Monday, March 30, 2009

....सबको ये फिक्र है कि सरदार कौन हो ??

कहा जाता है कि वह राजनेता उतना ही बड़ा होता है जो जितना बड़ा ख्वाब देखता है। जवाहरलाल नेहरू से ले कर राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण तक की पीढ़ी ख्वाब देखते-देखते गुजर गई। पता नहीं इनमें कौन कितना बड़ा राजनेता था। जब कोई नेता अपने जीवन काल में अपना ख्वाब पूरा नहीं कर पाता, तो उसका कर्तव्य होता है कि वह उस ख्वाब को अगली पीढ़ी में ट्रांसफर कर दे। इनमें सबसे ज्यादा सफल नेहरू ही हुए। लोहिया और जयप्रकाश के उत्तराधिकारी लुंपेन बन गए। कुछ का कहना है कि वे शुरू से ही ऐसे थे, पर अपने को साबित करने का पूरा मौका उन्हें बाद में मिला। पर नेहरू का ख्वाब आज भी देश पर राज कर रहा है। नेहरू ने आधुनिक भारत का निर्माण किया था। हम आधुनिकतम भारत का निर्माण कर रहे हैं। सुनते हैं, इस बार के चुनाव का प्रमुख मुद्दा है, विकास। नेहरू का मुद्दा भी यही था। इसी मुद्दे पर चलते-चलते कांग्रेस के घुटने टूट गए। अब फिर वह दौड़ लगाने को तैयार है।

इस देश के सबसे बड़े और संगठित ख्वाब देखनेवाले कम्युनिस्ट थे। उनका ख्वाब एक अंतरराष्ट्रीय ख्वाब से जुड़ा हुआ था। इसलिए वह वास्तव में जितना बड़ा था, देखने में उससे काफी बड़ा लगता था। यह ख्वाब कई देशों में यथार्थ बन चुका था, इसलिए इसकी काफी इज्जत थी। लेकिन जब तेलंगाना में असली आजादी के लिए संघर्ष शुरू हुआ, तो नेहरू के ख्वाब ने उसे कुचल दिया। तब का दर्द आज तक कम्युनिस्ट ख्वाब को दबोचे हुए है। किताब में कुछ लिख रखा है, पर मुंह से निकलता कुछ और है। कम्युनिस्टों के दो बड़े नेता -- एक प. बंगाल में और दूसरा केरल में -- एक नया ख्वाब देख रहे हैं। समानता के ख्वाब को परे हटा कर वे संपन्नता का ख्वाब देखने में लगे हुए हैं। ईश्वर उनकी सहायता करे, क्योंकि जनता का सहयोग उन्हें नहीं मिल पा रहा है।

बाबा साहब अंबेडकर ने भी एक ख्वाब देखा था। यह ख्वाब अभी भी फैशन में है। पर सिर्फ बुद्धिजीवियों में। राजनीति में इस ख्वाब ने एक ऐसी जिद्दी महिला को जन्म दिया है जिसका अपना ख्वाब कुछ और है। वे अंबेडकर की मूर्तियां लगवाती हैं, गांवों के साथ उनका नाम जोड़ देती हैं, उनके नाम पर तरह-तरह के आयोजन करती रहती हैं। पर उन्होंने कसम खाई हुई है कि आंबेडकर वास्तव में क्या चाहते थे, यह पता लगाने की कोशिश कभी नहीं करेंगे। इसके लिए अंबेडकर साहित्य पढ़ना होगा और आजकल किस नेता के पास साहित्य पढ़ने का समय है? फिर इस जिद्दी महिला का ख्वाब क्या है? इस बारे में क्या लिखना! बच्चों से ले कर बड़ों तक सभी जानते हैं। सबसे ज्यादा वे जानते हैं जो तीसरा मोर्चा नाम का चिड़ियाघर बनाने की कोशिश में लगे हुए हैं।

हिन्दू राष्ट्र के दावेदारों ने भी एक ख्वाब देखा था। उनका ख्वाब काफी पुराना है। जब बाकी लोग आजादी के लिए लड़ रहे थे, तब वे एक छोटा-सा घर बना कर अपने ख्वाब के भ्रूण का पालन-पोषण कर रहे थे। उनकी रुचि स्वतंत्र भारत में नहीं, हिन्दू भारत में थी। वैसे ही जैसे लीगियों की दिलचस्पी आजाद हिन्दुस्तान में नहीं, मुस्लिम पाकिस्तान में थी। लीगियों को कटा-फटा ही सही, अपना पाकिस्तान मिल गया, पर संघियों को इतिहास ने ठेंगा दिखा दिया। तब से वे स्वतंत्र भारत के संविधान को ठेंगा दिखाने में लगे हुए हैं। लीगियों ने आजादी के पहले खून बहाया था, संघियों ने आजादी के बाद खून बहाया। शुरू में उन्हें विशेष सफलता नहीं मिली। वे सिर्फ अपना विचार फैला सके। बाद में जब भारतवाद कमजोर पड़ने लगा, तब हिन्दूवाद के खूनी पंजे भगवा दस्तानों से निकल आए। कोई-कोई अब भी दस्तानों का इस्तेमाल करते हैं,पर उनके भीतर छिपे हाथों का रंग दूर से ही दिखाई देता है।

अब कोई बड़ा ख्वाब देखने का समय नहीं रहा। कुछ विद्वानों का कहना है कि महास्वप्नों का युग विदा हुआ, यह लघु आख्यानों का समय है। भारत में इस समय लघु आख्यान का एक ही मतलब है, प्रधानमंत्री का पद। मंत्री तो गधे भी बन जाते हैं, घोड़े प्रधानमंत्री पद के लिए दौड़ लगाते हैं। अभी तक हम इस पद के लिए दो ही गंभीर उम्मीदवारों को जानते थे। अब महाराष्ट्र से, बिहार से, उड़ीसा से, उत्तर प्रदेश से -- जिधर देखो, उधर से उम्मीदवार उचक-उचक कर सामने आने लगे हैं। यह देख कर मुझे लालकृष्ण आडवाणी से बहुत सहानुभूति होने लगी है। बेचारे कब से नई धोती और नया कुरता ड्राइंग रूम में सजा कर बैठे हुए हैं। इस बार तो उनके इस्तेमाल का मौका नजदीक आते दिखाई नहीं देता। बल्कि रोज एकाध किलोमीटर दूर चला जाता है। चूंकि मैं सभी का और इस नाते उनका भी शुभचिंतक हूं, इसलिए आडवाणी को प्रधानमंत्री बनने का आसान नुस्खा बता देना चाहता हूं। इसके लिए सिर्फ दो शब्द काफी हैं -- पीछे मुड़ (अबाउट टर्न)। सर, संप्रदायवाद, हिन्दू राष्ट्र वगैरह खोटे सिक्कों को सबसे नजदीक के नाले में फेंक दीजिए। आम जनता की भलाई की राजनीति कीजिए। अगली बार आपको प्रधानमंत्री बनने से कोई रोक नहीं सकेगा।

राजकिशोर
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं...)

Sunday, March 29, 2009

महंगाई दर घटी लेकिन तेज़ी वहीं की वहीं

सरकार महंगाई दर कम होने पर अपनी पीठ ठोक रही है कि 14 मार्च को समाप्त हुए सप्ताह के दौरान यह घट कर 0.27 प्रतिशत पर आ गई है। यह महंगाई की दर में वृद्वि का पिछले 30 वर्षों का सबसे नीचा स्तर है। सरकार के लिए संतोष की बात है भी क्योंकि गत वर्ष इसी अवधि में यह 8.02 प्रतिशत थी। यही नहीं गत वर्ष अगस्त में यह दर 13 प्रतिशत का आकंड़ा छू गई थी। उस समय पूरा मीडिया महंगाई को लेकर सरकार के पीछे पड़ गया था। इसे देखते हुए सरकार के लिए यह राहत की बात है। यही नहीं आगामी आम चुनाव को देखते हुए भी सरकार प्रसन्न है कि चलो महंगाई की दर पर काबू तो पाया।
महंगाई की गिरती दर को देखते हुए अनेक अर्थशास्त्री देश में मुद्रा स्फीति की बजाए अपस्फीति की आशंका जताने लगे हैं।

विरोधाभास
वास्तव में सरकार के बयानों में ही विरोधाभास है। थोक मूल्य सूचकांक उद्योग व वाणिज्य मंत्रालय द्वारा किया जाता है। इसके आधार पर यह कहा जा रहा है कि देश में महंगाई की दर कम हो रही है और आगामी सप्ताहों में यह शून्य पर आ जाएगी या निगेटिव हो जाएगी।
लेकिन वित्त मंत्रालय के आर्थिक सलाहकार स्वयं यह मान रहे हैं कि महंगाई कम नहीं हुई है। उनका कहना है कि महंगाई की दर थोक मूल्य सूचकांक के आधार पर निकाली जाती है। यह ठीक है कि थोक मूल्य सूचकांक में लगातार कमी आ रही है लेकिन उपभोक्ता मूल्य सूचकांक की वृद्वि दर तो अब भी 10 प्रतिशत के आसपास घूम रही है।

उपभोक्ता हैरान
बरहहाल, इन सब से आम उपभोक्ता हतप्रभ है। वह महंगाई की दर 13 प्रतिशत के आसपास पहुंचने के बाद परेशान तो था लेकिन अब गिर कर 0.27 प्रतिशत आ जाने पर प्रसन्न नहीं लेकिन हैरान अवश्य है कि यह क्या हो रहा है? उसका बजट तो वहीं का वहीं है या बढ़ रहा है, फिर महंगाई कैसे कम हो रही है।

क्या है सूचकांक
थोक मूल्य सूचकांक में लगभग एक हजार विभिन्न वस्तुओं का समावेश है। दिलचस्प बात यह है कि सूचकांक की लगभग 78 प्रतिशत वस्तुएं वे हैं जिनकी रोजमर्रा की जिंदगी में आम आदमी को आवश्यकता ही नहीं होती है। इनमें विभिन्न रसायन, धातुएं, विभिन्न प्रकार के ईंधन, ग्रीस, रंग-रोगन, सीमेंट, स्टील, मशीनरी व मशीन टूल, पुस्तकों व समाचार पत्रों की प्रिन्टिग, पल्प, कागज आदि अनेक वस्तुएं इस सूची में शामिल हैं। शेष 22 प्रतिशत में वे वस्तुएं हैं जिनकी रोज आवश्यकता होती है।

आंकड़ों की सच्चाई
आम उपभोग की अनेक वस्तुओं के भाव दिल्ली बाजार में गत वर्ष की तुलना में ऊंचे चल रहे हैं। गत वर्ष दिल्ली बाजार में चीनी के एक्स मिल भाव 1600 रुपए के आसपास चल रहे थे जो अब लगभग 2200 रुपए (थोक में 25 रुपए किलो) चल रहे हैं। गुड़ के भाव तो इससे भी आगे हैं। गेहूं दड़ा क्वालिटी के थोक भाव 1125/1130 रुपए से बढ़ कर 1160/1165 रुपए हो गए हैं। मूंग के भाव गत वर्ष 2200/2650 रुपए थे जो अब 3500/4000 रुपए हो गए हैं। रंगून की अरहर गत वर्ष 2575/2600 रुपए थी जो अब 3500 रुपए पार कर गई है। रंगून की उड़द भी 2375/2400 रुपए से बढ़ कर 2800 रुपए के आसपास हो गई है। चने के भाव गत वर्ष की तुलना में अवश्य कम हैं। मसालों के भाव भी गत वर्ष की तुलना में काफी तेज हैं लेकिन खाद्य तेलों के भाव नीचे चल रहे हैं।

सरकारी आंकड़े
यदि सरकारी आंकड़ों को देखें तो भी यह स्पष्ट है कि खाद्य वस्तुओं का थोक मूल्य सूचकांक बढ़ा है। इस वर्ष 14 मार्च को समाप्त हुए सप्ताह के दौरान दलहनों का थोक मूल्य सूचकांक 269.1 था जो गत वर्ष 15 मार्च को 244.7 था। अनाजों का सूचकांक आलोच्य अवधि में 219.4 से बढ़ कर 241.6 पर पहुंच गया है। सब्जियों व फलों का सूचकांक 234.8 से बढ़ कर 247.6 हो गया है। दूध का सूचकांक 220.3 से बढ़ कर 233.7 हो गया है। इसी प्रकार मसालों, खांडसार, गुड़ व चीनी तथा अन्य खाद्य उत्पादों का थोक मूल्य सूचकांक बढ़ा है लेकिन अन्य व गैर खाद्य वस्तुओं के थोक मूल्य सूचकांक में कमी के कारण महंगाई की दर में बढ़ोतरी कम हो गई है।
यहां यह जानना भी आवश्यक है कि महंगाई की दर में बढ़ोतरी की गति कम हुई लेकिन वह घट नहीं रही है।

--राजेश शर्मा

Saturday, March 28, 2009

सोने का पिंजर (10)

दसवां अध्याय

अमेरिका के कुत्ते बच्चों से ज़्यादा प्यार पाते हैं....

अमेरिका में रेस्ट्राज की भरमार आपको मिलेगी, सभी तरह के खाने आपको मिल जाएँगे। एक लाइन से रेस्ट्रा है, थाई, मलेशियायी, चीनी, इण्डियन, वियतनामी आदि आदि। लेकिन भारतीय स्वाद का जवाब नहीं। किसी भी भारतीय रेस्ट्रा में चले जाइए आपको ढेर सारे अमेरिकी मिल जाएँगे। समोसा और नान सबसे अधिक पसंदीदा खाद्य पदार्थ हैं। वहाँ ऐसा कुछ नहीं है जो नहीं मिलता, लेकिन स्वाद और साइज़ में बहुत अंतर। भारतीयों के लिए सबसे मुश्किल है रोटी। बाजार में बनी-बनाई भी खूब मिलती है लेकिन अपने यहाँ की मालपुए-सी रोटी वहाँ नसीब नहीं होती। आप ठीक सोच रहे हैं कि घर पर क्यों नहीं बना लेते? घर पर सभी बनाते हैं रोटी, लेकिन आटे में स्वाद हो तब तो बने अपने जैसी रोटी। एक घटना याद आ गई, उदयपुर के बहुत बड़े उद्योगपति का समाचार था कि वे जब भी यूरोप जाते हैं, अपने साथ आटा लेकर जाते हैं। एक बार कस्टम वालों ने पकड़ लिया और काफी कठिनाई का उन्हें सामना करना पड़ा। तब मन में प्रश्न आया था कि आटा जैसी चीज वे क्यों ले जाते हैं? फिर सोचा था कि शायद वहाँ भी बाजार में मैदे का आटा ही मिलता होगा। एक बात और मन में आयी कि भई बड़े लोग हैं, तो उनके चोंचले भी बड़े ही होंगे। ये पता नहीं था कि वहाँ अपने जैसा आटा नहीं मिलता। पहले दिन घर में रोटी खायी, स्वाद ही नहीं आया। तो बेटे से कहा कि आटा कुछ अजीब है, उसने उसे बदल दिया और बाजार से दूसरा ले आया। अब भी वही स्थिति। फिर हमने जुबान पर ताला लगा लिया। एक-दो जगह गए और धीरे से आटे के बारे में पूछ लिया तो मालूम पड़ा कि यह तो सभी की परेशानी का सबब है। फिर लगा कि उन उद्योगपति का चोंचला सही था। कृषि क्षेत्र में बहुत प्रयोग किए हैं अमेरिका ने। शायद ऐसा ही कोई प्रयोग गैंहू में किया हो, क्योंकि उन्हें रोटी का स्वाद पता नहीं, वे तो ब्रेड खाते हैं। अतः जो ब्रेड में अच्छा स्वाद दे, वैसा ही गैंहू बना दो, शायद।
सेब और आडू को मिलाकर कई फल तैयार हो गए, ऐसे ही अनेक संकर फल आपको वहाँ मिल जाएंगे। किसी में स्वाद है और किसी में नहीं। अब जब संकर प्रजातियों की बात ही आ गयी है तो एक और मजे़दार मानसिकता वहाँ दिखायी दी। कुत्तों को लेकर वे बहुत प्रयोगवादी हैं। कॉलोनी में अक्सर प्रत्येक व्यक्ति सुबह-शाम कुत्ते घुमाता हुआ दिखायी दे जाएगा। एक-एक व्यक्ति के पास तीन-तीन कुत्ते। मजेदार बात यह है कि सारे ही कुत्ते एक दूसरे से अलग। स्ट्रीट डॉग वहाँ नहीं हैं, लेकिन घरों में कुत्तों और बिल्लियों की भरमार है। बाज़ार में उनके लिए बड़े-बड़े मॉल है, जहाँ उनका खाना से लेकर बिस्तर तक उपलब्ध हैं। उनके सेलून भी हैं और अस्पताल भी।
कुछ घरों में तो केवल कुत्ते-बिल्ली ही हैं, बच्चे नहीं। वहाँ व्यक्ति पहले कुत्ता पालता है और उसके बाद उसके पास आर्थिक सामर्थ्‍य होता है तब बच्चे पैदा करता है। शायद सुरक्षित सुख इसी में है। जिम्मेदारी रहित सुख। किसी को दो दिन के लिए बाहर जाना है तो पड़ौस में कुत्ते को बाँध गए या फिर अपने परिचित से कह दिया कि ध्यान रख लेना। बच्चे के साथ तो ऐसा नहीं कर सकते न? कुत्ता दूसरे पर भौंकता है जबकि बच्चा अपनों पर। भौंकने की बात पर ध्यान आया कि हमारे यहाँ जब भाग्य से कभी-कभार रात को कुछ शोरगुल थमता है तब कुत्तों के भौंकने की आवाजे आप बड़े मनोयोग पूर्वक सुन सकते हैं। ये आवाज़ें जरूरी नहीं कि गली के कुत्तों की हो, वे पालतू कुत्तों की भी होती है। वैसे अमेरिका में लोग इतने प्यार से कुत्ते पालते हैं कि मुझे यहाँ उनके लिए कुत्ते शब्द का प्रयोग खल रहा है। तो वहाँ कुत्ते भी भौंकते नहीं है और दूसरे को देखकर झपटते नहीं हैं। यहाँ तो गोद मे चढ़ा पिल्ला भी दूसरे को देखकर गुर्रा लेता है और फिर मालिक उसे प्यार से थपथपाता है और चुप कराता है तब वह शान से अपनी अदा बिखेरता हुआ कूं-कूं कर देता है। मालिक की गर्दन भी गर्व से तन जाती है, कि देखो मेरा पिल्ला भी कैसा जागरूक है? लेकिन वहाँ ऐसा कुछ नहीं था, लोग चुपचाप अपने कुत्तों को घुमाते रहते हैं, आप पास से निकल जाएं कुत्ता कोई हरकत नहीं करता। जहाँ के कुत्ते तक इतने शान्त हो, वहाँ के व्यक्ति का क्या कहना? तभी तो वे एशियन्स को देखते ही घबरा जाते हैं, आ गए आतंकवादी। पाकिस्तान और हिन्दुस्तान का बहुत अन्तर नहीं है वहाँ, उनके लिए सब ही लड़ाका हैं।
एक मजे़दार किस्सा है, किस्सा क्या है सत्य घटना है। पोता अभी पाँच महिने का ही था, घुटनों के बल चलता था। बेटे का एक अमेरिकन दोस्त है-मार्टिन, उसने एक बिल्ली पाल रखी थी। एक दिन बेटा मार्टिन से मिलने गया, साथ में अपने नन्हें से बेटे को भी ले गया। मन में डर भी था कि कहीं बिल्ली से बच्चा डर नहीं जाए। घर पहुँचकर पोता खेलने लगा और दोनों दोस्त बातों में रम गए। कुछ देर बाद रोने की आवाज सुनाई दी, तब बेटे को होश आया। अरे कहीं चुन्नू को तो बिल्ली ने नहीं मारा है? लेकिन यह क्या बिल्ली एक कोने में दुबकी हुई चुन्नू को देखकर रो रही थी। हमारे यहाँ बिल्ली घाट-घाट का पानी पीती है, घर-घर जाकर दूध साफ करती है। लेकिन वहाँ घर में बंद रहती है। सुबह-शाम मालिक घुमाने ले जाता है, तब कोई भी सड़क पर घुटने चलता बच्चा नजर नहीं आता। बेचारी बिल्ली ने कभी बच्चों को घुटने चलते देखा ही नहीं तो उसने समझा कि कौन सा जानवर आ गया है, इतना बड़ा?
भारत की भूमि पर घर-घर में कृष्ण के बाल रूप के दर्शन हो जाते हैं। सुबह उन्हें नहलाया जाता है, भोग लगता है, झाँकी होती है और सारा दिन कहाँ बीत जाता है पता ही नहीं चलता। वहाँ सारा दिन कुत्तों और बिल्लियों के साथ कब बीत जाता है पता ही नहीं चलता। वहाँ कुत्तों-बिल्लियों तक ही लोग सीमित नहीं है, छिपकली तक पाल लेते हैं। शहरों में कहीं भी पशु-पक्षियों के दर्शन नहीं होते तो वीकेंड पर कैंप लगाकर जंगलों की खाक छानते रहते हैं, जानवरों को देखने के लिए। एक ऐसे ही जंगल में हम भी गए। घूमते-घूमते मालूम पड़ा कि यहाँ भालू है। बस फिर क्या था, हम भी घुस पड़े जंगल में। वहाँ देखा पहले से ही दसेक लोग भालू को निहारने के लिए खड़े हैं। भालू मजे से पेड़ पर चढ़कर सेव खा रहा था। हम और अंदर चले गए, हमें दो और भालू दिख गए। दो-तीन लोग तो ज्यादा ही अंदर चले गए। लेकिन हम समय पर बाहर आ गए, हमारे बाहर आते ही रेंजर काफिले सहित आ गया और सभी को ऐसा नहीं करने की हिदायत देने लगा। हम तो सबकुछ देखकर चुपचाप खिसक आए।
जंगलों में भी वहाँ जानवर दिखायी नहीं देते। वहाँ होटल परिसर में मोटी-ताजी गिलहरी घूम रही थी बस वे ही सब के आकर्षण का केन्द्र बनी हुई थीं। जंगल भी जानवरों से रिक्त कैसे हैं, यह हमें समझ नहीं आया। शहर तो सारे ही कीड़े-मकोड़ों से रिक्त हैं ही। वहाँ लगा कि वास्तव में आदमी ने दुनिया में अपना प्रभुत्व जमा लिया है। अभी भारत इस बात में पिछड़ा हुआ है। यहाँ सारे ही जीव-जन्तु भी साथ-साथ पलते हैं। इस धरती पर मनुष्य ही स्वेच्छा से विचरण करे शायद इसे ही विकास कहते हैं। हमारे जंगलों में, शहरों में कितने जीव मिलते हैं? सुबह पेड़ों पर तोते अमरूद खाते मिल जाएंगे, बंदर छलांग लगाते, हूप-हूप बोलते हुए दिख जाएंगे। कौवा तो जैसे पाहुने का संदेशा लाने के लिए ही मुंडेर पर आकर बैठता है। कोयल सावन का संदेशा ले आती है। चिड़िया, कबूतर तो घर में घोंसला बनाने को तैयार ही रहते हैं। रेगिस्तानी क्षेत्र में चले जाइए, मोर नाचते आपको मिल जाएंगे।
हम मानते हैं कि देश का विकास दो प्रकार का होता है, एक सभ्यता का विकास और दूसरा संस्कृति का विकास। अमेरिकी भौतिक स्वरूप का विकास अर्थात सभ्यता का विकास पूर्ण रूप में है और भारत इस मायने में विकासशील देश कहलाता है। अमेरिका पूँजीवादी देश है और उन्होंने अपनी अर्थव्यवस्था इतनी सुदृढ़ कर ली है कि वे सारी दुनिया को पैसा उधार देते हैं और ब्याज के बदले में सारी जीवनोपयोगी वस्तुएं प्राप्त करते हैं। सारा बाजार एशिया की वस्तुओं से भरा हुआ है। 25 प्रतिशत एशियायी उनके भौतिक स्वरूप के विकास में भागीदार हैं। वहाँ का प्रत्येक व्यक्ति टैक्स देता है, जबकि हमारे यहाँ टैक्स देने वालों का प्रतिशत क्या है? एक सज्जन ने बताया कि यहाँ टैक्स की आमदनी ही इतनी है कि इन्हें समझ नहीं आता कि इस पैसे को कहाँ खर्च करें? परिणाम सारी दुनिया को खैरात बाँटना और फिर उनकी प्रकृति-प्रदत्त संसाधनों का उपयोग करना। अमेरिका के पास भी प्राकृतिक संसाधन की प्रचुरता है लेकिन वह इनका उपयोग नहीं करता। जब दुनिया के संसाधन समाप्त हो जाएँगे तब हम उनका उपभोग करेंगे, यह है उनकी मानसिकता। इसलिए ही खाड़ी के देशों से तैल की लड़ाई लड़ी जा रही है। उनकी सभ्यता के विकास के पीछे है उनका अर्थप्रधान सोच है। दुनिया के सारे संसाधन, बौद्धिक प्रतिभा सब कुछ एकत्र करो और अमेरिका के लिए प्रयोग करो। ऐसा कौन करने में समर्थ होता है, निःसंदेह ताकतवर इंसान। जैसा कि मैंने पहले कहा था कि वे विज्ञान के इस सिद्धान्त को वरीयता देते हैं कि जो भी ताकतवर हैं वे ही जीवित रहेगा। अतः उनकी जीवनपद्धति का मूल मंत्र ताकत एकत्र करना है।
प्रकृति सारे ही जीव-जन्तुओं के सहारे सुरक्षित रहती है, लेकिन अमेरिका में सभी के स्थान निश्चित हैं, जहाँ मनुष्य रहेंगे, वहाँ ये नहीं रहेंगे। अर्थात सारी प्रकृति को गुलाम बनाने की प्रवृत्ति। भोग-विलास के लिए एकत्रीकरण की प्रवृत्ति। त्याग और समर्पण के लिए कहीं स्थान नहीं। टेक्स के रूप में देने का अर्थ भी क्लब जैसी मानसिकता के रूप में परिलक्षित होता है। देश का मेनेजमेंट सरकार के रूप में तुम देखते हो तो टेक्स लो और हमें सुविधाएं दो। उसमें त्याग की भावना नहीं है। भारत में त्याग ही त्याग है। हम टेक्स के रूप में कुछ नहीं देना चाहते लेकिन दान के रूप में सबकुछ दे देते हैं। इसलिए हमारा सांस्कृतिक विकास पूर्ण हैं। भारत की जनसंख्या सौ करोड़ से भी अधिक है, यदि भारत में भी लोग अमेरिका की तरह टैक्स देने लग जाएं तो शायद सर्वाधिक टेक्स हमारे देश में आएगा। फिर विकास की कैसी गंगा बहेगी, इसकी शायद हमें कल्पना नहीं है? हम केवल दान देकर स्वयं को भगवान बनाने में लगे रहते हैं। हमारे यहाँ भौतिक विकास का कभी चिंतन हुआ ही नहीं, बस आध्यात्मिक विकास के लिए ही हम हमेशा चिंतित रहते हैं। हम केवल अपने लिए ही नहीं, प्राणी मात्र के लिए, चर-अचर जगत के लिए चिंतन करते हैं। शायद हमारा यही सांस्कृतिक सोच कभी विश्व को बचाने में समर्थ बनेगा। आज नवीन पीढ़ी को यह दकियानूसी लगता है लेकिन कल यही सिद्धान्त सभी को आकर्षित करेगा।

डॉ अजित गुप्ता

Thursday, March 26, 2009

लोकतंत्र से ज़्यादा अहम आईपीएल ???

सवाल ये है कि हम क्यों लिखें और आप क्यों पढ़ें क्योंकि न तो हमारे लिखने से कोई फायदा होने वाला है, न ही आपके पढ़ने से। फिर भी हम लिख रहे हैं और आप पढ़ रहे हैं। इस छोटी सी उम्मीद के साथ कि क्या पता, शायद कुछ बदल जाय।
देश में पहले चरण के इंतेखाबात के लिये अधिसूचना जारी हो चुकी है। यानी होना तो ये चाहिये था कि देश में आम चुनाव का ख़ुमार पूरी तरह से छा जाय लेकिन क्या कीजियेगा इन आईपीएल वालों का कि ये सियासत के खेल में खेल की सियासत को लेकर आ गये हैं। आईपीएल की नुमाइश देश में होगी या देश से बाहर क्या फर्क पड़ता है। अभी तक इस नुमाइश के होने या न होने पर सुरक्षा कारणों को वजह बनाया जा रहा है लेकिन क्या कोई ये बहस भी कर रहा है कि सुरक्षा कारणों के अलावा भी क्या ऐसे समय में आईपीएल होना चाहिये जब देश आम-चुनाव की ज़िम्मेदारियां पूरी करने में लगा हो। चुनाव की तारीखें तय करते वक़्त हमारा चुनाव आयोग भी ये ध्यान रखता कि व्यापक तौर पर न तो परिक्षाएं हो रही हों और न ही हमारा किसान खेती-बाड़ी जैसे न टाले जाने वाले कामों में में लगा हो। तो क्या आईपीएल के आयोजकों को इस तरफ ध्यान नहीं देना चाहिये?

सोचिये जो समय राजनीति की सार्थक बहसें करने का है उस वक़्त हमारी जबान पर राजस्थान रॉयल्स, डेयर डेविल्स या शाहरुख़ ख़ान की नाइट राइडर्स की बातें होंगी। आईपीएल देश में हो या देश से बाहर, इससे जो फ़र्ख पड़ेगा उससे भी ज़्यादा गंभीर ये है कि इन सबके बावजूद वो घर-घर में मौजूद रहेगा। रोज़ दो शो होंगे पहला आठ बजे रात और दूसरा दस बजे से। ये वही समय है जब देश की जनता दिनभर की ख़बरें देखती है। जो नये सवाल देश के सामने होते हैं उनपर बहस करने के लिये या राय जानने के लिये हमारे तमाम टीवी चैनल्स नेताओं और संबंधित लोगों को पकड़ कर हमारे सामने लाते हैं। आने वाले दिनों में चुनाव के मद्देनज़र जब इन कार्यक्रमों की हमें बेहद ज़रूरत होगी उस वक़्त हमारे मतदाता जिनमें युवा ज़्यादा हैं, क्रिकेट मैच की रंगीनियों में खोये होंगे। क्रिकेट, ग्लैमर और पैसे की चकाचौंध के बलबूते विज्ञापनों का कारोबार और विज्ञापनों के आधार पर इस नुमाइश की कामयाबी के आगे आम-चुनाव के मुद्दे खो जायेंगे, ऐसी संभावनाओं से इंकार कैसे किया जा सकता है। जो कुछ तय हो रहा है, अगर होगा तो हमारे लोकतंत्र के साथ एक भद्दा मज़ाक होगा जिसके ज़िम्मेदार सितारा हैसियत रखने वाले आईपीएल के यही दावेदार होंगे जो हर कीमत पर इस नुमाइश को आयोजन करवाना चाहते हैं।

होना तो ये चाहिये कि जब देश आम-चुनाव के लिये तैयार हो रहा है, ऐसा कोई आयोजन न हो जो इसकी गंभीरता के साथ खिलवाड़ करे, लेकिन नुमायशी क्रिकेट के कारोबारियों को इन सबसे क्या लेना-देना वो तो कह रहे हैं कि इसबार अगर उन्हें धनलाभ नहीं भी होता है, तो भी वो इसमें अपना पसीना बहायेंगे और हर कीमत पर अपना खेल खेलेंगे। अनुमान लगाया जा रहा है कि अगर आईपीएल के मैच नहीं हो पाते हैं तो करीब एक हजार करोड़ का घाटा होगा।

न्यूज़ चैनल जो पहले ही कटौती के इस माहौल में कम से कम खर्च करने की नीतियां अपनाये हुए हैं, बजाय जमीनी हकीकत पर उतरने के, स्टूडियोज़ में बैठे-बैठे ही चुनावी रस्में अदा करेंगे। चुनावों में क्या हो रहा है और क्या होगा? जैसे सवालों के बजाय दिनभर ये दिखाते रहेंगे कि आईपीएल में क्या हो चुका है और क्या होने जा रहा है। क्योंकि जिन विज्ञापनों के दम पर वो पैसा खर्च करने समाचार जुटाते हैं वो विज्ञापन तो नुमायशी क्रिकेट की चकाचौंध में शामिल होगें। टीआरपी तो वहीं से आयेगी।

हर चीज़ में राजनीति देखने वाले गृह-मंत्रालय की चिंताओं को भी सियासी चश्में से देख रहे हैं। इंडियन प्रीमियर लीग बनाम इंडियन पॉलिटिकल लीग का नया खेल सियासी रंग लेता जा रहा है। लगता है कि आईपीएल, सत्ता और विपक्ष के बीच राजनैतिक लड़ाई का माहौल बनायेगा क्योंकि करीब करीब सभी कांग्रेसी सत्ता वाले राज्य आईपीएल की सुरक्षा से मुंह मोड़ रहे हैं और सारे भाजपा शासित प्रदेश आईपीएल और चुनाव की सुरक्षा एक साथ करने के संकेत दे चुके हैं। “जो सरकार अपने यहां होने वाले खेलों की रक्षा नहीं कर सकती वो देश की रक्षा कैसे करेगी ”, अब इस तरह के भाषण किसी एक मंच के मोहताज नहीं रह जायेंगे। देश के लोकतंत्र से ज़्यादा फ़िक्र लोगों को इस बात की है कि आईपीएल का क्या होगा? सारी दुनिया हम पर थू-थू करेगी कि हम कितने डरपोक हैं। ललित मोदी जो कह रहे थे कि आईपीएल को देश की सुरक्षा एजेंसियों की कोई ज़रूरत नहीं है और वो अपने आयोजन की हिफाज़त ख़ुद कर सकती है, वो अब क्यों दूसरा देश ढूंढ़ रहे हैं, समझ में नहीं आता।

वैसे भी जो खेल हो रहा है उससे क्रिकेट का कितना लेना देना है ये तो उन तस्वीरों से पता चल जाता है जो इन दिनों सुर्खियों में हैं। इनमें क्रिकेटर के बजाय शाहरुख खान, प्रिटि जिंटा, शिल्पा शेट्टी, विजय मालया, ललित मोदी और मिसेज़ मुकेश अंबानी दिखायी पड़ते हैं। इनको देखकर रोमन शासकों की याद आ जाती है जिनके पास ग्लैडिएटर्स होते थे जो अपने मास्टर के लिये जान की बाजी लगा देते थे। यहां गुलामी का अंदाज़ चाहे वैसा न हो लेकिन निलामी तो इनकी भी लगती है। पिछली बार सबसे मंहगी बोली के साथ धोनी 6 करोड़ में बिके थे। इस बार फिंलटाफ और पीटरसन उससे भी ज्यादा, आठ करोड़ में खरीदे गये हैं। 2008 में इस बात से बड़ी राहत मिली थी जब पांच क्रिकेटर्स को आइकॉन कहकर निलाम होने से बचा लिया गया था। इनमें सरताज खिलाड़ी सचिन के साथ-साथ सहवाग, युवराज, गांगुली और द्रविड़ भी थे। शायद इन खिलाड़ियों को इस तरह बिकना मंज़ूर नहीं रहा होगा। आगे ये निलामी क्या-क्या शक्लें बदलेगी, क्या कहा जा सकता है।

ये बहस क्यों नहीं की जा रही है कि देश का लोकतंत्र ज्याद महत्वपूर्ण है या आईपीएल? अगर आईपीएल बाहर भी आयोजित हुआ तो समस्या सिर्फ सुरक्षा की दूर होगी, चुनाव पर जो उसका असर पड़ेगा उसको क्यों नज़रअंदाज़ किया जा रहा है? कहीं ऐसा तो नहीं कि जानबूझकर आईपीएल की तारीखों को चुनाव के समय से टकराया गया है? सवाल ये नहीं है कि कितनी संजीदगी से आम-चुनाव में लोग हिस्सा लेंगे, सवाल ये है कि हम इसके लिये कितना गंभीर माहौल बना रहे हैं?

नाज़िम नक़वी
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Wednesday, March 25, 2009

सफर हवा का, फिक्र जमीं की...

बहुत पुरानी बहस है। बचपन में एक निबंध लिखा करते थे-"विज्ञान-वरदान या अभिशाप"। छोटे हुआ करते थे इसलिये ज्यादा समझ भी नहीं आता था। अभी भुवनेश्वर से दिल्ली वापस आ रहा था। हवाई सफर २ घंटे के भीतर ही तय हो गया। ९.३० बजे उड़ान भरी और ११.३० बजे दिल्ली। मैं मन ही मन सोच रहा था कि विज्ञान ने कितनी तरक्की कर ली है जो १३०० किमी का सफ़र २ घंटे में पूरा किया जा सकता है। फिर अचानक ही मेरा मन दिल्ली की तरफ मुड़ गया। भई, मन पर किसका ज़ोर चलता है। एक यही है जो कभी भी, कहीं भी, बिना वीज़ा और टिकट के जा सकता है। तो मैं सोचने लगा कि दिल्ली से नोएडा जाने में भी तो मुझे कईं बार २ घंटे लगते हैं। ऐसा कैसे मुमकिन है कि ४५ किमी और १३०० किमी पूरा करने में एक ही समय लगता हो।

पर सच तो सच है। दिल्ली में ट्रैफिक इतना बढ़ गया है कि अब स्थिति बेकाबू सी लगती है। शायद सितम्बर-अक्टूबर की बात है जब अखबार में पढ़ा कि दिल्ली की सड़कों पर हर रोज़ औसतन ९५० नईं गाड़ियाँ आती हैं। सोच कर देखिये तो ज़रा... अब एक और आँकड़ा देखिये.. सन १९७५ में जितने लोग दिल्ली में थे आज उतनी ही गाड़ियाँ सरपट दौड़ती हैं। शादियों के मौसम में जगह ट्रैफिक जाम और फिर बंद, चक्का जाम..उस पर देश की राजधानी होने के कारण रैलियाँ। दिल्ली की कमर तोड़ देता है सब कुछ। पर इस परिस्थिति के लिये जिम्मेदार कौन? हम!!! विज्ञान ने हमारा क्या बिगाड़ा। उसने हमें गाड़ी दी, हमें हवाई जहाज दिया। हमने उसका दुरुपयोग किया। इसका अर्थ ये हुआ कि विज्ञान तो हमारा मित्र ही है..हम खुद अपने आप के शत्रु बन बैठे हैं। जहाँ एक की जरूरत है वहाँ दो गाड़ियाँ, जहाँ दो चाहिये वहाँ तीन। मंदी का दौर है इसलिये आजकल केवल २५० गाड़ियाँ ही प्रतिदिन बिकती हैं। मंदी ने एक तो अच्छा काम किया!!

आज इंसान परेशान है तेज़ भागती ज़िन्दगी से। ऐसा क्यों होता है कि इंसान जो चीज़ विज्ञान की सहायता से बना लेता है उसके साइड इफेक्ट पर ध्यान नहीं देता। कार के धुएं और एयरकंडीशनर के इस्तेमाल से ओज़ोन की परत पतली हो रही है। ग्लोबल वार्मिंग नामक शब्द पिछले ४-५ सालों में ही लोगों की ज़ुबान पर क्यों आया? अमरीका जैसा बड़ा, और वैज्ञानिक दृष्टि से सशक्त देश ओज़ोन को नुकसान पहुँचाने में सबसे आगे है। ऐसा क्यों है कि वहाँ के लोग इन सब बातों को पहले नहीं सोच सके? क्या सुविधाओं के सामने हम अँधे हो जाते हैं और सही-गलत की पहचान नहीं कर पाते। पॉलीथीन का इस्तेमाल जब शुरु हुआ तो क्या उस समय ये किसी ने नहीं सोचा कि इस सब का हश्र क्या होगा? यदि तभी लगाम लग जाती तो कोर्ट को इसकी रोक का आदेश नहीं देना पड़ता। हर बार हमें तभी अक्ल आती है जब पानी सर से ऊपर चढ़ जाता है। अब हिमालय पर जमे ग्लेशियर पिघल रहे हैं तो थोड़ी बहुत समझ आने लगी है। वैज्ञानिक मान रहे हैं हैं २०२९ तक सारी बर्फ पिघल जायेगी। इसका मतलब साफ है कि पहले बाढ़ आयेगी और फिर पड़ेगा सूखा। बढ़ते औद्योगिकीकरण ने यमुना को भी मैली कर रखा है। पर यमुना के लिये क्या किया जा रहा है? यमुना नदी बोलते हुए भी अब अजीब लगता है। आकाश से देखने पर काली और गंदे नाले की तरह दिखाई पड़ती है।

हमें कुछ बातों का अभी से ध्यान रखना होगा। सरकार के भरोसे न बैठें। क्योंकि आने वाली पीड़ियाँ हमें ही गालियाँ देंगी। उनके रहने के लिये जमीन और साँस लेने के लिये हवा व पीने का पानी तो साफ रखें। पर्यावरण स्वच्छ रखने के लिये बहुत से अभियान शुरु हुए हैं। जो हो चुका है उसे हम बदल नहीं सकते, लेकिन जो हम भविष्य में नहीं चाहते उसे तो रोक सकते ही हैं। आइये हम भी वो बदलाव बनें जो बदलाव हम समाज व पर्यावरण में चाहते हैं। विज्ञान को वरदान ही रहने दें।

तपन शर्मा

Tuesday, March 24, 2009

इंटरनेट की पटरी पर आडवाणी की पीएम यात्रा...

देश को लालकृष्ण आडवाणी से कोई आशाएं हो या नहीं, लालकृष्ण आडवाणी को देश से बहुत आशाएं हैं। वे चाहते हैं कि इस बार उन्हें ही प्रधानमंत्री बनाया जाए। यह विचित्र बात है। भारतीय राजनीति में एक नई घटना है। इसके पहले कभी मतदाताओं से यह कभी नहीं कहा जाता था कि वे अगले प्रधानमंत्री का चुनाव करें। अपनी-अपनी पार्टी को जितवाने की अपील की जाती थी। सिर्फ कांग्रेस का मामला अलग था। वह हाथ को वोट देने का आह्वान करती थी, पर जनता को मालूम रहता था कि कांग्रेस की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार कौन है। सिर्फ एक अवसर पर ऐसा नहीं हुआ, जब राजीव गांधी की अकाल मृत्यु के बाद लोक सभा का चुनाव हुआ। उसके बाद प्रधानमंत्री पद के लिए अपने चयन में कांग्रेस ने जो महागलती की, उसकी सजा वह आज तक भुगत रही है। नरसिंह राव को छोड़ कर कांग्रेस का कोई ऐसा प्रधानमंत्री नहीं हो सकता था, जो बाबरी मस्जिद को तुड़वाने के लिए इस कदर तैयार रहता। दूसरी बार संसद में बहुमत का प्रबंध हो जाने के बाद सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनना था, पर मनमोहन सिंह के भाग्य खुल गए। राहुल गांधी जब वयस्क हो जाएंगे, तब कांग्रेस को चुनाव के समय यह बताना नहीं होगा कि प्रधानमंत्री पद के लिए उसका उम्मीदवार कौन है। राजग का गठबंधन शायद पहला प्रयोग था, जिसने अपने भावी प्रधानमंत्री की घोषणा पहले से कर रखी थी।

इस बार शरद पवार, लालू प्रसाद आदि ने भी अपनी आकांक्षाओं को प्रगट कर रखा है, प्रणव मुखर्जी का मौन काफी मुखर है, मायावती तो बहुत दिनों से दिल्ली पर कब्जा करने का स्वप्न देख रही हैं, पर लालकृष्ण आडवाणी की तरह कोई भी मकान की छत से चिल्ला-चिल्ला कर नहीं कह रहा है कि मुझे प्रधानमंत्री बनाओ। कुछ समय से इंटरनेट का कोई भी स्थल (साइट) खोलिए, आडवाणी के फोटो के साथ एक बड़ा-सा विज्ञापन मिलेगा, जिसका नारा है -- आडवाणी फॉर पीएम। पचासों स्थलों पर तो मैं ही यह नारा देख चुका हूं। मेरा अनुमान है कि सैकड़ों या शायद हजारों साइटों पर 'आडवाणी फॉर पीएम' का नारा जगमगा रहा है। इस नारे के साथ-साथ दर्शक-पाठक को लालकृष्ण आडवाणी के निजी ब्लॉग पर जाने के लिए आमंत्रित किया जाता है। वहां भी आडवाणी को पीएम बनाने का जबरदस्त आह्वान है।

यह क्या है? क्यों है? क्या हमने संसदीय प्रणाली का त्याग कर दिया है और अमेरिका की राष्ट्रपति प्रणाली अपना ली है? नहीं, सच यह है कि हमारे यहां ही नहीं, दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी संसदीय प्रणाली राष्ट्रपति प्रणाली में बदल गई है या बदलती जा रही है। इस सिलसिले में ग्रेट ब्रिाटेन की राजनीति की चर्चा उपयुक्त होगी। वहां अभी भी मुख्य प्रतिद्वंद्विता दलों के बीच ही होती है, पर दलों को उनकी नीतियों से कम, उनके नेता के व्यक्तित्व से ज्यादा आंका जाता है। नेता ही दलों के चुनाव अभियान का नेतृत्व करता है और जीत जाने के बाद वही प्रधानमंत्री बनता है। उसके बाद शासन चलाने में दल की भूमिका क्षीण और प्रधानमंत्री की भूमिका प्रमुख हो जाती है।

भारत में संसदीय प्रणाली को राष्ट्रपति प्रणाली में बदल देने की मुख्य जिम्मेदारी इंदिरा गांधी की है। उनके प्रधानमंत्री बनने के पहले कांग्रेस में काफी हद तक आंतरिक लोकतंत्र हुआ करता था। इंदिरा गांधी ने अपने इर्द-गिर्द सत्ता का केंद्रीकरण किया। धीरे-धीरे यह अन्य दलों का भी आदर्श होता चला गया। पश्चिम बंगाल में नौवें दशक से वाम मोर्चा का शासन है, लेकिन लगभग पच्चीस वर्षों तक ज्योति बसु वहां के एकछत्र शासक बने रहे। अब यही भूमिका बुद्धदेव भट्टाचार्य निभा रहे हैं। अन्य दलों का तो कहना ही क्या। वे सभी अपने-अपने नेता के इर्द-गिर्द उसी तरह चक्कर लगाते रहते हैं जैसे पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती रहती है।

क्या यही कारण है कि चुनाव का बिगुल बजने के काफी पहले से ही लालकृष्ण आडवाणी ने अपने प्रधानमंत्री बनने का डंका पीटना शुरू कर दिया था? हो सकता है, बाद में वे अन्य प्रचार माध्यमों का भी सहारा लें। लेकिन इंटरनेट पर उनकी अतिशय निर्भरता से यह संदेह होता है कि वे इंटरनेट से छलांग लगा कर सीधे पीएमओ (प्रधानमंत्री कार्यालय) में उतरने की उम्मीद कर रहे हैं। शायद हाल के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव ने उन्हें इस दिशा में प्रेरित किया है। लेकिन आडवाणी भूलते हैं कि भारत में इंटरनेट का प्रयोग भले ही तीव्र गति से बढ़ रहा हो, पर अभी भी हम इंटरनेट का देश नहीं बन पाए हैं। दूसरे, इतने सारे नेट स्थलों पर आडवाणी फॉर पीएम देख कर वितृष्णा ही पैदा होती है। भारत में अभी भी सत्ता लोलुपता को अच्छा नहीं माना जाता। सोनिया गांधी को दो-दो बार प्रधानमंत्री बनने का अवसर मिला और दोनों ही बार उन्होंने प्रधानमंत्री बनने का लालच छोड़ दिया। इस त्याग वृत्ति से उनकी महिमा बढ़ी। हालांकि वास्तविक सत्ता अभी भी कांग्रेस अध्यक्ष के ही पास है, लेकिन उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को काफी सम्मान दिया है और उनके प्रधानमंत्री पद के विशेषाधिकारों को कुचलने का प्रयास नहीं किया है। इससे मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी, दोनों के प्रति आदर बढ़ा है।

दूसरी बात यह है कि अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में टेलीविजन की बहुत महत्वपूर्ण और निर्णायक भूमिका होती है। राष्ट्रपति पद के प्रतिद्वंद्वी टेलीविजन पर अपना-अपना प्रचार करते हैं और एक-दूसरे से बहस तथा तर्क-वितर्क भी करते हैं। इससे मतदाताओं को यह तौलने में आसानी होती है कि उनके लिए कौन-सा उम्मीदवार बेहतर है। भारत में ऐसा नहीं होता। यहां पार्टी और नेता का पिछले पांच साल का काम बोलता है। चुनाव सभावों में पैदा किया जानेवाला जज्बा भी कम प्रभावशाली नहीं होता। दल के संगठन की भी निर्णायक भूमिका होती है। इस आधार पर कह सकते हैं कि हमारे यहां चुनावी सफलता का फैसला सड़कों, चौपालों पर और खेत-खलिहानों में होता है, न कि टेलीविजन और इंटरनेट जैसे आधुनिक माध्यमों से।

यह सब जानते-समझते हुए भी लालकृष्ण आडवाणी अगर इंटरनेट पर इतना ज्यादा भरोसा कर रहे हैं, तो साफ है कि वे किस वोटर वर्ग को अपना निशाना बना रहे हैं। यह भारत का अवसरवादी मध्य वर्ग है जिसे राजग ने इंडिया शाइनिंग का प्रतीक मान रखा था। ऐसा लगता है कि भाजपा नेता अपनी इस ग्रंथि से अब तक उबरे नहीं हैं। यह चुनावी जीत का सशक्त आधार बन सकता है, इसमें गहरा संदेह है। हमारे देश में तो वही पार्टी जनता के मन पर राज कर सकती है जो गरीब तथा असहाय लोगों की वाणी बन सके। अगर लालकृष्ण सचमुच प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं, तो उन्हें अपने दल की नीतियों पर पुनर्विचार करना चाहिए और उसे जनवादी बना कर उन लाखों गांवों में ले जाना चाहिए जहां अभी भी भारत की आत्मा बसती है। अभी तक तो आडवाणी और उनकी पार्टी ने अपनी आस्तीन से बाबरी मस्जिद और गुजरात दंगों का खून भी नहीं धोया है।

राजकिशोर
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं...)

Monday, March 23, 2009

एक मर मिटने की हसरत ही दिले-बिस्मिल में है

भारतीय इतिहास में २३ मार्च का दिन भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव की शहादत के तौर पर याद किया जाता है। हिन्द-युग्म के प्रेमचंद सहजवाला विगत ६ महीनों से भगत सिंह और उनके सभी दस्तावेजों का पुनर्वालोकन कर रहे हैं। आज इन शहीदों को सलाम करते हुए इस लेखमाला की अंतिम कड़ी प्रकाशित कर रहे हैं।


ट्रिब्यूनल - ट्रिब्यूनल जब गठित हुआ तो उस में तीन जज थे: जस्टिस जॉन कोल्डस्ट्रीम (अध्यक्ष), जस्टिस जी सी हिल्टन व जस्टिस सैय्यद आगा हैदर. पर 12 मई को क्या हुआ कि जज जब अदालत में प्रविष्ट हुए तो क्रांतिकारी रोज़ की तरह देशभक्ति के गीत गा रहे थे व नारे लगा रहे थे. प्रायः जज इन गीतों के बाद ही अदालत में प्रवेश करते थे. इस बीच पुलिस क्रांतिकारियों की हथकड़ियाँ भी हटा देती थी. पर आज जज पहले ही भीतर आ गए. अध्यक्ष जस्टिस कोल्डस्ट्रीम ने क्या किया कि पुलिस के लिए एक आदेश लिखा कि सभी अभियुक्तों को दोबारा हथकड़ियाँ लगाई जाएँ और वापस जेल भेज दिया जाए. पुलिस तुंरत हरकत में आ गई. पर क्रांतिकारी हड़बड़ाहट व अंधाधुंध तरीके से हथकड़ियाँ लगाई जाने के बावजूद गाते रहे - मेरा रंग दे बसंती चोला...पुलिस से जद्दोजहद में तीन युवक - प्रेम दत्त, अजय घोष व कुंदन लाल बेहोश हो गए व कई अन्य ज़ख्मी हो गए. इस पर जस्टिस आगा हैदर ने अध्यक्ष जस्टिस कोल्डस्ट्रीम से असहमति जताई और एक आदेश लिखा कि वे उन के इस आदेश में शामिल नहीं हैं. ट्रिब्यूनल में गहरे मतभेद होने शुरू हो गए. जस्टिस कोल्डस्ट्रीम से माफ़ी मांगने की डिमांड होने लगी. इस लिए 20 जून 1931 को जब ट्रिब्यूनल की अन्तिम बैठक हुई, तो ट्रिब्यूनल का पुनर्गठन किया गया. आगा हैदर को हटा दिया गया क्यों कि वे अन्य दो साथियों से असहमत रहते थे व यदा कदा क्रांतिकारियों का पक्ष ले लेते थे. कोल्डस्ट्रीम को लम्बी छुट्टी का आर्डर पकड़ा दिया गया. अब नए ट्रिब्यूनल के अध्यक्ष थे जस्टिस जी सी हिल्टन व अन्य दो सदस्य : जस्टिस टैप व जस्टिस अब्दुल कादिर.
ब्रिटिश  का धर्म-संकट जब बढ़ता गया,  तब अचानक वायसराय को बीच में पड़ना पड़ा.  वायसराय ने क्या किया कि सारे मुक़दमे में एक ट्रिब्यूनल ले कर कूद पड़ा.  उसने उच्च-न्यायलय के तीन जजों, (जस्टिस जी सी हिल्टन, अब्दुल कादिर व जे के टैप)  का एक विशेष ट्रिब्यूनल बनाया, जो इस  मुक़दमे की पैरवी करे और वह जो भी फ़ैसला दे, उस के विरुद्ध अपील तक न की जा सके.  यानी अपने ह्रदय-पटल पर तो ब्रिटिश एक जजमेंट लिख  ही चुकी थी,  केवल उसे एक मुखौटा देना था, सो उस ने  दिया.  दिनांक 1 मई 1930 को शिमला से एक  Ordinance III पारित करा कर वायसराय  लार्ड  इर्विन ने ट्रिब्यूनल का गठन किया.  इस Ordinance III की खासियत यह भी कि इसे वायसराय के हस्ताक्षर से पहले असेम्बली द्वारा पारित कराना भी अनिवार्य नहीं था.  यानी पूरी जनता के अधिकारों को फलांग कर, एक लम्बी कूद जैसा  था यह Ordinance III.  देश-भक्तों  की मृत्यु का यह दस्तावेज़ ब्रिटिश के खूनी हाथों द्वारा लिखा  जाना था.  अलबत्ता इस ट्रिब्यूनल के पास एक सीमित अवधि थी,  यानी छः महीने,  जिस के बाद ट्रिब्यूनल स्वयमेव समाप्त हो जाएगा.  भगत सिंह ने तो अदालत में मजिस्ट्रेट से ही कह दिया कि ब्रिटिश द्वारा इस ट्रिब्यूनल का गठन ही अभियुक्तों की विजय पताका है,  क्यों कि सभी अभियुक्त तो इतने दिन जनता को यही बताना  चाहते थे कि देश में दर-असल कोई क़ानून है ही नहीं (केवल जंगल का क़ानून है),  और यह काम वायसराय ने स्वयं  अपने कर-कमलों द्वारा ही कर दिया है.  भगत सिंह ने वायसराय को एक  पत्र लिख कर उसे  एक आईना सा दिखा दिया.  भगत सिंह ने स्पष्ट लिखा कि ट्रिब्यूनल बनाने के कारणों में यह लिखा गया है कि हम लोगों में से दो जने तो मुकदमा शुरू होने से पहले ही भूख हड़ताल पर चले गए थे.  कि  हम तो मुक़दमे में  रुकावट डालना  चाहते हैं.  पर कोई भी सामान्य बुद्धि वाला व्यक्ति यह सहज ही समझ सकता है कि भूख  हड़ताल का दर-असल मुक़दमे से कोई ताल्लुक  ही नहीं था.  (भूख हड़ताल तो जेल में हम सब के साथ हुए दुर्व्यवहार से सम्बंधित थी).  जब जब सरकार ने जेल की स्थिति सुधारने  का आश्वासन दिया,  तब तब हमने भूख-हड़ताल समाप्त भी की.  पर जब सरकार की नीयत का खोखलापन उजागर हुआ,  तब हम फ़िर हड़ताल पर चले गए.  पर यह कहना सरासर ग़लत होगा कि मुक़दमे में रुकावट डालने के लिए हम हड़ताल पर गए.  जतिन दास जैसे बहादुर नौजवान ने ऐसी तुच्छ सी बात के लिए अपनी जान कुर्बान नहीं की होगी.
 
मुक़दमे से तो इन सभी बहादुरों में से कोई भी नहीं डरता था.   इन देश-भक्त जवानों पर तो,जैसा पहले लिखा गया है, बिस्मिल की ग़ज़ल का ही यह शेर भी लागू होता है:
 
अब न अहले-वलवले हैं और न अरमानों की भीड़
एक मर मिटने की हसरत ही दिले-बिस्मिल में है
 
ये सब क्रांतिकारी जानते थे, कि अंततः देश के  लिए उन्हें मृत्यु का ही वरण करना है.   मुक़दमे की तरफ़ तो भगत सिंह ने शुरू से ही एक उपेक्षा का रुख अपना रखा था.  उन्होंने अपना कोई वकील  तक करने  से इनकार कर दिया था.  बहुत आग्रह के बाद केवल एक कानूनी सलाहकार  नियुक्त करने पर वे राज़ी हुए थे,  जो उन्हें सलाह देंगे लेकिन  उन का मुकदमा नहीं लड़ेंगे.  भगत सिंह ने दर-असल मुक़दमे का इस्तेमाल एक मंच की तरह करना चाहा,  जिस के माध्यम से वे देश भर के युवाओं में देश-भक्ति की एक लहर पैदा कर सकें. 
पिछली कड़ियाँ
  1. ऐ शहीदे मुल्को-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार

  2. आशिकों का आज जमघट कूच-ए-कातिल में है

  3. क्या तमन्ना-ऐ- शहादत भी किसी के दिल में है (1)

  4. क्या तमन्ना-ऐ- शहादत भी किसी के दिल में है (2)

  5. देखना है ज़ोर कितना बाज़ू ए कातिल में है...

  6. सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है...

  7. हम अभी से क्या बताएं क्या हमारे दिल में है...

  8. रहबरे राहे मुहब्बत रह न जाना राह में...

  9. लज्ज़ते सहरा-नवर्दी दूरिये - मंजिल में है

  10. अब न अहले-वलवले हैं और न अरमानों की भीड़

  11. खींच लाई है सभी को कत्ल होने की उम्मीद ....

अपनी जान बचाने के लिए उन्होंने ने मुक़दमे का इस्तैमाल किया ही नही.   दिनांक  5 मई 1930  प्रातः 10 बजे लाहौर के 'पूंच हाउस' में ट्रिब्यूनल की अगुवाई में सभी अभियुक्तों पर 'सांडर्स हत्या काण्ड' का मुकदमा शुरू हुआ.  अभियुक्त उस से चंद  मिनट पहले ही ट्रिब्यूनल के सामने उपस्थित हो चुके थे और भीतर क्रांतिकारी नारे लगाते हुए प्रविष्ट हुए थे.
 
यहाँ भगत सिंह ने दरख्वास्त दी कि ट्रिब्यूनल को 15 दिन तक स्थगित किया जाए ताकि वे इस ट्रिब्यूनल को गैर-कानूनी साबित करने के लिए दलीलें तैयार कर सकें,  पर उन का यह निवेदन नहीं माना गया.
 
अभियुक्त जे एन  सान्याल सहसा ट्रिब्यूनल के सामने  खड़े हो कर बहुत आक्रोश भरा भाषण दे कर ब्रिटिश की चालों  की कलई  उधेड़ने   लगे.  ट्रिब्यूनल ने उन से उन का कागज़ छीन लिया. पर सान्याल उस का अन्तिम अनुच्छेद बुलंद आवाज़ में बोलने लगे:
 
' इन सभी कारणों से हम इस धोखाधड़ी  की नुमाइश में हिस्सा बनने से साफ़ इनकार करते हैं, और  अब से हम  इस मुक़दमे की पैरवी में भी कोई हिस्सा नहीं लेंगे...'  (Shaheede Azam Sardar Bhagat Singh: The Man and His Ideology by GS Deol p 77).
 
इस बीच क्या हुआ कि भगत सिंह के पिता सरदार किशन  सिंह पुत्र मोह के वश में आ कर ट्रिब्यूनल को एक अर्जी दे बैठे, जिस पर भगत सिंह को बहुत गुस्सा आया.  सरदार किशन सिंह ने यह साबित करने की कोशिश की कि सांडर्स हत्या काण्ड वाले दिन तो भगत सिंह लाहौर में ही नहीं थे!  अपने क्रांतिकारी पुत्र को फांसी के फंदे में जकड़ा देखने की कल्पना ने एक क्रन्तिकारी पिता के ह्रदय को कमज़ोर कर दिया.   दि. 20  सितम्बर 1930 को ट्रिब्यूनल के सामने दी हुई अर्ज़ी में उन्होंने लिखा कि घटना वाले दिन तो भगत सिंह  कलकत्ता में थे और उन्होंने वहां से किसी रामलाल को एक पत्र भी लिखा था.  मैं उन लोगों को यहाँ सबूत के तौर पर पेश कर सकता हूँ... मुझे  न्याय के हित में अदालत में यह साबित करने का मौका ज़रूर दिया जाए... 
 
भगत सिंह को अपने समस्त जीवन में इस बात पर सदा गर्व रहा कि उन के पिता, उन के चाचा लोग,  ये सब क्रांतिकारी रहे और किसी भी प्रकार के परिणाम से कभी डरे ही नहीं.  फ़िर यह पुत्र मोह का कैसा फंदा है जो सच्चाई के गले में पड़ रहा है? एक क्रांतिकारी पिता अपने सुपत्र को बचाने के लिए अदालत में झूठ बुलवाना चाहते हैं.  उन्होंने पिता को बहुत अफ़सोस व आक्रोश भरा पत्र लिखा - आपको शुरू से ही पता है कि मुझे ख़ुद को बचाने में  कोई दिलचस्पी है ही नहीं.  मैंने राजनैतिक मामलों में स्वयं को हमेशा आप से स्वतंत्र रख कर ही कदम उठाए.  आप कितना कहते रहे,  मुक़दमे को गंभीरता से लड़ो,  पर चाहे मेरी वैचारिकता अपने आप में अस्पष्ट है, या मैं ख़ुद को सही ठहराने के लिए तर्क-बाज़ी  कर रहा हूँ,  मैंने इस मुक़दमे को कभी गंभीरता से लड़ना चाहा ही नहीं.  मेरा जीवन इस  कदर अनमोल है ही नहीं,  कम से कम मेरे लिए तो नहीं! (वही पुस्तक pp  80-81)
 
दि. 7 अक्टूबर 1930  को वह दर्दनाक फ़ैसला लिख दिया गया,  जिस ने भारत की तारीख के पन्नों पर ब्रिटिश के हाथों हुए खून से रंग दिया.  कानून की कई धाराएं होती हैं,  जिन का इस्तैमाल कानून करता ही है. पर अमानवीय तरीके से कानून को इस्तैमाल करने की यह एक अभूतपूर्व मिसाल थी.  भगत सिंह व उस के दो साथियों,  सुखदेव  तथा राजगुरु को कई धाराएं इस्तेमाल कर, यथा 121, 302 व 4(बी), मृत्युदंड की घोषणा कर दी गई .  पूरा देश एक सदमे की चपेट में आ गया.  जिन बहादुर नौजवानों को जनता सर आंखों बिठाना चाहती थी,  उन को अब मृत्यु का वरण करने की बात जनता के गले नहीं उतर पा रही थी.  मुक़दमे का फ़ैसला सुनते ही सब से ज़्यादा जिस नेता की छाती जोश व  आक्रोश  से भर उठी,  वे थे पंडित जवाहरलाल नेहरू.  दि. 12 अक्टूबर 1930  को इलाहाबाद में दिए आक्रोश भरे भाषण में वे कहते हैं -  'अगर इंग्लैंड पर जर्मनी या  रूस का हमला हो जाए,  तो क्या लार्ड इर्विन अपने जवानों को हिंसा से दूर रहने की सलाह देते फिरेंगे?..लार्ड इर्विन ज़रा अपने ह्रदय से पूछ कर देखें  कि यदि भगत सिंह अँगरेज़ होते, और इंग्लैंड की तरफ़ से क्रान्ति करते,  तब  कैसा महसूस होता उन्हें?'.. पर भगत सिंह के प्रति अतीव गर्व से नेहरू ने यह भी कहा 'मेरा ह्रदय भगत सिंह की बहादुरी व उत्सर्ग-भावना के प्रति प्रशंसा से सराबोर है...(The Trrial of Bhagat Singh: Politics of Justice by AG Noorani p 175).
 
सरदार पटेल ने ब्रिटिश की शेखियों का खोखलापन उजागर करते हुए कहा - 'अंग्रेज़ी क़ानून  हमेशा इस बात की शेखियां बघारता रहा, कि अदालत में बाकायदा प्रति-परीक्षण (cross-examination) के बिना कभी कोई फ़ैसला नहीं दिया जाता.  पर अंग्रेज़ी क़ानून ने ऐसा किया,  और अभियुक्तों को मृत्यु-दंड जैसी सज़ाएं मिली'  (वही पुस्तक p 228).  
 
ब्रिटिश की ही कम्युनिस्ट पार्टी ने ब्रिटिश की ही लेबर-पार्टी शासित  सरकार को आईना दिखा कर लिखा -  'इस मुक़दमे का इतिहास राजनैतिक दमन का  अद्वितीय दस्तावेज़ रहेगा और सर्वाधिक अमानवीय व क्रूर व्यवहार ही इस मुक़दमे की पहचान होगी,  जो कि ब्रिटिश की वर्त्तमान लेबर सरकार की इस इच्छा का  परिणाम है कि दमित लोगों के हृदयों में और दहशत फैलाई जाए...'
 
भगत सिंह ने दया की कोई अपील करने से इनकार कर दिया या उन्हें व सुखदेव तथा राजगुरु को अब एक ही कमरे में भेजा गया,  ये सब गौण बातें हैं. पर जो महत्वपूर्ण है,  वह यह  कि फांसी वाले उस कमरे में जाने से पूर्व सभी साथी उनसे रोते हुए गले मिले.  भगत सिंह ने अपने साथियों से यही कहा - 'साथियो, आज हम आखिरी बार मिल रहे हैं.  पर मेरा तुम सब को यही आखिरी संदेश  है, कि जब आप सब जेलों से जाएँ,  तो सुख-चैन की ज़िन्दगी बिताना न शुरू कर दें,  जब तक कि आप इस फिरंगी कौम को भारत  से बाहर न खदेड़ दें और देश में एक समाजवादी लोकतंत्र न स्थापित  कर दें (Shaheede Azam Sardar Bhagat Singh: The Man and His Ideology by GS Deol p 86).
 
वैसे केवल ब्रिटिश का पर्दाफाश करने के  लिए  ब्रिटिश की Privy  council में एक अपील इस फैसले के विरुद्ध की गई,  पर वह Privy  council ने  10 फरवरी 1931 को खारिज  कर दी.  दि. 3 मार्च 1931  को आखिरी बार भगत सिंह का परिवार  उन से मिलने गया - पिता माता, भाई बहनें.  उनकी दादी ने उनके  जन्म से ही जो नाम उन्हें  दिया,  'भागांवाला', उस भागांवाला को उनकी माँ आखिरी बार अपने सीने से लगा कर रो पड़ीं...पर भारत माँ के लिए वह सचमुच  'भागांवाला' ही था,  जिस की प्रेरणा से देश के जवानों के मन  में आज़ादी की ज्वाला भड़क उठी थी...
 
माँ ने बेटे से कहा भी यही - 'बेटे, अपना रास्ता छोड़ना मत.   जाना तो एक दिन हर किसी को है.  लेकिन तेरा जाना तो वो है बेटे,  जिसे सारी दुनिया याद रखेगी.  मेरी एक ही इच्छा है बेटे, कि मौत को गले लगाते वक़्त भी मेरा बहादुर बेटा नारे लगाए-
 
इन्कलाब जिंदाबाद.
 
दि. 14 फरवरी 1931 को पंडित मदन मोहन मालवीय ने वायसराय को  दया की अपील में एक अर्ज़ी दी कि इन तीनों देश-भक्तों के  मृत्यु दंड को माफ़ कर के उम्र-कैद में बदला जाए.  16 फरवरी 1931 को किन्हीं जीवन लाल, बलजीत व शामलाल ने पंजाब उच्च-न्यायालय में अर्ज़ी दी, कि फांसी की तारिख  अक्टूबर की तय हुई थी,  वह कब की बीत चुकी और अब गठन के नियमों के अनुसार ट्रिब्यूनल का अस्तित्व ही नहीं है,  इसलिए अब मृत्यु-दंड देने का अधिकार किसी को भी नहीं है.  पर 20 फरवरी 1931 को वह अर्ज़ी भी खारिज हो गई..
 
इस के बाद देश की जनता लाखों की तादाद में सड़कों पर उतर आई.  जनता का वह जूनून भी इतिहास के पन्नों का एक जोशीला पन्ना है.  लाखों लोगों के ह्रदय भगत सिंह व उन के साथियों के प्रति श्रद्धा और सम्मान से भर उठे.  लाखों लोगों ने हस्ताक्षर कर के वायसराय को लिखा कि इन तीनों जवानों  ने  देश के लिए अपनी ज़िन्दगी होम कर दी,  अब इन्हें मृत्यु दंड क्यों?  देश-विदेश के अख़बारों के पृष्ठ-दर-पृष्ठ लेखों व अपीलों  से भरे थे,  यहाँ तक कि ब्रिटिश की अपनी संसद के कई सदस्यों ने  एक तार भेज कर  सरकार से अपील की कि यह फ़ैसला रोक दिया जाए.  इस के साथ पूरे देश की भावनाएं जुड़ी  हैं.  देश की दीवारें पोस्टरों से भर गई.  पर...
 
आज 23 मार्च है.  शाम सात बजे शहादत का सुनहला पन्ना लिखा जाना है. शहादत की स्याही से ये तीनों नौजवान भारत का सुनहला इतिहास लिखेंगे... भगत सिंह ने गवर्नर    को एक पत्र लिखा था कि  मुक़दमे के अनुसार हम सब ने मिल कर इंग्लैंड के राजा जॉर्ज पंचम के विरुद्ध एक जंग  छेड़ रखा है.  इस दृष्टि से हम तीनों योद्धा हैं.  इस लिए हम युद्ध-बंदी हैं.  इस लिए हमें फांसी के तख्ते पर चढ़ाने  की बजाय गोली से उड़ा दिया जाए!  यदि ऐसा होता तो भगत सिंह व उस के साथी नायक-महानायक की शहादत को हासिल होते न!  पर सरकार इनके इतने ऊंचे दर्जे को क्या सहन कर पाती!... 
 
अक्सर जब मेरी कल्पना में  यह दृश्य आता है, कि ये तीनों बहादुर जवान  जेल की कोठरी से निकल कर मृत्यु के फंदे  की तरफ़ बढ़ रहे हैं, और नारे लगाते हैं:
 
इन्कलाब जिंदाबाद,
 
जेल के सभी कमरों के कैदियों को यह पता चल जाता है कि अब शहादत की वह घड़ी आ गई है,  जब हमारे ये तीनों साथी हम से बिछड़ जाएंगे, और सब के सब कैदी भी जेल की दीवारों को दहला देने वाली आवाज़ में नारे लगाते हैं:
 
इन्कलाब जिंदाबाद,
 
तब मुझे  बिस्मिल की दूसरी मशहूर ग़ज़ल याद आती है -
 
उरूज़े-कामयाबी पर कभी हिन्दोस्ताँ  होगा 
रिहा सैय्याद के हाथों से अपना गुलिस्ताँ होगा.
(उरूज़े कामयाबी = कामयाबी का शिखर
 
यही इन तीनों का सपना था, कि देश कामयाबी के आसमान को छुए...
 
भगत सिंह ने 3 मार्च 1931 अपने भाई कुलतार को एक पत्र लिख कर उस की हिम्मत बढ़ाई थी कि अपना ख्याल रखना मेरे भाई.  उन्होंने जीवन की नश्वरता को ले कर भाई को लिखा:
 
मेरी हवा में रहेगी ख़याल की खुशबू
ये मुश्ते-ख़ाक है फानी, रहे न रहे
(The Trrial of Bhagat Singh: Politics of Justice by AG Noorani p 231).
 

 
यह जो शरीर है, यह तो एक मिट्टी का ढेला है , यह रहे न रहे.  पर हवा में मेरे विचारों की सुगंध बनी रहेगी!
 
इसी पत्र में भगत सिंह ने अपने भाई को एक और शेर की केवल दूसरी  पंक्ति लिखी, पहली नहीं:
 
खुश रहो अहले वतन हम तो सफर करते हैं.
(वही पुस्तक वही पृष्ठ)
 
यह शेर दर-असल अवध के नवाब वाजिद अली शाह ने उस समय अपने आलीशान महल की तरफ़ देख कर कहा था,  जब अंग्रेज़ों की गोरी पलटन उसे गिरफ्तार करने आई थी.  वाजिद अली शाह ने एक गहरी साँस ले कर अपने महल को देखा  और कहा:
 
दरो-दीवार पे हसरत की नज़र रखते हैं,
खुश रहो अहले वतन हम तो सफर करते हैं
 
भगत सिंह के मन में भारत-माता के चरणों में सर-फरोशी (अपना सर कुर्बान करने) के बाद कोई हसरत थी ही नहीं,  सो उन्होंने पहली पंक्ती लिखी ही नहीं.  पर मुझे लगता है, जब इन तीनों बहादुरों के चेहरे ढके जा रहे होंगे, और येइन्कलाब जिंदाबाद के नारे लगाते लगाते आँखें मूँद रहे होंगे, तब मृत्यु की कालिमा छा जाने के अन्तिम क्षण भी इन तीनों के मन में यही हसरत होगी:
 
जुदा मत हो मेरे दिल से कभी दर्दे-वतन हरगिज़ 
न जाने बाद मर्दन मैं कहाँ और तू कहाँ होगा.
(मर्दन = मृत्यु)
 
जीवन के अन्तिम क्षण के हज़ारवें हिस्से तक में भी मातृभूमि से प्यार बना रहे,  यही थी उन की हसरत! 
बिस्मिल आगे लिखते हैं:
 
ये आए दिन की छेड़ अच्छी नहीं ऐ खंजरे-कातिल
बता कब फ़ैसला उन के हमारे दरमियाँ होगा
 
वतन  की आबरू का पास देखें कौन करता है,
सुना है आज मकतल पर हमारा इम्तिहाँ होगा
 
देशकी करोड़ों जनता का उस समय हृदय   भी छलनी हो गया होगा, और सब की छाती गर्व से फूल भी रही होगी, ऐसे अनमोल सपूत पा कर, जो सदियों सदियों तक चराग ले कर ढूँढने पर भी नहीं मिलेंगे...
 
इस लेख-माला के अंत में भी  बिस्मिल का ही एक शेर याद आ रहा  है:
 
शहीदों के मज़ारों पर लगेंगे हर बरस मेले
वतन पे मरने वालों का यही बाक़ी निशाँ होगा...
 
जय हिंद
वंदे मातरम्
 
(अब  इस लेख-माला के परिशिष्ट के रूप में  गाँधी की निर्दोषिता पर चंद शब्द,  जो अगली बार.  आख़िर  गाँधी  का क्यों कोसा जाता है,  कि  उन्होंने इन तीनों को फांसी के तख्ते से बचाने की कोई कोशिश ही नहीं की? क्या सचमुच, गाँधी को कटघरे में खड़ा करना उचित है? या इस में भी अधिक खोज-बीन की ज़रूरत है? यह सब अगली बार.
 

Sunday, March 22, 2009

केरल में वर्षा से छोटी इलायची स्टाकिस्टों में घबराहट

पिछले दो दिनों से केरल के अनेक उत्पादक क्षेत्रों में हुई वर्षा ने छोटी इलायची स्टाकिस्टों में घबराहट पैदा कर दी है। स्टाकिस्ट फिलहाल भाव तो पूर्व स्तर पर बोल रहे हैं लेकिन मोल-भाव करने पर 5/10 रुपए प्रति किलो तक घटा कर बेचने को तैयार हैं।
व्यापारियों का कहना है कि यदि वर्षा एक सप्ताह जारी रहती है तो छोटी इलायची के भाव में 20/25 रुपए प्रति किलो तक की गिरावट आ सकती है लेकिन उसके बाद भाव फिर सुधर जाएंगे।
जानकारों का कहना है कि केरल के कुछ उत्पादक केंद्रों पर पिछले दो दिनों से वर्षा हो रही है। इससे पौधों को पानी मिलेगा और आगामी सीजन में छोटी इलायची का उत्पादन अधिक होने की आशा है। इससे स्टाकिस्टों में घबराहट है और वे भाव घटाकर भी माल बेचने को इच्छुक हैं। लेकिन धन की तंगी के कारण लेवाल सामने नहीं आ रहा है।
जानकारों का कहना है कि इस वर्षा से फसल को तो लाभ होगा लेकिन आवक प्रभावित हो जाएगी। इससे अगले माह भाव में फिर सुधार होने का अनुमान है क्योंकि स्टाक कम है।
व्यापारियों का कहना है कि इस समय दिल्ली बाजार में छोटी इलायची का स्टाक लगभग 4000 बोरी (एक बोरी 50 किलो) का स्टाक है जबकि गत वर्ष इसी अवधि में लगभग 6000 बोरी का स्टाक था। व्यापारियों के अनुसार नागपुर, पूणे, कानपुर, जयपुर, ग्वालियर आदि में छोटी इलायची का स्टाक गत वर्ष की तुलना में कम है।
इसी बीच, चालू वर्ष अगस्त 2008-जुलाई 2009 के दौरान छोटी इलायची का उत्पादन 1.10 करोड़ किलो होने का अनुमान है जबकि गत वर्ष यह 95 लाख किलो था।
चालू सीजन में अब तक नीलामी केंद्रों पर 74.75 लाख किलो छोटी इलायची की आवक हो चुकी है जबकि गत वर्ष इसी अवधि में 39.36 लाख किलो की आवक हुई थी। आवक अधिक होने के बावजूद इस वर्ष अब तक औसत भाव 517.04 रुपए प्रति किलो रहे जबकि गत वर्ष इसी अवधि मे भाव 488.76 रुपए प्रति किलो थे।
यही नहीं इस वर्ष छोटी इलायची का निर्यात भी अधिक हो रहा है। चालू वित्त वर्ष के पहले 10 महीनों यानि अप्रैल-जनवरी के दौरान 3025 लाख रुपए मूल्य कीर 475 टन छोटी इलायची का निर्यात किया गया जबकि गत वर्ष इसी अवधि में 1868.53 लाख रुपए मूल्य की 400 टन छोटी इलायची का निर्यात किया गया था। इस वर्ष निर्यात से प्रति किलो मूल्य 636.84 रुपए प्राप्त हुआ जबकि गत वर्ष इसी अवधि में 467.26 रुपए प्राप्त हुआ था।
जानकारों का कहना है कि इस वर्ष ग्वाटेमाला की छोटी इलायची के भाव ऊंचे होने के कारण भारत से अधिक मात्रा में इसका निर्यात किया गया।

राजेश शर्मा

Saturday, March 21, 2009

सोने का पिंजर (9)

नौवां अध्याय

अमेरिका में हिंदुस्तानी शान से हिंदी बोलता है....

हम अमेरिका हिन्दी सम्मेलन के निमित्त गए थे तो हिन्दी की बात भी करनी होगी। सच तो यह है कि पूरा अमेरिका घूम आइए आपको हिन्दी ही हिन्दी दिखाई और सुनाई देगी। इतने हिन्दुस्तानी वहाँ बसे हुए हैं और सभी को अपनी पहचान भी स्थापित और सुरक्षित रखनी होती है तब हिन्दी का ही सहारा रहता है। फिर जहाँ भारतीय हों वहाँ भारतीय खाना तो अवश्य ही होगा। शहर में कई-कई भारतीय रेस्ट्रा, वहाँ खाना भी हिन्दुस्तानी और भाषा भी हिन्दी। भारतीय खाने का जवाब नहीं और इसी कारण क्या अमेरिकी और क्या अन्य सभी वहाँ आते हैं। जब खाना खाने आते हैं तब कुछ न कुछ तो हिन्दी के प्रति आकर्षण पैदा हो ही जाता है। हिन्दी वहाँ खाने और फिल्मों के कारण ही पसन्द नहीं की जाती है, उसका एक ठोस कारण भी है। युवा दंपति आकर बस गए अमेरिका, कुछ दिन मौज-मस्ती कर ली, फिर बच्चे हो गए। जैसे ही बच्चे बड़े होने लगे कि डर सताने लगता है। कहीं ये अपनी भाषा नहीं भूल जाएं, अपने संस्कार नहीं भूल जाएं? हम तो भारत में अपने घर-परिवार को छोड़कर यहाँ आकर बस गए लेकिन यदि हमारे बच्चे पूर्णतया अमेरिकी बन गए तो फिर हमारा भविष्य क्या होगा? जिस राम की कथा को उन्होंने भुला दिया था उसी राम की कथा को वे अपने बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं। पिता का स्वार्थ है कि बच्चे अपने संस्कारों से जुड़े रहें इसलिए हिन्दी सीखे और बच्चों का स्वार्थ है कि हिन्दी फिल्में और गाना सुनना है तो फिर हिन्दी तो सीखनी ही पड़ेगी। बिना हिन्दी सीखे हिन्दी फिल्मों का आनन्द कैसे लिया जा सकता है?
इण्डियन कम्यूनिटी सेंटर पर कार्यक्रम चल रहा था, एक बच्चा बड़ा अच्छा गाना गा रहा था। उससे पूछा गया कि क्या तुम्हें हिन्दी आती है, तो वह बोला कि नहीं गाना याद कर लिया है। जब गाना याद हो गया है तब हिन्दी भी दबे पाँव उसके अन्दर उतर ही जाएगी। वहाँ सारा दिन हिन्दी और भारतीय ज्ञान की कक्षाएं लगती हैं। कोई हिन्दी सीख रहा है, कोई भारतीय शैली के विभिन्न नृत्य। फिर भारतीय बाजार इतना बड़ा है कि सभी को व्यापार करना है। इसलिए ही अमेरिका के प्रेसीडेन्ट कह उठते हैं कि हिन्दी नहीं सीखोगे तो पीछे रह जाओगे। हमारा युवा भारत में रहकर हिन्दी की उपेक्षा करता है, लेकिन वहाँ हिन्दी उसके लिए गौरव का विषय है। क्योंकि वही उसकी पहचान है।
विश्व हिन्दी सम्मेलन में सारे विश्व के प्रतिनिधि थे। जब चीन और जापान के प्रतिनिधि बोलने को खडे हुए तब आश्चर्य हुआ। मैंने मजाक में कहा कि यहाँ तो पता ही नहीं चलता कि कौन हिन्दी नहीं जानता, हम यदि किसी को ऐसा वैसा हिन्दी में कह दें तो ये तो सभी हिन्दी जानते हैं, फिर क्या होगा? मेरे साथ ही सम्मानित होने वालों की सूची में कोरिया की एक सुन्‍दर सी महिला थीं। मुझे उनसे हिन्दी में बात करने में संकोच हो रहा था। बड़ा अजीब सा लग रहा था, एक विदेशी महिला को हिन्दी बोलते हुए देखते। वहाँ कोई भी प्रतिनिधि अंग्रेजी में बात नहीं कर रहा था, जबकि हमारे भारत में लोग अंग्रेजी में बात करना अपनी शान समझते हैं। भारत में सभी को हिन्दी आती है लेकिन क्या टी.वी, क्या संसद सभी ओर अंग्रेजी छायी रहती है। वह तो व्यापारीकरण के कारण टी.वी. चैनलों को समझ आ गया है कि हिन्दी में ही सफलता का सूत्र छिपा है तो वे अब हिन्दीकरण में लगे हैं।
सम्पूर्ण अमेरिका में घूम आइए, उनकी संस्कृति के मूल चिंतन का दिग्दर्शन प्रत्येक क्रियाकलाप में आपको मिलेगा। वे प्रकृति के सिद्धान्त ‘सर्ववाइवल आफ द फिटेस्ट’ के पोषक हैं। वहाँ व्यक्ति अकेला है। उसे स्वयं को ही सारे कार्य करने हैं। आपका कोई सहयोगी नहीं। यदि आप ताकतवर नहीं, आत्मविश्वासी नहीं तो फिर आप वहाँ रह नही सकते। वहाँ पब्लिक ट्रांस्पोर्ट न के बराबर हैं अतः जब तक आप गाड़ी चलाना नहीं जानते आप घर से बाहर भी नहीं निकल सकते। कमसिन सी लड़कियां, जो हवा के झोंके से भी लहरा जाए, बड़ी-बड़ी गाड़ियां चलाती हैं। चलाती ही नहीं सरपट दौड़ाती हैं। वहाँ की अमूमन स्पीड है 80 मील प्रति घण्टा, कि.मी. की भाषा में कहें तो वहाँ गाड़ियां लगभग 125 से 150 कि.मी. प्रति घण्टे की रफ्‍तार से चलती हैं। सड़कों पर केवल गाड़ियां दौड़ती हैं, पुलिस भी दिखायी नहीं देती। आप रास्ता किसी से पूछ नहीं सकते, या तो आपकी गाड़ी में नेवीगेटर लगा हो या फिर आप मैप लेकर बैठे। वहाँ 99 प्रतिशत लोग अपनी गाड़ी रखते हैं केवल एक प्रतिशत लोग पब्लिक ट्रांस्पोर्ट का उपयोग करते हैं।
हम कई दिनों तक वहाँ घूमते रहे और हमें रेल कहीं दिखायी नहीं दी, आखिर हमने बेटे से पूछ ही लिया कि यहाँ की रेल तो दिखा दो। कुछ देर बाद ही उसने पास जाती दो डिब्बों की बस जैसी रेल दिखा दी। जो हमारे साथ ही शहर की सड़कों पर दौड़ रही थी, पटरी समानान्तर बिछी थी और रेल भी ग्रीन-रेड लाइट से रुकती-चलती थी। शहरों को भी आपस में जोड़ने के लिए रेलमार्ग है लेकिन वह बहुत ही कम है। उनमें भी यात्री गिने-चुने ही होते हैं। यही हाल बस का है, पूरी खाली या फिर एकाध सवारी को ले जाती हुई आपको दिख जाएगी। हमारे जैसा नहीं है कि घर से बाहर निकलो और रिक्शा, टेम्पो, बस सभी कुछ तैयार।
हाँ तो मैं वहाँ की संस्कृति के बारे में कह रही थी, जैसे वहाँ स्वयं को ही गाड़ी हाँकनी होती है वैसे ही आपको अपने पेट भरने के लिए सारे काम करने होते हैं। बाजार में न कोई दर्जी, न कोई जूते सीने वाला और न कोई मेकेनिक। यूज एण्ड थ्रो बस। हमारे यहाँ एक-दूसरे के लिए कार्य करने की प्रवृत्ति है, कोई कमाता है, कोई घर देखता है। अमेरिकन्स का तो खाना अलग तरह का होता है, तो सारी खटपट हो जाती है और शायद उन्हें तो आदत भी है। लेकिन भारतीयों की मुश्किल होती है, जब वे भारत से चलते हैं तब तक नौकर-चाकर, ड्राईवर आदि सभी होते हैं। लेकिन यहाँ अपना हाथ-जगन्नाथ। बुढ़ापे की कद्र वहाँ भी है, उनके लिए सुविधाएं भी खूब हैं लेकिन वे बूढ़े हैं इसलिए सरकार सुविधाएं देती हैं, वे परिवार के सम्मानित सदस्य हैं यह सोच नहीं है। लेकिन वे सब प्रसन्न हैं क्योंकि उन्होंने भारत नहीं देखा है। वे जब भारत के बारे में पढ़ते हैं तो उन्हें भी उत्सुकता होती है कि देखें कैसे परिवार होते हैं, जहाँ घर का मुखिया एक बूढ़ा दादा होता है।
कल तक वे भी परिवार के साथ ही रहते थे, लेकिन जैसे-जैसे आधुनिकता और अर्थ ने अपने पैर जमाए हैं, वैसे-वैसे परिवार टूटकर बिखरते जा रहे हैं। वहाँ एक आम नागरिक के जीवन में संघर्ष नहीं है। सभी कुछ उपलब्ध है। जो बनना चाहते हो, उस पर भी पाबंदी नहीं है। पढ़ाई के प्रति इतना आग्रह नहीं है। वहाँ का समाज अधिक पढ़ाकू बच्चे को पसन्द नहीं करता। इसीलिए खेलों के प्रति अधिक रूझान है। बच्चा खेले, कूदे या फिर कोई साहस का कार्य करे, वह ज्यादा अच्छा माना जाता है। पैसा जमा करना उनका शौक नहीं। क्या करेंगे पैसा जमा करके? सामाजिक उत्तरदायित्व कुछ नहीं। सरकार ही बुढ़ापे का सहारा है। पढ़ने के लिए लोन मिल जाता है। बस पाँच दिन कमाओ और दो दिन खर्च कर दो। आम अमेरिकी सोमवार से लेकर शुक्रवार तक काम करता है, लेकिन शुक्रवार की रात से रविवार तक पूर्ण आराम। शुक्रवार की रात जश्न की रात होती है। सड़कों पर गाड़ियां दौड़ती रहती है, पीछे बड़ी-बड़ी नावें बंधी हैं, साइकिले बंधी हैं, समुद्र किनारे कैम्प करेंगे, किसी जंगल में जाकर कैम्प करेंगे या फिर किसी होटल में जाकर दूसरे शहर रहेंगे। मुख्य शहर वहाँ डाउन टाउन कहलाता है, वहाँ शुक्रवार और शनिवार की रात को चले जाइए, दीवाली जैसा माहौल मिलेगा। लोग बैठे हैं, नाच रहे हैं, सिगरेट पी रहे हैं और क्लब में जाने के लिए लम्बी-लम्बी कतारों में लगे हैं। उस दिन दो-तीन बजे तक जश्न रहेगा। लेकिन सोमवार से फिर खामोशी, जीवन रात को आठ बजे ही थम जाएगा।
वहाँ नौकरी पर जाना भी मनमाना है, कोई सुबह सात बजे जा रहा है और फिर दिन में तीन बजे वापस आ रहा है और कोई दस बजे जाकर पाँच बजे। अधिकतर ऑफिस चौबीस घण्टे खुले रहते हैं तो काम अपने हिसाब से ही करते हैं। एक दिन रात्रि को हम भी बेटे के साथ उसके ऑफिस पहुँच गए। गेट पर कोई संतरी नहीं, चौकीदार नहीं। बस अपना कार्ड निकालिए और स्क्रेच कीजिए और गेट खुल जाएगा। वह हमें अपना ऑफिस दिखा रहा था, उसका एक साथी देर रात तक केबिन में बैठा था। वह बोला कि यार घर पर कोई है नहीं तो यहाँ ही आराम से बैठा हूँ, किताब पढ़ रहा हूँ। वहाँ अधिकतर सभी के केबिन होते हैं। मैंने पूछा कि तुम्हें कमरा कब मिलता है? वह बोला कि मेरे वाइस-प्रेसीडेन्ट भी बगल वाली केबिन में ही बैठते हैं। कोई छोटा नहीं कोई बड़ा नहीं। बस वेतन में बहुत अन्तर है। किसी को कुछ हजार डॉलर वेतन है तो कुछ को लाखों में। एक ही पद पर काम करने वाले लोगों में भी वेतन का अन्तर है। जिसका जैसा काम, उसका वैसा वेतन। कोई किसी का वेतन पूछता भी नहीं, क्योंकि यह आउट ऑफ एटिकेट है। क्या पता पूछ ले तो हमारे जैसे हड़ताल हो जाए? खैर हम सारा ऑफिस देखकर बाहर आ गए। जैसे ही उसके कक्ष से निकलकर गैलेरी में बाहर आए, मालूम पड़ा कि उसका कार्ड अन्दर ही रह गया। अब क्या हो? बाहर तो निकल सकते हैं, लेकिन वापस अन्दर नहीं जा सकते। उसने कहा कोई बात नहीं सुबह किसी के साथ भी अन्दर चला जाऊँगा। नहीं तो इमरजेन्सी में दूसरा कार्ड बनवाना पड़ेगा। वहाँ आपके पास कार्ड नहीं है तो आप कहीं भी प्रवेश नहीं कर सकते।
रात्रि भोज का रिवाज नहीं, सब आठ बजे पहले-पहले खाना खा लेते हैं। अमेरिकन रेस्ट्रा आठ बजे बन्द। सूर्य छिपता है कहीं नौ बजे और कहीं साढ़े आठ बजे। यहाँ भी भारतीय अपनी चलाते हैं, उनके रेस्ट्रा बन्द होंगे रात्रि दस बजे। किसी भी अमेरिकन को रात्रि में आठ बजे बाद फोन करना अनुशासनहीनता कहलाती है। मन में प्रश्न उचक-उचक कर आता है, कि हम भारतीयों ने देर रात तक जागना किससे सीखा? क्यों हम कहते हैं कि पश्चिम की नकल कर रहे हैं? पश्चिम में केवल दो दिन देर रात तक जागने का रिवाज है, बाकि सब कुछ मर्यादित। हमारे यहाँ तो रोज ही रात्रि में दस बजे बाद दिन शुरू होता है। रोज ही हुल्लड़, वह भी सड़कों पर। वहाँ कहीं भी शोर नहीं। होर्न बजाना तो जैसे अपराध। न कोई लाउड-स्पीकर न कोई बैण्ड-बाजे। कॉलोनियों में तो सातों दिन ही सन्नाटा पसरा रहता है।
हम जैसे भारतीयों की तो जीभ ही सूख जाती है। आलोचना रस तो गोंद जैसे सूख कर हलक में अटक जाता है। किससे बात करें? सब आते-जाते केवल मुस्कराहट फेंकते हैं। ज्यादा से ज्यादा गुडमार्निग बस। भारतीय तो कुछ भी आदान-प्रदान नहीं करते। मैंने पूछ ही लिया इसका कारण कि अमेरिकन तो गुडमार्निंग करता है और भारतीय मुँह फेर कर क्यों चलता है? उत्तर बड़ा ही मजेदार था, यहाँ भारतीय एम.वे. वालो से बड़े डरे हुए हैं। जरा सा मुस्करा दो, एम.वे. वाला एजेन्ट आपको धर दबोचेगा। भई इनसे दूर ही रहो, अपनी नौकरी के लिए अपना देश छोड़कर आए हैं और यहाँ अपनी नौकरी छोड़कर इनके तैल-शैम्पू बेचो। एक पर्यटक स्थल है ‘येशूमिटी’ हम वहाँ गए। सुबह जल्दी उठकर पैदल ही पहाड़ पर चढ़ना था, रास्ते में अमेरिकन्स मिलते गए और गुडमार्निंग होती रही। हमने सोच लिया था कि भारतीय मिलने पर हम भी नमस्ते करेंगे। दो भारतीय लड़के मिल गए, हमने दूर से कहा कि ‘नमस्ते’। अब उनके चौंकने की बारी थी, उन्होंने भी बड़े गर्व से कहा नमस्ते। हिन्दी सुनकर लगा कि उनकी आत्मा तक खिल उठी है। मुझे लगा कि हमने नाहक ही संकोच बना लिया है और दूरियां भी। लेकिन पास लाने का काम मन्दिर और कम्यूनिटी सेन्टर कर रहे हैं। सारे भारतीय रोज ही एकत्र होते हैं और सब मिलकर सारे ही त्यौहार मनाते हैं। मज़ेदार बात तो यह है कि पाकिस्तानी भी वहाँ आ जाते हैं। एक दिन इण्डियन कम्यूनिटी सेंटर पर एक सज्जन गाना गाने खड़े हुए और गाना था ‘मेरा जूता है जापानी’ फिर परिचय दिया कि मैं पाकिस्तानी हूँ। वहाँ हिन्दुस्तान और पाकिस्तान से अधिक एशियन ज्यादा प्रचलित नाम है।

डॉ अजित गुप्ता

Thursday, March 19, 2009

फिर भी कुंवारे रह गये अटलजी...

लोकसभा चुनाव : यादों के झरोखे से

चुनाव की प्रतीक्षा शायद लोकतान्त्रिक देश के हर नागरिक को बेसब्री से रहती है. पर मुझे यहाँ कुछ बेहद दिलचस्प और सच्ची सच्ची बातें याद आ रही हैं, जो मुझे भूलती ही नहीं हैं. सच्ची!
सन 80 के चुनावों की बात है. चौधरी चरण सिंह की सरकार गिरने के बाद मध्यावधि चुनाव हो रहे थे. हर आदमी की तरह मुझे भी बेसब्री से इंतज़ार था, यह जानने का कि अब की सरकार किस की बनेगी आख़िर. मैं एक दिन दिल्ली की सड़कें नाप रहा था, यह देखने के लिए की चुनाव की तैयारियों की सरगर्मी कहाँ तक पहुँची. एक जगह मैं एक दीवार की तरफ़ बढ़ रहा था, जहाँ पहले जब भी आता था, तो एक Matrimonial कंपनी का विज्ञापन मोटे मोटे व काले अक्षरों में छपा होता था “योग्य जीवन साथी के लिए, संपर्क करें डी सी अरोड़ा Matrimonials, 28 रेगड़पुरा दिल्ली”.
पर समय के साथ उस के अक्षर काफ़ी फीके भी पड़ चुके थे. उस पर हुआ यह कि उसको मिटाने की कोशिश कर के उस पर भारतीय जनता पार्टी ने अपना चुनावी विज्ञापन मोटे काले अक्षरों में छाप दिया था. पर पुराना विज्ञापन पूरी तरह मिटा कहाँ था! और उस पर चुनाव का विज्ञापन! मैं दीवार के नज़दीक पहुँचते पहुँचते उस पर लिखे को पढने की निरंतर कोशिश करता जा रहा था. ऊपर तो यही लिखा था, योग्य जीवन साथी के लिए...
पर दीवार के एकदम सामने पहुँचा तो हैरान था. पुराना नया विज्ञापन मिल कर कुछ इस तरह पढ़े जा रहे थे:
योग्य जीवन साथी के लिए
नई दिल्ली से
अटल बिहारी वाजपेयी
को चुनें!

बहराहाल, मुझे फ़िर सन 77 के चुनावों की भी एक बात याद आ गई. सन 77 में क्या हुआ था कि इंदिरा गाँधी के विरुद्ध देश में आक्रोश की लहर फ़ैल गई थी, क्यों कि पिछले 19 महीने से देश की सभी प्रमुख विरोधी पार्टियों के नेताओं को इंदिरा सरकार ने गिरफ्तार कर रखा था. सन 75 में देश में आपातकाल की घोषणा होते ही सब विरोधी नेता गिरफ्तार हो गए थे. पर ज्यों ही चुनाव घोषित हुए, और नेताओं को जेलों से निकाला गया तो सभी पार्टियों ने मिल कर एक नई पार्टी बनाई 'जनता पार्टी'. चुनाव में इस पार्टी की तूफानी लहर थी. मैं तब सोनीपत में तैनात था. हर दूसरे तीसरे दिन दिल्ली भाग आता था. चुनावी तैयारियों की रौनक देखने के लिए. एक दिन मैं ट्रेन से सब्ज़ी मंडी स्टेशन उतर कर राजेन्द्र नगर अपने घर जाने के लिए एक मिनी बस में बैठ गया. बस खचाखच भरी थी पर सौभाग्य से सब से पिछली, छह मुसाफिरों वाली सीट से ज्यों ही एक मुसाफिर उठा, मैंने लपक कर उस सीट पर कब्ज़ा कर लिया. काफ़ी सिकुड़ कर बैठना पड़ा. दम घुट सा रहा था. पर राहत पाने को ज्यों ही थोड़ी सी हवा मिली तो मैं अच्छी तरह बैठ कर पास बैठे एक सरदार लड़के जो किशोरावस्था में था, से चुनाव की बातें करने लगा. मैंने कहा - 'कहो भाई, यहाँ दिल्ली में किस का ज़ोर है? लड़का उत्तेजना में शुरू हो गया - 'सत्तों दी सत्तों जनता पार्टी!'

मैं बोला कैसे?
वह उसी उत्तेजना में बोलता गया - 'समझ लो नई दिल्ली से वाजपेयी जित्ते-जिताए! चांदनी चौक से सिकंदर बख्त को कोई हराने वाला पैदा नहीं हुआ. जी, करोल बाग़ की सीट भी अपनी ही समझो. साउथ दिल्ली बाहरी दिल्ली पूर्वी दिल्ली पश्चिमी दिल्ली! सब अपनी ही हैं जी!
मैंने अपनी अक्कलमंदी दिखने की कोशिश की. उसे रोकते हुए कहा - अरे भाई चुनाव है, अभी से क्या भरोसा!

मेरी बात पर उस किशोर का जैसे दिल टूट गया. मुझ से जबरन दूर सरकता और किसी और ही दिशा में देखता हुआ मायूस सा बोला - फ़िर तुसी पुछिया ही क्यों?
मैं सचमुच, चुनाव की लहर में अपनी अक्कलमंदी दिखाने की कोशिश का नतीजा देख रहा था. उस लड़के की मायूसी पर फ़िर वही प्रश्न था - फ़िर तुसी पुछिया ही क्यों...

अब चुनाव 2009 में कोई wave ही नहीं है….. खूब बोरियत होती है ना!

प्रेमचंद सहजवाला

Wednesday, March 18, 2009

खंडहर होता सूर्य का रथ

पिछले दिनों पुरी की यात्रा के बारे में आपसे जिक्र किया। पुरी से आधा घंटा और भुवनेश्वर से करीबन डेढ़ घंटे दूरी पर स्थित है कोणार्क। पुरी और कोणार्क दोनों ही समुद्र तट से सटे हुए हैं। आज आपको कोणार्क लेकर चलूँगा। सूर्य भगवान को समर्पित यह मंदिर पूर्व की ओर मुख करे हुए है। कहते हैं पहले समुद्र की लहरें इस मंदिर के द्वार को छूती थीं लेकिन अब सागर इससे तीन किलोमीटर दूर हो गया है और बीच में आ गये हैं पेड़ व दुकानें। कोणार्क, कोण व अर्क (सूर्य) की संधि से बना एक शब्द है। सन १२५० में बने सूर्य को समर्पित इस मंदिर को राजा नरसिंह देव ने बनवाया।





इस की संरचना रथ के समान है जिसमें १२ जोड़ी पहिये लगे हुए हैं और इसे ७ घोड़े खींच रहे है। जी हाँ घोड़े....



शायद ही कोई एक घोड़ा आपको पूरा दिखाई देगा।

इस मंदिर की खासियत यह भी है कि यहाँ आप सूर्य की किरणों से समय जान सकते हैं। १२-१२ चक्र १२ महीनों के शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष के बारे में बताते हैं।



मंदिर परिसर में अंदर घुसते ही आपको दो मूर्तियाँ दिखेंगी। ज़रा गौर से देखिये।



सबसे नीचे इंसान, उसके ऊपर हाथी और फिर शेर। गाइड ने बताया कि हाथी लक्ष्मी को दर्शाता है और सिंह शक्ति को। इसका अर्थ यह हुआ है कि जब व्यक्ति के पास लक्ष्मी और शक्ति दोनों आ जाती हैं तो उसको घमंड हो जाता है और उसकी हालत असहाय व्यक्ति की तरह हो जाती है जैसा कि आप चित्र में देख पा रहे हैं।

इस दिशा द्वार को सिंह द्वार भी कहा जाता है। सिंह कहाँ है, इसके बारे में बाद में बताऊँगा।

मंदिर में सीमेंट का इस्तेमाल नहीं हुआ था। इस मंदिर के पत्थरों को लोहे से जोड़-जोड़ कर बनवाया गया। समुद्री हवाओं से मंदिर टूटता जा रहा है और इसी के मद्देनज़र पहले १९०३ में इसको ठीक करवाया गया और फिर बाद में १९८५ में इसकी मरम्मत हुई।



जमीन पर अंकित १९८५....



और ये १९०३..



मंदिर के अंदर आप घुस नहीं सकते क्योंकि उसको पत्थरों और सीमेंट से भरा जा चुका है। यदि उन खम्भों को निकाला गया तो मंदिर कभी भी ढह सकता है।



मंदिर में कुछ लोहे के खंभे लगे हुए थे वे अब एक ओर रखे गये हैं। खासियत यह कि इस पर जंग नहीं लगाया हुआ है और इसे देखने वैज्ञानिक भी आते हैं। जमीन से कुछ लोहे के टुकड़े अब निकाल दिये गये हैं।



स्तम्भों पर मूर्तियों की नक्काशी देखिये।



अब जरा मंदिर के प्रवेश द्वार को देखिये। बाईं और दाईं ओर आपको घोड़े दिख रहे होंगे जो रथ को खीच रहे हैं। यदि दिक्कत है तो आपको नीचे के चित्रों में दिखाई देंगें।



यहाँ कुछ नहीं है... जो थे वो अब नहीं हैं...



मंदिर की शिल्पकारी को तीन भागों में बाँटा जा सकता है। सबसे नीचे आपको छोटे-छोटे हाथी बने हुए दिखाई देंगे। बच्चों को जानवरों की कहानियाँ पसंद होती हैं और उन्हें हाथी घोड़े अपनी ओर आकर्षित करते हैं। इसलिये उनके लिये राजा ने सबसे नीचे ऐसी ही नक्काशी करवाई।



बीच में आपको यौवन दिखाई देगा। कामसूत्र से प्रेरित उसकी विभिन्न मुद्रायें दर्शाती ये मूर्तियाँ जीवन के दूसरे पड़ाव को बताती हैं।



सबसे ऊपर हैं देवी-देवताओं की मूर्तियाँ। वृद्धाश्रम में इंसान ईश्वर का स्मरण करता है इसलिये राजा ने सबसे ऊपर उन्हीं की मूर्तियाँ बनवाई। इस तरह पूरी हुई इंसान की जीवन यात्रा।



कालचक्र जिससे आप समय पता लगा सकते हैं।



पहियों के बीचों बीच लगे पत्थर की परछाई खम्भे के जिस हिस्से पर पड़ती है उससे समय की गणना होती है। चित्र के दाईं ओर पूरब है जहाँ से शुरु में सूर्य की किरणें आयेंगी। चक्र में ६ का अंक उस जगह है जहाँ हमारी घड़ी में ९ का अंक होता है। इस तरह पहली परछाई उसी पर पड़ेगी उसके बाद घड़ी की सुई से विपरीत दिशा में उसके अंक चलते हैं। चक्र के चारों ओर बिंदु हैं जिनके बीच की दूरी तीन मिनट के बराबर होती है। इसी गणना के सहारे समय निकाला जाता है।


इन चक्रों के मध्य भी आपको युवतियों और देवी-देवताओं की आकृतियाँ दिखाईं पड़ जायेंगी।


यह है अश्व द्वार



यहाँ मंदिर की मरम्मत का काम चल रहा है। समुद्री हवा के थपेड़ों ने मंदिर को बेजान सा कर दिया है।



परिसर का तीसरा भाग... जो आप देख रहें हैं वो अब अपनी ऊँचाई का आधा हो चुका है। ऊपरी हिस्सा ढह चुका है।



ढही हुई कुछ और दीवारें।



ये सिंह द्वार का टूटा हुआ शेर....सिंह जंगल का राजा होता है... पर यहाँ....



गज द्वार... दोनों हाथी अब तक सही सलामत...कमाल है!!



बहुत मुश्किल से मंदिर को सम्भाल कर रखा हुआ है। उड़ीसा की मूर्तिकला को प्रदर्शित करता यह मंदिर अपने आप में अनूठा है। सरकार इस खंडहर होते मेंदिर को बचा ले तो ये बहुत बड़ी कामयाबी होगी। हमारे देश में वैसे भी इन ऐतिहासिक इमारतों व मंदिरों को कोई नहीं पूछता, वरना आमेर जैसे कितने ही किले और कोणार्क जैसे मंदिर असहाय से धूप में खड़े पथरीली आँखों से हमारी ओर नहीं ताकते.....

ओड़िशा से तपन शर्मा

Tuesday, March 17, 2009

पुरुषों के विरुद्ध एक अविश्वास प्रस्ताव...

उस दिन मैं अचानक क्या कह गया, यह मेरी भी समझ में नहीं आया। अवसर था स्त्री-विमर्श पर केंद्रित ब्लॉग ‘चोखेर बाली’ की पहली वर्षगांठ पर दिल्ली विश्वविद्यालय में आयोजित एक विचार बैठक का। मधु किश्वर और सुकृता पॉल बोल चुकी थीं। दोनों के ही भाषण बहुत अच्छे थे। दोनों ने ही स्त्री अस्मिता के मुद्दों पर गहराई से विचार किया था। उनके बाद अपनी बात कहते हुए मैंने पहले तो इस पर आश्चर्य व्यक्त किया कि यहां मैं अकेला पुरुष वक्ता हूं। इस पर ‘चोखेर बाली’ की संचालिकाओं में एक सुजाता ने स्पष्ट किया कि हमारे ब्लॉग पर पुरुष भी लिखते हैं। मुझे यह बात मालूम थी, क्योंकि मैं भी उनमें एक हूं। फिर, मैंने कहा कि स्त्री विमर्श सिर्फ पुरुषों का मामला हो भी नहीं सकता, क्योंकि अगर यह सभ्यता विमर्श और सभ्यता समीक्षा है, तो पुरुषों की सहभागिता के बिना यह काम कैसे पूरा हो सकता है? आगे मैंने कहा कि यह भी उल्लेखनीय है कि नारी अधिकारों को प्रतिष्ठित करने में पुरुष लेखको, नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं की मूल्यवान भूमिका रही है। यह भी कि ऐसे असंख्य पुरुष हुए हैं जिनमें स्त्री के गुण थे और ऐसी स्त्रियां भी कम नहीं हुई हैं जिनका व्यक्तित्व पुरुष गुणों के कारण विकृत हुआ है। इसी संदर्भ में मैंने कहा कि स्त्री विमर्श में पुरुषों को खुल कर सहभागी बनाइए और बनने दीजिए, लेकिन स्त्री-पुरुष संबंधों के इतिहास को देखते हुए पुरुषों पर विश्वास कभी मत कीजिए। वे कभी भी धोखा दे सकते हैं और अगर यह धोखा उन्होंने मित्र बन कर दिया, तो यह और भी बुरा होगा।

बात कुछ हंसी की थी और हंसी हुई भी, पर विचार करने पर लगा कि बात में दम है। एक बहुत पुरानी मान्यता है कि स्त्री-पुरुष का साथ आग और फूस का साथ है। दोनों निकट आएंगे, तो फूस का भभक उठना तय है। आजकल के लोग इस तरह की मान्यताओं की खिल्ली उड़ाते हैं। उनका कहना है कि यह बेहूदा बात इसलिए फैलाई गई है ताकि स्त्रियों को बंधन में रखा जा सके। मैं इस स्थापना से पूरी तरह सहमत नहीं हूं। पुरुष से अधिक कौन जानता होगा कि स्त्री को देख कर पुरुषों के मन में सामान्यत: किस प्रकार की भावनाएं पैदा होती हैं। इसलिए अगर उन्होंने आग और फूस को दूर-दूर रखने का फैसला किया, तो यह बिलकुल निराधार नहीं था। इसके साथ-साथ होना यह चाहिए था कि ऐसी समावेशी संस्कृति का विकास किया जाता जिसमें स्त्री-पुरुष के बीच की सामाजिक और सांस्कृतिक दूरी घटे और दोनों मित्र भाव से जी सकें। दुर्भाग्यवश ऐसा हो नहीं सका। पुरानी, रूढ़िवादी संस्कृति चलती रही, बल्कि कहीं-कहीं उग्र भी हो गई, और उसके प्रति विद्रोहस्वरूप आधुनिक संस्कृति का भी विकास होता रहा, जिसमें स्त्री-पुरुष के साथ को खतरनाक नहीं, बल्कि अच्छा माना जाता है। पुरानी संस्कृति में स्त्री के शील की रक्षा उस पर पहरे बिछा कर, उसे उपमानव बना कर की जाती थी, जैसा आज के तालिबान चाहते हैं, तो दुख की बात यह भी है कि आधुनिक संस्कृति में स्त्री का उपयोग उपभोक्तावाद को बढ़ाने और कामुकता का प्रचार करने में हो रहा है तथा बलात्कार या इसकी आशंका से उसे परिमित और खामोश करने की कोशिश की जा रही है। जरूरत बीच का रास्ता निकालने की है, जहां प्रेम भी हो, निकटता भी हो और मानव अधिकारों का सम्मान भी।

‘चोखेर बाली’ की विचार-बैठक के हफ्ते भर बाद सुजाता ने उनके अपने ब्लॉग ‘नोटपैड’ पर किसी अज्ञात व्यक्ति द्वारा भेजी गई यह टिप्पणी मुझे अग्रेषित की : ‘सविता भाभी के बहाने स्त्री विमर्श का डंका पीटनेवाले ब्लॉगर पत्रकार आकाश (मूल नाम बदल दिया गया है) जी के सारे स्त्री विमर्श की कलई उस समय खुल गई, जब उन्होंने माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय की एक छात्रा के साथ, जहां अभी कुछ दिनों पहले वे क्लास लेने जाते थे, के साथ जबरदस्ती करने की कोशिश की। लड़की की तबीयत ठीक नहीं थी। उन्होंने उसे किसी काम के बहाने ऑफिस में बुलाया और फिर उसके लाख मना करने के बावजूद उसे अपनी नई कार से उसे घर छोड़ने गए। फिर वहां उसे चुपचाप छोड़ कर आने के बजाय लगभग जबरदस्ती करते हुए उसका घर देखने के बहाने उसके साथ कमरे में गए। लड़की मना करती रही, लेकिन संकोचवश सिर्फ ‘रहने दीजिए सर, मैं चली जाऊँगी’ जितना ही कहा। वे उसकी बात को लगभग अनसुना करते हुए खुद ही आगे आगे गए और उसका घर देखने की जिद की। लड़की को लगा कि पांच मिनट बैठेंगे और चले जाएंगे। लेकिन उनका इरादा तो कुछ और था। उन्होंने घर में घुसने के बाद जबरदस्ती उसका हाथ पकड़ा, उसके लाख छुड़ाने की कोशिश करने के बावजूद उसे जबरदस्ती चूमने की कोशिश की। लड़की डरी हुई थी और खुद को छुड़ाने की कोशिश कर रही थी। लेकिन इनके सिर पर तो जैसे भूत-सा सवार था। आकाश ने उस लड़की को नारी की स्वतंत्रता का सिद्धांत समझाने की कोशिश की, ‘तुम डर क्यों रही हो। कुछ नहीं होगा। टिपिकल लड़कियों जैसी हरकत मत करो। तुम्हें भी मजा आएगा। मेरी आंखों में देखो, ये जो हम दोनों साथ हैं, उसे महसूस करने की कोशिश करो।’ डरी हुई लड़की की इतनी भी हिम्म्त नहीं पड़ी कि कहती कि जा कर अपनी बहन को क्यूं नहीं महसूस करवाते। लड़की के हाथ पर ख्ररोंचों और होठ पर काटने के निशान हैं। लड़की अभी भी बहुत डरी हुई है।’

यह घटना कितनी सत्य है और कितनी मनगढ़ंत, पता नहीं। लेकिन भारत में ही नहीं, दुनिया के एक बड़े भूभाग में इस तरह की घटनाएं सहज संभाव्य हैं और होती ही रहती हैं। इसीलिए मेरा यह विश्वास बना है कि स्त्रियों को पुरुषों पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए – चाहे वे गुरु हों, शिक्षक हों, चाचा, मामा, मौसा-ताऊ हों, मुंहबोले भाई हों, पड़ोसी हों, मेहमान हों, शोध गाइड हों, संपादक हों, प्रकाशक हों, अकादमीकार हों, नियोक्ता हों, मैनेजर हों, पुजारी हों, पंडे हों – कुछ भी क्यों न हों। कई हजार वर्षों की मानसिकता जाते-जाते ही जाएगी। इस संक्रमण काल में स्त्री को बहुत अधिक सावधान रहने की जरूरत है – खासकर अपने शुभचिंतकों से। इसका मतलब यह नहीं है कि हर पुरुष को संदेह की नजर से देखो। इससे तो सब कुछ कबाड़ा हो जाएगा। नहीं, किसी पर भी अनावश्यक संदेह मत करो। विश्वास का अवसर हरएक को दिया जाना चाहिए। लेकिन सावधानी का दीपक हाथ से कभी नहीं छूटना चाहिए। दीपक बुझा कि परवाना लपका।

वैसे, जीवन के एक सामान्य सिद्धांत के तौर पर भी यह सही है। पुरुष पुरुष पर कितना विश्वास करते हैं? स्त्री स्त्री पर कितना विश्वास करती हैं? जहां आत्मीयता होती है, वहां भी लोग ठगे जाने से बचने की कोशिश करते हैं। यह सावधानी स्त्री-पुरुष व्यवहार में और ज्यादा अपेक्षित है, क्योंकि अब तक के इतिहास की सीख यही है। इसलिए माता-पिता और अभिभावकों का यह एक मूल कर्तव्य है कि वे लड़की को लड़की के रूप में विकसित होते समय ही उन फंदों और गड्ढों से अवगत कराते रहें जो आगे उसकी राह में आनेवाले हैं। इसके साथ ही, उसे निर्भय होने और स्व-रक्षा में सक्षमता की शिक्षा भी देनी चाहिए। लेकिन इस कीमत पर नहीं कि मानवता में ही उसका विश्वास डिग जाए। बहुत ही प्रेम और समझदारी से उसमें यह बोध पैदा करना होगा कि लोग सभी अच्छे होते हैं, पर हमेशा सचेत रहना चाहिए कि वे बुरे भी हो सकते हैं। लड़कियों को यह सीख भी दी जानी चाहिए कि यह बहुत गलत होगा अगर अति सावधानी के परिणामस्वरूप वे किसी पुरुष से आत्मीय रिश्ता बना ही न पाएं। घृणा तो किसी से भी न करो – ज्ञात पापी से भी नहीं, सभी को प्रेम और विश्वास दो, पर अपनी सुरक्षा की कामत पर नहीं। हर संबंध की तरह स्त्री-पुरुष संबंध भी एक जुआ है, लेकिन यह जुआ खेलने लायक है, क्योंकि इसी रास्ते हम अपने मनपसंद साथी खोज सकते हैं। इस प्रक्रिया में दुर्घटनाएं होती हैं, तो होने दो। डरो नहीं, न परिताप करो। लेकिन आंख मूंद कर उस रास्ते पर कभी मत चलो जिसके बारे में तुम्हें पता नहीं कि उस पर आगे क्या-क्या बिछा और फेंका हुआ है। यह संतुलन साधना मामूली बात नहीं है, लेकिन अच्छा जीवन जी पाना भी क्या मामूली बात है?

राजकिशोर
(लेखक इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में वरिष्ठ फेलो हैं)

Monday, March 16, 2009

अब जागे भूपेंद्र जी, खुले हमारे भाग....

दरअसल, हुआ यूं कि हिंदयुग्म के भूपेंद्र राघव होली के दिन से ही भांग खाकर ऐसे लोटे कि उनकी नींद अब जाकर खुली.....जब खुली तो उन्होंने बैठक पर भी नज़र दौड़ाई....फिर, जो कुछ बन पड़ा, होली का संदेश स्वरूप हमें लिख भेजा...बैठक पर फाग की खुमारी अब भी बची है....आप भी डोलिए हमारे साथ....

1. खबरों से ली खबर सभी की,लेकर होली आड़ ।
एक साँड ने शैलेश जी को कैसे दिया पछाड ?
कैसे दिया पछाड नहीं कोई धींगा मुस्ती ।
स्पेन जाकर जीत रहे हर बार वो कुश्ती ॥
गलत खबर है नीलम जी यह सोलह आने ।
हैप्पी होली, मैं भी आया गुजिया खाने ॥

2. तपन डुबोने चल दिये सकल उडीसा आज ।
कैसी कैसी हैं खबर , हे मेरे महाराज ॥
हे मेरे महाराज, हालात बडे बे-काबू ।
मुश्किल में आ गये आज पटनायक बाबू ॥
तपन श्री पर हाये कैसा आक्षेप लगाया ।
सच्ची झूठी जैसी भी बस खबर की माया ॥

3. आचार्य जी की बात पढ़ी लो माँथा ठिनका ।
एक एक दोहा शेर समान बलवान है जिनका ॥
आज मल्लिका शेरावत से क्यूँ कर मीटिंग..।
अगर हकीकत यही तो भैया सचमुच चीटिंग ॥
कैसे करूँ विश्वास, आचार्य जी आख मींचकर ।
आखिर कर दी लम्बी आचार्य जी की टांग खींचकर॥

5. खुद-खुशी से खुद-कुशी करन चले इसबार ।
टाँग अडाई पुलिस ने पाकर मौका यार ॥
पाकर मौका यार, यहाँ पर सब शैतानी ।
हमको दिया धकेल, जब भी जाने की ठानी ॥
कर ना लें हम कब्जा स्वर्ग पर पहले जाकर ।
दिया प्रलोभन नीलम जी ने हमको आकर ॥
इस होली में अपनी बल्ले बल्ले होली ।
हैप्पी गुजिया होली कि हैप्पी भल्ले होली ॥

6. टर्र टर्र करने लगे कितने सारे जीव ।
ये सुर है या ताल है सोचें खडें सजीव ॥
सोचे खडे सजीव अजीब स्चिवेशन भाई ।
कैसे कविता करें जान पर अब बन आई ॥
टर्र टर्र संगीत बने ऐसा प्राकृतिक ।
कर्णप्रिय हो जाये, शब्द कुछ ऐसे अब लिख ॥
बने समस्या एक समौसा खाये जाओ ।
हैप्पी होली हैप्ली होली गाये जाओ ॥

7. हों प्रवासी वो भले , दिल में बसते आज ।
होता बहुत लुभावना अपने घर का नाज ॥
अपने घर का नाज भूख प्रबल हो जाती ।
इसीलिये तो दूर देश से खुशबू आती ॥
आने दो , आ जाओ भैया बहुत स्वागत ।
नीलम,निखिल भुगतान करेंगे सारी लागत ॥
एक प्लेन से एक ही बन्दे को आना है ।
हैप्पी होली , हमको भी गुजिया खाना है ॥

8. तीन दिनों से भूपेन्द्र (राजा इन्द्र) का
हिल रहा था सिंहासन..
या छप रहा पंजाब केसरी, या नी. नि.(नीलम निखिल) प्रकाशन..
हालांकि अखबार हो गया आज 3 दिन बासी
लेकिन दिल गद-गद हो बैठा,खबरें अच्छी खासी

फ़्रंट पेज पर नाम देखकर मन में उठी उमंग
उपर से अठखेलिया संग होली के रंग

बाइक मेरी हो गयी , उडने को तैयार
पीछे बैठत डर रहे , सब कितने बेकार

मन बुझा तो क्या हुआ साईलेंसर में आग
वही बैठ सकता यहाँ जिसका अच्छा भाग

अपने दिल का कीजिये पॉल्यूशन कंट्रोल
ऐसे यूँ ना देखिये करके आखें गोल

-शेष अगले अंक में....

बुरा ना मानो होली है...:)

सभी को होली की बहुत बहुत बधाई... (ये अगले साल की नहीं,इसी साल की बधाई है....)

Sunday, March 15, 2009

मंदी में कम चीनी खाना ही मुनासिब...

चीनी के भाव तेजी के रथ पर सवार हैं। सरकार बढ़ते भाव से परेशान है क्योंकि चुनाव आ रहे हैं। हालांकि 28 फरवरी को समाप्त हुए सप्ताह के दौरान महंगाई की दर घट कर 2.43 प्रतिशत पर आ गई लेकिन खुदरा बाजार में चीनी के भाव में कोई कमी नहीं आ रही है। सरकार इसी बात से परेशान है। सरकार चीनी के भाव रोकने के लिए हर संभव प्रयास कर रही है लेकिन भाव कुछ रुकते हैं लेकिन कुछ समय बाद ही बढ़ने आरंभ हो जाते हैं। या तो भाव कम नहीं होते हैं और यदि कम भी होते हैं तो तुरंत ही उससे अधिक बढ़ जाते हैं।

चीनी कम है, चीनी कम है...
वास्तव में अक्टूबर से आरंभ हुए चालू चीनी वर्ष 2008-09 में अब तक चीनी के भाव में लगभग 35 प्रतिशत की तेजी आ चुकी है। तेजी का कारण इस वर्ष उत्पादन में भारी कमी होना है। एक अनुमान के अनुसार चालू वर्ष के दौरान चीनी के उत्पादन में लगभग 100 लाख टन की कमी आने की आशंका है। गत वर्ष देश में चीनी का उत्पादन 264 लाख टन हुआ था लेकिन इस वर्ष घट कर केवल 165 लाख टन ही रह जाने का अनुमान है। हालांकि सरकार का कहना है कि पिछले वर्ष का बकाया स्टाक मिलाकर देश में चीनी की कुल उपलब्धता मांग से अधिक ही रहेगी लेकिन व्यापारी व मिल मालिक सरकार की इस बात को मानने को तैयार नहीं हैं। उनका कहना है कि गत वर्ष का बकाया स्टाक सरकारी मात्रा (105 लाख टन) की तुलना में कम है। इससे वर्ष के अंत में चीनी की कमी अनुभव की जाएगी।

चीनी को भाव को रोकने के लिए सरकार ने रॉ शुगर के आयात को एडवांस लाईसेंस के तहत शुल्क मुक्त कर दिया है। मिलें फिलहाल कच्ची चीनी का आयात कर उसे रिफाईंड करके बाजार में बेच सकती हैं और 36 महीनों के भीतर उसे दोबारा निर्यात कर सकती हैं।

सरकार की इस घोषणा के बाद चीनी के भाव में कुछ गिरावट आई लेकिन दोबारा फिर बढ़ गए।

अब सरकार ने चीनी व्यापारियों पर स्टाक लिमिट और स्टाक रखने की अवधि का प्रतिबंध लगा दिया है। दूसरे शब्दों में अब व्यापारी एक सीमा से अधिक चीनी का स्टाक नहीं रख सकेंगे और स्टाक को एक महीने के भीतर बेचना भी होगा।

सरकार की इस घोषणा से चीनी के भाव में कुछ गिरावट आ सकती है लेकिन बाद में फिर बढ़ने आरंभ हो जाएंगे।

वास्तव में सरकार की इस कार्यवाही से इंस्पैक्टर राज को बढ़ावा मिलेगा और इसके अलावा कुछ नहीं होगा।

चीनी में तेजी के कुछ कारण हैं। इनमें प्रमुख कारण है देश और विदेश में चीनी का उत्पादन कम होना। विश्व में चीनी उत्पादन में पहला स्थान ब्राजील का है और दूसरा भारत का। भारत में उत्पादन में 100 लाख टन की कमी होने का मतलब है विश्व में उपलब्धता कम होना। इससे विश्व बाजार में भी चीनी तेज चल रही है और आयात से देश में उपलब्धता बढ़ाना संभव नहीं लगता है।

दूसरा कारण है-चीनी में वायदा कारोबार।

मिलों की मनमानी

तीसरा कारण है मिलों की मनमानी। वास्तव में सरकार खुले बाजार में बिक्री के लिए हर माह एक निश्चित मात्रा में चीनी का कोटा जारी करती है। ताकि बाजार में चीनी की कमी न हो। कानून कहता है कि जो मिलें आबंटित मात्रा को बाजार में न बेचें सरकार उसे लेवी के भाव-जो खुले बाजार की तुलना में कम हैं-पर खरीद ले। लेकिन ऐसा आज तक नहीं हुआ है। इससे मिलों में कोई डर नहीं है। वे अपनी इच्छानुसार बाजार में चीनी बेचती हैं और अनबिकी मात्रा को अगले माह बेचने के लिए सरकार से अनुमति ले आती हैं।

यही कारण है कि सरकारी घोषणाओं के बावजूद चीनी के भाव कम नहीं हो रहे हैं। संभव है कि स्टाक सीमा लगने के बाद चीनी के भाव में कुछ गिरावट आ जाए लेकिन चुनाव समाप्त होते ही चीनी तेजी का ऐसा रंग दिखाएगी कि उपभोक्ता हैरान रह जाएगा।

राजेश शर्मा (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

Saturday, March 14, 2009

सोने का पिंजर (8)

आठवां अध्याय

अमेरिका में बच्चे खुद लोन लेते हैं,चुकाते हैं

अमेरिका का नारा है स्वतंत्रता - लिबर्टी। इसलिए ही स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी न्यूयार्क में बड़ी शान से खड़ी है। सेन फ्रांसिस्को के रेड-वुड फारेस्ट में एक जगह एक स्लोगन लिखा था जिसका भावार्थ यह है ‘स्वतंत्रता तभी प्राप्त होती है जब हम अपनी रेस्पोन्सबिलिटी पूरी करते हैं।’ यहाँ के वासियों ने अपनी जिम्मेदारी को भलीभांति समझा है और अपने देश के निर्माण में योगदान किया है। भारत में नारा दिया जाता है कि पोलीथीन छोड़ो, लेकिन यहाँ पोलीथीन का भरपूर प्रयोग होता है। क्या मजाल जो एक कतरन भी कहीं सड़क पर दिखाई दे जाए। यहाँ गन्दगी फैलाना अपराध है और इसे प्रत्येक नागरिक समझता है। दुनिया में यदि हम छोड़ने का ही नारा देते रहे तब हम किसी को भी नहीं छोड़ पाएंगे। किसी भी वस्तु का प्रयोग कैसे करें, उसको डिस्पोज कैसे करें? यह प्रबन्ध हमें सीखना चाहिए। यदि हम मानव देह का भी अंतिम संस्कार नहीं करेंगे तब वो भी हानिकारक सिद्ध होगी। अतः आवश्यकता है अपना उत्तरदायित्व समझने की।
भारत का व्यक्ति क्या देश के लिए या अपने समाज के लिए या अपने परिवार के लिए अपनी जिम्मेदारी समझता है? शायद नहीं। कुछ केवल अपना परिवार अपनी बीबी-बच्चों को ही मानते हैं और उनकी जिम्मेदारी में ही अपनी इतिश्री मान लेते हैं। कुछ समाज के नाम पर अपने दोस्तों को मानते हैं और उनके ही दुख और सुख के साझीदार बनते हैं। मेरा समाज जिसने मुझे पहचान दी है, वह आज कहाँ खड़ा है, इसके बिना मेरी पहचान क्या होगी? इसकी चिन्ता करना हम फिजूल और दकियानूसी समझते हैं। जिस देश के सुरक्षा चक्र से हम हर पल सुरक्षित रहते हैं, उस देश की उन्नति के बारे में हम कितना सोचते हैं? केवल हम अपनी स्वतंत्रता के बारे में सोचते हैं। हमें कैसे स्वतंत्रता मिले, अपने परिवार से, अपने समाज से, अपने देश से। शायद भारत के लोग स्वतंत्रता के मतलब भूल गए हैं। यहाँ जो भारतीय बसे हैं, वे भी नहीं जान पाए स्वतंत्रता का अर्थ। इसी कारण वे दो राहे पर खड़े हैं, अपने आप से जुड़े हुए और अपने आप से दूर। यहाँ आकर मैं भी स्वतंत्रता का अर्थ समझने की कोशिश कर रही हूँ और अपनी जिम्मेदारियों को पूर्ण करने का प्रयास भी।
जिनके बच्चे यहाँ आकर बस गए हैं या रह रहे हैं, उनकी बहुत बड़ी जिम्मेदारी आज है। वे तो आज स्वतंत्रता के बारे में सोच भी नहीं सकते। भारत में वानप्रस्थ आश्रम में आते-आते व्यक्ति अपनी जिम्मेदारी पूर्ण कर लेता है और स्वतंत्रता का अनुभव करता है। अपने व्यापार की, अपने परिवार का उत्तरदायित्व वे अपनी संतानों को सुपुर्द कर देते हैं। संन्यास आश्रम में वे पूर्ण स्वतंत्र हो जाते हैं। अर्थात् 75 वर्ष की आयु के बाद आम भारतीय केवल आध्यात्मिक उन्नति का ही चिंतन करते हैं। विगत काल में तो अक्सर वे वनवास ले लेते थे, वर्तमान में सामाजिक कार्य, धार्मिक कार्य करते हुए अपना जीवन बिताते हैं।
लेकिन अब चिंतन का विषय यह है कि क्या हमने अपनी जिम्मेदारी पूर्ण कर ली? क्या इतनी भर ही थी हमारी जिम्मेदारी कि हमारे बच्चे पढ़े, कमाएँ और घर बसा लें। क्या उन्हें भी स्वतंत्र होते देखना हमारी जिम्मेदारी नहीं है? अमेरिका का भारतीयकरण होते देखना ही सबसे बड़ी त्रासदी है। मेरे शब्दों से चौंकिए मत। जितने भी भारतीय यहाँ बसे हैं, वे मन से स्वतंत्र नहीं हो पा रहे हैं। क्योंकि अमेरिका के शब्दों में ही जिसने अपना उत्तरदायित्व पूर्ण किया है वे स्वतंत्र हैं। अपने देश से भाग आना कैसे उत्तरदायित्व पूर्ति का सुख दे सकता है? मन तो कचोटता ही रहता है, अपराध-बोध तो संग रहता ही है।
उनका रहन-सहन, खाना-पीना सब अमेरिका जैसा है, लेकिन फिर भी जिस मिट्टी से शरीर बना है, उसकी माँग रोज़ होती है और हम फिर जुट जाते हैं अमेरिका को भारत बनाने में। हम रोज़-रोज़ मन को मारते हैं, अपनी जीभ को नए स्वाद से परिचित कराते हैं, फिर अपने स्वाद के लिए तड़प उठते हैं और एक भारतीय रेस्ट्रा खोल लेते हैं। तो बताइए कि कैसे यहाँ के भारतीय स्वतंत्र हैं? जब यह संघर्ष देखते हैं तब लगता है कि हमारी ज़िम्मेदारी पूर्ण नहीं हुई। परन्तु फिर यक्ष प्रश्न निकल आता है कि कैसे इन्हें स्वतंत्रता का अर्थ समझाएं? हमने एक बार वाक्य पढ़ा और अमेरिका की फिलासफी समझ आ गयी और लोग यहाँ बरसों से रह रहे हैं और उन्हें ज़िम्मेदारी का अर्थ नहीं मालूम। एक कथा याद आ गई, श्रीकृष्ण जब संदीपनी आश्रम में विद्या-अध्ययन कर रहे थे तब उनके गुरु ने उन्हें भारत भ्रमण कराया और उसी के माध्यम से शिक्षा देने का प्रयास किया। एक समुद्र तट पर गुरु दुखी हो उठे, उन्हें अपने पुत्र का स्मरण हो आया। श्रीकृष्ण को मालूम पड़ता है कि उनके पुत्र पुनर्दत्त को यहीं पर समुद्री डाकू उठा ले गए थे। कृष्ण समुद्र में जाते हैं और एक द्वीप में उन्हें पुनर्दत्त मिलता है। वह राजशी ठाट-बाट से अपना जीवन निर्वाह कर रहा था, लेकिन उसका जीवन वहाँ की महारानी का गुलाम था। कृष्ण उसे आजादी का मार्ग बताते हैं लेकिन वह इंकार कर देता है। कहता है कि मुझे इस सुख की आदत हो चुकी है और मैं स्वतंत्रता के अर्थ भूल चुका हूँ। आज यही बात यहाँ बसे भारतीयों पर लागू होती है, वे सुख के अधीन होकर स्वतंत्रता का अर्थ भूल चुके हैं। हम सभी को कृष्ण बनना होगा और उन्हें स्वतंत्रता का अर्थ अमेरिका की भाषा में ही समझाना होगा। उन्हें समझाना होगा कि भारत का नागरिक ज्यादा स्वतंत्र है या फिर अमेरिका का?
अमेरिकन अपनी जिम्मेदारी पूर्ण करने को स्वतंत्रता कहता है और भारतीय किसी भी जिम्मेदारी को पूर्ण नहीं करने पर भी अपने देश में परतंत्र अनुभव करते हैं। शायद इस दुनिया में भारत जैसा देश नहीं मिलेगा। जहाँ के नागरिकों को देश से सब कुछ लेने की छूट है, लेकिन बदले में कुछ भी नहीं देने की भी छूट है। अमेरिका में बच्चे लोन लेकर पढ़ते हैं और स्वयं ही उसे चुकाते हैं। लेकिन भारत में बच्चे माता-पिता की दौलत से पढ़ते हैं और भारत सरकार उनके लिए सुविधाएं प्रदान करती है। पढ़ने के बाद विदेश गए बच्चे किस देश का टैक्स भरते हैं? भारत में ही इतनी स्वतंत्रता है कि आप सब कुछ लेकर, बिना कुछ वापस चुकाए कहीं भी जाकर बस जाओ। वास्तविक स्वतंत्रता किसे कहते हैं यह बात हमें अमेरिका से सीखनी चाहिए।
अमेरिका में पर्यटन के प्रति बहुत जागरूकता है। क्या दुनिया को दिखाना है और क्या नहीं दिखाना, यह वहाँ की सरकार तय करती है। अमेरिका में समुद्र और जंगल प्रकृति के उपहार हैं। हमारे यहाँ समुद्र किनारे गर्मी पड़ती है और वहाँ सर्दी। दर्शनीय स्थलों को प्रत्येक कोण से दिखाना यहाँ के उन्नत पर्यटन का नमूना है। समुद्र के एक तरफ पर्वत हैं, उसके लिए पृथक दर्शनीय स्थल है, दूसरी तरफ तट है, उसके लिए पृथक स्थल है। कहाँ से समुद्री जीव दिखायी देंगे और कहाँ से समुद्री पक्षी। वर्ष में दो महीने के लिए गर्मी पड़ती है बाक़ी समय सर्दी। कहीं बर्फ की भरमार है तो कहीं सामान्य तापक्रम। अमेरिका इतना बड़ा है कि उसे एकबारगी ही नापना सम्भव नहीं है। उत्तर की तरफ जाइए बर्फ मिलनी शुरू हो जाएगी और दक्षिण की तरफ केवल पानी। अमेरिका में धूल को दूब के आगोश में समेट रखा है। कुछ तो प्रकृति की मेहरबानी और कुछ वहाँ के बाशिंदों की मेहनत। साल में दो महीने ही नाम मात्र की जहाँ गर्मी पड़ती हो और पानी की प्रचुरता हो तब घास तो सर्वत्र उग ही आती है और टिक जाती है। धूल की इतनी हिम्मत नहीं होती कि वो घास का सीना चीर कर बाहर निकल आए। उसे तो उनकी जड़ों को ही मजबूती देनी होती है। फिर नवीन अमेरिका की बसावट ही सौ-डेढ़ सौ साल की है। शहर अभी भी बस रहे हैं, तो आधुनिकता और पूर्ण रूप से खुले और सुविधाजनक शहर ही बसाए जाते हैं। सड़के इतनी चौड़ी कि छः और आठ लाइनों में गाड़ियां दौड़ सकती हैं। फिर भी और चौड़ा करने की गुंजाइश बनी हुई रहती है।
सुंदर और पूर्ण आधुनिक शहरों को देखकर जहाँ अच्छा लगता है वहीं कुछ ही दिनों में नीरसता भी पसर जाती है। एक से शहर, एक ही बनावट, घर भी एक से और बाजार भी एक से। एक शहर देखो या फिर दस शहर देखो सब बराबर। बस कुछ शहरों में अन्तर दिखायी पड़ता है, न्यूयार्क में गगनचुम्बी इमारते हैं और वे एक दूसरे से सटी हुई हैं। सेनफ्रांसिस्को शहर पहाड़ पर बसा है, उसके एक तरफ समुद्र है और दूसरी तरफ पहाड़। सीधी खड़ी चढ़ाई पर कॉलोनी बसी हुई है, वह तो अच्छा है कि वहाँ अधिकतर गाड़ियां बिना गीयर की हैं तो उसे खड़ी चढ़ाई पर जाने में कोई कठिनाई नहीं होती। भारत के लिए कहा जाता है कि पचास साल बाद भी भारत अमेरिका जैसा नहीं बन सकता। मैं कहती हूँ कि पचास क्या सौ साल बाद भी भारत अमेरिका जैसा नहीं बन सकता। कारण है, हमारी सभ्यता हजारों वर्ष पुरानी है, शहरों की बसावट भी हजारों वर्ष पुरानी है। उन्हें नस्तनाबूद तो नहीं किया जा सकता? वहाँ सुविधाएं पहले विकसित हुईं और किस भूखण्ड पर पानी, बिजली, टेलीफोन की सुविधाएं दी जा सकती हैं, वहाँ ही शहर बसाए जाते हैं। हमारे यहाँ शहर पहले बसे और सुविधाएं बाद में आयीं। बस हमें तो आवश्यकता है गन्दगी पर नियन्त्रण करने की।
यहाँ का एक बड़ा शहर है सेनडियागो। यहाँ दो दर्शनीय स्थल हैं-एक सी-वर्ल्‍ड और दूसरा वाइल्ड लाइफ एनीमल सफारी। समुद्री जीवों को साधकर उनको जनता के सामने प्रस्तुत करना, एक आश्चर्य है। वोलरस जैसी विशालकाय मछली, डोल्फिन, सी लोयन, किलर फिश और अन्य प्रजातियों की मछलियों के वहाँ बड़े-बड़े स्टेज शो आयोजित किए जाते हैं। एक डोल्फिन है शामू, हाँ उसका नाम है शामू। वह किसी स्टार से कम नहीं। वह दुनिया की दूसरे नम्बर की सबसे बड़ी डोल्फिन है। उसका शो देखने के लिए हजारों लोग जुटते हैं और शायद दस हजार की संख्या वाला स्टेडियम अक्सर छोटा पड़ता है। जब वह उछलती है तो सोलह फीट तक उछल जाती है और जब अठखेलियां करती हुई पानी में चलती है तब स्टेडियम की कई दर्शक दीर्घाओं को भिगा देती है। ट्रेनर उसके साथ पानी में कूदती है और गहराई में चली जाती है, कुछ ही देर में शामू उछलकर सोलह फीट तक जाती है और उसके मुँह के ऊपर सीधे खड़ी हुई, हाथ हिलाती हुई ट्रेनर नज़र आती है। सारा स्टेडियम शामू-शामू की आवाज से गूँज उठता है। लोगों में इतना उत्साह होता है जैसे फुटबाल का मैच चल रहा हो।
एक और शो की बात बताती हूँ, आपने ‘थ्री डी’ फिल्में तो देखी होगी, लेकिन क्या कभी ‘फोर डी’ फिल्म देखी है? ऐसा करतब हमने वहीं देखा। कवर्ड हॉल में फिल्म प्रारम्भ होती है, ‘थ्री-डी’ की कल्पना थी अतः कभी भाला हमारे शरीर को बेधता हुआ सा लगता और कभी समुद्री तूफान हमारे पास से गुजरता हुआ। लेकिन हद तो तब हुई कि एक बूढ़ा थूक मारता है और सारे ही हॉल को भिगो देता है। कुछ देर में चूहें निकलने लगते है, तो लगता है कि हमारे पैरों के नीचे से निकल रहे हों। ऐसे ही रोमांच से भरी रहती है पूरी फिल्म। बाद में पता लगा कि उन्होंने हॉल में ही पानी और हवा छोड़ने का इंतजाम कर रखा था।

डॉ अजित गुप्ता

Wednesday, March 11, 2009

आज की ताज़ा खबर

1) हमारे शैलेश जी एक फिल्म (चला मुरारी हीरो बनने ) देखकर वापस आ रहे थे,चूँकि उनकी शर्ट सुर्ख लाल रंग की थी अतः एक सांड़ ने उन्हें उठा कर पटक दिया और उनकी हड्डियों का चुरमा बन गया है। और इसलिए वो हिन्द-युग्म का कोई भी काम कर पाने मे आजकल असमर्थ हैं।

2)"ओरिसा में बाढ़ का कहर"- प्रशासन अत्यंत परेशान है, कारण है की तपन शर्मा हमारे हिन्द-युगम के कर्मठ सहयोगी आजकल ओरिसा में हैं, घर की याद में इतना रो रहे हैं कि समस्त ओरिसा बाढ़ की चपेट में है, हालत बेकाबू देखकर, वहाँ के मुख्यमंत्री ने उनकी फर्म से अपील की है कि उन्हें तत्काल वापस बुलाया जाए, जिससे ओरिसा के हालत को कुछ काबू किया जा सके।

3) आचार्य जी की मल्लिका शेरावत के साथ एक संक्षिप्त मुलाकात- आचार्य जी ने उन्हें जीवन दर्शन के बारे में समझाया किंतु जब मल्लिका जी ने अपने जीवन दर्शन के बारे में बताना चाहा तो, संजीव जी सर पर पैर रखते भागते हुए नज़र आए।

4) राघव जी अपनी मोटर साइकल से अंतरिक्ष की सफल उड़ान के लिए एक प्रयोग कर रहे हैं इन दिनों, पिछली सीट के लिए कोई अंतरिक्ष यात्री की तलाश में हैं। रंजना जी, रूपम जी, शोभा जी, पूजा जी, शन्नो जी, सीमा जी व नीलम जी ने उनकी अपील को ठुकरा दी है, अब वो बुझे मान से अपनी पत्नी को मनाने में लगे हुए हैं। ईश्वर उनकी यात्रा शुभ करे!

5) अरूण जी और मनु जी ने खुदकुशी करने की कोशिश की, मोके पर पुलिस ने पहुँच कर पड़ताल की और नीलम जी को सख़्त हिदायत दी की चाहे वो प्रतियोगिता में भाग लें या न लें, उन्हें सर्वश्रेष्ट प्रतिभागी ही घोषित करेंगी, इसका नीलम जी ने पूरा-पूरा आस्वसान दिया है।

6) सजीव जी, आजकल बेहद परेशान हैं, उनके आवाज़ के साथियों के गालो मे मेंढक घुस गये हैं और वो सब सिर्फ़ टर्र-टर्र कर रहे हैं। इस कारण से मार्च की कविता पाठ में विलंब हो रहा है क्योंकि कविता पाठ करने वाले सभी लोग सिर्फ़ टर्र-टर्र कर रहे हैं। उम्मीद है कि सजीव जल्दी ही इस समस्या से अपने आप को उबार लेंगे।

7) समस्त प्रवासी हिंद-युग्मी नाराज़ हो गये हैं, क्योंकि हिंद-युग्म ने उन्हें गुलाल और गुझिया का पार्सल अभी तक नहीं पहुँचाया है। इसलिए सभी लोग हिन्दुस्तान आकर होली मनाने का मन बना चुके हैं, अभी अभी खबर मिली है कि कुछ लोग वहाँ से चल भी चुके हैं।





बुरा न मानो होली है, होली का हुड़दंग आप सभी को उल्लासित करे इसी ख्वाहिश के साथ-

नीलम मिश्रा व निखिल आनंद गिरि

रस ही जीवन, जीवन रस है.....

भारत में होली सबसे सरस पर्व है। दशहरा और दीपावली से भी ज्यादा। दूसरे त्योहारों में कोई न कोई वांछा है या वांछा की पूर्ति का सुख। होली दोनों से परे है। यह बस है, जैसे प्रकृति है। अस्तित्व के आनंद का उत्सव। वांछा और वांछा की पूर्ति, दोनों में द्वंद्व है। यह जय-पराजय से जुड़ा हुआ है। दोनों ही एक अधूरी दास्तान हैं। सच यह है कि दूसरा हारे, तब भी हमारी पराजय है। कोई भी सज्जन किसी और को दुखी देखना नहीं चाहता। किसी का वध करके उसे खुशी नहीं होती। करुणानिधान राम ने जब रावण पर अंतिम प्राणहंता तीर चलाया होगा, तो उनका हृदय विषाद से भर गया होगा। उनके दिल में हूक उठी होगी कि काश, रावण ने ऐसा कुछ न किया होता जो उसके लिए मृत्यु का आह्वान बन जाए; काश, उसने अंगद के माध्यम से भेजे गए संधि प्रस्ताव को मंजूर कर लिया होता; काश, उसने विभीषण की सत सलाह का तिरस्कार नहीं किया होता। अर्जुन का विषाद तो बहुत ही प्रसिद्ध है। युद्ध छिड़ने के ऐन पहले उसे अपने तीर-तूरीण भारी लगने लगे। उसके मन में उचित ही यह भाव पैदा हुआ कि अपने संगे-संबंधियों को मार कर सुख पाना एकदम अनैतिक है। यह भावना जितनी ज्यादा फैले, दुनिया के लिए उतना ही अच्छा है। श्मशान में सभ्यता का विकास नहीं होता। फिर भी महाभारत इसीलिए हो पाया, क्योंकि कृष्ण अपने सखा को यह समझा सके कि अन्याय का प्रतिरोध करना अगर जीवन-मरण का प्रश्न बन जाए, तब भी संघर्ष से भागना नहीं चाहिए। नतीजा यह हुआ कि दिन में कुरुवंश के लोग दिन में एक-दूसरे की जान लेते थे और रात को उनकी याद कर आंसू बहाते थे। इस तरह, द्वंद्व और उनका शमन जीवन प्रक्रिया को आगे बढ़ाता था। होली की विशेषता यह है कि यहां किसी प्रकार का द्वंद्व नहीं है; सामाजिक नैतिकता के नाम पर लादी हुई अनैतिक व्यवस्था के परिणामस्वरूप द्वंद्व है भी, तो उसका शमन नहीं, समाहार है। हृदय की मुक्तावस्था को क्या कहते हैं, मुझे नहीं मालूम, पर यह अनुभव जरूर है कि होली को मन से मनाया जाए, तो कुछ ऐसी ही अवस्था पैदा होती है।

फागुन में ससुर जी देवर लागे....
होली का त्यौहार मनाने के लिए वसंत ऋतु को चुना गया, तो इसके ठोस कारण हैं। इन कारणों से हर कोई अवगत है। ये कारण मुख्यत: बाहर से आते हैं। लेकिन वे प्रभावी तभी होते हैं जब भीतर संचित कोई अद्भुत चीज अंगड़ाई ले कर जाग उठती है। कामना, विचार, हर्ष. विषाद सब कुछ हमारे भीतर ही है। लेकिन जागते वे तब हैं जब बाहर से उन्हें उद्दीपन और आलंबन मिलता है। बाहर और भीतर का विभाजन वास्तविक से ज्यादा कृत्रिम है। तभी तो यह विभाजन अकसर चिटख जाता है। श्वसुर साल भर श्वसुर रहता है, पर होली के दिन वह देवर बन जाता है। (फागुन में ससुर जी देवर लगें) इसका मतलब यही है कि उसमें देवरपन हमेशा मौजूद था, पर वह उभरता तब है जब उसे आवश्यक उद्दीपन मिलता है। यह उद्दीपन बहू देती है। इसका मतलब यह भी है कि बहू में भी सनातन नारी साल भर जीवित रहती है, पर बाहर आने के लिए वह उचित मौसम का इंतजार करती है। यह मौसम फागुन के अलावा और क्या हो सकता है?
बताते हैं, प्रकृति हर्ष और विषाद से परे हैं। उसे न दुख होता है न सुख होता है। लेकिन क्या पता। प्रकृति के बारे में हमारी जानकारी इतनी संक्षिप्त है कि उसके आधार पर कोई बड़ा फैसला नहीं किया जा सकता। हम यह तो जान गए हैं कि कीट-पतंगों को, पेड़-पौधों को भी दुख-सुख होता है, वे हर परिवर्तन से संवेदित होते हैं। लेकिन सभी प्राणी, जिनमें उद्भिज भी शामिल हैं, अगर प्रकृति की कोख से ही जन्म लेते हैं, तो यह कोख किसी भी स्तर पर इतनी बांझ नहीं हो सकती कि वह बिलकुल संवेदनहीन हो जाए। मार्क्स ने ठीक पहचाना था कि पदार्थ से ही चेतना पैदा होती है। तो फिर पदार्थ खुद अचेतन कैसे हो सकता है?
प्रकृति की यह सचेतनता वसंत ऋतु में पूरे शबाब में होती है। अन्य सभी ऋतुओं में कुछ न कुछ द्वंद्व होता है। गरमी, बारिश, जाड़ा -- सभी आवश्यक हैं और इस नाते प्रिय भी, पर अतिरेक में वे कष्ट भी देते हैं। वसंत ही एकमात्र ऋतु है जिसका कोई अतिरेक नहीं हो सकता। सभी चीजों का उत्कर्ष होता है, पर उत्कर्ष का उत्कर्ष क्या होगा? सागरमाथा (एवरेस्ट) अपनी ऊंचाई को कैसे लांघ सकता है? वसंत ऋतु परिवर्तन के पूरे चक्र का उत्कर्ष है। इसी के लिए प्रकृति साल भर तैयारी करती है, जैसे मानवी का शरीर सोलह साल तक साधना करता है ताकि उस पर यौवन का फूल खिल सके या जैसे जननी नौ महीने तक हर रंग से गुजरती है तब कोई शिशु धरती पर प्रगट होता है और सभी के दिलों पर छा जाता है। वसंत प्रकृति का यौवन भी है और उसकी रचनात्मकता का चरम उभार बिंदु भी। उसमें कोई द्वंद्व नहीं है। आनंद ही आनंद है। रस ही रस है। जीवन ही जीवन है। इसीलिए मनुष्य ही नहीं, संपूर्ण जीव जगत के साथ उसकी अनुकूलता है। वसंत में जैसे प्रकृति खुलती है, उसकी कंचुकियां छोटी पड़ जाती हैं, वैसे ही हम भी खुलते हैं, हमारे लिए हमारा परिवेश छोटा लगने लगता है। यह वह सर्वश्रेष्ठ उपहार है जो सृष्टि अपने आपको देती है। वरना तो बाकी सृष्टि में आंखों को जला देनेवाली रोशनी है -- जहां-जहां तारे हैं, या फिर उनके बीच का ठोस सघन अंधेरा, जिसमें कोई अपने आपको भी देख नहीं सकता। हम धरतीवालों को अपनी किस्मत पर इतराना चाहिए।
धरती इसलिए अनोखी है, क्योंकि सृष्टि भर में यहीं जीवन है। यहीं रस है। यह रस सबसे ज्यादा नर-नारी के बीच पैदा होता है, क्योंकि प्रकृति की अभी तक की योजना यही है। उसने पशु-पक्षियों में भी, पेड़-पौधों में भी युग्म बनाए हैं, पर इन युग्मों में वह आकर्षण, वह ताकत, वह निरंतरता नहीं है, जो मानव युग्म में दिखाई देता है। हो सकता है, लाखों-करोड़ों वर्ष पहले हमारे पूर्वज स्त्री-पुरुष भी जब-तब ही एक-दूसरे की ओर प्यार और लालसा की निगाहों से देखते रहे हों, पर वह संस्कृति के ककहरे का युग था। संस्कृति के निरंतर विकास ने न केवल शरीर को कोमल और सुंदर बनाया है, बल्कि दो शरीरों के बीच कला का इतना बड़ा सागर पैदा किया है जिसमें हम निरंतर ऊभ-चूभ होते रहते हैं। इसीलिए हमारे एक पूर्वज ने आह भरते हुए कहा था कि जो मनुष्य साहित्य, संगीत और कला से विहीन है, वह सींग-पूंछ रहित जानवर की तरह है। होली इसी सांस्कृतिकता का उत्सव है। जो होली के दिन सूखे पेड़ की तरह अपना और दूसरों का मूड खराब किए रहता है, उसे नरक का अनुभव करने के लिए जीवनोत्तर जीवन की प्रतीक्षा नहीं करनी होती। वह आंखवाला हो कर भी अंधा है, कानवाला हो कर भी बहरा है और हृदय होते हुए भी पत्थर है। वह समाज में होते हुए भी समाज से बाहर है, अपने भीतर होते हुए भी अपने को नहीं पहचानता। खु़दा ऐसे लोगों को माफ करे -- ये नहीं जानते कि ये क्या खो रहे हैं।

तू मुझमें है, मैं तुझमें हूं....
नर-नारी का आकर्षण एक विशिष्ट प्रकार का आकर्षण है, जिसका कोई दूसरा उदाहरण नहीं है। इसीलिए सभी भक्त ईश्वर को अपना माशूक मान कर उसकी मादक अनुभूति से घिरे रहते हैं। कबीर को लगता था कि राम उनके प्रियतम हैं और वे राम की बहुरिया हैं। कृष्ण को तो पति मान कर ही भजने की प्रथा है। ईसाई संतों को ईश्वर की वधू होने का अनुभव होता था। ये सभी अभिव्यक्तियां प्रगाढ़तम संबंध की जानी-पहचानी अनुभूति हैं। लेकिन सिर्फ अपनी पत्नी से होली खेल कर कौन उल्लास में डूब सकता है? सिर्फ अपने पति से होली खेल कर कौन बीरबहूटी बन सकती है? अतिशय निकटता नए आविष्कार करने की क्षमता को कुंद कर देती है। निष्प्रयास स्वीकृति प्रेम को आलसी बना देती है। इसीलिए अनेक समझदार लोगों ने सलाह दी है कि स्त्री-पुरुष को एक साथ नहीं रहना चाहिए और साथ रहने की मजबूरी हो तो रोज एक साथ एक ही बिछावन पर सोना नहीं चाहिए। पूरी तरह स्वकीय और पूरी तरह परकीय, दोनों बुरे हैं। हर स्त्री और हर पुरुष को थोड़ा स्वकीय और थोड़ा परकीय बने रहना चाहिए। नहीं तो आकर्षण की डोरी अतिशय तनाव से टूट कर गिर सकती है और बहुत ज्यादा ढीली हो जाने पर लुंज-पुंज हो जा सकती है। दोनों ही संस्करण घातक हैं। वे डोरी के गुण-धर्म को नष्ट कर डालते हैं। जब स्वकीयता के साथ परकीयता होगी और परकीयता के साथ स्वकीयता, तब हमें होली जैसे अद्भुत त्यौहार की महत्ता समझ में आएगी, जो स्वकीय और परकीय के विभाजन की दीवार को अपने रंग-गीले हाथों से गिरा देता है। फागुन के नशे में कौन स्वकीय रह जाता है या रह जाती है और कौन इस बोध से घिरा रहता है या घिरी रहती है कि वह परकीय है? जैसे प्रकृति की व्यवस्था अभिन्न है, हर जर्रा हर जर्रे का मायका या ससुराल है, वैसे ही सभी स्त्री-पुरुष एक नैसर्गिक व्याकरण की संज्ञाएं, विशेषण और क्रियापद बन जाते हैं। अब इससे आगे क्या कहूं, तू मुझमें है, मैं तुझमें हूं। अगर यह प्रेम है, तो अध्यात्म भी यही है।
रस ध्वनि में है, स्पर्श में है, रंग में है। होली में हम तीनों का मधुर उत्तान देखते हैं। होली गाई जाती है, होली खेली जाती है और होली पर हम गले भी मिलते हैं। कुछ लोग होली के रंग में खुशबू भी मिला देते हैं। होली पर पकवान तो गरीब से गरीब के घर भी बनते हैं, जो हमारी स्वादेंद्रिय को तृप्त करते हैं। इस तरह होली ऐंद्रिय जगत की संपूर्णता का उत्सव बन जाता है। लेकिन इन तीनों में रंग का स्थान अन्यतम है। इंद्रियों के सभी विषयों में रंग ही दूर से चमकता है। सूर्य की लालिमा हमें कितनी दूर से दिखाई पड़ती है। चंद्रमा का प्रकाश निकटतर है, लेकिन वह भी कम दूर नहीं है। यह गुण किसी और तत्व में नहीं है। शायद इसीलिए रंग को होली का मुख्य दूत माना गया। प्रकृति भी इस मौसम में अपने रंगों का पूरा खजाना खोल देती है। एक-दूसरे के शरीर और उसके जरिए आत्मा पर गीला रंग फेंक कर हम मानो इस रंगीनियत का ही इजहार करते हैं। यही वह रस है जो हमारे तन-मन को आह्लादित कर देता है और हमारी भौगोलिक तथा मानसिक दूरियों को पाट देता है। हर कोई फूल और हर कोई भौंरा बन जाता है।
मेरी उलझन यह है कि जो रस स्त्री-पुरुष के बीच पैदा होता है, उसका कुछ हिस्सा पुरुष-पुरुष और स्त्री-स्त्री के बीच क्यों नहीं पैदा होता? स्त्रियां भी स्त्रियों के साथ होली खेलती हैं और पुरुष भी पुरुषों के साथ होली खेलते हैं। पुरुषों की बनिस्बत स्त्रियों की अपनी होली ज्यादा मजेदार, ज्यादा चुहल भरी होती है, क्योंकि उनमें प्राकृतिक लालित्य होता है और उनकी आपस की प्रतिस्पर्धा उतनी तीव्र और बहुआयामी नहीं होती जितनी पुरुषों के आपसी संबंधों में। इसीलिए युवाओं की होली ज्यादा खुली हुई होती है : वे इतने परिपक्व नहीं हुए होते हैं कि जिंदगी के द्वंद्वों को कुछ घड़ी के लिए भुला न सकें और अपने को रंगीनी के हाथों निश्शर्त सुपुर्द न कर सकें। शोक की बात यह है कि होली का यह सहज उल्लास साल भर हमारा साथ नहीं देता। स्त्री-पुरुष का आकर्षण बारहों महीने चौबीसों घंटे बना रहता है, पर पुरुष-पुरुष और स्त्री-स्त्री के बीच प्रगाढ़ता में तरह-तरह के अवरोध पैदा होते रहते हैं और जीवन रस को सोखते रहते हैं। कहा जा सकता है कि हमने जो सभ्यता गढ़ी हुई है, वह हमारे सहज सुखों का सोख्ता है। यह सोख्ता स्त्री-पुरुष के स्वाभाविक संबंधों के रस को भी सोखता रहता है और जीवन को उतना रसमय नहीं होने देता जितना वह वास्तव में है और आज भी हो सकता है। विषमता की तरह-तरह की दीवारें खड़ी कर हमने अपनी जिंदगियों को दुखपूर्ण बना डाला है। होली हर साल हमें यह याद दिलाने आती है कि यारो, यह जीना भी कोई जीना है जिसमें जीवन का रस द्वंद्वों की आंच में भाप बन कर उड़ता रहता है और हम जितना दूसरों से, उतना ही अपने आपसे बेगाना होते जाते हैं।
इस विसंगति में ही हम पहचान सकते हैं कि होली का दिन मजाक और हास-परिहास का दिन क्यों बन जाता है। जब हिरण्यकश्यप की बहन उसके संतनुमा बेटे प्रह्लाद को ले कर आग के कुंड में बैठ गई थी और बालक प्रह्लाद जल कर भस्म हो जाने के बजाय उससे पूरी तरह अक्षत और साबुत निकल आए, तो उसके तुतलाते होंठों पर एक ऐसी मुसकान जरूर होगी जिसने उस क्रूर-कपटी राजा का दिल तार-तार कर दिया होगा। यह मुसकान अन्याय और जुल्म के विरुद्ध विजय की शाश्वत मुसकान है। बाद की पीढ़ियां इतनी किस्मतवाली नहीं रहीं कि वे इस विध्वंसक आग से अपने को भस्म न होने दें। पर ऐसी हर आग के खिलाफ गाने तो गाए ही जा सकते हैं, प्रहसन तो किया ही जा सकता है, उसका मजाक तो उड़ाया ही जा सकता है। यह भी एक प्रकार की विमुक्ति है : साल भर हमारे कोमल मनों में जो तनाव जमा होते रहते हैं, उनसे उल्लासपूर्ण विमुक्ति का दुर्लभ मौका, जब आप कोयले को कोयला और कीचड़ को कीचड़ कह सकते हैं। होली के दिन कोई किसी का गुसैयां नहीं रह जाता। किसी से भी प्यार किया जा सकता है और किसी पर भी छींटाकशी की जा सकती है। लेकिन यह छींटाकशी भी विनोद भाव के परिणामस्वरूप मृदु और सहनीय हो जाती है। बल्कि जिसका परिहास किया जाता है, वह भी बुरा न मानने का अभिनय करते हुए बरबस हंस पड़ता है। शायद यही 'बुरा न मानो होली है' के हर्ष-विनोद घोष का उद्गम स्थल है।

एक घंटा रोज़ होली के मूड में....
होली वह अनोखा दिन है जब जिसे बहुमत से बुरा समझा जाता है, वह भी बुरा नहीं रह जाता। जिसे बहुमत से अच्छा माना जाता है, उसकी सार्वजनिक ऐसी-तैसी की जाती है। कह सकते हैं कि होली एक ऐसा स्वच्छ दर्पण है जिसके हम, हमारा समाज, हमारी तथाकथित संस्कृति सब निर्वस्त्र हो कर खड़े हो जाते हैं और अपने पर जितना इतराते हैं उतना ही सकुचाते भी हैं। क्या ही अच्छा हो कि हम रोज एक घंटा होली के मूड में आ जाया करें और दिन भर के गर्दो-गुबार को झटक कर साफ चित्त से प्रकृति की उस नियामत की सुरमई गोद में बच्चों की तरह लेट जाया करें जिसे नींद कहते हैं और जो मृत्यु का एक लघु संस्करण है, ताकि अगली सुबह के बाल सूर्य की तरह हम भी ताजादम हो कर जीवन में वापसी का सुख अनुभव करते हुए अपने दिन भर के कामकाज में लग सकें।
राजकिशोर