Tuesday, June 30, 2009

मासूमों से खेल रहे हैं कपिल सिब्बल !


मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल ने कुछ निर्णयों के बारे में जनता को अवगत कराया। मुझे एक बात तो मालूम थी कि अर्जुन सिंह बेशक चले गये पर कांग्रेस सरकार चलेगी उसी तरह ही। बेचारे अर्जुन सिंह बिना वजह ही बलि का बकरा बनाये... पहले तो उन्होंने कहा कि १०वीं का बोर्ड समाप्त किया जाये। ये बच्चे की मर्जी पर होगा कि बोर्ड की परीक्षा देनी है या नहीं। कपिल सिब्बल ये बतायें कि एक औसत बच्चा पढ़ाई कब करता है। वो तभी पढ़ता है जब परीक्षा होती है। जनवरी-फरवरी में तो पढ़ाई शुरु की जाती है। उस पर यदि आप परीक्षा समाप्त कर देंगे तब तो भगवान भरोसे ही पढ़ाई हो पायेगी। पास होने के लिये भी नहीं। पर ऐसा किया क्यों गया? कुछ लोग ये दलील देंगे कि बच्चे पर बहुत जोर पड़ता है। कोमल फूल से बच्चे होते हैं और भारी भरकम सिलेबस। १५ साल का बच्चा मेरी नजर में बिल्कुल बच्चा नहीं रहा। जब वो शराब और सिगरेट पी सकता है तो इतना समझदार भी हो सकता है कि पढ़ाई कर सके। टीवी पर ऐसे प्रोग्राम आते हैं कि १० साल का बच्चा भी समझ ले। फिर ये पढ़ाई से बचने का बहाना क्यों? अगर ये कहा जाये कि बच्चे परीक्षा के डर से खुदकुशी कर लेते हैं तो मैं कहूँगा कि ये अभिभावकों की गलती है, शिक्षा प्रणाली की नहीं। आज से दस साल पहले तक कोई मुझे बता दे कि इतनी आत्महत्याएं होती थीं या नहीं। मेरे समय में तो बिल्कुल नहीं। आज ऐसा क्या हो गया जो दस या बीस या तीस साल पहले नहीं था। कम्पीटीशन और अभिभावकों की अधिक चाह ने बच्चों के करियर के साथ खिलवाड़ किया है। दसवीं का बोर्ड तो बहुत छोटी परीक्षा है। अगर इसी तरह से हम अपने बच्चों को परीक्षाओं से दूर भगाना सिखाते रहेंगे तो कल को जीवन में इससे भी कठिन परीक्षायें कैसे दे पायेंगे? बोर्ड को हौवा बना कर रख दिया गया है जितना वो है नहीं। इसे कहते हैं मुसीबत से भागना। अब स्कूल के टीचर ही ग्रेड के माध्यम से ये निर्णय ले सकेंगे कि बच्चे को ११वीं में भेजा जाये या नहीं। हर स्कूल के अपने खुद के टीचर... कमाल है... क्या गारंटी है कि ये बिल्कुल फ़ूल-प्रूफ़ होगा। अभी उत्तर-पुस्तिकाएं कोई बाहर का टीचर करता है जिसमें कम से कम ये बात साफ़ रहती है कि कोई बेईमानी नहीं होगी। पर अब? क्या भविष्य में १२वीं का बोर्ड भी समाप्त कर दिया जायेगा? सरकार ने बहुत कोशिशें कर ली बदलाव लाने की। अब १५ मिनट दिये जाते हैं प्रश्न-पत्र को पढ़ने के लिये। प्रश्नों का स्तर भी कम कर दिया। अब क्या परेशानी हो सकती है? कुछ लोग कहते हैं कि बच्चे १०वीं के बोर्ड में रटते हैं। क्या अब वे पढ़ेंगे? अब उतना भी नहीं करेंगे!! क्या १२वीं में नहीं रटते? या अब नहीं रटेंगे? अब तो बल्कि और भी डरेंगे क्योंकि बारहवीं का बोर्ड उनका पहला बोर्ड होगा। एक बार दसवीं की परीक्षा देने के बाद बच्चा निडर हो जाता है। पर अब?

एक और बात जो सिब्बल जी ने कही। पूरे भारत में एक ही बोर्ड और एक ही परीक्षा। अब उन्हें कैसे समझाया जाये कि इस देश में कितनी ही भाषायें हैं, कितने ही राज्य हैं। हर राज्य का परीक्षा करवाने का अलग समय होता है। छुट्टियों का अलग समय। अंकों का अलग हिसाब-किताब। अब इन सब के बीच एक ही बोर्ड को कैसे मुमकिन कर पायेंगे ये उन्हें बताना ही होगा।

अब बात करते हैं लगातार बढ़ाये जाने वाले आई.आई.टी जैसे संस्थानों की। थोक के भाव बढ़ाये जा रहे हैं आई.आई.टी.। पर कोई सरकार से पूछे कि क्या पूरी सुविधायें हैं जहाँ नये संस्थान खुल रहे हैं। पिछले २ बरसों से आई.आई.टी जयपुर की कक्षायें कभी दिल्ली कभी कानपुर में हो रही हैं। मुझे नहीं पता कि अब कहाँ लग रही हैं। आपको पता हो तो बतायें, पर इतना पता है कि अब आई.आई.टी को जयपुर से हटकर जोधपुर ले जाने का प्रस्ताव है। जब बच्चों को ढंग की सुविधायें नहीं मिल सकतीं तो खोलने का फ़ायदा क्या है? आई.आई.टी जैसे संस्थान के साथ ऐसा बर्ताव कर उसे खोखला बना दिया है। ऊपर से आरक्षण का भूत। समझ नहीं आता कि जिस आरक्षण को नेहरू ने दस वर्ष तक खत्म करने की बात की थी उसी को वोट का मोहरा मना कांग्रेस अभी तक रोटियाँ सेंक रही है। खैर ये बातें तो अब होती रहती हैं।

दिल्ली इंजीनियरिंग कॉलेज को दिल्ली टेक्निकल यूनिवर्सिटी बनाने की भी बात शुरु हुई है। इसकी जरूरत क्या थी? क्या हमारे देश में इंजीनियरिंग कॉलेज की कोई कमी हो गई है? इसके जरिये सरकार नये कॉलेजों को मान्यतायें देगी और पैसे कमायेगी जैसा कि इंद्रप्रस्थ विवि के साथ हो रहा है। १ सरकारी और ४ प्राइवेट कॉलेजों के साथ तत्कालीन मुख्यमंत्री साहिब सिंह वर्मा द्वारा शुरु हुए इस वि.वि. में अब १० से ऊपर प्राइवेट कॉलेज हो गये हैं पर पढ़ाई का स्तर केवल ३-४ में ही अच्छा है। जो स्तर दिल्ली इंटर कॉलेज का है वो बनाये रखा जाये तो बेहतर। चौथा मुद्दा मैं पहले भी छेड़ चुका है इसलिये संक्षेप में... मदरसा बोर्ड और सीबीएसई बोर्ड को बराबर का दर्जा। सिब्बल कहते हैं कि मदरसों में धार्मिक पढ़ाई के साथ आधुनिकीकरण भी किया जायेगा। मेरी उनसे गुजारिश है कि पहले आधुनिकीकरण कर लेवें तभी उसे सीबीएसई के साथ रखें।

कपिल सिब्बल जी ने एक ही ढंग की बात कही। कॉलेजों में दाखिले के लिये जीआरई जैसी परीक्षा.. पर ग्रेड से पास हुआ बच्चा क्या तब मार्क्स की परिभाषा समझ सकेगा। सौ दिनों में कुछ करने के चक्कर में सब कुछ बिगाड़ मत देना। राजनीति के लिये क्यों बच्चों के भविष्य से खेल रहे हैं मंत्री जी?



तपन शर्मा

Monday, June 29, 2009

ठगी और दुनिया के महान ठग

हे ठग! तेरे कितने रूप

इन दिनों ठगी के चर्चे पूरे शबाब पर हैं। अभी मुश्किल से एक महीना भी नहीं गुजरा, जब लोगों से कई करोड़ों की ठगी करने का आरोपी डॉ॰ अशोक जडेजा पुलिस के हत्थे चढ़ा। खुद को सांसी समाज का देवीभक्त बताने वाले अशोक जडेजा ने अपने 18 एजेंटों की मदद से 12 राज्यों में अपना नेटवर्क फैला रखा था। जडेजा लोगों से 15 दिनों में उनके धन को तिगुना करने का लालच देकर करोड़ों रूपये जमा कर लेता था और 15 दिनों बाद आने का वादा कर हमेशा के लिए फरार हो जाता था। लगभग 15 दिन पहले दिल्ली पुलिस ने महाठग सुभाष अग्रवाल को गिरफ्तार कर लिया जिसने चीटफंड की कम्पनी खोल रखी थी और उसपर 1000 करोड़ रुपये की ठगी का आरोप था। सुभाष अग्रवाल भी अपने ग्राहकों को बहुत कम समय में उनके धन को दुगुना और तिगुना करने का वादा करता था।

ठगी का एक और मामला पिछले 2 वर्षों से प्रकाश में है जिसमें कीनिया और नाइजीरिया मूल के लोग इंटरनेट के माध्यम से लोगों को ठगने काम कर रहे हैं। इंटरनेट की दुनिया के ये महाठग बहुत ही लुभावने ऑफरों वाली ईमेल एक साथ कई इंटरनेट प्रयोक्ताओं को भेजते हैं, जिसमें अफ्रीकी देशों में कई लाख रुपये वेतन की नौकरी देने के झाँसे होते हैं, कोई अपनी मिलियन डॉलर की सम्पत्ति आपके नाम कर जाता है तो किसी किसी ईमेल में इस बात का ज़िक्र होता है कि आपकी ईमेल आईडी फलाँ लॉटरी में कई बिलियन डॉलर के इनाम के लिए चुनी गयी है। आपको उस ईमेल के उत्तर में बस अपना नाम-पता और बैंक डीटेल इत्यादि भेजने होते हैं, जिसके बाद उनकी तरफ से ईमेल आता है, दोस्ती होती है। फिर उनका गिरोह फोन द्वारा आपसे बात करता है। अंत में तथाकथित नौकरी या रक़म देने से पहले वे पंजीकरण शुल्क के रूप में 15-20 हज़ार रुपये (300-400 डॉलर) जमा करने की माँग करते हैं।

ठगी का यह पेशा कोई नया नहीं है। भारतीय इतिहास महान ठगों की महागाथा से पटा पड़ा है। भगवान श्रीकृष्ण को ठगों का राजा कहा जाता है। मध्यकालीन भारत में तो यह धंधा एक प्रथा के रूप में प्रचलित था, जिसमें ठग लोग भोले-भाले यात्रियों को विष आदि के प्रभाव से मूर्छित करके अथवा उनकी हत्या करके उनका धन छीन लेते थे। ठगी प्रथा का समय मुख्य रूप से 17वीं शताब्दी के शुरू से 19वीं शताब्दी अंत तक माना जाता है। मध्य भारत में प्रकोप की तरह फैले- रुमाल में सिक्कों की गांठ लगा कर रुपये-पैसे और धन के लिए निरीह यात्रियों के सिर पर चोट करके लूटने वाले ठग और पिंडारियों का आतंक 19वीं सदी के प्रारंभ तक इतना बढ़ गया कि ब्रिटिश सरकार को इसके लिए विशेष व्यवस्था करनी पड़ी। ठगी प्रथा के कारण मुग़ल काल में नागपुर से उत्तर प्रदेश के शहर मिर्ज़ापुर तक बनी सड़क पर यात्रियों का चलना मुश्किल हो गया था। इस सदी के ये महान ठग खुद को काली का भक्त बताते थे, फिर वे चाहे हिन्दू-ठग हों, सिख-ठग हों या फिर मुसलमान-ठग।

मध्य भारत के ठगों द्वारा ठगी की घटना को अंजाम देना कुशल संचालन, बेहतर समय-प्रबंधन और उत्तम टीम-वर्क के बेहतरीन उदाहरण के तौर पर भी याद किया जाता है। उस जमाने के ये ठग चार चरणों में ठगी को अंजाम देते थे। पहले चरण में ठगों की एक टोली जंगलों में छिपकर यात्रियों के समूहों का जायजा लेने की कोशिश करती थी कि किन यात्रियों के पास माल है। यह सुनिश्चित होने के बाद ये जानवारों की आवाज़ में (जिसे ये अपना कोड-वर्ड या ठगी जुबान कहते थे) अपनी दूसरी टोली को इसकी सूचना देते थे। दूसरे टोली यात्रियों के साथ उनके सहयात्रियों की तरह घुल-मिल जाते थे। साथ में भोजन पकाते थे, सोते थे और यात्रा करते थे। दूसरी टोली उन यात्रियों की एक अलग टोली बना लेती थी जिनके पास धन, सोने-चाँदी होते थे। फिर वे धोखे से उन्हें ज़हर खिलाकर या तो मार देते थे या बेहोश कर देते थे। लेकिन ये टोली उनसे धन लूटने का काम न करके अपनी तीसरी टोली को अपनी जुबान में बताकर अन्य यात्रियों के साथ लग जाती थी। तीसरी टोली आकर उन यात्रियों को पूरी तरह से लूट लेती थी। इस टोली के ठग साथ में खाकी या पीले रंग का रुमाल रखते थे, जिससे ये यात्रियों का गरौटा (गला) भी दबाते थे और सोने-चाँदी बाँध ले जाते थे। जाते-जाते ये अपनी चौथी टीम को सूचना दे जाते थे जो यात्रियों की लाशों को या तो कुएँ में फेंक देती थी या पहले से तैयार क़ब्रों में दफ़न कर देती थी। 'गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड' के अनुसार सन् 1790–1840 के बीच महाठग बेहरम ने 931 सिरीयल किलिंग की जो कि विश्च रिकॉर्ड है। इस समस्या के उन्मूलन के लिए ब्रिटिश सरकार ने एक विशेष पुलिस दस्ता तैयार किया जिसकी कमान कर्नल हेनरी विलियम स्लीमन को सौंपी गयी। उन्होंने जबलपुर में अपनी छावनी स्थापित की और एक दस्ता इसी जगह छोड़ा जो आज स्लीमनाबाद कहलाता है।

मशहूर अंग्रेजी लेखक फिलीप एम॰ टेलर ने सन 1839 में एक अंग्रेजी उपन्यास लिखा 'कन्फेशन्स ऑफ ठग' जो कि ठग अमीर अली की जीवनी पर आधारित था। माना जाता है कि यह वास्तविक ठग सैयद अमीर अली की कहानी है। यह पुस्तक 19वीं शताब्दी में ब्रिटेन की बेस्ट-सेलर क़िताब रही।

ठगों का यह संसार केवल भारत तक सीमित नहीं है। दुनिया के लगभग सभी देशों में महान ठग हुए है। विदेशों में ठगों को स्मार्ट, बुद्धिमान और मास्टर-माइंड के रूप में पहचाना जाता है। ठगों के किस्से सुनकर कोई भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। ये ठग खुद की बुद्धि और हिम्मत पर बहुत भरोसा रखते हैं और बहुत चालाकी से लोगों को बेवकूफ बनाते हैं।

मिथिलेश कुमार श्रीवास्तव ऊर्फ नटवरलाल ऊर्फ मुहावरा-ए-ठगी

नटवरलाल की गिनती भारत के प्रमुख ठगों में से होती है। बिहार के सीवान जिले के जीरादेई गाँव में जन्में नटवरलाल ने बहुत से ठगी की घटनाओं से बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और दिल्ली की सरकारों को वर्षों परेशान रखा। उसके शिकारों में ज्यादातर या तो मध्यम दर्जे के सरकारी कर्मचारी होते थे या फिर छोटे शहरों के बड़े इरादों वाले व्यापारी, जिन्हें ठगी का मुहावरा बन चुका नटवर लाल ताजमहल बेचने का वायदा भी कर देता था। वायदा करने की शैली कुछ ऐसी होती थी कि उस वायदे पर लोग ऐतबार भी कर लेते थे। खुद नटवर लाल ने एक बार भरी अदालत में कहा था कि सर अपनी बात करने की स्टाइल ही कुछ ऐसी है कि अगर 10 मिनट आप बात करने दें तो आप वही फैसला देंगे जो मैं कहूंगा। वह अपने आपको रॉबिन हुड मानता था, कहता था कि मैं अमीरों से लूट कर गरीबों को देता हूं। नटवरलाल पर अमिताभ बच्चन अभिनित फिल्म भी बनी 'मिस्टर नटवरलाल'। उसे ठगी के जिन मामलों में सजा हो चुकी थी, वह अगर पूरी काटता तो 117 साल की थी। 30 मामलों में तो सजा हो ही नहीं पाई थी।

बिकनी किलर बनाम सर्पेंट किलर

भारतीय उद्योगपति बाप और एक वियतनामी माँ के बेटे चार्ल्स गुरमुख शोभराज के पास फ्रांस की नागरिकता है और बिकनी किलर के नाम से भी विख्यात है। 67 वर्षीय सर्पेंट किलर शोभराज 60 और 70 के दशक में विदेशी पर्यटकों को ठगने, उनकी हत्या करने और नकली पासपोर्ट के सहारे एक देश से दूसरे देश में फरार होने में प्रसिद्ध हुआ। उस जमाने में तिहाड़ जेल से भाग पाने में सफल शोभराज के हिप्पी कट बालों से नौजवान समुदाय बहुत प्रभावित था। 1997 में शोभराज 10 साल की सजा काटने के बाद जब मुम्बई से फ्रांस पहुँचा तो उसने वहाँ अपनी बहादुरी और चालाकी के झूठे किस्से मीडिया वालों को सुनायें। अपना इंटरव्यू देने के लिए टीवी वालों से पैसे लिया, खुद के ऊपर किताब लिखने के लिए प्रकाशकों से एडवांस रॉयल्टी ली और फिल्म बनाने के लिए भी निर्माताओं से पैसे ऐठा। चार्ल्स शोभराज पर 12 हत्याओं का आरोप था, नेपाल की सुप्रीम कोर्ट ने इसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई है। यही इसने एक 20 साल की लड़की निहिता से ब्याह भी रचाया।

जिसने एफिल टॉवर ही बेच दिया

चेक में जन्मे विक्टर लस्टिग का नाम एफिल टॉवर बेचने वाले ठग के रूप में लिया जाता है। विक्टर ने ठगी की शुरूआत 'नोट छापने वाली मशीन' बेचने से की। यह लोगों को एक छोटा सा बॉक्स दिखाकर कहता कि यह हर 6 घंटे में 100 डॉलर छापता है। ग्राहक ये सोचकर कि इससे बहुत बड़ा मुनाफ़ा होगा, इसकी चाल में फँस जाते थे और इसकी वह मशीन 30,000 डॉलर तक की रक़म में भी खरीद लेते थे। जब तक लोगों को पता चलता, यह फरार हो जाता था। 1925 में जब पहला विश्व युद्ध चल रहा था, लस्टिग ने अख़बार में पढ़ा कि एफिल टॉवर की पुताई और रख-रखाव का काम सरकार के लिए बहुत महँगा पड़ रहा है। पेरिस अधिकारी का यूनिफॉर्म जुगाड़कर इसने 6 व्यापारियों के साथ शहर के सबसे बड़े होटेल में एक मीटिंग की और उनको डाक मंत्रालय का सबसे बड़े अधिकारी के रूप में अपना परिचय दिया। उसने कहा कि एफिल टॉवर इस शहर के लिए फिट नहीं हो रहा है, इसे दूसरे शहर में शिफ्ट किया जायेगा, आपलोगों को ईमानदार व्यापारी मानकर एफिल टॉवर को नीलाम करने का जिम्मा सरकार ने मुझे सौंपा है। लस्टिग ने नीलामी की रक़म तो ली ही, साथ-साथ बहुत सारा घूस भी खा लिया।

कैच मी इफ यू कैन

जी हाँ, यह एक हॉलीवुड की मशहूर फिल्म है, जो अमेरिका के एक मशहूर ठग फ्रैंक एबेगनेल पर बनी थी। फ्रैंक एबेगनेल ने 60 के दशक में 5 वर्षों के भीतर 26 देशों में 2॰5 मिलीयन डॉलर के फर्जी चेक जारी किये। इसने इस काम को अंजाम देने के लिए 8 अलग-अलग नामों का इस्तेमाल किया। यह अपने निजी खाते से क्षमता से अधिक राशि का चेक निकालता था, बैंक जब तक उससे उस पैसे के बारे में पड़ताल करती, वह किसी और बैंक में किसी और नाम से एकाउँट खोलकर पैसे जमा कर देता था। फ्रैंक एबेगनेल ने बचपन से ही ठगी का काम शुरू कर दिया था। छुटपन से ही इसे गर्लफ्रेंड बनाने का शौक था। इसके पिता इसे उतना जेब-खर्च नहीं देते थे, जितना कि इसे ज़रूरत थी। इसने पिता की क्रेडिट पर न्यूयॉर्क और उसके आस-पास के गैस स्टेशनों से पहियों के बहुत से सेट, बैटरियाँ और भारी मात्रा में पेट्रोल खरीदा। उसने विक्रेताओं को दाम का मात्र 1 भाग दिया। वह उनसे सामान लेकर दूसरे लोगों से पूरी कीमत पर ये सामान बेच देता था। एक ऋण वसूलने वाला अधिकारी इसके पिता से 3400 डॉलर के उधार की वसूली के लिए मिला तब उनको अपने बेटे के कारनामे के बारे में पता चला।

साबून स्मिथ यानी सॉपी स्मिथ

सॉपी स्मिथ एक अमेरिकन ठग था जिसने 1879 से 1898 के दरमियान अमेरिका के बहुत से शहरों में साबून बेचकर अपना उल्लू सीधा किया। स्मिथ शहर के व्यस्त चौराहों पर साबून की ढेर सारी टोकरियाँ लेकर खड़ा हो जाता था। साबून के रैपर के ऊपर यह 1 से 100 डॉलर के नोट लपेट देता था, उसके ऊपर एक पेपर। वह डॉलर के नोटों को लोगों के सामने ही लपेटता था और साबून के उन ढेरों में मिला देता था, जिसमें डॉलर नहीं लपेटे होते थे। लोगों का विश्वास जीतने के लिए अपने परिचित ठग से वह उस साबून को निकलवाता था जिसमें नोट लपेटा होता था। इसका सहयोगी चिल्ला-चिल्लाकर कहता कि मुझे नोट मिला है। उसके बाद वह अपनी चालाकी से नोट लपेटे साबूनों को ढेरों से या तो अलग कर देता था या यह पक्का कर लेता था कि लोट लपेटे साबून इसके ठग-गैंग 'सोप गैंग' के ठगों को ही मिले। फिर वह साबून का पूरा ढेर बेच कर चला जाता। यह प्रथा बाद में पूरे दुनिया में मशहूर हो गई। सॉपी स्मिथ का नाम पश्चिम में सबसे प्रसिद्ध ठग के रूप में लिया जाता है जिसने ठगी के तीन साम्राज्यों को खड़ा किया। पहला डेनवेर, कोलोराडो (1886-1895) में, दूसरा क्रीडे, कोलोराडो (1892) में और तीसरा स्कैगवे, अलास्का (1897-1898) में। प्रतिवर्ष 8 जुलाई को स्कैगवे, अलास्का में सॉपी स्मिथ के कब्र के पास 'सॉपी स्मिथ जागरण' आयोजन होता है। हॉलीवुड में 8 जुलाई को सॉपी स्मिथ की याद में जादू के खेल, जुआ, चालाकी इत्यादि प्रतिस्पर्धाओं का आयोजन किया जाता है।

बॉन लेवी ठग प्रा॰ लि॰

बॉन लेवी ऑस्ट्रेलिया का प्रसिद्ध ठग था जिसने फ्रेंचाइज़ व्यवसाय के माध्यम से हज़ारों व्यापारियों को ठगा। इसने हल्के अनुयान (ट्रेलर) निर्माण कं॰, अनुरक्षण एजेंसी, ऑटो रेकर (स्व-विनाशक), परिवहन कं॰, दुर्घटना राहत कं॰, खानपान (केटरिंग) और डिस्पोजेबल कैमरा आपूर्ति जैसे कई फर्जी उपक्रमों का निर्माण किया। यह अपने ग्राहकों को 10 हज़ार डॉलर में इन कम्पनियों में से किसी एक में शेयर होल्डर होने का झाँसा देता था। लेवी 1997 में अमेरिका आ गया और यहाँ के सभी शहरों में अपनी दो फर्जीं कम्पनियों के दफ्तर खोल दिया। यहाँ इसको 50 से अधिक व्यापारियों ने 30 हज़ार से 68 हज़ार डॉलर तक धन दिया, जिनसे इसने 500 से 2000 डॉलर प्रति सप्ताह मुनाफे का वादा किया। बाद में यह अमेरिकन पुलिस के हाथों दबोच लिया गया।

जासूस ठग

रॉबर्ट हेंडी फ्रीगैर्ड ब्रिटानी ठग है जिसने बहुत ही अनोखे ढंग से लोगों को ठगा। एक बारबॉय और कार-विक्रेता के रूप में काम करने वाला रॉबर्ट हेंडी खुद को ब्रिटानी गुप्तचर एजेंसी एमआई5 का अधिकारी बताता था, और कहता कि वह आईरिश रिपब्लिकन आर्मी के खिलाफ काम कर रहा है। यह लोगों से किसी सार्वजनिक जलसे में मिलता और उन्हें डराता कि यदि वे खुद को बचाना चाहते हैं तो अपने सभी दोस्तों और रिश्तेदारों से नाता तोड़ अंडरग्राउंड हो जायें। वह यह भी कहता कि आपलोगों की सुरक्षा के लिए मुझे पैसों की ज़रूरत है। वह किसी से कहता कि गुप्तचर एजेंसी उसे उसके काम के लिए पैसे नहीं देती, बल्कि कहती है कि वह अपने लिए पैसे का इंतज़ाम खुद करे तो किसी से कहता कि मुझे अगले महीने कई लाख पॉण्ड का चेक मिलनेवाला है। इस तरह से इसने कई मिलियन पॉण्ड की ठगी की। इसने लड़कियों को डराकार उनके साथ व्यभिचार भी किया। इसने बहुत से भोले बाले ब्रिटिश लोगों को जासूसी विद्या में पारंगत बनाने के लिए पैसे ऐंठा। हेंडी-फ्रीगार्ड ने जासूसी के कुछ कैसे नायाब तरीके ढूँढ़े थे, जिससे सीखनेवाले को भी यह शक नहीं होता था कि वह ठगा जा रहा है। वह जासूसी सीखनेवालों को बसों, ट्रेनों में, सार्वजनिक स्थलों पर कुछ बेचने को भेजता और कहता कि किसी को अपना परिचय मत बताओ बस जासूसी करते रहो। शुरू में 10,000-15,000 पॉण्ड फीस लेता था, फिर यह कहकर कि उसके जासूसी स्कूल को और पैसों की ज़रूरत है, उनसे फीस की दूसरी किश्त वसूल कर लेता था। सन 2005 में इसे पुलिस ने पकड़ लिया, जहाँ किडनैपिंग के आरोप में इसे आजीवन कारावास की सज़ा हुई। इसके अलावा यदि सुनवाई होती तो इसपर 18 तरह के जालसाज़ी के आरोप और भी थे।

----- शैलेश भारतवासी

Sunday, June 28, 2009

गन्ने की राजनीति

विगत दिनों केंद्रीय सरकार ने एक अक्टूबर से आरंभ होने वाले चीनी सीजन 2009-10 के लिए गन्ने के एमएसपी में लगभग 32 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी कर करने की घोषणा की है। यह फैसला सरकार ने किसानों को गन्ने की खेती के लिए प्रोत्साहित करने के लिए किया है ताकि देश में चीनी का उत्पादन बढ़ाया जा सके। चालू वर्ष के लिए एसएमपी 81.18 रुपए था जो आगामी सीजन में 107.76 रुपए प्रति क्विटल होगा यानी 26.68 रुपए या 32 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी।
यह भाव 9.50 प्रतिशत रिकवरी यानि जिस गन्ने में 9.50 प्रतिशत रस की मात्रा हो उसके लिए है। इससे अधिक प्रत्येक 0.1 की अतिरिक्त रिकवरी होने पर 1.13 रुपए प्रति क्विटल की दर से मिलों को अधिक देना होगा।

पहली नजर में सराकर का यह फैसला देश के किसानों को लाभ पहुंचाने के लिए किया गया है लेकिन यह वास्तविकता से दूर है। इसके लिए जरा गहराई में जाना होगा। गन्ने के लिए तीन भाव होते हैं। एक जो केंद्रीय सरकार तय करती है यानी एसएमपी, दूसरे जो राज्य सरकारें तय करती हैं, जिन्हें एसएपी यानी सरकार द्वारा सुझाई गए जो मिलों को देने चाहिएं और तीसरे जिस भाव पर किसानों से गन्ना या खांडसारी निर्माता गन्ना खरीदते हैं।
राज्य सरकारें एसएपी राज्य के वोटरों यानी किसानों को ध्यान में रखते तय करती हैं। चालू वर्ष के लिए गन्ने की एसएमपी 81.18 रुपए प्रति क्विटल हैं, लेकिन हरियाणा सरकार ने गन्ने के भाव 165/165 रुपए तय किए हुए हैं, उत्तर प्रदेश सरकार ने 140/145 रुपए तय किए हुए हैं लेकिन वहां की मिलों ने इस वर्ष 220 रुपए प्रति क्विंटल की दर पर गन्ने की खरीद की है। तमिलनाडु की मिलें स्वेच्छा से किसानों को 122/127 रुपए दे रही हैं।

महाराष्ट्र में चीनी मिलें सहकारी क्षेत्र में हैं और वहां पर गन्ने में रिकवरी अधिक होती है और किसानों को अन्य राज्यों की तुलना में अधिक कीमत मिलती है। गुड़ व खांड़सारी निर्माता गुड़ व खांड़सार के भाव देते हैं। इस वर्ष इन्होंने 225 रुपए प्रति िक्वंटल तक गन्ने की खरीद की है क्योंकि गुड़ के भाव 30/32 रुपए तक चले गए थे।
वास्तव में केंद्रीय सरकार द्वारा हाल ही में वृद्वि की गई है उसका सीधा लाभ महाराष्ट्र के किसानों को मिलेगा या यों कहा जाए कि यह फैसला महाराष्ट्र के किसानों को देखते हुए किया गया तो गलत नहीं है।

उल्लेखनीय है कि राज्य में जल्दी ही विधानसभा चुनाव होने वाले हैं और हमारे कृषि मंत्री श्री शरद पवार इसी राज्य से हैं। वहां पर गन्ने में रिकवरी अधिक होती है और किसानों को भुगतान इसी आधार पर किया जाता है।
इस भाव वृद्वि से अन्य राज्यों के किसानों को कोई लाभ नहीं होगा लेकिन सरकार ने वाही-वाही अवश्य लूट ली है।

--राजेश शर्मा

Saturday, June 27, 2009

बाग़-ए-बाहू सुभानअल्लाह....



बाहू का किला जम्मू की सबसे पुरानी इमारत है. यह शहर के मध्य भाग से ५ किलोमीटर दूर तवी नदी के बांए किनारे स्थित है. कहते है कि यह किला ३००० वर्ष पूर्व राजा बाहूलोचन ने बनवाया था. लेकिन बाद में डोंगरा शासकों ने इसका नवनिर्माण तथा विस्तार किया. खूबसूरत झरनों, हरे-भरे बाग तथा फूलों से भरे हुए इस किले की शोभा देखते ही बनती है. ऐसा लगता है जैसे कि इससे खूबसूरत जगह पहले कहीं ना देखी हो. बाहू के किले को महाकाली के मंदिर के नाम से जाना जाता है. यह मंदिर किले के अंदर ही है तथा भावे वाली माता के नाम से प्रसिद्ध है. सन १८२२ में महाराजा गुलाबसिंह के राजा बनने के तुरंत बाद बनाया गया था. इस मंदिर की महत्ता वैष्णो देवी मंदिर के बाद दूसरे नंबर पर है. बल्कि यह काली माता का मंदिर भारत के प्रसिद्ध काली मंदिरों में से एक है. किले के अंदर दूर तक फ़ैला हुआ खूबसूरत बाग है. इसे ही लोग बाग-ए-बाहू नाम से जानते है. इस बाग कि संरचना और प्राकृतिक सुंदरता इतनी अनोखी है कि मन मयूर नृत्य करने लगता है.
तरह-तरह के फव्वारे, सीढ़ीनुमा संरचना इसकी खूबसूरती में चार चाँद लगा देती है. प्राकृतिक सुंदरता से ओत-प्रोत यहां का माहौल आपको मुग्ध कर देता है और यहां से जाने का मन ही नही करता. यहां का जादुई वातावरण हजारों लोगों को आकर्षित करता है. इसलिये यह एक पिकनिक स्पाट भी बन गया है. आप चाहें पिकनिक के लिए आयें या फिर एक बार देखने के लिये, इस बाग की खूबसूरती से आकर्षित हुए बिना नहीं रह सकेंगे.
दीपाली पंत तिवारी 'दिशा'

Thursday, June 25, 2009

रिटायरमेंट, कुत्ता और मॉर्निंग वाक

मित्रो! जब से रिटायर हुआ हूं, कुछ दिन तक अकेला भरी-पूरी फैमिली होने के बाद भी लावारिस गाय की तरह सुबह-सुबह मार्निंग वाक पर निकलता रहा। ये जो आप आजकल सुबह-सुबह घूमते हुए मुझे कुत्ते के साथ देखते हो न! यह मुझे दो महीने पहले मेरे बच्चों ने मेरी मैरिज एनिवर्सरी पर गिफ्ट में दिया था कि मैं इस उम्र में कम से कम अकेला सैर करने न निकलूं ।
अब कुत्ता और मैं अरली इन द मार्निंग घूमने निकल जाते हैं। घर की किच-किच से भी बचा रहता हूं। स्वास्थ्य लाभ इस उम्र में मुझे तो क्या होगा, पर चलो कुत्ते को अगर हो रहा है तो ये भी क्या कम है।
तो कुत्ते के स्वास्थ्य लाभ के लिए पसीना-पसीना हुए अपने अनवांटिड पड़ोसी के घर के सामने से दुबकता हुआ गुजर रहा था कि भीतर से उसके भौंकने की आवाजें सुनीं । मैं तो चुप रहा पर कुत्ता भौंक पड़ा। उसे रोका भी, पर जो कहने पर मान जाए उसे कुत्ता कहेंगे आप? आप कहें तो कह लें, पर मैं नहीं कह सकता। कारण सारी उम्र मास्टरी की है।
कुत्ते के भौंकने की आवाज सुन भीतर भौंकता हुआ पड़ोसी भी बाहर आ गया । रिटायरमेंट के बाद एक भौंकने वाला भी परेशान कर देता है और वे भौंकने वाले दो-दो। कुत्ता अभी भी कुछ अपना था, सो उसे जैसे-कैसे चुप कराया, पर पड़ोसी भला चुप होने वाला कहां था। उसने चार-चार सीढ़ियां एक साथ उतरीं और मेरे आगे चीन की दीवार बन खड़ा हो गया,‘यार’ शर्मा जी हद हो गई! ये भी कोई बात बनती है कि सरकार के मन में जो आए करती रहे और हम उल्लू बनकर सहन करते रहें। सरकार के नौकर हैं तो इसका मतलब यह तो नहीं कि...है??’ पर मैं चुप रहा । सारी उम्र तो उल्लू ही बनकर जीता रहा। पड़ोसी बड़ा भाग्यशाली लगा जो अब उल्लू बना। दोस्तो! आदमी जिंदगी में कुछ बने या न, पर कभी न कभी उल्लू जरूर बनता है। वास्तव में आदमी पूरा आदमी बनता ही तभी है, जब वह उल्लू बनता है।
‘आखिर ऐसी बात क्या हो गई जो आज सुबह-सुबह ही...क्या कल खाली जेब तो घर नहीं लौट आए थे और पत्नी से झाड़ पड़ी हो?’ मैंने पूरी सहृदयता से पूछा।
‘नहीं, ऐसी बात नहीं , कल तो भगवान ने छप्पर फाड़ कर दिया।’
‘ तो किसी ’शरीफ आदमी से पाला पड़ गया होगा?’
‘ शरीफ आदमी अब समाज में बचे ही कहां हैं ’शर्मा जी! वे तो अब मोम के बुतों में ढल संग्रहालयों में मौन खड़े हैं।’
‘तो????’ मैं परेशान, पर भगवान की दया से हैरान नहीं हुआ। असल में क्या है न कि इतनी दुनिया देखने के बाद अब कुछ भी हैरान नहीं करता । हां! थोड़ी देर के लिए परेशान जरूर कर देता है।
‘पहले आप घर चलो। आपको सब बताता हूं।’ कह बंधु ने जबरदस्ती अपने घर की बीस सीढ़ियां एक सांस में चढ़ा दीं। घर में ले जा बंधु ने बड़े आदर से बिठाया। लगा ही नहीं कि मैं किसी पुलिसवाले के घर आया हूं।
मेरे आगे बड़े आदर से चाय का कप रख बंधु उसी तरह भौंके,‘ शर्मा जी! ये भी कोई बात बनती है कि सरकार जो कहे हम सिर झुकाए मानते रहें।’
‘आखिर बात क्या है?’ बड़े दिनों बाद औरों के घर की चाय पी थी ,इसलिए हर घूंट किसी फाइवस्टार की टी से कम नहीं लग रही थी।
‘सरकार कभी कहती है रिश्वत न लो, तो कभी कहती है ’शरीफ को न पकड़ो। अब इस अखराजात के दौर में कोरे वेतन में कौन यहां गुजारा कर लेगा? इस वेतन में तो बच्चों की फीस भी नहीं हो पाती। सरकारी नौकरी में भी अगर मौज के लाले पड़ें तो लानत है ऐसी सरकारी नौकरी को। रिश्वत के बिना इस देश में किसी का गुजारा हुआ है क्या? चोर-उचक्के आज तक पकड़ में आए हैं क्या! बदनामी से बचने के लिए शरीफ ही पकड़ने पड़ते हैं। अब एक और आदेश कि हम मानवता का पाठ पढ़ें। मानव हों तो मानवता का पाठ पढ़ें। हम तो साले अभी आदमी भी नहीं हो पाए। ये उम्र है अपनी क्या पढ़ने की? बच्चे तक तो आवारा हो चुके हैं। डंडा चलाते-चलाते बाल सफेद हो गए। अब जाएं मानवता का पाठ पढ़ने! अपने आप दिन पर दिन .....’ कहते -कहते वे कुछ ज्यादा ही सुलग गए तो मैंने उन पर थोड़ा पानी डाला,‘ तो क्या हो गया यार! सरकारी आदेश पालन के लिए थोड़े ही होते हैं। दूसरे, सरकार आदेश न करे तो और क्या करे? उसे भी तो लगना चाहिए कि वो देशहित में कुछ तो कर रही है। पर चिकने घड़ों में कभी बिल लगे हैं क्या?’ इसे कहते हैं समझदारी! उन्होंने पूरी श्रद्धा से मेरे कुत्ते के पांव छुए, तो मैं धन्य हुआ। लगा मैं अभी भी इन सर्विस हूं।
...........................
अशोक गौतम
गौतम निवास, अपर सेरी रोड,
नजदीक वाटर टैंक सोलन-१७३२१२ हि.प्र.

Wednesday, June 24, 2009

विद्रोह में लोक साहित्य की अहम भूमिका


लोक परंपराओं और लोक गीतों में वर्ष 1857 के पहले से ही अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लिखी और गाई जाने लगी थीं. इनमें अंग्रेज़ों को काफ़ी ज़ालिम, बेईमान और नाइंसाफ़ बताया गया है.
ख़ासकर प्लासी की ज़ंग में जब सिराजुद्दौला अंग्रेज़ों से हारे तभी से काफ़ी लोगों ने शेर लिखे और इसमें उन्होंने विरोध भी किया है.
उर्दू के अलावा खड़ी बोली, भोजपुरी और मगही में तो बहुत कुछ लिखा और कहा गया.
दोनों तरह की बातें हुईं कुछ साहित्य लिखा हुआ मिलता है और लोकगीत कभी लिखित रूप में सामने नहीं आए बल्कि लोग इसे गाया करते थे.
रामग़रीब चौबे नाम के एक साहब थे जिन्होंने बहुत सामग्री जमा की थी.एक दिलचस्प लोककथा है जो इन्होंने रिकॉर्ड नहीं किया है.
विलियम फ़्रेज़र जो दिल्ली में रेज़िडेंट थे, हिंदू और मुसलमानों से काफ़ी घुल-मलकर रहता था. गाय और सूअर का माँस नहीं खाता थे.
लेकिन उसके व्यक्तित्व का दूसरा पहलू भी था. वो काफ़ी अय्याश और ज़ालिम था. उसके जमाने में दिल्ली के आसपास को लोग गाँव छोड़कर जंगलों में चले गए थे. वह लड़कियों का उठवा लेता था.
एक बार फ़्रेजर ने मेवात की रहने वाली सृजन को उठवा लिया था. इस पर सृजन-फ़्रेजर के नाम से मशहूर लोकगीत है.
यह वाकया सन् 1834-35 का है. इससे पता चलता है कि लोकगायक उस दौर में भी कितना जागरूक थे.
ज़ुरैब के बारे में कहा जाता था कि वे सिर्फ़ प्रेम की शायरी किया करते थे लेकिन वर्ष1757 में सिराजुद्दौल की हार के बाद अंग्रेज़ों ने जब अपने पिठ्ठुओं को बंगाल का नवाब बनाया तो उन्होंने जिस तरह हालात को बयाँ किया है, वह गौर करने लायक है.
उनकी एक शायरी है-
समझे न अमीर इनको कोई, न वज़ीर


अंग्रेज़ के कफ़स में है असीर


जो कुछ वो पढ़ाएं सो ये मुंह से बोलें


बंगाले की मैना है ये पूरब के अमीर
यानी बंगाल के नवाब को अंग्रेज़ जो पढ़ाते हैं वो वही बोलते हैं. ये दिखाता है कि उस समय अंग्रेज़ों को लेकर कितनी कठोर प्रतिक्रिया थी.
सन् 1857 से बहुत पहले का बहादुर शाह ज़फ़र का एक शेर है तब वह बादशाह भी नहीं बने थे.
एतबारे सब्र-ए-ताकत हाथ में रखूँ ज़फ़र


फ़ौज-ए-हिंदुस्तान ने कब साथ टीपू को दिया.
इससे ज़ाहिर होता है कि ज़फ़र हिंदुस्तान के राजनीतिक हालात से पूरी तरह वाकिफ़ थे. नहीं तो वे ऐसी शायरी नहीं कर पाते क्योंकि टीपू सुल्तान 1799 में ही युद्ध में मारे गए थे.
लोकसाहित्य में अंग्रेज़ों के ज़ुल्मों की कहानी कही जाती थीं
फ़िरोज बख़्त जो कि शाह आलम के पोते थे अंग्रेज़ों से झगड़कर मुंबई चले गए थे. उन्होंने सन् 1857 में आज़मगढ़ में जो घोषणा पत्र जारी किया था उसमें अंग्रेजों के विरोध का कारण आर्थिक शोषण बताया है.
दरअसल 1857 की पूरी लड़ाई ही उर्दू मे लड़ी गई क्योंकि इसमें जो कुछ भी एलान हैं चाहे वह झाँसी की रानी की हों, नाना के हों, बहादुर शाह ज़फ़र के हों या बेगम हजरत महल के हैं वो सब उर्दू में हैं.
इसके अलावा जो भी कविताएं लिखी गईं वे सब उर्दू या खड़ी बोली में हैं.
अवधी, भोजपुरी और मगही में तो बहुत-सी कविताए हैं. बाबू कुंवर सिंह के बारे में भोजपुरी और मगही में बहुत कुछ कहा गया है लेकिन इसके समय के बारे में कुछ नहीं कहा जाता है.
जैसे कि मुसहफ़ी का देहांत वर्ष 1824 में हो गया था तो ज़ाहिर है कि उन्होंने इससे पहले ही यह लिखा होगा कि-
जोड़-तोड़ आवे हैं क्या ख़ूब नतारा केतईं


फौज़े दुश्मन को सेबूंहीं लेते हैं सरदार को तोड़


ज़ाहिर है कि यहाँ उनका मतलब सिराजुद्दौला के मीर ज़ाफर के बारे में भी है और टीपू सुल्तान के साज़िद के बारे में भी हैं.
इन चीज़ों से मालूम होता है कि हमारे यहाँ के जागरूक लेखक को इसका अहसास था कि हमारे ऊपर विदेश हुक्मरान आ गया है.


शमसुर रहमान फ़ारूक़ी, उपाध्यक्ष, काउंसिल फ़ॉर प्रमोशन ऑफ़ लैंग्वेज
(बीबीसी से साभार)

Tuesday, June 23, 2009

जूतमपैजार से प्रेमिका के द्वार तक....

ऐसा मेरे साथ पता नहीं भाई साहब क्यों होता है कि दो बच्चों को भरा पूरा बाप होने के बाद भी सुबह सैर को जाते-जाते पांव अनायास ही जूतमपैजार हुई प्रेमिका के द्वार की ओर यकायक मुड़ जाते हैं। क्या आप के साथ भी ऐसा होता है ?

अब पता नहीं बंदे की किस्मत ही खराब है या आदमी सच्ची को गलती का पुतला है। आदमी भी क्या कुत्ती(यहां आप बीप की आवाज़ के साथ पढ़ें) चीज है भाई जी, सेहरा बांध कर बाजे गाजे, पियक्कड़ दोस्तों की टोली के साथ दारू-शारू पीकर, बूढ़ी घोड़ी को रूलाता, अग्नि को साक्षी मानकर ब्याह कर किसी और को लाता है और प्रेम किसी और से कर बैठता है। आह री जिंदगी!

जिस प्रेमिका के चक्कर में पड़ लोक-लाज को लात मार सामाजिक प्रतिष्ठा को ठेंगे पर रख धर्म बदल, कर्म बदल दो बच्चों को एक्स बाप की यादों के सहारे छोड़ अपनी पत्नी के सिंदूर में से चुटकी भर सिंदूर अपनी प्रेमिका को दे शान से सबकी थू थू को थू थू करता हनीमून पर निकल पड़ा था वैवाहिक जीवन में एक नया इतिहास रचने तो समाज ने पता नहीं तब क्या क्या नहीं कहा था। समाज का क्या? इसे तो कुछ न कुछ कहना ही होता है। उम्र भर एक ही पत्नी के पल्लू के साथ बंध कर रहो तो भी कुछ न कुछ कहता ही है। मेरा तो मानना है कि आम आदमी को भी जिंदगी में कम से कम एक बार सच्चा प्यार जरूर करना चाहिए। विवाहेतर प्रेम कोई बड़े लोगों की बपौती नहीं। विवाहेतर प्रेम पर सबका हक है। इसलिए जब दाव लगे तब सही।

यारो! ये तो अपनी हिम्मत थी कि टांगों तक बाल सफेद हो जाने के बाद भी हमने इश्क को जिंदा रखने के लिए एक बार फिर सिर ओखली में दे डाला। सबने कहा, "हमारा धर्म केवल एक बार ही ओखली में सिर देने की इजाजत देता है।´ कोई बात नहीं , मुझे तो बस ओखली में सिर देने को जुनून था सो ऐसे भी तो वैसे भी कर दे दिया।

समाज को और तो सब कुछ पसंद आता है पर विवाहित का किसी और से प्यार करना रास क्यों नहीं आता? मैं समाज से पूछता हूं कि विवाह होने के बाद क्या आदमी के भीतर का प्रेमी मर जाना चाहिए? एक ही खूंटे से पुरूष को क्यों बांध कर रखना चाहते हो....हे समाज सुधारकों! पुरूष प्रधान समाज में भी पुरूष के साथ ऐसी ज्यादती! जहां पहले और केवल पहले प्यार के विशुद्ध प्रेमी भी रहते हैं खटपट तो वहां भी होती है। और अपना प्यार तो ....

मुझे पता नहीं लाख बदनाम होने के बाद भी किस आकर्षण ने खींचा कि मैं कल सुबह निकला तो था सेहत सुधार के लिए और जा पहुंचा फिर प्रेमिका के घर। जो प्रेमिका मेरे वियोग में पहले बीसियों नींद की गोलियां खाने के बाद भी न सो पाती थी तब ठाठ से सोई थी।

मुझे ट्रैक सूट में हांफते देख मेरी प्रेमिका की मां ने मुस्कारते हुए पूछा,` और कैसे हो मेरी बेटी को हीरोइन बनाने वाले?´

`जहाज का पंछी अब जहाज पर लौट आना चाहता है।´

`पुराने जहाज का क्या होगा?´ कुछ कहने के बदले मैं चुप रहा।

`हमारी किश्ती में छेद डालकर इतने दिन कहां रहे?´

` विदेश चला गया था।´

` वहां फिर कोई धर्म तो नहीं बदल आए?´

` बदलता तो अखबार में पढ़ नहीं लेतीं आप। खुदा कसम खाकर कहता हूं कि अब जीना छोड़ दूंगा पर ये साथ न छोड़ूंगा। ´

` भौंरें और पतियों पर विश्वास करना है तो कठिन है, पर चलो दिल लुभाने के लिए कर लेती हूं। बेटी! देख तेरा भौंरा लौट आया है।´

`तुम कहां थे इतने दिन हे मेरे प्राणनाथ?´

`प्राणनाथ रास्ता भटक गया था हे मेरी प्रिय!´

` अब तो छोड़कर कहीं नहीं जाओगे न? तुम अगर अबके मुझे छोड़कर गए तो मैं सच्ची को आत्महत्या कर लूंगी। देखो तो समाज ने हमारा हुक्का पानी बंद कर दिया।´

` करने दो। दो प्यार करने वालों के साथ ये और कर ही क्या सकता है।´

`देखो सेकिंड हैंड पति, समाज ने हमारे पुतले जलाने शुरू कर दिए।´

` इससे तो हमारे प्रेम की उम्र ही बढ़ेगी। बट, आलरेडी विवाहित पुरूष पर इतना विश्वास ठीक नहीं प्रिय!´

मैंने अपनी ओर से फ्री होते हुए उसे वैधानिक चेतावनी दी ताकि कल को मुझे और ग्लानि न हो।

`अब विश्वास करने के सिवाय और मेरे पास बचा भी क्या है मेरे भी प्राणनाथ!´
हाय रे प्रेमिका की विवशता!

` चलो, चलो, प्रेस वाले भी आए हैं। एक फैमिली फोटो हो जाए।´ सास ने दनदनाते हुए कहा। ऐसे दामाद किसी-किसी सास को ही नसीब होते हैं न भाई साहब!

`स्माइल प्लीज!´ प्रेस फोटोग्राफर ने कहा तो मुझे लगा जैसे मैं पहली पत्नी के साथ होऊं।

डॉ. अशोक गौतम
गौतम निवास, अप्पर सेरी रोड,नजदीक मेन वाटर टैंक, सोलन-173212 हि.प्र.

Monday, June 22, 2009

अल्लाह मेघ दे, पानी दे.....

बज़्मी नकवी को आप पहले भी हिंदयुग्म पर पढ़ चुके हैं...एक बार कविता प्रतियोगिता में हिस्सा लिया, पहले दस कवियों में भी रहे और फिर हमारी पहुंच से दूर हो गए...इतने दिनों बाद अचानक बैठक पर इनका मेल देखकर ताज्जुब तो हुआ पर संतोष भी हुआ कि हिंदयुग्म से जुड़ने के जो वादे ये कर के गए थे, अभी भूले नहीं हैं....फिलहाल, इन्होंने एक तस्वीर हमें भेजी है और उन पलों का संक्षेप में ज़िक्र भी किया है जब इन्हें तस्वीर खींचने को मजबूर होना पड़ा....बैठक पर विचर रहे पाठक भी ऐसी जीवंत तस्वीरों के साथ बेहिचक हाज़िर हो सकते हैं....ब्लॉगिंग को घर-घर पहुंचाकर सरोकारों से जोड़ना ही तो हिंदयुग्म का मिशन है.....

ये फोटो बुंदेलखंड (बांदा) की है....सूखे की मार झेल रहे इस इलाके में ये एक किसान का बच्चा बेयकीन आँखों से बादल की गरज को पानी की बूंदों में बदलते देखना चाहता है... बज्मी नकवी

Sunday, June 21, 2009

पिछड़ी खरीफ फसलों की बुआई, फिर महंगाई की आशंका

गत 6 जून को समाप्त हुए सप्ताह के दौरान महंगाई की दर घट कर मायनस 1.61 प्रतिशत पहुंच जाना भले ही सरकार के लिए संतोष की बात हो लेकिन वर्षा की वर्तमान स्थिति आगामी महीनों में स्थिति को बदल सकती है और उपभोक्ता की परेशानियों को और बढ़ा सकती है।

शुरूआत अच्छी होने के बाद अब मानसून की स्थिति अच्छी नहीं बनी हुई है। हालांकि इस वर्ष दक्षिणी तट पर मानसून ने 23 मई को ही दस्तक दे दी थी और मौसम विभाग ने समय से पूर्व इसके आने की घोषणा कर दी है लेकिन अब मानसून की गति ठहर सी गई है। देश के अधिकांश भागों में वर्षा की कमी अनुभव की जा रही है।
मौसम विभाग के अनुसार अब तक देश में वर्षा की स्थिति अच्छी नहीं है। देश के कुल 36 मौसमीय उप-खंडों में से केवल 8 उप-खंडों में ही वर्षा सामान्य या सामान्य से अधिक हुई है। बाकी उप-खंडों में वर्षा की कमी है।
इस सीजन में देश भर में अब तक केवल 39.5 मिली मीटर वर्षा ही दर्ज की गई है जबकि आमतौर पर 72.5 मिली मीटर होती है।

बुआई
मानसून में देरी और वर्षा की कमी का असर खरीफ फसलों की बुआई पर पड़ रहा है। कृषि भवन से प्राप्त जानकारी के अनुसार अब तक तिलहनों की बुआई 4.14 लाख हैक्टेयर पर की गई है जबकि गत वर्ष इसी अवधि में 5.02 लाख हैक्टेयर पर की गई थी। इसी प्रकार आलोच्य अवधि में दलहनों का रकबा 1.88 लाख हैक्टेयर से घट कर 1.81 लाख हैक्टेयर रह गया है।

हालांकि सोयाबीन, तिल और सूरजमुखी की बुआई गत वर्ष की तुलना में कुछ अधिक हुई है लेकिन प्रमुख तिलहन मूंगफली का रकबा 2.39 लाख हैक्टेयर से घट कर 1.08 लाख हैक्टेयर रह गया।
दहलनों मूंग का रकबा 87,000 हैक्टेयर से घट कर 57,000 हैक्टेयर रह गया है जबकि उड़द और मूंग की बुआई गत वर्ष की तुलना में क्रमश: 7,000 हैक्टेयर औ 11,000 हैक्टेयर अधिक क्षेत्रफल पर हुई है।
दूसरी ओर, धान की बुआई 7.15 लाख हैक्टेयर से बढ़ कर 8.01 लाख हैक्टेयर, मक्का की 57,000 हैक्टेयर की तुलना में 1.05 लाख हैक्टेयर, ज्वार की 76,000 हैक्टेयर से बढ़ कर 91,000 हैक्टेयर और बाजरा की 5,000 हैक्टेयर से बढ़ कर 39,000 हैक्टेयर पर की जा चुकी है। कपास का रकबा भी 17.30 लाख हैक्टेयर से बढ़ कर 18.51 लाख हैक्टेयर हो गया है।

गिरता जल स्तर
वर्षा की कमी के कारण देश के प्रमुख जलाशयों में पानी का स्तर भी लगातार कम होता जा रहा है। गत 18 जून को 81 प्रमुख जलाशयों में पानी का स्तर केवल 15.068 बिलियन क्यूबिक मीटर रह गया जो क्षमता का केवल 10 प्रतिशत ही है।
गत वर्ष की तुलना में इस समय पानी का स्तर आधा ही रह गया है।
हालांकि मौसम विभाग जल्दी ही मानसून के सक्रिय होने की बात कर रहा है लेकिन यदि कुछ देरी हो जाती है तो खरीफ की बुआई तो कम होगी ही उत्पादकता कम होने से कुल उत्पादन में भी गिरावट आएगी।
खरीफ के दौरान मूंगफली, सोयाबीन, सूरजमुखी आदि तिहलनों, गन्ना, कपास, धान, अरहर आदि का उत्पादन प्रमुखता से होता है। अरहर के भाव पहले ही आसमान को छू रहे हैं। गन्ने की कमी से चीनी के उत्पादन में आई गिरावट के कारण उपभोक्ता को चीनी के लिए अधिक दाम चुकाने पड़ रहे हैं।
ऐसे मे मानसून की देरी या वर्षा की कमी उपभोक्ता की परेशानी को और बढ़ा सकती है।

--राजेश शर्मा

Saturday, June 20, 2009

टमाटर फल या सब्जी? जवाब एसएमएस करें

एसएमएस लक्ष्मी

संचार सरिता में प्रवाहित इस दौर की पीढी़ ने आख़िरकार सदियों से अनुत्तरित प्रश्न को हल करने का बीड़ा उठा ही लिया। एक ऐसा प्रश्न जिसका उत्तर सतयुग, त्रेता और द्वापर नहीं ख़ोज सके लेकिन कलियुग ने वह चमत्कार कर दिखाने का संकल्प लिया। ब्रह्माण्ड के सभी अनुत्तरित प्रश्नों या यूं कहे कि सभी असम्प्रेषित /अनउद्‍घाटित उत्तरों को खोजने का नाम ही तो विज्ञान है। विज्ञान की दुनिया का विस्तार अनंत है। विज्ञान के नक्शे में मोबाइल नाम का एक शहर है। इस शहर का एक मोहल्ला है एसएमएस और इसी मोहल्ले में रहने वाले अर्थ उपासकों ने इस प्रश्न को हल करने का बीड़ा उठाया।
टमाटर फल है या सब्जी?
बहुत ही कठिन और अहम् प्रश्न। पूरे दो माह का समय मुकर्रर किया गया, ज़वाब भेजने के लिये। हर इंसान से इल्तजा की गई कि वह अपने मोबाईल से टमाटर के फल अथवा सब्जी होने का एसएमएस करे। एक उच्चस्तरीय समिति द्वारा मोबाईल धारकों को ही इंसानों की श्रेणी में रखने का तय किया गया।
मात्र दो माह का समय था और काम बहुत अधिक। सभी ऐजेंसियों को युद्वस्तर पर कार्य करना होगा। विश्व के विकसित और विकासशील देशों की जिम्मेदारियां तय की गई। सबसे अहम् जिम्मेदारी जो धारण की गई वह थी विकासशील और अविकसित देशों के बाशिंदों को इंसान बनाना यानी हर एक को मोबाइल धारक बनाना। इस उत्सव की घोषणा से सभी मोबाइल कम्पनियों, नेटवर्क एजेंसियों, टीवी, रेडियों अख़बार, पत्र पत्रिकाओं, इवेंट मेनेजमेट ठेकेदारों, मॉडलों, क्रिकेटर कलाकार, राजनेता इत्यादि सभी के मुख सुमन खिल गये। इनके अलावा उन सभी लोगों को इसी सूचि में माना जाये जो द्रुतलक्ष्मी की प्राप्ती हेतु नित्य नवोन्वेष लघुपथ के अन्वेशण में लगे रहते है।

मोबाइल कम्पनियों ने ऐसा कैम्पेन किया कि सबको महसूस होने लगा सांस लेने के बाद इस जिस्म की पहली ज़रुरत मोबाइल ही है। अख़बार वालों ने पूरे पेज के विज्ञापन छाप कर जनहित में अपील जारी की। टीवी रेड़ियों पर विषेश रुप से निर्मित ज़िंगल अल्प अंतराल में बजने लगें।

जागो हे स्वास्थ्य शुभेच्छु
समझो टमाटर की पीर
अपनी बुद्धि कमान से
छोड़ो मत के तीर
एसएमएस यज्ञ रचा है
जागो शाह फक़ीर

बड़ी कर्णप्रिय धुन बनाई गई। अनवरत कोई ना कोई क्रिकेटर अथवा फिल्म कलाकार टीवी के पर्दे पर यह ज़िंगल गाता हुआ दिख जाता। विश्व के अन्य देशों में भी वहां की भाषा में बडे़ पुरज़ोर शब्दों में अपील की गई। नागासाकी हिरोशिमा पर न्यूक्लियर बम और चाँद पर मानव अवतरण के बाद यह पहला मौका था जब सम्पूर्ण विश्व एक ही मसले पर सामूहिक चिंतन में लिप्त था ।

आखि़र वह दिन भी आया जब यह घोषणा होनी थी कि टमाटर फल है या सब्ज़ी। पूरे संसार की सांस थमी हुई। टीवी चेनलों ने आंकड़े कम, विज्ञापन अधिक परोसे वह भी तरसा-तरसा कर मानों भूखों को एक-एक जलेबी उछाल-उछाल कर खिलाई जा रही हो। मतों की गणना की गई| हज़ारों लाखों नही अरबों-खरबों एसएमएस मिले। लेकिन मतों का अंतर कुछ हजारों में ही रहा। अंतर्राष्ट्रीय विषेशज्ञों की एक विशेष समिति ने इस धेनु के पुनः दुहने की सम्भावनाओं पर विचार कर निर्णय लिया कि कुछ हज़ार मतों के अंतर के आधार पर इतना बड़ा निर्णय नहीं लिया जा सकता। और इस तरह टमाटर के फल या सब्ज़ी होने की घोषणा को स्थगित रखा गया।

अब पूरी दुनिया तीन वर्गों में बंट चुकी है। एक टमाटर को सब्ज़ी मानने वाला, दूसरा टमाटर को फल मानने वाला और तीसरा इस महायुद्ध से मालामाल होने वाला। आज पहला और दूसरा वर्ग टमाटर ज्ञान से औतप्रौत है। उसके पास टमाटर से सम्बन्धित महीन से महीन जानकारी उपलब्ध है, पर टमाटर खरीद नही सकता क्योंकि सारा पैसा तो तीसरे वर्ग के पास है।

---विनय के जोशी

Friday, June 19, 2009

भक्ति के नाम पर लूटते हैं पुजारी

दीपाली पन्त तिवारी "दिशा" बैंगलोर में रहती हैं..... बारहवीं कक्षा से ही कविताओं का शौक लगा....शादी से पूर्व शिक्षण कार्य भी किया है और इलैक्ट्रोनिक मीडिया से भी जुडी रही हैं....बरेली के चैनल वी एम दर्पण में न्यूज रिपोर्टर, न्यूज एंकर तथा एंकर भी रही हैं.....आजकल ब्लॉगिंग में जी-जान से जुटी हैं..... अपने ब्लॉग "दिशा" तथा वेबसाइट दैट्स हिन्दी डाट काम, मोहल्ला पर भी पाई जाती हैं...हिंद युग्म से हाल ही में जुड़ने के बाद इन्हें लगता है जैसे इनकी कई खूबियों को राह मिल गयी है. आमीन....


कह्ते हैं कि भगवान श्रद्धा-भक्ति और विश्वास के भूखे होते हैं. श्रद्धा से किया गया स्मरण मात्र भी प्रभु को खुश करने के लिये काफ़ी है. लेकिन उनका बनाया इंसान इन बातों को नही समझता. उसकी नजरों में पैसों के बिना किसी चीज का कोई मोल नही है.
जी हाँ मैं बात कर रही हूँ. वैष्णो धाम तथा ऐसे ही कई तीर्थों की, जहां श्रद्धालु दूर-दूर से अपनी मुरादें पूरी होने की आस लिये प्रभु दर्शन को आते हैं लेकिन वहां आकर उन्हें मिलता है तिरस्कार. 'जय माता दी' के नारों के बीच रास्ते की कठिनाईयों को भुलाते हुए जो श्रद्धालु माता के द्वार पहुँचते हैं, उन्हें क्या पता होता है कि यहां उनके द्वारा लायी गयी भेंट का कोई आदर नहीं अपितु उसे तो कूड़े की तरह एक कोने में फ़ेंक दिया जायेगा और प्रसाद स्वरूप उन्हें धक्के मिलेंगे, प्रभु दर्शन तो दूर की बात है.
इसी तरह अन्य स्थानों पर भी यही हाल है. अब आप जम्मू स्थित रघुनाथ मंदिर का ही उदाहरण ले लीजिये. रघुनाथ मंदिर एक ऐसा धर्म स्थल जो बहुत प्रसिद्ध है. वैष्णो धाम से लौटते हुए हजारों श्रद्धालु जम्मू स्थित इस स्थल पर प्रभु दर्शन के लिये अवश्य आते हैं. रघुनाथ मंदिर की प्रसिद्धता को देखते हुए और आतंकी हमले के बाद यहां चौकसी बढा़ दी गयी है. दरवाजे पर ही पुलिस चौकी है जो सभी आने जाने वालों की तलाशी लेती है ताकि कोइ लूटेरा या आतंकी मंदिर में प्रवेश न कर सके. लेकिन वे यह नही जानते कि असली लुटेरे तो मंदिर के भीतर ही हैं. अब आप सोचेंगे कि मैं किन लुटेरों कि बात कर रही हूं. आजकल पुजारी किसी लुटेरे से कम हैं क्या? यहां मंदिर में प्रवेश करने के बाद पुजारी पाँच सौ तथा हजार के नोट दिखाकर आपको जताते हैं कि आप भी इसी तरह की दक्षिणा उनकी थाली में रखें, यदि आप ऐसा नही करते तो वो आपको खरी-खोटी सुनाने से और तिरस्कृत करने से भी नहीं चूकेंगे. इस मंदिर के प्रांगण में कई अन्य मंदिर भी हैं. अत: लूटने का ये सिलसिला हर मंदिर में होता है. आज सभी तीर्थस्थानों में प्रोफ़ेशनलिज्म इस कदर हावी हो गया है कि लोगों की भावनायें कहीं भी मायने नहीं रखती. तीर्थस्थानों में बैठे पुजारियों को तो अपने नोटों से मतलब. इनका शीश प्रभु के आगे नहीं बल्कि ५०० और १००० के नोटों की हरियाली के आगे झुकता है.
कहा जाता है कि "जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत तिन देखी तैसी".अर्थात जिसकी जो भावना हो उसे वैसा ही दिखाई देता है. जहां श्रद्धालुओं के लिये पत्थर की मूरत साक्षात प्रभु हैं, वहीं पुजारियों के लिये केवल लूटने का एक जरिया है.

दीपाली तिवारी

Thursday, June 18, 2009

जब फ्लू महाराज मेरे घर पधारे !

सच कहूं तो मैं किसी अशोक गौतम को नहीं जानता...ख़ुद-ब-ख़ुद व्यंग्य लेकर बैठक में दाखिल हो गए....बिना दस्तक दिए...हिमाचल प्रदेश जैसे दूर राज्य से चलकर आए हैं, मना कैसे करते....बताते हैं कि 20 साल पहले से ही व्यंग्य और कहानी लेखन में कलम तोड़ रहे हैं....फिलहाल, शिमला स्थित राजकीय महाविद्यालय शिमला में हिंदी संकाय में वरिष्ठ प्राध्यापक के पद पर कार्यरत हैं....टिकने को तो जगह दे दी है, बाक़ी आप लोग तय करें कि इनसे पिंड छुड़ाना चाहते हैं कि आगे भी बर्दाश्त करते रहेंगे.....इनकी तस्वीर भी आपको दिखाए देते हैं....

जिंदगी के टंटों से बचने के लिए रोज सुबह की तरह तब भी गुणगान चालीसा पढ़ने में मग्न था कि दरवाजे पर दस्तक हुई। पहले तो सोचा कि शायद मेरी भक्ति से हनुमान जी प्रसन्न होकर टंटों से रक्षा करने के लिए आ पहुंचे हों। मैं गुणगान चालीसा और भी जोर से पढ़ता हुआ फटी पैंटलून धारण किए दरवाजे की ओर लपका। दरवाजा खोला तो सामने एक निहायत अपरिचित। वह अपरिचित किसी भी कोण से परिचित नहीं लग रहा था। चाहे कितना ही मान लेता कि गुणगान अपने भक्तों को वेश बदल कर दर्शन देते हों। बचपन में दादी मां से सुना था कि न जाने किस वेश में आ जाएं गुणगान, सो न चाहकर भी उस अपरिचित के स्वागत के लिए बाहें खोलने का नाटक करना पड़ा, `आओ गुणगान! धन भाग हमारे! हमारी कुटिया में जो आप मंहगाई के दौर में पधारे।´
मैंने मुस्कराने का सफल अभिनय किया। अपने दोस्तों के बीच निरंतर उठने बैठने से मैं अभिनय में विद्या वाचस्पति हो गया हूं।
` और भक्त कैसे हो?´
कह उस अपरिचित आगंतुक ने मेरी आंखों में झांकते हुए पूछा तो लगा अपने सारे कष्ट कट गए हरिद्वार।
` ठीक हूं प्रभु! पर आप इतनी गर्मी में।´
`हम गर्मी-सर्दी से ऊपर उठे हुए बंदे हैं।´
उसने यों कहा जैसे मुझसे मजाक कर रहा हो तो उसमें मेरी जिज्ञासा और भी बढ़ी।
` आओ भीतर आओ! पर माफ कीजिएगा मैंने आपको पहचाना नहीं। अपने असली रूप में आओ तो मैं धन्य होऊं।´
कह मैंने दोनों हाथ सविनय जोड़े तो उस आगंतुक की सांसों में सांस आई।
`यार, मैं तो डरा था कि तुम दरवाजा खोलोगे ही नहीं।पर तुमने तो मेरी पहली ही दस्तक में घर का तो घर का, दिल का द्वार भी बड़ी आत्मीयता से मेरे लिए खोल दिया। सच्चाई को जितना किताबों में पढ़ा था तुम भारतीयों का हृदय आज भी उससे हजारों गुणा विशाल है।´
`प्रभु, आज के आपाधापी के दौर में बस कम्बख्त एक यह दिल ही तो हमारे पास बचा है। बाकी तो मंहगाई मार गई। अब देखो न! मंदी के इस दौर में भगवान को जलाने वाले धूप को खरीदने के भी लाले पड़ने लगे हैं। ऊपर से साहब है कि रोज शिकायत करता है कि मेरे लिए जलाने वाले धूप की क्वालिटी सुधारो वरन् छंटनी कर दूंगा। बस, अब अपने से न तो जीते बन पड़ रहा है न मरते। समझ नहीं आ रहा कि जिआ जाए या मरा जाए। बस इसी दुविधा में जी रहा हूं।´
`यही दुविधा तो हम तुम्हारी खत्म करने के लिए आए हैं। बस, अब कुछ दिनों की बात है। न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी।´
उसने कहा तो मन किया उसके पांव में ऐसे लोटूं जैसे पड़ोसी का कुत्ता मेरे पांव में लोटता है एक टुकड़ा रोटी के लिए।
` तो अंदर पधारिए न प्रभु! हमारे लिए आज भी अतिथि देवो भव ही है। वह चाहे आतंकी ही क्यों न हो।´
`सच!! अगर मैं कहूं कि मैं भी आतंकी ही हूं तो?´
` पचास का हो गया अतिथि! इतना तो आज का बच्चा भी जानता है कि जो आदमी कहता है असल में वो होता नहीं और जो वह कहता नहीं असल में वह वह ही होता है।´
कह मैं उस अपरिचित को मुस्कराते हुए भीतर ले आया।
पत्नी को ठंडा लाने के लिए कहा तो वह गर्म ले आई। अपरिचित ने मुस्कराते हुए गर्म ही ठंडा समझ पीना शुरू करते कहा,` डांट वरी! वैवाहिक जीवन की एक उम्र पार करने के बाद सबके साथ ऐसा ही होता है। और गृहस्थी कैसी चली है?´
`चली क्या बस खींच रहे हैं जनाब छाले पड़े पैरों पर। मां को चार साल से लकवा हो गया है। बापू सरकारी अस्पताल के हो कर रह गए हैं। जितने दिन सरकारी अस्पताल में रहते हैं, ठीक रहते हैं, घर आते ही फिर वही हाल हो जाते हैं। पहला बेटा एमबीए कर फैक्टरी फैक्टरी की धूल फांक रहा है। दूसरा एमए कर रहा है। बेटी विवाह लायक हो गई है, पर कहीं सुयोग्य तो छोड़िए योग्य वर दूर दूर तक नहीं दिखाई दे रहा। ऊपर से पत्नी है कि दिन पर दिन ढलती जा रही है। ´

मैंने अपनी व्यथा कही तो वह आगंतुक गंभीर होने के बदले मुस्कराने लगा। काफी देर तक मुस्कराने के बाद बोला,
`और?´
` और क्या! ऊपर से साहब की रोज़-रोज़ की किच किच!´ कहते कहते रोना निकलन को आ गया पर उम्र का ख्याल आते ही हिम्मत कर दांत कस लिए।
`बस, अब मैं आ गया न, अब चिंता की कोई बात नहीं। अब पूरे देश में सब ठीक हो जाएगा।´
`पर हे आगंतुक आप हो कौन? आप तो ऐसे कह रहे हो जैसे इन दिनों यूपीए सरकार बोलती है।´
` बंधु, मैं स्वाइन फ्लू हूं। सरकार से बड़ा, बहुत बड़ा।´
कह उसने गिलास किनारे रख ठहाका लगाया।
`तो?´
`तो क्या! कहीं भी मुझे शरण नहीं मिली। सोचा भारत में तो कम से कम मुझे शरण मिलेगी ही। इतिहास गवाह है । वर्तमान गवाह है। इसलिए सब छोड़ चला आया। और देखो! तुमने मेरा किस गर्मजोशी से भी स्वागत किया।´
`पर यहां तुम करोगे क्या?´
`सबको बेहाल कर कर मारूंगा।´
`यहां तो सभी पहले से ही बेहाल होकर मर रहे हैं। बेकारी से भी बड़ी बेहाली और कोई होती है क्या? भुखमरी से भी बड़ी बेहाली और कोई होती है क्या? गरीबी से भी बड़ी और कोई बेहाली होती है क्या? पल पल के भय से बड़ी बेहाली और होती है क्या?ऐसे में तुम हमें क्या बेहाल करोगे, देख लेना चार दिन बाद खुद ही बेहाल होकर यहां से चले न गए तो तुम्हारे जूते पानी पीऊं।´


मैंने कहा तो उसने मेरे पांव छुए और सिर झुकाए उदास चेहरा लटकाए चला गया। उसे जाते देख पत्नी के चेहरे की रौनक देखने लायक थी।..... जो कोई अपनी व्यथा सुनावै...


डा. अशोक गौतम
गौतम निवास, अप्पर सेरी रोड,सोलन-173212 हि.प्र.

Wednesday, June 17, 2009

हिंदी सीख रहे हैं मैक्समूलर के वंशज




जर्मनी के कोलोन शहर में रहने वाले 23 साल के टॉमस रूथ हिंदी फ़िल्मों के दीवाने है. हम दिल दे चुके सनम और देवदास उनकी चहेती फिल्में हैं.
उनकी दीवानगी इस हद तक है कि उन्होंने हिंदी सीखने का ही फैसला कर लिया. शुरूआत उन्होंने प्राइवेट ट्यूशन के साथ की लेकिन अब वो बाकायदा हिंदी की पढ़ाई कर रहे हैं.
वो कहते हैं, "जब से मैंने हिंदी पढ़ना शुरू किया मेरे लिए हिंदी फ़िल्मों का और बड़ा संसार खुल गया.”
बॉन विश्वविद्यालय से हिंदी और एशियाई अध्ययन में स्नातकोत्तर की पढ़ाई कर रहे जर्मन छात्र रिची की पसंदीदा फिल्में हैं 'ओम शांति ओम' और 'गजनी'. वो आमिर खान और शाहरूख खान दोनों के ही फैन हैं.
हिंदी फिल्मों के गाने उनकी ज़बान पर रहते हैं. उनका उच्चारण और लहजा बहुत साफ़ है. वे कहते हैं, “हिंदी बहुत खूबसूरत भाषा है और मैं भारत जाना चाहता हूं.” जर्मनी में हिंदी को लेकर ये एक नया ट्रेंड है.



हिंदी सीखने की चाह


बॉन विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के अध्यक्ष डॉ हाइन्ज़ वेसलर कहते हैं, “जब हम हिंदी पढ़ते थे तो हमारे मन में प्राचीन भारतीय दर्शन और मेधा को जानने की ललक होती थी लेकिन अब बड़े पैमाने पर ऐसे छात्र आ रहे हैं जिनमें से अधिकतर मुंबई की फिल्मों से प्रभावित हैं या फिर उन्हें लगता है कि भारत तेज़ी से विकास कर रहा है और हिंदी सीखने से नौकरी में आसानी होगी.”
दरअसल बॉलीवुड की फ़िल्मों में प्रेम और भावुकता, विवाह के भव्य प्रदर्शन, मंगलसूत्र ,सिंदूर लगाने और पांव छूने के दृश्य यहां लोगों को बहुत सम्मोहित करते है.
इसके साथ ही कई ऐसे युवक-युवती हैं जिनका मानना है कि हिंदी सीखने से नौकरी के लिए उनकी योग्यता और दायरा बढ़ेगा.
उनका मानना है कि खुले बाज़ार और उदारवादी आर्थिक नीतियों के इस दौर में कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां और अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं भारत में अपना विस्तार कर रही हैं और ग्लोबल रोज़गार बाज़ार (जॉब मार्केट) में हिंदी की पूछ बढ़ गई है.
हिट है भारत
20 साल की तान्या पर्यावरणवादी संगठन ग्रीनपीस में स्वयंसेवी हैं और हिंदी सीखने के पीछे उनका यही मक़सद है.
हाइडेलबर्ग विश्वविद्यालय में हिंदी की पूर्व अध्यापिका और वर्तमान में बॉन विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ा रहीं अनुराधा भल्ला कहती हैं, “हम छात्रों को व्याकरण और साहित्य पढ़ाते हैं लेकिन सिनेमा में दृश्य और भावों के बिंब उनके लिए भाषा को आसान कर देते हैं.”
हिंदी से ये जुड़ाव लोगों को हिंदुस्तान तक ले जाता है. जर्मन लहजे में हिंदी बोलनेवाली छात्रा लेनामाई दो बार भारत में मुंबई और मसूरी जा चुकी हैं.
वे कहती हैं, "जब मैं वहां लोगों से हिंदी में बात करती हूं तो वो हैरान रह जाते हैं.”
हिंदी और हिंदी सिनेमा के प्रति बढ़े रूझान को देखते हुए अमरीका और ब्रिटेन की तरह जर्मनी के फ़्रैंकफ़र्ट, कोलोन और डज़लडर्फ़ जैसे शहरों के सिनेमाघरों में भी अब नियमित तौर पर हिंदी फिल्में दिखाई जाती हैं.
इसी तरह बर्लिन के अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में भी बॉलीवुड की फिल्में और फिल्मकार प्रमुखता से शामिल किए जाने लगे हैं.
एक स्थानीय पत्रकार की टिप्पणी है,"भारत आज बिकता है. कोई भी चीज़ जो भारत से जुड़ी हो वो हिट है."


शालिनी जोशी


(बीबीसी से साभार)

Tuesday, June 16, 2009

कोई हिंदुस्तानियों को भी आईना दिखाए....




एक मशहूर कहावत है-जिनके घर शीशे के होते हैं वे दूसरे के घरों में पत्थर नहीं फेंका करते। लेकिन हम भारतीय अनूठे हैं। हम अपनी ही कही बात पर अमल नहीं करते। ऑस्ट्रेलिया में भारतीयों पर हो रहे हमले पर भारत और ऑस्ट्रेलिया दोनों ही जगहों पर इसके विरोध में प्रदर्शन हो रहे हैं। नस्लभेदी हमलों पर हर कोई आगबबूला हो रहा है। हर ओर हड़कम्प मचा हुआ है।
पर मुझे लगता है कि हमें ऑस्ट्रेलिया को कुछ भी कहने का हक नहीं है। महाराष्ट्र में जब हिन्दी भाषियों पर हमले होते हैं तब हम कहाँ होते हैं? "मराठी मानुस" और हिन्दी भाषियों में लड़ाई है नौकरी की। हक की। एक आदमी दूसरे देश या राज्य में पैसा कमाने ज्यादा है इसका कारण होता है उसके खुद के देश में नौकरी व संसाधनों की कमी। या फिर और अधिक पैसा कमाने की लालसा उसे दूसरे देश ले जाती है। इसके अलावा और कोई कारण नहीं होता। आप और हम नहीं चाहेंगे कि बांग्लादेश से कोई गैरकानूनी रूप से आये और हमारा हक हमसे छीने। जब घर में ही दाल-रोटी के लाले पड़े हों तो दूसरे को निवाला कैसे दें? कमोबेश वही हाल विदेशियों का हैं। जब हम हिन्दुस्तान से लोग विदेश में गैरकानूनी तरीके से जा कर रहते हैं तब तो सरकार कुछ नहीं करती?
पूर्वांचल में बिहारियों को ट्रेन में पीटा जाता है, बुरा बर्ताव होता है तब कोई कुछ क्यों नहीं करता? शेष भारत के लोग कौन सा पूर्वोत्तर का ध्यान रखते हैं? हमारा मीडिया उन इलाकों को कितना कवर करता है? इसे मीडिया कौन सा "वाद" कहेगा? क्षेत्रवाद? जातिवाद? रंगभेद? आखिरी बार आपने नागालैंड, मणिपुर, मिज़ोरम आदि की खबर कब सुनी या देखी थी? मुझे तो याद नहीं आ रहा। किस मुँह से किसी विदेशी पर आरोप लगायें जब हम खुद ही एक नहीं हैं? हाल ही में रूसी राजदूत ने कहा कि गोवा में रूसी पर्यटकों से ठीक वैसा ही व्यवहार होता है जैसा कि भारतीयों के साथ ऑस्ट्रेलिया में हो रहा है। ये सुनकर क्या हमें शर्म नहीं आती? क्या भारत की सरकार इस पर चुप्पी साध लेगी?
दक्षिण भारतीय और हिन्दी भाषियों के बीच में मनमुटाव कुछ कम नहीं हैं। मेरे और मेरे एक मित्र के साथ चेन्नई में बुरा बर्ताव हो चुका है। ऐसा नहीं है कि सभी लोग एक जैसे हैं पर असमाजिक तत्वों की कमी भी नहीं।
ये तो केवल क्षेत्र की बात करी है। हमारे देश में ऐसे अनगिनत वाद-विवाद मिल जायेंगे। गुर्जर और मीणा विवाद कैसे भूल सकते हैं? यूपी, राजस्थान और बिहार में न जाने ऐसे कितने ही वाद-विवाद रोज़ होते रहते हैं। उनपर हमारा ध्यान कभी नहीं जाता। जब हम स्वयं ही अपने लोगों से उसी तरह से पेश आते हैं जैसे कि ऑस्ट्रेलिया वाले तो हमें कुछ कहने का हक ही नहीं बनता। राज ठाकरे हमारे घर में है विदेश में नहीं। नस्लभेद टिप्पणियाँ कोई नई बात नहीं है। इस तरह के "भेद" हमारे घर में अधिक हैं। पर हम बेशर्म हो चुके हैं।
अपने एक मित्र संदीप के शब्दों में :
यह कहना ग़लत नही होगा की अगर कोई नस्लवाद/जातिवाद की प्रतियोगिता हो तो भारतीय प्रथम आयेंगे ये हमारे अन्दर कूट कूट के भरा हुआ है, वह तो शुक्र है कि भारत एक धनी देश नही है वरना बाकी और देशो के साथ बहुत ही बुरा बर्ताव करता देश से बाहर रह कर भारतीय नस्लवाद और भी स्पष्ट दिखता है वहाँ अगर कोई काला (अफ्रीकी) व्यक्ति दिख जाए तो भारतीय सबसे आगे होते हैं उसका मजाक उडाने में ये इस देश का दुर्भाग्य ही कह लीजिये कि जहाँ भगवान के नाम में भी काले रंग का वर्णन है, उस देश में fairness creams की बिक्री धड़ल्ले से होती है


निदा साहब ने शायद ऐसे ही मौके के लिए कहा है-


अपना ग़म लेके कहीं और न जाया जाये,


घर में बिखरी हुई चीज़ों को सजाया जाये


तपन शर्मा

Monday, June 15, 2009

बीजेपी के महा'खल'नायक...



एक पुरानी कहावत है....जब रोम शहर जल रहा था तो नीरो बांसुरी बजा रहा था....भारतीय जनता पार्टी के लिए फिलहाल ये जुमला एकदम फिट बैठता है....इधर यशवंत सिन्हा ने इस्तीफा देकर पार्टी की हार के ज़ख्मों पर नमक छिड़का तो अपनी हालत पर विचार करने के बजाय पार्टी के नेता अपने-अपने शौक पूरे करने में लगे हैं.....टीवी पर टी-20 क्रिकेट मैच देखते-देखते नज़र पड़ी अरुण जेटली पर....लॉर्डस के मैदान में भारतीय क्रिकेट टीम का हौसला बढ़ाने के लिए अरुण जेटली अपनी हाज़िरी लगा रहे थे.....अरुण जेटली नेता विपक्ष हैं....चुनाव में पार्टी की नीति तय करने वाले बीजेपी के चाणक्य.....सियासत के इस चाणक्य की नीतियों का क्या हश्र हुआ, चुनाव के नतीजे बता चुके हैं.....यूपी की चुनावी नैया भी इन्हें ही पार लगानी थी, मगर वहां भी पार्टी ने कांग्रेस को लगभग वाकओवर दे दिया.....

यूपी की बदनसीबी

इसे विडंबना नहीं तो और क्या कहेंगे कि जिस रामनाम के फॉर्मूले की ज़मीन यूपी में है, वहां उसकी हालत सबसे ज़्यादा पतली है...राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह भी यूपी के ही हैं....सूबे के सीएम भी रह चुके हैं....मगर, पार्टी के लिए कुछ नहीं कर सके....लालजी टंडन और कलराज सिंह यूपी के सबसे दिग्गज नेताओं में हैं मगर जनाधार कितना है ये मायने रखता है.....कल्याण सिंह के पर कतर दे गए तो वो पार्टी से बाहर समाजवाद का ढोंग कर रहे हैं....फिर, यूपी में बचा क्या.....वरुण गांधी ! जिन्हें ख़ुद ही नहीं पता कि पार्टी के हित में कहां तक जाना उचित रहेगा....
राजनाथ सिंह की बेबसी पर तरस आता है....डमी अध्यक्ष की तरह लगते हैं....अटल जी की तरह पॉज ले-लेकर बोलते हैं, मगर सुनता कौन है.....पूरी पार्टी असमंजस में है.....

चुटकी हो जाए....
राजनीति की बहुत ज़्यादा समझ नहीं है.....दसवीं क्लास में एक ख़ास दोस्त की बात याद है....समय बरबाद करने का सबसे आसान तरीका है कि आप भारतीय राजनीति पर बातचीत शुरु कर दें......कोई नतीजा नहीं निकलने वाला, चाहे जितना सर खपा लें.....अरुण जेटली भी शायद ये समझ चुके हैं....ठीक किया, मन बदलेगा तो कहीं किस्मत भी बदल जाए.....खूब क्रिकेट देखिए....सूट-बूट में तो रहते ही हैं.....कहीं एकाध विज्ञापन ही मिल जाएं तुक्के में....विज्ञापन वाला पूछे,
‘क्यों जेटली जी, आजकल तो खाली-खाली ही हैं....आइए ना, एक ऐड कर लीजिए.....’
‘किस चीज़ का ऐड है भाई ’
‘ठंडे तेल का विज्ञापन करना है , ख़ास आपके लिए...आपको ज़रुरत भी है आजकल ’
‘उड़ा लो बेटा, मज़ाक उड़ा लो....क्या फर्क पड़ता है...वैसे साइनिंग अमाउंट कितना है’
‘सर, इससे क्या फर्क पड़ता है....’
‘हां, फर्क तो नहीं पड़ता.....आजकल और कुछ करने को तो है भी नहीं....विपक्ष में बैठने में रखा भी क्या है.....मुझे कुछ कहने की ज़रुरत ही नहीं पड़ने वाली....हमारी पार्टी में बोलने वालों की कमी है क्या ’
‘सो तो है, 29 साल के बच्चे भी बोलते हैं तो अच्छे-अच्छों की बोलती बंद कर देते हैं....सर, हम आपको इस तेल का ब्रांड एंबेसडर बनाना चाहते हैं....मुझे लगता है कि आपकी पार्टी से हमें बहुत फायदा होने वाला है...वैसे भी आपकी पार्टी में सब तेल लगाने में माहिर हैं.....’
‘मुझे बार-बार लग रहा है कि आप मेरा मज़ाक उड़ा रहे हैं....’
‘नहीं सर, मैं ऐसा कैसे कर सकता हूं (जनता ने तो आपका जो मज़ाक उड़ाया है, उसके आगे मैं.....)’
‘ठीक है, ठीक है....मैं यहां मैच का मज़ा लेने आया हूं....मुझे मैच देखने दो..’
‘सॉरी सर, मैं चलता हूं.....’
‘अच्छा सुनो, वो साइनिंग अमाउंट स्विस बैंक वाले खाते में ही डलवाना....भारत में आजकल बड़े ख़तरे हैं......’

निखिल आनंद गिरि

Sunday, June 14, 2009

गोदाम अनाज से फिर हुए लबालब

अनेक वर्षों के बाद अब फिर सरकारी गोदाम अनाज यानी गेहूं और चावल के स्टाक से लबालब हो चुके हैं और इसका कारण सरकारी एजेंसियों द्वारा दोनों ही अनाजों की रिकार्ड खरीद किया जाना है। इस वर्ष गेहूं और चावल की रिकार्ड खरीद की गई है।

उल्लेखनीय है कि चार वर्ष पूर्व देश में गेहूं की कमी हो गई थी, आवश्यकता को पूरा करने के लिए आयात का सहारा लेना पड़ा था। अनेक वर्षो के बाद गेहूँ का आयात किया गया था।

अदूरदर्शिता
वास्तव में सरकारी अनाज के भंडार के बारे में कोई दूरदर्शितापूर्ण नीति नहीं होने के कारण ही हमें आयात का सहारा लेना पड़ा था। हालांकि सरकार ने गेहूं व चावल के न्यूनतम बफर स्टाक की सीमा तय की हुई है लेकिन कुछ वर्ष उसका भी कोई लाभ नहीं मिला था और आयात करना ही पड़ा था।

वर्ष 2000 में भी एक बार ऐसी ही स्थिति आई थी जब देश में गेहूं और चावल की भरमार हो गई थी और इन्हें रखना एक समस्या बन गई थी। तत्कालीन सरकार ने उस समय स्टाक से निजात पाने के लिए निर्यात का सहारा लिया और निर्यात की पूरी छूट दे दी। देश में गेहूं व चावल के भाव ऊंचे थे और विदेशों में नीचे। निर्यातकों के लिए निर्यात को लाभकारी बनाने के लिए सरकार ने उन्हें रियायती दरों पर गेहूं और चावल की सप्लाई दी। सरकार ने निर्यातकों को उस समय घरेलू बाजार में प्रचलित भाव से भी नीचे पर चावल दिया। निर्यातकों ने सरकार की इस नीति का भरपूर लाभ उठावा और सरकारी गोदामों से जी भर कर अनाज उठाया। हालांकि बीच में यह चर्चा भी रही कि कुछ निर्यातक चावल को केवल कागजों पर ही निर्यात कर रहे थे और उसे घरेलू बाजार में ही बेच कर लाभ कमा रहे थे। सरकार ने इस ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। हालांकि सरकारी गोदामों में स्टाक काफी कम हो गया था लेकिन किन्हीं अज्ञात कारणों से निर्यात जारी रहा।

सरकारी नीति के कारण स्थिति यह गई कि एक अप्रैल 2006 को सरकारी गोदामों में केवल 20 लाख टन गेहूं का ही स्टाक रह गया जबकि बफर नार्म के अनुसार स्टाक 40 लाख टन होना चाहिए था।

आयात का सहारा
देश में गेहूं की कमी हुई और भाव बढ़ गए। इन्हें रोकने के लिए सरकार को आयात का सहारा लेना पड़ा। सरकार ने निर्यात सस्ते भाव पर किया और बाद में आयात महंगे भाव पर।
चावल के बारे में स्थिति बदतर होने से बच गई क्योंकि सरकार ने समय रहते निर्यात पर अंकुश लगा दिया था।

फिर रिकार्ड
अब सात वर्ष के बाद गेहूं और चावल की खरीद के फिर रिकार्ड बन गए हैं क्योंकि सरकार ने प्राईवेट सेक्टर पर शिकंजा कस दिया और वे बाजार से बाहर ही रहे और गेहूं व चावल की अधिकांश मात्रा सरकारी एजेंसियों को खरीदनी पड़ी।

खरीफ वर्ष 2008-09 (अक्टूबर-सितम्बर) में अब तक सरकारी एजेंसिया 300 लाख टन से अधिक चावल की खरीद कर चुकी हैं जबकि 2007-08 के पूरे वर्ष में कुल खरीद केवल 284.93 लाख टन ही थी।

इसी प्रकार रबी विपणन वर्ष 2009-10 (अप्रैल-मार्च) में अब तक 243 लाख टन गेहूं की खरीद की जा चुकी है जबकि गत पूरे वर्ष में 226.89 लाख टन की खरीद की गई थी।
इस प्रकार गेहूं व चावल दोनों ही रिकार्ड खरीद की जा चुकी है।

रिकार्ड खरीद के कारण एक मई को सरकारी गोदामों में 298.2 लाख टन गेहूं और 214 लाख टन चावल का स्टाक जमा हो चुका था। इससे पूर्व एक अप्रैल 2002 को सरकारी गोदामों में 260.39 लाख टन गेहूं और 249.12 लाख टन चावल का रिकार्ड स्टाक था।

सरकारी गोदामों में स्टाक रखना भी महंगा सौदा है। एक मोटे अनुमान के अनुसार सरकार को गोदामों में रखे स्टाक के भंडारण और रख-रखाव के लिए ही लगभग 36 रुपए प्रति टन प्रति माह खर्च करने पड़ते हैं। इसके अलावा पूंजी पर ब्याज, प्रशासनिक व्यय, अनाज का नष्ट होना अलग से है।

ठोस नीति
सरकार कोई ठोस नीति अपना कर अधिकता या कमी की स्थिति से बच सकती है। उदाहरण के लिए यदि सरकार इस वर्ष सीमित मात्रा में गैर-बासमती चावल के निर्यात की अनुमति दे देती तो निर्यातक बाजार में खरीद करते और सरकार पर बोझ कम होता। इसी प्रकार यदि सरकार गेहूं के न्यूनतम समर्थन मूल्यों में तीव्र वृद्वि करती और गत वर्ष खुले बाजार में भाव कुछ सुधरने देती तो इस वर्ष व्यापारी व स्टाकिस्ट मुनाफा कमाने के लिए इसकी खरीद करते और सरकार को कम मात्रा में गेहूं की खरीद करनी पड़ती।

--राजेश शर्मा

Thursday, June 11, 2009

व्यंग्य- हे मक्खन, तू जिंदाबाद !!

जनाब मुझसे मिलिए! मैं हूं अबस विभाग का छत्रपति साहब!घूमती कुर्सी पर बैठ सभी को अपने आगे-पीछे घुमानेवाला। यार-दोस्तों, सगे-संबंधियों की घर में लिस्ट बना सुबह दफ्तर आते ही दफ्तर के फोन से उन्हें फोन पर फोन कर चैन पाने वाला। हमेशा सभी को आदेश देने वाला! पर खुद काम के नाम पर तिनका भी न तोड़ने वाला। सभी को काम चोर कहने वाला। मैं हूं जनाब वह कर्मशील जो खुद मेज पर रखा पानी का गिलास उठा पाने में भी असहाय, भले ही मुझे कितनी भी प्यास क्यों न लगी हो। पीउन आएगा तो वही मेरी प्यास बुझाएगा। अपने हाथों से पानी पी लूं तो साहबी कलंकित हो जाए। मैं हूं वह, दफ्तर के चार-चार कर्मचारी जिसके घर में दिन-रात काम करें और जिनका वेतन दफ्तर से जाए।

बंधुओ, मैं हूं जनता की आँखों की किरकिरी,पर नेताओं की आंखों का तारा! दफ्तर का उजियारा! प्यारा सा, खाऊ सा साहब!पटाने में नंबर वन,पटने में जीरो! जितना खाया, सब पलक झपकते पचा लिया। खाने में मेरा कोई सानी नहीं,पचाने में मुझसा कोई ज्ञानी नहीं। जो मिलता है, भगवान का प्रसाद समझ खा लेता हूं, डकार लेता हुआ व्यवस्था के गुण गा लेता हूं। जनता खुदा कसम, मुझे बीवी से भी प्यारी लगती है। प्रेमिका से भी दुलारी लगती है।

पर देखिए न भाई साहब! पत्नी मुझे देर रात तक जनता की सेवा नहीं करने देती। पांच बजे नहीं कि फोन की घंटी पर घंटी बजानी शुरू कर देती है। डरती है कि मैं कहीं खाते हुए पकड़ा न जाऊं! श्रीमती जी, खाक पकड़ा जाऊंगा? यहां तो आजकल न खाने वाले पकड़े जा रहे हैं,धड़ा- धड़,धड़ा-धड़!

लो साहब, दस बज गए! अब देखिए आते ही पहले तो सारे अधीनस्थ मुझे मक्खन लगाएंगे, जब मैं मक्खन से मक्खनमय हो जाऊंगा तो चैन से अपनी-अपनी कुर्सी पर बैठ जनता की हजामत करने के लिए अपने-अपने उस्तरे पर धार लगाने लग जाएंगे। समाज में भेड़ों की कमी नहीं, भेड़िए भले ही कम हो जाएं तो हो जाएं। समाज में भेड़ें ही भेड़े, काली भेड़ें, सफेद भेड़ें।

सच कहूं, जबसे साहब हुआ हूं, मक्खन लगवाने की आदत सी हो गई है। अधीनस्थों के हाथों में चाहे मक्खन के नाम पर कोयला ही क्यों न हो। अपनी पत्नी की जबान की कोमलता तो उनकी मक्खनबाजी के आगे फीकी लगती ही है, प्रेमिका की चिहुक भी उनकी मक्खनबाजी के आगे कौवों सी कर्कश लगती है। अब आप से छुपाना क्या! अधीनस्थों की मक्खनबाजी मुझे शारीरिक और मानसिक दोनों स्तरों पर स्वस्थ बनाती है। किसी भी साहब को जब अधीनस्थ मक्खन लगाते हैं तो साहब की सूरत देखने लायक होती है। उसका चेहरा चैहदवीं का चांद हो जाता है। वह अपनी कुर्सी से चार फुट ऊंचा हो जाता है। बिन पंखों के गिद्धों के साथ आसमान में ऊंचे, बहुत ऊंचे उड़ता ही चला जाता है। अधीनस्थ जब मुझे मक्खन लगाते हुए बताते हैं कि इससे साहब का वजन बढ़ेगा तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहता। साहब वही जिसका वजन उसके पद से दस गुणा अधिक हो।

मक्खनबाजी के दौरान मैं और मक्खनबाज एक दूसरे से आंखों ही आंखों में जी भर कर बातें करते हैं। ऐसी-ऐसी बातें जो ऐसे कदापि भी संभव नहीं। सच कहूं, मक्खन लगाने के बाद मुझे जो आंनद मिलता है.. वाह ! इस आंनद को देख स्वर्ग में देवता भी जलते होंगे। सोचते होंगे, देवता क्यों हुए? साहब क्यों न हुए! मक्खन लगवाने के बाद ऐसी गहरी नींद आती है कि मत पूछो। और मैं तब बिना किसीकी परवाह किए मजे से टांगें दो कुर्सियों पर पसार रेड लाइट जला सो जाता हूं। मैंने अपने केबिन के दरवाजे पर असल में रेड लाइट लगवा ही इसीलिए रखी है। ग्रीन बल्व फ्यूज हो तो होता रहे,पर मैं रेड बल्व का हमेशा ध्यान रखता हूं।

काम तो मरने के बाद भी होते रहेंगे। पर मक्खन लगवाना फिर षायद ही मिले। फाइलें तो दूसरा जो आएगा वह भी डील कर लेगा। नेता जी की कृपा हुई तो रिटायर होने के बाद दो-चार साल और कुर्सी पर पदिया लेंगे, मक्खन लगवा लेंगे।

मक्खन लगवाने के बाद मेरे सोने का फायदा अधीनस्थों को भी होता है। वे भी बेचारे रही-सही परेशानी से बचे रहते हैं।

अधीनस्थों की लगातार मक्खनबाजी के कारण मुझे अपनी जबान भी गंदी नहीं करनी पड़ती। मुझे मक्खन लगा वे मेरे अहंकार को शांत रखते हैं। इन बेचारों के लिए जितना करूं कम होगा। भगवान किसीके अधीनस्थों को मोक्ष कभी न दें दें। धन्य हों, मक्खनबाजी में माहिर ये अधीनस्थ! भगवान ऐसे अधीनस्थ हर साहब को दें।

मेरे अधीनस्थ बहुत ईमानदार हैं। हर भेड़ मूंडने के बाद मेरे हिस्से की ऊन मुझे बिन याद दिलाए दे देते हैं। वे सब कुछ भूल सकते हैं पर मेरा हिस्सा नहीं। दिल से गालियां देते होंगे तो देते रहें। किसीके दिल में क्या है, ये तो भगवान भी नहीं जान पाए। पर मेरे सामने साहब चालीसे का ही गान करते रहते हैं।

मेरे खास भक्त मेरे सारे कपड़े खुलवा मेरे तन-मन पर वो मक्खन लगाते हैं ,वो मक्खन लगाते हैं कि....फीमेल अधीनस्थें जब मृगनयनी आंखें गोल-गोल घुमा मेरे मन पर मक्खनी कम चंदनी लेप लगाती हैं तो सच कहूं! भूल जाता हूं कि अग्नि को साक्षी मानकर किसीके साथ सात फेरे भी लिए हैं।

राम कसम! जिस दिन छुट्टी होती है, मरना हो जाता है। काष ! जब तक साहब पद पर रहूं, कोई छुट्टी न हो। हे भगवान! अगले जन्म में भी मुझे साहब ही बनाना प्लीज! नहीं तो तब तक मेरा पैदा होना रोके रखना जब तक साहब-योनि में पैदा होने की मेरी बारी न आए।

मक्खनबाजी में लंच टाइम तो लंच टाइम, पांच कैसे बज जाते हैं ,कमबख्त पता ही नहीं चलता। कुछ प्रोफेशनल मक्खनबाज तो पांच बजे भी मुझे मक्खन लगाने से नहीं हटते। और उनके चेहरे पर तनिक भी थकान नहीं होती। भगवान ऐसे मक्खनबाजों को मेरी भी उम्र दें। चूं भी करूं तो कहना।

मक्खनबाजों द्वारा लगाए मक्खन से मुझे कितना आनंद मिलता है आप क्या जानो! मैं बताता हूं। मक्खन लगवाने के बाद मुझे किसीसे भी शिकायत नहीं रहती, भगवान से भी नहीं। मेरे अहं से जनित सारी दर्दें एकदम छू हो जाती हैं।
इस व्यवस्था में हर साहब का संवैधानिक हक है कि अपने को इतना मक्खन लगवाए, इतना मक्खन लगवाए कि जब तक वह पुनः साहब की योनि को प्राप्त न हो तब तक उसे खुश्की न हो। और साहब की त्वचा को ऐसी शाश्वत नमी कुशल मक्खन नवीस ही दे सकते हैं।

साहबों को 99 प्रतिशत तनाव मक्खनबाजों की कमी से ही होता है। दफ्तर का काम तो मात्र 1 प्रतिशत तनाव भी नहीं देता। अधीनस्थों की मक्खनबाजी साहबों को 101 प्रतिषत तनाव मुक्त रखती है।

मैं ही नहीं, मक्खनबाजी के इस खेल में मक्खनबाज भी पूरा एन्ज्वाय करते हैं। अतः आप साहब हैं तो निसंकोच मक्खन लगवाइए और यदि अगर आप अधीनस्थ हैं तो बेझिझके मक्खन लगाइए। क्योंकि मक्खन लगवाना ही जिंदगी है, मक्खन लगाना ही बंदगी है।


अशोक गौतम
द्वारा- संतोष गौतम, निर्माण शाखा,
डॉ. वाय. एस. परमार विश्वविद्यालय, नौणी,सोलन-173230 हि.प्र.

Tuesday, June 09, 2009

थिएटर के पितामह को आखिरी सलाम

कल हिन्दी कवि जगत के व्यंग्य-सूर्य ओम प्रकाश आदित्य के साथ-साथ भारतीय रंगमंच के शीर्षस्थ नाम हबीब तनवीर का सूरज भी बुझ गया। कलाजगत के इतिहास में 8 जून 2009 की तिथि रंगमंच को अनाथ कर जाने के तौर पर भी याद की जायेगी। युवा पत्राकर आलोक सिंह साहिल और चर्चित कला-समीक्षक अजित राय हबीब तनवीर को याद कर रहे हैं॰॰॰॰॰


चित्र साभार- मयंक
जिस जिस को था ये इश्क का अजार
मर गए अकसर हमारे साथ के बीमार...


मशहूर नाटककार, डायरेक्टर, कवि और एक्टर हबीब तनवीर महज एक नाम नहीं वरन ऐसी दरख्त हैं जिनकी छांव से थिएटर की दुनिया में कदम रखने वाला हर शख्स खुद को महफूज महसूस करता रहा है। एक ऐसा अंबर जिसके तले कला के न जाने कितने ही सितारे रोशन हुए। पर आज ये इंदू (नक्षत्र) खुद कहीं विलीन हो गया है। यह कुछ वैसा ही जैसे रात होने पर सूरज नजर नहीं आता....तब जबकि चांद उसकी रोशनी में ही अपनी चमक पर इतराता रहता है। काल की घनेरी छाया ने उन्हें हमसे दूर कर दिया है, लेकिन थिएटर जगत हमेशा उनकी आभा से दैदीप्यमान रहेगा।

तनवीर जन्म और आरंभिक जीवन
आगरा बाजार और चरनदास चोर जैसे कालजयी नाटकों के रचनाकार तनवीर साहब (हबीब अहमद खान) का जन्म एक सितम्बर 1923 को छत्तीसगढ़ के रायपुर में हफीज अहमद खान के घर हुआ था, जो मूलत: पाकिस्तान के पेशावर से यहां आए थे।
जाना रंगमंच के शताब्दी पुरुष का
हबीब तनवीर के रंगकर्म में हमें भारतीय परंपरा, लोक और वैश्विक दृष्टि का जो समन्वय दिखाई देता है, वह विकासमान जन संस्कृति का वैकल्पिक मॉडल है। उन्होंने बार-बार कहा है कि रंगमंच का मूल उद्देश्य दर्शकों को आनंद प्रदान करना है। लेकिन उनके किसी नाट्य लेख का गैर-राजनीतिक पाठ संभव नहीं है। उनका अंतिम नाटक ‘राजरक्त’ (रवींद्र नाथ टैगोर) भी धर्म और सत्ता की टकराहटों में विकसित होता है। हबीब तनवीर को जीवन में कई सम्मान और पुरस्कार मिले। उनके नाटक ‘चरणदास चोर’ के लिए उन्हें विश्व के सबसे प्रतिष्ठित नाटक समारोह में ‘फ्रिज फस्र्ट’ अवार्ड एडिनबरा, इंग्लैंड में मिला। 1969 में उन्हें प्रतिष्ठित ‘संगीत नाटक अकादमी’ पुरस्कार भी मिला। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की पहल पर उन्हें राष्ट्रपति द्वारा राज्यसभा में मनोनीत किया गया। हबीब तनवीर ने हालांकि दिल्ली में 1948 से ही नाटक करना शुरू कर दिया था, लेकिन 1954 में प्रस्तुत ‘आगरा बाजार’ से उन्हें अभूतपूर्व ख्याति मिली। 1973 में उन्होंने छत्तीसगढ़ी आदिवासी कलाकारों के साथ प्रयोग करना शुरू किया। विजयदान देथा की कहानी पर आधारित ‘चरणदास चोर’ (1975) से उन्हें विश्व भर में ख्याति मिली। इसी साल जनवरी में 86 साल की उम्र में उन्होंने महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय, वर्धा में ‘चरणदास चोर’ का निर्देशन-मंचन किया था। इस नाटक में हवलदार के रूप में निभाई गई उनकी भूमिका सदा याद की जाएगी। उन्होंने भारत-पाक विभाजन पर आधारित असगर वजाहत के नाटक ‘जिस लाहौर नइ वेख्यां वो जम्यइ नइ’ का 1990 में श्रीराम सेंटर रंगमंडल के कलाकारों के साथ मंचन किया था। अस्पताल में भर्ती होने से पहले वह इसे दोबारा तैयार करने में लगे हुए थे। इस वर्ष इस नाटक के मंचन के बीस वर्ष पूरे हो रहे हैं। इस अवसर पर पूरे साल दुनिया भर में इस नाटक का उत्सव मनाया जाने वाला है।

रंगमंच से क्रांति नहीं हो सकती जैसा उद्घोष
यह एक संयोग ही था कि जब 1 सितंबर, 2002 को राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में हबीब तनवीर का 80वां जन्मदिन मनाया जा रहा था, तो ब. व. कारंथ के निधन की खबर ने सबको शोकाकुल कर दिया। कुछ साल पहले अपनी धर्मपत्नी मोनिका मिश्र के निधन पर वह भीतर से टूट गए थे। मिलने पर वह अकसर कहते कि उन्हें अपनी आत्मकथा पूरी करनी है। कुछ वर्ष पूर्व अपने दो नाटकों के कारण वह मध्य प्रदेश में हिंदू कट्टरपंथियों के हमलों का शिकार हुए थे। विचारों से वामपंथी होने के बावजूद वह बार-बार कहते थे कि रंगमंच से क्रांति नहीं हो सकती। रंगमंच को रंगमंच रहने दिया जाए।

जिम्मेदारी विरासत बढ़ाने की
हबीब तनवीर के जाने के बाद भारतीय रंगमंच ने अपना एक ‘आइकन’ खो दिया है। उन्होंने शहरी रंगमंच को छोड़कर ग्रामीण रंगमंच को चुनने का कठिन जोखिम उठाया। उन्होंने स्थानीयता को वैश्विक पहचान दी। उनकी फिदा बाई जैसी कई अभिनेत्रियाँ जीते जी किवदंती बन गर्इं। उनकी इकलौती बेटी नगीन तनवीर के सामने ‘नया थिएटर’ भी चलाने की जिम्मेदारी है। हालांकि नगीन हमेशा इस जिम्मेदारी से बचने की घोषणा करती रही हैं। हबीब साहब अकसर कहते थे कि किसी के जाने से कोई काल नहीं रुक सकता। उन्हें यकीन था कि कोई न कोई उनके काल को आगे बढ़ाएगा। जिस हिंदी रंगमंच को उन्होंने इतना दिया, आज उन पर हिंदी में एक भी ढंग की किताब का न होना दु:खद है। हिंदी समाज कब तक अपने नाटकों के मरने का इंतजार करता रहेगा। अभी हाल तक उनका कोई नाटक प्रकाशित नहीं था। अब जब वह हमारे बीच नहीं हैं तो हमें चाहिए कि हम उनकी महत्वपूर्ण विरासत को आगे बढ़ाएं। हमें नगीन तनवीर को दिलासा दिलाना चाहिए कि इस घड़ी में हम उनके साथ हैं।
--अजित राय
हाई स्कूल तक की पढ़ाई उन्होंने लौरी मुनिसिपल हाई स्कूल, रायपुर से की। फिर 1944 में नागपुर के मौरिस कॉलेज से बीए की पढ़ाई करने के बाद एमए करने वे अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी चले गए।
युवावस्था से ही उन्होंने कविताएं लिखना शुरू कर दिया और इस तरह हबीब अहमद खान अब अपने तखल्लुस तनवीर के साथ हबीब तनवीर बन गए।

रेडियो से हुई करियर की शुरूआत
एमए की पढ़ाई बीच में ही छोड़कर वे 1945 में बॉम्बे (आज की मुंबई) चले गए जहां वे ऑल इंडिया रेडियो से प्रोड्यूसर के रूप में जुड़ गए। साथ ही हिंदी फिल्मों के लिए गीत लिखना भी शुरू कर दिया। जल्द ही वे प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन से जुड़ गए। आगे चलकर वे इंडियन पीपल्स थिएटर एसोसिएशन(इप्टा) से जुड़े और उसी के होकर रह गए।

जिस समय वे इप्टा से जुड़े उस समय देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा आजादी की लड़ाई लड़ रहा था। उस समय मशहूर अभिनेता और थिएटर एक्टर बलराज साहनी साहब इप्टा की कमान संभाले हुए थे। दुर्भाग्यवश ब्रितानिया हुकूमत को रंगमंच के माध्यम से इन रंगकारों की जनक्रांति रास नहीं आई और उन्होंने बलराज साहनी समेत सभी प्रमुख लोगों को सलाखों के पीछे ढ़केल दिया गया था।

ये वह समय था जब हबीब तनवीर ने अभिनय का ककहरा सीखना ही शुरू किया था। लेकिन सभी बड़े लोगों (गुरुओं) के जेल चले जाने से वे बिल्कुल टूट से गए थे।

तन्हा संघर्ष
इतिहास जब बनना होता है तो अकसर कुछ छोटी घटनाएं कारक के रूप में सामने आ जाती हैं। कुछ ऐसा ही हुआ, तन्हा और कमजोर पड़ चुके तनवीर साहब जब जेल में बलराज साहब से मिलने पहुंचे तो बलराज साहब ने उनके कंधे पर पूरे इप्टा का भार डाल दिया। सच्चाई यह थी कि उन्हें उस वक्त न तो लिखना आता था और न ही सही से अभिनय करना, लेकिन गुरू की आज्ञा का पालन करते हुए तनवीर साहब ने जैसे-तैसे नाटक लिखना शुरू किया। वे पूरे समय कहानी लिखते, लोगों को इकट्ठा करते और उनसे नाटक करवाते। प्रॉम्टिंग से लगाए, गाना, मेकअप करना जैसे सारा काम वह खुद ही करते थे। समय के साथ-साथ उनकी कलम और अभिनय में धार आती गई और वे अभिनय के उस मकाम पर पहुंच गए...जहां उनके बाद कोई दूसरा पहुंचने की सोच भी न सका।

जब खाया थप्पड़
एक और घटना का उल्लेख मौजूं होगा। बात उस समय की है जब अभिनय का यह वटवृक्ष अभी पल्लवित हो रहा था। बलराज साहब एक नाटक का निर्देशन कर रहे थे, उस नाटक के एक दृश्य में तनवीर साहब को रोने की एक्टिंग करनी थी। लेकिन बार-बार कोशिश करने के बावजूद वे रो नहीं पा रहे थे। वास्तव में, उन्हें झिझक हो रही थी। कई बार प्रयास करने पर भी जब स्थिति जस की तस बनी रही तब बलराज साहब मंच पर चढ़े और एक जोरदार तमाचा उन्हें रसीद कर दिया, फिर क्या था तनवीर साहब ऐसे रोए कि खुद उनके गुरू भी अचंभित हो गए। इस तरह उनकी अभिनय यात्रा दिन-ब-दिन बढ़ती चली गई। वे हमेशा इस बात को मानते रहे कि बलराज साहब का थप्पड़ न खाते जाने कहां खाक छान रहे होते।

दिल्ली का रुख
इसी दौरान देश आजाद हो गया। आजादी के बाद सात सालों तक वे वहीं (बॉम्बे) अपने कला को मांझते रहे। इसके बाद 1954 में उन्होंने दिल्ली का रुख किया। यहां उन्होंने कद्सिया जैदी के हिंदुस्तानी थिएटर और चिल्ड्रेंस थिएटर के साथ अनेकों नाटकों में काम किया। इसी बीच उनकी जिंदगी में मोहतरमा मोनिका मिश्रा का आगमन हुआ जो बाद में उनकी पत्नी बनीं।

इसी साल यानी 1954 में उन्होंने अपना कालजयी नाटक आगरा बाजार तैयार किया। इसकी खास बात यह थी कि इसमें उन्होंने किसी ट्रेंड एक्टर को नहीं लिया था बल्कि लोकल नॉन ट्रेंड लोगों को लिया था। इस सफल अनुभव ने उन्हें इस कदर उत्साहित किया कि फिर वे छत्तीसगढ़ में ऐसे ही नॉन ट्रेंड लोगों के साथ मिलकर उन्हें संवारने में जुट गए।

हबीब तनवीर के नाटक

आगरा बाजार (1954)
शतरंज के मोगरे (1954)
लाला शोहरत राय (1954)
मिट्टी की गाड़ी (1958)
गांव के नांव ससुराल,
मोर नांव दामाद (1973)
चरनदास चोर (1975)
उत्तर रामचरित्र (1977)
बहादुर कलरीन (1978)
पोंगा पंडित
जिस लाहौर नई देख्या (1990)
कामदेव का अपना बसंत रितु का सपना (1993)
जहरीली हवा (2002)
राज रक्त (2006)
बर्लिन के आठ महीने
उनकी जिंदगी में एक घटना और घटी जिसने उनको थिएटर को रूट लेवल तक ले जाने में मदद किया। वह था उनका 1955 में इंग्लैंड जाना, जहां उन्होंने दो सालों तक अभिनय और निर्देशन का प्रशिक्षण लिया। इसी दौरान उन्हें बर्लिन में तकरीबन 8 महीने रहने का मौका मिला। इस दौरान उन्होंने वहां बहुत सारे नाटक देखे। सौभाग्यवश उन्हें यूरोप के प्रख्यात नाटककार बर्टोल्ट ब्रेच्ट के नाटको को भी देखने का मौका मिला। इसमें उन्होंने पाया कि वे लोकल मुहावरों और लोकोक्तियों का जमकर प्रयोग करते थे। इससे वे बहुत प्रभावित हुए। बाद में भारत लौटकर उन्होंने इसी चीज को अपने नाटकों में अपनाया। इन्हीं विशेषताओं ने उन्हें रूट लेवल तक अपनी पकड़ बनाने में मदद की।
नया थिएटर का जन्म 1958 में जब वे लौटकर भारत आए तो छत्तीसगढ़ी भाषा में अपना पहला महत्वपूर्ण नाटक मिट्टी की गाड़ी बनाई। इसकी सफलता ने आगे चलकर नया थिएटर के शुरुआत का मार्ग प्रशस्त किया। और 1959 में उन्होंने अपनी पत्नी मोनिका मिश्रा के साथ भोपाल में नया थिएटर की स्थापना की।

उनका रंगकर्म पूरे उफान पर था कि 1972 में में एक और बड़ी क्रांतिकारी घटना घटी। छत्तीसगढ़ की लोककथा पर उन्होंने गांव का नाम ससुराल, मोर नाम दामाद, का निर्माण किया, जिसने धमाल मचा दिया। इसने उनके नाट्य जीवन को एक अलग मुकाम और बुलंदी बख्शी।

चरनदास चोर ने गढ़ी थिएटर की नई परिभाषा
वक्त के साथ तनवीर साहब की सीमाएं बढ़ती जा रही थीं। उनकी ख्याति सरहद पार बहुत दूर तक पहुंचने लगी थी। जब भी थिएटर की बात आती तनवीर साहब को याद किया जाता। 1975 में वह समय आया जब उन्होंने मॉडर्न थिएटर की नई परिभाषा गढ़ते हुए चरनदास चोर रचा। इसकी सफलता का आलम यह रहा कि मशहूर निर्देशक श्याम बेनेगल ने इस नाटक को इसी नाम से स्मिता पाटिल जैसी अभिनेत्री के साथ बड़े पर्दे पर पेश किया।

थिएटर की दुनिया से इतर उन्होंने 9 फीचर फिल्मों में भी काम किया, जिसमें रिचर्ड एटनबर्ग की गांधी भी शामिल है।
हर सफल इंसान के साथ कुछ स्याह पहलू भी उनकी जिंदगी में वह दौर भी आया जब उनका नाटक पोंगा पंडित कट्टरपथियों के निशाने पर आया। अपनी दो किताबों को लेकर उनपर जानलेवा हमले भी हुए।
2005 में उनकी जिंदगी और नया थिएटर परे एक डाक्यूमेंटरी फिल्म गांव के नांव थिएटर, मोर नांव हबीब (मेरा गांव थिएटर है, मेरा नाम हबीब है) भी बनी।

आखिर के तन्हा दिन
अपनी पत्नी मोनिका से बेइंतहां मोहब्बत करने वाले हबीब तनवीर 2005 में उनकी मौत के बाद बिल्कुल तन्हा हो चले थे और टूट गए थे। उसके बाद भी अगर वह जिंदा थे तो इसकी वजह शायद उनकी रगों में दौड़ता रंगकर्म था, जो उन्हें तयशुदा मिशन को पूरा किए बगैर जाने की इजाजत नहीं देता।

उनके महत्वपूर्ण योगदान के लिए उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया।

--आलोक सिंह साहिल

हिंदी मंचों के कविसूर्य थे ओम प्रकाश आदित्य

कल हिन्दी कविता की मंचीय परम्परा को समृद्ध करने वाले वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि ओमप्रकाश आदित्य की एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई। हिन्दी काव्य जगत इस कवि के चले जाने के बाद शोकाकुल है। हिन्द-युग्म के कवि अरुण मित्तल अद्‍भुत कवि आदित्य के प्रति अपनी यह श्रद्धाँजलि अर्पित की है-


हिंदी मंचो के कविसूर्य श्रद्धेय श्री ओम प्रकाश 'आदित्य'


हिंदी काव्य मंचो पर यदि तीन शब्दों को जोड़ा जाए - कविता, हास्य और छंद, तो मात्र एक ही नाम जहन में आएगा और वो होगा श्री ओम प्रकाश 'आदित्य', सुकोमल चेहरा, अल्हड भाषा, उच्चारण में मिठास, शब्दों में सम्मोहन की शक्ति, क्या नहीं था उस महान साहित्य मनीषी के पास, आज गजल और गीत में संस्कार है, जीवन दर्शन है, छंद है परन्तु वो इस पीढी के एकमात्र ऐसे रचनाकार दिखे जिन्होंने इन सभी जरूरी भावों को हास्य की सहजता के साथ प्रस्तुत किया. सचमुच आदित्य दादा ने मंचो पर हास्य का एक ऐसा युग जिया, और एक ऐसा स्तर स्थापित किया जिसे आने वाले युग में किसी कवि द्बारा छू पाना सरल नहीं होगा. उनका कोई सानी नहीं था. मंच पर आते ही मधुर सी भूमिका, सरल और अल्हड शब्दों में कवियों का अभिवादन, छोटे बड़े सभी कवियों को प्यार और सम्मान उनका नियम था.

सादगी आदित्य दा की पोशाक थी. उन्होंने काव्य पाठ के लिए कभी चुटकुलों का सहारा नहीं लिया, कभी किसी पर फब्तियां नहीं कसी, कभी किसी का भूल से भी मजाक नहीं बनाया, मंचों के स्तरहीन टोटकों से हमेशा परे रहकर अपनी बात कहने का अद्भुत हुनर हर किसी को उनका दीवाना बना देता था.
आदित्य जी घनाक्षरी छंदों से काव्यपाठ की शुरुआत करते थे दो चार छंद और एक दो प्रतिनिधि कवितायेँ और बीच बीच में उनके संस्मरण जो वास्तव में प्रेरणा दायक होते थे, मैं हरदम कहता हूँ की "हास्य में कविता" और वो भी 'छंद' के साथ, मुझे बहुत ज्यादा नाम नहीं सूझते 'गोपाल प्रसाद व्यास, काका हाथरसी और फिर घूम फिरकर आदित्य दा. उनके छंद पढने का अंदाज़ निराला था. हर शब्द को चबा चबा कर बोलना और साहित्यिक शैली में हास्य की बात घनाक्षरी छंदों में लिखना एक छोटा सा उदहारण है


"अबके चुनाव की लहर ने कहर ढाया, नदियों के साथ कैसे कैसे नाले बह गए
उल्लुओं को अम्बुआ की डाल पर देख कर, हौसले बसंत के अनंत तक ढह गए
भारत में कभी गंगू तेलियों का राज होगा, जाते जाते राजा भोज मंत्रियों से कह गए
चाँद से चरित्र वाले नेता सब चले गए, नेताओं के नाम पर ये कलंक रह गए


उनकी उपमाएं और उपमान अद्वितीय थे. उन्होंने हर प्रकार का हास्य लिखा, छोटी बहर के छन्दों में भी, घनाक्षरी तो उनका प्रिय छंद रहा ही, आल्हा छंद में पूरी राजनीति का चरित्र बांधकर जब वो सुनाते थे तो श्रोता झूम उठते थे, एक उदहारण है

सुमरण कर के मंत्रिपद का, भ्रष्टाचार का ध्यान लगाय
करुँ वंदना उस कुर्सी की, जिस पे सबका मन ललचाय
बिन बिजली के कैसा बादल, बिन पूँजी क्या साहूकार

बिन बन्दूक करे क्या गोली, बिना मूठ कैसी तलवार

बिना डंक बिच्छु क्या मारे, फन बिन सांप डसे क्या जाय,
रूप बिना वेश्या क्या पावै, घूस बिना अफसर क्या खाय

बिन जल के मछली ना जीवे, बिन जंगल न जिए सियार
बिन कुर्सी मंत्री न जीवे, जो जीवे उसको धिक्कार


इसी आल्हा में हर्षद मेहता काण्ड के कारण हुए विवाद पर लिखा-

"कुर्सी छोडो, कुर्सी छोडो गूँज उठा संसद में नाद,
दिल्ली में नरसिम्हा रोये, आँसू गिरे हैदराबाद


उन्होंने हास्य के हर पहलू को जिया, एक छंद की अंतिम पंक्ति है :

पिछले चुनावों से वो मेरा गधा लापता है,
ढूँढने आया हूँ उसे संसद भवन में


एक और कविता में उन्होंने बहुत अच्छा हास्य और व्यंग पिरोया है, जो पिछले दिनों काफी चर्चित रही :

इधर भी गधे हैं, उधर भी गधे हैं
जिधर देखता हूँ गधे ही गधे हैं
......
घोडों को मिलती नहीं घास देखो
गधे खा रहे हैं च्वयनप्राश देखो


आदित्य जी के साहित्य के बारे में जितना लिखो कम है उन्होंने एक ऐसा प्रयोग भी किया जो सचमुच उनके साहित्य के प्रति समर्पण और अपने साथी और अग्रज कवियों के प्रति सम्मान को दिखता है. इतना ही नहीं उस प्रयोग से उनकी साहित्यिक प्रतिभा के विस्तार का भी सहज ही अनुमान हो जाता है. उन्होंने एक ऐसी कविता लिखी कि एक विशेष स्थिति पर यदि १०-१२ हिंदी के प्रसिद्द कवियों को लिखने के लिए कहा जाता तो वो कैसा लिखते. स्थिति थी की एक लड़की अपने घर वालों से लड़कर छत पर बैठी है और कूदकर मरना चाहती है, हालांकि इस कविता में काफी कवियों की शैली में उन्होंने लिखा है परन्तु मैं दो उदाहरण जो सचमुच विचित्र ही नहीं बल्कि विधा में भी विपरीत से ही लगते हैं प्रस्तुत कर रहा हूँ

सुमित्रा नंदन पन्त जी की शैली में :


स्वर्ण शोध के रजत शिखर पर
चिर नूतन चिर सुन्दर प्रतिपल
उन्मन उन्मन अपलक नीरव
शशि मुख पर कोमल कुंतल पट
कसमस कसमस चिर यौवन घट
पल पल प्रतिपल, छल छल करती निर्मल दृगजल
ज्यों निर्झर के दो नील कवँल
ये रूप चपल ज्यों धुप धवल
अति मौन कौन, रूपसी बोलो
प्रिय बोलो न


काका हाथरसी जी की शैली में

गौरी बैठी छत पर, कूदन को तैयार
नीचे पक्का फर्श है, भली करै करतार
भली करै करतां, न दे दे कोई धक्का
ऊपर मोटी नार के नीचे पतरे कक्का
कह काका कविराय, अरी मत आगे बढ़ना
उधर कूदना, मेरे ऊपर मत गिर पड़ना



और न जाने कितनी ही कवितायेँ मेरे मन में रम, रच बस गयी हैं, विद्यार्थी की प्रार्थना, दुल्हे की घोडी, संपादक पर कविता, बूढा, आधुनिक शादी, नोट की आरती आदि आदि ..... आदित्य जी ने देश के स्वाभिमान की बात जहाँ भी आई वहाँ वहाँ खुलकर बोला, अंग्रेजी के प्रसिद्द लेखक और पत्रकार खुशवंत सिंह द्बारा हिंदी भाषा पर की गयी अपमानजनक टिप्पणी पर उन्होंने "ओ खुशवन्ता" नाम से कविता लिखी जिसे मंचो पर काफी स्नेह मिला...

कविता की प्रारंभिक पंक्तियाँ थी


ओ खुशवन्ता
भारत में चरता विचरंता
अंग्रेजी की बात करंता
हिंदी दिए दरिद्र दिखंता
क्यों लन्दन जा नहीं बसंता


केवल हास्य ही नहीं जहाँ कही भी उन्हें लगा की रस परिवर्तन की जरूरत है, उन्होंने वो भी किया उनकी कविता "सैनिक की पत्नी का पत्र" इस बात का प्रमाण है जिसमे एक छंद में उन्होंने लिखा:

"आप सीमा पर गए चिंता इसकी नहीं है
दुःख यही है की प्राण मैं भी कुछ धारती
मुझे एक बन्दूक थमा के चले जाते
चुन चुन कर यहाँ देश द्रोहियों को मारती
आप क्रुद्ध होके वहां सीमा पर युद्ध करें
पूजा पाठ में समय मैं यहाँ गुजारती
मात्रि भूमि मंदिर में वन्दे मातरम गाके
विजयी तिरंगे की उतारती हूँ आरती


मैंने उनको बचपन से सुना है, पढ़ा है और मनन भी किया है, मेरे पापा श्री महावीर प्रसाद मित्तल न केवल कविताओं के शौकीन रहे बल्कि उन्होंने मुझे आदित्य जी की कई कवितायेँ सुनाई भी और याद भी करवा दी, आदित्य जी की पहली कविता जो मुझे याद हुई वो चुनावी परिप्रेक्ष्य में थी जिसमे प्रधानमंत्री की कुर्सी की पीडा का वर्णन था.

देखो पी एम् की कुर्सी बिचारी बताओ मैं किसको वरूं
न मैं ब्याही रही न कुवांरी बताओ मैं किसको वरूं


और अनेक कवितायेँ और अनेक रूप हैं आदित्य जी के साहित्य सृजन के, जीवन की सरलता के सम्बन्ध में उनका एक सार्थक छंद, भाई चिराग जैन जी के ब्लॉग से उठाकर परोस रहा हूँ,

दाल-रोटी दी तो दाल-रोटी खा के सो गया मैं
आँसू दिये तूने आँसू पिए जा रहा हूँ मैं
दुख दिए तूने मैंने कभी न शिक़ायत की
जब सुख दिए सुख लिए जा रहा हूँ मैं
पतित हूँ मैं तो तू भी तो पतित पावन है
जो तू करा ता है वही किए जा रहा हूँ मैं
मृत्यु का बुलावा जब भेजेगा तो आ जाउंगा
तूने कहा जिए जा तो जिए जा रहा हूँ मैं


सचमुच "दुल्हे की घोडी", एक विशुध्ध हास्य कविता में "जीवन दर्शन" की इतनी सार गर्भित पंक्तियाँ सुनकर उन्हें नमन करने पर विवश हो गया: (घोडी भाग रही है और दूल्हा पीठ से चिपका हुआ है, घोडी के भागने की गति पर)

घोडी चलचित्र सी
युग के चरित्र सी
कुल के कुपात्र सी
आवारा छात्र से
पथ भ्रष्ट योगी सी
कामातुर भोगी सी
उच्छल तरंग सी
अतुकांत कविता सी
और छंद भंग सी

दौडी चली जा रही थी ...........


१५ नवम्बर, २००७ को दस्तक नयी पीढी नाम से एक काव्य संध्या का आयोजन हुआ जिसमे १५ युवा कवियों ने काव्य पाठ किया, जिनमे एक मैं भी था, सञ्चालन भाई चिराग जैन ने किया, आदित्य दादा, अल्हड बीकानेरी जी और डॉ कुंवर बेचैन जी उसमे विशेष रूप से युवा कवियों में संभावनाएं तलाशने के लिए उपस्थित थे, पूरे कवि सम्मलेन में न केवल उन्होंने हर कवि को मन से सुना बल्कि अंत में आदित्य जी ने सबकी प्रतिभा की सराहना भी की और लगभग हर कवि से सम्बंधित बात करते हुए आशीर्वचन भी कहे.... ये प्रमाण था उनके साहित्य के प्रति समर्पण का, वो चाहते थे की मंच पर अच्छे स्तर की कविता हो और उसी की तलाश में उन्होंने हर नौसीखिए कवि के एक एक शब्द को सुना.

यह तय है की आदित्य जी की रचना धर्मिता को शब्दों में नहीं बाँधा जा सकता, वो एक ऐसा व्यक्तित्व था जो हमेशा हमेशा के लिए अपनी कविताओं से हमारे दिल में बस गया. उनका कवि परवार से अकस्मात चले जाना एक अपूर्णीय क्षति है, आदित्य जी आज भी कहीं आँखों में तस्वीर बनकर बसे हैं सीरी फोर्ट ऑडिटोरियम दिल्ली में, काव्य पाठ करते कवि ओमप्रकाश आदित्य, हिंदी भवन में "दस्तक नयी पीढी की' कार्यक्रम में श्री जगदीश मित्तल जी के जन्मदिवस पर युवा कवियों को आर्शीवाद देते पितामह कवि आदित्य जी. हर समय उतने ही सरल, सौम्य, और सचमुच के बड़े कवि. कौन कहता है की वो चले गए ......... साहित्यकार कभी नहीं मरते, अमर होते हैं .... आदित्य दादा आज भी हम सब के दिलों में हैं, हर मंच पर आज भी उनकी अमिट छाप है, हमारी जुबान पर आज भी उनकी कवितायेँ हैं, वो हम सब में बसे हैं ........ समस्त हिंदी साहित्य उनके ईमानदार साहित्य सृजन का ऋणि रहेगा

Monday, June 08, 2009

कपास की खपत में होगा सुधार लेकिन भाव कम

काफी समय तक वैश्विक मंदे का असर चलने के बाद कपड़ा उद्योग में गतिविधियां तेज हो गई हैं। और आने वालों में महीनों में खपत और बढ़ेगी। साथ ही भारत और पाकिस्तान में आगामी वर्ष कपास की खपत में भी बढ़ोतरी होगी।
इसका असर विश्व बाजार में कपास के सप्लाई, मांग और खपत के साथ ही भाव पर भी पड़ेगा।
आगामी सितत्बर को समाप्त हो रहे वर्ष के दौरान भारत में कपास की खपत अिध्क होगी। आगामी वर्ष भी भारत में कपास की खपत में बढ़ोतरी के अनुमान लगाए जा रहे हैं। यही नहीं, पड़ोसी देश पाकिस्तान में भी कपास की खपत में बढ़ोतरी का अनुमान है।

उल्लेखनीय है कि गत वर्ष की अंतिम तिमाही तक विश्व में कपास की खपत में कमी आ रही थी।
आगामी वर्ष भारत में कपास का उत्पादन बढ़ कर 325 लाख गांठ हो जाने का अनुमान है जबकि इस वर्ष उत्पादन घट कर 290 लाख गांठ रह गया था।

विश्व
रिपोर्ट के अनुसार आगामी वर्ष विश्व में कपास की खपत 232.6 लाख टन होने का अनुमान है जबकि गत माह इसने 230.9 लाख टन का अनुमान लगाया था। इस वर्ष का अनुमान 227.4 लाख टन का है।
दूसरी ओर, विश्व में कपास का उत्पादन 231.3 लाख टन होने का अनुमान है जबकि गत वर्ष उत्पादन 233.5 लाख टन हुआ था। इसका कारण अनेक देशों में किसानो द्वारा कपास के स्थान पर अन्य फसलों की खेती किया जाना है।

भाव
विश्व में लगातार तीसरे वर्ष कपास के भाव में गिरावट आएगी। वर्ष 2009-10 में कपास का उत्पादन एक प्रतिशत घट कर 234 लाख टन होने का अनुमान है क्योंकि चीन, ब्राजील, तुकीZ, पश्चिमी अफ्रीका और उज्बेकिस्तान में उत्पादन कम होने की आशंका है। दूसरी ओर, भारत में कपास के उत्पादन में भारी बढ़ोतरी का अनुमान है। अमेरिका मे भी कपास के उत्पादन में कुछ अधिक होने का अनुमान है।

विश्व में मिलों में की खपत 2 प्रतिशत बढ़ कर 233 लाख टन हो जाने का अनुमान है। इसके अनुसार चीन, भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश, वियतनाम आदि देशों में खपत में वृद्वि का अनुमान है। अमेरिका में आगामी वर्ष भी कपास की खपत में कमी आने का अनुमान है। एशिया के कुछ छोटे देशोें और यूरोप में भी कपास की खपत में कमी की आशंका है।

स्पिनिंग मिलों की मांग कमजोर होने के कारण विश्व में कपास के भाव गत वर्ष की तुलना में लगभग 25 प्रतिशत नीचे चल रहे हैं। आगामी वर्ष भी भाव में कमी आने की आशंका है। कपास का वैश्विक स्टाक बढ़ने का अनुमान है। वर्ष 2009-10 में कॉटलुक इंडैक्स इस वर्ष के स्तर 60 सेंट से घट कर 54 सेंट प्रति पौंड पर आ सकता है।
वर्ष 2009-10 कें अंत में विश्व में कपास का स्टाक बढ़ कर 132 लाख टन तक जा सकता है।

कारोबार
विश्व में कपास का कारोबार 8 प्रतिशत बढ़ कर 65 लाख टन होने का अनुमान है। चीनी सरकार द्वारा रिर्जव स्टाक से कपास बेचे जाने की नीति के कारण उसके आयात में 14.5 लाख टन पर मामूली वृद्वि का अनुमान है।
भारत से कपास के निर्यात में बढ़ोतरी होगी। अनुमान है कि भारत से निर्यात लगभग तीन गुणा बढ़ कर 11 लाख टन हो जाएगा। दूसरी ओर, अमेरिका से आयात का निर्यात लगभग 11 प्रतिशत घट कर 23 लाख टन रह जाने का अनुमान है।

--राजेश शर्मा

Saturday, June 06, 2009

नदियों के प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिये व्यापक नीतिगत परिवर्तन की ज़रूरत

आज विश्व पर्यावरण दिवस है। हम हैं तो हमारा पर्यावरण है, हमारा पर्यावरण है तो हम हैं। हमारा पर्यावरण अगर सेहतमंद नहीं हैं तो हम अपने स्वास्थ्य के प्रति निश्चिंत नहीं हो सकते। भारत की बहुत सी नदियों पर जलप्रदूषण-संकट के बादल मंडरा रहे हैं। हालाँकि बहुत सी योजनाएँ और सरकारी प्रयास नदियों के प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिये किये जा रहे हैं। फिर भी पर्यावरण विशेषज्ञ गोपाल कृष्ण इसे पर्याप्त नहीं मानते और नदियों के प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए व्यापक नीतिगत परिवर्तन की वक़ालत करते हैं। युवा पत्रकार रेशमा भारती ने उनसे बात की, प्रस्तुत है उसके कुछ अंश-

रेशमा- भारत में प्रदूषण स्तर को कम करने के लिये हो रहे वर्तमान प्रयास अपर्याप्त क्यों हैं?

गोपाल कृष्ण- जल की गुणवत्ता, मात्रा और भूमि का उपयोग आपस में संबन्धित विषय हैं। इसे हम संग्रहण क्षेत्र से अलग करके नहीं सुलझा सकते, जिसे ब्रिटिश साम्राज्यकाल से ही अलग-अलग कर दिया गया था। नदी के संग्रहण क्षेत्र आधारित औद्योगिकीय कदम कोई यथार्थ विकल्प नहीं है। हमारी लचर कानून व्यवस्था से जुड़ी कुछ समस्याओं और हमारे सीवेज प्लाँट की कमियों की ओर पहले ही ध्यान दिया जा चुका है। लेकिन औद्योगिकीकरण और शहरणीकरण के वर्तमान स्वरूप के कारण नदियों की बिगड़ती हालत की ओर अभी भी लोगों का ध्यान नहीं गया है। अगर हम सही मायनों में नदियों के प्रदूषण को कम करने में सफल होना चाहते हैं तो या तो हमें नियमों में व्यापक परिवर्तन करने होंगे या संपूर्ण नीति में ही बदलाव करना होगा।
दूसरा कारण यह भी है कि जो प्रदूषण के लिये जिम्मेदार हैं विशेषतरूप से वह समुदाय नदियों के किनारे निवास करते हैं और जो इसे कम करने में योगदान दे सकते हैं, दोनो में शक्ति संतुलन चाहिये। लेकिन ये शक्ति संतुलन वर्तमान में प्रदूषणकर्ता का पक्षपाती है। वर्तमान प्रणाली प्रदूषण फैलाने वालों के पक्ष में और विरोध करने वालों के विपक्ष में है। इसमें बदलाव होना चाहिये। और जो समुदाय प्रदूषण को बचाने के काम में संलग्न हैं, उन्हें इतने अधिकार मिलने चाहिये कि वो प्रदूषणकर्ताओं के सामने डटकर खड़े हो सकें। और जो समुदाय पर्यावरण की सुरक्षा में रत हैं उनके काम को महत्व मिलना चाहिये।

रेश्मा- क्योंकि नदियों को बहुत से लोग पवित्र मानते हैं तो क्या जनसाधारण को प्रदूषण समाप्त करने के लिए लामबंद किया जा सकता है?

गोपाल कृष्ण- हाँ, कुछ उदाहरण हैं जो लोगों के सम्मिलित प्रयास की क्षमता को बताते हैं। पंजाब में बाबा बलबीर सिह सीँचेवाल ने एक पवित्र नदी काली बेन जोकि 160 किमी लम्बी है। यह नदी छः कस्बों और चालीस गाँवों के लिये गंदा नाला बन चुकी थी। उसे सींचेवाल ने लोगों के सहयोग से साफ किया। ये बहुत रोचक बात है कि उन्होंने उनको चुनौती दी जिन्होंने उनका प्रतिरोध किया और कहा कि आप कोई ऐसा कानून दिखाओ जो पानी को प्रदूषित करने की अनुमति देता हो।

पवित्र नदियों पर व्यापक तर्क-वितर्क होने चाहिये। सभी नदियों के पानी के स्रोत और उनके आस पास की ज़मीन पवित्र है। हम गंगा जैसी केवल एक या दो नदियों पर ही खुद को केंद्रित नहीं कर सकते। भारत जैसे बहुसांस्कृतिक और बड़े देश में अलग-अलग स्थानों के लोगों लिए अलग-अलग नदियाँ पवित्र हैं। इसलिये नदियों में प्रदूषण को बचाने के लिये हमारी चिन्ता देश की सभी नदियों के लिये लोगों की सहभागिता सुनिश्चित करने के लिये होनी चाहिये। अगर कोई जबरन हमारे घर में घुसता है तो वो सीमा अतिक्रमण का अपराधी माना जाता है। औद्योगिक प्रदूषण हमारी रक्त वाहनियों में घुस कर स्वास्थ्य संकट पैदा कर रहा है।

राजनैतिक दल जिन्हें उद्योगपति ही फंड (धन) देते हैं, वे केवल लोगों को भावनात्मक और मौखिक आश्वासन ही देते हैं और ऐसे नीति परिवर्तन से मुँह चुराते हैं, जो नदियों के संरक्षण के लिये जरूरी हैं। सरकार चुनाव लड़ने और जनसाधारण को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए जब तक पार्टियों को धन मुहैया नहीं कराती है, तब तक नदियों की जल-गुणवत्ता, जल-उपलब्धता और भूस्वास्थ्य को सुनिश्चित कर पाना मुश्किल होगा।

रेशमा- नदियों के संरक्षण के लिये कौन से व्यापक नीति परिवर्तनों की आवश्यकता है?

गोपाल कृष्ण- नदियों का संरक्षण हमारी शहरीकरण, उद्योग, जल, भूमि, कृषि और ऊर्जा नीतियों का अभिन्न अंग होना चाहिये। नदि-घाटी के लगातार क्षरण के विपरीत परिणामों की दृष्टि में, प्राकृतिक संसाधन आधारित अंतरपीढ़ी समानता को सुनिश्चित करने के लिए मौज़ूदा नीतियों में उलट देने के अटूट तर्क हैं। तभी हम यह सुनश्चित कर पायेंगे कि नदियों का उनके सामर्थ्य से अधिक दोहन न हो। हमें इस भ्रम में भी नहीं रहना चाहिये कि प्रदूषण चाहे किसी भी स्तर तक चला जाये, हम ट्रीटमेन्ट प्लाँट लगाकर नदियों को सुरक्षित कर लेंगे। नीतियों की जटिलता, जो ये निर्धारण करती हैं कि कितना पानी नदियों में रखना है, कितने खतरनाक रसायन नदियों मे छोडे जा रहे हैं, सीवेज और औद्योगिक प्रदूषण की कितनी अधिकता होगी, ये सभी बहुत महत्वपूर्ण है। इन सभी समस्यायों के समाधान के लिए हमारे प्राकृतिक संसाधनों के नियंत्रण की नीतियों में आमूल-चूल परिवर्तन लाने की आवश्यकता है।

(यह साक्षात्कार मूल रूप से अंग्रेजी भाषा में किया गया है, जिसे हिन्दी में अनूदित करने का काम निर्मला कपिला ने किया है)