Thursday, March 18, 2010

प्रयोगी रचनाशीलता का अप्रतिम हस्ताक्षर- मार्कण्डेय

अभी-अभी हमें एक दुःखद समाचार मिला कि प्रयोगी रचनाशीलता के अप्रतिम हस्ताक्षर मार्कण्डेय नहीं रहे। 80 का वय पार कर चुके मार्कण्डेय पिछले 3-4 सालों से केंसर से पीड़ित थे। लम्बे समय से हृदय रोग से जूझते रहे। 2 साल पहले उन्हें खाने की नली का केंसर हुआ, लेकिन इनकी जीवटता देखिए कि उन्होंने अपनी मज़बूत इच्छाशक्ति की बदौलत केंसर जैसी जानलेवा बीमारी को भी ठेंगा दिखा दिया। लेकिन 1-1॰5 महीने पहले इन्हें फेफड़े का केंसर हो गया। लेकिन इस बार दुर्भाग्य कि समय से इन्हें इस रोग की जानकारी नहीं मिली, लेकिन फिर भी इनकी बेटी डॉ॰ स्वस्ति जो खुद भी पेशे से एक डॉक्टर हैं, ने इन्हें दिल्ली के राजीव गाँधी केंसर संस्थान में एडमिट कराया। लेकिन इस केंसर ने आखिरकार हमसे साहित्य-जगत का एक और सितारा छीन ही लिया। 18 मार्च की शाम 5 बजे के आसपास मार्कण्डेय ने शरीर त्याग दिया। मार्कण्डेय शुरू से ही इलाहाबाद में रहे। इनकी दो बेटियाँ और 1 बेटा है। इलाहाबाद में यदि आप जायें तो पायेंगे कि उस शहर का कोई चाहे वह साहित्य का विद्यार्थी हो या पिर विज्ञान का, साहित्य से जब उसका नाता प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष किसी भी रूप से जुड़ता है तो शुरू में ही वह मार्कण्डेय का कालजयी उपन्यास अग्निबीज पढ़ जाता है। आज हम वरिष्ठ आलोचक आनंद प्रकाश के एक आलेख से मार्कण्डेय को श्रद्धासुमन अर्पित कर हैं॰॰॰॰ संपादक


प्रयोगी रचनाशीलता के अप्रतिम हस्ताक्षर मार्कण्डेय

आनंद प्रकाश

हिंदी कथाकार और चिंतक मार्कण्डेय का जीवट देखते बनता था। अस्सी बरस की आयु के मार्कण्डेय जो लंबे समय से बीमार चल रहे थे और पिछले पंद्रह बरसों से हृदय रोग और बाद में हुई केंसर जैसी जानलेवा बीमारी से जूझ रहे थे, इन दिनों फिर से दिल्ली में थे। उनका राजीव गांधी केंसर हस्पताल में इलाज हो रहा था और हस्पताल से निकटता को ध्यान में रखते हुए उन्होंने अस्थायी आवास की व्यवस्था रोहिणी के सैक्टर छह में की थी। इस आवास में उन्होंने लगभग एक महीना गुजारा। प्रबंध और चिकित्सा संयोजन की जिम्मेदारी मार्कण्डेय की बड़ी बिटिया डाक्टर स्वस्ति ने ली जो अपने लेखक पिता की सेवा में जी जान से जुटी थीं। ये मात्र सूचनाएं नहीं हैं, बल्कि उस सांस्कृतिक वातावरण की संकेतक हैं जिसका निर्माण अपनी जीवन शैली और व्यवहार के आधार पर स्वयं लेखक मार्कण्डेय ने किया था।

हिंदी में एक खास तरह की लेखन परंपरा उन्नीस सौ पचास के दशक में शुरू हुई। मार्कण्डेय उसके सिरमौर कहे जा सकते हैं, जो नई कहानी आंदोलन के पुरोधा थे और इस हैसियत से नई कहानी को लगातार जीवंत और सार्थक बनाने में जुटे थे। यह मार्कण्डेय के कारण ही संभव हो पाया कि मध्यवर्गीय कही जाने वाली और प्रायः नगरीय परिवेश को समर्पित नई कहानी गांव, जमीन और कृषि संबंधों पर केंद्रित हुई। आजादी के बाद सक्रिय हिंदी लेखकों में बिरले ही होंगे जिन्होंने मसलन भूदान जैसा मुद्दा उठाया और तथाकथित अशिक्षित समाज के सार्थक नायकत्व को प्रधानता दी। यह सिलसिला मार्कण्डेय की अनेकानेक कथा रचनाओं में देखने को मिला। पचास के दशक में एक समय तो ऐसा था जब मार्कण्डेय सप्ताह नहीं तो महीने के स्तर पर कहानी लिखते थे और उनकी बारह कहानियाँ तत्कालीन प्रसिद्ध पत्रिका ‘कल्पना’ में लगातार प्रकाशित हुई थीं। यही नहीं, उनकी एक भरीपूरी लेखमाला ‘कल्पना’ में ही उन दिनों छद्मनाम से छप रही थी। इस लेखमाला ने पचास और साठ के दशकों में विचारधारात्मक संचार का नया प्रतिमान कायम किया था और हिंदी कथा का बड़ा पाठक वर्ग साहित्य के कई अनछुए पहलुओं पर सोचने को बाध्य हुआ था। यह तब था जब मार्कण्डेय केवल अपने तर्कों के बल पर संस्कृति और कला के पक्षों का सूक्ष्म जायजा ले रहे थे। जब इस पूरे किस्से को मार्कण्डेय अपने अनोखे ढंग से बयान करते थे तो श्रोता अनायास आज से पांच-छह दशक पूर्व के काल में लौट जाता था। वह अलग वक्त था, उन दिनों बहसों की गंभीरता प्रासंगिक होती थी और साहित्य के हजारों-हजार पाठक वक्ती मसलों में दिलचस्पी लेते थे। मार्कण्डेय उस दौर के प्रेरणादायी हस्ताक्षर रहे हैं।

मार्कण्डेय के साथ आनंद प्रकाश

ग्रामीण जीवन की स्थितियों पर समस्यामूलक कहानियाँ लिखने के साथ साथ मार्कण्डेय ने कृषि संबंधी माहौल के जीवंत पात्रों को भी पहचाना और उन्हें इतिहास की गतिशील मूल्य व्यवस्था का वाहक बना कर पेश किया। कई प्रसंगों में उन्होंने उस भौगोलिक परिवेश को भी उकेरा जहां सांस्कृतिक मिथकों और प्रतीकों का असर देखने को मिलता है। इन सब चीजों के बीच उनकी भाषा का अलग ढंग भी नजर आया। इसके तहत मार्कण्डेय ने देशज शब्दों में अर्थ संकेतों की उपस्थिति दर्ज कराते हुए कहानियों को बहुआयामी बनाया। यह प्रेमचंद से हट कर था। प्रेमचंद में लोक कथा का ताना बाना दिखाई देता था, जबकि मार्कण्डेय में संभावित विचार की विभिन्न तहों पर बल था। जब मार्कण्डेय के पात्र अपने संवाद बोलते थे तो वे अपनी स्थिति के प्रति पूरी तरह सावधान नजर आते थे। इस आयाम को संभव बनाने के लिए मार्कण्डेय अनुभव की प्रस्तुति का रेखांकन करते थे। उनकी कोशिश रहती थी कि पात्र अपने व्यक्तित्व की संपूर्णता में उपस्थित हों। इस प्रक्रिया में लेखकीय रवैया और वैचारिक आग्रह पीछे छूट जाता था और पात्रों के अनुभव का निखार उजागर हो उठता था। मार्कण्डेय ने इसे अपनी कहानियों की विशिष्टता कहा और उन्हें नई कहानी आंदोलन की वैचारिक पहचान बतला कर पेश किया। यह सचेत रणनीति थी और मार्कण्डेय ने इसे पचास और साठ के दशकों के सांस्कृतिक माहौल से जोड़ कर देखा।

इस कथाकार ने कुछ दूसरी सूक्ष्म स्थितियों को भी अपनी रचना में स्थान दिया। बल्कि कहा जा सकता है कि मार्कण्डेय के नारी पात्रों में भावना की प्रबलता और साहसिकता पर अतिरिक्त जोर मिलता है। नारी पात्रों को उनकी कहानियों में जो प्रेरक तत्व हासिल है उसके सामने अनेक पुरुष पात्र फीके जान पड़ते हैं। ऐसा लगता है कि कई बार लेखक अपने नारी पात्र को कलात्मक सूक्ष्मता और सांकेतिकता से समृद्ध करता है। उनकी ‘माही’ शीर्षक कहानी को इसकी मिसाल कहा जा सकता है। इसी तरह उनकी अन्य कहानी ‘सूर्या’’ में यौन भावना का उद्वेग सामाजिक आचरण के नियमों को चुनौती देता प्रतीत होता है। इसी श्रेणी की अन्यतम कहानी ‘प्रिया सैनी’ है जहां एक कलाकार नारी-पात्र के नजरिये से मध्यवर्गीय मानसिकता और वैचारिक सीमा को गहरे ढंग से परिभाषित किया गया है।

फिर भी, ग्रामीण जीवन की कथा ही इस लेखक के सरोकारों का केंद्र रही है। उनकी चर्चित कहानी ‘बीच के लोग’ में पुरानी पीढ़ी और युवा पीढ़ी के बीच का अंतराल स्पष्ट देखा जा सकता है। क्या गांव में विद्यमान अंतर्विरोधों का हल सर्वस्वीकृत आम सहमति और सुधारवाद है, मसलन गांधीवाद जिसके तहत शेर और बकरी एक ही घाट पर पानी पीते हैं, या फिर उस प्रसंग में शोषण से लड़ने के लिए नया संघर्षशील नजरिया अख्तियार करना आवश्यक है? ‘बीच के लोग’ कहानी का यह कथ्य सहसा सत्तर के दशक का प्रतिनिधि सच बन कर उभरता है। इसी आयाम को बाद में मार्कण्डेय ने अपने महत्वपूर्ण उपन्यास ‘अग्निबीज’ में भी विस्तृत फलक पर उभारने का गंभीर प्रयास किया।

मार्कण्डेय की कथा आलोचना से संबंधित पुस्तक ‘कहानी की बात’ का अलग से जिक्र करना जरूरी है। इसके अधिकतर निबंध भैरव प्रसाद गुप्त द्वारा संपादित पत्रिका ‘नई कहानियां’ में प्रकाशित हुए थे। यद्यपि इन निबंधों का चयन स्वयं मार्कण्डेय करते थे, लेकिन कई अवसरों पर भैरव के सुझावों से लाभ मिलने पर मार्कण्डेय के तर्कों का महत्व बढ़ जाता था। संभवतः यह भैरव के व्यक्तित्व का प्रभाव था कि मार्कण्डेय ने निजी प्रकरणों को बहस के दायरे से बाहर रखा और इस तरह विचार पक्षों और तर्कों को वस्तुपरक दिशा में बढ़ाया। यह निश्चित योजना के अधीन होता था और पत्रिका में व्यक्तिवादी मूल्यों तथा जीवनगत बूज्र्वा प्राथमिकताओं को अनावश्यक स्थान न मिलता था। भैरव का संपादकीय अनुशासन रचनाशीलता और आलोचना को बिखरने से बचाता था। इस संपादकीय व्यवहार की मूल्यवत्ता तब स्पष्ट हुई जब क्षुद्र हितों से परिचालित कुछ लेखकों ने भैरव को ‘नई कहानियां’ के संपादकत्व से हटाने की छद्म मुहिम चलाई। नये माहौल में ‘हमदमों’ और ‘दोस्तों’ की एकाएक बन आई और परिणामतः एक जीवंत पत्रिका धीरे धीरे अपनी विचार समर्थक नीति से स्खलित हो गई। द्रष्टव्य है कि भैरव के पत्रिका से हटने पर अचानक मार्कण्डेय का लेखन कम हो गया और उनकी विचार सामग्री पर तो जैसे रोक ही लग गई। फिर भी मार्कण्डेय का कहानी लेखन अभियान जारी रहा और संकलनों तथा छिटपुट पत्रिकाओं के माध्यम से उनकी रचनाएं पाठकों को कुछ अंतराल से ही सही, लेकिन उपलब्ध होती रहीं।

सत्तर का दशक आया तो मार्कण्डेय को स्वतंत्र पत्रिका निकालने की जरूरत महसूस हुई। इस बड़े साइज़ के पन्नों में छपी पत्रिका को मार्कण्डेय ने ‘कथा’ के नाम से निकाला। इसका रूप भी पहले की अधिकतर पत्रिकाओं से भिन्न था। कथा में रचनाएं अवश्य छपती थीं, लेकिन वह मुख्यतः विचार की पत्रिका थी। फिर, इन विचारों का दायरा सांस्कृतिक मसलों तक सीमित न था, बल्कि वहां राजनीतिक परिप्रेक्ष्य पर भी भरपूर सामग्री दी जाती थी। ‘कथा’ के कुछ अंकों में बी0 टी0 रणदिवे जैसे राजनीतिक नेताओं-विचारकों के लेख ही नहीं प्रकाशित हुए बल्कि वैचारिक टकराहट के नजरिये से मसलन गुरु गोलवलकर के विचार भी दिये गए। इसी तरह नव लेखन पर विभिन्न आलोचकों से अपनी स्वतंत्र राय व्यक्त करने को कहा गया। ‘कथा’ के सामग्री चयन में मार्कण्डेय ने किसी संकुचित राजनीतिक आग्रह को स्थान न देकर विमर्श को तरजीह दी। अब भी किंचित बदले आकार में ‘कथा’ के अंक प्रकाशित होते हैं और इस पत्रिका का हर अंक हिंदी समाज के सामने उपलब्धि की भांति स्वीकार किया जाता है। पिछले ही दिनों ‘कथा’ का नया अंक आया है और उसे पाठक वर्ग की सकारात्मक प्रतिक्रिया मिली है। इसी तरह पत्रिका के कुछ समय पहले छपे अंक में मार्कण्डेय ने हिंदी लेखकों से आग्रहपूर्वक माक्र्सवादी आलोचक ओम प्रकाश ग्रेवाल पर लिखने को कहा, ताकि पाठक को साहित्य चिंतन के वैकल्पिक परिप्रेक्ष्य से अवगत कराया जा सके। ऐसा संपादकीय विवेक समकालीन साहित्यिक पत्रकारिता में दुर्लभ है।

मार्कण्डेय के आयोजकीय योगदान पर प्रायः ध्यान नहीं दिया गया है। कम लोग परिचित हैं कि कई महत्वपूर्ण साहित्यिक सम्मेलनों का आयोजन मार्कण्डेय ने किया। इनमें प्रमुख सन 1974 का इलाहाबाद लेखक सम्मेलन है जिसमें लगभग दो सौ लेखकों ने शिरकत की थी। इस सम्मेलन में महादेवी वर्मा, यशपाल, सुमित्रानंदन पंत, हरिशंकर परसाई के साथ साथ भैरव प्रसाद गुप्त, अमरकांत, शेखर जोशी, विजयदेव नारायण साही, जगदीश गुप्त, गिरिराज किशोर के साथ साथ इसराइल, चंद्रभूषण तिवारी, सतीश जमाली, दूधनाथ सिंह, श्रीराम तिवारी और अनेक युवा लेखकों ने हिस्सा लिया था। इन लेखकों की सक्रियता और भागीदारी से उस समय जो माहौल बना उससे तत्कालीन रचना में उत्साह और आवेग का अनोखा संचार हुआ। ‘जनवादी लेखक संघ’ की स्थापना में भी मार्कण्डेय की भूमिका महत्वपूर्ण थी।

मार्कण्डेय योजनाओं के मास्टर कहे जाते हैं। उनके पास हर समय कोई न कोई नया विचार होता है जिसे अंजाम देने में उनका मस्तिष्क सदा सक्रिय रहता था। इस बार उनसे मिलने पर पता चला कि दूसरी भाषाओं में हिंदी रचनाओं का अनुवाद किया जाना कितना जरूरी है। यह कुछ समय पहले सोचे गए कार्यक्रम की अगली कड़ी थी जब उन्होंने एक प्रकाशक को लगभग तैयार कर लिया था कि हिंदी ग्रंथों की एक बड़ी सीरीज हिंदी के साथ साथ अंग्रेजी में भी प्रकाशित की जाएगी। इन दिनों वह ‘कथा’ के अगले अंक की तैयारी में जुटे हैं और पूरी तरह आश्वस्त हैं कि जल्द ही सुनिश्चित-सुनियोजित सामग्री के साथ पत्रिका का नया अंक पाठकों को मिलेगा।


आनंद प्रकाश, बी-4@ 3079, वसंत कुंज, नयी दिल्ली - 110 070 दूरभाषः 26896203

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2 बैठकबाजों का कहना है :

Manju Gupta का कहना है कि -

हिंदी साहित्य के सशक्त साहित्यकार को मेरी विन्रम
श्रधांजली .
मंजू गुप्ता ,वासी नवी मुंबई .

प्रमोद कुमार तिवारी का कहना है कि -

मार्कण्‍डेयजी का नाम आते ही आंखों के सामने इलाहाबाद आ जाता है। 1991 से 1997 के इलाहाबाद प्रवास के दौरान जिन लोगों ने साहित्‍य का संस्‍कार दिया उनमें मार्कण्‍डेयजी प्रमुख रहे। ...कुछ भी कहने का मन नहीं हो रहा। बस उन्‍होंने जिस 'कथा' की शुरूआत की थी वह अनवरत निकलती रहे, यही कामना है।
विनम्र श्रद्धांजली
प्रमोद कुमार तिवारी, साहित्‍य अकादेमी
नई दिल्‍ली

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