Thursday, May 20, 2010

मुखोटे लगा लो .....पैसा कमा लो

तू बेवकूफ है झूठ नहीं बोल सकती थी ...........?
तेरी शकल पर झलक जाता है तेरे मन का भाव ....ऐसे कैसे काम करेगी तू?

अच्छी बातें करने वाले सारे लोग ही अच्छे हो ऐसा जरूरी नहीं होता ...जितना दूर रह सको ऐसे लोगो से उतना दूर रहो ................

उसने पूछा और तूने बता दिया ......बेवकूफ कहीं की ........कुछ नहीं हो सकता तेरा .......

ज्यादा मेहनत और लगन से काम करने की कोई ज़रूरत नहीं है ..काम कोई नहीं देखता .............


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यूँ ही अगर लिखती जाऊँ तो बात बहुत लम्बी हो जाएगी

ये तमाम वाक्य...अक्सर उस लड़की को कहे जाते रहे हैं जो इस दुनिया में रहकर भी उस जैसी नहीं बन पा रही है ....यहाँ मैं ये भी कहना चाहूँगी कि बात सिर्फ उस एक लड़की कि नहीं है ...न जाने कौन-कौन हो इस तरह के दो पाटो में शामिल ...........

बचपन की पढ़ाई-लिखाई और युवा मन के सपनों के साथ आप जब आगे की दुनिया में बढ़ते हैं तो दृश्य बदलने लगता है .......जो आँखे फाड़-फाड़ कर इस दृश्य का लुत्फ़ उठा लेते हैं, वो आगे की इस दुनिया में आगे बढ़ जाते है और जिनकी आँखे इस अजीब तरह के प्रकाश में चुंधिया जाती हैं, वो पहले आँखे मलते हैं और फिर हाथ मलते रह जाते हैं ............जो बातें मैं लिख रही हूँ , बिल्कुल भी नई नहीं हैं ..कहानी, उपन्यास और फिल्मों में कई बार संघर्ष के ऐसे किस्से कमाल किये गए है ........मगर हकीकत में भी जब एक ऐसे बॉक्स के ऑफिस पर आपको हिट होने के लिए मेहनत करनी पड़े जिसका कोई रिश्ता आपके काम से नहीं है .......तो सारी पढ़ाई-लिखाई और सपने कूड़ेदान में डाल देने का मन करता है ........वैसे इन निजी भावनाओं के आलावा भी कुछ तथ्य है जो इन हालातों के लिए जिम्मेदार है ................

प्रोफेशनल बनो
जब आप नौकरी करने निकलते हैं, तो आप के निश्छल और कभी मूर्खता भरे स्वभाव को देखते हुए कहा जाता है क़ि प्रोफेशनल बनो ..........सच मत बोलो .......सब कुछ छुपाओ ...काम आता हो तो भी मत करो.....बॉस के सामने न आता हो तो भी करने का दिखावा करो ........ये कुछ ऐसे टिप्स है जो तथाकथित प्रोफेशनल बनने में आपकी मदद करते हैं ........... कभी कभी मैं सोचती हूँ अगर ये पैमाना न होता तो देश कहीं आगे होता ..यहाँ हर जगह इंसान को नोचा जा रहा है ......जो काम करना चाहता है उसे करने नहीं देते जो नहीं करता उसे फलक पर बिठा देते हैं ...कौन क्यों कब कहाँ कैसे पहुँच गया .......आप सोचते रह जाइये लेकिन कुछ नहीं सूझेगा ...अगर सूझ भी गया तो उस रास्ते पर चलने के लिए आप शायद खुद को तैयार न कर पाए ..........आखिरी रास्ता कता बचा ...अलग अलग सूरते तय करती है ...कभी मुड़ जाना हुआ .......कभी लौटा आना ......कभी खुद को अलविदा करके एक मुखोटे को अपनाना .................फिर फराज के वो शब्द कि .......मंजिले दूर भी है ....मंजिले नजदीक भी ....अपने ही पाँव में कोई जंजीर पड़ी हो जैसे ........


हिमानी दीवान

Wednesday, May 19, 2010

ले डूबा भ्रष्टाचार

और फिर एक और संस्था मलबे में तब्दील हो गई...संस्था से मतलब इंस्टीट्यूट से नहीं बल्कि इंस्टीट्यूशन से...इंस्टीट्यूशन, जिसे बनने और बनाने में लंबा ऐतिहासिक सफर तय करना पड़ता है...और फिर उसका यूं बिखर जाना...बेहद दुखद.
हम बात कर रहे हैं एमसीआई, मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया की...जो अब सिर्फ इतिहास बन चुका है...क्योंकि एमसीआई के चेयरमैन केतन देसाई को भ्रष्टाचार के एक मामले में गिरफ्तार होने के बाद उसे भंग कर दिया गया...जिस पर बाद में राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने अपनी मुहर लगा दी...और अब पूरे गाजे-बाजे के साथ एमसीआई जमींदोज हो गई...इस नए संकल्प के साथ कि अगले साल से केंद्र द्वार बनाए गए नए क़ानून के तहत एमसीआई की जगह एक नई संस्था का गठन होगा...यानी एक संस्था इतिहास के पन्नों में और दूसरी इतिहास के पहले पन्ने पर...

क्या थी एमसीआई?
एमसीआई का गठन इंडियन मेडिकल काउंसिल एक्ट 1933 के तहत, 1934 में किया गया.
उद्देश्य था...देश के सभी मेडिकल कॉलेजों का नियमन...आजादी तक तो सब ठीक था...लोकिन आजादी के बाद मेडिकल कॉलेजों की संख्या धड़ल्ले से बढ़ने लगी...तो समस्याएं भी बढ़ने लगीं...फिर धीरे-धीरे यह महसूस किया जाने लगा कि 1934 में बनाए गए...नियम कानूनों में कुछ सुधारों की ज़रूरत है...जिसके चलते 1956 में इसकी जगह एक काफी हद तक नया...एक्ट लाया गया...जिसमें बाद में फिर 1964, 1993 और 2001 में तीन संशोधन किए गए...इसके उद्देश्य बहुत स्पष्ट थे...सभी संस्थानों में पढ़ाई का स्तर समान रखते हुए...भारतीय और अन्य विदेशी संस्थाओं के मान्यता संबंधी फैसले लेना....उचित डिग्री और योग्यता वाले डॉक्टरों का पंजीकरण और उनकी स्थाई और अस्थाई मान्यता...और विदेशी संस्थाओं से आपसी सामंजस्य के साथ मान्यता संबंधी मसले पर काम करना.

ले डूबा भ्रष्टाचार
एमसीआई कौन है, क्या है...इसके बारे में विरले लोगों को ही पता था...यूं कहें किंचित ही लोगों ने इसका नाम भी सुना हो...लेकिन मीडिया की देन कहें या फिर एमसीआई के तात्कालिक चेयरमैन के सुकृत्यों की अनुकंपा, कि अब काफी लोग जान गए हैं कि एमसीआई क्या थी...दरअसल, एमसीआई चेयरमैन केतन देसाई को इसी साल 22 अप्रैल को सीबीआई ने रिश्वत लेते हुए गिरफ़्तार किया था...वजह थी पंजाब मेडिकल कॉलेज को बिना सुविधा के अतिरिक्त छात्रों को भर्ती करने की अनुमति देने के लिए रिश्वत की मांग...रिश्वत लेते हुए पकड़े जाने के बाद उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ गया...और इस तरह 22 अप्रैल को ही आजादी पूर्व के इस संस्थान की विदाई का ब्लूप्रिंट तैयार हो गया...जो जल्द ही जमीनी हक़ीक़ीत में तब्दील हो गई...

नहीं पता कब तक, ऐसे भ्रष्टाचार देश के छोटे से लेकर बड़े संस्थानों को अपनी जद में लेते रहेंगे...लेकिन एक बात तो तय है संस्था चाहे छोटी हो या बड़ी...हर संस्था के खात्मे के साथ... आस्था के स्तंभ भी ध्वस्त होते हैं...परंपरा है, परंपराओं का क्या...ये तो शास्वत प्रक्रिया है...चलती रहेगी...कल को फिर कोई देसाई आएगा और अपने कारनामों के साथ आस्था के हज़ारों-हज़ार स्तंभों को ध्वस्त कर जाएगा...

आलोक सिंह साहिल

Monday, May 17, 2010

कुछ सवाल - स्त्री ( मुक्ति या मौत )

कुछ दिन पहले मोबाइल पर एक एसएमएस आया ...
एक लड़की बस स्टॉप पर खड़ी थी
तभी वहां एक आदमी आया और बोला
ऐ चलती है क्या नौ से बारह
लड़की ने पलटकर देखा
और कहा
पापा
मैं
हूँ

मेरे छोटे भाई-बहिन जो इस सन्देश की गहराई को भांप नहीं सके उन्हें इस पर हंसी आ गई ..लेकिन मेरे सामने एक गंभीर दृश्य अंकित हो गया ..जिसने कई परतों को पलटना शुरू कर दिया.

उनमें से एक समसामयिक परत है निरुपमा की मौत का मामला ....ये मौत हत्या है या आत्महत्या इसकी गुथ्थी हर मामले की तरह न जाने कब तक सुलझेगी लेकिन कुछ उलझाने वाले सवाल ये है कि अगर सचमुच में निरुपमा की हत्या की गई है तो उसकी मुख्य वजह क्या है ......एक दूसरी जाति के लड़के से सम्बन्ध या फिर उसका बिन ब्याहे माँ बनना .......इस सवाल का जवाब तो हत्या करने वाले को ही ठीक-ठीक मालूम होगा. लेकिन अगर ये हत्या है तो इसे सिर्फ निरुपमा की हत्या नहीं माना जाना चाहिए ...हर उस लड़की के लिए मौत का एक प्रस्ताव पेश करने वाली इस घटना पर अलोक धन्वा के ये शब्द काफी कुछ कह जाने में मदद करते है ................. सिर्फ़ जन्म देना ही स्त्री होना नहीं है/तुम्हारे टैंक जैसे बन्द और मज़बूत/घर से बाहर/ लड़कियाँ काफ़ी बदल चुकी हैं/मैं तुम्हें यह इजाज़त नहीं दूँगा/कि तुम अब/ उनकी सम्भावना की भी तस्करी करो/वह कहीं भी हो सकती है/ गिर सकती है/बिखर सकती है/लेकिन वह खुद शमिल होगी सब में/ग़लतियाँ भी ख़ुद ही करेगी/सब कुछ देखेगी/शुरू से अन्त तक/अपना अन्त भी देखती हुई जायेगी/किसी दूसरे की मृत्यु नहीं मरेगी।

मेरा ये सब लिखना लड़कियों के घर से भागने को सही ठहराने के लिए नहीं है ...बल्कि अभिभावकों के संकीर्ण और अड़ियल रवैये को गलत बताने के लिए है ....क्योंकि घर से भागने की वजह कहीं न कहीं घर से मिलने वाले प्यार और सहयोग की कमी भी है

दूसरी बात जो इस घटना से उठी है उसमे स्त्री मुक्ति से जुड़े कुछ सवाल उठ खड़े हुए है .....आधुनिक संसाधनों का भरपूर प्रयोग करने वाले प्रहरी निरुपमा के प्रेंगनेंट होने की खबर सुनकर ये प्रश्न उठा रहे है क़ि उसके जैसी पढ़ी-लिखी लड़की को क्या गर्भ निरोधक के बारे में जानकारी नहीं थी ....अगर वह उनका इस्तेमाल करती तो शायद उसकी ये नियति न होती ................जाने माने लेखक और विचारक राजकिशोर का ताजतारीन लेख अखबार में पढ़ा तो स्त्री मुक्ति का ये प्रश्न और भी गहरा गया ....जादुई गोली के पचास साल ...यहाँ वो जादुई गोली का इस्तेमाल गर्भनिरोधक गोली के लिए कर रहे है ....वे कहते हैं ...इस गोली ने स्त्री समुदाय को एक बहुत बड़ी प्राकृतिक जंजीर से मुक्ति दी है ..अगर ये गोली न होती तो यौन क्रांति भी न होती . यौन क्रांति न होती तो स्त्री स्वंत्रता के आयाम भी बहुत सीमित रह जाते ..इस गोली ने एक महतवपूर्ण सत्य से हमारा साक्षात्कार कराया है क़ि यौन समागम कोई इतनी बड़ी घटना नहीं है जितना इसे बना दिया गया है ...यह वैसा ही है जैसा एक मानव व्यवहार है जैसे खाना, पीना या चलना-फिरना ........

अगर बिना कोई तर्क किये इन शब्दों पर सहमति की मोहर लगा दी जाती है तो स्त्री विमर्श के लिए उठने वाले सभी सवाल खुद ही ढेर हो जायेंगे .....................लेकिन क्या ये इतना आसान होगा भावनात्मक और प्रयोगात्मक दोनों सूरतों में क्या शब्दों की ये आजादी समाज में अकार ले सकती है ...................ये बेहद पेचीदा प्रश्न है। सम्भोग अगर आजादी है तो ये समाज उसे कब क्या नाम देगा इसकी आजादी वो हमेशा से लेता आया है ......यूँ तो पत्नी ...नहीं तो प्रेमिका ........और वर्ना वेश्या

हिमानी दीवान

Sunday, May 16, 2010

बेआबरू क्रिकेटरों के देश में

आजकल क्रिकेट पर बड़ी बहस चल रही है। टी-20 वर्ल्ड कप में हार का जिम्मेदार किसे ठहराया जाये। कप्तान धोनी का हनीमून पीरियड खत्म होता दिख रहा है। आईपीएल और मोदी से शुरू हुआ किस्सा अब पार्टियों पैसा और पब पर आकर रुका हुआ है। खिलाड़ी देर रात पार्टियों में जाते हैं। शराब, शबाब और कबाब के दौर चलते हैं। इन सब से खेल और खिलाड़ियों पर असर पड़ना लाज़मी है। ये हम सब जानते हैं।

खेल पर असर पड़ना अभी शुरू हुआ हो ऐसा भी नहीं है। एक मैच में सूरज बने खिलाड़ी को जब हर ब्रैंड खरीद लेता है तो उस सूरज को गुमान हो ही जाता है। नये नये खिलाड़ी इतनी जल्दी पैसा कमाने लगते हैं कि वे भूल ही जाते हैं कि उन्हें क्रिकेट खेलना है और देश के लिये खेलना है।

करीबन दस साल पहले सौरव गांगुली ने टीम की कप्तानी ली तब टीम नाम के लिये थी। कोई दमखम या जीतने का जज़्बा न था। कहते हैं कि दादा ने ही टीम बनाई। युवराज, भज्जी, जहीर, सहवाग, नेहरा आदि युवा तभी अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में आये। दादा के नेतृत्व में भारत ने विदेश में जीतना शुरु किया और धीरे धीरे "टीम" बन गई। लेकिन नये खिलाड़ियों के जोश को भुना नये-नये ब्रैंड ने। हर क्रिकेटर ऊपर से नीचे तक बिक गया और तब बॉलीवुड और क्रिकेट का "ब्लैंड" बनना भी शुरू होने लगा। तभी क्रिकेट की बर्बादी भी शुरु हुई। उसके बाद "युवा" धोनी को टीम की कमान सौंप दी गई।

हमारा क्रिकेट बोर्ड क्रिकेट का ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व का सबसे अमीर बोर्ड है। लेकिन शायद सबसे कम आयकर देता होगा। कारण यह कि हमारे बोर्ड को "चैरिटेबल संस्था" का दर्जा मिला हुआ है। और इस चरिटेबल संस्था में चैरिटी करते हैं हमारे नेता। हैरानी की बात यह कि क्रिकेट को चलाने में किसी खिलाड़ी का नहीं बल्कि नेताओं का हाथ होता है। यदि सरकार चाहे तो क्रिकेट बोर्ड से इतना टैक्स वसूल कर सकती है कि बाकि खेलों के बोर्ड अपना खर्चा आराम से चला सकते हैं।

अब बोर्ड की खेल से बेरूखी देखिये। आप जानते हैं कि महिला टीम विश्वकप के सेमीफ़ाइनल तक पहुँची और आईपीएल से वार्म-अप होकर विश्वकप खेलने पहुँचे और बड़े-बेआबरू होकर उनके कूँचे से वापस लौटे हैं। हाल ही में मैंने खबर पड़ी कि महिला टीम के विदेश रवाना होने से ठीक पहले उनके कोच को बदल दिया गया। यानी कि खेल को कैसे बिगाड़ना है वो सारा खेल बोर्ड जानता है।

तो ये थे कुछ ऐसे कारण/गतिविधियाँ जिनसे पता चल सकता है कि जो कुछ हो रहा है वो अभी से नहीं हो रहा। पर जो हो रहा है वो खेल के लिये अच्छा हो रहा है। चलते-चलते महिला टीम को सेमीफ़ाइनल पहुँचने की, आनंद को विश्व-चैम्पियन, सुशील कुमार को एशिया चैम्पियन और हॉकी टीम को बधाई देते चलें जिनकी खोज खबर मीडिया वाले नहीं लेंगे। क्योंकि ये खबरें प्राइम टाइम में पैसा कमाने का जरिया नहीं बनते। मीडिया को अगर मैं अपने लेख में न कोसूँ तो मेरा लिखना पूरा नहीं होता। भारतीय टीम को "टीम इंडिया" का खिताब इसी मीडिया ने दिया था। सर पर भी यही चढ़ाता है और उतारता भी यही है। बहुत कारण निकल सकते हैं ये खेल बिगड़ने के। फ़िलहाल तो यही कह सकते हैं कि क्लाइमेक्स जबर्दस्त होने वाला है। आईपीएल से बड़ा सट्टा लगेगा। आगे आगे देखते हैं होता है क्या!!

पहलवान सुशील कुमार एम.एस.सी (फ़िज़िकल एजुकेशन) कर रहे हैं। उन्हें शुभकामनायें भी देते जायें।

-तपन शर्मा

Saturday, May 15, 2010

पत्नियों के साथ रात बिताने का हक...

पाकिस्तान...जिसका नाम आते ही जेहन में बेहद दकियानुसी और फिल्मों एवं मीडिया की बदौलत बनी एक स्टीरियोटाइप तस्वीर सामने आने लगती है...लेकिन इसबार कुछ अलग और दिलचस्प मामला है...माजरा ऐसा कि सुनकर यकायक यकीन नहीं होगा कि यह ख़बर पाकिस्तान से आई है...जी हां, पाकिस्तान के सिंध प्रांत की सरकार ने क़ैदियों को उनकी पत्नियों से जेल के भीतर मिलने और रात गुजारने की सुविधा देने की घोषणा की है और बाकायदा इसकी व्यवस्था करने के लिए जेल अधिकारियों को आदेश भी दिया है.
पाकिस्तान की स्टेट होम मिनिस्ट्री ने इस संबंध में एक अधिसूचना जारी की है, जिसमें कहा गया है कि सिंध प्रांत की जेलों में क़ैद पुरूषों की पत्नियां अब उनके साथ हर 3 महीने के बाद जेल की भीतर एक रात बिता सकती हैं…
जेल अधिकारियों का आदेश दिया गया है कि जेल के भीतर क़ैदियों और उनकी पत्नियों के मिलने के लिए एक जगह की व्यवस्था की जाए...साथ ही उनकी गोपनीयता का भी ध्यान रखा जाए.
अधिसूचना के अनुसार 5 साल या उससे अधिक की सज़ा वाले क़ैदी इस सरकारी राहत से लाभ उठा सकते हैं...जो क़ैदी इस सुविधा का लाभ लेना चाहते हैं, उन्हें सबसे पहले जेल के अधीक्षक के समक्ष अपना निकाहनामा प्रस्तुत करना होगा...
अधिसूचना में कहा गया है कि अगर किसी क़ैदी की 2 पत्नियाँ हैं तो उन्हें अलग अलग समय दिया जाएगा, जबकि महिलाएं अपने साथ 6 साल की उम्र तक के बच्चों को भी ला सकती हैं...ये तो बल्ले-बल्ले है जी.
लेकिन ऐसा नहीं कि सभी क़ैदियों को यह सुविधा मिलने वाली है...पहली बंदिश तो 5 साल से अधिक की क़ैद होना है, दूसरी यह है कि संबंधित क़ैदी आतंकवाद के मामले में लिप्त न हो...या उस पर इससे संबंधित कोई मुकदमा न चल रहा हो.
खैर, एक तरफ जहां इस सुविधा को वाज़िब और लोकहित में बताया जा रहा है, वहीं सिंध के जेल अधीक्षकों के कान खड़े हो गए हैं...सरकार का क्या है...घोषणा तो सरकार ने कर दी, लेकिन मूर्त रूप तो उन्हें ही देना...ग़ौरतलब है कि सिंध प्रांत की 20 जेलों में 14 हज़ार के करीब क़ैदी बंद हैं...जबकि इन जेलों में 10 हज़ार क़ैदियों के रखने की ही जगह है...यानी एक तो पहले से ही सुपर हाउसफुल है...ऊपर से जब बीवी और बच्चों वाली बात आएगी, तो उनकी व्यवस्था कैसे की जाएगी...वह भी निहायत ही पोशीदा तरीके से...और तुर्रा ये कि इनमें से 75 फीसदी क़ैदियों के मुक़दमे अदालतों में चल रहे हैं.
हाल ही में अदालत ने अपने एक फैसले में कहा था कि शादीशुदा क़ैदी को अपनी पत्नी से मिलना का पूरा अधिकार है और यह सुविधा उसे जेल के भीतर दी जानी चाहिए...अदालत का कहना था कि क़ैदी अपनी पत्नी से न मिलने की वजह से मानसिक बीमारी का भी शिकार होते हैं और अक्सर नशीले पदार्थों का सेवन करते हैं...यहां एक बात गौर करने वाली है कि जब क़ैदी जेल के अंदर हैं, तो उन्हें नशीले पदार्थ कहां से उपलब्ध होते हैं...यानी प्रशासन और व्यवस्था...अनचाहे और अप्रत्यक्ष रूप से यह भी मानती है कि उनकी जेलों में हिंदुस्तान की जेलों की ही तरह सबकुछ दुरुस्त है (खासकर बेऊर जैसी जेलों की तरह, जहां उत्कृष्ट किस्म के साहित्य से लेकर गुब्बारे और भी जाने क्या-क्या उपलब्ध होते रहते हैं)
इससे पहले भी 2005 में, पाकिस्तान के पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत की सरकार ने एक अधिसूचना जारी कर क़ैदियों को जेल के भीतर साल में 3 दिन अपनी पत्नियों के साथ रहने की अनुमति दी थी, जिसका व्यापक स्तर पर स्वागत किया गया था...यानी पश्चिमोत्तर प्रांत से चली ये बयार अभी दूर तलक जाएगी...अब तो भारत के क़ैदियों की भी यही तमन्ना है कि काश ! ये बयार भारतीय सरहद में दाखिल हो जाए.

आलोक सिंह साहिल

Wednesday, May 12, 2010

भ्रष्टाचार- रिस रहा है मवाद

हिमानी दीवान

आस पास से शुरू करे तो सब कुछ खूबसूरत लगता है। रोटी और सुकून के लिए जद्दोजहद करते चेहरों के बीच यह कहना बेहद मुश्किल हैं की कौन भ्रष्ट है। एक-एक चेहरे को परखने लगे तो सभी और सबके भीतर झाँके तो कोई भी नही। फिर भी क्यों हमारी छवि भ्रष्ट होती जा रही है। क्या हम अकेलेपन में बेहद इमानदार और समूह में बहुत लालची है। या फिर सारा कसूर इस व्यवस्था का है ...वही हमें भ्रष्ट बना रही है....दरअसल

किसी व्यक्ति का व्यवहार कब भ्रष्ट होता है। ये सवाल आज की परिस्थितियों में बिलकुल बचकाना लगता है। वास्तविक सवाल यह है कि हम कब भ्रष्ट नहीं होते? रिश्वत देना तो खुद पापा ने सिखाया...यह महज एक मनोरंजन प्रधान फिल्म के गीत के बोल नहीं बल्कि समाज की हक़ीक़त है। अगर तुम क्लास में प्रथम आओगे तो हम तुम्हें साइकिल दिलायेंगे, बचपन में मिलने वाले इस प्रलोभन के साथ बड़प्पन आने तक कई दूसरे आयाम जुड़ जाते है। शोहरत और बुलंदियों तक पहुंचने का सपना, इस जैसा..उस जैसा बनने की तमन्ना में नैतिकता के नारों का शोर स्वहित को साधने वाले सन्नाटे में तब्दील हो जाता है। इससे स्वार्थ सिद्धी का ऐसा मकड़जाल तैयार होता है कि कोई अपनी मर्जी से और कोई न चाहते हुये भी उसमें फँसता ही जाता है। भ्रष्ट आचरण की शुरुआत घर से होती है और बाहर आकर बीज रूप में पनपा यह भ्रष्ट आचरण ऐसा पेड़ बन जाता है जिसकी सिंचाई के लिये रिश्वत, धोखा, धांधली और घोटालों की खाद तैयार की जाने लगती है। इस खाद का साइड एफ्फेक्ट गरीब और कमजोर भुगतते हैं। इससे एक तरफ गरीबी उनमूलन की योजनाओं का बंटाधार होता है, दूसरी तरफ कानून और न्याय की नींव हिलती है।

फलती फूलती फसल

लेखिका- हिमानी दीवान

अपनी मन की करते हुए दिल्ली विश्विधायालय से मीडिया की पढ़ाई और अब उस पढ़ाई को आजमाने की कोशिश में हैं। लिखने-पढ़ने का शौक बचपन से और अब ये शौक ही जिंदगी बन गया लगता है।
बीज से पेड़ बनने के बाद भ्रष्टाचार को फलने-फूलने का माहोल देती है हमारी सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था। इस व्यवस्था में निजी पूंजी को फैलने की बेलगाम आजादी दी जाती है। इस के लिये तमाम नियम-कानूनों को तोड़ कर, जिम्मेदार अफसरों को साझीदार बनाकर जरुरतमंद जनसंखया को किनारे कर दिया जाता है। मामूली से दफ्तर से लेकर बड़े प्रशासनिक कार्यलयों तक ऐसे कई बाबू है जो आप को इन शब्दों की बानगी दिखाने के लिये हमेशा तत्पर दिखाई देंगे। इसी लिए ही शायद कहा जाता है की भ्रष्टाचार का सबसे ताकतवर त्रिगुट राजनीटिक नौकरशाह और व्यापारी का है। तीनों अपनी पूंजी की बाल्टियां भरने के लिये पूंजीपतियों से लेकर आम इंसान का इस्तेमाल करने में गुरेज नहीं करते। अब अगर भ्रष्टाचार को ‘पूंजी का पूंजी के लिये पूंजी के पुजारियों द्वारा किया गया गलत इस्तेमाल कहें’ तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। आलम यह है कि भ्रष्टाचार की फसल को अनुकूलीत करने वाले ही आयोग बना कर जांच का आदेश देते है। यह आयोग महज खानापूर्ति भर होते है वर्षों तक जांच चलती रहती है और भ्रष्टाचार का मवाद नासूर बनकर गरीब, लाचार जनता का शोषण करता रहता है।

फसल को गिजा-पानी देती जनता

जिस व्यवस्था के अंदर ये फसल फल-फूल रही है उस का अहम अंग है हम यानी जनता। नौकरशाह बेशक कितने ही तानाशाह क्यों न हो जाये लेकिन इस फसल को पानी देने में जनता के योगदान को खारिज नहीं किया जा सकता । इस पहलू की खास बात ये है की जनता भ्रष्टाचार को मुद्दा ही नहीं मानती। उनके बीच ये सोच विकसित होती जा रही है की ऐसा तो होता ही है। यह उदासीन आदत ही सबसे खतरनाक साबित हो रहा है। इसी का नतीजा है कि इस फसल से हर साल नए-नए फल मिल रहे है।

फिर चाहे वह बरसो पुराने कुछ घोटाले हों या कुछ एक साल पहले वाला सत्यम घोटाला या फिर ताजा ट्रेन खेल में खेला गया खेल यानी आई पी एल।

Tuesday, May 11, 2010

भाषा पर बवेला क्यों...

आलोक सिंह साहिल

मीडिया की भाषा...आज की तारीख में, मीडिया से जुड़ी हर दूसरी बहस का मुद्दा सिर्फ यही है...मीडिया से आशय टीवी चैनलों की भाषा से है...अमूमन हर रोज कहीं न कहीं किसी अखबार, पत्रिका या नेट पर किसी कोने में मीडिया की भाषा पर पढ़ने को मिल जाता है....समझ नहीं आता...कि माजरा क्या है...मुझे नहीं लगता (शायद उम्र का भी दोष है, क्योंकि तब मैं पैदा भी नहीं हुआ था, या फिर इसका कारण व्यापक अध्ययन की कमी हो सकती है) कि इतनी बहस किसी बड़े से बड़े कालजयी कवि, लेखक या उनकी रचना में युक्त भाषा पर हुआ होगा...
कम से कम इससे एक बात तो साफ हो ही जाती है कि लोग मीडिया का एहतराम तो करते हैं...
खैर, मुद्दे पर लौटते हैं, मीडिया की भाषा...
पिछले 15-17 सालों से मैं लगातार टीवी चैनलों को देखता आ रहा हूँ...तब से, जब समाचार और चैनल का मतलब, सिर्फ दूरदर्शन हुआ करता था...जिस पर हर बुलेटिन में कोई न कोई मंत्री जी हाथों में कैंची लिए, फीता (रिबन) काटते दिखते...और जिसकी भाषा में मानो मोहन राकेश और पंत जी की आत्माओं ने कब्जा कर रखा था....तब मुझे अच्छे से याद है, शायद ही कभी मैंने टीवी या इससे इतर कहीं टीवी की भाषा पर कोई बवेला खड़ा होते देखा या सुना (अगर हुआ भी होगा, तो ऐसा जिसे नगण्य मानने में बहुत मेहनत नहीं करनी पड़ेगी)....
फिर, आज क्यों...? क्या इसलिए कि आज मीडिया ने अपने पर बड़े तेजी से फैला लिए हैं...और यह बात उन लोगों के हाजमे के लिए माकूल नहीं, जिन्हें लाख कोशिशों के बाद भी इस इंडस्ट्री में हाइप नहीं मिल पाया...या फिर वजह कोई दूसरी है...आखिर किस बात से एतराज है लोगों को...इससे कि आज मीडिया की भाषा ज्यादा सरल और लोकप्रिय हो गई है...आज हम हिंदी के समाचार में धड़ल्ले से ऊर्दू और अंग्रेज़ी के लोकप्रिय शब्दों का इस्तेमाल करने से नहीं चूकते...या फिर उनके लिए यही महत्वपूर्ण है कि जब बात हिंदी की हो, तो सिर्फ हिंदी का ही उपयोग किया जाए...भला यह कौन सी बुद्धिमत्ता है...
मुझे याद है, हिंद युग्म के एक कार्यक्रम के दौरान राजेंद्र यादव जी ने कहा था, “16वीं शताब्दी से पहले की रचनाओं को लॉकर में बंद कर देना चाहिए क्योंकि इससे हिंदी को सबसे अधिक नुकसान हुआ है”....क्षणिक तौर पर शायद यह बात हमारे मन को बुरी लगे....लेकिन ज़रा शांत दिमाग से सोचिए...क्या इतनी गलत बात कह दी थी राजेंद्र जी ने, वह भी तो इसी भाषा की रोटी खाते हैं...हिंदी का बुरा भला क्योंकर सोचेंगे...
हिंदी हमारी राष्ट्र भाषा है...लेकिन जब हमारा सामना पूरे राष्ट्र से होता है, तो निश्चित रूप से हमें ऐसे सरल, स्पष्ट और प्रभावशाली भाषा की दरकार होती है, जो पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक के हर उस व्यक्ति को समझ आ जाए, जिसे हिंदी का एलिमेंटरी ज्ञान भी हो....और इसी भाषा का तो टीवी चैनलों में प्रयोग होता है...हां, आपको आपत्ति हो सकती है इस बात से कि...उसमें बहुतेरे शब्द अंग्रेजी और ऊर्दू के होते हैं...ये तो हिंदी के साथ नाइंसाफी है!
लेकिन ज़रा इसका दूसरा पहलू भी तो देखिए...नाइंसाफी तो आप कर रहे हैं, हिंदी को दायरों में संकुचित करके...क्या जरूरी है कि हिंदी सिर्फ 2-3 हिंदी भाषी राज्यों की ही अमानत बनी रहे...अगर आज इसका फलक विस्तृत हो रहा है, तो इसमें गलत क्या है...और वैसे भी हिंदी में मिश्रित ऊर्दू, अंग्रेजी और कुछ देशज शब्द तो हिंदी की सुंदरता और इसकी गरिष्ठता बढ़ाने के लिए हैं....भला इनसे हिंदी को क्या ख़तरा...
16वीं सदी में मशहूर शायर मसहफी ने एक शेर लिखा था...मौजूं है...इसलिए लिख रहा हूं...
खुदा रखे जबां हमने सुनी है मिर ओ मिर्ज़ा की,
कहें किस मुंह से ऐ मसहफी ऊर्दू हमारी है...
ऊपर लिखा हुआ शेर, कदाचित साहित्य में पहला दस्तावेज है, जो यह बताता है कि हिंदी और ऊर्दू कभी अलग नहीं थे...ऊर्दू तो हिंदी का ही एक अंश है...तो फिर ऊर्दू से गुरेज क्यों..दूसरी बात अंग्रेज़ी की...तो आज की तारीख में, हमारी बोल-चाल की भाषा में सामान्य रूप से 15-20 फीसदी शब्द अंग्रेज़ी के होते हैं...जो उन्हीं शब्दों के हिंदी वर्जन से ज्यादा सहज और ग्राह्य हैं...अगर इन्हीं शब्दों को हम अपनी भाषा में प्रयुक्त करते हैं, तो फिर बवेला क्यों मचता है...
हां, एक स्तर पर मीडिया की भाषा के ख़िलाफ उठने वाली आवाजों को थोड़ा जायज ठहराया जा सकता है, वह है उच्चारण के स्तर पर....आज के तमाम टीवी स्टार्स (एंकर, बेहतर होगा समाचार वाचकों) की तल्लफुस माशा अल्लाह होती है...यह दुखद है, लेकिन कुछ बातों के लिए तो हमें एक्सक्यूज़ मिलना ही चाहिए....और शायद भाषायी स्तर पर हो रहे आलोचना में यही एकमात्र स्तर है, जहां आलोचक सही सही ठहरते हैं...लेकिन हक़ीक़त यह है कि इस मसले पर ध्यान बिरले ही लोग देते हैं...फिर किस बात के लिए हल्लाबोल...
सच तो यह है कि, टीवी चैनलों ने हिंदी का जितना प्रसार किया है...उतना और किसी ने नहीं किया...चाहे वह कोई साहित्यिक रचना हो...या कोई हिंदी का प्रकांड विद्वान...
एक सामान्य सी बात है....रामचरित मानस के रचयिता तुलसीदास का नाम हर एक को याद है...अक्सर लोगों को इसकी पंक्तियाँ भी याद हैं....क्योंकि रामचरित मानस की सहजता ने इसे लोकप्रिय और लोकगामी बनाया...और जन-जन ने इसे अंगीकार कर लिया...शायद ही दुनिया की कोई ऐसी भाषा हो जिसमें इसका अनुवाद न हुआ....लेकिन मुट्ठीभर लोगों को भी शायद ही याद होगा (हिंदी के स्नातकों या परास्नातकों की बात छोड़ दें, तो क्योंकि पास होने के लिए बहुत कुछ पढ़ना पड़ता है) कवि केशव दास जी ने भी रामचरित मानस की तुलना में रामचंद्रिका की रचना की...लेकिन पूर्वाग्रही भाषा के चलते यह हिंदी के कुछ विशेष विद्वानों और संग्रहालयों से आगे नहीं बढ़ पाया...
तो, अगर लोग आज मीडिया की भाषा को ऐसे ही स्तर पर पहुँचाने की कल्पना करते हैं, जहां पहुँच कर इसकी कम्यूनिकेशन की क्षमता खत्म हो जाए और यह सिर्फ कुछ पोशीदा शय में शुमार हो जाए...तो इसे सिर्फ उनकी गफलत ही कहा जा सकता है...

Thursday, May 06, 2010

मीडिया आपको क्यों बनाए सेलिब्रिटी

हिन्दीबाजी-7
~अभिषेक कश्यप*


भाग-6 से आगे॰॰॰॰

हिंदी के लेखकों-बुद्धिजीवियों की कुछ तकलीफें शाश्वत किस्म की हैं। मगर इनमें शायद सबसे अहम शिकायत यह है कि हमें कोई पूछता नहीं। मतलब एक लेखक और बुद्धिजीवी के तौर पर हमारी कोई आईडेंटिटी नहीं।

पिछले हफ्ते मैं तीसीयों साल से दिल्ली में रह रहे हिंदी के एक बड़े कवि-कथाकार से मिलने गया। वह दिल्ली से प्रकाशित एक राष्ट्रीय अखबार के संपादक हैं। उनके खाते में सभी विद्याओं की दो दर्जन किताबें और दर्जन भर विदेश यात्राएं दर्ज हैं। उन्होंने चुटकी लेते हुए बताया-‘मैं बीस साल से पूर्वी दिल्ली के जिस अपार्टमेंट में रहता हूँ, वहां मेरा पड़ोसी भी नहीं जानता कि मैं लेखक हूँ। लोग बस यह जानते हैं कि मैं पत्रकार हूँ और फलाँ अखबार में काम करता हूँ।’

यह अफसोस, पहचान का यह संकट तब और दुख देता है जब हिंदी के अखबार, पत्रिकाएँ और टेलीविजन न्यूज चैनल भी हिंदी के लेखकों-बुद्धिजीवियों की बजाए अंग्रेजी के कलमनवीसों को ही तवज्जो देते हैं। जब अरुंधति राय नक्सल मामले पर गृहमंत्री चिदंबरम की आलोचना करती हैं तो यह ब्रेकिंग न्यूज है मगर राजेंद्र यादव किसी पुरस्कार की चयन समिति की ज्यूरी में रहने के बावजूद पुरस्कार समारोह में इसलिए नहीं जाते कि उन्हें गुजरात का ब्रांड एम्बेसडर बन कर नरेंद्र मोदी की तारीफों के पुल बांधनेवाले अमिताभ बच्चन के साथ बैठना पड़ेगा तो उनका यह नैतिक स्टैंड मीडिया के लिए कोई खबर नहीं। अशोक वाजपेयी की खीज को इसी रोशनी में देखा जा सकता है-‘क्यों हिंदी मीडिया ने हिंदी लेखकों को सेलिब्रिटी बनाने की कोशिश नहीं की?’ अब श्री वाजपेयी के इस भोलेपन पर कौन न रीझ जाए! हिंदी मीडिया को दोष देने से कुछ हासिल नहीं होनेवाला। मीडिया हिंदी का हो या अंग्रेजी का, वह बाजार के नियमों पर ही चलता है। वह उसी को सेलिब्रिटी बनाने की कोशिश करेगा जिनकी मार्केट वैल्यू हो या फिर जिसकी लोगों के बीच वकत हो। लालू यादव, स्वामी रामदेव, शहरूख खान, राखी सावंत के समानांतर सलमान रुश्दी, अरुंधति राय या विक्रम सेठ की अपनी मार्केट वैल्यू है। उनकी किताबों की लाखों प्रतियाँ बिकती हैं और लेखक के तौर पर उनकी प्रतिष्ठा विश्वव्यापी है। मगर हिंदी के लेखक के पास इन दोनों में से कुछ नहीं है - न मार्केट वैल्यू न वकत। लाखों की बात कौन कहे, हमारे मूर्धन्य लेखकों की पुस्तकों का 500 प्रतियों का पहला संस्करण ही सरकारी खरीद का मुहताज होता है। ऐसे में हिंदी हो या अंग्रेजी मीडिया, आपको कौन सेलिब्रिटी बनाएगा?

Sunday, May 02, 2010

उच्च शिक्षा विधेयक यानी उधार का सिंदूर

भारत के नेतृत्व वाली यू.पी.ए. सरकार की कैबिनेट ने देश में विदेशी शिक्षणसंस्थानों को प्रवेश कराने संबंधी विधेयक नेशनल कमीशन फार हायर एजूकेशन एण्ड रिसर्च (एन.सी.एच.ई.आर.) को मंजूरी दे दी। जिसे संसद के सत्र में पेश किया जाना है। मानव संसाधन मंत्री श्री कपिल सिब्बल सहित केन्द्र की सरकार उक्त विधेयक के संदर्भ में अति उत्साह में नजर आ रहे हैं। ऐसा लग रहा है मानो विदेशी शिक्षण संस्थान अपने साथ कोई जादू की छड़ी लेकर भारत आएँगे और एक ही झटके में सम्पूर्ण राष्ट्रीय उच्च शिक्षा के क्षेत्र का कायाकल्प कर देंगे। गौर करने की बात यह है कि पिछले 20 वर्षों से सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) का 4 प्रतिशत हिस्सा शिक्षा के क्षेत्र में खर्च हो रहा था। लेकिन इसे घटाकर 3.5 प्रतिशत कर दिया गया। हमें इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि देश की सरकार के सामने मौजूदा हालात में करीब 18 हजार कालेज तथा 500 विश्वविद्यालयों की स्थिति सुधारने का कोई विशेष एजेन्डा सामने नहीं है। जो उनकी उच्च शिक्षा सुधार विषय की गम्भीरता को दर्शाता है।

अभी लगभग दो वर्षों पहले हमारी सरकार द्वारा एक विशेषज्ञ समिति के माध्यम से ‘‘ज्ञान आयोग रिपोर्ट’’ नाम का एक दस्तावेज जारी हुआ था। जिसके अनुसार अगर भारत में सही शिक्षा प्रबंधन करना तथा वैश्विक दौड़ में रहना है तो उसे अगले 10 वर्षों में 500 विश्वविद्यालयों को बढ़ाकर 1000 करना होगा तथा उन्हें अंतर्राष्ट्रीय मानकों पर भी खरा उतरना होगा। हमारे देश की सरकार सिर्फ 20 नई आई.आई.टी. तथा आई.आई.एम. खोलने में पसीने छोड़ रही है। उक्त विश्वविद्यालयों की संख्या बढ़ाने तथा उनकी शैक्षिक गुणवत्ता को सुधारना उनके बूते की बात नहीं। सो उधार के सिंदूर से सुहागिन बनने का मन बना लिया हमारी सरकार ने तथा अपनी जिम्मेदारी से बचने का खूबसूरत माध्यम भी ढूँढ़ लिया, विदेशी संस्थानों के लिए भारत के दरवाजे खोलकर। एक तरफ शिक्षा के क्षेत्र में कम धन आवंटन तथा दूसरी तरफ अपने संसाधनों की कमी का रोना रोकर हमारी सरकार हर क्षेत्र को धीरे-धीरे निजी तथा विदेशी व्यवस्था के हवाले करती जा रही है। अन्य क्षेत्रों में इसका परिणाम क्या होगा यह शोध का विषय है। परन्तु शिक्षा के क्षेत्र में इसके परिणाम अशुभ ही रहने वाले हैं।

विदेशी विश्वविद्यालयों हेतु प्रावधान किया जा रहा है कि वे भारत के अपने शिक्षण संस्थानों के लाभांश को अपने देश नहीं ले जा सकेंगे। उसे भारत में ही निवेश करना होगा। कोई विदेशी संस्था भारत में सिर्फ सेवा के उद्देश्य से इतनी बड़ी पूँजी लगायेगी बात कुछ समझ में नहीं आती। वैसे तो सरकार का मानना है कि देश के पब्लिक स्कूल कोई लाभांश नहीं कमाते अतः उन्हें टैक्स देने की आवश्यकता भी नहीं। सरकार का मानना या न मानना यह उनका अलग विषय है। परन्तु वास्तविकता सभी जानते हैं। देश के सभी पब्लिक स्कूल एक दुधारू गाय की भूमिका में हैं। यह बात सत्य है कि विदेशी शिक्षण संस्थान हमारे देश में शिक्षा व्यापार के लिए आएँगे तथा किस प्रकार उस संस्थान के माध्यम से अधिक से अधिक लाभ लिया जाय। इस पर ही अपना ध्यान केन्द्रित करेंगे।
हमारे देश का सामान्य वर्ग अभी भी विदेश तथा उनकी शिक्षा को श्रेष्ठ मानता है। उनका विदेशी व्यवस्था, उनके सामाजिक एवं व्यापारिक माहौल तथा उनकी संस्कृति को अपनाने की व्याकुलता प्रायः उनमें देखी जा सकती है। एक बड़ा प्रबुद्ध वर्ग जिसने अपनी राष्ट्रीय भावना तथा कठिन परिस्थितियों में कार्य कर देश में अपना अलग मुकाम हासिल किया। दूसरी तरफ सिर्फ धन एवं विदेशी सुविधा तथा सम्पन्नता प्राप्त करने गये व्यक्ति के लिये ब्रेन-गेन या ऐसे अति योग्यता युक्त शब्दों का बेहिचक प्रयोग किया जाता है। जो प्रथम देशी व्यक्तियों के लिए अपमानजनक सा लगता है।

माननीय कपिल सिब्बल जी बार-बार गुणवत्ता की बात करते हैं। वे विदेशी शिक्षण संस्थानों की कौन सी गुणवत्ता की बात बताना चाहते हैं। जिसे विकसित देश अमेरिका के राष्ट्रपति श्री बराक हुसैन ओबामा भी समझ नहीं सके। उल्टे वे भारत के बच्चों की योग्यता व गुणवत्ता की बात विभिन्न प्रचार माध्यमों द्वारा बेहिचक कई बार कर चुके हैं। हमारे मंत्री महोदय को पता होना चाहिए कि शिक्षण संस्थानों से कहीं अधिक आवश्यकता है बच्चों की गुणवत्ता की जिसमें वैश्विक स्तर पर भारत कहीं अधिक आगे है।

बाजारीकरण की अंधी दौड़ का अंत कहां जाकर होगा अनुमान लगाना कठिन है। परन्तु कुछ नतीजे सामने हैं। जिस भारत की कल्पना हमारे नीति निर्धारकों ने की थी वह कब का पीछे छूट गया। हाथ आया धन की लिप्सा पाले आधुनिक समाज जो सिर्फ शिक्षा के लिए धन तथा धन के लिए शिक्षा की व्यवस्था करते-करते अपने जीवन का अधिकांश भाग जी रहा है। उसके जीवन में मानवीय संवेदनाओं तथा नैतिक मूल्यों की कीमत समाप्त हो चुकी है। उसका लक्ष्य सिर्फ धन से धनार्जन तक ही सीमित रह गया है। देश का प्रबुद्ध वर्ग यह भी कहता है कि उक्त विदेशी शिक्षण संस्थानों के भारत आगमन के बाद देश में शिक्षण प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी तथा हमारे देशी संस्थानों की गुणवत्ता में सुधार आयेगा। हो सकता है ऐसा हो परन्तु बड़ी संभावना यह है कि क्या वे गुणवत्ता युक्त शिक्षा लेकर ही आयेंगे। यदि लेकर आयेंगे तो क्या उससे हमारे देश में प्रतिस्पर्धात्मक माहौल बनेगा। क्या आज हमारे देश में सभी गैर स्तरीय शिक्षण संस्थान हैं। देश में आई.आई.टी. तथा आई.आई.आई.एम. हल्के स्तर के संस्थान हैं। यदि नहीं तो उनसे ऐसा माहौल क्यों नहीं बना इसी प्रकार के अनेक प्रश्न हैं जिनका उत्तर ईमानदारी से तलाशना है। उक्त कुछ प्रश्नों का उत्तर स्पष्ट है। कुछ भारतीय उक्त संस्थान गुणवत्ता पर ध्यान देते हैं तथा अन्य धनार्जन पर। दोनों को अपने-अपने लक्ष्यों की प्राप्ति होती है। हो सकता है कुछ एक विदेशी संस्थान अपनी गुणवत्ता के साथ भारत आएँ पर यह बात निश्चित है अधिकांश का लक्ष्य भारत के शिक्षा बाजार का आर्थिक दोहन ही होगा, न कि यहां के छात्र वर्ग को ईमानदारी से शिक्षा देना। इसी व्यवसायीकरण के युग ने देश के किसी समय एक जाने-माने शोध संस्थान ‘‘एम्स’’ की हालत खराब कर दी। यहां के बड़े-बड़े शोधकर्ताओं को निजी अस्पतालों ने ऊँची कीमत दे अपने यहाँ ले लिया। क्या इसी प्रकार का कुछ हमारे देश में आई. आई. टी. या आईआई. एम. आदि के साथ नहीं होगा ? क्या वे विदेशी संस्थान उनको आर्थिक प्रलोभन द्वारा खरीदने का प्रयास नहीं करेंगे ? ऐसे में हमारे स्तरीय शिक्षण संस्थानों की हालत क्या होगी, सोचने का विषय है। एक तरफ हमारी केन्द्र सरकार शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 के तहत 6 से 12 वर्ष तक के बच्चों को निःशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था की बात कह रही है। दूसरी तरफ उच्च शिक्षा के लिए वह अपनी जिम्मेदारी से मुँह फेर रही है। शिक्षा को बिकाऊ माल की तरह वैश्विक बाजार में बेचने की तैयारी की जा रही है। समाज का अंग होने के कारण गरीब को भी शिक्षा प्राप्त करने का उतना ही अधिकार है जितना धनाड्य को। आजादी के बाद आज तक देश की जनता इंतजार कर रही थी कि कब सार्वजनिक धन पर टिकी समान शिक्षा व्यवस्था की स्थापना की जाय। जिससे हमारे बच्चों को कम धन में प्राथमिक विद्यालय से लेकर हर स्तर की उच्च शिक्षा प्राप्त हो सके। आज गरीब भारत तथा अमीर इण्डिया का अन्तर स्पष्ट देखने को मिल रहा है। जो खाई निश्चित ही दिनो दिन चौड़ी होती जायेगी। वर्तमान में हमारी उच्च शिक्षा की सबसे बड़ी समस्या गुणवत्ताहीन संस्थान हैं। जिसे निजी क्षेत्र ने तो अपने व्यापार का साधन बना ही लिया है। विदेशी संस्थान आने से स्थिति और भी भयावह होने की आशंका है। सरकार को शिक्षा के क्षेत्र में विदेशी दरवाजे खोलने से पहले उनपर नियंत्रण हेतु कड़े कानून बनाने चाहिए। जिससे वे भारत में अपनी मनमानी न कर सकें।

एन.सी.एच.ई.आर. के अध्यक्ष प्रो0 यशपाल ने पिछले वर्ष मानव संसाधन विकास मंत्रालय को अपनी कमेटी की रिपोर्ट सौंपी। जिसके अनुसार विदेशी संस्थानों को भारत आने की अनुमति देते वक्त यह बात खासकर ध्यान देनी होगी कि कहीं अपने देश में गुमनाम तथा भारत में पैसा कमाने के उद्देश्य से वे यहाँ तो नहीं आना चाहते। उक्त रिपोर्ट के अनुसार विश्व के बेहतर 200 विश्वविद्यालयों को ही यहां शाखा खोलने की अनुमति देनी चाहिए। इसी तरह की कई ईमानदार शिफारिशें की गई हैं उक्त रिपोर्ट में। जिसका कड़ाई से पालन होना चाहिए। अन्यथा उक्त विदेशी संस्थान भारत में एक उद्योग के रूप में कार्य करेंगे। जिनका मुख्य उद्देश्य धनार्जन ही होगा।?

हमारे देश में शिक्षा के निजीकरण के द्वारा स्तरहीन उच्च शिक्षा की जो खरपतवार फैली उससे सम्पूर्ण भारतीय शिक्षा जगत प्रभावित हुआ। यदि इसी प्रकार का कुछ विदेशी संस्थानों के आने के बाद हुआ तो भारतीय शिक्षा की स्थिति और चिंताजनक होना स्वाभाविक है। अतः प्रो0 यशपाल की रिपोर्ट एवं अन्य व्यवस्थाओं के अनुसार आने वाली विदेशी शिक्षण संस्थाओं पर लगाम लगाना अति आवश्क होगा। अन्यथा सम्पूर्ण भारतीय शिक्षा जगत को विभिन्न आयामों में प्रदूषित होने से रोकना असम्भव ही रहेगा। (समाप्त)


लेखक

(राघवेन्द्र सिंह)
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उत्तर प्रदेश (भारत)