Friday, November 06, 2009

प्रभाष जोशी- एक प्रकाश-पुंज अस्त हो गया (श्रद्धाँजलि)

श्रद्धांजलि - प्रेमचंद सहजवाला

जीवनवृत्त
प्रभाष जोशी (जन्म- 15 जुलाई 1936, निधन- 05 नवम्बर 2009) हिन्दी पत्रकारिता के एक स्तंभ थे। ये हिंदी दैनिक 'जनसत्ता' के सम्पादक रह चुके हैं और सम्प्रति 'तहलका हिंदी' के लिये लिखते थे।

इंदौर (म॰प्र॰) में जन्मे प्रभाष जोशी ने 'नई दुनिया' के साथ अपने पत्रकारिता-कैरियर की शुरूआत की। नवंबर 1983 में वे जनसत्ता से जुड़े और इस अखबार के संस्थापक संपादक बने। नवंबर 1995 तक वे अखबार के प्रधान संपादक रहे लेकिन उसके बाद से अबतक वे जनसत्ता के सलाहकार संपादक के रूप में जुड़े रहे। उन्होंने अपनी लेखनी से राष्ट्रीयता को लगातार पुष्ट किया। वैचारिक प्रतिबद्धता का जहाँ तक सवाल है तो उन्होंने सत्य को सबसे बड़ा विचार माना. इसलिए वे संघ और वामपंथ पर समय-समय पर प्रहार करते रहे।

प्रभाष जोशी ने जनसत्ता को आम आदमी का अखबार बनाया। उन्होंने उस भाषा में लिखना-लिखवाना शुरू किया जो आम आदमी बोलता है। देखते ही देखते जनसत्ता आम आदमी की भाषा में बोलनेवाला अखबार हो गया. इससे न केवल भाषा समृद्ध हुई बल्कि बोलियों का भाषा के साथ एक सेतु निर्मित हुआ जिससे नये तरह के मुहावरे और अर्थ समाज में प्रचलित हुए।

अब तक उनकी प्रमुख पुस्तकें जो राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई हैं वे हैं- हिन्दू होने का धर्म, मसि कागद और कागद कारे। अभी भी जनसत्ता में हर रविवार उनका कॉलम कागद-कारे छपता था। हाल में ही इन्होंने 'तहलका-हिन्दी' में 'औघट-घाट' नाम से स्तम्भ लिखना शुरू किया था।

ऊषा से प्रभाष जोशी का विवाह हुआ, जिससे इन्हें 2 बेट संदीप और सोपान तथा एक बेटी सोनल हुए। सोपान जोशी पर्यावरण की प्रसिद्ध पत्रिका 'डाऊन-टू-अर्थ' के प्रबंध संपादक हैं।

पुरस्कार एवं सम्मान- हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास में योगदान के लिए साल 2007-08 का शलाका सम्मान।
विकिपीडिया से साभार
आज की सुबह सचमुच मेरे लिए एक दुखद समाचार लाई. दिन बहुत सामान्य तरीक़े से शुरू हुआ कि मोबाइल पर एक सन्देश आया, जिसे पढ़ कर हृदय को बहुत गहरा धक्का पहुंचा. सन्देश सुनीता शानू ने भेजा था - 'प्रभास जोशी जी नहीं रहे. आज का दिन बहुत दुखद है'. मैं इस खबर पर विश्वास करने को तैयार नहीं हूँ, इस लिए दो चार फ़ोन खड़खड़ा देता हूँ, पर सब के सब दोस्त मुझ पर कितना अत्याचार कर रहे हैं, कह रहे हैं 'हाँ, प्रभास जोशी नहीं रहे'!

हिंदी पत्रकारिता के महास्तंभ, 73 वर्षीय प्रभास जोशी जैसे पावन हृदय व्यक्ति बहुत कम मिलेंगे. 'जनसत्ता' समाचार पत्र को अख़बार जगत में चरमोत्कर्ष तक पहुंचाने वाली एक शख्सियत के रूप में मैं उन के नाम से पहले ही परिचित था. पर इस रूप में तो उनका परिचय जग-प्रसिद्ध रहा. इतना जान कर मैंने कौन से तीर मार लिए. पर क्या मैं खुद कभी उनके निकट खड़ा या बैठा भी था? ऐसा सौभाग्य भला मेरा कहाँ? पर हाँ, एक दिन वह शुभ घड़ी भी आ गई, जब दूरदर्शन के NDTV चैनल के स्टूडियो में मैं प्रभास जोशी के बहुत निकट बैठा था. यह पहली बार था कि ज्यों ही वे आए, मुझे उठ कर उनके चरण स्पर्श करने का मौका मिला. NDTV स्टूडियो में शूटिंग थी साप्ताहिक कार्यक्रम 'हम लोग' की, और उस में प्रभास जी व्यस्तता के कारण कुछ देर से आए थे. उन के आते ही मैं उत्तेजित सा था कि जिस महान शख्सियत की पवित्र छवि मैं मन में कई वर्षों से समेटे हूँ, वह महान शख्सियत अब स्टूडियो की इन सीढ़ियों पर मेरे सामने, वहां, केवल तीन चार कदम ही दूर बैठेगी. कितनी बढ़िया जिंदगी है मेरी. मैं ने जब कैमरा की परवाह किये बिना उठ कर उन के चरण स्पर्श किये, तो जो सौम्यता व आर्शीवाद के भाव उन के चेहरे पर आए, उन का वर्णन सचमुच मुश्किल है. मैं एक कहानीकार भी हूँ, सो उस गहराई, विद्वता और बड़प्पन से भरे चेहरे का चरित्र-चित्रांकन करने की चेष्टा करने लगा. कुछ वर्ष सोचता रहा, कि आखिर क्या भिन्न था, अन्य बड़े लोगों में और प्रभास जी में? यह बात जा कर मुझे तब समझ आई, जब इस वर्ष मैं 'हिंदी अकादमी' के एक कार्यक्रम में गया. 'हिंदी अकादमी' ने महात्मा गाँधी की विश्व-प्रसिद्ध पुस्तकों 'हिंद स्वराज' व 'सत्य के प्रयोग' को प्रकाशित कर के 18 अगस्त 2009 को दिल्ली की मुख्य-मंत्री शीला दीक्षित द्वारा उन के लोकार्पण का कार्यक्रम रखा था. दिल्ली के त्रिवेणी सभागार में मैं अपना कैमरा ले कर प्रविष्ट होता हूँ. अभी शीला जी का तो इंतज़ार है, हाल भी अभी आधा भरा है, पर दर्शक-गण में सब से पहली पंक्ति में वो... अपने प्रभास जी ही तो बैठे हैं! मैं तेज़-तेज़ कदम बढ़ाता हुआ वहीं पहुँचता हूँ और एक मौका और, उन के चरण स्पर्श करने का! 'राष्ट्रीय गाँधी संग्रहालय' की निदेशक डॉ. वर्षा दास के साथ बैठे प्रभास जी से मैं कहता हूँ - 'मैं NDTV में आप के साथ ही था'! और वे यह कह कर मुझे चकित कर देते हैं - 'याद आ गया!'. मैं उन्हें कहता हूँ - 'उस दिन NDTV के 'हम लोग' कार्यक्रम में इस बात पर चर्चा थी कि दूरदर्शन ग्लैमर का शिकार होता जा रहा है. केवल अभिनेता, क्रिकेटर और नेता ही दूरदर्शन पर छाए रहते हैं'. प्रभास जी मुस्कराते हैं, बहुत ही आत्मीयता भरी और प्रोत्साहन भरी मुस्कराहट. अपनी साहित्य व पत्रकारिता यात्रा में मैं हर किस्म के लोगों से मिला हूँ. कुछ ऐसे भी, जो एक कहानी छपते ही रातों-रात ओ. हेनरी या तोल्स्तॉय हो जाते हैं और कुछ ऐसे, जैसे प्रभास जी, जो छोटों से बात करें तो लगे, साहित्य से जुडे सभी लोग एक ही परिवार के तो हैं. 'हम लोग' कार्यक्रम में प्रभास जी दूरदर्शन मीडिया को लताड़ रहे हैं. कह रहे हैं- 'देश में कितने लोग भूखों मरते हैं, यह कोई खबर नहीं. पर अभिनेता मंदिरों में घूम रहे हैं, यह बड़ी खबर है'. स्टूडियो में ठहाका बिखेरते हुए प्रभास जी कार्यक्रम संचालक पंकज पचौरी से कह रहे हैं - 'आप के लिए कैटरिना कैफ बड़ी खबर है, पर सूखे में मर रहे लोग खबर नहीं हैं... बस नेता... अभिनेता...खिलाड़ी, इन तीनों के बीच ही तो झूलता है दूरदर्शन'...

प्रेमचंद सहजवाला प्रभास जोशी के साथ
...पहले देश की जनता सुबह होने का इंतज़ार करती थी कि अख़बार आए तो खबरें पढ़ें. दिन आधा बीते तो 'सांध्य टाईम्स' या 'evening news ' आ जाता था. कुछ शौकीन लोग आकाशवाणी पर हर घंटे 'पिप पिप पिप...' की ध्वनि बजते ही अशोक वाजपेयी या देवकी नंदन पांडे की कठोर आवाज़ों में समाचार सुनने बैठ जाते थे. पर जब से 'पल पल की खबर' देने वाले, या 'सब से तेज़' जैसे चैनल आए हैं, देश की सूरत ही बदल गई. खबरें घटती बाद में हैं, अचानक दूरदर्शन पर आ पहले ही जाती हैं शायद, कभी कभी तो मुझे ऐसा ही लगता है. किसी खबर को कई गुना सनसनीखेज़ बनाने की कला में माहिर चैनलों ने देश के आम आदमी को बहुत उत्तेजित सा कर दिया. मुझे एक रोचक प्रसंग याद आ रहा है, जब दिल्ली के गंगाराम हस्पताल के कमरा नं. 214 में प्रियंका गाँधी दाखिल थी और इंतज़ार था उनके वैवाहिक जीवन की पहली ख़ुशी का यानी पहली डिलिवरी का. दूरदर्शन के पत्रकार बेचैन से हस्पताल का कॉरिडोर पर कब्ज़ा किये थे और चैनलों के स्टूडियो से बेताब से समाचार संपादक चिल्ला कर पूछ रहे थे - 'हेलो दिव्या (मालिक लहरी), क्या कोई ताज़ा बुलेटिन आई है'? दिव्या मालिक लहरी बुरी तरह हिलती-डुलती, उत्तेजना में अपना संतुलन बिगाड़ती सी चिल्ला रही हैं 'नहीं आशुतोष, अभी तो डॉक्टर अन्दर किसी को जाने ही नहीं दे रहे'!... एक और चैनल पर एक और समाचार रीडर चिल्ला रहा है - 'प्रियंका गाँधी को क्या लग रहा है, उन्हें बेटा होगा या बेटी'?... मैं चकित हूँ. दूरदर्शन वाले चाहते हैं कि खबर पहले ही घट जाए, अगर नहीं घटेगी तो हम उसे घटवा कर ही दम लेंगे... मैं ने इसीलिए एक व्यंग्य शेर लिखा था:

खबरनवीस वहां पर खबर से पहले गए,
अगर न जाते तो ये वारदात होती क्या!


देशी पत्रकारिता के मज़बूत स्तम्भ
प्रभाष जोशी केवल इस मायने में वरिष्ठ नहीं थे कि वे एक राष्ट्रीय अखबार के संस्थापक, संपादक या वयोवृद्ध पत्रकार थे, बल्कि उन्होंने पत्रकारिता के लिए तय अभिव्यक्ति की आज़ादी और सरोकारों को लगातार विकसित करने का काम किया। और इस मामले में उनकी भूमिका अग्रणी थी। वे अपने कई संपादकीयों और बयानों को लेकर विवादों में भी घिरे और उसे स्वीकारा भी, लेकिन प्रभाष जोशी दरअस्ल पत्रकारीय अस्मिता और कर्तव्य की एक भारतीय परम्परा बनाने और जनसाधारण से उसे जोड़ने का निरंतर प्रयत्न करते रहे। इस प्रक्रिया में अंग्रेजीयत में डूबी बहुराष्ट्रीय आधुनिकता को उन्होंने पर्याप्त रूप से कोसा और इसके ख‌़िलाफ़ लिखते रहे। 'सेज़-विरोध' तथा विस्थापन विरोधी आंदोलनों से उन्होंने अपना एक जीवंत रिश्ता बनाया और यथार्थ को जानने के लिए लगातार जगह-जगह की यात्राएँ करते रहे। इससे ज़ाहीर होता है कि वे महज़ सूचनाओं के आधार पर विचार बनाने और गुरु-गंभीर टिप्पणीकारिता के क़तई ख़िलाफ़ थे। प्रभाष जी पत्रकारिता की जिस मर्यादा और गौरवपूर्ण अतीत के हिस्से थे, उसमें बेशक जातिवादी व्यवस्था और पूँजीवाद के नये गठजोड़ों को समूल ध्वस्त करने की कुबत न रही हो, लेकिन उसके प्रति सच्चा आलोचनात्मक रूख लगातार बना रहा। लोकतांत्रिक संस्थाओं की कार्यपद्धति और भारतीय जनता के साथ उनके संबंधों और कर्तव्यों को लेकर उन्होंने ताउम्र एक सचेतन पत्रकार की भूमिका निभाई। इसीलिए उनमें न केवल व्यक्तिगत ईमानदारी और कबीराना स्वभाव प्रचूर मात्रा में मौज़ूद रहा बल्कि आनेवाले समय में भी आदर्शवादी विचारशील और प्रतिबद्ध पत्रकारों को प्रभावित करने के लिए पर्याप्त चारित्रीक विशेषता रही है। वे अपने लेखन की वज़ह से समकालीन हिन्दी साहित्य और पत्रकारिता के बीच एक जीवंत-सेतु बनाते रहे। भाषा के साथ इनका संबंध और सूचनाओं के प्रति सुचिंता उन्हें लगातार किसी विचार, नीति और कानून को भारतीय जनता की खुशहाली की कसौटी पर कसने को प्रेरित करती थी जो वस्तुतः उन्हें अंतिम आदमी के प्रति जवाबदेही की गाँधी के परिकल्पना के नज़दीक ले जाती रही है। उनके निधन से एक बड़ी और गौरवशाली परम्परा बाधित हो गई है।

-रामजी यादव
पर बात तो प्रभास जोशी की हो रही थी, मैं शायरी क्यों करने लगा! पर बात दरअसल उस संतुलन की है, जो प्रिंट मीडिया में था, पर दूरदर्शन के आते ही वह संतुलन जाता रहा, भले ही प्रिंट मीडिया पर भी खबर को चटपटी बनाने और सनसनीखेज़ बनाने के इल्जाम अक्सर लगते रहे. पर प्रभास जोशी जैसे पत्रकार जिन अख़बारों में रहे वहां नहीं. यह लेख लिखते-लिखते मैंने हिंदी कवियत्री ममता किरण को फ़ोन किया और कहा कि प्रभास जी के बारे में आप क्या कहना चाहेंगी. ममता जी ने कहा कि वे 'जनसत्ता' में प्रभास जी के नियमित कालम 'कागद कारे' को लगातार पढ़ती रही और बेहद प्रभावित थी. उनके अनुसार प्रभास जी चाहे क्रिकेट हो या फिल्म, या राजनीती-जगत, देश के हर विषय पर लिखने में अपना सानी नहीं रखते थे. साथ ही यह कि वे चाहते तो सत्ता के नैकट्य का भरपूर लाभ उठा सकते थे, पर वैसा करना उनकी फितरत का हिस्सा नहीं था. ममता जी का फ़ोन रखा तो आकाशवाणी दिल्ली के निदेशक लक्ष्मीशंकर वाजपेयी ने जो सन्देश भेजा वह इस प्रकार है - 'प्रभास जी ने अनेक बंधी-बंधाई लीकों को तोड़कर हिंदी पत्रकारिता को नई भाषा, नई शैली, नया मुहावरा दिया. वे राष्ट्रीय जीवन में नैतिक मूल्यों के पहरेदार थे. इस नैतिक पतन के युग में उनका जाना नैतिकता की मशाल का बुझना है'. और ठीक उसी समय एक ओर सन्देश आया - 'पत्रकारिता जगत का एक और सितारा डूब गया. मेरी हार्दिक श्रद्धांजलि'...

मैंने जब NDTV के उस कार्यक्रम में यह कहा कि दूरदर्शन चैनल तो अभिनेता को सर चढा देते हैं, अभिनेता संजय दत्त पर कितने भी संगीन इल्ज़ाम हों, पर दूरदर्शन उस की खबर देते समय बड़े प्यार से उसे 'संजू बाबा' या 'मुन्ना भाई' कहते हैं, तब स्टूडियो में तालियों की गड़गडाहट हुई सो अलग, पर जैसे छोटा बच्चा शाबासी के लिए अपनी बात कह कर किसी बड़े की तरफ देखता है, मेरी नज़र भी अपनी बात कहते ही प्रभास जोशी पर टिक गई. जो मुस्कराहट उन के चेहरे पर आई, वह भी मैं कई दिन तक सोचता रहा, कि कैसी थी वह मुस्कराहट?... क्या था उस में? स्टूडियो में बाद में उन्होंने मेरी पीठ भी थपथपाई, और मैंने उनको अपना पूरा परिचय दे डाला (शुक्र कि यह नहीं कहा कि मैं तो हिंदी का मोपांसा या चार्ल्स डिकेंस हूँ). शायद उसी को याद कर के वे यहाँ, त्रिवेणी सभागार में कह रहे थे - 'याद आ गया'. और उनके चेहरे पर मुस्कराहट भरी रेखाओं से मैं समझ गया, वे साहित्यकारों पत्रकारों से मिल कर उन्हें कभी भूलते नहीं. सब को अपना समझते हैं, सो उनकी मुस्कराहट में वह आत्मीयता का मोती, मैं अपनी अदना सी शख्सियत में पिरो कर फूला नहीं समा रहा था. आत्मीयता ऐसी, जैसे वे अभी, मित्रों की तरह बैठ कर मेरे साथ बहुत देर तक गप्पें मारने लगेंगे...

शीला जी आईं तो उनके साथ-साथ प्रभास जी भी मंच तक पहुँच गए और कुछ ही मिनटों में गाँधी की पुस्तकों का विमोचन हो गया. त्रिवेणी सभागार की वह रिपोर्ट मैंने हिन्दयुग्म में ही 'गाँधी की पुस्तकों पर 'हिंदी अकादमी' द्वारा यादगार कार्यक्रम' शीर्षक से 24 अगस्त को दी थी. शीला जी अपना भाषण कर के व्यस्तता के कारण चली गई और मंच पर प्रभास जी छा गए. उन्होंने गाँधी पर अपने विचार जब प्रकट करने शुरू किये तब मेरी कई दिनों की गुत्थी सुलझी कि प्रभास जी को ही मैं एक दो मुलाकातों में अपना इतना करीबी क्यों समझने लगा हूँ. गाँधी मेरी भी स्तुत्य शख्सियत रहे, और प्रभास जी की बातों से लग रहा है, जैसे गाँधी की विरासत को मन में समेटे रखने वाले मुट्ठी भर भारतवासियों में से एक हैं प्रभास जी, जो समझा रहे हैं कि गाँधी जी ने दक्षिण अफ्रीका से लौटते हुए 'हिंद स्वराज' 10 दिन में ही लिख डाली. जब उनका दाहिना हाथ थक गया तब उन्होंने बाएँ हाथ से लिखना शुरू किया. और कि उन्होंने वर्षा दास से कह कर बाएँ हाथ से लिखते हुए गाँधी का एक चित्र भी बनवाया था'...

गाँधी की अहिंसा और सादगी जैसे मूल्यों को आत्मसात करने वाले कितने लोग हैं देश में? पता नहीं. पर एक प्रभास जी तो हैं न, सामने ही, मैं उन्हें व्यक्तिगत रूप से जानने जो लगा हूँ, और इस समय मैं जिन के भाषण का विडियो-क्लिप मैं अपने मोबाइल में रिकॉर्ड करता जा रहा हूँ!...

और फिर गाँधी के सन्दर्भ में ही प्रभास जोशी के दर्शन एक बार फिर हो जाते हैं मुझे. कितनी खुशकिस्मत जिंदगी है मेरी. प्रभास जी तो वो आ रहे हैं... वो रहे... दि. 1 अक्रूबर 2009 को 'राष्ट्रीय गाँधी संग्रहालय' में आने का निमंत्रण मुझे स्वयं वर्षा दास जी ने ही कुछ दिन पहले दिया था और यह भी कहा था कि गाँधी की पुस्तक 'हिंद स्वराज' पर उस दिन प्रभास जी बोलेंगे... बस.. मैं कार्यक्रम के निर्धारित समय से पहले ही पहुँच जाता हूँ. कौन-कौन लोग आ गए हैं, यह ध्यान नहीं, पर इतनी देर की प्रतीक्षा के बाद देखो, प्रभास जी वो तो आ रहे हैं...

...प्रभास जी कह रहे हैं कि गाँधी का स्वराज न तो राजनैतिक स्वराज था, न सामाजिक, न ही वह आर्थिक स्वराज था, वह तो अध्यात्मिक स्वराज था...



...मुझे गर्व हो रहा है कि आज मैं फिर उनके भाषण का वीडियो बना रहा हूँ और घर आते ही उनका भाषण लैपटॉप में उतार कर उसे यूट्यूब में डाल देता हूँ, ताकि जो उनके विचार सुनना चाहें वे सुनें. इस कार्यक्रम की रिपोर्ट भी मैं ने हिन्दयुग्म में 'हिंद स्वराज' के 100 वर्ष और विचार-गोष्ठियों पुस्तक-विमोचनों का गर्मागर्म-सिलसिला' शीर्षक से दि. 10 अक्टूबर को दी थी. हिन्दयुग्म पर प्रभास जी के भाषण की विडियो क्लिप देख कर मैं बहुत प्रसन्न था. इसलिए भी कि वह विडियो क्लिप प्रभास जी का था और इसलिए भी कि प्रभास जी का वह विडियो क्लिप मैंने बनाया था.

मैंने कार्यक्रम के लगभग अंत में उठ कर यह पूछा था कि गाँधी जी तो रेल के भी खिलाफ थे, भला रेल के बिना हम सब कैसे रह सकते हैं... तब तो प्रभास जी ने कहा था कि अब काफी समय हो चुका है, हम लोग बाद में चाय पीते पीते-पीते भी बात कर सकते हैं, पर मैं एक बार फिर उनके चेहरे पर वही सौम्य मुस्कराहट देख अभिभूत था, क्यों कि वे मुस्कराते हुए मुझे ही संबोधित कर रहे थे...

...और चाय के दौरान मुझ से भी अधिक बड़े बड़े जिज्ञासु मुझ से बाज़ी मर ले गए और प्रभास जी को घेर लिया. मैं चाय देने वाले 'गाँधी संग्रहालय' के सेवाधारी से अपनी चाय बटोरता ही रह गया कि लोग वहां पहले ही पहुँच गए. पर मैं चाय समेत उस घेरे के बाहर पहुँच हल्की सी धक्का-मुक्की करते प्रभास जी के पास पहुँच जाता हूँ. प्रभास जी सब की जिज्ञासाओं को दूर करते गाँधी के मूल्यों की शाश्वतता बता रहे हैं, बारीकी से समझा रहे हैं, कि गाँधी जी ने जब-जब जो जो बात कही, तब तब उस का तात्पर्य क्या था. यही वह क्षति थी, जो मुझे लगा कि देश को हुई है, प्रभास जी के अचानक चले जाने के बाद. देश अब न्यूयार्क और शांघाई से बराबरी के रास्ते पर है. आधुनिकता अपने चरम पर है. पैसा भगवान हो गया है. आज का आदमी नंगा हो कर अपनी मूल्यहीनता ओर दिवालियेपन का प्रदर्शन कर रहा है. गाँधी के मानवीय मूल्यों को एक पूंजी की तरह सीने में संभाले दूसरों के बीच बांटने वाला आज सुबह चला गया. एक प्रकाश-पुंज अस्त हो गया... क्या इस से अधिक दुखद कोई खबर हो सकती है? नहीं, प्रभास जी जैसी शख्सियत, अन्यत्र मिलनी असंभव है...

...और इतनी बड़ी हस्ती की आत्मीयता से अब वंचित हो जाने की क्षति तो मेरी व्यक्तिगत क्षति है, शुद्ध व्यक्तिगत...

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)

8 बैठकबाजों का कहना है :

Udan Tashtari का कहना है कि -

दुखद. मेरी विनम्र श्रद्धांजलि.

समयचक्र का कहना है कि -

श्रद्धांजलि...

Shanno Aggarwal का कहना है कि -

इस दुखद समाचार को जानकर मैं भी अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करती हूँ.

Manju Gupta का कहना है कि -

हिंदी साहित्य के यशस्वी साहित्यकार को हमारी हार्दिक श्रद्धांजलि.
उनके व्यक्तित्व की गहन जानकारी मिली .
मंजू गुप्ता वाशी ,नवी मुंबई .

अविनाश वाचस्पति का कहना है कि -

प्रभाष जी ऐसे कैसे जा सकते हैं

वे कहीं गये भी नहीं हैं

देखिए सबके मन में

मानस में विराजमान हैं

अपनी संपूर्ण वैचारिक उज्‍ज्‍वलता के साथ।

विनम्र श्रद्धांजलि।

सुनीता शानू का कहना है कि -

सहजवाला जी, प्रभाष जी का जाना मेरे लिये सचमुच दुखद रहा। मन में कितनी ही बाते कितने ही सवाल थे जो मुझे उनसे करने थे। हम उन्हे आदर से बाबा कहते हैं। हाँ हमेशा कहेंगे बाबा आप नही जा सकते। सदैव आपका आशीर्वाद हम पर बना रहेगा।

Unknown का कहना है कि -

meri vinamra shradhanjali..
sahajwalaji ne apna anubhav bade hi sahaj roop se likha hai. sachmuch prabhash ji itne hi sahaj vyakti thae.

mamta kiran

दिपाली "आब" का कहना है कि -

kabhi kabhi, jo log dil ke kareeb hote hain, unke jaane se jeewan mein ek khalish reh jaati hai, jo aksar tees bandar utha karti hai dil mein...
par unka pyaar humse kabhi door nahi hota.

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)