अनिरुद्ध शर्मा यूं तो इंजीनियर हैं मगर फिल्मों का शौक इतना है कि हर रोज़ नहाने-खाने की तरह फिल्म देखना ज़रूरी मानते हैं.....अनिरुद्ध ने बैठक पर हर शुक्रवार को किसी एक फिल्म के बारे में अपनी राय लेकर हाज़िर होने का वायदा किया है....(ज़रूरी नहीं कि शुक्रवार को ये वायदा सिर्फ अनिरुद्ध ही पूरा करें...आप भी ये मोर्चा संभाल सकते हैं..) इस नई सीरीज़ की बोहनी करते है सत्यजीत रे की 'शतरंज के खिलाड़ी' से....
महान जापानी फिल्मकार अकीरो कुरुसावा ने कभी कहा था - "सत्यजीत रॉय का सिनेमा नहीं देखा होना ऐसा है जैसे दुनिया में रहते हुए कभी चाँद और सूरज ना देखा हो"
एक अरसे से मैं इस तलाश में था कि ये फिल्म देखने को मिल जाए कहीं और आखिर मुझे मिल ही गई | सत्यजीत राय का निर्देशन, मुंशी प्रेमचंद की कहानी और संजीव कुमार का अभिनय, ये एक बहुत ही दुर्लभ संयोग है और मैं अपने को खुशनसीब मानता हूँ कि मैंने ये फिल्म देखी |
फिल्म की कहानी दो दोस्तों के इर्द-गिर्द घूमती है मिर्जा साजिद अली (संजीव कुमार) और मीर रोशन अली(सईद जाफरी), जो शतरंज के बेहद शौकीन हैं, इस हद तक कि उन्हें ना दुनिया कि कोई खबर होती है ना ही अपने घर की | चूंकि पुरखे काफी दौलत छोड़ गए हैं इसलिए इन्हें कोई काम करने की ज़रुरत नहीं होती | सुबह होते ही दोनों हजरात शतरंज लेकर बैठ जाते हैं और देर रात तक उसी में डूबे रहते हैं |
फिल्म की प्रष्ठभूमि सन १८५६ की है जब नवाब वाजिद अली शाह अवध के बादशाह थे | बादशाह को राजकाज चलाने के अलावा बाकी सभी कामों में रूचि है जिससे राज्य में अव्यवस्था फ़ैली हुई है | वाजिद अली कभी बादशाह बनना नहीं चाहते थे लेकिन विरासत के चलते उन्हें ताज दे दिया गया, ठीक वैसे ही जैसे आजकल ज़्यादातर लोग "caught in wrong job" की तरह काम करते हैं, करना कुछ चाहते हैं और करना कुछ पड़ता है | तो एक तरफ दोनों दोस्त अपने घर में शतरंज की चालें चलते हैं, दूसरी तरफ अंग्रेज राजनीति की बिसात पर अपनी चालें चल रहे हैं और अवध पर कब्जा करने की फिराक में हैं | नवाब वाजिद अली की अयोग्यता का बहाना करके अंग्रेज उसे गद्दी से उतारने का नोटिस दे देते हैं | ये असल में वो समय था जब अंग्रेज भारत में सत्ता हथियाने में लगे हुए थे |
फिल्म में उस समय और परिस्थितियों को बहुत ही बारीकी से दिखाया गया है, वो भी बहुत थोड़े से घटनाक्रम के ज़रिये | एक तरफ लड़ाई छिड़ने के आसार हैं तो दूसरी तरफ दोनों दोस्त इन सब चीज़ों से बेखबर शतरंज में मसरूफ रहते हैं | मिर्जा साहब की बीवी किसी तरह उनका इस खेल से पीछा छुड़वाने की कोशिश में रहती हैं | रोज़ रात वो मिर्जा का इंतज़ार करती हैं लेकिन मिर्जा कि सोहबत उन्हें नसीब नहीं हो पाती, ना जिस्मानी, ना रूहानी | इसी को लेकर वो दुखी रहा करती है | दूसरी तरफ मीर साहब की बीवी का अपने भांजे के साथ रिश्ता होता है जिसकी वजह से वो चाहती है कि मीर साहब को शतरंज से कभी फुर्सत ना मिले |
जब अंग्रेज फौज लखनऊ पर हमला कर देती है तो दोनों दोस्त लड़ाई में बुला लिए जाने से डर कर घर से दूर भाग जाते हैं और एक सुनसान सी जगह पर फिर खेलने लगते हैं |
फिल्म में अमिताभ बच्चन ने सूत्रधार के रूप में अपनी आवाज़ दी है | संजीव कुमार और सईद जाफरी के अलावा अमज़द खान वाजिद अली के किरदार में हैं | शबाना आज़मी मिर्जा की बेगम हैं और फरीदा जलाल मीर साहब की | फारूख शेख का बहुत छोटा सा किरदार मीर साहब की बेगम के प्रेमी के रूप में है |
संजीव कुमार के अभिनय पर टिप्पणी करना गुस्ताखी ही होगी | वो हमारे फिल्म इतिहास के अब तक के सबसे अच्छे अभिनेता हैं, किसी भी किरदार में जितनी पूर्णता से संजीव कुमार उतर जाते थे, शायद ही किसी और के लिए संभव हो | सईद जाफरी को देखना हमेशा ही एक अच्छा अनुभव होता है | अमज़द खान ने एक कमज़ोर बादशाह के किरदार में जान डाल दी है, उन्होंने अपने पूरे शरीर और आँखों से अभिनय किया है | उन्हें परदे पर देखकर ही आपको समझ में आ जाता है कि ये एक कमज़ोर बादशाह है | बादशाद के मन की दुविधा को वे अपने चेहरे के भावों से बता देते हैं | अब तक अंग्रेजों के बारे में जितनी फिल्में बनी हैं लगभग सभी में टॉम आल्टर कि उपस्थिति रही है और वे एक बेहतरीन अभिनेता भी हैं |
फिल्म में चटख रंगों को प्रयोग किया गया है जो फिल्म के बारे में आपकी यादों को भी रंगीन बना देते हैं और एक अच्छे फीलिंग देते हैं | वैसे शोख रंग उस ज़माने को दिखाने के लिए किया गया है जब शाही दरबार हर तरह से रंगीन होता था |
सत्यजीत रॉय की ये मैंने पहली ही फिल्म देखी है और मैं नतमस्तक हूँ उनकी निर्देशन क्षमता के आगे | फिल्म इतने स्वाभाविक तरीके से बहती है कि आप उसके साथ ही बहने लगते हैं, बाहरी दुनिया से एकदम कटकर |
और सबसे ऊपर आपको ये अहसास भी दिलाती है कि हमारे देश के राजा और प्रजा के किस निकम्मेपन और अपने अतीत से चिपके रहने कि प्रवृत्ति के कारण देश गुलाम हुआ था |
कुल मिलाकर एक बेहतरीन फिल्म |
मेरी तरफ से ५ में से ५ अंक |
अनिरुद्ध शर्मा
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8 बैठकबाजों का कहना है :
बहुत समय पहले यह फिल्म देखी थी.देश की तात्कालिक व्यवस्था का अच्छा चित्रण किया है इस फिल्म में.
अनिरूद्ध शमा जी का विश्लेषण अच्छा लगा !!
अनिरूद्ध भाई ने फिल्म के बारे में बहुत कुछ कहा, लेकिन एक बात कहना भूल गए :)
इस फिल्म में रिचर्ड एटनबरो ने भी काम किया था जनरल जेम्स आउटरैम के रोल में। ये कहा जाता है कि उस वक्त रिचर्ड साहब गाँधी बनाने का सोच रहे थे और लगभग काम भी शुरू हो गया था। लेकिन जैसे हीं सत्यजीर रे की फिल्म में काम करने का उन्हें न्योता मिला तो वे सब कुछ छोड़-छाड़ कर हिन्दुस्तान आ गए।
ऐसा था सत्यजीत रे का रूतबा!
-विश्व दीपक
यह ऐतिहासिक पिक्चर तो मैंने देखी है .
पिक्चर तो चली नहीं ,लेकिन आलेख तो हिट हो गया है .बधाई .
सबसे पहले बात प्रेमचंद की जिनके बिना भारतीये साहित्य अधूरा नहीं बल्कि चौथाई रह जाता है. गांवों का जितना खूबसूरत चित्रण प्रेम चंद ने किया, किसी ने नहीं किया.
इसके बाद बात सत्यजीत रे की जिनके बिना बॉलीवुड अधूरा नहीं बल्कि चौथाई रह जाता है. फिल्मों को जितिनी बारीकी से उन्होंने जाना किसी ने नहीं.
इसके बाद संजीव कुमार और सईद जाफरी, फरीदा जलाल और शबाना आज़मी जैसे किरदार वाली फिल्म अपने आपमें लाजवाब ही होगी.
मैं भी इसे पूरे 5 में से 5 ही दूंगा.
इस मूवी बारे में इतनी गहराई से जानकारी देने के लिए इंजिनियर साहब का शुक्रगुजार रहूँगा मैं.
पूरे १० पॉइंट .... ५ मूवी और ५ बहुत ही अच्छे से आलेख लिखने के
एक और फ़िल्म सदगति थी प्रेम चंद की कहानी पर सत्य्जीत रे द्वारा प्रेमचंद की कहानी पर ओमपुरी द्वारा अभिनित जो शतरज के खिलाड़ी से भी अधिक सुन्दर बन पड़ी थी,चली वह भी नहीं थी
श्याम सखा श्याम
पूरे १० पॉइंट .... ५ मूवी और ५ बहुत ही अच्छे से आलेख लिखने के
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