यह देख कर अफसोस होता है कि केरल में तो मुसलमानों का राजनीतिक संगठन है, पर अन्य राज्यों में नहीं। चुनावों के दौरान हमेशा यह सवाल उठता है कि मुसलमान किधर जाएंगे। सबका अपना-अपना अनुमान होता है और अपने-अपने तर्क। खुद मुसलमान नहीं बोलते कि वे किस दल का साथ देंगे और क्यों। अपना संगठन होने का एक और फायदा यह है कि वे विभिन्न दलों से मुसलमानों के हित में मोलभाव भी कर सकते हैं। मोलभाव में कोई बुराई नहीं है, क्योंकि लोकतंत्र में तरह-तरह के दबाव समूह काम करते ही हैं। यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है।
केरल में मुस्लिम लीग है। वह आम तौर पर वाम मोर्चे के साथ होती है। केरल में मुस्लिम लीग के बने रहने तथा राजनीतिक सफलता प्राप्त करने के दो मुख्य कारण हैं। एक कारण यह है कि वहाँ कई चुनाव क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ मुसलमान बहुमत में हैं या स्थनीय आबादी का बड़ा हिस्सा हैं। दूसरे, वाम मोर्चे का अंग होने के कारण वामपंथी दल यह खयाल रखते हैं कि मुस्लिम लीग कुछ सीटों पर विजय हासिल करे। एक तीसरा कारण यह भी है कि इस प्रगतिशील राज्य में मुस्लिम तबके के प्रति कोई असामान्य दृष्टिकोण दिखाई नहीं देता। जैसे ईसाई समाज का सामान्य और स्वीकृत अंग हैं, वैसे ही मुसलमान भी। किसी भी अच्छे समाज में ऐसा ही होना चाहिए।
उत्तर भारत में ऐसा नहीं है। सच तो यह है कि इसी क्षेत्र में मुसलमानों की सबसे ज्यादा सांसत है। वे न केवल अपेक्षया गरीब और कम पढ़े-लिखे हैं, बल्कि सामाजिक स्तर पर उन्हें भेदभाव का शिकार होना पड़ता है। सबसे बड़ी बात यह है कि उनका कोई राजनीतिक संगठन नहीं है। भाजपा को छोड़ कर सभी दल उन्हें अपनी ओर खींचने तथा उनका प्रतिनिधित्व करने का दावा करते हैं। लेकिन इससे उनकी किसी भी समस्या का समाधान नहीं होता। हाँ, यह जरूर होता है कुछ मुसलमान नेता मंत्री बन जाते हैं। जाहिर है, वे मंत्री पद अपने लिए ग्रहण करते हैं, न कि आम मुसलमानों के हित में।
राजनीतिक संगठन से कितना फर्क पड़ता है, यह बहुमत समाज पार्टी बनने के बाद दलितों में आए स्वाभिमान के उदाहरण से देखा जा सकता था। पहले उत्तर प्रदेश में दलितों की हालत बहुत खराब थी। अकसर उनके साथ सरकारी और गैरसरकारी हिंसा की जाती थी। समाज ही नहीं, प्रशासन भी उनका दमन और शोषण करता था। पर अब ऐसी स्थिति नहीं है। जाहिर है, अपना राजनीतिक संगठन हो, तो मुसलमानों की हालत में भी सुधार हो सकता है।
ऐसा क्यों नहीं हो पाता? इसका प्रमुख कारण यह है कि उत्तर प्रदेश और बिहार में कोई चुनाव क्षेत्र ऐसा नहीं है जहाँ से कोई उम्मीदवार सिर्फ मुसलमान मतदाताओं के भरोसे जीत सके। कुछ चुनाव क्षेत्रों में मुसलमान मतदाताओं का असर जरूर है, पर यह असर किसी मुसलमान उम्मीदवार को तभी जीता सकता है जब उसे अन्य समुदायों का भी समर्थन मिले। यह कोई कठिन बात नहीं है, बशर्ते मुसलमानों का जो राजनीतिक संगठन बने, वह अन्य समुदायों को अपना दुश्मन मान कर न चले। जब अन्य अनेक राजनीतिक संगठन मुसलमान को अपना दुश्मन या विरोधी मान कर नहीं चलते, तो मुस्लिम संगठन ऐसा क्यों नहीं कर सकते?
कायदे से तो जाति और धर्म के आधार पर कोई राजनीतिक संगठन नहीं बनना चाहिए। राजनीति का आदर्श रूप सर्व जनता की सेवा है। कोई भी सच्चा राजनीतिक संगठन यह दावा नहीं कर सकता कि वह किसी खास समुदाय के लोगों की सेवा करेगा, किसी अन्य समुदाय का नहीं। संत की तरह राजनेता का दरवाजा भी सभी समाजों और समूहों के लिए खुला रहना चाहिए। दुर्भाग्यवश ऐसा हो नहीं पाता। जाति और धर्म राजनीतिक संरचना में बुरी तरह हावी हो गए हैं। इसी को वोट बैंक की राजनीति कहा जाता है। प्रत्येक दल को किसी खास समुदाय या समुदायों का समुच्चय माना जाता है। इसका अर्थ यह है कि कोई भी राजनीतिक दल पूरे समाज का प्रतिनिधित्व नहीं करता, न करना चाहता है। इस स्थिति की मांग है कि मुस्लिम समाज के हितों की रक्षा के लिए एक या दो ऐसे राजनीतिक संगठन होने चाहिए जो मुसलमानों का सच्चा प्रतिनिधित्व कर सकें। जब पंजाब में अकाली दल हो सकता है, तो उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल में मुसलमानों का अपना दल क्यों नहीं हो सकता? यह प्रवृत्ति तभी समाप्त होगी जब राजनीति में जाति और धर्म का स्वर कम होता जाए और सभी राजनीतिक दल समाज के सामान्य हितों का संवर्धन करने के लिए प्रतिबद्ध हों। लेकिन हमारे भाग्य ऐसे कहां? अभी तो राजनीतिक और सामाजिक विखंडन का समय है।
चूंकि मुसलमानों का कोई दल अपने बल पर चुनाव नहीं जीत सकता, क्या इसलिए उनका राजनीतिक संगठन नहीं बनाया जा सकता? यह एक संकीर्ण दृष्टिकोण है। ऐसा संगठन अन्य दलों से तालमेल कर अपने लिए कुछ सीटों की व्यवस्था कर सकता है। इस तरह विधान सभा और लोक सभा में मु्स्लिम प्रतिनिधित्व बढ़ सकता है। लेकिन किसी भी मुस्लिम दल की सामाजिक भूमिका ज्यादा विस्तृत होगी। वैसे जरूरत तो यह भी है कि अन्य दल भी समाज सुधार की भूमिका निभाएं, पर मुस्लिम संगठनों के लिए यह और भी आवश्यक है। दुर्भाग्य से मुस्लिम समाज का मार्गदर्शन करने के लिए सिर्फ उनके धार्मिक संगठन ही हैं और उनमें से किसी की भी भूमिका आधुनिक या प्रगतिशील नहीं है।
मुस्लिम समाज का हित इसी में है कि वह अपने अहितकर रीति-रिवाजों से बाहर निकले। यह काम उनके राजनीतिक संगठन बखूबी कर सकते हैं। स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान कांग्रेस, कम्युनिस्ट पार्टी और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी यह काम किया करती थी। मुस्लिम लीग ने इस तरह के कामों की ओर ध्यान नहीं दिया। मिस्टर जिन्ना खुद आधुनिक थे, पर उन्होंने अपने अनुयायियों को आधुनिक बनाने की कोशिश नहीं की। उसका नतीजा आज का पाकिस्तान है। वहां कट्टरवाद ने लोगों का जीना हराम कर रखा है। आतंकवाद का जन्म भी उसी के पेट से हुआ है। हिन्दुस्तान का मुसलमान अपेक्षया ज्यादा लोकतांत्रिक है। पर उसका पारिवारिक और सामाजिक जीवन कई दृष्टियों से बाधित बना हुआ है। मुंबई के बम कांड के बाद मुस्लिम बुद्धिजीवियों में चेतना और उत्साह की लहर आई थी। पर वह जल्दी ही ठंडी पड़ गई। इसी के साथ भारत का मुसलमान बेआवाज भी हुआ है। यह जड़ता जल्द से जल्द टूटनी चाहिए। इसमें मुस्लिम समाज के साथ-साथ भारतीय समाज का भी हित है।
---राजकिशोर
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12 बैठकबाजों का कहना है :
हम तब तक प्रगति नहीं कर सकते जबतक धर्म को घर के अन्दर और भारतीयता को saamne नहीं रखेंगे
आपको हिन्दु आवाज मुसलिम आवाज दलित आवाज, महिला आवाज की जरूरत क्या है। एसे ही अधकचरे विचारों नें लोकतंत्र का सत्यानाश किया हुआ है। माफ कीजियेगा लेखक भाई आपके सेक्युलरिजम को अगर ठेस पहुँची हो।
मतलब आप मान्ते हैं कि मुस्लिम लीग होनी चाहिये.. फिर जब हिन्दू अपने हित की बात करेंगे तब तो आपको कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिये?
मुझे हिन्दू और मुसलमान होने का मतलब जानना है? बतायेंगे आप?
मुसलमानों को स्वयं आगे अगर कहना होगा कि वे भी अन्य नागरिकों की तरह भारतीय पहले हैं और मजहब व्यक्तिगत विश्वास का मुद्दा है...यह भी कि वे सब धर्मों को अच्छा मानते हैं. उन्हें किसी भी धर्म के अनुयायी को मुस्लमान बनाने को सबाब मानना छोड़ना होगा. हर धर्म अच्छा है, जिसका जिस धर्म में विश्वास हो उसे माने. अच्छा नागरिक, अच्छा इन्सान बने. जब चंद बुरे मुस्लमान आतंक फैलाएं, बहुसंख्यक हिन्दुओं को कश्मीर से आतंक की दम पर निकालें और अच्छे मुस्लमान चुप रहें तो वे सवालों के घेरे में आयेंगे ही.
इस्लाम के जन्म के बाद से ही मुसलमान कभी चुप बहीं बैठा। शुरू में तलवार और आगजनी उसकी आवाज बनी; उसके बाद बारूद और अब एके-४७ और रॉकेट लौंचर आदि।
किसी महापुरुष ने बहुत ही सटीक कहा है -
'मुस्लिम्स् आर अ टर्बुलेंट माइनॉरिटी एण्ड ऐन् इनटॉलरैन्ट मेजॉरिटी.'
जैन लीग, पारसी लीग, बौद्ध लीग भी बनाएं क्या?
मुसलमानों की अवदशा के लिए वे खूद जिम्मेदार है. जब तक हर बात के लिए मजहब का मूँह ताकेंगे...इनका कल्याण नहीं होने वाला....कुछ भी कर लो. आरक्षण दे दो मुस्लिम लीग बना लो...हिन्दुओं को कोस लो.
ना तो आपकी सोच से सहमत हूँ ना ही अन्य तथ्य से जो आप बता रहें हैं |
बहुत से सारे सक्रीय और लोकप्रिय मुस्लिम दल हैं | जाती के आधार पर दल बनाने का ज़माना गया |
इसलिए कोई नया उपाय होना चाहिए |
जैसे - देश में कम से कम राजनितीक दल हो जिससे बहुत वाले समस्या का निराकरण हो जाए |
राजनैतिक दल के सदस्यों की योग्यता का मापदंड आदि आदि...
बहुत बातें है सोचने के लिए लेकिन कुछ नहीं होगा जनता स्वार्थ के दलदल से नहीं निकल पा रही है :(
अवनीश तिवारी
hmesha ki tarah ektrafa lekh..
rajkishor ke lekh se prabhavit hun. par comment denevale kai log ye nahin chahte ki hamaara desh ek rahe, vo to apne Hindutva ko samne late hai to bhai unse kaho ki jao jakar Hindu rashtra Nepal ka hal dekho aur usse sabak lo.
bahut badhaai,ye lekh ke badal
Musalmano ko apne liye khud b aage ana hoga. meri yehi vinti hai k muslimano please be united, nobody can harm us because u r the greatest people in the world lekin apne apko pehchano or apni holy book QURAN MAJEED or HADITH SHAREEF KO MEANING K SATH PARRHO taake us maqsad ko pahonch jaao jiske ke liye tumare PIYARE RAB NE TUMHE IS DUNIYA ME BHEJA HAI. ALLAh NIGEHBAAN
मुस्लमानों को हक से रहने के लिए आदाजी मिलनी चाहिए ताकि वह भी भारत में सिर उठाकर रहे और अपनी हक के विरूद्व आवाद उठा सके ताकि उसे लगे कि हम लोग भी इस संसार में अपने लोगों में जी रहे हैा
अभी मुस्लिमो की अपनी पार्टी बने फिर अलग कानून ओर फिर एक अलग ओर देश , यही चाहते है ना आप !! मुस्लिमो का क्या किसी ने रोका है विध्ह्यालो मे जाने ओर परिवार नियोजन अपनाने की लिये , पढाई भी मदरसों मे करेगे ओर जनसंख्या भी बढायेगे , कोई समान कानून की बात करे तो को को मुसलमानों के खिलाफ है , धर्म देश से पहले , समस्या उन की खुद की बनाई हुई है समाधान भी उन को ही तलाश करना है , पारसी - बोध - जैन - सिखों की संख्या मुस्लिमो से कम है क्या इन को भी अपनी अलग अलग पार्टी बनानी पडेगी
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