Thursday, December 31, 2009

राजेन्द्र अवस्थी – एक जाँबाज़ साहित्यकार


मध्य प्रदेश के गढा जबलपुर में 25 जनवरी, 1930 को जन्मे श्री राजेन्द्र अवस्थी नवभारत, सारिका, नंदन, साप्ताहिक हिन्दुस्तान और कादम्बिनी के संपादक रहे। उन्होंने कई चर्चित उपन्यासों, कहानियों एवं कविताओं की रचना की। वह ऑथर गिल्ड आफ इंडिया के अध्यक्ष भी रहे। दिल्ली सरकार की हिन्दी अकादमी ने उन्हें 1997-98 में साहित्यिक कृति से सम्मानित किया था। 30 दिसम्बर की सुबह लगभग 9:30 बजे दिल्ली के एस्कार्ट हॉस्पिटल में राजेन्द्र अवस्थी का देहांत हो गया।

उनके उपन्यासों में सूरज किरण की छांव, जंगल के फूल, जाने कितनी आंखें, बीमार शहर, अकेली आवाज और मछलीबाजार शामिल हैं। मकड़ी के जाले, दो जोड़ी आंखें, मेरी प्रिय कहानियां और उतरते ज्वार की सीपियां, एक औरत से इंटरव्यू और दोस्तों की दुनिया उनके कविता संग्रह हैं जबकि उन्होंने ‘जंगल से शहर तक’ नाम से यात्रा वृतांत भी लिखा है।
घर में कम्बल ओढ़ कर दूरदर्शन पर पूरे उत्तरी भारत में शीत लहर के दृश्य देखते देखते और खबरें सुनते सुनते अचानक पर्दे पर नीचे कहीं लिखित समाचारों में एक दुखद समाचार. मन एक सदमे की चपेट में आ जाता है. राजेंद्र अवस्थी नहीं रहे. सारिका, नंदन, कादम्बिनी और ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ जैसी पत्रिकाओं के लोकप्रिय संपादक राजेंद्र अवस्थी के जाने की खबर मन स्वीकार नहीं कर पा रहा था. स्मृति बहुत पीछे, सन 87 के आसपास चली जाती है. हिंदी के एक अन्य सशक्त हस्ताक्षर स्व. मणि मधुकर मेरे परम मित्र थे और वे अचानक फोन करते हैं कि तुम्हारी कहानी ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में छपी है. हमेशा की तरह मुझे प्रसन्नता तो होती है लेकिन मैं मधुकर जी से कहता हूँ कि राजेंद्र अवस्थी के संपादन काल में साप्ताहिक में छपी यह मेरी पहली कहानी है. मधुकर कहते हैं कि आज शाम को आना मेरे यहाँ, तुम्हें सीधे राजेंद्र अवस्थी के पास ले जाऊंगा. मैंने भी उन से यही कहा कि दिल्ली की सभी गण-मान्य साहित्यिक हस्तियों से मैं मिल चुका हूँ, पर राजेंद्र अवस्थी को कुछ कार्यक्रमों में देख कर भी बढ़ कर उन से परिचय लेने में संकोच सा हुआ है. मधुकर पूछते हैं – ‘ऐसा क्यों? आप तो उत्साही व्यक्ति हैं, सब से मिल लेते हैं’. मैं उन्हें दिल की बात बताता हूँ कि राजेंद्र जी देखने में मुझे कुछ आला शख्सियत से लगते हैं, सो यह संकोच. फिर मैंने उन्हें बताया कि शीला गुजराल की संस्था ‘लेखिका’ के एक कार्यक्रम में दिल्ली और बाहर के तमाम बड़े बड़े साहितयकर आए थे, उनमें अमृता प्रीतम भी थी, जैनेन्द्र भी. अमृता के भाषण के बाद मैंने देखा कि जो साहित्यकार माइक पर आए, वे हैं राजेंद्र अवस्थी. खासे handsome हैं. बहुत प्रभावशाली तरीके से बात करते हैं. बल्कि उनसे पहले अमृता प्रीतम ने महिलाओं के प्रति खासी सहानुभूति जताई थी कि महिलाऐं लेखक बनना चाहें तो समाज उस में रोड़े अटकाता है. उन्होंने जापान और अन्य देशों की कुछ उभरती लेखिकाओं की आत्महत्याओं का ज़िक्र किया. तब राजेंद्र अवस्थी ने बड़े हंसमुख और चुटीले तरीके से अमृता जी की बात पर चुटकी भी ली कि अमृता जी ने तो हमारे सामने आत्महत्याओं की एक अच्छी भली Directory भी रख दी. मुझे लगा कि बात को हंसमुख तरीके से कहना हो तो कोई उन से सीखे, क्यों कि अमृता जी द्वारा बताए दुखद प्रसंगों से जहाँ एक और वातावरण बोझिल सा हो उठा, वहीं राजेंद्र जी ने सब को हंसा कर मन को हल्का भी कर दिया. खूब handsome और प्रभावशाली हैं वे. मेरा संकोची मन आगे बढ़ कर उन्हें अपना परिचय नहीं दे पाता.

शाम को इसीलिए तैयार हो कर मधुकर जी के घर चला जाता हूँ, इसी उत्साह के साथ कि वे मुझे राजेंद्र जी से मिलवाएंगे. मैं उन्हें बताऊंगा कि मैंने आप का उपन्यास ‘सूरज किरण की छांव में पढ़ा है...’. मधुकर जी परिवार समेत अपनी कार में मुझे भी ले चलते हैं. चीनी दूतावास में एक पार्टी है. वो रहे राजेंद्र जी. एक सोफे पर बड़े हलके मन हो बैठे हैं. मधुकर जी मेरा हाथ खींच कर ठीक उनके सामने खड़ा कर देते हैं – ‘ये हैं आप के कहानीकार, प्रेमचंद सहजवाला. कहते हैं, सीधे बात करने में संकोच हो रहा है, वह भी आप से’! राजेंद्र जी मुस्कराते हैं. उन की मुस्कराहट में एक अजब प्रोत्साहन सा है. पर वे कहते हैं- ‘मैं ने आप की कहानियां ‘कहानी’ में भी पढ़ी हैं और ‘सारिका’ ‘धर्मयुग’ में भी. पर जो कहानी आपने मुझे भेजी और आज छपी है, वह उन दूसरी कहानियों की तुलना में पीछे लगी. और बेहतर लिख सकते थे’. मुझे अचरज भी है और अविश्वास भी कि इन्होने क्या मेरी कहानियां पढ़ी होंगी? पर अचरज इस बात पर भी कि ये झूठा प्रोत्साहन नहीं दे रहे. जैसा इन्हें लग रहा है, वैसे कह रहे हैं. मैं संकुचित सा उन्हें कहता हूँ – ‘संभवतः इस कहानी में मैं इतनी जान नहीं डाल सका, जितनी डालने चाहिए थी’. पर राजेंद्र जी कह रहे हैं – ‘आप की कहानी अगर कमज़ोर होती, तो क्या मैं उसे छापता? वह छापने योग्य थी. पर मुझे लगा कि उस पर आप और मेहनत कर सकते थे’. मैं प्रभावित था, इतना बेबाक मार्ग दर्शन, क्या कोई संपादक इतना ध्यान अपने कहानीकारों पर् दे सकता है?...

...और आज उनके निधन की खबर पर अचानक वही, बरसों पुराना चेहरा सामने आ गया. चंद श्रद्धांजलि भरे शब्द लिखने बैठा तो कई साहित्यकार मित्रों से फोन पर पूछने लगा- ‘उन के बारे में क्या कहना है आप को? ‘जंगल के फूल’ जैसे सशक्त उपन्यासकार के बारे में आप के क्या अनुभव हैं’? तब लक्ष्मीशंकर बाजपेयी अल्मोड़ा की किसी लेखिका दिवा भट्ट का सन्दर्भ देते हैं. वे कहते हैं कि एक बार जब वे अल्मोड़ा गए तो किसी प्राध्यापिका दिवा भट्ट ने उन्हें अपनी कहानी पढ़ कर सुनाई. बाजपेयी जी को कहानी अच्छी लगी. उन्होंने दिवा जी को सुझाव दिया कि वे वह कहानी राजेंद्र अवस्थी जी के पास, ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में प्रकाशनार्थ भेज दें. दिवा जी भी संकुचित थी – ‘क्या ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ वाले मेरी कहानी छाप देंगे’? बाजपेयी साहस बढ़ाते हैं – ‘ अच्छी लगेगी तो क्यों नहीं छापेंगे? भेज कर देखो’. और दिवा जी वह कहानी छप जाती हैं. बाजपेयी जी का कहना है कि किसी भी नए से नए लेखक की कहानी में अगर दम है, तो अवस्थी जी उसे कभी उपेक्षित नहीं करते थे. राजेंद्र जी से लगभग दो दशक के परिचय के आधार पर बाजपेयी जी का कहना है कि वे बहुत ही सुलझे हुए और खुशहाल सी तबियत वाले व्यक्ति थे.

"वे हमेशा एक संपादकीय दबदबा तो रखते थे, पर कभी किसी को दबाते नहीं थे"
--अशोक चक्रधर
हिंदी के प्रसिद्ध कवि कथाकार डॉ. वीरेंद्र सक्सेना ने फोन पर बताया कि राजेंद्र जी के साथ उन्होंने कई यात्राएं की व कई कार्यक्रमों में उन के साथ गए. राजेंद्र जी मित्रों के प्रति सच्चा स्नेह रखते थे और खुद उन के निवास पर भी कई बार उनके जन्म दिवस या अन्य अवसरों पर गए . राहुल सांकृत्यायन की जन्मशताब्दी के अवसर पर भी वे देहरादून उनके साथ गए. जनवरी 1930 में मध्यप्रदेश में जन्मे राजेंद्र अवस्थी ने कई कहानियां, उपन्यास व यात्रा-वृतांत लिखे व अनेकों पुरस्कार-सम्मान प्राप्त किये. इस के अतिरिक्त बहुत सशक्त बाल-साहित्य भी लिखा. वीरेंद्र सक्सेना ने कहा कि वे प्रसिद्ध साहित्यिक संस्था Authors Guild of India के संस्थापक रहे तथा आजीवन महासचिव भी, इसी नाते देश की हर भाषा के साहित्यकारों से उनके निजी स्तर पर सामीप्य रहा.

वीरेंद्र सक्सेना के बाद मैंने फोन मिलाया अशोक चक्रधर का. अशोक चक्रधर प्रायः बेहद व्यस्त रहते हैं पर राजेंद्र अवस्थी के विषय में पूछे जाने उन्होंने बहुत सहजता से इस लोकप्रिय हिंदी-सेवी के विषय में काफी बातें कहीं. उन्होंने बताया कि राजेंद्र जी से उनका परिचय लगभग चार दशक का रहा. वे (राजेन्द्र जी) पत्रिकारिता के प्राध्यापक थे और दिल्ली विश्वविद्यालय में पत्रकारिता की कक्षाएं लेने आते थे. वहीं उनकी भेंट राजेंद्र जी से हुई. एक व्यक्ति के तौर पर वे बेहद जिंदादिल इंसान थे वे. कुछ भारी मन से अशोक जी ने कहा कि अब उन की कमी भला कौन पूरी कर सकेगा? मित्रों के साथ ‘कॉफी हाउस’ या ‘टी हाउस’ में बैठ कर ठहाके लगाना उनकी फितरत थी. उनका जीने का भी अपना अंदाज़ था और बात करने का भी. अशोक चक्रधर ‘कादम्बिनी’ में अक्सर उनके कालम ‘काल चिंतन’ पढ़ कर प्रभावित रहते थे. उनका कहना था कि वे हमेशा एक संपादकीय दबदबा तो रखते थे, पर कभी किसी को दबाते नहीं थे.

राजेंद्र जी के एक अन्य करीबी साहित्यकार गंगाप्रसाद विमल ने बताया कि राजेंद्र जी प्रभावशाली साहित्यकार, पत्रकार व चिन्तक थे. उनका कॉलम ‘काल चिंतन’ जो पुस्तक रूप में भी है, बेहद सशक्त माना जाता था. उन्होंने आदिवासियों के जीवन पर आधारित उपन्यास ‘जंगल के फूल’ लिखा तथा इस के अलावा ‘मछली घर’, ‘भंगी दरवाज़ा’ व आदिवासियों के जीवन पर आधारित कहानी ‘लमसेना’ जैसी यादगार कृतियाँ लिखी. उनकी कई रचनाएं चेक, रूसी व अन्य विदेशी भाषाओँ में अनुवादित हुई.

‘केंद्रीय हिंदी निदेशालय’ से जुड़ी हिंदी की साहित्यकार अर्चना त्रिपाठी ने बताया कि राजेंद्र जी से उनका संपर्क भी लगभग 25-30 वर्ष रहा. वे उन्हें सदा Authors Guild of India की सदस्या बनने को प्रेरित करते रहे. पर अर्चना जी ने बताया कि जीवन के अंतिम वर्षों तक आते आते उन्हें स्वस्थ्य के मोर्चे पर खूब संघर्ष करना पड़ा. दुर्भाग्य से उनकी स्मरण शक्ति भी कम हो गई.. वे अमरीका के दौरे पर उनके साथ गई थी पर जब उन्होंने किसी होटल से राजेंद्र जी को सूचित किया कि वे अमुक होटल में ठहरी हैं, तब राजेंद्र जी ने उनसे पूछा कि आप अमरीका कब से आ गई है. क्षण भर को वे भूल गए थे कि अर्चना जी भारत से ही उनके साथ ही इस दौरे पर गई हैं. स्वास्थ्य की चुनौतियां उन्हें सचमुच पराजित कर पाई, इस में मुझे संदेह है. मैंने लगभग दो वर्ष पहले, एक लंबे अरसे बाद उन्हें दिल्ली पुस्तक मेले के अवसर पर प्रगति मैदान के एक सभागार में Authors Guild of India की एक विचार गोष्ठी में देखा तो यह भले ही महसूस हुआ कि उनका शरीर अब काफी दुर्बल हो चला है. पर मंच पर खड़े हो कर जिस तरीके से वे मुस्कराते नज़र आए, उस से वही, बहुत पहले वाला handsome सा चेहरा एक बार फिर मेरी कल्पना में आ गया. शायद सक्रिय और हंसमुख लोग बुज़ुर्ग होने पर तन से ही शिथिल लगते होंगे, मन से नहीं. उस विचार गोष्ठी के समापन पर भी शायद वे थके न थे, इसलिए अचानक घोषणा हुई कि थोड़े अंतराल के बाद कवि गोष्ठी भी होगी. राजेंद्र जी मुस्कराते हुए उतने ही तत्पर लगे, हालांकि अधिकतर लोगों के पुस्तक मेले में चले जाने के कारण उपस्थिति बहुत कम रही, सो कवि गोष्ठी नहीं हो पाई, पर उनके निधन से पूर्व इस जिंदादिल साहित्यकार से वह मेरी अंतिम भेंट थी. मैंने करीब जा कर उन्हें नमस्कार किया और अपना परिचय दिया तो उसी, पुरानी आत्मीयता से वे मुस्कराए और पूछा – ‘कहो कैसे हो? कहाँ हो आजकल? मैंने बताया कि मौसम विभाग वाली नौकरी से सेवानिवृत्त हो कर अब स्वतंत्र लेखन कर रहा हूँ. मेरे चेहरे पर अभी तक सक्रियता और उत्साह के लक्षण देख कर उनके चेहरे पर जो उत्साह-वर्धक मुस्कराहट आई, वही उनका मुझे दिया हुआ अंतिम, अनमोल तोहफा था. इस जांबाज़ साहित्यकार को मेरा सलाम!

-प्रेमचंद सहजवाला

Friday, December 25, 2009

3 इडियट्स : गांधीगीरी से इडियटगीरी तक ... आल इज वेल

प्रशेन ह. क्यावल द्वारा फिल्म समीक्षा

राजकुमार हिरानी अपने मुन्नाभाई सीरिज की फिल्मों के द्वारा दर्शकों को सकारात्मक सोच के साथ दिल जज्बा लेकर जिंदगी के मुश्किल चुनौतियों का सामना करने की सीख देते आये हैं। मुन्नाभाई सीरिज से हटकर इस बार वह लेकर आये हैं 3 इडियट्स जो चेतन भगत के सफल उपन्यास पर आधारित है।

क्या राजकुमार हिरानी तीसरी बार भी छक्का लगा पाए है... ?

कथा सारांश:

चेतन भगत की प्रसिद्ध उपन्यास से राजूने सिर्फ आधार बनाया है और उसकी जमीन पर अपनी कथा की नीव रखी है। तो कथा कुछ इस तरह है कि रांचो (आमिर खान) एक ऐसे छात्र हैं जो कॉलेज सिर्फ रटने के लिए नहीं, ज्ञान बटोरने के लिए आते हैं। इंजीनियरिंग उनका जूनून है। इसि बात को वह सब दोस्त और शिक्षकों को समझाना चाहते हैं। पर उनके दो रूममेट्स राजू रस्तोगी (शरमन जोशी) और फरहान कुरैशी (माधवन) के अलावा कोई और समझ नहीं पाता। इन तीनों में गहरी दोस्तीं हो जाती है और रांचो की सोच से दोनों में बहुत से सकारात्मक बदलाव आते हैं जो उनके जीवन को एक ठोस लक्ष्य देते हैं।

पर कॉलेज के आखरी दिन रांचो बिना बताये गायब हो जाता है। कहा जाता है रांचो.. क्या उसके 2 दोस्त उसे ढूंढ़ पाते हैं? पर इस तरह जाता ही क्यूँ है वह?

पटकथा:

उपन्यास की सशक्त जमीन पर कहानी की ठोस नीव रखकर राजकुमार हिरानी और अभिजात जोशी ने पटकथा का ऐसा महल खड़ा किया है, जिसकी सुन्दरता और असाधारणता के गुण कई साल गाये जायेंगे। विधु विनोद चोपड़ा ने भी सहायक के तौर पर अपने सुझाव पटकथा में दिए हैं। मुन्नाभाई जैसे 3 इडियट्स की पटकथा से भी फिल्मों के छात्र अभ्यास करेंगे।

दिग्दर्शन:

सशक्त जमीन और ठोस नीव पर खड़े अपने ताजमहल को राजूने अपने दिग्दर्शन से कुछ इस तरह निखारते हैं कि देखने वाले दंग रह जाते हैं। सकारात्मक वातावरण बरकरार रखते हुए संजीदा करने वाला उनका हुनर तो आज के पीढ़ी में सिर्फ उन्हीं के पास है। जिस तरीके से कहानी के प्रस्तुतीकरण पे उनकी पकड़ है वह सच में काबिलेतारीफ है। राजू ऐसे ही ऊँचे दर्जे की फिल्मे बनाते रहे और हमें अपनी फिल्मों की कहानी और किरदारों के जगत में समा जाने दें। हमारी हार्दिक शुभेच्छाएँ हमेशा उनके साथ हैं।

अभिनय:

आमिर जिस फिल्म में होते हैं उस फिल्म में सभी को अपना सबसे बेस्ट देना पड़ता है। और आमिर ही ऐसे कलाकार हैं जो पूरी फिल्म के परिणाम स्वरुप हरेक को अपने किरदार को पूरी तरह से प्रस्तुत करने में मदद करते हैं। ये फिल्म जितनी आमिर की है उतनी ही बाकी सबकी भी है। आमिर ने तो अपने जिंदगी में और एक ऊँचाई को छू ही लिया है पर शरमन जोशी और माधवन ने भी अपने किरदार को पूरी इमानदारी से निभाया है। ओमकर के जो नए कलाकार हैं उन्होंने चतुर के किरदार में अमिट छाप छोड़ी है। उनका भाषण सबको हँसा-हँसा कर लोट पोट कर देता है।

करीना कपूर और बोमेन इरानी ने बेहतरीन अदाकारी का प्रदर्शन किया है। मोना सिंह और जावेद जाफरी भी अपने छोटे रोले में छा गए हैं।

चित्रांकन:

मनाली से शिमला तक और फिर लद्दाख तक बेहेतरीन सिनेमाटोग्राफी भी इस फिल्म की एक जोरदार पेशकश है। फ्लैशबैक में ब्लैक एंड व्हाइट का अच्छे से इस्तेमाल किया गया है।

संगीत और पार्श्वसंगीत:

स्वानंद किरकिरे द्वारा लिखित और शांतनु मोइत्रा द्वारा संगीतबद्ध किये गए गीत आज ऊपरी पायदान पर हैं। मजेदार गीत और सुहाना संगीत 3 गानों को तो लोगों के होंठों पर रखने में कामयाब है।

संकलन:

चुस्त संकलन के कारण इतनी बड़ी होने के बावजूद फिल्म में एक में बार भी दर्शकों की नजर परदे से नहीं हटतीं। ये जितना श्रेय दिग्दर्शक को जाता है उतना ही असरदार संकलन को भी जाता है।

निर्माण की गुणवत्ता:

विधु विनोद चोपड़ा ने निर्माण की गुणवत्ता में कोई कसर नहीं छोड़ी है। उन्हें सराहा जाना चाहिए इतने सारे जिनिअस लोगों को साथ लेकर ये प्रोजेक्ट खड़ा कर के प्रस्तुत करने के लिए। ये कोई शिव धनुष उठाने से कम बड़ा काम नहीं था। और उन्होंने ये काम बखूबी निभाया है।

लेखा-जोखा:

*** (4.5 तारे)

हिंदी चित्रपट जगत में जिन फिल्मों के नाम आदर से लिए जायेंगे उनमें राजकुमार हिरानी की ये फिल्म भी जरूर रहेगी। अपनी संजीदा सोच को सर्वसामान्य दर्शकों की पसंद को मद्देनजर रखकर पेश करना उन्हें खूब आता है। तो आप किस चीज की राह देख रहे है? उठिए, दौड़िए, पूरे मोहल्ले के साथ ये फिल्म देखने जाइये। जनाब! ऐसी फिल्में बार-बार नहीं बनती हैं।

चित्रपट समीक्षक:- प्रशेन ह.क्यावल

थैंक्स सांता क्लाज!!

नींव से लेकर छत तक, कटोरे से लेकर ओवन तक लोन का नकली सुख भोगते हुए आजकल कुछ ज्यादा ही तंगी में चल रहा हूं। क्या है न कि महंगाई कुछ अधिक ही हो गई है। मंदी का दौर आसमान से भू तक पसरा है। हवा में मंदी, पानी में मंदी, रिश्वत देकर काम करवाने वालों की रवानी में मंदी। रिश्वत देने के लिए जेब में हाथ बाद में डालते हैं मंदी का रोना पहले शुरू कर देते हैं जैसे महाशोक में डूबे हों।
कल तक मेरे पडोसी महंगाई से हिले हुए थे तो बड़ा मजा आ रहा था। हफ्तों बाद कल शाम उनके घर से प्रेशर कुक्कर की सीटी की आवाज सुनी। मैं तो सोच बैठा था कि शायद आजकल किसी के यहां मेहमान होकर डटे होंगे।
हाय रे चार्वाक जीवन शैली! नब्बे प्रतिशत वेतन तो लोन में कटा जा रहा है। और महंगाई हैं कि बाजार जाता हूं तो मेरी जेब की खिल्ली उड़ाती है।
क्रिसमस वाले रोज घर में पत्नी को ये हिदायत दे दुबका बैठा ही था कि अगर किसी दोस्त का फोन आए कि वह हमारे घर सपरिवार आ रहा है तो कह देना घर पर नहीं हूं कि अचानक लोन के पालिश किए हुए दरवाजे पर बेल हुई। बेल होते ही मेरा दिमाग झनझनाया। पत्नी को डरते हुए कहा,‘ देख तो सूरज से पहले ये कौन राक्षस आ गया?’
पत्नी मुझसे भी ज्यादा तैश में बोली,‘ आ गया होगा कोई आपका प्रिय पड़ेासी। अब कटोरी टेबल पर रख कहेगा,‘ माफ करना भाई साहब! शाम को दफ्तर से आते आते चीनी लाना भूल गया। सुबह जब चाय को पानी रख डिब्बे में हाथ डाला तो...’ अरे तो हमारे खाली होते चीनी के डिब्बे को क्यों अपनी बुरी नजर लगा रहे हो। खुद तो कंगाल हो गए, अब क्या हमें भी कंगाल बनाकर ही दम लोगे? पर शुक्र गॉड का दरवाजा खोला तो सांता क्लाज! ‘हैप्पी क्रिसमस! हैप्पी क्रिसमस टू आल !! कहां है पप्पी?’
‘सोया है।’ मैंने अनमने से कहा। अब कम से कम इसे भी तो चाय पिलानी पड़ेगी न! सांता है न!!
‘तो जगाओ उसे। कहो, सांता क्लॉज आया है उसे गिफ्ट लेकर।’ कह उसने कमर में ठूंसी घंटी बजानी शुरू कर दी। मैंने सोचा दो टॉफियों के लिए रात को बारह बजे तक फिल्म देख कर सोए एट इअर ओल्ड पप्पी की नींद क्यों खराब करूं। बेचारा स्कूल से आते ही दस बजे तक मां से होम वर्क करवाता थक जाता है। मां उसका होमवर्क करती रहती है और वह अपनी मां को सीरियल की कहानी सुनाता रहता है। तभी तो उसकी मां उससे बहुत प्यार करती है।
अचानक उसे मेरी आंखों के आसपास छाइयां दिखीं तो सांता क्लाज ने पूछा,‘ कमाल है यार! क्रिसमस वाले दिन भी उदास?’
‘ पप्पी के लिए तो टॉफियां ले आए पर पप्पी के पा के लिए??’ हाय रे इजी लोन स्कीम!
‘ लाया हूं। बहुत कुछ लाया हूं। भैया जरा ऊपर आना ,’ सांता क्लाज ने आवाज दी तो धड़ाम धड़ाम किसी के सीढ़ियां चढ़ने की आवाज सुनाई दी। दो मिनट बाद देखा तो एक कुली एक बड़ा सा भरा बोरा उठाए। कुली ने बोरा उतार कमर सीधी की तो मैंने सांता क्लाज से पूछा,‘ ये क्या??’
सांता क्लाज ने बोरा खोलते कहा,‘ क्रिसमस के अवसर पर खास तुम्हारे लिए दो किलो अरहर की दाल, ये दो किलो सबूत मूंगी, ये चार किलो काले चने, ये दो किलो सफेद चने,ये एक किलो मसूर, ये दो किलो रौंगी, ये दो किलो राजमां,ये दो किलो धुली मूंग, ये दो किलो दले माश, ये दस किलो बासमती चावल, ये दो किलो पनीर, ये चार किलो चीनी, , ग्रीन लेबल चाय, ये आधा किलो काफी,पांच लिटर कच्ची घानी सरसों का तेल, ये पांच किलो प्याज, और ये दस किलो आलू.. और..’ कहता सांता क्लाज हंसता रहा।
‘पर आटा तो रह गया?’ मैं पगलाने लगा था। महीने की आखिरी तारीखों में जिस के घर में इतना राशन अचानक आ जाए वह पगलाएगा नहीं तो क्या होगा? ये सब देख तभी पत्नी ने पहली बार आत्मीयता से मेरे गले लगते कहा,‘ डियर पति! हैप्पी क्रिसमस! मैंने उधर उधर देखा तो कोई पडा़ेसी बाहर न था। नहीं तो आने में कौन सी देर करता,‘ भाई साहब! क्या है न कि शाम को आते आते प्याज लाना भूल गए। सुबह तड़के के लिए कड़ाही गैस पर रखी तो देखा कि प्याज तो है नहीं। पर पड़ोस तो है न!!
‘वह भी लाया हूं। जानता हूं कि बिन आटे सब बेकार है। ये लो दस किलो ‘ाक्ति भोग आटे की थैली। हैप्पी क्रिसमस!!’
‘पर!!’
‘ उसके लिए ये लो। चार महीने की लोन की किश्तों के लिए चैक। पर एक अनुरोध जरूर रहेगा।’
‘क्या??’
‘उधार की जिंदगी पर कंट्रोल करो तो और मजा आएगा।’ कह सांता क्लाज मेरे लोनी घर की सीढ़ियां मुसकराते हुए उतर गया।

डॉ. अशोक गौतम
गौतम निवास,अप्पर सेरी रोड, सोलन-173212 हि. प्र.

Saturday, December 12, 2009

रॉकेट सिंह : आकाश की उंचाईयों में

प्रशेन ह. क्यावल द्वारा फिल्म समीक्षा

हृषिकेश मुखर्जी एक ऐसे निर्देशक हैं जिन्हें कभी भी डिजायनर ड्रेसेस और चमकते सेट्स की जरूरत नहीं पड़ी। फिर भी उनकी फिल्में आज क्लासिक्स कहलाती हैं। मैं ऐसे ही सोच रहा था कि आजकल की फिल्में इसलिए बेअसर होने लगी हैं क्योंकि उनमें सब कुछ डिजायनर हो गया है। सेट्स, कपड़े (हीरो कहानी में फटीचर हो तो भी डिजायनर जींस पहनेगा) और बुरी बात तो ये है कि एक्टिंग और भावनाएँ भी डिजायनर। तो होता ये है कि दर्शक किरदारों से जुड़ ही नहीं पाता तो उनके दुःख दर्द में कैसे घुल मिल सकेगा? और जब तक किरदार दर्शकों को नहीं लुभायेंगे, फिल्म कैसे लुभा पायेगी?

पर जैसे ही मैंने रॉकेट सिंह : द सेल्समैन ऑफ द यीअर देखी, मुझे उम्मीदें दिखने लगी कि आज भी भावनाओं और किरदारों पर काम कर के बिना चका-चौंध के फिल्में बनाने वाले हैं।

कथा सारांश :

कथा सारांश कुछ इस प्रकार है कि हरप्रीत (रणबीर कपूर) एक सीधा-साधा नौजवान है जो अपने दादाजी के प्यार और संस्कारों के साथ बड़ा हुआ है। वो पढ़ाई में अच्छा नहीं है पर आपसी रिश्तों में और लोगों से काम निकलवाने में उस्ताद है। इसलिए वह सोचता है कि वह सबसे अच्छा सेल्समन बन सकता है। हरप्रीत को जॉब भी मिल जाती है। पर कंपनी के तौर तरीकों से जब वह वाकिफ़ होता है तो उसे पता चलता है कि यह जगह उसके लिए नहीं है। फिर एक समय पे वह उसके इमानदारी के वजह से कंपनी में जलील होता है तो वह कंपनी में रहते खुद का काम चालू कर देता है। अपनी इस छोटी कंपनी को वह नाम देता है "रोकेट सेल्स"। देखते ही देखते ये कंपनी उसके मालिक के कंपनी को कारोबार में चुनौती देने लगती है। आगे क्या होता है यही कहानी है इस फिल्म की।

पटकथा:

जयदीप साहनी द्वारा लिखित इस फिल्म की कहानी और पटकथा को आनेवाली पीढियां फ़िल्मी अभ्यास का एक महत्वपूर्ण सन्दर्भ मानकर पढेंगी। इनके भरोसे और हिम्मत की दाद देनी चाहिए कि एक मामूली से सेल्समन की कहानी इतने रोचक तरीके से सुनहरे पर्दे पर लाने की कोशिश इन्होने की... और क्या असरदार कोशिश है ... माशाल्लाह ! आगे बढ़ते रहिये जयदीप सहनी !

दिग्दर्शन:

शिमित अमिन ने अपनी पिछली दोनों फिल्मों में अपने हुनर का लोहा मनवाया है। इस बार भी वह चूके नहीं हैं। ये फिल्म दिखने में जितनी सिम्पल है उतनी ही ज्यादा कठिन फिल्माने में है। सहजता और सादगी से भरी इस फिल्म की कहानी, पटकथा और किरदारों को बखूबी इन्साफ दिया है शिमित ने अपने सफल दिग्दर्शन से।

अभिनय:

अभिनय की बात करें तो फिल्म में गिने-चुने ही जाने-पहचाने चेहरे हैं और बाकी सब कलाकार नए हैं। पर शिमित ने जिस तरह से उनसे काम निकलवाया है उसे जितनी दाद दी जाय कम होगी। सभी के नाम नेट पर उपलब्ध नहीं है वरना सभी एक विशेष उल्लेख के हक़दार हैं। रणबीर कपूर हर फिल्म में साबित करते जा रहे है के वह किस मिट्टी से बने हैं। लगातार तीसरी दमदार अदाकारी वाली फिल्म देकर उन्होंने जल्द ही नंबर वन का मुकाम पाने की और दौड़ लगाना शुरू कर दिया है। इनका उतने ही अच्छे तरीके से साथ दिया है गौहर खान, डी. संतोष, प्रेम चोपड़ा ने। नयी लड़की शहनाज़ पदमसी ठीक है पर उसका रोले ही छोटा है। विशेष नाम लेना जरूरी है उन कलाकारों का जिन्होंने हरप्रीत के बॉस और कंपनी मालिक का रोल निभाया है।

चित्रांकन :

बिना किसी चमक-धमक और ऊँचे सेट्स के सिनेमेटोग्राफ्रर नौलखा ने फिल्म को प्रदर्शनीय रूप दिया है। ये अपने आप में बड़ी सफलता है।

संगीत और पार्श्वसंगीत:

कहानी और पटकथा में गानों के लिए कोई जगह नहीं है पर पार्श्वसंगीत में सलीम सुलेमान ने अच्छा काम किया है।

संकलन:

अरिंदम घटक का संकलन उत्तम है पर मुझे लगता है पटकथा और दिग्दर्शन इतना परिणामकारक है कि उन्हें विशेष कुछ करने की जरूरत नहीं पड़ी होगी।

निर्माण की गुणवत्ता:

जिस तरीके के माहौल की पटकथा को जरूरत है, उसे निर्माण करने में ज्यादा लागत नहीं लगी होगी पर पटकथा के तौर पर इमानदारी बरतकर निर्माता ने जो रिस्क लिया है वह काबिले तारीफ है। ये फिल्म चलेगी कि नहीं, ये तो आप दर्शक ही बताएंगे पर मेरे हिसाब से ये इस साल की कुछ अच्छी फिल्मों में से एक जरूर है।

लेखा-जोखा:

*** (4 तारे)

ये लगातार दूसरे सप्ताह मुझे 4 तारे देने का मौका मिला है। जब अच्छी फिल्म आती हैं तो मुझे खूब खुशियाँ मिलती हैं। आप भी ये खुशियाँ अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के साथ समेट लें। जिन्हें हृषिकेश मुखर्जी की फिल्में पसंद हैं (न कि सिर्फ उनकी कॉमेडी) उन्हें ये फिल्म जरूर देखनी चाहिए।

चित्रपट समीक्षक:--- प्रशेन ह.क्यावल

Thursday, December 10, 2009

मजा आ गया

अपने देश की सरकार की वैसे तो बहुत सी खासियतें हैं पर उसकी सबसे बड़ी खासियत है कि वह जिंदों को रोटी देने में भले ही कोताही बरते पर उनके हताहत होने पर उन्हें बड़ी धूमधाम से श्रद्धांजलि देना कभी नहीं भूलती।
त्रासदियों के दौर में उस त्रासदी में खासतौर पर उन हताहतों को श्रद्धांजलि लेने के लिए विशेष रूप से महीना पहले निमंत्रण पत्र जारी कर दिए गए थे जिनके पीछे बचों को लचर व्यवस्था के चलते राहत राशि न मिल सकी थी । और उनके पीछे बचे वाले उस राहत राशि में से हताहतों के क्रिया कर्म पर अनमने मन से ही सही, फूटी कौड़ी भी खर्च नहीं कर पाए थे जिस कारण वे अभी तक प्रेत यानि में ही विचरण कर रहे थे।

अशांत प्रेतों को जैसे ही निमंत्रण पत्र मिले तो वे फूले न समाए। उन्हें इस बात की प्रसन्नता थी कि चलो! आज सरकार बेशक सबकुछ भूल रही है पर प्रेतों को श्रद्धांजलि वाली डेट तो नहीं भूली। जनता को सरकारी डिपुओं पर समय पर राशन पहुंचे या न पहुंचे पर प्रेतों को उनके श्रद्धांजलि समारोह के निमंत्रण पत्र समय पर मिलते रहे हैं। सरकार के प्रति एकबार फिर उन प्रेतों के मन में गहरी आस्था जगी। अब जनता चिल्लाती रहे तो सरकार क्या करे साहब! जनता को चाहिए कि वह प्रेतों से कुछ सीखें।

नियत समय से दो घंटे बाद एक खुले अति सुरक्षित मैदान में त्रासदी में हताहत प्रेतात्माओं को श्रद्धांजलि देने का दौर शुरू हुआ। श्रद्धांजलि की तैयारियां वैसे तो डीसी साहब की देखरेख में पिछली शाम ही पूरी तरह पूरी हो चुकी थीं। नेता जी ने उन्हें साफ कह दिया था कि दो चार दिन वे जिले के सारे कामों को छोड़ श्रद्धांजलि के आयोजन पर खुद को केंद्रित करें ताकि विपक्ष को उंगली उठाने को कोई भी मौका हाथ न लगे। अगर ऐसा वे नहीं कर पाए तो उनके पास उन्हें किसी पिछड़े जिले में भेजने के अतिरिक्त और कोई चारा न होगा। अब डीसी साहब कहां जाते बेचारे!
श्रद्धांजलि समारोह का उदघाट्न नेता जी ने किया तो पूरा पंडाल तालियों से गूंज उठा। श्रद्धांजलि समारोह में आए हताहतों के परिवार जनों के खाने पीने का विशेष इंतजाम किया गया था ताकि उन्हें इस बात का मलाल न हो कि उन्हें तो अनदेखा किया ही जा रहा है पर प्रेतों के प्रति भी सरकार उदासीन है।

लोंगों की भीड़ को देख नेता जी का सीना फूलता ही जा रहा था। वे मन ही मन त्रासदी में मरने वालों का धन्यवाद कर रहे थे कि न वे लोग इस त्रासदी का शिकार होते और न ही उन्हें उम्मीद से अधिक भीड़ को संबोधित करने का सुअवसर मिलता। आज मजा आ गया भाषण देने का।

नेता जी के काजू बादाम पर हाथ साफ करने के बाद श्रद्धांजलि आयोजन संयोजक ने नेता जी से कार्यक्रम को आरंभ करने की इजाजत मांगी तो उन्होंने खिलखिलाकर इजाजत दी।

सामने के पेड़ पर उल्टी सीधी लटकी प्रेतात्माएं दिल को थाम कार्यक्रम को देख फूली न समा रही थीं। उनके दिल की धड़कनें रूकी हुईं थी। उन्हें इस त्रासदी में मरना भूख से मरने वालों से सौ गुणा बेहतर लग रहा था। राहत राशि मिले न मिले। इससे उन्हें क्या! जो बचे हैं वे चोरी चकारी कर खाएं कमाएं। जिन हताहतों के परिवारों को राहत राशि मिली भी उन्हें कौन सी नरक से राहत मिली? हां उससे उनके पीछे बचों के महीना दो महीना मौज जरूर रही।
तभी एक चमचमाती कार से फिल्मों की हीरोइन उतरी तो पेड़ों पर लटकी त्रासदी की शिकार प्रेतात्माएं झूम उठीं। वे तो बड़ी देर से इस हीरोइन का इंतजार कर रही थीं। ज्यों ही हीरोइन ने गाड़ी से अपने कदम जमीन पर रखे तो सारा पंडाल तालियों से गूंज उठा। लगा भीड़ त्रासदी में हताहतों को श्रद्धांजलि देने के लिए नहीं , हीरोइन के दर्शन के लिए इकट्ठी हुई हो। नेता जी हीरोइन के गले लगे तो जन्नत मिली।

श्रद्धांजलि आयोजन के संयोजक ने हीरोइन के हाथ में चार फूल धरे तो हीरोइन के हाथों का हल्का सा स्पर्श पा वह भी भवसागर पार हुआ।

हीरोइन ने मंद मंद चल मंच पर त्रासदी के हताहतों के प्रतीक रूपी बुत के आगे फूल पूरे फिल्मी स्टाइल में चढ़ाए तो श्रद्धांजलि देने आए लोग तो लोग, श्रद्धांजलि कार्यक्रम देखने आई पे्रतात्माएं भी अपनी प्रेत योनि को भूल कुलांचे भरती हुई प्रेतलोक को बिना किसी डर के सपनों में खोई वापस लौट गईं इस आस के साथ कि अगले साल इस बहाने सरकार इससे भी खूबसूरत हीरोइन के दर्शन करवाएगीे। यार, मजा आ गया,कसम से। मेरा भी सरकार से आग्रह रहेगा कि वह अगले श्रद्धांजलि समारोह में अच्छी सी हीरोइन को विशेष अतिथि के रूप में लाए ताकि प्रेत होने का मजा बना रहे। राहत राशि जाए भाड़ में।

अशोक गौतम
गौतम निवास,अप्पर सेरी रोड, सोलन-173212 हि.प्र.

Wednesday, December 09, 2009

सवाल मानसिकता बदलने का है

बड़ी अजीब बात है। जलवायु परिवर्तन पर पूरी दुनिया की परेशानियां बढ़ती जा रही हैं। परेशानी ये है कि पहली बार एक ऐसी बात पर लोगों को अपना पैसा, समय और दिमाग़ ख़र्च करना पड़ रहा है जिससे कोई फ़ायदा नहीं उठाया जा सकता। वरना हर चिंता और हर फ़िक्र को धंधे में बदल देना हमारे बाएं हाथ का खेल है। बीमारी, लाचारी, धर्म, मजबूरी और सुकून की चाह, हर चीज़ का कारोबार करना और उससे मुनाफ़ा कमा लेना हमें अच्छी तरह आता है। लेकिन दुनिया का गर्म होना एक ऐसा मुद्दा है जो कारोबर नहीं बन पा रहा है, उल्टे संयम बरतने पर मजबूर कर रहा है।
हमारे देश की संसद भी बेवक़्त थोपी गई लिब्राहन रिपोर्ट से कुछ वक़्त निकालकर अगर दुनिया बचाने की इस मुहिम में शामिल होती है तो महज़ इतना कर पाती है कि हमारे सांसद और सियासी पार्टियों का विरोध दर्ज कर ले। दुनिया के मंच पर हम जैसे ही इस बात का ऐलान करते हैं कि 2020 तक हम कार्बन उत्सर्जन में 20-25 प्रतिशत की कमी लाने की कोशिश करेंगे, एक कोहराम मच जाता है। राज्य सभा में हंगामा और वॉक-आउट करके नाराज़गी जताई जाती है। विपक्ष का इल्ज़ाम है कि सरकार अमरीकी दबाव में झुक कर ये बयान देने पर मजबूर हुई है।
सवाल ये है कि क्या हमारे पास इतना वक़्त है कि हम इस घोषणा को सियासी चश्में से देखें। कोपेनहेगन में जलवायु परिवर्तन पर हो रहे सम्मेलन के मौक़े पर एक एतिहासिक क़दम उठाते हुए 45 देशों के 56 अख़बारों ने एक संयुक्त संपादकीय लिखा है। ज़ाहिर है कि इस संपादकीय में गर्म होती दुनिया के ख़तरे और उससे वक़्त रहते निपटने के लिए पूरी मानवता द्वारा क़दम उठाने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया गया है। आजतक कभी ऐसा नहीं हुआ कि पूरी दुनिया के अख़बार किसी एक विषय पर इस तरह से एक आवाज़ बने हों। इस संपादकीय को जलवायु परिवर्तन से उपजी आशंकाओं पर एक सार्थक दस्तावेज़ माना जा सकता है। वक्त बहस और मुबाहिसे का नहीं है। इस संपादकीय की शुरूआत में ही ये कह दिया गया है कि “इस विषय पर वैज्ञानिक-पत्रिकाओं में पहले भी चर्चा होती रही है कि सारी गड़बड़ी इंसानों की ही की हुई है यह शताब्दियों की गड़बड़ी का नतीजा है और इसके अपने आप ख़त्म होने की संभावना बिलकुल नहीं है। लेकिन अब मुद्दा यह नहीं है। अब चर्चा का विषय यह है कि हमारे पास अब इस मुसीबत से बचने के लिए कितना वक़्त रह गया है।”
ऐसे हालात में हमारी संसद में नेता प्रतिपक्ष का ये कहना कि कार्बन कटौती का हमारा एक तरफा फैसला गलत है “हमने अपने पत्ते खोलकर गलत किया है...”, निराशाजनक है। एक तरह से ये चिंता ठीक भी है कि हमें अंतर्राष्ट्रीय मंच पर किसी दबाव में आकर वो फैसले नहीं करने चाहिए जो देश के विकास में बाधा डालते हों, क्योंकि विकासशील देशों की अपेक्षा विकसित देशों ने ज्यादा खतरनाक माहौल बनाया है और उन्हें अब इस असुरक्षा से दुनिया को बचाने में भी ज्यादा बड़ी भूमिका भी निभानी चाहिए। जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर पिछली तमाम कोशिशों में ये भी देखने को मिला है कि विकसित देश किसी न किसी बहाने के आधार पर अंकुश की बाध्यता से बच निकलने में कामयाब होते रहे हैं, लेकिन अब गर्म होती दुनिया किस ख़तरनाक मोड़ पर आकर खड़ी हो गई है इसका अंदाज़ा अमरीकी सरकार के उस बयान से लगाया जा सकता है जिसमें पहली बार आधिकारिक तौर पर ये मान गया है कि ग्रीन हाउस गैसें इंसान की सेहत के लिए बेहद ख़तरनाक हैं। ये भी माना जा रहा है कि इस घोषणा के बाद बराक ओबामा बिना सीनेट की मंज़ूरी लिए कार्बन उत्सर्जन में कटौती का निर्देश जारी कर सकते हैं।
सोचिये अगर अमरीकी सीनेट में भी कोई यही कहकर ओबामा का रास्ता रोक लेता कि इस तरह अपने पत्ते खोलकर अमरीका ठीक नहीं कर रहा है क्योंकि अब इसी आधार पर उसे आगे बढ़ना होगा लिहाज़ा अमरीका को इस बाध्यकारी समझौते से बचना चाहिये था।
लेकिन हालात के मद्देनज़र अमरीकी सरकार ने ये पहल की है और उसका ये क़दम स्वागत के क़ाबिल है। 56 अख़बारों के संयुक्त संपादकीय में आगे लिखा गया है कि “दिक्क़त यह है कि विकसित या संपन्न देश जलवायु परिवर्तन पर होने वाली बहसों में वर्तमान आंकड़े पेश करने लगते हैं और कहते हैं कि विकासशील देशों को चाहिए कि वे अपना गैस उत्सर्जन कम करें, या एक बहस ये होने लगती है कि अमरीका और चीन आज की तारीख में सबसे ज्यादा प्रदूषण कर रहे हैं, उन्हें इस पर रोक लगाना चाहिए। सबको मालूम है कि इनमें से कोई भी बात स्वीकार नहीं होने वाली है। ये भी सबको मालूम है कि १८५० से अब तक जितना भी कार्बन डाई आक्साइड वातावरण में छोड़ा गया है उसका तीन चौथाई विकसित और औद्योगिक देशों की वजह से है। इसलिये विकसित देशों को पहल करनी पड़ेगी कि वे ऐसे उपाय करें कि अगले १० वर्षों में गैसों का उत्सर्जन स्तर ऐसा हो जाए जो १९९० तक था”।
हमारे नेताओं को और वार्ताकारों को ये समझना चाहिये कि जलवायु पर उठी चिंताएं अब बहस से आगे निकलकर यथार्थ के धरातल पर खड़ी हैं। इसके लिए पूरी दुनिया के साथ-साथ हमें भी संयम बरतना पड़ेगा। अगर भारत 20-25 फीसदी कटौती की अपनी तरफ़ से पेशकश कर रहा है तो ये भी अमरीकी सरकार की घोषणा की ही तरह स्वागत येग्य है। इस पहल को सियासी रंग नहीं दिया जाना चाहिए। एक सुनामी का कहर हम देख चुके हैं। वो जब आयेगी तो बस फिर आयेगी, दुनिया की कोई भी ताकत उसे नहीं रोक पायेगी, इसलिए हम सिर्फ यही कर सकते हैं कि उन लक्षणों को कम कर दें जो सुनामी जैसी स्थितियों के लिए मददगार होते हैं। इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर जागरूकता फैलानी होगी। व्यक्तिगत तौर पर भी बहुत सी ऐसी सावधानियां बरती जा सकती हैं जो कार्बन उत्सर्जन में बड़ी कटौती कर सकती हैं। एडस और कैंसर जैसी बीमारियां सिर्फ उनके लिए घातक हैं जिन्हें ये बीमारियां घेर लेती है लेकिन जलवायु में फैल रही गंदगी किसी को भी, कहीं भी चपेट में ले सकती है। इसलिए कोपेनहेगन में बिताए जा रहे 14 दिनों के बाद नतीजे अगर सकारात्मक न भी निकलें तो भी हमें अपने तौर पर कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने की अपनी प्रतिबद्धता से पीछे नहीं हटना चाहिए। सवाल मानसिकता बदलने का है।

--नाज़िम नक़वी

पा : एक चमत्कार, एक जादू !

प्रशेन ह. क्यावल द्वारा फिल्म समीक्षा

कुछ ऐसे कलाकार हर सदी में होते है जो दर्शकों की सोच से परे कुछ ऐसा पेश करते है की सारी दुनिया उनके सामने झुकने के लिए बेबस हो जाये. और ये झुकना इतना सम्मान सहित होता है जोकि शायद किसी सम्राट को भी न नसीब हो. पर एक सम्राट ऐसे है जिन्होंने बार-बार दुनिया को उसी तरह के सम्मान से अपने आगे झुकने के लिए मजबूर किया अपने हुनर से, अपनी अदाकारी से! और वे हैं... इस सदी के महानायक ....अमिताभ बच्चन. जहाँ उनके उम्र के कई अभिनेता इतिहास के पन्नों में गुम हो गए या लाइफ टाइम एचिवमेंट अवार्ड लेके रिटायर हो चुके है, वही बिग बी आज भी सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के श्रेणी में नए-पुराने कलाकारों को चुनौती देते है.

इसबार उन्होंने कुछ ऐसा किया है जो हॉलीवुड में भी शायद ही किसी ने किया हो. पा .... अमित जी के अभिनय कार्यकाल के चमचमाते तारामंडल में ध्रुव तारे सा अटल और जगमगाता सितारा है ... पा !

कथा सारांश :

ये कथा है विद्या (विद्या बालन) और अमोल आर्ते (अभिषेक बच्चन) की जो कॉलेज के वक्त एक-दूसरे से टकराते हैं और वहीं से उनमें प्यार बढ़ता है. एक क्षण की गलती से विद्या प्रेग्नेंट होती है पर अमोल जो एक सफल राजनेता का बेटा है, इंडिया को सुधारने का जिसका सपना है, वो विद्या को इस परिस्थिति से छुटकारा पाने को कहता है. विद्या उसे छुटकारा दिलाती है पर उसके जिंदगी से दूर जा कर.

विद्या अपनी माँ की मदद से अपने बेटे को पाल-पोस कर बड़ा करती है पर उसे तकदीर एकबार फिर से एक झटका देती है. विद्या का बेटा प्रोगेरिया नमक एक अनोखी बीमारी से पीड़ित है जिसमें बच्चे का शरीर उसकी असली उम्र से ४-५ गुना ज्यादा दीखता और बढ़ता है। माने 10 साल का लड़का ५० साल का दीखता और शरीर उसका वैसे रहता है. पर डॉक्टर होने के कारण विद्या उसे सम्हाल सकती है और एक नॉर्मल लड़के की तरह उसकी परवरिश करती है. उसका नाम रहता है औरो.

औरो को स्कूल के इंडिया व्हिजन स्पर्धा में प्रथम पुरस्कार मिलता है एक खासदार के हाथों. वह खासदार होता है अमोल आर्ते. अमोल एक आशावादी, आदर्शवादी और प्रगतिशील राजनेता है जो औरो के व्हिजन से प्रभावित होकर उसके तरफ आकर्षित होता है. आगे क्या होता है. कैसे औरो को पता चलता है कि अमोल ही उसके पिता है और कैसे उनकी फेमिली फिर से मिलती है... ये कहानी है फिल्म की.

पटकथा:

अगर औरो की अनोखी बीमारी को फिल्म से निकाल दें तो फिल्म की कहानी किसी और साधारण फिल्म जैसी ही है. पर यही एक अलग चीज ... औरो और उसकी अजीब बीमारी ... इस फिल्म को अलग लेवल पर लेकर जाती है और एक अलग तरीके की ट्रीटमेंट मांगती है. और आर. बालाकृष्णन ने सही तरीके से इस डिमांड को पूरा किया है. उनका किरदारों और घटनाओं की तरफ देखने का एक अपना ही पॉजिटीव तरीका है जो पूरे स्क्रीनप्ले और फिल्म पे छाया है. इसी कारण इतने बुरे बीमारी के गिर्द घुमती कथा एक अल्हड़ और आनंदमयी कहानी के रूप में उजागर हो पाई है.

इस तरीके से सोचने और लिखने के लिए आर. बालाकृष्णन का हार्दिक अभिनन्दन. हिंदी फिल्म जगत को उनके जैसे लेखकों की सख्त आवश्यकता है.

दिग्दर्शन:

आर. बाल्की एक सुलझे हुए लेखक और एक उम्दा निर्देशक हैं. उनकी फिल्में अनोखी होती हैं और कठिन से कठिन परिस्थितियों को भी सहज तरीके से प्रस्तुत करती हैं. इनका ये नजरिया अगर असल जिंदगी में भी हम उतार पाए तो जिंदगी स्वर्ग बन जाएगी.

इसी नजरिये से जब बाल्की फिल्म को प्रस्तुत करते हैं तो फिल्म एक मजेदार अनुभव बन जाती है. उनकी लेखनी और दिग्दर्शन दोनों माध्यमों पर जबरदस्त पकड़ है. जिस तरीके की सादगी और संजीदगी उनके काम में है वैसा किसी और निर्देशक के काम में नहीं दिखाई देता. उनका काम वाकई काबिले तारीफ है.

अभिनय:

अभिनय .... अभिनय का क्या कहना... ये तो एक जादू है... चमत्कार है. अमिताभ बच्चन इस फिल्म में है ऐसा जयाजी स्टार्ट में बोलती है पर मुझे तो वो दिखाई ही नहीं दिए पूरे फिल्म में... दिखाई दिया तो 12-13 साल का एक बच्चा जो प्रोगेरिया से पीड़ित है. दर्शकों को झंझोड़ कर रख दिया है अमितजी ने. उनके लिए ऐसे कई सारे दर्शक सिनेमाघर में दीखते है जो सालों से कभी सिनेमाघर में नहीं गए. उन सब संजीदा और उच्च शिक्षित लोगों को सिनेमाघर खिंच के लाये हैं बिग बी.

विद्या बालन सुंदर दिखी हैं और बहुत ही सटीक अभिनय है उनका. परेश रावल पूरी तरह से अभिषेक के किरदार को सहारा देते हैं. विद्या की माँ बनी अभिनेत्री एक बेहतरीन और सहज अभिनय का प्रदर्शन कराती हैं.

चित्रांकन :

पी. सी. श्रीराम की सिनेमाटोग्राफी बेहतरीन है और फिल्म की ऊँची लेवल को और ऊँचा बनाती है.

संगीत और पार्श्वसंगीत:

संगीत जगत के पुराने सितारे श्री इल्लायाराजा ने इस फिल्म को अपने साजों संगीत से सँवारा है. फिल्म में दो ही गाने है और तीसरा आखरी में है. पहला गाना "उड़ी उड़ी" एक बेहेतरीन सुरीला गाना है. फिल्म का पार्श्वसंगीत फिल्म के साथ पूरी तरह से न्याय करता है.

संकलन:

अनिल नायडू का संकलन फिल्म की गति को बहता हुआ रखता है और दर्शकों को कहानी और किरदारों से बंधे हुए रखने में सफल होता है.

निर्माण की गुणवत्ता:

उच्चतम गुणवत्ता इस फिल्म के हर भाग में दिखाई देती है हालाँकि फिल्म कम लागत से बनी है. कम लागत और ऊँची गुणवत्ता के चलते ये फिल्म रिलीज़ के पहले ही प्रॉफिट में होगी. बॉक्स ऑफिस पर फिल्म को अच्छा रेस्पोंस है. बाकी सभी अधिकारों की बिक्री से बहुत सारी कमाई एबीसीएल को दे पायेगी.

लेखा-जोखा:

****(4 तारे)

इस फिल्म की जितनी भी तारीफ की जा सके कम है. फिल्म में प्रोगेरिया के परेशानियों से नहीं डील करती बल्कि एक लाइट फिल्म है जो सभी उम्र के दर्शकों को पसंद आएगी. आप पूरी फेमिली और दोस्तों के साथ ये फिल्म देखने जरुर जाइए.

चित्रपट समीक्षक:
--- प्रशेन ह.क्यावल

Saturday, December 05, 2009

रेडियो : फटा हुआ ट्रांजिस्टर

प्रशेन ह. क्यावल द्वारा फिल्म समीक्षा

भगवान् जब देता है तो छप्पर फाड़ के देता है ये मुहावरा जिन कुछ ही लोगो के साथ सत्य होता है उनमे से एक है हिमेश रेशमिया!

कम उम्र में अपनी टीवी सेरिअल्स से धूम मचानेवाले हिमेश म्यूजिक की दुनिया में इस कदर छा गए के सबसे जादा फिल्मे उनके ही पास थी. उसके बाद हिमेश ने खुद गाना शुरू किया और ऐसा तहलका मचा दिया के एक के बाद एक ऐसे २८ हिट सोंग्स देने के बाद भी पब्लिक में उनका डिमांड बढती ही गयी.

इसी माहौल का फायदा उठाकर हिमेश ने एक्टर बनाने की सोची और उनके नसीब और म्यूजिक के चलते "आपका सुरूर" सुपर हिट फिल्म हो गयी. हिमेश को लगा के उनका सिक्का चल पड़ा और उन्होंने ५ फिल्मे साईन कर ली. सुभाष घी की "कर्ज" का रिमेक कर के उन्होंने कुछ और शेड उसमें लगा के पेश की पर नहीं चल पाई.

हिमेश की किस्मत अब टिकी है इस हफ्ते रिलीज़ फिल्म "रेडियो" की तकदीर पर. देखते है कैसे है रेडियो की तकदीर.

कथा सारांश :

कथा है आज के "confused" जेनेरेशन की जिनका relationship status "complicated" है. विवान शाह (हिमेश रेशमिया) एक रेडियो जोकी है जिनकी शादी तलाक के बुरे वक्त से गुजर रही है. तलाक तो हो जाता है. पर विवान की बीवी पूजा (सोनल सहगल) उसे भुला नहीं पाती है और विवान के लाइफ में आते जाते रहती है. इसी कारण विवान अपने जिंदगी में प्यार के संबंधों में आगे नहीं बढ़ पाता है. इसी वक्त उसकी जिंदगी में शनाया (शहनाज़ ट्रेजरीवाला) आती है जो उसके साथ को-जोकि कर के काम करती है. शनाया विवान से प्यार करने लगती है पर विवान confused है. आगे उनके संबंधो का क्या होता है यही कहानी है फिल्म की.

पटकथा:

कथा आज के पीढ़ी के हिसाब से ठीक है और वो उससे जुड़ पायेगे. पर पटकथा मार खाती है नकलीपन में. यहाँ सब नकली लगता है. भावनाए नकली, अभिनय नकली, कहानी नकली. कही कही पर फिल्म दर्शंकों के दिलों को छूती जरुर है पर बहुत ज्यादा जगह पर वोह प्रभावपूर्ण नहीं हो पाई है. केवल अच्छे म्यूजिक के कारण दर्शक फिल्म में टिके रहते है. लेखक इशान त्रिवेदी ने निर्देशक इशान त्रिवेदी के लिए बहुत ही कमजोर नींव बना के दी है. देखते है निर्देशक इशान त्रिवेदी इस कमजोर नीव पे किस तरह अपनी फिल्म की ईमारत बना पाए है.

दिग्दर्शन:

जब पटकथा ही कमजोर हो तो भगवान भी अगर दिग्दर्शक रहे तो फिल्म को असरदार नहीं कर पाएंगे. ऐसा ही कुछ है रेडियो के साथ. कमजोर नींव पे चमकधमक भरी सजावट कर के भी फिल्म खोखली लगती है. किरदार ऐसे है के जैसे जबरदस्ती एक टाइप में प्रस्तुत किये गए हो. सब कुछ गृहीत किया गया है. बार बार ये शब्द आ रहा है पर सब कुछ नकली सा लगता है. दूसरा कोई शब्द ही नहीं है. फिर भी फिल्म में एक फ्रेशनेस है और समय समय पर फिल्म अच्छी लगती है और बहुत जादा जगह पर बुरी. मुझे लगता है अनुभवों का डेप्थ काम रहने के कारण आज के नए निर्देशक दर्शकों के दिलों को छूने में असफल है क्योंकि उनकी भावनाए simulated है.

मैंने कभी भी किसी रेडियो स्टेशन में ८-१० लोगो को रेडियो जोकि को मोनिटर करते हुए नहीं देखा है. वोह तो बेचारा एक बंद कमरे में अकेला बकते रहता है. पर फिल्म में वोह सेट एक डबिंग या रेकॉर्डिंग स्टूडियो जैसा दिखाया है जहा ८-१० स्टाफ शो को मोनिटर करते रहते है. ये क्या मजाक है?

अभिनय:

माशाअल्लाह! ये डिपार्टमेंट में तो हर जगह नकलीपन का भंडार है. हिमेश जब संजीदा दृश्यों में ठीक लगते है पर लाइट मूड में उनका अभिनय बहुत ही ठोसा हुवा लगता है. शहनाज़ और सोनल ठीक ठाक है. हिमेश के ससुरजी के किरदार में जाकिर हुसैन misplaced लगते है. वही अजीबो गरीब पहनावे में व्हील चैर पे बैठे हुए राजेश खट्टर एक बहुत बड़ा मजाक लगते है.

चित्रांकन :

इस डिपार्टमेंट में फिल्म एकदम जबरदस्त है. सब कुछ चकाचक और आँखों को लुभाने वाला है.

संगीत और पार्श्वसंगीत:

फिल्म की सबसे तगड़ी चीज इसका म्यूजिक है. इतना मेलोडी भरा म्यूजिक बार बार नहीं आता है. पर फिल्म में हर गाना टुकड़ो टुकड़ो में आता है और दर्शकों को गाने सुनाने का मजा तक नहीं मिलता है. हिमेश के गाने ही है जो इस फिल्म में बंधे रखते है वरना ये फिल्म को तो एक स्टार भी न मिले.

संकलन:

संकलन अच्छा है और फिल्म छोटी है पर पठकथा और निर्देशन में मात खाती है.

निर्माण की गुणवत्ता:

काम बजट पर बनी ये फिल्म कही पे भी ऐसा नहीं दिखाती के निर्माण की गुणवत्ता में कही कमी है. और हिमेश के दावा करते है के फिल्म का पूरा खर्च उनके म्यूजिक के कमाई से ही निकल गया है. फिल्म निर्माता के लिए घाटे में न हो पर दर्शकों का क्या ? उनके लिए तो ये एक घाटे का ही सौदा है.

लेखा-जोखा:

जहा तक अंदाजा है ये फिल्म तुरंत टीवी पे आ जाएगी. आप इंतज़ार कीजिये और टीवी पे देखिये. टीवी पे देखने के लिए ये एक ठीक मूवी है. बस हिमेश के लिए इतनी सलाह है कि हरेक को अपना काम कर लेने दो. आपको जादा पैसे कमाने है तो आप निर्माता बन जाईये.... अभिनय में ही क्या रखा है ? आप तो फिल्म किये बिना भी एक स्टार है. अभी जो आपने ५ फिल्मे की है वोह ख़तम हो जाएगी तो निर्माता और म्यूजिक निर्देशक ही बन के रहिये ... ये दर्शको पर महेरबानी होगी जो आपसे इतना प्यार करते है. यार फिर ऐसे रोले कीजिये जो आपके अभिनय क्षमता के दायरे में हो. मै ये इसलिए बोल रहा हूँ के मै आपके म्यूजिक का बहुत बड़ा फैन हूँ.

**(२ तारे)

Sunday, November 29, 2009

एक डिस्टर्ब्ड जिन्न

रात के दस बज चुके तो मैंने चैन की सांस ली कि चलो भगवान की दया से आज कोई पड़ोसी कुछ लेने नहीं आया। भगवान का धन्यवाद कम्प्लीट करने ही वाला था कि दरवाजे पर दस्तक हुई, एक बार, दो बार, तीन बार। लो भाई साहब, अपने गांव की कहावत है कि पड़ोसी को याद करो और पड़ोसी हाजिर। खुद को खुद ही गालियां देते हुए दरवाजा खोलने उठा कि यार ! ये किस मुहल्ले में आकर बस गया तू? जहां के आदर्श जनों को ये भी शऊर नहीं कि कम से कम मांगने तो टाइम से आ जाना चाहिए। दरवाजा खोला तो पहचानते देर न लगी। सामने जिन्न! हवा निकल गई। बड़ा चौड़ा होकर उठा था कि पड़ोसी को वो झाड़ूंगा! वो झाड़ूंगा कि सात जन्मों तक मांगना भूल जाएगा । पर सामने जिन्न देखा तो बरसों से याद हनुमान चालीसा एकदम भूल गया।
‘नमस्कार सर!’ उसने ऐसे दोनों हाथ जोड़े जैसे चुनाव के दिनों में वोट मांगने वाले जोड़ते हैं।
‘कौन?? अलादीन का जिन्न? मैं मन ही मन खुश हुआ कि चलो अब अपने दिन भी फिरे।’
‘नहीं सर!’
‘तो कौन सा जिन्न? आलू-प्याज जिन्न?’
‘नहीं सर!’ उसने चेहरे पर ऐसी मुस्कराहट बिखेरी जैसी कभी विवाह से पूर्व अपने चेहरे पर हुआ करती थी।
‘तो चीनी-पत्ती जिन्न?’
‘सर नहीं! वह तो आपके पड़ोस वालों के घर डेरा जमाए बैठा है।’
‘सब्जी-भाजी जिन्न?’
‘नहीं सर!’
‘आटा-दाल जिन्न?’
‘नहीं, साहब नहीं!’ कह उसने अपना सिर पीटा। बडी दया आई मुझे यह करते उस पर। जिस देश में जिन्न की यह दशा हो वहां आम आदमी की क्या दशा होगी? पर यहां है ही कौन जो इस बात का अंदाजा लगाए।
‘तो यार अब ये नया जिन्न कहां से आ गया? अच्छा तो मुर्गीदाना जिन्न?’ मैंने जिन्नों के भार तले दबे दिमाग पर थोड़ा और भार डाल करंट जिन्न याद कर पूछा।
‘नहीं।’ अबके वह मुस्कुराया। मेरी हालत पर ही मुस्कराया होगा। अपनी हालत पर तो यहां कोई नहीं मुस्कराता। और वह तो ठहरा जिन्न।
‘तो जिन्ना का जिन्न?’
‘उसे तो सोए हुए फिर बड़े दिन हो गए। वाह! क्या कमाल का जिन्न था! जागा। पार्टी के कई कभी न सोने वाले बंदों को गहरी नींद सुला फिर सो गया।’
‘तो बाबरी मस्जिद का जिन्न?’
‘नहीं।’
‘तो मेरे बाप हो आखिर कौन से जिन्न? क्या ये देश अब जिन्नों के अधीन ही होगा? क्या इस देश पर क्या अब जिन्न ही राज करेंगे?’
‘नहीं भाई साहब! भीतर आने को नहीं कहोगे? ठंड लग रही है। बुरा न मानों तो भीतर चाय का कप भी हो जाए और बात भी। मैं परेशान करने वाला जिन्न नहीं, परेशान हुआ जिन्न हूँ।’ कह वह भीतर झांकने लगा।
‘देखो जिन्न साहब ! आप मेरे यहां गलती से आ गए हैं शायद! ये कब्रिस्तान नहीं। वार्ड नंबर 14 का हाउस नंबर 125 है।’ कह मैंने दरवाजा बंद करना चाहा तो उसने दोनों हाथ एकबार फिर जोड़े। बड़े दिनों बाद अपने सामने किसी को हाथ जोड़े देखा तो अपना मन लबालब दया से भर आया घोर सूखे के बावजूद भी। और मैं न चाहते हुए भी उसे भीतर ले गया। जितने को मैं चाय बना कर लाया तब तक वह हीटर सेक काफी चुस्त हो चुका था। जिन्नों के बारे में जो अब तक मेरी राय थी बदलते देर न लगी। मैंने चाय की चुस्की ले चुटकी लेते पूछा,‘अच्छा तो एक बात बताओ.....’
‘पर ये मत पूछना कि लूटमार कब खत्म होगी। और जो चाहो पूछो।’ कह उसने गहरी सांस ली। लगा बंदा लूटमार का शिकार हो ही ज्यों जिन्न बना हो।
‘ये जिन्न बोतल से बाहर आते कैसे हैं? जबकि बोतल के ढक्कन पर देश के अति जिम्मेदार लोग जमे होते हैं।’
‘अपराधी जेल से बाहर बिना ताला खुले कैसे आते हैं? और ये तो जिन्न हैं जिन्न! आका ने हुक्म दिया तो आ गए। किसीको मरवा गए तो किसीको संजीवनी पिलवा गए। सरकारी फाइलों और सरकारी पाइपों की लीकेज आजतक कोई रोक सका? असल में ये हमारी फाइलों और पाइपों का वंशानुगत मैन्यूफैक्चरिंग डिफेक्ट है। कुछ समझे?’ हालांकि मैं कुछ न समझा था पर अपने को बुद्धिजीवी घोषित करने के लिए मैंने उसके आगे सहज मुंडी हिला दी,‘ तो तुम किस किस्म के जिन्न हो?’
‘मैं तो आपजिओं का सताया जिन्न हूं।’
‘मतलब!!!’
‘ आपजिओं ने अब तो कब्रिस्तान को भी हथियाना शुरू कर दिया है। अब वहां रहें तो कहां? तुम्हारे मुहल्ले में कोई कमरा किराए के लिए खाली हो तो... किराए की चिंता नहीं। बस कोई परेशान करने वाला न हो। कम से कम मरने के बाद कौन चैन से रहना नहीं चाहता?’ मित्रो! पहली बार एक परेशान जिन्न देखा, वरना आजतक संसद और फुटपाथ वालों दोनों को ये जिन्न परेशान करते रहे।


-अशोक गौतम
गौतम निवास, अप्पर सेरी रोड, सोलन-173212 हि.प्र.

Saturday, November 28, 2009

महात्मा जोतीबा फुले का ब्राह्मणवाद से संघर्ष

क्रांतिकारी समाज सुधारक ज्योतिराव गोविंदराव फुले की 119वीं पुण्यतिथि पर विशेष

ब्रिटिश काल में सामाजिक न्याय की एक बड़ी लड़ाई लड़ने वाले महान योद्धा महात्मा जोतीबाराव फुले का स्थान भारतीय सामाजिक क्रान्तिकारियों में सबसे महत्वपूर्ण है। हजारों वर्षों से भारत में शूद्रों, अतिशूद्रों और स्त्रियों पर होनेवाले अत्याचारों के विरूद्ध उनके संघर्षों के कारण ही ब्रिटिशराज में परिवर्तन आने शुरू हुये और अंग्रेज शासकों द्वारा नये कानून बनाये गये। जोतीबा ने भारतीय समाज की सबसे बड़ी बीमारी जाति व्यवस्था और उसकी जड़ ब्राह्मणवाद को न केवल समझा बल्कि उस पर जबरदस्त प्रहार भी किये जो परिवर्तनवादी जन आन्दोलन के इतिहास मे स्वर्ण अक्षरो में दर्ज है। इसी कारण डॉ. अम्बेडकर ने उन्हें अपना गुरू माना और उनके सामाजिक दर्शन को अपने आन्दोलन का मुख्य आधार बनाया। ब्राह्मणवाद और पुरोहित वर्ग दोनों से ही जोतीबा का संघर्ष तब तक चला जब तक वे जीवित रहे। उनके आन्दोलन का केन्द्र हिन्दु धर्म की वे तमाम कुरीतिया और परम्पराये रहीं जो ब्राह्मणवाद की सदियो से पोषक रही है और जिसके कारण ही देश के बहुसंख्यक नागरिक वर्ग को शिक्षा समेत सभी मानवाधिकारों से सदियों तक वंचित रहना पड़ा।

ब्राह्मणवर्ग विशेषकर पुरोहितों ने अपने हितों को सुरक्षित रखने के लिये ही वर्ण व्यवस्था की स्थापना की थी। अंततः पीड़ित बहुसंख्यक जनता, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इसका विरोध ही करती रही। वर्ण व्यवस्था से लाभ उठाने वाला दूसरा वर्ग शासकों का था, जिन्होंने पुरोहितों के हितों को अगर बढ़ाया नहीं तो घटाया भी नहीं। अंग्रेज शासकों ने भी उसी नीति का अनुसरण किया, उनके द्वारा ब्राह्मणों के बीच शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिये जो कुछ किया गया उसका लिखित प्रमाण उपलब्ध है। बरतानिया सरकार भी ब्राह्मणों को तुष्ट करने और उनका सहयोग प्राप्त करने में अपने पूर्ववर्ती शासकों से पीछे नहीं रही। उनकी मान्यता थी कि साम्राज्य के स्थायित्व के लिये यह जरूरी है। अंततः 1813 के चार्टर एक्ट में शिक्षा पर खर्च करने के लिये जो एक लाख रूपये का प्रावधान किया गया था उसका एक अंश ब्राह्मणों की शिक्षा पर खर्च किया जाने लगा। बनारस संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना (1791) से लेकर 1820-21 तक उसमें तथा दिल्ली, आगरा और पुणे स्थित सभी महाविद्यालयों में भरती केवल छात्रवृत्ति प्राप्त विद्यार्थियों तक ही सीमित थी जो सभी ब्राह्मण थे। 1820-21 के बाद, मांग को देखते हुये, यद्यापि इन महाविद्यालयों में गैर- ब्राह्मण विद्यार्थियों की भी भरती होने लगी, पर छात्रवृत्ति केवल ब्राह्मण विद्यार्थियो को ही दी जाती रही। 1836 मे इस योजना को समाप्त करने का निर्णय लिया गया जो 1838 से लागू हुआ। इसके परिणाम स्वरूप जहाँ 1833 मे दिल्ली महाविद्यालय मे 431 छात्र थे जिनमें से 377 छात्रों को छात्रवृत्ति मिलती थी। वहाँ 1840-41 मे छात्रों की संख्या घटकर मात्र 155 रह गयी। 1838 के बाद अंग्रेजी शासन ने ”इनकिलट्रेशन“ नाम से एक नयी योजना की शुरूआत की जिसका उद्देश्य था कि पहले ऊपर के वर्ग यानी ब्राह्मणों को शिक्षित किया जाय, ऐसा करने से शिक्षा स्वतः ही निचले स्तर तक पहुंच जायेगी। अंग्रेज सरकार का जमीनी सच्चाइयों से कोई सरोकार नहीं था, अगर वे इस ओर जरासा भी ध्यान देते तो उन्हें यह समझते देर नहीं लगती कि, जिस वर्ग ने सदियों से निम्नवर्ग को पढ़ने के अधिकार और अवसरों से बराबर वंचित रखा, भला वे क्योंकर उन्हें पढ़ाते, अंततः वह योजना बुरी तरह असफल रही। उसके बाद 1854 में ”वूडस डीस्पैच” आया, जिसके अन्तर्गत सरकार ने जनता को शिक्षित करने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लिया। यह जिम्मेदारी किस प्रकार निभायी गयी इसके साक्षी हंटर कमीशन (1881) मे जोतीबा के दिये गये वे प्रतिवेदन है, जिसमें कई जगह यह बताया गया है, कि किस प्रकार ब्राह्मण शिक्षको और विद्यार्थियो ने निम्न वर्ग के गरीब विद्यार्थियो की शिक्षा के मार्ग में रोड़े अटकाये।

लेखिका- सुजाता पारमीता

20 मार्च 1955 को दिल्ली में जन्म। यहीं के भारतीय मास कम्यूनिकेशन संस्थान से डिप्लोमा, फिर पुणे के फिल्म इंस्टीट्यूट से आगे की पढ़ाई।
दिल्ली की पहली दलित सांस्कृतिक संस्था 'आव्हान थिएटर सिनेमा एंच मास मीडिया' की संस्थापिका। आजकल मुम्बई में दलित, आदिवासी, पिछड़े वर्ग और महिलाओं की सांस्कृतिक विरासत पर काम कर रही हैं। हंस, कथादेश, महानगर, अन्यथा में कई कहानियाँ और लेख प्रकाशित। 'जाति पर हिन्दी सिनेमा' और 'आदिवासी चित्रकला' पर पुस्तक लिखने में व्यस्त।
जोतीबा धार्मिक कार्यों में ब्राह्मण पुराहितों की सहायता लेने के विरूद्ध थे। इसलिये जनमानस में चेतना के प्रसार के लिये उन्होंने दो पुस्तकें लिखी - पुरोहितों का पर्दाफाश (1867) और ब्रिटिश साम्राज्य में ब्राह्मणी वेश में गुलामी (1873) पहली पुस्तक मे जोतीबा ने बताया कि किस प्रकार जन्म से मरण तक विभिन्न कर्मकाडों द्वारा पुरोहित यजमानों का आर्थिक शोषण करते हैं और दूसरी पुस्तक में किस प्रकार लोगों की अशिक्षा अज्ञानता तथा अन्धविश्वास का लाभ उठाकर ब्राह्मणों ने शूद्रों और अतिशूद्रों को गुलाम बना रखा है। उन्होंने 1872 में इसी आशय का एक घोषणापत्र भी प्रकाशित किया। जोतीबा सिर्फ पुस्तक लिखकर बैठ जाने वाले व्यक्ति नहीं थे, इसीलिये 24 सितम्बर 1873 को उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं की एक सभा आयोजित की, जिसमें मार्गदर्शन के लिये सत्यशोधक समाज नाम से एक केद्रीय सगंठन बनाया गया। बाद में कई स्थानों पर उसकी अन्य शाखायें स्थापित की गयीं।

जोतीबा ने ब्राह्मण पुरोहित के बिना ही दो विधवा विवाह सम्पन्न कराये। पहला विवाह दिसम्बर 1873 में और दूसरा उसी के पाँच महीने बाद मई 1874 में। ब्राह्मणों ने विवाह रोकने के लिये क्या कुछ नहीं किया पर सफल न हो सके। इसके बाद जोतीबा के एक अनुयायी ने भी अपने बेटे का विवाह ब्राह्मण पुरोहित के बिना सम्पन्न कराया इस पर पुरोहित मामले को न्यायालय में ले गया। अवर जज जो स्वयं ब्राह्मण थे उस पुरोहित के पक्ष में ही निर्णय दिया। इस निर्णय से खिन्न जोतीबा ने जिला न्यायाधीश के यहाँ अपील की। जिला न्यायधीश ने निचले न्यायालय के फैसले के विरूद्ध निर्णय दिया। पुरोहित कहाँ हार मानने वाला था उसने उस निर्णय के बाद मुम्बई उच्च न्यायालय में अपील दायर की परन्तु वहाँ भी वह हार गया। इस प्रकरण के बाद से पुणे का ब्राह्मणवर्ग जोतीबा के खिलाफ हो गया।

यहाँ इसीसे मिलते-जुलते एक अन्य मुकदमे का जिक्र करना जरूरी है। 1878 पुणे में एक व्यक्ति ने अपने पुश्तैनी पुरोहित की बजाय अन्य पुरोहित से अपने बेटे की शादी करवायी प्रभावित पुरोहित ने महादेव गोविन्द रानडे के न्यायालय में जो उन दिनों पुणे में ही प्रथम श्रेणी के अवर जज थे, मुकदमा दायर किया जिसमें दक्षिणा के अलावा हरजाने की भी मांग की। रानडे ने पुरोहित के पक्ष में निर्णय दिया और आगे कहा कि वादी को बुलाना या ना बुलाना प्रतिवादी की इच्छा पर निर्भर नहीं करता। लेकिन बाद में जिला और उच्च दोनों ही न्यायालयों ने न्यायमूर्ती रानडे के इस फैसले को रद्द कर दिया अन्यथा इसके दूरगामी परिणाम घातक हो सकते थे। ब्राह्मण पुरोहितों के बिना वैद्य विवाह सम्पन्न नहीं हो सकते इस परम्परावादी दलिल को अमान्य करने वाला बम्बई न्यायालय तीसरा न्यायालय था। बंगाल तथा तत्कालीन पश्चिमोत्तर उच्चतर न्यायालाय इसे पहले ही अस्वीकार कर चुके थे, बाद में मद्रास उच्चतर न्यायालय ने भी इसे नामंजुर कर दिया था जिसके बाद तो यह विवाद का विषय ही नहीं रहा। जोतीबा के लिये ये बड़ी जीत साबित हुयी।

विभिन्न भारतीय प्रांतों में पहले से ही प्रचलित दक्षिणा प्रथा को अंग्रेज शासकों ने अपने शासन काल में भी जारी रखा। बारहाल उन्होंने दक्षिणा कोष की अधिकतम सीमा 50,000 रूपये वार्षिक निर्धारित कर दी। कई अन्य उपाय भी किये गये जिनसे दक्षिणा पाने वाले ब्राह्मणों की संख्या कम होती गयी। एक बार तय किया गया कि बची हुयी राशि में से प्रतिवर्ष 20,000 रूपये पुणे महाविद्यालय को दिये जायेंगे क्योंकि उसमें अधिकतर ब्राह्मण ही पढ़ते-पढ़ाते थे। एक बार जब कोष मे 3,000 रूपये अतिरिक्त बच गये तो पुणे के कुछ सुधारवादी ब्राह्मणों ने गवर्नर को आवेदन दिया कि इस बची हुयी राशि को आधे-आधे भाग मे बाँट कर संस्कृत और मराठी में मौलिक साहित्य तैयार करने वाले साहित्यकारों को परितोषिक के रूप में दे दिये जायँ। लेकिन पुणे के परम्परावादी ब्राह्मणों ने इसे जाति विरोधी मान कर इसके लिये पहल करने वालों को दंडित करने के लिए एक समिती गठित की और सभा के लिए एक दिन भी निश्चित किया। जब समझाने से काम नहीं बना तब सुधारवादियों ने जोतीबा से भेंट कर मदद मांगी। जोतीबा ने तब कुछ दलित बस्तियों में से 200 हट्टे-कट्टे जवान लड़के जमा किये और जुलूस बनाकर निर्धारित स्थान पर पहुँचे। जोतीबा के साथ उन लोगों को देखकर, वहा जमा हुये ब्राह्मणों के होश उड़ गये, लेकिन जोतीबा के सुझावों पर उन्होंने अपनी सहमति दे दी और वे समझौते के लिए राजी हो गये। बाद मे गवर्नर ने भी बची हुयी राशी को साहित्य सृजन के कार्य पर खर्च किये जाने की अनुमति दे दी।

बड़ौदा राज मे बहुत वर्षो से ब्राह्मणो को रोज मुफ्त खिचडी बांटने की प्रथा चली आ रही थी। राजकोष से इस प्रथा पर प्रतिवर्ष एक मोटी रकम खर्च की जाती थी। जोतीबा ने 1884 मे बड़ौदा महाराज को इसके संबध में लिखा और उनसे जा कर मिले। उन्होंने महाराज को समझाया की जब कठोर परिश्रम कर राजकोष भरने वाले किसान भूखे-नंगे जीवन जी रहे हैं तो ब्राह्मणों पर इतना खर्च करना कहाँ तक उचित है। उसके बाद बड़ौदा राज मे खिचड़ी बाँटने की प्रथा को समाप्त कर दिया गया।

जोतीबा के जीवनकाल में पुणे जिले में जमींदार और साहूकार प्रायः सभी ब्राह्मण ही थे। सरकारी कार्यालयों में भी निम्न और मध्यम स्तर पर काम करने वाले सभी कर्मचारी ब्राह्मण थे। अतः गरीब दलित और पिछड़े वर्ग के लोगों को कहीं से भी न्याय नहीं मिलता। जोतीबा ने इस स्थिति से निपटने के लिये ”दीनबन्धु“ नाम की एक पत्रिका निकाली। उसके बाद उन्होंने खेतिहरो की चाबुक (1873) शीर्षक से एक पुस्तक लिखी जिसमें गरीब किसानों की समस्याएँ उसके कारण और निदान पर प्रकाश डाला गया। सरकारी कर्मचारीयो के शोषण से गरीब जनता की रक्षा के लिये जोतीबा ने अपनी पुस्तक में यह मांग रखी की सरकारी नौकरीयो में ब्राह्मणों की नियुक्ति उनकी जनसंख्या के अनुपात से अधिक ना की जाय बाकी बचे स्थानों पर शूद्रों-अतिशूद्रों के होनहार युवको को प्रशिक्षित कर नियुक्त किया गया। पुरोहितों के चुंगल से शूद्रों की रक्षा करने के लिये उन्होंने प्राईमरी शिक्षा को अनिवार्य बनाने की मांग की। जोतीबा ने शूद्रों, अतिशूद्रों और किसानों के कल्याण के लिये जो सुझाव उस वक्त बताये थे इतने वर्षों बाद आज कार्यान्वित किये जा रहे है। जिनमें नदियों पर बांध बांधना, कुएँ खोदने के लिये सरकार द्वारा गरीबों को वित्तीय सहायता प्रदान करना, समय-समय पर प्रदर्शनी लगाकर स्वरोजगार के साधन उपलब्ध कराना, अच्छी नस्ल के मवेशियों का आयात करना तथा वैज्ञानिक ढंग से खेती की शिक्षा जनमानस तक पहुँचाना शामिल हैं। पुणे जिले की जुनार तहसील में 1884 में जोतीबा ने गरीब किसानों पर होने वाले जुल्मों के विरोध में देश का पहला किसान सत्याग्रह किया जो सालभर तक चला और तभी समाप्त हुआ जब जमींदार, साहूकार और सरकार के प्रतिनिधियों ने स्वयं आकर जोतीबा से समझौता किया।

दलितों के बीच चेतना जगाने और दलित नेतृत्व तैयार करने के लिये जोतिबा निरन्तर दलित बस्तियों में आया-जाया करते थे। जोतिबा भारतीय मजदूर आन्दोलन के जन्मदाताओं में प्रमुख थे। वे जब भी मुंबई जाते अपने प्रवास के दौरान मजदूर बस्तियों में भी जरूर जाते। नारायणराव लोखंडे जिन्होंने 1880 में देश का प्रथम मजदूर संगठन "बम्बई मीलहैड" की स्थापना की थी। उनके अनुयायी और सत्य शोधक समाज के प्रमुख सदस्य थे। 1889 मे बम्बई नगरपालिका और अलिबाग नगरपालिका के दलित मजदूरों ने जो सफल हड़ताल की थी वह भी जोतीबा के प्रयासों का ही नतीजा था।

आज शिवाजी महाराज पर अपना दावा ठोंकने वालों को यह शायद ही याद हो कि जोतिबा ने ही रायगढ जाकर पत्थर और पत्तियों के ढेर तले दबी जीर्ण शीर्ण अवस्था में पड़ी शिवाजी महाराज की समाधी को ढूँढ़ निकाला और उसकी मरमत्त भी करवाई। बाद में उन्होंने शिवाजी महाराज पर एक छन्दबद्ध जीवनी भी लिखी।

स्मृतियाँ और पुराण शूद्रों और स्त्रियों के खिलाफ वह अध्यादेश है जो उनके जीवन को पूरी तरह से नियन्त्रित करता है। उन्हें गुलामी में जीने के लिये बाध्य करता है, आज भी जिसका असर भारत के सभी धर्मो पर समान रूप से दिखायी देता है। अस्पृशता, देवदासी प्रथा, सती प्रथा, बालविवाह, कन्याभ्रूण हत्या, बेगारी और विधवा विवाह पर पाबन्दी जैसी अनेक अमानवीय धार्मिक प्रथाएँ हैं, जो देश के लगभग सभी राज्यों में अगर आज जिंदा है, तो इसके पीछे भी पुरोहित वर्ग का ही हाथ है। हालाँकि जोतीबा के समय में कानून सती प्रथा को बन्द किया जा चुका था और कहीं-कहीं विधवा विवाह होने लगे थे। पर महिलाओं की सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक स्थिति में कोई विशेष अन्तर नहीं आया था। जोतीबा ने विष्णू शास्त्री पंड़ित द्वारा चलाये जा रहे विधवा विवाह आन्दोलन में पूरा सहयोग दिया। उन्होंने बाल-विवाह और बहुविवाह का भी खुलकर विरोध किया। उनके द्वारा लिखी गयी ”सतसार“ नामक एक पुस्तिका में भी स्त्रियों की स्थिति पर रोशनी डाली गयी है। यहाँ विशेष रूप से ऐसी दो घटनाओं का जिक्र जरूरी है जो साबित करती हैं कि जोतीबा के विचार इन मुद्दों पर कितने कठोर थे। एक बार जब महादेव गोविन्द रानडे जो उन दिनों पुणे में जज थे, जोतीबा को बताया कि उनकी भी एक बाल विधवा बहन है, तो उन्होंने दुखी हो कर पूछा कि उसका विवाह क्यों नहीं किया गया। जब रानाडे से जबाब देते नहीं बना और वे टाल-मटोल करने लगे तो पास बैठे जोतीबा भड़क गये और गुस्से में बोले "राव साहब, आप अपने आप को आगे से समाज सुधारक ना ही कहें तो अच्छा होगा"। बाद में जोतीबा ने रानडे को दूसरी बार तब फटकारा जब उन्हें पता चला कि अपनी पहली पत्नी के मरने के बाद उन्होने 32 वर्ष की उम्र में एक 11 वर्ष की बच्ची से दूसरा विवाह किया।

जोतीबा की राय में अशिक्षा, अज्ञानता और अन्धविश्वास स्त्रियों और शूद्रों की मुक्ति में सबसे बड़ी बाधायें थीं। अततः उन्होंने लड़कियों के लिये तीन स्कूल खोले- पहला जुलाई 1851 में, दूसरा उसके तुरन्त दो महिने बाद और तीसरा एक वर्ष बाद सितम्बर 1852 में। तीसरे स्कूल में दलित लड़के भी भर्ती किये गये। वे एक रात्रि पाठशाला भी चलाया करते थे। जोतीबा की पत्नि सावित्रीबाई फुले जिन्हें भारत की प्रथम हिन्दु महिला सामाजिक कार्यकर्ता और अध्यापिका होने का गौरव हासिल है उस स्कूल मे पढ़ाया करती थीं। दलितों के लिये पहला पुस्तकालय भी जोतीबा ने ही खोला था। उन्होंने 1868 में अपने पीने के पानी के हौज से दलितों को पानी लेने की अनुमती दे दी थी।

ब्राह्मणवाद से शूद्रों, अतिशूद्रों और स्त्रियों के सम्मान और अधिकार के लिये शायद ही किसी ने इतना संघर्ष किया जितना कि जोतीबा ने किया। आज भी अनके विचार सभी भारतीय दलित और स्त्रीवादी आन्दोलन के लिये मार्गदर्शक की भूमिका निभा रहे हैं, जब पूँजीवाद और भुमंडलीकरण की बदौलत उपजी भयानक असमानता की चपेट में आया गरीब दलित और आदिवासी वर्ग लगातार मर रहा है।

Tuesday, November 24, 2009

आपका पेट फल

मेषः- आपने जो कुछ पिछले कई महीनों से पेट काट कर जमा किया है अब उसे मन मसोस कर आटे दाल पर खर्च करना ही होगा। आपको भीतर ही भीतर किसी मेहमान के आने की चिंता हर पल सताएगी। इस चिंता के कारण न तो आप दिन में जागे रह सकेंगे और न ही रात को घर वालों को चैन से सोने देंगे। गणेश जी का कहना है कि घर में खर्च को देखते हुए संयम बरतें नही तो घर में हंगामा हो सकता है। उपाय- पीपल को रोज सुबह पानी चढ़ाएं।

वृषः- चाह कर भी आप अपने घर आने वाले मेहमानों को टाल कर भी नहीं टाल पाएंगे। असल में उनके अपने घर में आटा दाल खत्म हो चुके हैं। जितना वे पड़ोस से बेशरम बन ले सकते थे, उतना ले चुके हैं। कुल मिलाकर उनके पास अब आपके घर आने के सिवाय और कोई रास्ता नहीं बचा है। इसलिए गणेश जी का कहना है कि जैसे भी हो उनको झेलें। उपाय- कुत्ते को रोटी दें।

मिथुनः-बढ़ती महंगाई को देख कर अब आपकी भी रिश्वत लेने की योजना सिरे चढ़ेगी। आपके साहब आपसे अपने लिए लंच न लाने पर नाराज हो सकते हैं। इसलिए गणेश जी का कहना है कि किसी अनहोनी से बचने के लिए आप अपने लिए लंच भले न ले जाएं पर साहब के लिए लंच जरूर ले जाएं। जिसकी आपने कई दिनों से गलत फाइल रोक रखी है वह आपके घर उल्टे पांव कुछ लेकर आने वाला है। जो कुछ दे, निःसंकोच ले लीजिए। उपाय- फिलहाल मौज करें।

कर्कः- औरों की जेब पर आप सपरिवार डट कर मौज मस्ती करेंगे। गणेश जी का कहना है कि आपका मंगल केंद्र में होने से लग रहा है कि आपकी सास आपको किचन का सारा सामान लेकर आएंगी और आपका पूरा महीना भरपेट खाकर कटेगा। उपाय- अपने पेट का ध्यान रखें।

सिंहः- आप अबके भी महंगाई से उबरने की बहुत कोशिश करेंगे पर गणेश जी साफ देख रहे हैं कि कुछ न कर पांएगे। सब्जी खाने से आपका पेट खराब हो सकता है। बच्चों के लाख कहने पर भी उनके साथ बाजार न जाएं। वे आपको केक खाने के लिए परेशान कर सकते हैं और आपके पास पैसे न होने के कारण आपको कलंकित होना पड़ सकता है। उपाय- कौवे का काग बलि दें।

कन्याः- आप सरकारी टूअर पर रहेंगे जिससे आपका पेट तो भर जाएगा पर घर के बाकी जनों को पड़ोसी के घर से आई तड़के की बास से ही प्रसन्न होना पड़ेगा। गणेश जी का कहना है कि माना आपने कई महीनों से मदिरा पान नहीं किया है सो आपका मन कर सकता है पर भलाई इसी में है कि मदिरा के पैसों से घर में बच्चों के लिए मिठाई ले आएं। उन्हें भी लगेगा कि उनके पापा सरकारी टूअर से आएं है। उपाय- साहब को कोई अच्छा सा गिफ्ट दें।

तुलाः- किचन के डिब्बे खाली देख आप खालीपन और निराशा का अनुभव कर पत्नी को पतिआने की असफल कोशिश यह कह करेंगे कि ये महंगाई और अधिक दिन जिंदा रहने वाली नहीं। सपने में ही फल मेवों के दर्शन होंगे। गणेश जी कहना है कि बीवी बच्चों को कुछ दिन उसके मायके भेज दें। भले ही बच्चों को स्कूल से एबसेंट करवानी पड़े। उपाय- मलका का दान करें।

वृश्चिकः-पड़ोसी का आप पूरा लाभ लेंगे। आप उसे जैसे चाहे खाने में महारत रखते हैं। इसलिए आपको कितनी भी महंगाई क्यों न हो जाए चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं। वैसे भी आप जब ते कुंआरे हैं, गणेश जी का कहना है तब तक आपके वारे न्यारे हैं। उपाय- जब तक कुंआरे हैं आपको कुछ करने की जरूरत नहीं।

धनुः-आप सब्जियों की परेशानियों के चलते अकेला रहना पसंद करेंगे । हो सकता है आपके मन में यह सुविचार भी आएं कि आपने विवाह क्यों किया। हो सकता है महंगाई को देख आपका मन वैराग्य की ओर भी प्रवृत हो। गणेश जी का कहना है कि आप अब शिली के बदले ईश्वर की शरण में अधिक समय बिताएंगे। शुभ रंग- अरबी का।

मकरः- आपका गुजारा हाथी की चाल चल रहा है। भगवान की दया से विभाग भी आपको अच्छा मिला है। पड़ोसी आपके घर से बासमती चावलों की खुशबू को सूंघ परेशान रहते हैं और इनकम टैक्स विभाग को भी सूचित करने की योजना बना रहे हैं। गणेश जी का कहना है कि कुछ दिन के लिए बासमती चावल बनाना बंद कर दें। वरना बुरा होते देर नहीं लगती। उपाय- शुद्ध देसी घी के दीए जलाएं।

कुंभ- आप घर में फल लाने में कामयाब होंगे। चीनी लाने के मामले में आपको अबके खुशी मिलेगी। इससे परिवार में आपका कद ऊंचा होगा। गणेश जी का मानना है कि बादाम छवारे लाने के लिए आपको कठोर निर्णय लेना पड़ सकता है। बच्चों द्वारा पुराने दिनों को याद करने पर आपको उनके विरोध का सामना करना पड़ सकता है। उपाय- सूखे नलके पर रोज सुबह चाय पिए बगैर जल चढ़ाएं।

मीनः- आपकी पत्नी रोटी बनाने के पुराने तरीकों को बचत वाला टच देगी। कम खर्च में वह अधिक जायकेदार भोजन बनाने की कोशिश करेगी ताकि आप महंगाई के नियंत्रण में रह सकें। गणेश जी का कहना है कि पड़ोसी द्वारा आपको सपरिवार अपने घर डिनर पर बुलाने के भी पूरे योग बन रहे हैं। आपको पिछले सारे बैर भुलाकर जेब के हित में दो दिन व्रत रख जरूर जाना चाहिए। उपाय-इधर उधर से उधार लेना शुरू कर दें।

अशोक गौतम
गौतम निवास, अप्पर सेरी रोड, सोलन-173212 हि.प्र.

Friday, November 20, 2009

महंगाई नियरे राखिए,संसद कुटि छवाई


अंग्रेजी-कार्टून का हिन्दी अनुवाद । स्रोत- केगलकार्टून्स । अनुवादक- शैलेश भारतवासी

महंगाई में बंस गरीब का, हो गई अब कमाल। राम रहीम को छोड़ के, घर में सब बेहाल। थाली घर घर में फिरे, जीभ मरी मुख माहीं। दाल भात चहुं दिसि दिखे, पर पेट तो कछु नाहीं। जो दाल दे रोटी दे, मुझे तो वही सरकार। अब तो मूली के पत्ते भी, हो गए पहाड़। जान गवाय रोटी मिले, हर कोई लेए गवाए। दो रोटी जिसे मिले, अब वही स्वर्ग को जाय। कंट्रोल रेट सब झूठ है, मत भरमो जग कोय। चोर बाजारी किए बिना, यहां साध न होय।

डिग्री लिए रोए जग मुआ, नौकरी मिलि न कोय। मूंगफली जो बेच रहा, अब सोई पंडित होय। रेता र्इंटा चोरी के, दो कमरे लिए बनाय। तां चढ़ी बंदा बांग दे, पर रोटी कहां से पाय। दिन भर रोजा रखत है, राती भी कुछ न खाय। अब तो हर पल दिखत है, सबको बस खुदाय। रामू ‘यामू सलमान अब, क्या बाजार को जाई। सारा दिन मंते घूमे, सब खाली झोला आई। बकरी खाती गंद है, ताकि काढ़ी खाल। जो जनता को खात है, वो हो रहे तालो ताल। पेट में रोटी, रोटी में पेट, देखे जो वो ही ग्यानी। भूखा पेट रोटी में समाए, यह तत कहत है रानी।
मनवा चीनी में लिपटा, पंख घी लिपटाय। हाथ मले और सिर धुने, सरकार चुप रही जाए। आंखड़ियां झाई पड़ी, सब्जी निहारी निहारी, जीभड़िया छाले पड़े, दूध पुकारि पुकारि। बहुत दिनन से देखती, बाट तुम्हारी पनीर। फाकों से मुक्ति मिले, तो अमर हो ये सरीर।

जनता खड़ी बाजार में, लिए थालियां हाथ। जिसके घर रोटी मिले, ले जाए सबको साथ। हे प्रभु इतना दीजिओ, मेरा परिवार पल जाए। पड़ोसी भाड़ में जाए, साधु भाड़ में जाए।
सपने में रोटी मिली,सोबत दिया जगाय। आंखिन खोली तो क्या देखा,घर रोटी को हाय। बहुत दिनन से जोवता, बाट तुम्हारी लंच। जीभ तरसे तुझ मिलन को, मारे महंगाई के दंश। चोट सतानी महंगाई की,अंग अग जरजर होई। हंसने वाले हंस रहे, जनता मरी रोई रोई। रोटी रोटी न कहो, रोटी वाले बेईमान। जा पेट रोटी संचरै, वही यहां सुलतान। जो रोऊं तो जग हंसे, हंसों तो पेट दुखाई। अब तब तक मन में रोना है, जब तक कम न हो महंगाई। कै जनता को मार दे, या कम कर दे महंगाई। अब ये पेट की आग और, मुझसे सही न जाई। भूखा सारा देस है, क्या खावै क्या सोवे। आटा लाया जत्न से , बच्चे दूध को रोवै।

जनता को उपवास भाया, अब करे निरंतर उपवास। सिवाय रूखे सूखे के, कुछ नहीं उस के हाथ। आया था इस देस में, खाने को बहुरूप। आ कर यहां पर फंस गया, सब जगह भूख ही भूख। अरहर से कल मिला, लाहौरिया भरपूरि। सकल पाप देखत गए, ज्यों सांई मिला हजूरि। अल्लाह को था ढूंढता, कल चानक मिलिया आई, सोचा था उसको खाऊंगा, पर उसने मेरी खाई। मार्किट में हाहाकार, जीव जीव भटकाहिं, छिलके वाले छिलके चुगै,मटरों से नजर चुराहिं। निम्न वर्ग समाज का, रटे कंटरोल कंटरोल,वो क्या जाने बेचारा, क्या सत्ता को झोल। जनता कुत्ता सरकार की,गली गली भटकाए। गली वाले भी खुद बेचारे, और गली में जाए। बंदे ये जग बाजार का, खाला का घर नाहीं। कीमत दे माल ले जा, तब घर में चूल्हा जलाहीं।

रोटी न रिश्ते उपजै, रोटी तो हाट बिकाहीं। लालू पालू जेहि रूचै, नोट दे ले जाहीं। ऐसा मिला न कोय जो,घर आए को दे खिलाए। घर आए साधु तो अब , दरवाजा खुद बंद हुई जाय । महंगाई महंगाई करे मरे , हर मानुस की जात। स्वर्ग में खाएंगे, क्या दाल क्या भात। खिलावन वाले तो मुए, मुए अब खावनहार। सौ सौ ढाबे थे जहां, अब जमा घटाकर चार। साधु आप ही खाइए, और न खिलाइए कोय। आप खाए सुख उपजे, और खिलाए दुख होय। हाट बाजार ह्वै ह्वै गया ,केती बार गरीब। हर बार वहां बिकती देखी, उसने एक सलीब। हम घर बांधा आपणा, अब चूल्हा चैका बंद। न जीने का अधिकार उसे , जेब हो जिसकी तंग। जिनि वोट पाए ते जिए, वोटर अब चालनहार। उनते पाछै पूंगरे, संभलें वे करतार।

महंगाई नियरे राखिए,संसद कुटि छवाई। बिन दवा बिन दारू कै, पेट रहे सफाई।


अशोक गौतम
गौतम निवास, अप्पर सेरी रोड,
नजदीक मेन वाटर टैंक, सोलन-173212 हि.प्र.

Tuesday, November 17, 2009

रामकृष्ण पाण्डेय- आंदोलनों में अपनी भूमिका तलाशने वाला पत्रकार

हिन्दी के वरिष्ठ पत्रकार और कवि रामकृष्ण पांडेय का सोमवार शाम निधन हो गया। न्यूज एजेंसी यूएनआई से रिटायर हुए रामकृष्ण पाण्डेय लम्बे समय से मधुमेह से पीड़ित थे। सोमवार, 16 नवम्बर को इनकी तबियत अचानक खराब हो गई जिसके बाद उन्हें अस्पताल ले जाया गया जहां उनका देहान्त हो गया। आज शाम उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया। इनके परिवार में इनकी पत्नि के अलावा इनकी दो बेटियाँ भी हैं।

कम्यूनिस्ट आंदोलन से जुड़े रामकृष्ण पाण्डेय को इनके कुछ करीबी और जानकार कुछ यूँ करते हैं। हम इस माध्यम से हिन्द-युग्म की ओर से श्रद्धाँजलि दे रहे हैं।


वे अपनी भूमिका देश में चल रहे आंदोलनों में तलाशते थे

सुबह रंजित वर्मा से रामकृष्ण पाण्डेय की मृत्यु का समाचार सुनकर एकबारगी यकीन नहीं हुआ की हर हफ्ते हँसते-मुस्कराते मिलाने वाले पाण्डेय जी इतनी जल्दी धोखा दे जायेंगे। वे हमारे बीच एक अपरिहार्य उपस्थिति थे। हाल में ही उन्होंने यूएनआई में अपनी दूसरी पारी शुरू की थी और अपनी कई किताबों के प्रकाशन की योजनाएँ बना रहे थे। पाण्डेय जी से मेरा परिचय दस साल पहले हुआ था। वे जल्दी ही आत्मीय हो गए। काफी दिनों बाद उन्होंने अपना संकलन भी दिया। मिलना-
एक प्रतिबद्ध पत्रकार थे

रामकृष्ण पाण्डेय एक वरिष्ठ पत्रकार थे, कवि भी थे। वे इतने सज्जन थे कि किसी भी बात के लिए मना नहीं करते थे। हमेशा जन के लिए प्रतिबद्ध पत्रकार की तरह लगे रहे। वे इस वय में भी लगातार काम करते रहे, अपनी अस्वस्थता की ओर कभी ध्यान नहीं दिया। हालाँकि मेरा कभी उनसे बहुत व्यक्तिगत संबंध नहीं रहा, लेकिन प्रोफेशनल सम्बंध ज़रूर रहा। मैंने जब कभी भी उन्हें समयांतर के लिए लिखने के लिए कहा, उन्होंने अपनी तमाम व्यस्तताओं के बावज़ूद लिखा। अक्टूबर 2009 अंक में भी उनकी लिखी एक समीक्षा छपी है। उन्होंने कभी भी अपनी पीड़ा, अपनी बीमारी का प्रचार नहीं किया। कल जब उनकी मृत्यु का समाचार मिला तो पता चला कि वे पिछले 1 सप्ताह से गंभीर रूप से बीमार थे। यूएनआई के अलावा उन्होंने लघुपत्रिकाओं में प्रतिबद्ध किस्म का लेखन किया। इनके लेखों और कविताओं में समाज की चिंताएँ रिफ्लैक्ट होती हैं। इनका एक कविता-संग्रह भी प्रकाशित है। एक और तैयार है। आर्थिक रूप से अधिक सम्पन्न नहीं थे, इसके बावज़ूद भी वे जन संघर्ष और मानवीय पीड़ा की कलम बनते रहे।

--पंकज बिष्ट, संपादक- समयांतर
जुलना बाद में कम हो गया था लेकिन समयांतर में लगातार अपनी टिप्पणियों और लेखों से उन्होंने न केवल ध्यान खिंचा बल्कि समकालीन प्रश्नों पर बेहद सादे ढंग से लिखा। पिछले साल रंजित, कुमार मुकुल, अजय प्रकाश, पाण्डेय जी आदि ने मंडी हाउस में नियमित मिलने और रचना पाठ का एक कार्यक्रम शुरू किया जिसमे मैं भी शामिल हो गया, हालाँकि कुछ मित्रों ने निहित स्वार्थों के लिए तोड़फोड़ करने और हूट करने की कोशिश की लेकिन यह आयोजन लगातार चलता रहा। पाण्डेय जी अपनी बेबाक टिप्पणियों के कारण गोष्ठी के अनिवार्य हिस्सा थे। सही मायने में वे साहित्य के गंभीर अध्येता थे और समकालीनता बोध से भरे पूरे थे। कविता के नए सौंदर्य,सवाल,भाषा और चुनौतियों के प्रति वे निरंतर सचेत थे और नए से नए कवियों को लगातार पढ़ते थे। आनंद प्रकाश जी की तरह पाण्डेय जी नयी पीढ़ी में अपने समकालीन धुन्ध्ते इ अपनी जगह थे। स्वयं पाण्डेय जी हिंदी साहित्य की तथाकथित मुख्यधारा से पूरी तरह उपेक्षित थे लेकिन इसकी उन्हें परवाह ही कहाँ थी। वे अपनी भूमिका देश में चल रहे आंदोलनों में तलाशते थे और लगातार अपनी टिप्पणियों से उसमें भागीदार भी होते। पांडेय जी इस मामले में बेहद संकोची थे कि कोई उन्हें साहित्यकार माने ही। इसी झोंक में वे अपनी जगह ब्रेख्त या किसी और कवी की कविता सुनाने लगते। यह आज के आत्ममुग्ध लोगों की दुनिया में दुर्लभ बात है। शायद यह खूबी अपने दौर में एक गंभीर सांस्कृतिक कर्म के प्रति इमानदार सरोकारों से ही पैदा होती होती है। उनका जाना हमारे एक जरूरी दोस्त का जाना है लेकिन वे हमारी भावनाओं और संवेदना में हमेशा मौजूद रहेंगे।

--रामजी यादव, युवा कवि, सहसंपादक- पुस्तक वार्ता


पाण्डेय जी प्रगतिशील आंदोलन के लिए लगातार खाद-पानी का काम करते रहे

रामकृष्ण का बहुत लम्बा कैरियर रहा। पटना में जन्मे, वहीं से इनके कैरियर की शुरूआत हुई। पटना से जेएनयू आ गये।
बहुत अधिक परिचित नहीं था। हालाँकि उनके पत्रकारीय व्यक्तित्व से लगातार प्रभावित ज़रूर रहा। उनके पत्रकारी कैरियर में कोई कंट्रोवर्सी नहीं रही, वे पूरी तरह बेदाग रहे। यही क्या कम बड़ी उपलब्धि है!

--विमल झा, फीचर संपादक, दैनिक भास्कर
कविताएँ लिखते रहे। पाण्डेय जी मूल रूप से कवि ही थे, लेकिन चूँकि बाद में पत्रकारिता से भी जुड़ गये,इसलिए एक लम्बा कैरियर पत्रकारीय भी रहा। पाण्डेय जी प्रगतिशील आंदोलन के लिए लगातार खाद-पानी का काम करते रहे। उनकी कविताएँ प्रमुख रूप से नंदकिशोर नवल द्वारा संपादित कविता संग्रह में प्रकाशित हुई, जिसमें इनके अलावा उदय प्रकाश और अरुण कमल की कविताएँ भी संकलित थीं। इनकी समझ बहुत ही अच्छी थी। मार्क्सवादी नज़रिया रखते थे। कविताओं की साफ समझ रखते थे। गोष्ठियों में जब किसी कविता पर अपने विचार देते थे तो कुछ न कुछ नया दृष्टिकोण लेकर उपस्तित होते थे। नई बात खोज ही लेते थे। युवा कवियों के बीच भी काफी लोकप्रिय थे। हालाँकि उनकी रचनाएँ समकालीनता से पूरी तरह लैश थीं, फिर भी उन्हें हिन्दी साहित्य में वह स्थान नहीं मिला, जिसके वे हक़दार थे। यह पूरे हिन्दी साहित्य के लिए चिंता की बात है।

--रंजीत वर्मा, कवि-लेखक

Monday, November 16, 2009

आजकल के बच्चे, बच्चे नहीं रहे

शनिवार को बाल-दिवस था। बाल-दिवस! चलो एक दिन के दिवस के बहाने बच्चों की सुध ली जाती है। शायद स्कूलों में कार्यक्रम होते होंगे। हमारे समय में तो होते थे। अब का पता नहीं। वैसे अब ज्यादा ध्यान दिया जाता है बच्चों पर। ज्यादा भाग्यशाली हैं आज के बच्चे। जैसे पाठ्यक्रम में बदलाव, परीक्षा समाप्त करना जैसे अनेक कदम उठाये जा रहे हैं।

बच्चे मतलब बचपन। आज से दस वर्ष पूर्व बचपन मतलब कॉमिक्स। पर अब हैं कार्टून, टीवी, विभिन्न चैनल। तब मोगली होता था, अब जैटिक्स जैसे चैनलों पर मारधाड़। तब चाचा चौधरी, मिनी, रमन, बिल्लू, नागराज और सुपर कमांडो ध्रुव में खो जाते थे। पर अब कब्जा है अमरीकी व चीनी कार्टून किरदारों का। माफ़ कीजियेगा सब के नाम नहीं पता। मेरी बुआ का लड़का है वो बता पायेगा।

चंपक, नंदन, चंदामामा व बालहंस पत्रिकायें कहीं खो गई हैं। अब बच्चों को इंतज़ार होता है शिनचैन की मूवी का। हैरी पॉटर का। इनसे बच्चा कुछ तो सीखता होगा? ऐसा कईं बार मैंने सोचा...सीखता तो होगा न?

बच्चे अब टीवी देखते ही नहीं बल्कि अब टीवी पर आने भी लगे हैं। अब परिवार को नहीं बल्कि दुनिया को हँसाने लगे हैं। माँ बोलने से पहले तो गाना गाने लगे हैं। चलना तो पैदा होने से पहले सीख लेते हैं पर चैनल पर अब नाचने लगे हैं। गर्मियों की छुट्टियों में नानी के जाते थे, फ़ालसे खाते थे पर अब "समर वेकेशन्स" हैं तो डांस और "सिंगिंग क्लासेस" भी जरूरी हैं। नहीं तो कोई न कोई हॉबी तो सीखनी ही होगी। बच्चे ही नहीं बच्चों के अभिभावक भी यही चाहते हैं। एक भी दिन बेकार न जाये। बच्चा अव्वल आना चाहिये।

पाठ्यक्रम में परिवर्तन हुआ। मैंने किसी से पूछा तो पता चला सुभद्रा कुमारी चौहान की रानी लक्ष्मीबाई की कविता अब गायब हो गई है। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि उस कविता ने बच्चों का क्या बिगाड़ा है। ताँत्या टोपे पर एक पाठ हुआ करता था। काबुलीवाला और कदम्ब का पेड़ जैसी रचनायें अब किताब के पन्नों में नहीं, इतिहास के पन्नों में चली गईं हैं। राज्य स्तर के बोर्ड में जरूर ये आती होंगी, पर सीबीएसई इन्हें जरूर समाप्त करना चाह रहा है। हैरानी और परेशानी होती है कि बच्चों के पाठ्यक्रम से इनको हटा कर क्या मिला? सीबीएसई को महात्मा गाँधी के जंतर ने तो ऐसा नहीं कहा था!! क्या अब हैरी पॉटर में अपना वर्तमान और भविष्य खोजेंगे बच्चे?

अभी हाल ही में एक मित्र मिला जो सातवीं के बच्चे को ट्यूशन पढ़ाता है। माँ कहती है कि बेटा अव्वल आये। इसलिये उसे मोबाइल और इंटेरनेट दिया हुआ है। अब मोबाइल दिया है तो इस्तेमाल तो होगा ही बेशक क्लास के बीच में बात करनी हो। लैपटॉप पर चैटिंग जारी रहती है। एक मिनट के लिये भी बंद नहीं होता। पर लाडला अच्छे अंकों से पास होना चाहिये। कपिल सिब्बल ऐसे परिवारों के लिये परीक्षा समाप्त कर रहे हैं। एक शानदार कदम है उनका। इससे सूचना क्रांति में बहुत मदद मिलेगी। अभिभावक और मंत्री जी सही दिशा में जा रहे हैं।

"नानी तेरी मोरनी को मोर ले गये", "दादी अम्मा दादी अम्मा मान जाओ", "हम भी अगर बच्चे होते", "नन्हा मुन्ना राही हूँ" जैसे अनेकों गीत हैं जो गुनगुनाये जाते थे, गाये जाते थे। सभी की जुबान पर थे। पर अब बच्चे अम्मा को "ग्रैंडमा" बुलाने लगे हैं तो गाने ऐसे क्यों बनेंगे? वैसे भी आजकल बच्चों के गाने तो दूर उन पर फ़िल्म कोई नहीं बनाता। हाँ, बच्चे जरूर बड़ों जैसी बातें करते हुए अलग अलग फ़िल्मों में दिख जायेंगे। कोई एंकर बन गया है तो कोई एड-जगत में नाम कमा रहा है। कोई धारावाहिकों में आता है तो कोई रियलीटि शो में आता है। यही आज का बचपन है!! बच्चे और अभिभावक इसी में खुश हैं।

बच्चे अब बच्चे नहीं रहे। बड़े हो गये हैं। शब्दकोश से बचपन शब्द कब गायब होगा ये तो वक्त ही बतायेगा। कुछ भी कहो, आजकल के बच्चे कामयाब जरूर हैं। क्या हुआ जो उन्होंने बचपन का "स्टापू" नहीं खेला(!), कम्प्यूटर पर ऑनलाइन गेम तो खेली है।

देर से ही सही, बाल(?)-दिवस की शुभकामनायें!

--तपन शर्मा

Sunday, November 15, 2009

तुम मिले : पर गुल नहीं खिले

प्रशेन ह. क्यावल द्वारा फिल्म समीक्षा

जन्नत और राज़ के बाद इमरान हाशमी की फिल्म "तुम मिले" भारी भीड़ के साथ सिनेमागृहों में आई है। इससे ये तो साबित होता है के भट्ट, उनका संगीत और इमरान बॉक्स ऑफिस पर भीड़ ज़रूर इकट्ठा कर सकते हैं। पर क्या यह फिल्म दर्शकों की भीड़ लगातार जुटाने में सफल हो पायेगी?

कथा सारांश:

अक्षय (इमरान) एक उभरते हुए पेंटर (नहीं आर्टिस्ट) हैं जो केप टाऊन में अपनी पेंटिंग का कोर्स करते-करते एक रेस्तरां में वेटर की नौकरी करते हैं। एक बार आर्टिस्ट कार्नर पे पैंट करते समय वे एक ग्रुप को भाषण देती हुयी संजना (सोहा अली खान) को देखते ही उसके दीवाने हो जाते हैं, पर शर्मीले अक्षय कुछ नहीं कह पाते हैं।

फिर से जब बार-बार उनकी मुलाकात होती है तो उनमें दोस्ती हो जाती है और धीरे धीरे प्यार। संजना एक सुलझी हुयी और बेहद अमीर लड़की है। वो खुद भी अपने जिंदगी में दिन ब दिन तरक्की कर रही है। पर अक्षय एक मूडी आर्टिस्ट है जो अपने मन के मर्जी जो चाहे वो करते है। फिर भी वे दोनों एक दूसरे में खो जाते है और लिव-इन रिलेशन रखते हैं।

पर अक्षय की जिंदगी में कुछ ख़ास नहीं हो पाता है और वह दिन ब दिन मायूस होता जाता है। इसी वजह से उन दोनों के रिश्तों में दरारें आने लगती हैं और एक दिन वे अपने अपने अलग रास्तें चले जाते हैं।

पर किस्मत से वे फिर से मुंबई में मिलते हैं। वह भी 26 जुलाई 2005 के दिन। दोनों हवाई जहाज में मिलते है और बाद में मुंबई में। उस दिन की खौफनाक बारिश की न्यूज़ सुन कर अक्षय संजना के बारे में सोचता है ... और आगे क्या होता है? यही कहानी है 'तुम मिले' की।

पटकथा:

26 जुलाई के वाकये के अलावा कहानी में कुछ नयापन नहीं है... पर किरदार और संवाद कहानी को दिलचस्प बनाते हैं। किरदारों को बारीकी से तराशा गया है पर कथा छोटी सी होने के कारण अंकुर तिवारी की पटकथा एक ही जगह पर ही घुमती रहती है। और फ्लैशबैक और वर्तमान का जो आगे पीछे होना है वह सामान्य दर्शक के सर के ऊपर से जाता है और कहानी के बहाव को उसी तरह तोड़ता है जैसे 25 जुलाई के पानी ने कई दीवारें ढह गयीं।

दिग्दर्शन:

जन्नत जैसी सफल फिल्म देने वाले कुणाल देशमुख इस बार कमजोर पटकथा के हाथ मात खा गए। किरदारों को बहुत खूबी से प्रस्तुत किया है दिग्दर्शक ने। फिल्म में जो भी जान है वह किरदारों के चित्रण से ही बची है। पर फिर भी फिल्म बहुत जगह पर सवाल करने पर मजबूर करती है। अक्षय का किरदार इतना मन मौजी है और एक जगह टिक नहीं पता.... इस सच्चाई को बार बार बता कर हाई लाइट करने वाले कुणाल ये बताना भूल जाते हैं कि ऐसा क्या हुआ था कि जिसकी वजह से संजना को छोड़ने के बाद अक्षय लाइफ में एक दम सेट हो गए?

फिल्म कई जगह पर सच्चाई से जुडी लगती है और कई जगह सच्चाई से एकदम जुदा... बनावटी! अक्षय के मित्र की जब जान जाती है तो वह बिलकुल बनावटी-सा लगता है और ना ही उन्हें कुछ खास त्याग कर के मरते हुए दिखाया गया है जिससे दर्शक उसकी मौत से जुड़ पाए।

अभिनय:

अभिनय के विभाग में सब लोग खरे उतरे हैं। इमरान अपने किरदार में जान डाल देते हैं। सोहा भी किरदार को परदे पर जीवित करने में कामयाब होती हैं। पर उन्हें अपने चेहरे और गालों का कुछ करना चाहिए। बहुत सारी जगहों पे वे इमरान से बड़ी लगती हैं। इमरान के मित्र बने कलाकार भी छाप छोड़ जाते हैं।

चित्रांकन और स्पेशल एफ्फेक्ट्स :

केप टाऊन की सुन्दरता और मुंबई की बदहाली दोनों सक्षम रूप से दिखाते है छायाकार प्रकाश कुट्टी। मुंबई के बाढ़ के स्पेशल इफेक्ट बहुत ही कम है और टीवी पे आने वाले प्रोमो छोड़ कर बाकि फिल्म में कुछ ज्यादा नहीं हैं। और वहीं दर्शक ठगा हुआ महसूस करता है।

संगीत और पार्श्वसंगीत:

प्रीतम का संगीत जबरदस्त है और हिट है। पार्श्वसंगीत दृश्यानुरूप है।

संकलन:

कहानी का फ्लो कमज़ोर पटकथा के कारण बिगाडा हुआ है, इसलिए संकलन भी कमजोर लगता है। फिल्म के दूसरे भाग में जहाँ कहानी को जोर पकड़ना था, वहीं कहानी दम तोड़ देती है। पर मुझे लगता है, फ्लैशबैक को टुकडों में ना दिखाते हुए एक सटीक तरीके से प्रर्दशित किया जाता तो फ्लो बना रहता, और दुसरे भाग में बाढ़ की कहानी को सच्चाई से पेश किया गया रहता तो फिल्म अच्छी हो सकती थी।

निर्माण की गुणवत्ता:

विशेष फिल्म्स की निर्माण गुणवत्ता हर फिल्म के साथ बढ़ती जा रही है और ये अच्छे संकेत हैं। कम लागत में अच्छी फिल्में बनाने वाला भट्ट परिवार हर बार अच्छी कहानी बयान करता हुआ नजर आता है। पर इसबार वे पटकथा के चयन में कहीं चुक गए हैं। और बजट के कमी के कारण बाढ़ की कहानी में कई जगह समझौता हुआ है। और यहीं पर दर्शक नाराज हो जाते हैं।

लेखा-जोखा:

*** (3.5 तारे)
26 जुलाई को सिर्फ एक चाल की तरह दर्शकों को सिनेमाघरों में लाने के लिए इस्तेमाल किया गया है। इसी वजह से इंसानी रिश्तों और भावनाओं को सफलता पूर्वक चित्रित करने वाली फिल्म दूसरे भाग में बाढ़ की कहानी को एक उचे स्तर पर ले जाने में असमर्थ होती है। और ये फिल्म २०१२ जैसे फिल्म के सामने रिलीज़ कर के भट्ट परिवार ने बहुत बड़ी गलती की है। अगर फिल्म अकेली आती तो काश प्रचार और प्रसिद्धि के भरोसे चल गयी होती। पिछली बार भी हैरी पॉटर के सामने जश्न रिलीज़ कर के एक गलती कर चुका था भट्ट परिवार। अगली बार बड़ी हिंदी फिल्मों के साथ-साथ हॉलीवुड फिल्मों को भी रिलीज़ डेट फायनल करते समय ध्यान में रखने की ज़रूरत है।

प्रोमोस, संगीत, इमरान और भट्ट परिवार का ट्रैक रिकॉर्ड के चलते फिल्म को ओपनिंग तो अच्छी मिली है लेकिन दर्शक इसमें 26 जुलाई की कहानी अधिक देखना चाहते थे ना कि केप टाऊन की।

ये फिल्म सिनेमाघरों में जाके देखने की सलाह तो मै आपको नहीं दे सकता पर टीवी और डीवीडी पे आप घर में ये फिल्म ज़रूर देख सकते हैं।

चित्रपट समीक्षक:--- प्रशेन ह.क्यावल

Wednesday, November 11, 2009

नो हींदी नो हींदी नो हींदी!!

अब आप को अपणे बारे में क्या क्या बताऊं? बस इतणा जाण लेओ कि मैं अपणी जिंदगी में जो कुछ भी आज तक बणा दुर्घटणावस ही बणा। मैं पति नहीं होणा चाता था। पर हो गया ! मैं चोर होणा चाता था पर मास्टर होणा नहीं चाता था। वो तो चुणाव में अपणे नेता जी के पोस्टर लगाए, और बो बदकिस्मती से चुणाव जीत गए और उण्होंणे मास्टरी की नौकरी का पेपर लीक करवा मेरे हाथ सौंप मुझे अपणे कर्ज से मुक्त किया। उस वक्त मैंणे उणसे कहा भी था,‘ नेता जी! मुझे पटवारी बणा दीजिए, मुझे पुलिस में भर्ती करवा दीजिए पर मास्टर तो मत बणाइए। मुझे पढ़णे पढ़ाणे से बहुत डर लगता है।’ तो वे मंद मंद मुस्कराते कहे थे,‘बचुआ आज हर नौकरी में रिस्क है। कुछ खाओ भी णहीं तो भी जणता शक की नजर से देखे है। और मास्टर हो के जो मण कहे करो, कोई कुछ नहीं कहणे वाला। देश निर्माता का फट्टा माथे पे लगाओ और मौज मणाओ।

और उणके आशीर्वाद से प्राइमरी स्कूल का मास्टर हो गिया। सच्ची को मास्टर होणे के आज की डेट में बहुत फादे हैं। गांव वाले सबकुछ फ्री में दे जाते हैं और हम भी मास्टरी का प्रसाद समझ मजे से खा लेते हैं। भगवाण उण नेता जी को स्वर्ग दे जो मेरी पुकार सुण रहा हो। ण वे चुणाव लड़ते, ण मैं उणके पोस्टर लगाणे के लिए दिण रात एक करता और ण वे मेरी भक्ति पर प्रसण्ण हो मास्टरी का पेपर लीक करवा मुझ तक पहुंचाते और ण मैं आज मास्टर शब्द अंग्रेजी तो अंग्रेजी हींदी में भी गलत लिखणे वाला मास्टर हो पाता।

आज तो साहब हम बड़ों बड़ों को पटखणी देते हैं और सीणा चैड़ा कर कते हैं कि है कोई पूरे विभाग में अपणे जैसा मास्टर कि जो स्कूल टाइम में ही स्कूल के पीछे जुए वालों को जमाए, बच्चों को सारा साल कुछ ण पढ़ाए पर परीक्षा में अपणे हर बच्चे को फस्र्ट क्लास में पास कराए!

जबसे स्कूल में सरकार की खिचड़ी चली है अपणे तो साब चांदी है। सारा दिण बच्चों का पूरी लग्ण से खिचड़ी पकाते हैं , पहले खुद खाते हैं फिर बच्चों को खिलाते हैं और जो बच जाती है उसे घर में शाम को बीवी बच्चों को ले जाते हैं। अब अकेला मास्टर स्कूल में क्या क्या करे? खिचड़ी का हिसाब, बच्चों का हिसाब, ऊपर से हिसाब का हिसाब!

बच्चों के मा बाप मुझसे बहुत खुश है। कहते हैं,‘क्या हुआ जो कुछ णहीं पढ़ा रहा है, बच्चे तो कते हैं कि स्कूल मास्टर खिचड़ी उणकी माओं से कई गुणा स्वाद बणा रहा है। बिणा पढ़ाए ही बच्चों को पूरे इलाके में फ्रस्ट ला रहा है। ऐसे में ये पढ़ाए तो इसके पढ़ाए बच्चे पता णहीं क्या तबाही मचाए। हमारे स्कूल में मास्टर जी णहीं, मास्टर जी के वेश में कोई जादूगर हैं आए। भगवाण करे ये मरणे के बाद भी यहां से ण जाए। ’ खिचड़ी बणाणे में पूरे विभाग में कोई मेरा साणी णहीं। मैं बच्चों को सारा दिण डटकर खिचड़ी खिलाता हूं और कभी कभार जो खिचड़ी का माच ण लगा होवे तो उण्हें अंग्रेजी उण्हीकी जबाण में पढ़ाता हूं।

कल सुणार का लड़का रोता हुआ आया तो मैंणे उससे पूछा,‘ रो कयों रा है? कल क्या खिचड़ी में मिर्च ज्यादा थी?’
‘णाहीं।’
‘तो क्या नमक ज्यादा थिया?’
‘णाहीं।’
‘तो क्या खिचड़ा खा खा के कब्ज हो गया?’
‘णाही!’
‘तो क्या आज खिचड़ी वाली थाली किताबों के साथ घर भुल आया?’
‘णाहीं। गुरू जी! मारोगे तो णाहीं?’
‘ णाही! खुल के बोल,अरे पगले जब हमणे कूछ करवाए ही णाहीं तो मारेंगे काहे।’
‘मैं हींदी बोलणा चाहे हूं।’
‘का करेगा हींदी बोलके? अपणी बोली बोल अपणी। हुणा जिणा है जो! हींदी तेरे बाप ने बोली?’
‘णाही!’
‘तेरे मास्टर णे बोली?’
‘णाही।’
‘तो तेरे को हींदी बोलने का दौरा कहां से आ पड़ा रे? पिटेगा हींदी बोलेगा तो, सड़क में भी और संसद में भी। टांग बाजू तुड़वाणे का जादा सौक है तो जा कबड्डी खेल आ, दंगा कर आ पर हींदी मत बोल। हींदी के दिण आजकाल बुरे चले हो रे बिटुआ। मास्टर का कहणा माण और जा अपणी थाली धो कर ला, खिचड़ी तैयार है। ’
‘पर हींदी हमार रास्टर भासा है ण?’
‘कौण कहे है रे देसभक्त?? जा णहीं तो तेरे बाप से कहे दूंगा कि तेरा बेटा आजकाल बिगड़ रहा है। ऐसी उटपटांग भासा सीखेगा कहेगा ण तो कहीं का ण रहेगा। तू बड़ा होकर बड़ा बणणा चाहे हो ण?’
‘हा।’
‘ तो सबकुछ सीख पर हींदी ण सीख। हिंदुस्थान में सबकुछ बोलते हैं पर हींदी हुींदू णहीं कहते। समझा!’
‘ णा। समझा हो माटर समझा।’

अशोक गौतम
गौतम निवास, अप्पर सेरी रोड, सोलन-173212 हि.प्र.

Monday, November 09, 2009

क्या आप 'वंदेमातरम्' को राष्ट्रगीत मानते हैं?

हाल ही में देवबंद,उ प्र में हुए जमीयत-ए-उलेमा-ए-हिन्द के सम्मेलन में वंदेमातरम के विरोध में फ़तवा जारी किया गया। देश के गृहमंत्री चिदम्बरम व योगगुरु रामदेव भी वहाँ उपस्थित थे। चूँकि वंदेमातरम देश भक्ति से जुड़ा गीत है (ऐसा इसके आजादी के समय किये गये इस्तेमाल से कहा जा सकता है), इसलिये कुछ संस्थानों व संतों ने इस फ़तवे का विरोध किया। हालाँकि कांग्रेस के सलमान खुर्शीद व भाजपा के मुख्तार अब्बास नकवी, जो दोनों खुद भी मुस्लिम हैं, दोनों ने ही इस फ़तवे पर ऐतराज़ जताया है।

आनन्द मठ: बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा रचित यही वह बांग्ला उपन्यास है जिसका एक गीत राष्ट्रगीत बन गया। लेकिन इसके राष्ट्रगीत बनने के बाद से अब तक यह विवादों से घिरा रहा है। वैसे हमारे देश में कोई भी ऐसी घटना या व्यक्ति नहीं जिस पर विवाद न हुआ हो। चाहें मोहनदास करमचंद गाँधी हों या "जन गण मन"। हमारा इतिहास ही ऐसा रहा है। आज भी बदस्तूर जारी है। वैसे आज बात करेंगे वंदेमातरम की। पिछले वर्ष ये उपन्यास पढ़ा था और जैसे जैसे पढ़ता गया वैसे वैसे कौतूहल जागा कि आखिर मुस्लिम समुदाय इससे नाराज़ क्यों है? जब सरकार इसको स्कूलों में गाने को कहती है तो चारों ओर से विरोध की आवाज़ें क्यों उठती हैं? इंटेरनेट पर काफी खोजबीन की तो कुछ बातें पता चली। आगे हम आनन्दमठ के कुछ आंश भी पढ़ते रहेंगे।

आइये जानने की कोशिश करते हैं इसके कुछ शुरूआती अंशों से:

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समुद्र आलोड़ित हुआ, तब उत्तर मिला-तुमने बाजी क्या रखी है?
प्रत्यूत्तर मिला,मैंने ज़िन्दगी बाजी पर चढ़ाई है।
उत्तर मिला, जीवन तुच्छ है,सब कुछ होमना होगा।
और है ही क्या? और क्या दूँ?
तब उत्तर मिला, भक्ति।
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यह उपन्यास १८८२ में प्रकाशित हुआ, किन्तु वंदेमातरम १८७५ में लिखा जा चुका था। ये कहानी है संन्यासी विद्रोह की जो १७६५-७० के बीच प्रकाश में आया। आइये जानते हैं इसकी पृष्ठभूमि को। १७५७ में सिराजुद्दोला नाम का नवाब बंगाल पर राज करता था। यही वो समय भी था जब अंग्रेज़, ईस्ट इंडिया कम्पनी के नाम से कलकत्ता के रास्ते भारत में घुसना चाहते थे। नवाब अंग्रेज़ को खिलाफ था और उनके खिलाफ लोगों को एकत्रित करता था। परन्तु किसी हिन्दू को ऊँचा दर्जा दिये जाने के विरोध में मीर जाफर नाम के एक दरबारी ने नवाब के खिलाफ बगावत कर दी। उसी साल पलासी का युद्ध हुआ। मीर जाफर अंग्रेज़ों से जा मिला और सिराज को बंगाल छोड़ना पड़ा। आगे कुछ सालों तक मीर जाफर और उसका जमाई मीर कासिम बंगाल में नवाब बन कर रहे। ये वो समय था जब नवाब अंग्रेज़ों की कठपुतलियाँ बन कर रहते थे। राज नवाब का, पैसा अंग्रेज़ों का। अंग्रेज़ ही लोगों से कर लिया करते थे। एक तरह से उन्हीं का ही कब्जा हो गया था। उसी का नतीजा था संन्यासी विद्रोह। कहते हैं कि १८५७ पहली क्रांति थी अंग्रेज़ों के खिलाफ पर लगता है कि उससे पहले भी कईं क्रांतियाँ संन्यासी विद्रोह के रूप में कलकत्ता ने देखी हैं।

संन्यासी समूह उन लोगों का समूह था जो इकट्ठे हुए थे अंग्रेज़ों के खिलाफ। सब कुछ छोड़ कर भारत माँ को आज़ाद कराने में जान की बाजी लगा रहे थे। १७६५ के आसपास ही बंगाल में सूखा पड़ा और वहाँ लाखों की तादाद में मौतें हुईं। जनता में आक्रोश फूट पड़ा था। और वो आक्रोश था नवाबों पर। ’नजाफी’ हुकूमत के खिलाफ।

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वन्दे मातरम्
सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम्
शस्यश्यामलां मातरम् |

महेंद्र गीत सुनकर विस्मित हुए। उन्होंने पूछा- माता कौन?

उत्तर दिये बिना भवानंद गाते रहे:

शुभ्र ज्योत्स्ना पुलकित यामिनीम्
फुल्ल कुसुमित द्रुमदलशोभिनीम्,
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्
सुखदां वरदां मातरम् ||

महेंद्र बोले-ये तो देश है, माँ नहीं।

भवानंद ने कहा, हम लोग दूसरी किसी माँ को नहीं मानते, जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। हम कहते हैं, जन्मभूमि ही हमारी माता है। हमारी न कोई माँ है, न बाप, न भाई, न बन्धु, न पत्नी, न पुत्र, न घर, न द्वार- हमारे लिये केवल सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम् शस्यश्यामलां ....

महेंद्र ने पूछा-तुम लोग कौन हो?

भवानन्द ने कहा-हम संतान हैं।

किसकी संतान।

भवानन्द बोले-माँ की संतान।
.....
.....
.....

देखो, जो साँप होता है, रेंगकर चलता है, उससे नीच जीव मुझे कोई नहीं दिखाई पड़ता। पर उसके भी कंधे पर पैर रख दो तो वह भी फन उठाकर खड़ा हो जाता है। देखो, जितने देश हैं, मगध, मिथिला,काशी, कांची, दिल्ली, कश्मीर किस शहर में ऐसी दुर्दशा है कि मनुष्य भूखों मर रहा है और घास खा रहा है, जंगली काँटे खा रहा है। दीमक की मिट्टी खा रहा है, जंगली लतायें खा रहा है! किस देश में आदमी सियार, कुत्ते और मुर्दा खाते हैं?.... बहू-बेटियों की खैरियत नहीं है...राजा के साथ सम्बंध तो यह है कि रक्षा करे, पर हमारे मुसलमान राजा रक्षा कहाँ कर रहे हैं? इन नशेबाज़ मुसट्टों को निकाल बाहर न किया जाये तो हिन्दू की हिन्दुआई नहीं रह सकती।

महेंद्र ने पूछा, बाहर कैसे करोगे?
-मारकर
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शायद ये वाक्य हमारे मुस्लिम समुदाय को अच्छे नहीं लगे। हो सकता है। किन्तु ये वाक्य कब और किस परिस्थिति में कहे गये ये जानने की जरूरत भी तो है। इस बारे में मैं कुछ नहीं कहूँगा। आगे के कुछ पन्नों में भारत माँ को देवी का दर्जा दिया गया है। इस्लाम में मूर्ति पूजा की खिलाफत है। और इस्लाम में केवल खुदा ही पूजा जाता है। इसी उपन्यास में मुसलमानों के घर जलाने की बात भी कही गई है। शायद यह बात भी वंदेमातरम के खिलाफ जा रही है।

अब जानते हैं कि संतान दल में किस प्रकार से प्रतिज्ञा ली जाती है-

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तुम दीक्षित होना चाह्ते हो?
हाँ, हम पर कृपा कीजिये।
तुम लोग ईश्वर के समक्ष प्रतिज्ञा करो। क्या सन्तान धर्म के नियमों का पालन करोगे?
हाँ।
भाई-बहन?
परित्याग करूँगा।
पत्नी और पुत्र?
परित्याग करूँगा।
रिश्तेदार, दास-दासी त्याग करोगे?
सब कुछ त्याग करूँगा।
धन, सम्पत्ति, भोग, सब त्याग दोगे?
त्याग करूँगा।
जितेंद्रिये बनोगे और कभी स्त्रियों के साथ आसन पर नहीं बैठोगे?
नहीं बैठूँगा, जितेंद्रिये बनूँगा।
रिश्तेदारों के लिये धन नहीं कमाऒगे, उसे वैष्ण्वों के धनागार में दे दोगे?
दे दूँगा।
कभी युद्ध में पीठ नहीं दिखाऒगे?
नहीं।
यदि प्रतिज्ञा भंग हुई तो?
तो जलती चिता में प्रवेश करके या कहर खा कर प्राण दे दूँगा।
तुम लोग जात-पात छोड़ सकोगे? सब समान जाति के हैं, इस महाव्रत में ब्राह्मण-शूद्र में कोई फर्क नहीं।
हम जात-पात नहीं मानेंगे। हम सब एक ही माँ के संतान हैं।
तब सत्यानंद ने कहा, तथास्तु, अब तुम वंदेमातरम गाओ।
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इसमें संन्यासी/संतान व्रत की कर्त्तव्यनिष्ठा और समर्पण का पता चलता है कि किस प्रकार जन्मभूमि पर ये वीर सेना अपने प्राणन्योछावर करने को तत्पर थी।
बंकिमचंद्र के इस उपन्यास में कुछ हद तक मुसलमानों (नजाफी हुकूमत) और काफी हद तक अंग्रेज़ों दोनों के खिलाफ कहा गया है। उन्होंने ये सब १८वीं सदी की घटनाओं को ध्यान में रख कर किया, किन्तु चाह केवल इतनी कि मातृभूमि को कोई आँच न आये।

यही गीत आगे चल कर एक क्रांतिकारी गीत बन गया। जब १८९५ में पहली बार इसका संगीत दिया गया तब बंकिमचंद्र (१८३८-१८९४) इस दुनिया में नहीं थे। हर तरफ वंदेमातरम की ही गूँज सुनाई दी जाने लगी। अंग्रेज़ों ने इस उपन्यास पर प्रतिबंध तक लगा दिया। १९३७ में टैगोर ने इस गीत का विरोध भी किया क्योंकि उनका मानना था कि मुसलमान "१० हाथ वाली देवियों" की पूजा नहीं करेंगे। १९५० में राजेंद्र प्रसाद ने इसे राष्ट्रगीत का दर्जा दिया। इस गीत के केवल पहले दो छंद ही गाये जाने की बात कही जाने लगी क्योंकि आगे की पंक्तियों में भारत को ’दुर्गा’ तुल्य माना गया।

हालाँकि मुस्लिम बिरादरी में इस गीत को कुछ लोगों ने अपनाया भी है। और सिख व ईसाइ समुदाय भी इसको मान रहा है। इस उपन्यास की क्रांतिकारी विचारधारा ने सामाजिक व राजनीतिक चेतना को जागृत करने का काम किया। कांग्रेस के अधिवेशन में ही इसको प्रथम बार गाया गया और यही गीत आगे चल कर स्वतंत्रता का पर्याय बना। और विडम्बना यह कि आज कांग्रेस सरकार गृहमंत्री इसके विरोध पर मुहर लगा आते हैं।

मैंने अपनी तरफ से पूरी कोशिश करी है कि मैं वंदेमातरम पर हो रहे विवाद और आनन्दमठ (संन्यासी विद्रोह) की कहानी को आप तक पहुँचा पाऊँ। अब मैं पाठकों पर छोड़ता हूँ कि वे (१८वी सदी के घटनाक्रम को ध्यान में रखकर) सच्ची देशभक्ति व समर्पण अथवा त्याग के प्रतीक इस गीत को राष्ट्रगीत मानें या नहीं।

सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम
शस्यश्यामलां मातरम्......।
शुभ्र ज्योत्सना-पुलकित यामिनीम्
फुल्लकुसुमित द्रुमदलशोभिनीम्
सुहासिनीं सुमधुरभाषिणीम्
सुखदां, वरदां मातरम्।।
वन्दे मातरम्.....
सप्तकोटिकण्ठ-कलकल निनादकराले,
द्विसप्तकोटि भुजैधर्ृत खरकरवाले,
अबला केनो मां तुमि एतो बले!
बहुबलधारिणीम् नमामि तारिणीम्
रिपुदलवारिणीम् मातरम्॥ वन्दे....
तुमी विद्या, तुमी धर्म,
तुमी हरि, तुमी कर्म,
त्वं हि प्राण : शरीरे।
बाहुते तुमी मां शक्ति,
हृदये तुमी मां भक्ति,
तोमारई प्रतिमा गड़ी मन्दिरे-मन्दिरे।
त्वं हि दुर्गा दशप्रहरण धारिणीं,
कमला कमल-दल-विहारिणीं,
वाणी विद्यादायिनीं नमामि त्वं
नमामि कमलां, अमलां, अतुलाम,
सुजलां, सुफलां, मातरम्
वन्दे मातरम्॥
श्यामलां, सरलां, सुस्मितां, भूषिताम्
धरणी, भरणी मातरम्॥
वन्दे मातरम्..

जय हिन्द।

यहाँ भी देखें:
http://en.wikipedia.org/wiki/Vande_Maataram
http://en.wikipedia.org/wiki/Anandamatha
http://en.wikipedia.org/wiki/Sannyasi_Rebellion
http://en.wikipedia.org/wiki/Nawab_of_Bengal
http://en.wikipedia.org/wiki/Bankimchandra_Chattopadhyay

--तपन शर्मा

Sunday, November 08, 2009

जेल- सच ज्यादा नाटकीय

प्रशेन ह. क्यावल द्वारा फिल्म समीक्षा

मधुर भंडारकर आज एक ब्रांड है जो मेनस्ट्रीम सिनेमा में सच्चाई से भरपूर कहानी को बखूबी पेश करते हैं और फिल्म को कॉमर्शियल प्रसिद्धि भी दिलाते हैं। आर्ट फिल्म और मेनस्ट्रीम कॉमर्शियल फिल्मों का ये मेल उनके बाएं हाथ का खेल है, इसीलिए उन्हें और उनके कलाकारों को बार-बार नेशनल अवार्ड से नवाजा गया है।

'चांदनी बार' में बार बाला, 'सत्ता' में सत्ता की गलियारों में फँसे नेता, 'कारपोरेट' में कारपोरेट जगत के स्पर्धापूर्ण जगत में घिरी बिपाशा, 'पेज-3' में मीडिया और सोसाइटी का पर्दाफाश करने वाली कोंकणा और 'फैशन' में प्रियंका चोपड़ा की मादक अदाएं पेश करने वाली मधुर की फिल्में इन्हीं फिल्मों के स्त्री पात्रों के लिए भी जानी जाती हैं। पर पहली बार वे पुरुष किरदार को मुख्य विषय बना कर फिल्म पेश कर रहे हैं।

देखते है मधुर का ये प्रयत्न क्या रंग लता है।

कथा सारांश:

पराग दीक्षित (नील नितिन मुकेश) एक कामयाब इन्सान है जिसकी जिंदगी पूरी तरह से सेट है। अभी-अभी पराग को प्रमोशन की खुशखबरी मिली है और उसकी गर्लफ्रेंड, मानसी (मुग्धा गोडसे) के साथ उसका भविष्य उज्ज्वल है। ऐसी सुख-शांति पूर्वक ऐश-ओ-आराम से भरी पूरी जिंदगी बिताने वाले पराग अपने रूम मेट, केशव राठोड़ (जिग्नेश जोशी) के साथ फ्लैट शेयर करता है। उसके रूम मेट की हरकतें मानसी को हरदम खटकती हैं। पर लड़कों में ये सब चलता है ऐसे बोल के पराग उन्हें नजर अंदाज कर देता है।

पर एक दिन जब पराग ऑफिस से निकलते वक्त अपनी आलिशान कार में जिग्नेश को लिफ्ट देके घर की ओर जा रहा होता है तभी पुलिस उनके कार का पीछा करती है। केशव पराग को कार भगाने बोलता है पर पराग रुक जाता है और कार से बाहर उतरते वक्त पुलिस उसे दबोच लेती है। केशव कार से दौड़ने लगता है और पुलिस पे फायरिंग करता है। पुलिस के जवाबी फायरिंग में केशव घायल हो के बेहोश हो जाता है। पुलिस को पराग के कार के पिछले सीट पे केशव की बैग मिलती है जिसमे 3.5 करोड़ का ड्रग्स मिलता है। पुलिस पराग को थाने ले जाती है।

सभी सबूत पराग के खिलाफ होने के कारण पराग को बेल नहीं मिलती और उसपे चार्जशीट फाइल होके केस कोर्ट में आने तक 2 साल बीत जाते हैं। उस दौरान जेल का माहौल और अनुभव पराग को पूरी तरह से तोड़ देते हैं, पर मानसी की माँ (नवनी परिहार) से मुलाकात और जेल के नए दोस्तों से मिलने वाले सहारे के भरोसे पराग कोर्ट के फैसले तक खुद को संभाल कर दिन बिताता है।

पर कोर्ट का फैसला क्या होता है? उसके बाद पराग के साथ क्या होता है... यही कहानी है जेल की।

पटकथा:

मधुर भंडारकर ने अनुराधा तिवारी और मनोज त्यागी के साथ मिल कर एक सशक्त पटकथा लिखी है। मधुर की बाकी फिल्मों की तरह इस फिल्म में भी समाज के हर तबके से आये कैदियों के रूप में अनगिनत किरदार और उनकी कहानियाँ हैं। इनके जरिये भारतीय जेलों का हदय-विदारक चित्र स्क्रीन पे उतरा गया है।

दिग्दर्शन:

एक के बाद एक सफल और अवार्ड विनिंग फिल्में दे कर मधुर खुद को बार-बार एक सशक्त निर्देशक के तौर पे पेश करने में सफल हुए है। ये फिल्म भी उसी बात पर मुहर लगाती है। मधुर व्यावसायिक सफलता और फिल्म के बिज़नस को ध्यान में न रखते हुए, उन्हें जो विषय भाते हैं, उन्हीं पे कहानी बनाते हैं और उस विषय से पूरी ईमानदारी रखते है। यही एक कारण है जिसके कारण हम उन्हें मास्टर स्टोरी टेलर बोल सकते हैं। विषय के साथ प्रामाणिक रह कर उन्होंने एक जबदस्त प्रभावी फिल्म बनायी है जो दर्शकों को अन्दर से हिला देती है।

अभिनय:

मधुर की फिल्में कहानी के विषय के साथ-साथ उसके कलाकारों के अभिनय के लिए भी जानी जाती है। इसीलिए तो उनके मुख्य कलाकार को बार-बार नेशनल अवार्ड मिलता है। पहली बार मधुर ने पुरुष पात्र को मुख्य भूमिका दे कर फिल्म बनायी है और उसके लिए नील नितिन मुकेश को लिया है। ये नील के लिए अपने आप में एक बड़ी कामयाबी है। और नील ने मधुर के विश्वास पर खरे उतरे हैं। पराग दीक्षित की सभी भावनाएँ उन्होंने अपने अभिनय से परदे पर जिन्दा कर दी है। जेल में जो उनके दोस्त बनते हैं, वेह नवाब (मनोज बाजपेई), कबीर (आर्य बब्बर) इतने सारे कलाकारों में विशेष रूप से उभर कर आते हैं।

मुग्धा गोडसे का ज्यादा रोल ना होने के कारण वह कुछ खास नहीं कर पाई हैं। पर बाकी सभी कलाकारों के सामान उन्होंने भी पूरी ईमानदारी से अपने किरदार को निभाया है।

चित्रांकन:

कल्पेश भंडारकर ने जेल के बंधे हुए वातावरण को जीवित किया है। लाइट और कलर टोन का उपयोग करते हुए उन्होंने जले का भयंकर मंज़र दर्शकों तक पहुँचाया है।

संगीत और पार्श्वसंगीत:

संगीत के लिए बहुत सारे संगीतकारों से गाने बनवाने के बावजूद संगीत में दम नहीं है पर वह कहानी में ऐसी जगह आते हैं कि ज्यादा बाधा नहीं डालते हैं।

संकलन:

पटकथा और निर्देशक की मेहनत का सम्मान करते हुए देवेन्द्र मुर्देश्वरे ने अप्रतिम संकलन कौशल का प्रदर्शन किया है।

निर्माण की गुणवत्ता:

शैलेन्द्र सिंह द्वारा निर्मित इस फिल्म में निर्माण की गुणवत्ता अच्छी है। प्रसिद्ध कला निर्देशक नितिन चंद्रकांत देसाई ने बड़ा सा जेल का सेट बनाया है जो सच्चाई से मिलता जुलता है। 90% फिल्म उसी सेट में चित्रित है।

लेखा-जोखा:

***(3 तारे)
यह फिल्म पूरी तौर से एक आर्ट फिल्म है। मधुर ने कहानी के साथ ईमानदारी रखते हुए जैसी है वैसी सच्चाई बयां की है। पर यह सच्चाई दर्शको को घुटन महसूस कराती है। दर्शको को खुद जेल में होने की सी भावना आती है। जो दिल से सख्त है उन्हें ये फिल्म बोरियत भरी भी लग सकती है। जिन्हें ऐसे डार्क और घुटन भरी फिल्में पसंद हैं, वे ज़रूर इस मूवी को देखें। आर्ट फिल्म की तौर पे इस मूवी को अवार्ड तो ज़रूर मिलेंगे पर सामान्य दर्शक जो मनोरंजन के लिए फिल्म देखने जाते हैं, उन्हें ये फिल्म देखनी की सलाह नहीं दे सकता।

चित्रपट समीक्षक--- प्रशेन ह.क्यावल