कम्यूनिस्ट आंदोलन से जुड़े रामकृष्ण पाण्डेय को इनके कुछ करीबी और जानकार कुछ यूँ करते हैं। हम इस माध्यम से हिन्द-युग्म की ओर से श्रद्धाँजलि दे रहे हैं।
वे अपनी भूमिका देश में चल रहे आंदोलनों में तलाशते थे
सुबह रंजित वर्मा से रामकृष्ण पाण्डेय की मृत्यु का समाचार सुनकर एकबारगी यकीन नहीं हुआ की हर हफ्ते हँसते-मुस्कराते मिलाने वाले पाण्डेय जी इतनी जल्दी धोखा दे जायेंगे। वे हमारे बीच एक अपरिहार्य उपस्थिति थे। हाल में ही उन्होंने यूएनआई में अपनी दूसरी पारी शुरू की थी और अपनी कई किताबों के प्रकाशन की योजनाएँ बना रहे थे। पाण्डेय जी से मेरा परिचय दस साल पहले हुआ था। वे जल्दी ही आत्मीय हो गए। काफी दिनों बाद उन्होंने अपना संकलन भी दिया। मिलना-
एक प्रतिबद्ध पत्रकार थे
रामकृष्ण पाण्डेय एक वरिष्ठ पत्रकार थे, कवि भी थे। वे इतने सज्जन थे कि किसी भी बात के लिए मना नहीं करते थे। हमेशा जन के लिए प्रतिबद्ध पत्रकार की तरह लगे रहे। वे इस वय में भी लगातार काम करते रहे, अपनी अस्वस्थता की ओर कभी ध्यान नहीं दिया। हालाँकि मेरा कभी उनसे बहुत व्यक्तिगत संबंध नहीं रहा, लेकिन प्रोफेशनल सम्बंध ज़रूर रहा। मैंने जब कभी भी उन्हें समयांतर के लिए लिखने के लिए कहा, उन्होंने अपनी तमाम व्यस्तताओं के बावज़ूद लिखा। अक्टूबर 2009 अंक में भी उनकी लिखी एक समीक्षा छपी है। उन्होंने कभी भी अपनी पीड़ा, अपनी बीमारी का प्रचार नहीं किया। कल जब उनकी मृत्यु का समाचार मिला तो पता चला कि वे पिछले 1 सप्ताह से गंभीर रूप से बीमार थे। यूएनआई के अलावा उन्होंने लघुपत्रिकाओं में प्रतिबद्ध किस्म का लेखन किया। इनके लेखों और कविताओं में समाज की चिंताएँ रिफ्लैक्ट होती हैं। इनका एक कविता-संग्रह भी प्रकाशित है। एक और तैयार है। आर्थिक रूप से अधिक सम्पन्न नहीं थे, इसके बावज़ूद भी वे जन संघर्ष और मानवीय पीड़ा की कलम बनते रहे।
--पंकज बिष्ट, संपादक- समयांतर
जुलना बाद में कम हो गया था लेकिन समयांतर में लगातार अपनी टिप्पणियों और लेखों से उन्होंने न केवल ध्यान खिंचा बल्कि समकालीन प्रश्नों पर बेहद सादे ढंग से लिखा। पिछले साल रंजित, कुमार मुकुल, अजय प्रकाश, पाण्डेय जी आदि ने मंडी हाउस में नियमित मिलने और रचना पाठ का एक कार्यक्रम शुरू किया जिसमे मैं भी शामिल हो गया, हालाँकि कुछ मित्रों ने निहित स्वार्थों के लिए तोड़फोड़ करने और हूट करने की कोशिश की लेकिन यह आयोजन लगातार चलता रहा। पाण्डेय जी अपनी बेबाक टिप्पणियों के कारण गोष्ठी के अनिवार्य हिस्सा थे। सही मायने में वे साहित्य के गंभीर अध्येता थे और समकालीनता बोध से भरे पूरे थे। कविता के नए सौंदर्य,सवाल,भाषा और चुनौतियों के प्रति वे निरंतर सचेत थे और नए से नए कवियों को लगातार पढ़ते थे। आनंद प्रकाश जी की तरह पाण्डेय जी नयी पीढ़ी में अपने समकालीन धुन्ध्ते इ अपनी जगह थे। स्वयं पाण्डेय जी हिंदी साहित्य की तथाकथित मुख्यधारा से पूरी तरह उपेक्षित थे लेकिन इसकी उन्हें परवाह ही कहाँ थी। वे अपनी भूमिका देश में चल रहे आंदोलनों में तलाशते थे और लगातार अपनी टिप्पणियों से उसमें भागीदार भी होते। पांडेय जी इस मामले में बेहद संकोची थे कि कोई उन्हें साहित्यकार माने ही। इसी झोंक में वे अपनी जगह ब्रेख्त या किसी और कवी की कविता सुनाने लगते। यह आज के आत्ममुग्ध लोगों की दुनिया में दुर्लभ बात है। शायद यह खूबी अपने दौर में एक गंभीर सांस्कृतिक कर्म के प्रति इमानदार सरोकारों से ही पैदा होती होती है। उनका जाना हमारे एक जरूरी दोस्त का जाना है लेकिन वे हमारी भावनाओं और संवेदना में हमेशा मौजूद रहेंगे।रामकृष्ण पाण्डेय एक वरिष्ठ पत्रकार थे, कवि भी थे। वे इतने सज्जन थे कि किसी भी बात के लिए मना नहीं करते थे। हमेशा जन के लिए प्रतिबद्ध पत्रकार की तरह लगे रहे। वे इस वय में भी लगातार काम करते रहे, अपनी अस्वस्थता की ओर कभी ध्यान नहीं दिया। हालाँकि मेरा कभी उनसे बहुत व्यक्तिगत संबंध नहीं रहा, लेकिन प्रोफेशनल सम्बंध ज़रूर रहा। मैंने जब कभी भी उन्हें समयांतर के लिए लिखने के लिए कहा, उन्होंने अपनी तमाम व्यस्तताओं के बावज़ूद लिखा। अक्टूबर 2009 अंक में भी उनकी लिखी एक समीक्षा छपी है। उन्होंने कभी भी अपनी पीड़ा, अपनी बीमारी का प्रचार नहीं किया। कल जब उनकी मृत्यु का समाचार मिला तो पता चला कि वे पिछले 1 सप्ताह से गंभीर रूप से बीमार थे। यूएनआई के अलावा उन्होंने लघुपत्रिकाओं में प्रतिबद्ध किस्म का लेखन किया। इनके लेखों और कविताओं में समाज की चिंताएँ रिफ्लैक्ट होती हैं। इनका एक कविता-संग्रह भी प्रकाशित है। एक और तैयार है। आर्थिक रूप से अधिक सम्पन्न नहीं थे, इसके बावज़ूद भी वे जन संघर्ष और मानवीय पीड़ा की कलम बनते रहे।
--पंकज बिष्ट, संपादक- समयांतर
--रामजी यादव, युवा कवि, सहसंपादक- पुस्तक वार्ता
पाण्डेय जी प्रगतिशील आंदोलन के लिए लगातार खाद-पानी का काम करते रहे
रामकृष्ण का बहुत लम्बा कैरियर रहा। पटना में जन्मे, वहीं से इनके कैरियर की शुरूआत हुई। पटना से जेएनयू आ गये।
बहुत अधिक परिचित नहीं था। हालाँकि उनके पत्रकारीय व्यक्तित्व से लगातार प्रभावित ज़रूर रहा। उनके पत्रकारी कैरियर में कोई कंट्रोवर्सी नहीं रही, वे पूरी तरह बेदाग रहे। यही क्या कम बड़ी उपलब्धि है!
--विमल झा, फीचर संपादक, दैनिक भास्कर
कविताएँ लिखते रहे। पाण्डेय जी मूल रूप से कवि ही थे, लेकिन चूँकि बाद में पत्रकारिता से भी जुड़ गये,इसलिए एक लम्बा कैरियर पत्रकारीय भी रहा। पाण्डेय जी प्रगतिशील आंदोलन के लिए लगातार खाद-पानी का काम करते रहे। उनकी कविताएँ प्रमुख रूप से नंदकिशोर नवल द्वारा संपादित कविता संग्रह में प्रकाशित हुई, जिसमें इनके अलावा उदय प्रकाश और अरुण कमल की कविताएँ भी संकलित थीं। इनकी समझ बहुत ही अच्छी थी। मार्क्सवादी नज़रिया रखते थे। कविताओं की साफ समझ रखते थे। गोष्ठियों में जब किसी कविता पर अपने विचार देते थे तो कुछ न कुछ नया दृष्टिकोण लेकर उपस्तित होते थे। नई बात खोज ही लेते थे। युवा कवियों के बीच भी काफी लोकप्रिय थे। हालाँकि उनकी रचनाएँ समकालीनता से पूरी तरह लैश थीं, फिर भी उन्हें हिन्दी साहित्य में वह स्थान नहीं मिला, जिसके वे हक़दार थे। यह पूरे हिन्दी साहित्य के लिए चिंता की बात है।--विमल झा, फीचर संपादक, दैनिक भास्कर
--रंजीत वर्मा, कवि-लेखक
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5 बैठकबाजों का कहना है :
रामकृष्ण पांडेय जी जैसे पत्रकारिता के युग पुरुष को सादर श्रदयांजलि....उनके जीवन के बारे में बड़ी अच्छी जानकारी प्रदान करने के लिए आपका बहुत बहुत आभार..धन्यवाद
किसी भी व्यक्ति का बिछुड़ना दुखदाई तो होता ही है,फिर ये तो अपनी साहित्यिक बिरादारी से थे।विनम्र श्रृद्धांजलि
हृदय विदारक सूचना। वृहस्पतिवार को साहित्य अकादेमी में डेढ बजे के करीब उनसे मुलाकात हुई थी। चित्रकार, लेखक त्यागीजी से उनकी गहरी छनती थी वे भी साथ थे हमने चायवाले से एक फिकी चाय बनाने को कहा था बावजूद इसके उसने मिठी चाय दे दी। पांडेयजी ने यह कहते हुए कि कभी कभी चलता है उसे बडी सहजता से स्वीकार कर लिया और फिर हमेशा की तरह देश के हालात, नक्सलवाद और शिक्षा व्यवस्था से होते हुए तमाम मुददों पर बात होती चली गई। लंच समय खत्म होने के कारण मुझे कार्यालय जाना था, मन न होने के बावजूद उन्हें बीच में रोककर उनसे ये वादा लेते हुए मैं आफिस चला गया कि अगली मुलाकात में अधूरी बातें पूरा करेंगे और साहित्य पर ढेर सारी बातें करेंगे, शुक्रवार को मुझे अचानक पटना जाना पडा... और अब ये दिलदहलाने वाली खबर। उनकी निर्मल हंसी और एक खास तरह की जिंदादिली जो दिल्ली में दुर्लभ है, आंखों के सामने नाच रही है। खैर इसके लिए किससे शिकायत करें। शायद हम सब की क्षमता बस इतनी है कि नियति को स्वीकारें और कहें कि पांडेयजी हमारी विनम्र श्रद्धांजलि स्वीकार करिए और अपने जैस कुछ लोगों को यहां भेजिए जिनसे......
ईश्वर दिवंगत आत्मा को शांति और शोक संतप्त परिवार को यह असह्य दुःख सहने की शक्ति प्रदान करे.
रामकृष्ण पाण्डेय को मैं तब से जानता था, जब वे जे०एन०यू० में हिन्दी में एम० ए० कर रहे थे। यह 1980-81 की बात है। वे एक कवि थे और यही उनकी पहचान थी। पत्रकार तो वे बाद में बने। नन्दकिशोर नवल ने ’धरातल’ में उनकी कविताएँ प्रकाशित की थीं। उन्होंने ढेरों कविताओं के अनुवाद किए थे और एक अच्छे वक्ता तो ख़ैर वे थे ही। हम ’कविता कोश’ में उनकी कविताओं को सुरक्षित करना चाहते हैं। अगर आप में से किसी के पास उनका कविता-संग्रह हो और आप हमें उनकी कविताएँ टाईप करके या ज़ीरोक्स करके भेज सकें तो हम आपके बेहद आभारी होंगे। सादर
अनिल जनविजय
kavitakosh@gmail.com
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