Sunday, July 12, 2009

दिल्ली की हिन्दी अकादमी में उपाध्यक्ष !

हमारे हाजी साहब बहुत काम के आदमी हैं। उनसे किसी भी विषय पर राय ली जा सकती है और वे किसी भी विषय पर टिप्पणी कर सकते हैं। सुबह-सुबह पढ़ा कि दिल्ली की हिन्दी अकादमी का उपाध्यक्ष एक व्यंग्यकार को बनाया गया है, तो उनके पास दौड़ गया। हाजी साहब की एक खूबी और है। कई बार वे मन की बात भांप लेते हैं। उन्होंने ठंडे पानी के गिलास से मेरा स्वागत किया और बोले, ‘बैठो, बैठो। मैं समझ गया कि कौन-सी बात तुम्हें बेचैन कर रही है।’ मैंने आपत्ति की, ‘हाजी साहब, मैं किसी राजनीतिक मामले पर चरचा करने नहीं आया हूं।’ हाजी साहब – ‘हां, हां, मैं भी समझता हूं कि तुम जी-5, जी-8 और जी-14 पर बात करने नहीं आए हो। ये पचड़े मेरी भी समझ में नहीं आते। इस तरह सब अलग-अलग बैठक करेंगे, तो संयुक्त राष्ट्र का क्या होगा? कुछ दिनों के बाद तो वहां कुत्ते भी नहीं भौंकेंगे। लेकिन तुम आए हो राजनीतिक चर्चा के लिए ही, यह मैं दावे के साथ कह सकता हूं।’ मुझे हक्का-बक्का देख कर उन्होंने अपनी बात साफ की, ‘तुम्हें यही बात परेशान कर रही है न कि हिन्दी अकादमी का उपाध्यक्ष पहली बार एक व्यंग्यकार को बनाया गया है!’


मैं विस्फारित नेत्रों से उनकी ओर देखता रह गया। वे बोले जा रहे थे, ‘बेटे, यह मामला पूरी तरह से राजनीतिक है। यह तो तुम्हें पता ही होगा कि दिल्ली की मुख्यमंत्री ही यहां की हिन्दी अकादमी की अध्यक्ष हैं। वे साहित्यकर्मी नहीं, राजनीतिकर्मी हैं। साहित्यकर्मी होतीं, तो इस प्रस्ताव पर ही उनकी हंसी छूट जाती। राजनीतिकर्मी हैं, सो आंख से नहीं, कान से देखती हैं। उनके साहित्यिक सलाहकारों ने कह दिया होगा कि इस समय एक व्यंग्यकार से ज्यादा उपयुक्त कोई अन्य व्यक्ति नहीं हो सकता। मुख्यमंत्री जी ने बिना कुछ पता लगाए, बिना सोचे-समझे ऑर्डर पर हस्ताक्षर कर दिए होंगे। इसमें परेशान होने की बात क्या है? बेटे, दुनिया ऐसे ही चलती है। हमारा राष्ट्रीय मोटो भी तो यही कहता है - सत्यमेव जयते। आज का सत्य राजनीति है। सो राजनीति ही सभी अहम चीजों का फैसला करेगी। वाकई कुछ बदलाव लाना चाहते हो, तो तुम्हें राजनीति ज्वायन कर लेना चाहिए।’


मेरे मुंह का स्वाद खट्टा हो आया। मैंने यह तो सुना था कि साहित्य में राजनीति होती है, पर यह नहीं मालूम था कि राजनीति में भी साहित्य होता है। आजकल राजनीति की मुख्य खूबी यह है कि मेसेज छोड़े जाते हैं और संकेत दिए जाते हैं। हाजी साहब से पूछा, ‘फिर तो आप कहेंगे कि एक शीर्ष व्यंग्यकार के हिन्दी अकादमी का उपाध्यक्ष बनने में भी कुछ संकेत निहित हैं !’ हाजी साहब ने मुसकराते हुए कहा, ‘तुम मूर्ख हो और मूर्ख ही रहोगे। संकेत बहुत स्पष्ट है कि यह व्यंग्य का समय है। पहले दावा किया जाता था कि यह कहानी का समय है, कोई कहता था कि नहीं, कविता का समय अभी गया नहीं है, तो कोई दावा करता था कि उपन्यास का समय लौट आया है। हिन्दी अकादमी का नया चयन बताता है कि यह व्यंग्य का समय है। व्यंग्य से बढ़ कर इस समय कोई और विधा नहीं है।’


मैंने अपना साहित्य ज्ञान बघारने की कोशिश की, ‘हाजी साहब, आप ठीक कहते हैं। आज हर चीज व्यंग्य बन गई है। हिन्दी में तो व्यंग्य की बहार है। कविता में व्यंग्य, कहानी में व्यंग्य, उपन्यास में व्यंग्य, संपादकीय टिप्पणियों में व्यंग्य -- व्यंग्य कहां नहीं है? एक साहित्यिक पत्रिका ने तो अपने एक विशेषांक के लेखकों का परिचय भी व्यंग्यमय बना दिया था। क्या इसी आधार पर आप कहना चाहते हैं कि व्यंग्य इस समय हिन्दी साहित्य की टोपी है -- इसके बिना कोई भी सिर नंगा लगता है। शायद इसीलिए सभी लेखक एक-दूसरे पर व्यंग्य करते रहते हैं। कभी सार्वजनिक रूप से कभी निजी बातचीत में।’


हाजी साहब बोले, ‘तुम कहते हो तो होगा। पर मेरे दिमाग में कुछ और बात थी। हिन्दी में तो दिल्ली शुरू से ही व्यंग्य का विषय रही है। इस समय मुझे दिल्ली पर दिनकर जी की कविता याद आ रही है - वैभव की दीवानी दिल्ली ! / कृषक-मेध की रानी दिल्ली ! / अनाचार, अपमान, व्यंग्य की / चुभती हुई कहानी दिल्ली ! डॉ. लोहिया ने लिखा है कि दिल्ली एक बेवफा शहर है। यह कभी किसी की नहीं हुई। पूरा देश दिल्ली की संवेदनहीनता पर व्यंग्य करता है। लेकिन दिल्ली पहले से ज्यादा पसरती जाती है। हड़पना उसके स्वभाव में है। इसी दिल्ली में कभी हड़पने को ले कर कौरव-पांडव युद्ध हुआ था। इसलिए अगर आज दिल्ली में व्यंग्य को इतना महत्व दिया जा रहा है, तो इसमें हैरत की बात क्या है? तुम भी मस्त रहो और जुगाड़ बैठाते रहो। यहां जुगाड़ बैठाए बिना जीना मुश्किल है।’


मैंने कहा, ‘हाजी साहब, लगता है, आज आपका मूड ठीक नहीं है। मुझ पर ही व्यंग्य करने लगे ! मेरा जुगाड़ होता, तो मैं मुंह बनाए आपके पास क्यों आता?’ हाजी साहब – ‘नहीं, नहीं, मैं तुम्हें अलग से थोड़े ही कुछ कह रहा था। मैं तो तुम्हें युग सत्य की याद दिला रहा था। हर युग का सत्य यही है कि युग सत्य को सभी जानते हैं, पर उसे जबान पर कोई नहीं लाता। अपनी रुसवाई किसे अच्छी लगती है?’


मैंने हाजी साहब का आदाब किया और चलने की ख्वाहिश जाहिर की। हाजी साहब का आखिरी कलाम था – ‘आदमी की फितरत ही ऐसी है। फर्ज करो, तुमसे पूछा जाता कि जनाब, आप हिन्दी अकादमी का उपाध्यक्ष बनेंगे, तो क्या तुम इनकार कर देते? क्या तुम यह कहने की हिम्मत दिखाते कि ‘मुआफ कीजिए, दिल्ली में बड़े बड़े काबिल लोग बैठे हैं। मैं तो उनके पांवों की धूल हूं। मुझसे पहले उनका हक है।’ आती हुई चीज को कोई नहीं छोड़ता। यहां तो लोग तो जाती हुई चीज को भी बांहों में जकड़ कर बैठ जाते हैं। और जब आना-जाना किसी नियम से न होता हो, तो अक्लमंदी इसी में है कि हवा में तैरती हुई चीज को लपक कर पकड़ लिया जाए। सागर उसी का है जो उठा ले बढ़ाके हाथ।’

राजकिशोर

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4 बैठकबाजों का कहना है :

निर्मला कपिला का कहना है कि -

बहुत बडिया आलेख है अब तो व्यंग की भी खैर नहीं जिस चीज़ को लोगोम से दूर करना हो उसे राज नीति का नकाब पहना दिया जाता है उसे राष्ट्र्य बना दिया जाता है अब देखिये ना तिरण्गे को ले लीजीये जिसे मरे हुये बेईमान नेता के शव पर तो डाला जा सकता है मगर एक नँगे आदमी को ढकने के काम नहीं आ सकता् --राष्ट्रिय वाक्य जिसका राष्ट्र के निर्माताओं से दूर दूर का रिश्ता नहीं राष्ट्रिय गीत और राश्ट्रिय गान जो नेताओं को अता नहीं ना ही उनके सुर इसमे फिट बैठते हैं और राश्ट्रिय भाषा जो अभी भी भारतिओं से दूरी बनाये हुये है और राश्टृ मन्त्र ओम जो सिर्फ धर्म की दुकानों पर बिकने लगा है और कोई नेता उसे जपता नहीं है और किस किस चीज़ का न्नाम गिनाऊँ जो राश्ट्रिय तो बना दी गयी है सिर्फ इस लिये कि राश्ट्र की जनता से दूर रहे और नेता उनके नकाब मे छुपे रहेंब अगर व्यंग भी उस नकाब मे चला गया है तो समझो अब व्यंग भी आम आदमी से दूर होने वाला है हाजी जी से निवेदन है कि खुद को बचाये रखें लोगों की एकमात्र मुस्कराहट को खोने ना दें आभार्

Disha का कहना है कि -

बहुत खूब व्यंग्य है.आज राजनीति का स्तर इतना गिर गया है कि अपने फायदे के लिए गधे को भी बाप बना लिया जाता है. अपराधियों और अनपढों का बोलबाला है उन्हें क्या पता कि कहाँ सुइ की जरुरत है कहाँ तलवार की.

Manju Gupta का कहना है कि -

हाँ जी हाजी बढ़िया व्यंग्य है.बधाई .

Shamikh Faraz का कहना है कि -

आखिरी गद्द्यांश में व्यंग बहुत अच्छी तरह से सजाया गया. लोग जाती हुई चीज़ों को नहीं छोड़ते तो आती हुई चीज़ों को क्यों छोडेंगे. "जब आना-जाना किसी नियम से न होता हो, तो अक्लमंदी इसी में है कि हवा में तैरती हुई चीज को लपक कर पकड़ लिया जाए।"
सबसे आखिर में लिखी हुई आपकी ये लाइन व्यंग में एक नई जान डाल देती है.
साथ ही एक सुझाव भी देना चाहूँगा कि मेरी नज़र में अगर इसमें कुछ हास्य कविता कि पंक्तियाँ होती या व्यंग से भरी हुई कुछ लाइन तो कुछ और बेहतर हो सकता था. वैसे बहुत ही अच्छा लगा आपका ये व्यंग. व्यंग के बारे में कहना चाहूँगा

"This Satire is a sort of glass wherein beholders do generally discover everybody's face but their own; which is the chief reason for that kind reception it meets with in the world, and that so very few are offended with it."

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