जिसके मजबूत कंधों पर खेलते हुए उसका बचपन बीता था, भूल जाता है उस बहन हो, जिसकी चोटी खींचते हुए वह बड़ा हुआ था। बस वर्तमान की सुंदरता में खो जाता है उसका तन और मन।
मुझे एक वाकया स्मरण में आता है। मैं एक बार एक कार्यक्रम के निमित्त सुदूर पहाड़ों और जंगलों के मध्य बसे एक छोटे से गाँव में गयी थी। शहर का व्यक्ति भला क्यूँ गाँव में जाता है? वह सोचता है कि मैं विकसित हूँ और ये लोग अभी अविकसित हैं, अतः उन्हें विकसित करने का भ्रम लेकर हम भी वहाँ गए थे। गर्मी अपने पूर्ण यौवन पर थी, शायद 45 डिग्री सेल्शीयस तापमान रहा होगा। हमारे यहाँ गर्मी में इतना ही तापक्रम रहता है। साथ में लाया थर्मस का पानी भी गर्म हो गया था। पास में ही चरस चल रहा था। कुएं से बैल की शक्ति के द्वारा पानी निकाला जाता है। बैल घूमता रहता है और छोटी-छोटी बाल्टियों में पानी भर-भरकर निकलता रहता है। वह जल इतना निर्मल और शीतल था कि हमारा अन्दर तक तृप्त हो गया। वहाँ छोटी-छोटी मगरियों पर झोपड़े बने थे। कुछ दूरी पर ही नदी बह रही थी। नदी के सहारे-सहारे सड़क चले जा रही थी और सड़क का अवलम्ब बने थे पहाड़। पहाड़ों पर कहीं गूलर था तो कहीं नीम। कहीं पलाश था तो कहीं महुवा। छोटे-छोटे खेतों में कहीं तुअर खड़ी थी तो कहीं अदरक और कहीं हल्दी के ढेर लगे थे। शाम को सारा क्षेत्र चिड़ियाओं के चहकने से गुंजायमान हो गया। बच्चे उनके पीछे-पीछे दौड़ने लगे।
आम भी पेड़ों पर लदा था, हमें पेड़ों को निहारते देख, एक बच्चा झट से पेड़ पर चढ़ गया और कच्ची अमिया तोड़ लाया। घर से चुटकी भर नमक ले आया, हम कुएं की मेढ़ पर बैठकर चटखारे लेकर अमिया खाने लगे। जैसे ही सूरज ने पश्चिम की ओर प्रस्थान किया आकाश पर चाँद और तारे निकल आए। पूरा ही आकाश भर गया, ऐसा लगा कि यहाँ पैर रखने की भी जगह नहीं छोड़ी है तारों ने। झोपड़ियों के बाहर ढोल और मांदल की आवाजें आने लगी हैं। सारे ही पुरुष और महिलाएं एक साथ झूम रहे हैं, नाच रहे हैं। कोई अभाव नहीं, कोई शिकायत नहीं।
मन में प्रश्न उठने लगा कि हम शहरवाले इन्हें क्या देने आए हैं? या इनसे छीनने आए हैं इनका चैन-सुकून? यहाँ के नौजवान को क्षणिक भर का तो सुख देते हैं ये महानगर, लेकिन एक कालावधि के बाद टूटने लगता है इनका भ्रम। उन्हें याद आने लगता है वही अपना छोटा सा गाँव जो उससे कभी का पीछे छूट गया है। अब उसके पास होली पर टेसू के फूलों का रंग नहीं है, अब उसके पास तारों भरी रात नहीं है, अब उसके पास अमिया से लदा पेड़ नहीं है। बस अब उसके पास है अकेलापन, बस अकेलापन। ऐसा ही तो तुम भी करते हो। तुम्हारे यहाँ की सुन्दरता से बौराए हमारे पुत्र जब भारत को याद करते हैं तब बहुत देर हो जाती है वापस लौटने को।
मेरे देश की लाखों बूढ़ी आँखों को तुमसे शिकायत नहीं है, बस वे तो अपने भाग्य को ही दोष देते हैं। वे यह नहीं जान पाते कि गरीब को धनवान ने सपने दिखाएँ हैं, और उन सपनों में खो गये हैं उनके लाड़ले पुत्र। मैं समझ नहीं पाती थी कि तुम क्यों नहीं आने देते हो, बूढ़े माँ-बापों को तुम्हारे देश में? लेकिन तुम्हारी धरती पर पैर रखने के बाद जाना कि तुम सही थे। क्या करेंगे वे वहाँ जाकर? एक ऐसे पिंजरे में कैद हो जाएँगे जिसके दरवाजे खोलने के बाद भी उनके लिए उड़ने को आकाश नहीं हैं। अपने देश में, अकेले घर में कम से कम अपनी सी साँस तो ले सकेंगे। कोई तो भूले-भटके उनका हाल पूछने चला ही आएगा। लेकिन तुम्हारे यहाँ आकर तो कैसे कटेंगे उनके दिन? तुम ठीक करते हो, उन्हें अपनी धरती पर नहीं आने देने में ही समझदारी है। कम से कम वे यहाँ जी तो रहे हैं, वहाँ तो जीते जी मर ही जाएँगे।

क्रमशः

Tuesday, January 13, 2009

वक़्त का तक़ाज़ा भी यही है....

नाज़िम नक़वी फिर हाज़िर हैं...इस बार उन्होंने देश की व्यवस्था पर अपनी कलम चलायी है...वो व्यवस्था जो आज भी सरहदों
पर सियासत करने से बाज़ नहीं आती....अपने देश में दशकों से बस रहे बांग्लादेशियों की दुर्दशा पर पढिए उनका ये आलेख...




“वो बांग्लादेशी हैं और उन्हें बांग्लादेश में रहना चाहिये, इस समस्या को धर्म के आधार पर देखने की कोई ज़रूरत नहीं है...” क़रीब तीस दिन पुराने हमारे नये गृहमंत्री ने दो टूक ये कह दिया तो यकबयक कानों पर यक़ीन नहीं हुआ। सही भी तो है, वक़्त का तक़ाज़ा भी तो यही है। जब अपना घर आफ़तों का परकाला हो गया है तो परोपकार की किसको सूझती है। इतिहास में जाने की ज़रूरत नहीं कि बांग्लादेशी हमारे देश में लगभग तीन दशक पहले कैसे और किन परिस्थितियों में आये। लेकिन आज जब ये पता लगाना मुश्किल होता जा रहा है कि हमपर ख़तरनाक हमलावर हमारे अपने हैं या पड़ोसी तो ऐसे में पहला क़दम यही होना चाहिये कि उन लोगों को देश से निकाल दिया जाय जिनके पास न वीज़ा है न वर्क परमिट। लेकिन सवाल उठता है कि क्या ये काम एक बयान जितना आसान है? पिछले तीन दशकों में अगर एक बांग्लादेशी अवैध रूप से यहां बसा तो आज वो परिवार वाला हो चुका है। इन अवैध लोगों की वैध संतानें किस देश की कहलायेंगी? ये एक दो दिन की बात नहीं है। ये वो अवधि है जब व्यक्ति परिवार में परिवार ख़ानदान में और ख़ानदान जन समूह में बदल जाते हैं।

हैरत इस बात पर है कि आज कांग्रेसी सरकार का गृह मंत्रालय जिसे समस्या मान रहा है उसका जन्म ख़ुद उसकी ही नीतियों की कोख से हुआ है। 1983 में इंदिरा गांधी द्वारा एक क़ानून (आईएमडीटी एक्ट) की स्थापना की गई ताकि बांग्लादेशी प्रवासियों को असमी विद्रोह से बचाया जा सके। इस क़ानू के तहत शिकायतकर्ता को 10 रपये का एक फ़ार्म भरकर शिकायत दर्ज करानी होती थी। फिर वो शिकायत अगर सही पाई गई तो अवकाश प्राप्त जजों के उस ट्रिब्यूनल के पास जाती थी जो ये फ़ैसला कर सकते थे कि अमुक व्यक्ति को वापिस भेजा जाय या नहीं। दूसरी तरफ़ जिसके ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज की गई है उसे सिर्फ़ अपने नाम का राशन कार्ड दिखाना होता था। इस कानून के बाद वही हुआ, राशन कार्ड बनाने वाले भगवान हो गये। इससे भी रोचक ये कि 2005 में इस कानून पर देश की सर्वोच्च अदालत ने कहा कि “अवैध प्रवासी नागरिकों को पहचानने और उन्हें उनके देश भेजने की प्रक्रिया में ये कानून सबसे बड़ी अड़चन है।” इस देश में किसी भी चीज़, यहां तक की क़ानून, को सही और ग़लत साबित करने में 22 साल लग जाते हैं। जैसा कि इस एक्ट के साथ हुआ। इन बाइस वर्षों में क्या से क्या हो जाता है इसे बताने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिये।

अगर इस दशकों पुरानी समस्या का सामधान इतना आसान नहीं है तो फिर एक कांग्रेसी गृहमंत्री का ये बयान कैसे गैर-सियासी हो सकता है। सियासी तौर पर तो ये भाजपा का मुद्दा रहा है और उसने जब-तब इसे उठाया भी। 2003 के पहले सप्ताह में आंतरिक सुरक्षा के लिये ख़तरा बन चुके लगभग दो करोड़ बांग्लादेशियों को वापिस उनके देश भेजने की घोषणा करते हुए अडवाणी जी ने तो इस अभियान की तारीख भी अप्रैल 2003, तय कर दी थी। फिर पता नहीं क्यों ये अभियान शुरू नहीं हो सका। शायद फ़ील गुड के फ़ील बैड में बदल जाने का अंदेशा रहा हो। उस समय अडवाणी ने भी यही कहा था कि इतनी बड़ी तादाद में ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से रह रहे लोग दुश्मन देशों के एजेंट भी हो सकते हैं और आज यही ख़तरा चिदंबरम को भी है। उस समय के उप प्रधानमंत्री ने भी भारत के नागरिकों के लिए पहचान पत्र जारी किए जाने की बात कही थी, आज नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर (एनपीआर) बनाने की वही बात गृहमंत्री भी कर रहे हैं।

अब ये सवाल उठाना बेमानी है कि आख़िर अभी तक हम इस समस्या से क्यों नहीं निपट पाये। किसे नहीं मालूम कि हूजी जैसे आतंकवादी संगठन बनाने वाले कौन हैं, आईएसआई, हूजी और असम के अलगाववादी गुटों का तालमेल किससे छुपा हुआ है, ये बांग्लादेशी किसका वोट बैंक हैं। ऐसे में क्या नहीं हो पाया इसपर कोई सवाल कैसे किया जा सकता है। हां ये सवाल ज़रूर उठता है कि आज इस सवाल के पीछे कौन सा गणित काम कर रहा है। आ़ज कांग्रेस को ये वोट बैंक बेमानी लग रहा है तो क्यों? गृहमंत्री पूरी लगन के साथ अपने पांच महीनों के इस छोटे से टारगेट पर काम कर रहे हैं ये सबको नज़र आ रहा है। मंत्रालय में बड़े बड़े अफ़सर देर रात तक फ़ाइलों से घिरे हुए देखे जा सकते हैं। सुरक्षा एजेंसियां हों या ख़ूफ़िया तंत्र सबको ज़िम्मेदारी ओढ़ने वाले सिस्टम के अंतर्गत लाया जा रहा है। फलां काम 15 जनवरी तक और फलां काम 20 जनवरी तक पूरा हो जाना चाहिये, ऐसे निर्देश आम हो गये हैं। लेकिन ये भी सच है कि चुनाव के नज़दीक चुनाव की तैय्यारियां भी इसी समय ही करनी हैं। सहयोगियों को साथ लाना है लेकिन राजनैतिक प्रतिद्वंदियों को भी ठिकाने लगाना है। हम जनप्रतिनिधि हैं और जनता के प्रति हमारी जवाबदेही है ये जुम्ले चुनावी मौसम के जुम्ले हैं जो इधर-उधर सुनाई पड़ने लगे हैं।

अगले चुनाव की रणनीति कांग्रेसी आंखों से देखिये तो असम से उसे ज़्यादा उम्मीद नहीं है। त्रिपुरा और वेस्ट बंगाल में उसका जनाधार पहले से ही खिसका हुआ है। यही वो इलाक़े हैं जहां बांग्लादेशी वोट बैंक के मायने हैं। कल तक वामपंथी उसके साथ थे तो उसे बांग्लादेशी घुसपैठ को नज़रअंदाज़ करना पड़ता था। आज वामपंथी हर मोड़ पर उसके ख़िलाफ़ खड़े हैं। संसद में उनके परम विरोधी तो वही हैं, भजपा से भी ज़्यादा। दूसरी अहम बात ये कि आंतरिक सुरक्षा की बात उठाते हुए भाजपा सरकार का घेराव इन्हीं बांग्लादेशियों के नाम पर कर सकती थी तो उसे पहले ही उठाकर कांग्रेस ने उसका ये कार्ड एक तरह से छीनने का प्रयास किया है। वैसे भी विरोध के लिये मुद्दों की तलाश में भाजपा हाथ-पैर मार रही है।

हम जैसे हैं सब कुछ वैसा होता है। हमारे देश में किसी समस्या से निपटने का हमारा तरीका क्या है इसे बांग्लादेशी समस्या के आइने में देखा जाना चाहिये। ये उसी देश में संभव है जहां “देर आये- दुरुस्त आये” या “भगवान के घर देर है अंधेर नहीं है”
जैसे मुहावरे जीने का आधार हों। हमें भगवान के न्याय पर भरोसा है तो हमारे सारे प्रश्न भी उसी के दरबार में जाते हैं। हम जब चाहते हैं उसे कटघरे में खड़ा कर देते हैं। और उसके ख़िलाफ़ उसी के फ़ैसले का इंतेज़ार करते हैं। ऐसे में मिनिस्टर फिनिस्टर, मंत्रालय-वंत्रालय या कानून फानून की क्या औकात जो हमारे दर्द को कम कर सके।

-नाज़िम नक़वी

Saturday, January 10, 2009

सोने का पिंजर (अपनी बात)

डॉ अजित गुप्ता हिंदयुग्म पर पहले भी अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुकी हैं.. पॉडकास्ट कवि सम्मेलन में इनकी कविता खूब पसंद की गई थी...उदयपुर, राजस्थान से ताल्लुक रखने वाली डॉ अजित राजस्थान साहित्य अकादमी में पदासीन हैं और मधुमती पत्रिका की संपादक भी हैं....साहित्य की हर विधा में डॉ अजित कलम चलाती रही हैं...
डॉ अजित गुप्ता अक्सर अपनी रचनाओं में सात समंदर पार गये लोगों की टीस और विदेश का चित्रण करती रही हैं..आठवें विश्व हिंदी सम्मेलन में शिरकत करने गयीं अजित ने अमेरिका के जीवन और वहां रह रहे भारतीयों को क़रीब से देखा और हमें अपने अनुभव भी भेजे....
हम उनके अनुभवों की लंबी श्रृंखला को सिलसिलेवार प्रकाशित कर रहे हैं....पढिए इसकी पहली कड़ी....आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा....




अपनी बात

आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में भाग लेने का सुअवसर प्राप्त हुआ। अमेरिका को देखने से अधिक उसे समझने की चाह थी। मेरे घर से, मेरे परिवार से, मेरे आस-पड़ोस से, मेरे इष्ट-मित्रों के बच्चे वहाँ रह रहे थे। उनकी अमेरिका के प्रति ललक और भारत के प्रति दुराव देखकर मन में एक पीड़ा होती थी और एक जिज्ञासा का भाव भी जागृत होता था कि आखिर ऐसा क्या है अमेरिका में? क्यों बच्चे उसे दिखाना चाहते हैं? क्यों वे अपना जीवन भारत के जीवन से श्रेष्ठ मान रहे हैं? ऐसा क्या कारण है जिसके कारण वे सब कुछ भूल गए हैं! उनका माँ के प्रति प्रेम का झरना किसने सुखा दिया? वे कैसे अपना कर्तव्य भूल गए?
ऐसा क्या है अमेरिका में जो प्रत्येक माता-पिता अपने बच्चों को वहीं पढ़ाना चाहते हैं? एक बार हमारे एक मित्र घर आए, उनका बेटा अमेरिका में पढ़ने जा रहा था, वे कितना खुश थे। मेरा बेटा भी वहीं पढ़ रहा था लेकिन मैं तो कृष्ण की भूमि की हूँ और बिना आसक्ति के कर्म करने में विश्वास रखती हूँ। बेटे ने कहा कि मैं आगे पढ़ना चाहता हूँ तो हमने कहा कि जरूर पढ़ो। जितना पढ़ोंगे उतने ही प्रबुद्ध बनोगे। तब न तो गर्व था कि बेटा अमेरिका जा रहा है और न ही दुख। लेकिन जब मैंने हमारे मित्र की आसक्ति देखी तब मैं पहली बार आश्चर्य चकित रह गयी। इतना मोह अमेरिका से? आखिर किसलिए? लेकिन उनका मोह था, उन्हें गर्व हो रहा था। मेरे ऐसे और भी मित्र हैं जिन्होंने अपने बच्चे की जिद को सर्वोपरि मानते हुए लाखों रूपयों का बैंक से कर्ज लिया और आज वे दुखी हैं। घर नीलाम होने की नौबत आ गयी है।
मैंने ऐसी कई बूढ़ी आँखें भी देखी हैं जो लगातार इंतजार करती रहती हैं, बस इंतजार। मैंने ऐसा बुढ़ापा भी देखा है जो छः माह अमेरिका और छः माह भारत में रहने को मजबूर हैं। वे अपना दर्द किसी को नहीं बताते, केवल एक भ्रम उन सभी ने भारत में निर्मित किया है। लेकिन सत्य सात तालों से भी निकलकर बाहर आ ही जाता है। बातों ही बातों में माँ बता ही देती है कि बहुत ही कष्टकारी जीवन है वहाँ का। कितने ही आश्चर्य निकलकर बाहर आते रहे हैं उनकी बातों से। शुरू-शुरू में तो लगता था कि एकाध का अनुभव है लेकिन जब देखा और जाना तो सबकुछ सत्य नजर आया। अनुभव सभी के एक से थे। सारे ही भारतीय परिवारों की एक ही व्यथा और एक ही अनुभव।
भारतीय भोजन दुनिया में निराला है। हमारे यहाँ की सभ्यता हजारों वर्ष पुरानी है। हमारी अपनी एक संस्कृति है। लेकिन अमेरिका का भोजन भारत से एकदम अलग है। उनकी सभ्यता अभी दो सौ वर्ष पुरानी है। उनके पास संस्कृति के नाम पर प्रकृति है। भारतीय माँ वहाँ जाती है, देखती है कि रोटी नहीं है। बेटा भी उसके हाथ की बनायी रोटी पर टूट पड़ता है और कहता है कि माँ कुछ परांठे बनाकर रख जाओ।
अरे कितने बनाकर रख जाऊँ? माँ आश्चर्य से पूछती है।
तुम जितने बना सको। मेरे पास तो यह फ्रिज है, इसमें दो-तीन महिने भी खाना खराब नहीं होता।
बेचारी माँ जुट जाती है, पराठें बनाने में। दो सो, ढाई सौ, जितने भी बन सकते हैं बनाती है।
ऐसे जीवन की कल्पना भारत में नहीं है। सभी कुछ ताजा और गर्म चाहिए। सुबह का शाम भी हम नहीं खाते।
ऐसे ही ढेर सारे प्रश्न और जिज्ञासाएं मेरे मन में थी। उन सारे ही भ्रमों को मैं तोड़ना चाहती थी। लेकिन मुझे आश्चर्य तब हुआ कि सारे ही मेरे भ्रम सत्य में बदल गए और मेरी लेखनी स्वतः ही लिखती चले गयी। मैंने राजस्थान साहित्य अकादमी की मासिक पत्रिका मधुमती में चार किश्तों में अपने अनुभव लिखे। लोगों के पत्र आने लगे। सभी का आग्रह इतना बलवती था कि मुझे पुस्तक लिखने पर मजबूर कर दिया। मेरे वे अनुभव भारत की अनेक पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हुए। मुझे किसी ने भी नहीं कहा कि तुमने यह गलत लिखा है। मैं किसी भी देश की निन्दा नहीं करना चाहती। लेकिन मैं अपने देश का गौरव भी बनाए रखना चाहती हूँ।
मैं उस हीन-भावना से भारतीयों को उबारना चाहती हूँ, जो हीन-भावना उनके बच्चों के कारण उनके मन में घर कर गयी है। अमेरिका निःसंदेह सुंदर और विकसित देश है। वह हमारे लिए प्रेरणा तो बन सकता है लेकिन हमारा घर नहीं। हम भी हमारे देश को ऐसे ही विकसित करें। हम सब मिलकर हमारे भारत को पुनः पुण्य भूमि बनाए। अमेरिका ने स्वतंत्रता की जो परिभाषा दी है हम भी उसे माने और कहें कि हम भी हमारा उत्तरदायित्व पूर्ण करके ही अपनी स्वतंत्रता को प्राप्त करेंगे। हमारी पीढ़ी यह स्वीकार करे कि जब तक हम अपना उत्तरदायित्व अपने देश के प्रति, अपने समाज के प्रति और अपने परिवार के प्रति पूर्ण नहीं कर लेते तब तक हम परतंत्र मानसिकता के साथ ही समझोता करते रहेंगे, अतः हमें अपने सुखों के साथ अपने कर्तव्यों को भी पूर्ण करना है।
मुझे विश्वास है कि बहुत ही शीघ्र भारत विकास के सर्वोच्च मापदण्डों को पूर्ण करेगा। इसकी झलक दिल्ली सहित कई महानगरों में देखने को मिल भी रही है। भारतीय अमेरिका से लौट भी रहे हैं। वे अपने देश का निर्माण करने के लिए आगे भी आ रहे हैं। मुझे विश्वास है कि जिस दिन सभी भारतीय अपने देश को एक सुसंस्कृत देश बना देंगे तब अप्रवासी भारतीय भी पुनः भारत में अपनी भारतीय संस्कृति को स्थापित करने में अपनी भूमिका का निर्वहन करेंगे। क्योंकि आज उनके पास ही हमारी संस्कृति पोषित हो रही है। हम तो इसे नष्ट करने पर उतारू हो गए हैं।
मुझे प्रसन्नता है कि मैं मेरे पाठकों की ईच्छा को मूर्त रूप देने में सफल हुई हूँ। अब आपको निर्णय करना है कि क्या वास्तव में मैं आपके दिलों में अपनी जगह बना पायी? क्या मैं अपने देश के साथ न्याय कर पायी?
यहाँ मैं उन पत्रों का उल्लेख करने लगूँ तो यह काफी लम्बी सूची होगी। मैं उन सभी पाठकों को धन्यवाद देना चाहती हूँ जिन्होंने मुझे प्रेम दिया और आशीर्वाद दिया। मैं उन सभी पत्रिकाओं का भी धन्यवाद देना चाहती हूँ जिन्होंने मेरे निबन्धों को धारावाहिक रूप से प्रकाशित कर मुझे पुस्तक लिखने के लिए प्रेरित किया।
अन्त में मैं धन्यवाद उन नौजवानों को देना चाहती हूँ, जिन्होंने मुझे अमेरिका को और वहाँ बसे भारतीयों की मानसिकता को समझने में सहयोग किया। यह पुस्तक मेरे पौत्र ‘चुन्नू’ के उस असीम प्रेम का उपहार है जिसने मुझे अमेरिका जाने पर मजबूर किया। अतः उसे ही उपहार स्वरूप भेंट।

क्रमश:

अजित गुप्ता

Thursday, January 08, 2009

सिर्फ अँग्रेज़ी से ही काम नहीं चलने वाला, इंटरनेट का भविष्य एशिया में लिखा जायेगा

अमेरिका का नामी खबरिया तंत्र न्यूयॉर्क टाइम्स मातृभाषा प्रेमियों के लिए नये साल का सौगात लेकर आया। अब यह मीडिया है तो सौगात भी रिपोर्ट के रूप में होगी। इस रिपोर्ट को अगले ही दिन 'दी टाइम्स ऑफ़ इंडिया', 'मीड-डे', 'ट्रिब्यून' आदि अंग्रेजी अखबारों ने छापा था। दैनिक जागरण ने भी इस रिपोर्ट को थोड़ी सी जगह दी थी। यह रिपोर्ट हिन्दी प्रेमियों में उत्साह भरने का काम करेगी- ऐसा बताते हैं वरिष्ठ ब्लॉगर और हिन्दी सेवी अनुनाद सिंह। तो हमने सोचा कि क्यों न पूरी रिपोर्ट को हिन्दी में उपलब्ध कराया जाय। यह काम तब और आसान हो गया जब ब्लॉगर राजीव तनेजा ने यह जिम्मा उठा लिया। हालाँकि अनुवाद में यह उनका पहला प्रयास है। इसे पढ़कर आप भी अपनी-अपनी भाषा के लिए इंटरनेट पर सक्रिय हो जाइए।


इंटरनेट का अगला अध्याय सिर्फ अँग्रेज़ी में ही नहीं लिखा जाएगा। सिर्फ एशिया में ही इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की संख्या इस समय उत्तरी अमेरिकियों से दुगनी है और 2012 तक ये संख्या बढ़कर तिगुनी हो जाएगी। अभी भी गूगल पर सर्च करने वालों की संख्या में आधे से ज़्यादा व्यक्ति अमेरिका से बाहर के होते हैं। इंटरनेट के वैश्वीकरण ने ही बंगलूरू के एक इंजीनियर राम प्रकाश हनुमानथप्पा को कुछ नया कर गुजरने के लिए प्रेरित किया। वैसे तो वे बचपन से ही अँग्रेज़ी जानते हैं, लेकिन फिर भी अपने दोस्तों और परिवार के सदस्यों से उन्हें अपनी मातृ भाषा 'कन्नड़ में ही बात करना पसन्द है। लेकिन इंटरनेट पर कीबोर्ड द्वारा 'कन्नड़' लिपि में इस समय लिखना उन्हें काफी कठिन प्रतीत हुआ।

वो दिन अब लद चुके, जब आप सोचें कि आप अँग्रेज़ी में किसी वैबसाईट का निर्माण करते हैं और उम्मीद करते हैं कि पूरी दुनिया से लोग उस पर खिंचे चले आएँगे क्योंकि आप उन्हें कुछ ज़रूरी सामग्री उपलब्ध करा रहे हैं

स्रोत- ज्यूपिटर रिसर्च
इसलिए 2006 में उन्होंने 'क्वैलपैड' नामक ऑनलाइन सर्विस का निर्माण किया। जिसके द्वारा 10 एशियाई भाषाओं में आसानी से टाइप किया जा सकता है। इसमें इस्तेमालकर्ता जिस भाषा में बोलता है, उसी ध्वनि को कीबोर्ड द्वारा रोमन शब्दों में उतार देता है और उसके बाद 'क्वैलपैड' का अपने आप अन्दाज़ा लगा लेने वाला इंजन उसे उसी ऐच्छिक लिपि में बदल देता है जिस भाषा का वो शब्द है। क्वैलपैड की इस खूबी के चलते बहुत से ब्लॉगर और लेखक इसकी तरफ आकर्षित हुए। इसी कारण मोबाइल फोन बनाने वाली कम्पनी नोकिया और गूगल का ध्यान भी इस तरफ गया। इसके बाद गूगल ने अपना ट्रांसलिट्रेशन टूल (लिप्यंतरण टूल) निकाला।

राम प्रकाश के बताते हैं कि बाहर की तकनीकी कम्पनियों ने भारत की बहुभाषीक संस्कृति को समझने में भूल की है। यहाँ अँग्रेज़ी केवल 10% आबादी द्वारा ही बोली और समझी जाती है। यहाँ तक कि कॉलेज के पढ़े-लिखे लोग भी अपने दैनिक जीवन में अपनी मातृ भाषा में ही बात करना पसन्द करते हैं। आपको उनपर जबरन अँग्रेज़ी थोपने के बजाए उन्हें...उनकी ही भाषा में विचारों को व्यक्त करने का मौका देना होगा।

अभी इंटरनेट पर सॉफ्टवेयर और अन्य चीज़ें अंग्रेज़ी के अलावा किसी दूसरी भाषा में ज़्यादा उपलब्ध नहीं है। इसलिए अमेरिका की बड़ी-बड़ी तकनीकी कम्पनियाँ सालाना लाखों डॉलर खर्च कर दूसरी भाषाओं में वेबसाइटें वगैरा बनवा रही हैं ताकि क्वैलपैड जैसी स्थानीय कम्पनियाँ उनके मुनाफे में सेंध न लगा सकें।

2012 तक दुनिया में इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की संख्या में भारत, अमेरिका और चीन के बाद तीसरे स्थान पर होने जा रहा है। भारतवासियों की खासियत है कि वो अपने मालिक से एक भाषा में बात करते हैं, अपनी पत्नि से दूसरी भाषा में और अपने माता-पिता से किसी तीसरी भाषा में।
ज्यूपिटर रिसर्च (एक अमेरिकी ऑनलाईन शोध कम्पनी) के एक वरिष्ठ ऐनालिस्ट ज़िया डैनियल विगडर के अनुसार "वो दिन अब लद चुके, जब आप सोचें कि आप अँग्रेज़ी में किसी वैबसाईट का निर्माण करते हैं और उम्मीद करते हैं कि पूरी दुनिया से लोग उस पर खिंचे चले आएँगे क्योंकि आप उन्हें कुछ ज़रूरी सामग्री उपलब्ध करा रहे हैं"

यहाँ मुश्किलें कहीं नहीं हैं और मेहनत का फल मिलना तय है। ज्यूपिटर रिसर्च के अनुसार 2012 तक दुनिया में इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की संख्या में भारत, अमेरिका और चीन के बाद तीसरे स्थान पर होने जा रहा है। भारतवासियों की खासियत है कि वो अपने मालिक से एक भाषा में बात करते हैं, अपनी पत्नि से दूसरी भाषा में और अपने माता-पिता से किसी तीसरी भाषा में।

भारत में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों के लिए याहू और गूगल ने पिछले दो सालों में एक दर्जन से अधिक नई सुविधाओं को शुरू किया है, जिनके द्वारा वे सर्च से लेकर ब्लॉगिंग तक और चैट से लेकर भाषा सीखने तक के हर काम को अपनी मातृ भाषा में कर सकें। माईक्रोसॉफ्ट ने अपने विण्डोज़ लाइव ऑनलाइन बण्डल को सात भारतीय भाषाओं में बनाया है। फेसबुक ने सैंकड़ों स्वैच्छिक कार्यकर्ताओं की मदद से अपनी सोशल नैटवर्किंग की साइट का हिन्दी और दूसरी भारतीय भाषाओं में अनुवाद शुरू किया है, और विकिपीडिया पर आज की तारीख में भारतीय भाषाओं के पृष्ठों की संख्या कोरियन भाषा के पृष्ठों से अधिक है।

गूगल की सर्च करने की सुविधा को चीन में स्पर्धा के चलते पिछड़ना पड़ा। इस कारण भारत में स्थानीय भाषा में सुविधाओं को उपलब्ध कराना ही उसकी प्राथमिकता बन गई। भारत में गूगल का मुख्य उद्देश्य है यहाँ के सुस्त चाल से बढ़ते हुए कम्प्यूटर बाज़ार को तेज़ गति प्रदान करना।

"यहाँ 22 भाषाओं का होना अपने आप में जटिलता पैदा करता है। यहाँ आप सभी भाषाओं के एक ही लाठी या एक ही भाषा से नहीं हांक सकते अर्थात् आप एक भाषा में बोल के सभी को खुश नहीं कर सकते।"
भरत राम प्रसाद, प्रमुख, शोध एवं विकास, गूगल
भारत में गूगल के शोध एवं विकास प्रमुख भरत राम प्रसाद के अनुसार भारत एक सूक्ष्म ब्रह्माण्ड की तरह है। यहाँ 22 भाषाओं का होना अपने आप में जटिलता पैदा करता है। यहाँ आप सभी भाषाओं के एक ही लाठी या एक ही भाषा से नहीं हांक सकते अर्थात् आप एक भाषा में बोल के सभी को खुश नहीं कर सकते।

वेबसाइटों को क्षेत्रीय रंगों में रंगने वाली लॉवेल, मैसेच्चुसेट्स की एक परामर्शी कारोबारी कम्पनी कॉमन सेंस एडवाइजरी के मुख्य शोधकर्ता सडोनाल्ड ए॰ डीपाल्मा के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय कम्पनियाँ हर वर्ष हज़ारों लाखों डॉलर इस बात पर खर्च कर रही हैं कि वे अपनी वेबसाइट का किस-किस भाषा में अनुवाद करें ताकि उनकी पहुँच ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक हो सके।

उनके अनुसार ई-कॉमर्स और ऑनलाइन विज्ञापन बाज़ार के क्षेत्र में भारत, रूस, ब्राज़ील और दक्षिणी कोरिया के मुकाबले पिछड़ा हुआ है।

गूगल के राम मानते हैं कि कम्पनी द्वारा भारत में दी गई स्थानीय भाषाओं की सुविधा के जरिए अभी वो अर्थपूर्ण आमदनी नहीं कर पा रहे हैं।

डी पाल्मा के अनुसार "लेकिन ये समझदारी से किया गया निवेश है। संभवत: वो भारत के विज्ञापन बाज़ार का निर्माण कर रहे हैं।"

बहुत चर्चित पुस्तक "विनिंग इन द इंडियन मार्केट" ("Winning In The Indian Market") की लेखिका और मार्किटिंग परामर्शदाता रमा बीजापुरकर के अनुसार भारत के बढ़ते ऑनलाईन बाज़ार से जुड़ने के लिए सिर्फ अँग्रेज़ी ही प्रयाप्त नहीं है, ये सबक पश्चिमी देशों के टीवी कार्यक्रम बनाने वाले तथा उपभोक्ता वस्तुओं के निर्माता पहले ही जान चुके हैं।

वो आगे बताती हैं-"अगर आप करोड़ों लोगों या लाखों लोगों तक पहुँचना चाहते हैं और उनसे जुड़ना चाहते हैं तो आपके पास अलग-अलग भाषाओं के इस्तेमाल के अलावा और कोई चारा नहीं है"।

भारतीय बाज़ारों पर शोध करने वाली एक कम्पनी जक्स्ट कंसल्ट (JuxtConsult) द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत के लगभग पाँच करोड़ इंटरनेट इस्तेमाल कर्ताओं का करीब तीन चौथाई हिस्सा स्थानीय भाषाओं में ही पढ़ना पसन्द करता है। JuxtConsult के मुख्य प्रबन्धक संजय तिवारी के अनुसार बहुत से लोगों को जो चाहिए होता है, नहीं मिल पाता है। स्थानीय भाषाओं में सामग्री की यहाँ बहुत कमी है"

कम्प्यूटर को स्थानीय भाषाओं के अनुकूल बनाने के लिए भारतीय शैक्षिक संस्थानों, स्थानीय व्यपारियों और एकल सॉफ़्टवेयर डेवलपरों द्वारा किए जा रहे प्रयासों को माईक्रोसॉफ़्ट की पहल पर बनाया गया 'भाषा' नामक प्रोजैक्ट एक साथ संयोजित करता है। 'भाषा' की वैबसाइट (जिसके हज़ारों पंजीकृत सदस्य हैं) के अनुसार भारतीय संस्कृति को जटिल करने में वहाँ की अलग-अलग भाषाओं का बड़ा योगदान है।

माईक्रोसॉफ्ट के प्रोग्राम मैनेजर प्रदीप परिप्पल के अनुसार माइक्रोसॉफ्ट के पास भारतीय भाषाओं में अपनी सेवाएँ देने के लिए सरकारी संस्थाओं और कम्पनियों की माँग लगातार बढ़ रही है। क्योंकि इनमें से बहुत सी कम्पनियाँ अपनी सेवाओं को भारत के ग्रामीण हिस्सों और छोटे-छोटे शहरों तथा कस्बों तक पहुँचाना चाहती हैं।

भाषा प्रोजैक्ट की वैबसाइट Bhashaindia.com प्रयोगकर्ताओं को तकनीकी शब्दों के लिए उन्हीं के द्वारा संपादित स्थानीय भाषा के शब्दों तथा सोशल नैटवर्किंग साइटों के लिए अजीबोगरीब शब्दों जैसे "nudge" और "wink" के इस्तेमाल की सुविधा प्रदान करती है।

पिछली दिसम्बर को याहू और जागरण (भारत का एक बड़ा दैनिक हिन्दी अखबार) ने मिलकर jagran.com के नाम से हिन्दी (42 करोड़ भारतवासियों की भाषा) में एक पोर्टल बनाया।

याहू (जो अपनी ई-मेल और अन्य सुविधाएँ कई भारतीय भाषाओं में प्रदान करती है) के अनुसार jagran.com ने उनकी उम्मीदों से बढ़कर अपनी तरफ ट्रैफिक को खींचा है।

भारत में याहू के मुख्य प्रबन्धक गोपाल कृष्ण सलाह देते हैं "भारत जैसे देशों में स्थानीय भाषाओं के रंग में खुद को ढाल लेना ही सफलता की सबसे बड़ी कुंजी है"

अभी हाल ही में गूगल ने अपनी एग्रीगेशन साइटस को हिन्दी तथा तीन मुख्य दक्षिण भारतीय भाषाओं में पेश किया है और साथ ही उसने अपने ट्राँसलिट्रेशन टूल (लिप्यंतरण टूल) को पाँच भारतीय भाषाओं में शुरू किया है। उसका सर्च इंजन नौ भारतीय भाषाओं में काम करता है और खोज के नतीजों को अँग्रेज़ी से हिन्दी और हिन्दी से वापिस अँग्रेज़ी में बदल सकता है।

गूगल के इंजीनियर आवाज़ को पहचान सकने, अनुवाद कर सकने, एक लिपि को दूसरी लिपि में बदलने और लिखे हुए को पढ़ सकने योग्य औज़ार के निर्माण में लगे हैं ताकि अन्य विकासशील देशों में भी उनका प्रयोग हो सके।

क्वैलपैड के राम प्रकाश के अनुसार जब उन्हें गूगल में कार्यरत अपने मित्रों के द्वारा पता चला कि उन्होंने क्वैलपैड की तुलना अपने ट्राँसलिट्रेशन वाले टूल से की है तो वो बहुत प्रेरित हुए। उनका विश्वास है कि जैसे-जैसे भारतीयों में अँग्रेज़ी से मुकाबला करने की होड़ जगेगी, वैसे-वैसे इंटरनेट पर स्थानीय भाषाओं का प्रयोग बढ़ता चला जाएगा"

राम प्रकाश कहते हैं कि सिर्फ अँग्रेज़ी से ही काम नहीं चलने वाला। वो 'क्वैलपैड' का नारा (English is not enough) दोहराते हुए कहते हैं कि "ये ठीक है कि लोग आगे बढ़ना चाहते हैं और इसी कारण अँग्रेज़ी सीखना चाहते हैं लेकिन सिर्फ अँग्रेज़ी ही उनकी सभी आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर सकती"।

--राजीव तनेजा

Wednesday, January 07, 2009

तुलसी और राम के बीच कई आडवाणी आ गये हैं : निदा फ़ाज़ली

अपनी नज़्म पर पाठकों की प्रतिक्रियाओं को पढ़ते
नाज़िम नक़वी के घर दूसरी दफ़ा गया था...सच कहूँ, उनके यहां जाने का मन ही नहीं करता....किराये के कमरे में रहने की ऐसी आदत है कि कोई भी घर जहाँ सब कुछ करीने से रखा हो, काटने को दौड़ता है....मगर जाना हमारी मजबूरी भी थी और ज़रूरत भी.....नाज़िम जी से थोड़ी-देर की गपशप के बाद हमारे बैठकखाने के ठीक सामने का दरवाज़ा खुला और निदा फाज़ली नींद से जागकर बाहर आये....हमें पहले ही हिदायत मिल चुकी थी कि उन्हें थोड़ी ही देर में मुंबई के लिए निकलना है तो आधे घंटे से ज़्यादा वक़्त नहीं मिलेगा...

उजले कुरते में निदा थोड़ा थके-से लग रहे थे...मेरे पास निदा से पूछने को हिंद-युग्म के पाठकों के कई सवाल थे....मुझे लगा, नींद से अभी-अभी जागे हैं....शायद ज़्यादा बात न करें...ख़ैर, नाज़िम जी ने शैलेश और हमारा परिचय उनसे करवाया और हिंद-युग्म के बारे में भी बताया...निदा का रिएक्शन वैसा ही था, जैसे किसी नींद से अभी-अभी उठे बच्चे को आप पढ़ने के लिए कह दें......फिर, उन्हें हमने हिंद-युग्म पर छपी उनकी हालिया नज़्म दिखाई और ये भी कि ढेरों पाठकों ने उनकी रचना पर तफ़्सील से टिप्पणी भी की है, तो वे बड़े ध्यान से सब टिप्पणियां पढने लगे...
निखिल, शैलेश और निदा फ़ाज़ली

चाय की चुस्की ने जब उन्हें थोड़ी राहत दी तो हमने अपना रिकॉर्डर उनके सामने कर दिया और अपने आधे घंटे को भुनाने में लग गये....सवालों की पूरी लिस्ट हम लेकर आये थे और ये भी डर था कि कहीं उन्हें ऊब न होने लगे.....मग़र, निदा जब बोलने पर आये तो न हमें आधे घंटे का होश रहा तो न उन्हें अपनी फ्लाइट का.....
पूरी बातचीत में एक बात उन्होंने बार-बार कही कि एक बार कागज़ पर रचना उतर आयी तो फिर वो पाठक की हो गयी...लेखक का उस पर अधिकार खत्म....कई सारे मुद्दों पर बातचीत हुई....उनकी आत्मकथा पर, उनके लेखन पर, देश-दुनिया पर और न जाने क्या-क्या....

पाठकों के सवालों का जवाब देते निदा
एक सवाल के जवाब में निदा ने कहा कि हिंदी और उर्दू को लिपि के आधार पर अंग्रेज़ों ने बांट दिया और हम भी उधार में मिली वही आधी-अधूरी विरासत ढोए चले जा रहे हैं....उन्होंने कहा कि सियासत और साहित्य के लिए धर्म के मायने अलग-अलग हैं....गोसाईं तुलसीदास ने जब रामायण रचा, तो उनके और राम के दरम्यान बस एक आस्था ही थी.....अब, तुलसी और राम के बीच कई आडवाणी आ गये है.... उन्होंने कहा कि सियासतदानों ने राम को मानस के दोहों से “हाईजैक” कर लिया है और रथयात्राओं में ले आये हैं....

उन्होंने कहा कि निदा के भीतर का शायर मुंबई की चकाचौंध में भी अपनी मिट्टी, अपने पेड़ और अपनी पगडंडी को भी जीता रहा है....वो आम आदमी का शायर है....उसने वही शब्द रचे जो आम ज़िंदगी में सबने जिये हैं....
फिल्मों में लिखे जा रहे गीतों पर निदा ने कहा कि उन्हें फिल्मों के लिए लिखने से ज़्यादा स्वतंत्र होकर लिखने में मज़ा आता है.....फिल्म में लिखना सिर्फ आपकी मर्ज़ी पर नहीं होता....आपको औरों की “डिमांड” पर शब्दों की कांट-छांट करनी पड़ती है, जो किसी भी रचनाकार को नहीं सुहाता....

निदा फ़ाज़ली
उन्होंने कहा कि धर्म का, बिज़नेस का, समाज का अपना-अपना गणित होता है...मगर, कवि का गणित इससे बिल्कुल अलग होता है....इस गणित को सीखने पर ही दो और दो का जोड़ पांच होने लगता है....यही दर्शन है, जो माँ या चाँद से दूरी को नज़रों का धोखा मानता है....अनुभव के कई पायदान चढ़ चुका एक शख़्स मुझ नौसिखिए को एक नया गणित सिखा रहा था...ऐसा भी नहीं कि इस गणित से मैं वाकिफ़ नहीं मग़र जिसने उम्र की सारी पूंजी इसी गणित को समझने-समझाने में लुटा दी, उससे रूबरू होकर जीवन के गणित का ये पाठ मुझे आने वाले कई बरसों तक याद रहेगा....

दसवीं में पढ़ता था जब एक आशुभाषण प्रतियोगिता (मतलब दिये गये विषय पर बिना सोचने का वक़्त मिले बोलना) में मुझे बोलना था…शीर्षक था “मेरी माँ”...मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या कहा जाये....तभी मेरे टीचर जल्दी से आए और दो-चार लाइनें कागज़ पर थमाकर चले गये...खोल कर पढ़ा तो लिखा था-

"बेसन की सोंधी रोटी पर, खट्टी चटनी जैसी मां,
याद आती है चौका-बासन, चिमटा-फुँकनी जैसी मां"

ख़ैर, प्रतियोगिता खत्म हुई, मैं जीत भी गया....वो शेर दिमाग पर चढ़ गया...पता चला कि बहुत बड़े शायर निदा फ़ाज़ली का शेर है...मैंने सोचा कि ये जो भी हैं, मेरे सामने होते तो मैं उन्हें चूम ही लेता....निदा जब सामने थे तो दिमाग में स्कूल के दिन घूमने लगे.... आज भी माँ पर जितना लिखा गया है, मुझे चिमटा-फुँकनी वाली मां से बेहतर कुछ नहीं लगता.....आज जब कवि सम्मेलनों और मुशायरों में कवियों और शायरों की जगह चुटकुला सुनाने वालों ने लेनी शुरू कर दी है, निदा जैसे शायरों का मंच पर होना अब भी कविता की वाचिक परंपरा की आखिरी धरोहर जैसा लगता है...
निदा को ध्यान से सुनते हिन्द-युग्म के शैलेश, निखिल और प्रेमचंद सहजवाला

सच कहूं तो निदा ने हमें ज्यादा बोलने का मौका ही नहीं दिया...उनके पास बोलने को बहुत कुछ था....कोई जब शिद्दत से बोले तो सुनने का भी खूब मन करता है....मैं भी बड़ी इमानदारी से उन्हें सुनता रहा ताकि उनका प्रवाह न टूटे....वो बोलते भी बहुत खनक के साथ हैं....आवाज़ का भारीपन बात में और वज़न डाल रहा था...इतने क़रीब से सुनने का मौका फिर न जाने कब मिले....आपके लिए उनकी आवाज़ भी कैद कर के लाये हैं...शैलेश तकनीकी रूप से उस रिकॉर्डिंग को दुरुस्त कर आप सबको भी सुनाएंगे...जब आप सुनेंगे तो आपको अहसास होगा कि जब एक शायर नींद से जगकर थोड़ी-बहुत उबासी और थकान में भी बोलता है तो भी कितना “ओरिजिनल” बोलता है.....एक बात और, जहां-जहां वो ख़ामोश हुए, वहां-वहां भी उन्हें सुनता रहा क्योंकि आवाज़ उनके चेहरे का परदा है, ऐसा निदा कहते रहे हैं....

---निखिल आनंद गिरि