Sunday, September 27, 2009

अहिंसा परमो-धर्मः

आज से लगभग 102 साल पहले पंजाब की जमीन पर एक शेर पैदा हुआ, जिसने अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिला कर रख दिया। जी हाँ, आप ठीक समझे। आज भारतपुत्र शहीद भगत सिंह की 102वीं जयंती है। पिछले वर्ष आज ही के दिन हिन्द-युग्म ने प्रेमचंद सहजवाला की कलम से शगीद-ए-आज़म की जीवनी, उनके दर्शन, गाँधी से उनके मतभेद इत्यादि पर पुनर्चर्चा के लिए आलेखों की एक शृंखला शुरू की थी। आने वाले 2 अक्तूबर को महात्मा गाँधी की 140वीं जयंती है। इसी बीच हम इस शृंखला का परिशिष्ट प्रकाशित कर रहे हैं जिसमें प्रेमचंद सहजवाला ने गाँधी की मजबूरी को उस समय की परिस्थितियों के सहारे मन्द किया है। एक अच्छी ख़बर यह है कि लेखों की यह शृंखला पुस्तक रूप में जल्द ही बाज़ार में उपलब्ध होने वाली है। लेख पढ़ें और भगत सिंह की महाकुर्बानी को स्मरण करें, यह उस वीर पुरुष को एक तरह की श्रद्धाँजलि होगी॰॰॰॰॰


परिशिष्ट
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दि. 23 मार्च 1931 को देश का एक स्वर्णिम पृष्ठ तो लिखा गया, पर एक बात को ले कर कई लोग सोचने पर विवश थे। पहले फाँसी की तारीख 24 मार्च तय की गई थी। फिर अचानक वाइसरॉय ने यह तिथि बदल कर 23 मार्च क्यों कर दी? क्या इसलिए कि 24 मार्च को ही कराची में कांग्रेस का अधिवेशन शुरू होना था और यदि एक ही दिन कांग्रेस अधिवेशन का प्रारंभ व शहीदों की शहादत हुए तो कांग्रेस एक विद्रूपता भरी स्थिति में फंस जाएगी, जिससे उबरना उसके लिए बहुत मुश्किल हो जाएगा? क्या शहादत की तिथि वाइसराय से कह कर गांधी ने बदलवाई थी? और कि जब भगत सिंह व उन के साथी जेलों में थे, तब कांग्रेस का लगभग हर महत्वपूर्ण नेता जेल में उन से मिलने जाता रहा, पर गाँधी ने वहां न जाना ही उचित क्यों समझा? गाँधी ने भगत सिंह व साथियों के विरुद्ध हुए फैसले को माफ़ कराने की बात वाइसराय लॉर्ड इर्विन से की तो थी, पर कांग्रेस द्वारा चलाए जा रहे 'सविनय अवज्ञा आन्दोलन' को ख़त्म करने के सम्बन्ध में गाँधी व लॉर्ड इर्विन के बीच 17 फरवरी 1931 से बहुत महत्वपूर्ण वार्ता चल रही थी, जो 5 मार्च 1931 को 'गाँधी इर्विन समझौते' (जिसे 'दिल्ली समझौता' भी कहा जाता है) के रूप में समाप्त हुई। इस इतनी महत्वपूर्ण बातचीत के दौरान गाँधी ने भगत सिंह का ज़िक्र तक नहीं किया और समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद ही गाँधी ने उस विषय को क्यों उठाया? भगत सिंह व साथियों के विषय को बातचीत के बाहर क्यों रखा गया? जब तक भगत सिंह पर फैसला न हुआ, तब तक समझौते पर हस्ताक्षर ही क्यों किये उन्होंने? गाँधी चाहते तो यह शहादत रुक सकती थी। गाँधी को तो काले झंडों का सामना करना पड़ा। वार्धा से कराची जाते समय हर स्टेशन पर लोगों का समूह आक्रोश के एक तूफ़ान सा उमड़ रहा था। 'नौजवान भारत सभा' के सदस्यों में तो इतना आक्रोश था कि स्टेशनों पर लाल कमीज़ें पहन कर प्रदर्शन किये। इन जवानों ने नारे लगाए-

'महात्मा गाँधी वापस जाओ'
'गाँधीवाद मुर्दाबाद'


पिछली कड़ियाँ
  1. ऐ शहीदे मुल्को-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार

  2. आशिकों का आज जमघट कूच-ए-कातिल में है

  3. क्या तमन्ना-ऐ- शहादत भी किसी के दिल में है (1)

  4. क्या तमन्ना-ऐ- शहादत भी किसी के दिल में है (2)

  5. देखना है ज़ोर कितना बाज़ू ए कातिल में है...

  6. सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है...

  7. हम अभी से क्या बताएं क्या हमारे दिल में है...

  8. रहबरे राहे मुहब्बत रह न जाना राह में...

  9. लज्ज़ते सहरा-नवर्दी दूरिये - मंजिल में है

  10. अब न अहले-वलवले हैं और न अरमानों की भीड़

  11. खींच लाई है सभी को कत्ल होने की उम्मीद ....

  12. एक मर मिटने की हसरत ही दिले-बिस्मिल में है

इन नौजवानों ने गाँधी को कपड़े से बने काले फूल पेश किये... गाँधी ने तो बाद में भगत सिंह के स्मारक के उद्‍घाटन पर जाने से भी साफ़ मना कर दिया। गाँधी तो गद्दार थे। अंग्रेज़ों के पिट्ठू थे गाँधी तो... गाँधी को तो मुसलामानों का ही दर्द सताता है बस। मुसलामानों पर ज़रा खरोंच लगी नहीं कि बस.. गाँधी अनशन पर बैठ जाते थे, वगैरह वगैरह... न जाने क्या क्या कहा और लिखा गया गाँधी के बारे में। आज़ादी से पहले भी और बाद में भी आज भी कई लोग लड़ने पर उतारू हो जाते हैं। यहाँ तक कहते हैं कि गाँधी ही इन बहादुर लड़कों की मृत्यु के ज़िम्मेदार थे। और तो और, विरोधी राजनैतिक दलों ने भी प्रारंभ के चुनावों में इस मुद्दे को उछाल कर वोट टीपने की कोशिश की थी। पर क्या बेहतर नहीं होगा कि इन तमाम सवालों के जवाब सिलसिलेवार खोजे जाएं? आखिर गाँधी को कटघरे में क्यों खड़ा किया जाता है, जब जब भगत सिंह की मृत्यु का प्रसंग उठता है?

पहले कांग्रेस अधिवेशन की बात की जाए, जो सरदार वल्लभ भाई पटेल की अध्यक्षता में कराची में प्रारंभ हुआ। तारीख 29 मार्च 1931 है आज। कांग्रेस आज संकल्प (सं. 2) पारित करने यहाँ एकत्रित हुई है। देश के इन तीनों जवानों को श्रद्धांजलि देने के उद्देश्य से तैयार किया गया है संकल्प (सं. 2)। इस सत्र में कांग्रेस के सभी गणमान्य सदस्यों के अतिरिक्त उपस्थित हैं भगत सिंह के पिता सरदार किशन सिंह व शिवाराम राजगुरु की माँ। संकल्प का प्रस्ताव पढ़ रहे हैं पंडित जवाहरलाल नेहरु। यहाँ महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रस्ताव पढ़ने से पूर्व सत्र को संबोधित करते हुए जवाहरलाल नेहरु कहते हैं कि बेहतर होता, यदि इस संकल्प को वही महापुरुष प्रस्तुत करते, जिन्होंने इस संकल्प का मसौदा बनाया है। यानी स्वयं महात्मा गाँधी! पर कई व्यस्तताओं के होते वे इस समय यहाँ उपस्थित नहीं हो सके हैं। संकल्प इस प्रकार है-

'यह कांग्रेस, किसी भी प्रकार या आकार की राजनैतिक हिंसा से स्वयं को विलग रख कर स्वर्गीय सरदार भगत सिंह व उस के कॉमरेड साथियों, सुखदेव व राजगुरु की वीरता व त्याग की प्रशंसा यहाँ दर्ज करती है, तथा उनके शोकग्रस्त परिवारों से मिल कर इन (तीनों) ज़िंदगियों की क्षति पर शोक व्यक्त करती है।'

प्रस्ताव को पंडित नेहरु ने प्रस्तावित किया (propose by) और पंडित मदन मोहन मालवीय ने समर्थन किया (seconded by)। पंडित नेहरु द्वारा प्रस्ताव पढ़े जाने के बाद पंडित मदन मोहन मालवीय ने भाषण किया जिस में उन्होंने तालियों की गड़गड़ाहट के बीच भगत सिंह व उस के साथियों की बहादुरी व देशभक्ति की भरपूर प्रशंसा थी। इस के बाद वे सरदार किशन सिंह व राजगुरु की माँ को सहारा दे कर सादर मंच तक ले गए। सरदार किशन सिंह ने भी सत्र को संबोधित कर के अपने विचार प्रकट किये।

प्रस्ताव पर मतदान हो, इससे पहले कुछ सदस्यों ने कुछ संशोधन प्रस्तावित किये थे। पर सिवाय श्री एम.वी. शास्त्री के, अन्य सभी ने संशोधन वापस ले लिए थे। श्रीमती कमलादेवी चट्टोपाध्याय ने श्री शास्त्री द्वारा प्रस्तावित संशोधन का समर्थन वापस लेने का फैसला भी सरदार पटेल को बता दिया। श्री शास्त्री ने अपना संशोधन पढ़ते हुए कहा-

'अध्यक्ष महोदय, इस संकल्प में ये शब्द नहीं होने चाहियें, कि कांग्रेस किसी भी प्रकार या आकार की राजनैतिक हिंसा से खुद को विलग रखती है। मेरा कहना है कि यदि हम महान सरदार भगत सिंह, महान सुखदेव व महान राजगुरु, जो कि (ब्रिटिश की) कानूनी हिंसा के शिकार हो गए हैं, का सम्मान कर रहे हैं, तो वह अधूरे मन से नहीं होना चाहिए। मैं चाहता हूँ कि इन तीनों जवानों की बहादुरी व त्याग का गुणगान आप स्वच्छंद व निर्द्वंद्व भावना से करें।'

श्री शास्त्री के संशोधन को आखिर डॉ. ताराचंद लालवानी ने समर्थन दिया और अध्यक्ष के साथ श्री शास्त्री की अप्रिय तर्कबाज़ी के बाद उनके संशोधन पर मतदान हुआ तो शेष सदस्यों में से सभी ने संशोधन के विरुद्ध मतदान किया। इस के बाद मुख्य प्रस्ताव पर मतदान हुआ जिसे शत-प्रतिशत सदस्यों ने पक्ष में वोट डाल कर पारित किया। प्रथा के अनुसार उस दिन की कार्यवाही 'वन्देमातरम्' के गान के साथ संपन्न हुई (Proceedings of 45th session of Indian National Congress pp 78-81)

दरअसल गाँधी व अहिंसा परस्पर पर्यायवाची बन गए थे। गाँधी ने अहिंसा को कांग्रेस व स्वाधीनता संघर्ष का धर्म बना दिया था। भले ही कांग्रेस में कुछ ऐसे भी युवा नेता थे, जैसे जयप्रकाश नारायण, जो गाँधी से 33 वर्ष छोटे थे व उस समय के उत्साही युवा कांग्रेसियों में से थे, जो यदा कदा अहिंसा की लक्ष्मण रेखा से चुपके से बाहर भी निकल आते थे। परन्तु एक पार्टी के रूप में कांग्रेस उस लक्ष्मण रेखा को कदापि पार नहीं कर सकती थी। इसलिए एम.वी. शास्त्री चाहे कितने भी प्रयास कर लेते, वह संकल्प उसी तरह पारित होना था, जिस तरह हुआ। जब जनवरी 1924 में बंगाल के क्रांतिकारी युवक गोपीनाथ साहा ने कलकत्ता के पुलिस कमिश्नर चार्ल्स टेगार्ट को मारना चाहा (गलती से उन्होंने किसी मि. डे की हत्या कर दी- अध्याय 7 अनुच्छेद 6), और हंसते हंसते फांसी के तख्ते पर झूल गए, तब बंगाल कांग्रेस को भी गोपीनाथ साहा के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करते समय ऐसा ही, शर्तों में बंधा संकल्प पारित करना पड़ा था, जिसमें कांग्रेस ने स्वयं को किसी भी प्रकार की हिंसा से दूर ही रखा। अर्थात् कांग्रेस किसी भी अन्य बात से समझौता कर सकती थी, परन्तु अहिंसा पथ से विमुख होना उस के लिए असंभव था। गाँधी स्वाधीनता संघर्ष में अहिंसा पथ पर कितने दृढ़ थे, इस का सबूत है उनके सब से पहले आंदोलन 'असहयोग आंदोलन' का सहसा एक झटके से 12 फरवरी 1922 को समाप्त हो जाना। पंडित नेहरु जैसे नेता बौखला गए, जो इस आंदोलन को ले कर इतने उत्साहित थे कि उनके साथ हज़ारों नौजवानों में भी उत्तेजना सी आ गई थी। पंडित नेहरु अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि देश के नौजवानों में 'असहयोग आंदोलन' को ले कर इस कदर अदम्य जोश व उत्साह था कि जब पुलिस कोई लॉरी ले कर किसी कार्यकर्ता को गिरफ्तार करने जाती, तो ऐसे असंख्य लोग, जिन्होंने कभी कांग्रेस की गतिविधियों में हिस्सा नहीं लिया, गिरफ्तार कर लिए जाने का आग्रह करते। लॉरी के अन्दर भीड़ बन कर ठुंस जाते और ज़िद में बाहर आने से इनकार कर देते। जेल के अन्दर हम लोग सुनते कि बाहर लॉरियों की लॉरियां भर कर आई हैं। कई सरकारी क्लर्क ड्यूटी से घर लौट रहे होते तो इस सारे जुनून से प्रभावित हो कर उत्साहवश स्वयं को घर की बजाय जेलों में पाते (An Autobiography - Jawaharlal Nehru pp 86-87)। ऐसे में गाँधी ने अचानक सब को सकते में डाल 12 फरवरी 1922 को आंदोलन वापस क्यों ले लिया! दरअसल उत्तरप्रदेश के गोरखपुर ज़िले के एक कस्बे चौरी चौरा में 5 फरवरी 1922 को पुलिस और लोगों के बीच बेहद हिंसक प्रकार की मुठभेड़ हो गई। पुलिस ने गोलियां चलाई तो जनता भी होश खो बैठी और पुलिस थाने पर हमला बोल दिया। गुस्साई भीड़ ने जब पुलिस थाने को आग लगा दी तो पुलिसवाले जान बचा कर थाने से बाहर भागने लगे। पर भीड़ ने कई पुलिसवालों को पकड़ कर थाने में लगाई आग में ही झोंक दिया। कुल 22 पुलिसवाले जल कर मर गए (India's Struggle for Independence by Bipin Chandra, Mridula Mukherjee, KN Pannikar and Sucheta Mahajan p 191)। गाँधी के हृदय को बहुत असह्य ठेस पहुँची। कई लोगों ने सोचा केवल एक जगह ही तो ऐसा हुआ! पर नहीं! गाँधी ने अडिग हो कर आंदोलन समाप्त कर दिया। एक विदेशी महिला ने तो तो बाद के वर्षों में ब्रिटिश वाइसराय को पत्र भी लिखा था कि भारत में पुलिस की आखिर ज़रुरत क्या है। भारत में ब्रिटिश का सब से बड़ा पुलिसवाला गाँधी तो है!

हम इस सारे प्रकरण की तुलना 'भारत छोड़ो' आंदोलन से करते हैं। 8 अगस्त 1942 को गाँधी ने मुंबई से 'भारत छोड़ो' आन्दोलन का बिगुल बजा दिया। ब्रिटिश ने भी उतनी ही मुस्तैदी से 9 अगस्त की सुबह-सुबह सभी छोटे-बड़े कांग्रेसी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। उस समय द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण ब्रिटिश वैसे ही पसीने-पसीने हो रही थी और ऐसे समय किसी भी प्रकार के आंदोलन से उसकी बौखलाहट इन गिरफ्तारियों से ही स्पष्ट थी। गाँधी और अन्य सभी नेता विभिन्न शहरों में जेलों में थे और बाहर देश की जनता के सर पर आक्रोश का भूत सा सवार हो गया। पूरा देश हिंसक घटनाओं से भर उठा। जनता को जहाँ मौका मिलता, एक ज्वालामुखी बन कर बहुत भारी संख्या में आगे बढ़ती और रेलवे स्टेशन हो या सरकारी इमारत, टेलेग्राम के खंभे हों या पुलिस थाने, सब को आग लगा देती या पथराव से भून देती. लेकिन नतीजा क्या हुआ? इस घटनाचक्र के ठीक दो महीने बाद ब्रिटिश के प्रधानमंत्री सर विन्स्टन चर्चिल एक कुटिल मुस्कराहट मुस्कराते हुए ब्रिटिश की संसद में भाषण कर रहे हैं। वे भारत के प्रति अपनी चिर परिचित वितृष्णा के साथ बहुत बेशर्म तरीके से ऐलान करते हैं कि भारत में हो रहे उपद्रवों को ब्रिटिश सरकार ने पूरी ताकत के साथ कुचल दिया है। उन्होंने भारत की बहादुर पुलिस और अधिकारी वर्ग की वफादारी की प्रशंसा की, जिनका व्यवहार उन के अनुसार सदैव सर्वोच्च प्रशंसा का अधिकार रखता है! (The Discovery of India pp 538-539)

अर्थात शक्ति के समीकरण में भारत की जनता पिछड़ गई। इस पर कई लोग तो बौखला कर यह प्रश्न भी उछालते हैं -
'तो फिर क्या आज़ादी गाँधी के सत्याग्रह से डर कर मिली? या फिर जेलों में 'रघुपति राघव...' गा रहे कांग्रेसियों से मिली आज़ादी?

यह बहुत पेचीदा सवाल है। अक्सर राजनैतिक दल उस सारे घटनाचक्र को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करते हैं और अपने तुच्छ राजनैतिक स्वार्थ सिद्ध करने के लिए यह तर्क देते हैं कि ब्रिटिश तो द्वितीय विश्वयुद्ध में ही थक हार चुकी थी, सो चली गई। गाँधी ने क्या किया? पर जब चौरी-चौरा प्रकरण के बाद अचानक आंदोलन वापस ले कर गाँधी ने सब को हैरत में डाल दिया, तब कांग्रेस से भी ज़्यादा चौंकी थी खुद ब्रिटिश। वाइसरॉय के एक प्रवक्ता ने सुख की सांस लेते हुए बयान दिया था कि गाँधी यह आंदोलन वापस न लेते तो ब्रिटिश को बहुत भारी नुक्सान उठाना पड़ता। अब तक इस आंदोलन से कई लाख पाउंड का नुकसान हो चुका है और आंदोलन वापस होते ही कई लाख पाउंड का नुकसान होते होते बच गया। गाँधी ब्रिटिश की नब्ज़ को परख सकते थे। उन्हें पता था कि ब्रिटिश तो यहाँ धन कमाने आई है। इस सोने की चिड़िया को लूट कर अपने घर जश्न मनाने आई है ब्रिटिश। इसलिए गाँधी ब्रिटिश से आया माल रेलवे स्टेशनों व कई सार्वजनिक स्थलों पर जलवाते थे, ताकि ब्रिटिश की रीढ़ की आर्थिक हड्डी टूटे। यदि सत्याग्रह का कोई अर्थ न होता तो सरदार पटेल ने बरदोली (गुजरात) में भूमि कर बढ़ने पर जो सत्याग्रह किया, उससे ब्रिटिश के तंत्र की जड़ें क्यों हिल गई? वल्लभ भाई पटेल नाम की गूँज ब्रिटिश की संसद में कैसे होने लगी? वल्लभ भाई पटेल रातों रात बरदोली निवासियों की नज़र में सरदार वल्लभ भाई पटेल कैसे बन गए? 'नमक सत्याग्रह' में जब गाँधी ने हज़ारों नर नारियों के साथ दांडी के समुद्र में घुस कर अपनी मुट्ठी में अपने ही देश का नमक कस लिया और ब्रिटिश को चुनौती दी कि जो ब्रिटिश हमारा ही नमक खा कर नमक का टैक्स बढ़ाती है, वह हमें नमक बनाने से रोक सके तो रोके। तब भी ब्रिटिश को ही ज़रुरत महसूस हुई कि वह 'गाँधी इर्विन वार्ता' करे। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद परिस्थिति बहुत जटिल हो गई। ब्रिटिश की समझ नहीं आ रहा था कि जंग जीतने की खुशी मनाए या अचानक सर पर आई कंगाली को रोये। प्रसिद्ध लेखक युगल लैरी कॉलिन्स और डोमिनीक लैपीयर द्वारा रचित विश्वप्रसिद्ध उपन्यास 'Freedom at Midnight' के पहले अध्याय में ही लिखा है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद लन्दन में लोगों के पास नव-वर्ष मनाने तक का पैसा नहीं बचा था। लोग इस कदर फटेहाल से हो चुके थे कि उनके पास लांड्री का बिल भरने तक के पैसे नहीं थे। पूरे छः वर्ष इतना बड़ा युद्ध लड़ कर ब्रिटिश खोखली हो चुकी थी। ऊपर से अमरीका व अन्य सभी पश्चिमी देशों की गिद्ध-दृष्टि भारत पर! अमरीका बार बार चर्चिल को सलाह दे रहा था कि गाँधी जेल में अचानक अनशन पर बैठ गए हैं, उनकी जान खतरे में है। गाँधी को जेल से रिहा कर दो! तो क्या अमरीका को उस समय गाँधी के प्रति चिंता हो रही थी! अमरीका तो ब्रिटिश को भारत को आज़ाद कर देने को भी उकसा रहा था। चर्चिल जेल के बाहर एक हवाई जहाज़ और सेना खड़ी कर देते हैं और कहते हैं कि गाँधी को मरने दो। जब मर जाए तो सेना हवाई जहाज़ में उस का शरीर ले जा कर जहाँ लोग कहेंगे, वहीं धर देगी। तो चर्चिल को आखिर किस बात का तनाव सता रहा था! चर्चिल गाँधी के मरने में ही ब्रिटिश को सुरक्षित समझते थे। चर्चिल असुरक्षा से बुरी तरह ग्रस्त थे। चर्चिल को लग रहा था कि ब्रिटिश किसी भी परिस्थिति में भारत न छोड़े। क्योंकि युद्ध से हुई आर्थिक बर्बादी की भरपाई आखिर कैसे हो? अपनी खाली जेबों को भरने के लिए उसी सोने की चिड़िया की बेहद ज़रुरत थी ब्रिटिश को। ब्रिटिश अपना सारा आर्थिक घाटा इसी सोने की चिड़िया से ही पूरा कर सकती थी। इसलिये उस समय भारत में बने रहना उस के अस्तित्व की एक शर्त सा बन गया था। और जर्मनी में सुभाषचन्द्र बोस द्वारा हिटलर से किये गए इस निवेदन पर कि हिटलर भारत की आज़ादी के लिए मदद करें, हिटलर यह कहते हैं कि वे नहीं चाहते कि ब्रिटिश फिलहाल वहां से हटे! क्योंकि यदि ब्रिटिश हट गई तो वहां रूस आ जाएगा! अर्थात् दुनिया की बड़ी-बड़ी ताकतों की गिद्ध नज़रों ने भारत भूमि पर एक बिसात सी बिछा रखी थी। ब्रिटिश हटे तो इस सोने की चिड़िया का शोषण अमरीका करे या रूस! या फिर ब्रिटिश ही टिकी रहे! ऐसे में ब्रिटिश ने जब अंततः विश्लेषण किया तो परिस्थिति 1857 जैसी नहीं थी। न ही प्रथम विश्वयुद्ध जैसी। 1857 एक असंगठित बिखरा-बिखरा फौजी विद्रोह था, जिसे कुचल दिया गया। प्रथम विश्व युद्ध (1914-18) के प्रारंभ में अभी मोहनदास करमचंद गाँधी नाम की शक्ति ने भारत में कदम रखा ही था। अब उसी गाँधी की ताक़त के रूप में भारत की जनता का आज़ादी-उन्मुख चेहरा ब्रिटिश को उतना उत्साहवर्द्धक नहीं लगा, जितना प्रथम विश्वयुद्ध में! तब तो गाँधी ने गुजरात जा कर नौजवानों को प्रेरणा दी कि वे ब्रिटिश की सेना में भर्ती हों और युद्ध में ब्रिटिश की सहायता करें। अब परिस्थिति ठीक उलट थी। ब्रिटिश ने इस युद्ध में भी कांग्रेस के सामने समर्थन के लिए झोली फैलाई। कांग्रेस चाहती थी कि युद्ध में ब्रिटिश की मदद करे और लगे हाथों कीमत के रूप में आज़ादी ले ले। गाँधी ने मना किया। कांग्रेस नहीं मानी। पर ब्रिटिश से बातचीत कर के खिसियानी बिल्ली की तरह वापस गाँधी के पास ही आई। और गाँधी ने उस समय तक देश की जनता को एक अदम्य ताकत में बदल दिया था। ब्रिटिश की हथेलियों में पसीना आ गया, यह सोच कर कि अब वह उस देश पर एक वर्ष भी और राज करे, जिस देश की जनता एक पल के लिए भी अब पराधीन नहीं रह सकती! भले ही ब्रिटिश के पास उस समय भी बीस लाख से भी अधिक सेना थी, पर ब्रिटिश ने अपनी आर्थिक महत्वाकांक्षाओं को जनता के शोषण पर आधारित किया था, उस पर लोकतंत्र का मुखौटा चढ़ा कर। लोकतंत्र यानी जनता का साथ। पर जब लोक साथ न हो तो तंत्र क्या करेगा? शक्ति के समीकरण में ब्रिटिश ने लोकमान्य तिलक को भी एक समय-बिंदु के बाद शिथिल सा कर दिया था। शक्ति के समीकरण में सुभाषचन्द्र बोस की 'आज़ाद हिंद फौज' भी नगण्य पड़ गई। पर सहयोग व आज्ञापालन के मामले में ब्रिटिश अब खुद को मोहनदास करमचंद गाँधी के सामने बौना सा महसूस करने लगी थी। शारीरिक शक्ति के रूप में वह अब भी विकराल थी, पर वह हारी थी तो मानसिक मोर्चे पर।

गाँधी ने भगत सिंह के लिए कोशिश की भी थी या नहीं, इस बात को ले कर इतिहासकारों के कई मत हैं। 'गाँधी इर्विन वार्ता' 17 फरवरी 1931 को दिल्ली में शुरू हुई। इतिहास में स्वाधीनता संघर्ष का एक पूरा दशक, सन् '28 से ले कर '37 तक का, बेहद महत्वपूर्ण दशक था, जिस ने जनता को आज़ादी के काफी निकट ला कर खड़ा कर दिया। पंडित नेहरु 'The Discovery of India' में लिखते हैं कि सन् '37 में जब देश में प्रादेशिक चुनाव हो गए, और कई राज्यों में कांग्रेस की सरकारें आ गई तो लोगों के व्यवहार में बहुत सुखद से परिवर्तन देखे गए। आसपास के शहरों-गांवों से लोगों के झुंड के झुंड स्वेच्छा से सचिवालयों में घूमने लगे, (जैसे आज़ादी सचमुच मिल ही गई हो)। लोग विधान सभा के चैंबर में चले जाते, मंत्रियों के कमरों में झाँकने लगते। उन्हें रोकना सचमुच कठिन था (p 406)। सन् 1928 में 'साइमन कमीशन' आया। कांग्रेस ने उसे ठुकराया और कांग्रेस ने अपनी शर्तों पर आधारित मोतीलाल नेहरु रिपोर्ट बनाई। मुहम्मद अली जिन्ना ने रिपोर्ट को खारिज कर के अपने ही 14 पॉइंट दे दिए। कांग्रेस की बागडोर मोतीलाल नेहरु के हाथों से निकल जवाहरलाल नेहरु के हाथों आ गई जो एक बार तो पिता से ही भिड़ पड़े थे कि ब्रिटिश से हम सम्पूर्ण आज़ादी लेंगे, उस से कम और कुछ नहीं। पंडित नेहरु द्वारा रावी के किनारे से पूरे देश को सम्पूर्ण आज़ादी की शपथ दिलवाई गई। देश में जगह-जगह तिरंगा झंडा फहराए जाने की धूम मच गई। गिरफ्तारियां। 'सविनय अवज्ञा''नमक सत्याग्रह'। और फिर लन्दन में हुए 'गोल-मेज़ कांफ्रेंस', जिन का चरम था ब्रिटिश द्वारा बनाया गया 'Government of India Act1935', जिस के आधार पर सन् 1949 में भारत का पूरा संविधान बना। और 1937 के प्रादेशिक चुनाव। क्या कुछ नहीं हो रहा था स्वाधीनता इतिहास के पन्नों पर इस दशक में। गाँधी इस पूरे दशक में अथक परिश्रम में लगे थे और इस पूरे घटनाचक्र से जुड़े रहने के सिवाय उन्हें किसी अन्य बात के लिए समय नहीं था। वे एक महान यज्ञ में महान तपस्वी से लगे थे। ऐसे में उन के लिए तीन नौजवान ज़िन्दगियाँ शायद बहुत कम अहमियत रखती हों। उन्होंने जनता को आश्वस्त तो किया था कि उन्होंने वाइसराय से 'बहुत' कोशिश की कि इन तीनों जवानों के मृत्युदंड को उम्र कैद और देश निकाले में बदला जाए। पर कुछ लोग यह मानते हैं कि उन्होंने कोशिश तो की, पर सरसरी सी। वह भी अधूरे मन। कुछ लोग कहते हैं कि 'बहुत' शब्द झूठा है, तो अन्य कई लोग यह मानते हैं कि इतने बड़े यज्ञ में एक शब्द का झूठ कोई अर्थ नहीं रखता। क्योंकि धर्मराज युधिष्ठिर ने भी तो महाभारत युद्ध में अश्वत्थामा हाथी के मरने पर द्रोणाचार्य को इस भ्रम में रखा कि उनका पुत्र अश्वत्थामा मर गया है। कुछ इस झूठ की तुलना चंद्रमा से करते हैं कि जैसे चंद्रमा पर एक काला दाग़ है, वैसे ही गाँधी के उज्जवल स्वच्छ चरित्र पर भी एक दाग़ है, कि उन्होंने 'बहुत' कोशिश कह कर अपने प्रयास की अतिशयोक्ति व्यक्त की। दरअसल अपने पूरे यज्ञ में गाँधी को एक ही चिंता रहती थी कि नौजवान किसी भी परिस्थिति में दिग्भ्रमित हो कर हिंसा की ओर उन्मुख न हो जाएं। इसीलिए जब मृत्युदंड घोषित हुए तो उन्होंने वाइसराय को पत्र लिख कर इस बात की चिंता जताई कि यदि यह मृत्युदंड हो गया तो संभव है कि देश की नौजवान पीढ़ी भड़क उठे और हिंसा पर उतर आए। गाँधी किसी भी परिस्थिति में नहीं चाहते थे कि इतनी महत्वपूर्ण वार्ता की प्रक्रिया में देश में भड़की कानून व्यवस्था की समस्या के कारण रुकावट आए। यही गाँधी का स्वार्थ था। 17 फरवरी को प्रारंभ हुई 'गाँधी इर्विन वार्ता' से अगले दिन गाँधी ने अन्य सभी महत्वपूर्ण बातों से अलग, एक सरसरे तरीके से लॉर्ड इर्विन से यह चर्चा छेड़ी कि देश के वातावरण को शांतिपूर्ण बनाए रखना इस वार्ता के दौरान बहुत ज़रूरी है। इसलिए यह मृत्युदंड रोक दें। इर्विन बहुत चालाक वाइसराय था। गाँधी से उसने स्पष्ट किया कि:

'मेरे पास तीन विकल्प हैं। या तो मैं तीनों की फांसी माफ़ कर दूं। या फांसी तब दूं, जब कांग्रेस का कराची अधिवेशन समाप्त हो चुका हो। या फिर कांग्रेस अधिवेशन से पहले ही फांसी दे दूं। पर मैं किसी भी हालत में फांसी को माफ़ नहीं कर सकता, और रही बात फांसी को बाद में देने की, सो इस से देश की जनता इसी भ्रम में रहेगी, कि शायद हम उसे माफ़ करने पर विचार कर रहे हैं। इसीलिए बेहतर कि यह काम पहले ही कर दिया जाए!'

और वाइसराय ने तारीख 24 से बदल कर 23 कर दी!

वाइसराय किसी भी हालत में मृत्युदंड माफ़ करने वाले नहीं थे। यह इस बात से भी स्पष्ट है कि जब 5 मार्च को आखिर 'दिल्ली समझौता' हुआ तो उस के एक अनुच्छेद में कांग्रेसियों पर चल रहे मुक़दमे वापस लेने और उन्हें जेलों से रिहा करने की भी ब्रिटिश द्वारा सहमति थी। पर यह सहमति इस शर्त के साथ थी कि केवल जिनके खिलाफ किसी भी प्रकार की हिंसा के गंभीर आरोप नहीं हैं, उन पर चल रहे मुक़दमे वापस लिए जाएंगे और रिहा किया जाएगा। 5 मार्च को 'दिल्ली समझौते' पर हस्ताक्षर हुए और अभी भगत सिंह व साथियों की शहादत में पूरे 18 दिन पड़े थे। जनता के मन में यह उत्कट इच्छा थी कि गाँधी समझौते को ही क्यों नहीं फाड़-फूड़ कर कूड़ेदान में डाल देते, यदि वाइसराय हमारे इन तीन बहादुर लड़कों को छोड़ने पर राज़ी नहीं है तो। पर गाँधी जानते थे, कि देश उस समय बहुत महत्वपूर्ण दौर से गुज़र रहा था और समझौते के बाद देश की जनता की शक्ति बढ़नी थी। सो कुछ भी हो, गाँधी समझौते की हत्या करने का विचार तक मन में नहीं ला सकते थे।

...आज 23 मार्च है। सोमवार है। गाँधी सोमवार को मौन व्रत रखते हैं व बातचीत ज़रूरी हो तो कागज़ पर लिख कर करते हैं। आज शाम को ही शहादत है। और गाँधी अचानक एक उत्तेजना भरी अपील वाइसराय को भेजते हैं। जैसे आम जनता की उत्तेजना गाँधी में भी आ गई हो। पर गाँधी को दरअसल 'नौजवान भारत सभा' ने बहुत आग्रह से एक अपील भेजी थी, कि गाँधी और केवल गाँधी ही उनके तीनों साथियों को बचा सकते हैं। पूरे देश में ऐसी कोई ताकत नहीं, जो ऐसे समय कुछ कर सके। 'नौजवान भारत सभा' के नौजवानों ने अपने पत्र में आश्वासन दिया है कि सिर्फ हमारे ये तीन साथी बचा लीजिये। हम आप से वादा करते हैं कि जीवन भर फिर कभी भी शस्त्र को हाथ में नहीं उठाएंगे। किसी भी प्रकार की हिंसा से हम पूरी तरह अछूते रहेंगे। हम हमेशा हमेशा के लिए अपना रास्ता छोड़ने को तैयार हैं। हम कोई भी राजनैतिक हत्या नहीं करेंगे। गाँधी की चेतना को इस आश्वासन ने झकझोर कर रख दिया। इन नौजवानों की ओर से इस से बड़ा पुरस्कार गाँधी के लिए नहीं हो सकता था। इन सभी घटनाओं के दौरान गाँधी कभी भी भगत सिंह की देशभक्ति, बहादुरी व चरित्र पर संदेह नहीं करते थे। पर वे अपने अख़बारों में इतना स्पष्ट लिखते थे कि राजनैतिक हत्याओं द्वारा ये नौजवान अपनी बहादुरी का दुरुपयोग कर रहे हैं। इसलिए भगत सिंह से जेल में मिलने जाने से कहीं अनायास ही उनके और भगत सिंह के रास्ते आपस में विलीन होते हुए न दिखें, वे भगत सिंह से जेल में मिलने कभी नहीं गए। अब एक बहुत बड़ा आश्वासन उन के हाथ में है। गाँधी वाइसराय को एक अति-तत्काल पत्र दौड़ाते हैं कि आज सोमवार है। मैं बातचीत नहीं कर पाऊंगा। कागज़ कलम से ही बात कर पाऊंगा। पर इस समय मेरे पास ब्रिटिश के लिए एक सुनहला मौका है। ब्रिटिश चाहती है कि देश में शांति बनी रहे। तो इस से अच्छा मौका और नहीं हो सकता। आप ये मृत्युदंड टाल कर उम्र कैद और देश निकाले में बदल दीजिये। भगत सिंह ही बाहर चले जाएंगे, और ये नौजवान अपनी पिस्तोलें व हथियार समर्पित कर के शांति पथ पर चलने लगेंगे, इस से ज़्यादा आप को चाहिए क्या...

...पर अब तक देर हो चुकी थी। वाइसराय ने गाँधी की अपील को ठुकरा दिया और शाम को शहादत हो गई।

गाँधी को अफ़सोस से कहना पड़ा, कि ब्रिटिश के पास एक सुनहला मौका था, देश के नौजवानों को दिग्भ्रमित होने से बचाने का। पर ब्रिटिश ने यह सुनहला मौका गँवा दिया है। शायद देर तो इसलिए भी हो गई थी कि भगत सिंह ने जिन लेखों द्वारा आतंकवाद के रास्ते को नकारना शुरू कर दिया था, उन का गाँधी को पता नहीं चला था। गाँधी को पता चलता कि अब भगत सिंह अपने रास्ते से मानसिक तौर पर विलग हो चुके हैं, तो मुमकिन है कि गाँधी के प्रयास कुछ और सशक्त होते।

गाँधी को भगत सिंह के ऊंचे चरित्र में कभी भी संदेह नहीं रहा। वे चाहते थे कि देश की युवा पीढ़ी उनके ऊंचे इखलाक और देशभक्ति से प्रेरणा ले। पर जब उन्हें किसी स्मारक समिति ने अनुरोध किया कि भगत सिंह की स्मृति में एक स्मारक स्थापित किया जा रहा है, इस में आप की उपस्थिति की ज़रुरत है, तब गाँधी ने उस स्मारक समिति को विनम्र लिखा:

'किसी का भी स्मारक बनाने का अर्थ है कि स्मारक बनाने वाले उस के कृत्य का अनुकरण करें। यह स्मारक आने वाली पीढ़ियों को भी एक आमंत्रण होगा कि ऐसे हर कृत्य की नक़ल करे। इसलिए मैं किसी भी तरीक़े से अपने आप को इस प्रकार के स्मारक से जोड़ने में असमर्थ हूँ'!...(The Trial of Bhagat Singh: Politics of Justice by AG Noorani p 251)

चौरी चौरा प्रकरण, और उक्त पत्र! अहिंसा को ले कर गाँधी की भीष्म प्रतिज्ञा के इन से बड़े सबूत भला और कोई हो सकते हैं ?...

समाप्त
********


----प्रेमचंद सहजवाला

Thursday, September 24, 2009

भारत और चीनी कंपनियाँ सबसे भ्रष्ट

दुनियाभर में भ्रष्टाचार की नब्ज़ पर नज़र रखने वाली संस्था ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने कहा है कि भारत और चीन दुनिया के बड़े बाज़ार तो हैं लेकिन विदेशों में कारोबार के मामले में इन देशों की कंपनियों को बहुत भ्रष्ट समझा जाता है. भारत में जिन लोगों ने ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के सर्वे में भाग लिया उनमें से 30 प्रतिशत का कहना था कि भारतीय कंपनियाँ अपना काम जल्दी करवाने के लिए निचले स्तर के अधिकारियों को रिश्वत देना पसंद करती हैं.एशिया और प्रशांत क्षेत्र के देशों के लिए जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि इस क्षेत्र में भ्रष्टाचार की वजह से बहुत बड़ा नुक़सान हो रहा है.

भारत और चीन के बारे में कहा गया है कि दोनों ही देश बड़े-बड़े बाज़ार उपलब्ध कराते हैं और अंतरराष्ट्रीय कारोबार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. लेकिन इन दोनों देशोंकी कंपनियों को ख़ासतौर से अंतरराष्ट्रीय कारोबार करते हुए बहुत भ्रष्ट समझा जाता है. पाकिस्तान में इस सर्वे में हिस्सा लेने वाले साठ प्रतिशत कंपनी अधिकारियों का कहना था कि उन्होंने अनेक महत्वपूर्ण सरकारी संस्थानों को रिश्वत दी थी. रिपोर्ट में भारत की यह कहते हुए प्रशंसा भी की गई है कि प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड यानी सेबी धोखाधड़ी और भ्रष्टाचार से निबटने के लिए ठोस क़दम उठा रहा है, कंपनियों को वित्तीय अपराधों के लिए जुर्माना अदा करने का विकल्प दिया जा रहा है.

अरबों का नुकसान
वर्ष 2009 की वैश्विक भ्रष्टाचार रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया भर में फैले भ्रष्टाचार, घूसखोरी, फिक्सिंग और सार्वजनिक नीतियों को निजी स्वार्थों के लिए प्रभावित करने की वजह से अरबों का नुक़सान हो रहा है और इससे टिकाऊ आर्थिक प्रगति का रास्ता भी बाधित हो रहा है. ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने दुनिया भर में भ्रष्टाचार पर चिंता जताते हुए अपनी वार्षिक रिपोर्ट में कहा है कि भ्रष्ट चाल-चलन से ऐसा माहौल बनता है जिसमें साफ़-सुथरी प्रतिस्पर्धा के लिए जगह नहीं बचती है, आर्थिक प्रगति अवरुद्ध होती है और अंततः भारी नुक़सान होता है.

पिछले सिर्फ़ दो वर्षों में ही बहुत की कंपनियों को भ्रष्ट चाल-चलन की वजह से अरबों का जुर्माना भी अदा करना पड़ा है. इतना ही नहीं, इस तरह की सज़ाएं मिलने से कर्मचारियों के मनोबल पर असर पड़ता है और ऐसी कंपनियों का विश्वास ग्राहकों में भी कम होता है और संभावित भागीदारों में भी उसकी साख गिरती है. ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशलन के अध्यक्ष ह्यूगेट लाबेले का कहना है, "निवेश की सुरक्षा बढ़ाने, व्यावसायिक सफलता सुनिश्चित करने और ग़रीब और धनी देशों द्वारा वांछित स्थायित्व लाने के लिए यह ज़रूरी है कि एक ऐसा माहौल बनाया जाए जिसमें व्यावसायिक साख को बढ़ावा दिया जाए. आर्थिक संकट से उबरने के लिए यह ख़ासतौर से बहुत आवश्यक है."
इस रिपोर्ट में बड़ी कंपनियों में बहुत से ऐसे प्रबंधकों, शेयरधारकों और अन्य महत्वपूर्ण अधिकारियों के मामलों का ज़िक्र किया गया है जिन्होंने अपने निजी फ़ायदों के लिए अपने पदों और अधिकारों का दुरुपयोग किया. इससे न सिर्फ़ कंपनी, ग्राहकों और शेयरधारकों को ही नुक़सान हुआ बल्कि व्यापक तौर पर पूरे समाज को नुक़सान हुआ.
रिपोर्ट कहती है कि विकासशील देशों में बहुत सी कंपनियों ने भ्रष्ट राजनेताओं और सरकारी अधिकारियों की मिलीभगत से एक वर्ष में लगभग 40 अरब डॉलर की घूसखोरी की है.

रिपोर्ट के लिए किए गए शोध में बताया गया है कि भ्रष्ट नीतियों की वजह से लागत में भी लगभग दस प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हो जाती है और इसका ख़ामियाजा अंततः आम नागरिकों को ही भुगतना पड़ता है क्योंकि बढ़ी हुई लागत उन्हीं से तो वसूल की जाती है. रिपोर्ट में एक ख़ास बिंदू की तरफ़ ध्यान दिलाते हुए कहा गया है कि दुनिया भर में कुछ गिनी-चुनी कंपनियाँ हैं जिनकी ताक़त बहुत बढ़ चुकी है और वो इस ताक़त के ज़रिए विभिन्न देशों की सरकारों को अपने हित साधने के लिए प्रभावित करती हैं. इनमें अपने क़ानूनों को अपने फ़ायदे के लिए इस्तेमाल करवाना भी शामिल है.

बीबीसी

Wednesday, September 23, 2009

दिनकर के काव्य में स्वच्छन्दतावाद

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के संपूर्ण वाड़्मय को देखकर यह सहज ही लक्ष्य किया जा सकता है कि उनके काव्य में स्वच्छन्दतावादी तत्व सांगोपांग अनुस्यूत हैं। उनकी कविताओं में कहीं भावनाओं का उदग्र स्वर तो कहीं भावप्रवण, स्निग्ध और कोमलधारा को देखकर कुछ लोगों को दिनकर के छायावाद और प्रगतिवाद के बीच की कड़ी होने का भ्रम होता है। परन्तु सच्चाई यह है कि दिनकर किसी वाद-विशेष को लेकर कभी चले नहीं। आजीवन अपनी अनुभूति के प्रबल आवेग को स्वच्छन्द अभिव्यक्ति प्रदान करने का प्रयास किया। इसी कारण उन्हें किसी वाद-विशेष से सम्बद्ध नहीं किया जा सका और तत्कालीन काव्य-प्रभृतियाँ; छायावाद, प्रयोगवाद, प्रगतिवाद इत्यादि साहित्य के किसी बने-बनाये खाँचे में वे समा नहीं सके।
अनुभूति दिनकर के काव्य का केन्द्रीय तत्व है। अनुभूति की स्वच्छ अभिव्यक्ति के लिये वे कलाकारिता की भी उपेक्षा कर देते हैं। वास्तव में अनुभूति की तीव्रता और काव्य में उसके प्राथमिक महत्व को स्वच्छन्दतावादी काव्य में ही पुनर्प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है। हिन्दी में छायावादी कवियों के काव्य में भी अनुभूति की यह विशिष्टता सन्निहित है किन्तु रहस्यमयता के घनावरण के कारण वहाँ अनुभूति को अभिव्यक्ति की स्वच्छंदता नहीं मिल पायी।
वस्तुत: कवि की आंतरिक भावना ही उसके काव्य में अभिव्यक्ति को प्राप्त करती है। इस कवि के काव्य के सबंध में भी यही बात सत्य है। एक ओर तो इनकी कविताओं में प्रेम-जनित भावपूर्ण अनुभूतियों का गहरा वेग है जिसमें उनकी मधुर-कोमल भावनाओं ने अनायास ही कल्पनामय अभिव्यक्ति को प्राप्त किया है तो दूसरी ओर दासता से मुक्ति का विद्रोही स्वर और सामाजिक कुरीतियों-विषमताओं के विरोध का कड़ा तेवर जो उनके व्यक्तित्व में व्याप्त स्वातन्त्र्य-भावना की अदम्य लालसा की ओर इंगित करता है। स्वातन्त्र्य-भावना के अंतर्गत देश की पराधीनता से विक्षुब्ध हमारे कवि ने आग्नेय भावों से समन्वित जिन कविताओं की रचना की है, वे किसी भी पराधीन देश के युवकों के रक्त को आलोड़ित-विलोड़ित कर देने में समर्थ है।

वैसे तो सभी स्वच्छन्दतावादी कवियों के यहाँ स्वातन्त्र्य-भावना साहित्य का प्रमुख तत्व है किन्तु दिनकर के काव्य में इसका फैलाव राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, व्यैक्तिक, साहित्यिक यानी हर स्तर पर देखा-परखा जा सकता है। ‘रेणुका’, ‘हुंकार’, ‘रसवंती’ से ‘कुरुक्षेत्र’,”सामधेनी’ ,”इतिहास के आँसू’ होते हुए ‘धूप और धुँआ’, ‘रश्मिरथी’, ‘नीम के पत्ते’, ‘नील कुसुम’ और फिर ‘नये सुभाषित’, ‘उर्वशी’ और ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ तक - सभी काव्य-कृतियों में किसी -न- किसी रूप में स्वाधीनता की पुकार सुनायी देती है। यहाँ सिर्फ़ राजनीतिक जागरण की ही बातें हैं, स्वतन्त्रता की व्यापक अर्थ में अभिव्यक्ति हुई है। वर्ण-जाति के बंधनों की स्वतन्त्रता से लेकर सामान्य जनता के शोषण के विरुद्ध भी आवाज़ उठाते हुए उन्होंने आज़ादी का नगाड़ा बजाया है।

धार्मिक भाग्यवाद का तिरस्कार करते हुए कर्मवाद के महत्व की प्रतिष्ठा की है। धर्मस्थानों में पूँजी की बढ़ती हुई प्रभूता को देखकर उन्होंने इसकी तीव्र भर्त्सना की भी की है। कवि की यह स्वातंत्र्य-भावना साहित्य में भी सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों स्तरों पर प्रतिफलित होती दिखाई देती है।

अनुभूति दिनकर के काव्य का केन्द्रीय तत्व है। अनुभूति की स्वच्छ अभिव्यक्ति के लिये वे कलाकारिता की भी उपेक्षा कर देते हैं। वास्तव में अनुभूति की तीव्रता और काव्य में उसके प्राथमिक महत्व को स्वच्छन्दतावादी काव्य में ही पुनर्प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है। हिन्दी में छायावादी कवियों के काव्य में भी अनुभूति की यह विशिष्टता सन्निहित है किन्तु रहस्यमयता के घनावरण के कारण वहाँ अनुभूति को अभिव्यक्ति की स्वच्छंदता नहीं मिल पायी। दुर्दिन से दु:खी होकर अधिकांश छायावादी कवि गहनता से अंतर्मुखी होकर रोमांसवाद की पलायनवादी प्रेरणाओं से एकात्म हो रहे थे। जबकि दिनकर के काव्य में ऐसे स्थल अपवादस्वरुप ही मिलेंगे जिनमें भावों की धूमिलता अथवा अस्पष्टता हो अन्यथा सर्वत्र ही उनके काव्य में अनुभूति की स्वच्छंद अभिव्यक्ति का ही गुण विद्यमान है। उनकी अनुभूति में स्वच्छन्दतावादी कवियों के समान ही अन्तर्मुखता. भावातिरेकपन और सहज अभिव्यक्ति अदि गुण विद्यमान हैं तथा अनुभूति की सीमा है - ओज, प्रेम, नारी,प्रकृति और ग्राम्य जीवन की सुरम्य एवं कोमल अनुभूतियों का वर्णन।

दिनकर की विशेषता इस बात में है कि वे परिवेश और समय की धड़कन को चक्षु:श्रवा के समान अनुभव करते हुए अपनी अनुभूतियों को सर्वजनीन और उसका सामाजिकीकरण कर देते हैं। यह सामाजिकीकरण यहाँ कोई सायास यत्न नहीं होता वरन इसके पीछे कवि की वह संवेदना है जो स्वानुभूति की व्यैक्तिक सीमा को लाँघकर उसे राष्ट्र की विशद अनुभूति में बदल देती है। ‘हुंकार’ ‘और ‘परशुराम’ की प्रतीक्षा’ जैसी ओजस्विनी कृतियाँ इसकी प्रमाण हैं, देखिये-

देवि, कितना कटु सेवा-धर्म।
न अनुचर को निज पर अधिकार।
न छिपकर भी कर पाता हाय,
तड़पते अरमानों का प्यार।

फेंकता हूँ, लो तोड़-मरोड़
अरी निष्ठूरे! बीन के तार,
उठा चाँदी का उज्ज्वल शंख
फूंकता हूँ भैरव-हुंकार।
[‘हुंकार’ से]

इस प्रकार कवि का समग्र व्यक्तित्व समाज के अधीन हो गया। उसने अपना हृदय सामाजिक और राष्ट्रीय भावनाओं को समर्पित कर दिया।

दिनकर के काव्य में अनुभूति को रमणीय रूप प्रदान करने में कल्पना का विशेष योग रहा है। वे कल्पना को किसी भी स्वच्छन्दवादी कवि से कुछ कदम आगे बढ़कर ही महत्व प्रदान करते हैं। स्पष्ट रूप से अपनी कल्पना विषयक धारणा को व्यक्त करते हुए उन्होंने इसे व्यक्ति-मात्र का अनिवार्य गुण बताया है। वे मानते हैं कि कल्पना की सहायता से विश्व को एक सूत्र में आबद्ध किया जा सकता है।

कविता के नये माध्यम यानी नये ढाँचे और नये छंद कविता की नवीनता के प्रमाण होते हैं। उनसे युगमानस की जड़ता टूटती है, उनसे यह आभास मिलता है कि काव्याकाश में नया नक्षत्र उदित हो रहा है। जब कविता पुराने छंदों की भूमि से नये छंदों के भीतर पाँव धरती है, तभी यह अनुभूति जगने लगती है कि कविता वहीं तक सीमित नहीं है जहाँ तक हम उसे समझते आये हैं बल्कि और भी नयी भूमियाँ है जहाँ कवि के चरण पर सकते हैं। नये छंदों से नयी भावदशा पकड़ी जाती है। नये छंदों से नयी आयु प्राप्त होती है
कल्पना की संश्लेषणात्मक, अन्तर्वर्तनी और परिष्कारक आदि विभिन्न शक्तियों का उनके काव्य में अप्रतिम योग रहा है। कल्पना विषयक अपने विचारों में इन तीनों शक्तियों का नाम-भेद से महत्व भी स्वीकार किया है। कल्पना की इन शक्तियों ने स्मृति, मानवीकरण आदि का आधार ग्रहणकर उनके काव्य को संपुष्ट किया है तथा नारी, प्रकृति, राष्ट्र, मानव-महामानव एवं ईश्वर आदि विषयों को अपना संचरण-क्षेत्र बनाया है। नारी और प्रकृति को उनके काव्य में ओजस्वी भावों के समान ही कल्पनामय अभिव्यक्ति मिली है। दिनकर जी की कल्पना की समृद्धि की विशेषता यह है कि वह किसी भी प्रकार की संकीर्णता में आबद्ध नहीं रही है और उन्मुक्त रूप से ऐतिहासिक, पौराणिक, सामाजिक, प्राकृतिक और साहित्यिक क्षेत्रों से विषयानुकूल तत्व प्राप्तकर उसने श्रेष्टता के चरम शिखर का स्पर्श किया है। यही कारण है कि उनके काव्य में अभिव्यक्त अनुभू्तियों में कहीं भी अस्पष्टता और धूमिलता नहीं आ पायी है बल्कि सहज-सम्प्रेषणीय ही बनी है। अतएव स्वच्छन्दतावादी कवियों में काव्य में कल्पना के महत्व की प्रतिष्ठा देने वालों में दिनकर अग्रगण्य हैं। यूँ कहें कि कल्पना ने दिनकर के काव्य को नव्यता और भव्यता प्रदान करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी!

यद्यपि दिनकर की ओजस्वी कविताओं की प्रसिद्धि साहित्य-जगत ही नहीं, बल्कि देश-भर में है और ‘उर्वशी’ के रचनाकार के रूप में भी उनके सुविज्ञ पाठक उनको जानते हैं, तथापि इन दोनों -ओज और शृंगारिक- भावधाराओं के साथ-साथ उनके काव्य की एक अन्य उल्लेखनीय विशेषता काव्य में प्रकृति के विविध सुरम्य रूपों की समाहिति है। विषय चाहे ओजस्वी भावनाओं का रहा हो अथवा शृंगार का, सर्वत्र ही प्रकृति किसी- न- किसी रूप में उनके काव्य की सहचरी बनकर आयी है। यदि यह कहा जाय कि प्रकृति उनके काव्य का एक प्रमुख अभिलक्षण है तो अत्युक्ति न होगी! इस कथन का प्रमाण उनकी प्रत्येक काव्य-कृति में मूर्तिमान है। उन्होंने प्रकृति को अपने से ही नहीं, मानव-मात्र से भी अभिन्न माना है।

जहाँ तक शिल्प का प्रश्न है, अपनी आंतरिक प्रकृति के अनुकूल शिल्प के परम्परागत बंधन को वे स्वीकार नहीं करते। सायास छंद-योजना की अपेक्षा भावानुकूल छंद-योजना दिनकर को प्रिय है। इसी कारण परम्परा-प्राप्त छंदोम के स्थान पर नये छंदों के निमार्ण की आवश्यकता पर बल देते हुए वे लिखते हैं कि-

“अब वे ही छंद कवियों के भीतर से नवीन अनुभूतियों को बाहर निकाल सकेंगे जिसमें संगीत कम, सुस्थिरता अधिक होगी,जो उड़ान की अपेक्षा चिन्तन के उपयुक्त होंगे।क्योंकि हमारी मनोदशाएँ परिवर्तित हो रही हैं और इन मनोदशाओं की अभिव्यक्ति वे छंद नहीं कर सकेंगे जो पहले से चले आ रहे हैं।”
क्योंकि वे मानते हैं कि-

“कविता के नये माध्यम यानी नये ढाँचे और नये छंद कविता की नवीनता के प्रमाण होते हैं। उनसे युगमानस की जड़ता टूटती है, उनसे यह आभास मिलता है कि काव्याकाश में नया नक्षत्र उदित हो रहा है। जब कविता पुराने छंदों की भूमि से नये छंदों के भीतर पाँव धरती है, तभी यह अनुभूति जगने लगती है कि कविता वहीं तक सीमित नहीं है जहाँ तक हम उसे समझते आये हैं बल्कि और भी नयी भूमियाँ है जहाँ कवि के चरण पर सकते हैं। नये छंदों से नयी भावदशा पकड़ी जाती है। नये छंदों से नयी आयु प्राप्त होती है।”

भाषा और शब्द-चयन पर भी उनके यही विचार हैं। उन्होंने अपनी भाषा को समर्थ बनाने के लिये जहां एक ओर तत्सम, तद्भव, देशज और प्रान्तीय शब्दों का भावानुकूल चयन किया वहाँ दूसरी ओर प्रचलित विदेशी शब्दों का प्रयोग भी निर्बाध रूप में किया है। उनकी काव्य-भाषा में शब्द-शक्ति, उक्ति-वैचित्र्य तथा परम्परागत एवं नये मुहावरों और लोकोक्तियों के प्रयोग से वह तीखापन आ गया है जो किसी श्रेष्ठ काव्य-भाषा का गुण हो सकता है।

शिल्प के सबंध में, इस तरह निश्चय ही दिनकर ने पूर्ण स्वच्छन्दता का प्रयोग किया है। बदलते युग-बोध और परिवर्तित काव्य-विषयों की सहज अभिव्यक्ति के लिये उन्होंने नये छंद का निर्माण भी किया जो ‘दिनकर-छंद’ के नाम से सुविख्यात है जैसे कि उनकी कविता ‘कस्मै देवाय’ में। अत: दिनकर को साहित्य के आभिजात्य से मुक्ति की परम्परा की एक प्रमुख कड़ी के रूप में देखा जाना चाहिये। एक अर्थ में उन्होंने अपने समय को तो शब्द दिये ही, आने वाले समय की कविता के लिये व्यापक पृष्ठभूमि भी रची। कहीं परम्परा का तत्व ग्रहण भी किया तो उसे नया बनाकर। छन्दों के समान ही उनके काव्य में प्रयुक्त रूप-विधाओं के नवीन प्रयोग भी इसी ओर संकेत करते हैं।

अगर मैं अपने विचार का उपसंहार करना चाहूँ तो कहना पड़ेगा कि पश्चिमी और भारतीय मनीषीयों ने स्वच्छन्दतावाद के जो निष्कर्ष हमारे सामने रखे हैं वे हैं- स्वातंत्र्य-भावना, अनुभूति, कल्पना, प्रकृति-चित्रण और शिल्पगत स्वतंत्रता की प्रधानता का होना। ...और इन निकषों पर दिनकर का काव्य स्वच्छन्दतावादी काव्यधारा की संपूर्ण विशेषताओं से समन्वित-परिलक्षित होता है।

अत: स्वच्छन्दतावादी काव्यधारा के श्रेष्ठ कवि के रूप में रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का आकलन निर्विवाद और असंदिग्ध होगा।

-सुशील कुमार (लेखक हिन्दी के सुपरिचित कवि है)

Monday, September 21, 2009

कादम्बिनी के सरोकार और समकालीनता के सवाल (परिचर्चा)

पिछले दिनों मोहल्लालइव पर किसी प्रबुद्ध बेनामी लेखक ने लिखा कि 'कादम्बिनी क्या खाकर निकल रही है और क्यों निकल रही है'। किसी समय में कादम्बिनी की बहुत प्रतिष्ठा थी जो सांस्कृतिक और साहित्यिक जागरण के संस्कारों से सिंचित थी। हमें लगा कि हिन्द-युग्म भी एक साहित्यक-सांस्कृतिक पत्रिका है, ऐसे में इस बहस को आगे बढ़ाया जा सकता है। प्रबुद्ध लोगों से राय ली जा सकती है कि क्या इस पत्रिका को छपते रहना चाहिए, इसी तरह के विषय वस्तु के साथ? इस संदर्भ में हमारी टीम ने राजेन्द्र यादव, पंकज बिष्ट, भारत भारद्वाज, मंगलेश डबराल, मदन कश्यप, रामजी यादव, प्रमोद कुमार तिवारी, विमल चंद्र पान्डेय और गौरव सोलंकी से बातचीत की। मंगलेश डबराल ने कहा कि मैं हर विषय पर टिप्पणी नहीं करना चाहता। बाकी लोगों ने जो कहा वह संपादित रूप में आपके सामने प्रस्तुत है। कुछ बातचीत की रिकॉर्डिंग भी सुनने के लिए उपलब्ध है॰॰॰


बड़े घरानों की पत्रिकाओं में तीखी बहसें नहीं हो पाती- राजेन्द्र यादव

ये कादम्बिनी नाम दिया था बालकृष्ण राव ने, उन्होंने यह पत्रिका निकाली थी। राजेन्द्र अवस्थी के पास आकर यह भूत-प्रेत, अंधविश्वास और ज्योतिष की पत्रिका हो गई, यानी लगभग अपठनीय हो गई। बाद में विष्णु नागर आये तो इन्होंने कुछ सम्हालने की कोशिश की, पठनीय बनाया और उपयोगी चीज़ें दी। और धीरे-धीरे लगा था कि इसका एक स्थान बनेगा। लेकिन हुआ ये कि विष्णु नागर चले गये और फिर से उसी तरह की मैगजीन हो गई जैसी सरिता ग्रुप की पत्रिकाएँ होती हैं। इनमें कोई सीरियस बात तो होती नहीं, बस पाठक होते हैं और उनका मनोरंजन होता है।

एक बात साफ कर दूँ कि बड़े घरानों की पत्रिकाओं में वो चाहे साप्ताहिक हिन्दुस्तान हो, चाहे धर्मयुग हो या चाहे कुछ तीखी बहसें नहीं हो पातीं। इन्होंने कभी नहीं की। ख़ासकर राजनीति को लेकर और सेक्स लेकर, इनमें तरह-तरह के बंधन हैं कि यह बहू-बेटियों की या परिवार की पत्रिका है। इसलिए यह उम्मीद कि यहाँ कोई बहस होगी, यह सोचना बेकार है।

हम समझते हैं कि बहुत निकल ली, काफी चल लीं। हम समझते हैं कि इसकी सामाजिक या पाठकीय उपयोगिता शून्य है। यदि प्रकाशकों को मुनाफा है तो निकाले नहीं तो नहीं।

विष्णू नागर के वक्त में मैं इसका रेगुलर पाठक था। नागर को यह पत्रिका जिस रूप में मिली थी, उससे उन्होंने बहुत बढ़िया स्थिति में ला खड़ा किया था। लेकिन जो भी थी, पठनीय हो गई थी पत्रिका। यदि विष्णू नागर जैसा कोई दूसरा संपादक इस पत्रिका को मिलता है तो इसे 1-2 सालों में फिर से पठनीय पत्रिका बनाया जा सकती है। जहाँ तक आवश्यक फेरबदल का सवाल है तो उसमें पहली बात तो मौलिक रचनाएँ छपनी चाहिएँ तथा इसे यह तय करना चाहिए कि यह कविता की पत्रिका है, कहानी की, बहस की, कला या फिर कुछ और।
(रामजी यादव से हुई बातचीत पर आधारित)

॰॰॰॰राजेन्द्र यादव(प्रख्यात साहित्यकार, संपादक- हंस)


कादम्बिनी एक दिशाहीन पत्रिका बनकर रह गई है- पंकज बिष्ट

इस पत्रिका का पूरा इतिहास बहुत उतार-चढ़ाव भरा है। शुरू में जब यह इलाहाबाद से निकलनी शुरू हुई थी तो यह विशुद्ध साहित्यिक पत्रिका थी, और इसमें सभी गंभीर लोग रुचि लेते थे। लेकिन जब यह हिन्दुस्तान टाइम्स ग्रुप के पास आई तो इन लोगों ने रीडर-डाइजेस्ट और नवनीत के तर्ज पर चलाना शुरू किया। इसके बाद जब राजेन्द्र अवस्थी इसके संपादक बने तो इन्होंने इसे तंत्र-मंत्र की पत्रिका बना दी। तबसे इसका पाठक-वर्ग बिलकुल बदल गया। यह एक पापुलर पत्रिका बन गई। जब विष्णु नागर जी आये तो उन्होंने सम्हालने की कोशिश की, एक गंभीर पत्रिका बनाने की कोशिश की। लेकिन दुर्भाग्यवश वे ज्यादा समय तक इसमें नहीं बने रह पाये, उसी का परिणाम है कि अब यह लगभग दिशाहीन पत्रिका बनकर रह गई है। इसके संपादकों को यह नहीं समझ में आ पा रहा है कि उन्हें छापना क्या है, इसका टारगेट-रीडर्स कौन है।

एक बात मैं कहना चाहूँगा कि साप्ताहिक या मासिक पत्रिकाओं का संपादन बहुत मुश्किल है। दैनिक पत्रों में समाचार का फ्लो इतना तेज़ है और अलग-अलग पत्र एक ही ख़बर को इतने तरह से कवर कर देते हैं कि मासिक पत्रिका के संपादकों के सामने यह चुनौती होती है कि कैसे वह कुछ नया और सार्थक परोसे और अपना पाठक-वर्ग बचाये रखे।

अगर मालिक चाहे, उसमें इच्छाशक्ति हो तो एक समर्थ संपादक वह चुन सकता है जो बड़े आसानी से पत्रिका को बचा सकता है। हिन्दुस्तान में यह हालत नहीं है कि यह पत्रिका न चले, इस तरह के कंटेंट वाली कोई और मासिक पत्रिका है भी नहीं जिसे इतने बड़े घराने का समर्थन प्राप्त हो। वे चाहें तो इसे बहुत बढ़िया बना सकते हैं। लेकिन पता नहीं ऐसा क्यों है कि व्यवसायिक घराने अपनी हिन्दी पत्रिकाओं के लिए कभी भी बहुत अच्छे सम्पादक चुनते ही नहीं। यदि कोई पत्रिका जो टेलीविजन में दिखाया जाता है, उसी की प्रिंटेंड नकल हो तो उसका कोई भविष्य नहीं है।

मैं विष्णु नागर के समय में इस पत्रिका को स्थाई तौर पर देखता था। राजेन्द्र अवस्थी के समय में मैंने इसे देखना भी पसंद नहीं किया। अब मैं इसपर ध्यान नहीं देता।
(रामजी यादव से हुई बातचीत पर आधारित)

॰॰॰पंकज बिष्ट (वरिष्ठ कथाकार, संपादक- समयांतर)


गीली लकड़ी की तरह धुँआने से बढ़िया है भभककर जल जाये- भारत भारद्वाज

कादम्बिनी हिन्दी में निकलने वाली कुछ पुरानी पत्रिकाओं में है। कादम्बिनी का संपादन 1961 में इलाहाबाद से बालकृष्ण राव ने किया था और उस समय इसका पूर्णतः साहित्यिक स्वरूप था। लेकिन बाद में संपादक बदलते-बदलते इसका स्वरूप धीरे-धीरे बदलते-बदलते पूरी तरह से बदल गया। पत्रिका की साहित्यिक प्रवृति नष्ट करने में सबसे बड़ा योगदान है राजेन्द्र अवस्थी का। यह भूत-प्रेत और तमाम धार्मिक अंधविश्वास से लदी पत्रिका तो थी ही विष्णु नागर में टाइम में सेलिब्रिटीज की पत्रिका हो गई। बाद में विजय किशोर मानव ने इसी में थोड़ा-बहुत बदलाव कर दिया।

कादम्बिनी के हर तरह के पाठक थे। साहित्य के तो थे ही, साहित्येत्तर अनुशासन की बहुत सी चीज़े इसमें होती थीं। आर्थिक अभाव के कारण यह पत्रिका बंद नहीं हो रही बल्कि नई अर्थनीति के कारण यह बंद हो सकती है। लगभग 50 साल से यह पत्रिका निकल रही है। मेरा अंदाज़ है वीणा के अलावा (जो 81 साल से निकल रही है) बाद हिन्दी की यह दूसरी पत्रिका है जो इतने लम्बे समय से निकल रही है। अब बहुत निकल ली।

इस पत्रिका के चरित्र में लगातार फेर-बदल हुए। ख़ास तरह की पत्रिका के ख़ास तरह के पाठक होते हैं। इस पत्रिका के हमेशा से ही पाठक बदलते रहे। राजेन्द्र अवस्थी ने इसे जहाँ पहुँचा दिया था उससे इसका जो पाठक-वर्ग तैयार हुआ था, उसे विष्णु नागर से बिलकुल बदल दिया।

हाँ, मैं इस पत्रिका को लम्बे समय से देखता रहा हूँ। 70 के दशक के भी मैंने इसे देखा है, विष्णु नागर के ज़माने में भी और मैंने इसका पिछला अंक भी देखा है। एक अच्छी पत्रिका थी अपने जमाने में, इसकी एक प्रतिष्ठा थी। मेरा कहना है कि गीली लकड़ी की तरह धूँ-धुँआने से बढ़िया है कि भभक कर जल जाये। जब किसी पत्रिका की भूमिका खत्म हो रही हो, उसका तात्पर्य ही न हो तो क्या मतलब है निकलने का! लेकिन बिना किसी सामाजिक भूमिका और हस्तक्षेप के बहुत सी पत्रिकाएँ निकलती रहती हैं। 41 साल से गोपाल राय का संबोधन उदाहरण है। किसी से पूछिए कि आप 'समीक्षा' देखते हो? इसी तरह मुझे लगा कि 'वीणा' बंद हो गई है।
(रामजी यादव से हुई बातचीत पर आधारित)

॰॰॰भारत भारद्वाज (आलोचक, संपादक-पुस्तक-वार्ता)


कादम्बिनी के निकाले जाने का तो कोई औचित्य ही नहीं है- मदन कश्यप

सुनें-
कादम्बिनी तो इन दिनों मैं पढ़ भी नहीं रहा हूँ, पहले भी नहीं पढ़ता था। लेकिन नागर जी जब सम्पादक हुए, तो उन्होंने कुछ ऐसी चीजें छापी, जिसके कारण उसको पढ़ने और लिखने में हमारी रुचि हुई थी। जब से नागर जी हटे हैं, मैंने इसका कोई अंक नहीं देखा है। तो अब क्या छप रहा है, यह भी मुझे नहीं मालुम है।

लेकिन मुझे लगता है कि लगातार इसकी पाठक-संख्या घटने का एक बड़ा कारण यह रहा कि हमारे समय के सांस्कृतिक सवालों से जूझने की बात तो छोडिए, तालमेल मिलाकर चलने वाली भी पत्रिका नहीं रही। बिलकुल अपनी डफली-अपना राग की तरह। अगर नागर जी के पीरियड को आप छोड़ दीजिए तो इस पत्रिका में कुछ नहीं था।

हर पत्रिका का अपना एक चरित्र होता है। फिर भी नागर जी ने हर स्तम्भ को रोचक बनाने की कोशिश की। लेकिन जिस तरह से एक कवि की एक कविता और दो पेज़ पर 4,5-6 कवियों की कविताएँ छापते थे। इस शिल्प में इसका कोई स्वरूप बन ही नहीं सकता है। फिर भी कुछ बन रहा था, लेकिन लग रहा था कि कुछ बन रहा है।

कोई पत्रिका महत्वपूर्ण कब होती है, जब वो समय में हस्तक्षेप करे। कादम्बिनी के निकाले जाने का तो कोई औचित्य ही नहीं है। अगर उससे मुनाफ़ा हो रहा हो तो ओचित्य हो सकता है, लेकिन मालिकान के लिए।

शुरू में यह इतनी बुरी नही थी। लेकिन दिन-दिन प्रतिदिन बुरी होती चली गई। राजेन्द्र अवस्थी के टाइम में भूत-प्रेत की झूठी कहानियाँ छपती थीं, वो भी पैसे लेकर। एक बार कादम्बिनी में छपा कि पटना में बुद्ध मार्ग में एक मंदिर में बाबा है जिन्हें वनदुर्गा सिद्ध है। यह मंदिर तो मेरे कॉम्प्लेक्स के बगल में था। मुझे आश्चर्य हुआ कि मैं ऐसे किसी बाबा के बारे में नहीं जानता, जो मेरे बगल में रहते हैं। लेख भगवती शरण मिश्र का था। बहुत पता लगाया तो मालुम पड़ा कि वह बाबा भगवती शरण मिश्र के संबंधी हैं।

बाद में पता चला कि उसी बाबा ने एक पत्रिका निकाली। जब बाबा से पूछा गया कि आपने पत्रिका क्यों निकाली, तो उन्होंने बताया कि राजेन्द्र अवस्थी छापने के लिए 3 लाख रुपये माँग रहे थे, तो मैंने सोचा कि इतने में तो एक इस तरह की पत्रिका हम खुद निकाल सकते हैं।
(रामजी यादव से हुई बातचीत पर आधारित)

मदन कश्यप (कवि, संपादक- द पब्लिक एजेंडा)


एक भी सामग्री ऐसी नहीं है जिसको मैनें कादिम्बनी के माध्यम से देखा हो - रामजी यादव

सुनें-
किसी भी पत्रिका का महत्व इस बात में है कि वह समकालीन विमर्श में क्या भूमिका निभाती है। इस हिसाब से देखा जाये तो अलग-अलग दौर में, अलग-अलग पत्रिकाओं की अपनी जगह रही है और वे लगभग अनियतकालिन और साधनहीन स्थितियों में निकलती रही है। ढेरों अध्यापक और साहित्यकार ऐसे रहे हैं जिन्होनें उस पत्रिका को विकसित करना अपना एक महत्वपूर्ण सरोकार समझा और उन्होनें इसे निभाया भी, लेकिन 80 के दशक में कुछ पत्रिकाएँ ऐसी निकलीं जो बड़े घरानों की पत्रिकाएँ थी। मसलन टाइम्स ऑफ़ इंडिया का धर्मयुग और हिन्दुस्तान टाईम्स का साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बनी इत्यादि। इससे पहले इन्हीं दोनों घरानों में से किन्हीं का रविवार और दिनमान भी हुआ करता था, रविवार और दिनमान एक बहुत अच्छे सम्पादकीय टीम का बहुत अच्छा उदाहरण हैं। जिसमें एक साथ रघुवीर सराय और अज्ञेय जैसे लोग एक समय में काम करते थे।

धर्मयुग ने स्वयं एक ज़माने में बहुत बड़े-बड़े लेखकों को एक बडा मंच दिया और वे लेखक मुख्य धारा के साहित्य में आये लेकिन आज शायद मुश्किल से ऐसे लोगों की गिनती की जा सकती है जो किसी ज़माने में धर्मयुग में छपते थे और हीरो हो जाते थे। आज उनकों हम नहीं जानते, किसी भी रुप में नहीं जानते। वे सारे दोयम दर्जे के कहानीकार-रचनाकार है जिनको दोहराना आज के सन्दर्भ में संभव नहीं है।

जहाँ तक कादम्बिनी की बात है, कादम्बिनी ने साहित्य के इतिहास में या समकालीन इतिहास में कोई मील का पत्थर रखा हो ऐसा कहना मुशिकल है और एक तरह से ज्यादती भी है क्योंकि उस पत्रिका की जो सीमायें थीं वह उसके सम्पादकों की भी अपनी सीमायें थीं। सम्पादक प्रायः नौकरियाँ करते थे और साहित्यकार थे इसलिये उन्होंने साहित्य को एक कैप्सूल की तरह अपने यहाँ से बेचने का काम किया।

एक ज़माने में इस कादिम्बनी में काफी साहित्यिक चीज़ें होती थीं, लोग समझते थे लेकिन जो भूमिका सामान्य जन के भीतर सरिता आदि ने निभाई, जैसे हिन्दू समाज के पथभ्रष्टक तुलसीदास इत्यादि कालमों और दूसरे ऐसे अंधविश्वास विरोधी लेखों से समाज को जो रास्ता दिखाया, कादिम्बनी की ऐसी ज़गह कभी नहीं रही। कादिम्बनी मुख्यधारा से साहित्यकारों के प्रेम प्रसंगों, उनके कुछ चर्चित-कुचर्चित प्रसंगों और गैर ज़रूरी बहसों और साक्षात्कारों को छापती रही, जिसमें संवेदना में किसी किस्म का विचलन नहीं पैदा होता या विचार में किसी किस्म की दृढ़ता नहीं पैदा होती थी, लेकिन हम देखते हैं कि बाद में कादिम्बनी में आमूल-चूल परिवर्तन हुये, खासतौर पर विण्णु नागर के सम्पादकत्व में। जब इसको विष्णु नागर ने सम्पादित करना शुरू किया तो पहले तो इसका रूपाकार बदला। हम देखते हैं जिस तरह की सामग्री वह लगातार छापते रहे हैं, उस सामग्री में उस तरह की बात नहीं थी जिसे कहा जाये कि इन्होनें कोई नई बात कही है, वो बहुत पुरानी चीज़ें, बहुत पुरानी कहानियाँ, बहुत स्थापित किस्म के सेलिब्रिटीज और लेखक अभिनेता और गायक और दूसरे-दूसरे महफिलबाज़ किस्म के लोगों की आकांक्षाओं की पत्रिका रही है। इस पत्रिका का दाम तमाम लघुपत्रिकाओं के मुकाबले एक दुखदायी पक्ष रहा है। 25 या 30 रूपये दाम रखना भारत जैसे गरीब देश के, साधारण निम्नवर्गीय पाठक के साथ बड़ी ज्यादती है। चूँकि यह घराने की है और इसको पर्याप्त रूप से विज्ञापन भी मिलते हैं, इसके पास आर्थिक रूप से सम्पन्नता भी बनी हुयी है तो यदि अपना सरोकार वो जनता और निम्न समाज से तय करती है तो उसे अपने दाम में कटौती कर देनी चाहिये और लगातार इस तरह की सामग्री देनी चाहिये जिससे कि लोगों को लगे कि कादिम्बनी पढ़ने से उनके विचारों में खूबी पैदा होगी या कादिम्बनी में ऐसी सूचना होगी जो दूसरी कहीं नहीं है या अभी तक नहीं मिली।

जहाँ तक उसके चलने या पढ़ने या बंद करने का सवाल है, इन हालात में उसके बंद होने से किसी को कोई हानि नहीं होगी और चलते रहने से किसी को कोई लाभ भी नहीं होगा। ये कहीं भी साहित्य के इतिहास में किसी मुकाम पर नहीं पहुँचती है। यह एक घराने की है और घराने के नौकर इसके संपादको की भूमिका निभाते हैं, जिनकी समझ बहुत कम है। इसलिये अगर लोगों का इरादा बिरला घराने, टाटा घराने या जैन-साहू घराने से या इस तरह से पैसे को लेकर है तो जैन साहू घराने, बिरला घराने को भी लोगों की आकांक्षओं का ध्यान रखना चाहिये, अगर वे नहीं रखते हैं तो उनकी पत्रिकाओं के बंद होने या चलने में किसी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।

मैं कभी इस तरह की पत्रिका नहीं पढता। दूर दराज़ के छोटे शहरों और बाकि जगहों से प्रतिबद्ध और सरोकारों वाली पत्रिकाएँ ही पढ़ने की जरुरत पड़ती है और मैं कादिम्बनी इसलिये भी नहीं पढ़ता क्योंकि इसमें मेरे पढने लायक कोई सामग्री नहीं होती।

ऐसा नहीं है की कोई मैं अपनेआप को महान या बौद्धिक लेखक समझता हूँ बल्कि एक ऐसे बेचैन युवक के रूप में अपने आप को देखता हूँ जिसे बहुत कुछ जानना है और साहित्य उसके लिये बड़ा माध्यम है। मुझे दिखता है कि एक भी सामग्री ऐसी नहीं है जिसको मैनें कादिम्बनी के माध्यम से देखा हो जबकि उसके अभी के सभी अंक देख चुका हूँ।
(शैलेश भारतवासी से हुई बातचीत पर आधारित)

॰॰॰रामजी यादव (कवि-कथाकार, फिल्ममेकर, आलोचक)


कादम्बिनी एक टाइम-पास पत्रिका बनकर रह गई है- प्रमोद कुमार तिवारी

कादम्बिनी पत्रिका बहुत से उतार-चढ़ाव से होकर गुजरी है। राजेन्द्र अवस्थी के समय यह काल-चिंतन और भूत-प्रेत की पत्रिका रही, वहीं विष्णु नागर जी के दौर में इसमें साहित्य और सरोकार की गूँज सुनाई देने लगी। और फिर से अपनी प्रतिष्ठा पाने लगी। आज की तारीख में यह साहित्यिक-सांस्कृतिक पत्रिका होने की बजाय आनंद, मस्ती, सैर-सपाटा आदि की एक पापुलर पत्रिका होने की तरफ अपने कदम बढ़ा रही है। पत्रिकाएँ दो तरह की होती हैं, एक वो जिन्हें पाठक खोजकर पढ़ता है, दूसरी वो जिससे पाठक टाइम पास करता है। कादम्बिनी एक टाइम-पास पत्रिका बनकर रह गई है। मुझे याद है कि नागर जी के समय में इस पत्रिका में मेरे लिए कम से कम 30-35 मिनट की सामग्री होती थी, लेकिन आज 5 मिनट का कंटेंट भी नहीं होता।

अब हिन्दुस्तान समूह में मृणाल पाण्डेय के बाद शशि शेखर आये हैं। जब नया व्यक्ति आता है तो उसके अपने नये संस्कार होते हैं। लेकिन किसी चल रहे सिस्टम को समझने में वक्त तो लगता है। इनसे उम्मीदें हैं कि शायद कादम्बिनी फिर से अपना मुक़ाम हासिल करे। लेकिन इतनी जल्दी मैं कोई टिप्पणी नहीं करूँगा।

कादम्बिनी की अपनी एक सामाजिक उपयोगिता रही है। बहुत पुरानी पत्रिका है, जिसने सामाजिक जागरुकता फैलाने वाले कई स्तम्भ चलाये। एक समय में यह पत्रिका बाल पत्रिकाओं और गंभीर पत्रिकाओं की बीच की कड़ी थी। इसके वर्तमान रूप से मुझे निराशा हुई है, लेकिन हर पत्रिका का यह दौर आता है, मुझे लगता है कि यह परिस्थितियाँ बदल जायेंगी।

॰॰॰प्रमोद कुमार तिवारी (युवा लेखक व पत्रकार)


कादम्बिनी चर्चा करने लायक पत्रिका ही नहीं है- विमल चंद्र पाण्डेय

किसने कहा कि कादम्बिनी की रीडरशीप घट रही है! मुझे लगता है कि कादम्बिनी को स्यूडो-इंटलैक्चयूल तरह के बहुत से पाठक अभी भी इससे जुड़े हैं और अब तो यह पूरी तरह से बाज़ारू पत्रिका हो गई है। और इसपर हमारे बोलने न बोलने से भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। जब मैं बहुत छोटा था तो मेरे पिताजी इस पत्रिका को घर लाया करते थे। तब उनका उद्देश्य अलग था, इसमें बहुत सी ज्ञानवर्धक बातें होती थीं, लेकिन अब तो भूतों-प्रेतों पत्रिका बनकर रह गई है। यह पत्रिका कभी भी इतनी स्तरीय नहीं रही कि इसपर राजेन्द्र यादव जैसे लोगों को टिप्पणी करनी पड़े। मेरी कविताएँ भी इसमें 'पहचान' स्तम्भ के अंतर्गत छपी थी, जिसमें से एक कविता का सार जो कि उसके अंतिम पंक्तियों में था ही उड़ा दिया गया था। मेरा मानना है कि इसके बंद होने या चलने, पाठक संख्या घटने-बढ़ने पर कोई चर्चा ही नहीं होनी चाहिए।

॰॰॰विमल चंद्र पाण्डेय (नवलेखन पुरस्कार से पुरस्कृत हिन्दी युवा कहानीकार)


कादम्बिनी ने अपने ही पाठकों को ठेंगा दिखलाया है- गौरव सोलंकी

मैं कभी कादम्बिनी का नियमित पाठक नहीं रहा लेकिन मैंने इसके बदलते हुए रूप पर ज़रूर ग़ौर किया है और इसके बारे में लोगों से बात भी करता रहा हूँ। छ:-सात महीने पहले का कोई अंक मैंने देखा था। मैं यदि कुछ साल पहले की स्थिति को याद करूँ तो यह प्रबुद्ध पाठकों की पत्रिका थी जिसे पढ़ने पर एक किस्म की बौद्धिक समृद्धि का अनुभव होता था। इसका पाठक वर्ग यदि कम हो रहा है तो कम होने का सीधा सा कारण है कि इसने अपने उन्हीं पाठकों को ठेंगा दिखलाते हुए अपना रूप बदल लिया है जो इसकी नींव से जुड़े हुए थे। बाज़ार के चक्कर में कादम्बिनी ने अपना स्तर बच्चों या किशोरों की पत्रिकाओं जैसा बना लिया है। मैंने हाल ही में कादम्बिनी देखी तो मुझे किशोरों की पत्रिका 'सुमन सौरभ' की याद आई। मैं तो बिल्कुल भी संतुष्ट नहीं हूँ। इसे छापने वाले लोग भी शायद ठीक से नहीं जानते कि वे किसके लिए पत्रिका निकाल रहे हैं। यदि वे कम पढ़े लिखे आम पाठक की पसन्द तक आना चाहते हैं तो याद रहे कि उन पाठकों के पास इससे कहीं बेहतर विकल्प पहले से ही मौज़ूद हैं। कोई भी उस सामग्री से कैसे संतुष्ट हो सकता है जो दैनिक अख़बारों के बालमंच वाले पृष्ट जैसी हो या इंटरनेट से उठाई गई 'ज्ञानवर्द्धक' सामग्री। मैं कभी कादम्बिनी में प्रकाशित नहीं हुआ।

॰॰॰गौरव सोलंकी (चर्चित युवा कहानीकार व कवि)


आज यानी 25 सितम्बर 2009 को हमें कुछ और प्रतिक्रियाएँ प्राप्त हुईं, जिसे हम प्रकाशित कर रहे हैं।


कादम्बिनी पढ़ने की ज़रूरत कभी महसूस नहीं हुई- प्रियदर्शन

एक अरसे से कादंबिनी देख नहीं पाया हूं। ऐसा इसलिए क्योंकि आजकल अखबारों और किताबों से फुर्सत नहीं मिल पाती। इत्तेफाक से कादंबिनी छूटती चली गई। सच कहूं तो कभी खरीद कर पढ़ने की ज़रूरत भी महसूस नहीं हुई। इसकी कोई वैचारिक वजह भी नहीं। बस इसे पढ़ने की ज़रूरत कभी महसूस नहीं हुई। विष्णु नागर जी संपादक थे तो ओलंपिक पर कवर स्टोरी लिखी थी। और भी थोड़ा-बहुत लिखना तभी हुआ था। तब थोड़ा अच्छी भी लगती थी कादंबिनी।
(निखिल आनंद गिरि से टेलीफोन पर हुई बातचीत पर आधारित)

॰॰॰प्रियदर्शन (वरिष्ठ पत्रकार)


कादम्बिनी को बंद करने की बात एक अतिरेकी कथन है- पंकज सिंह

रामानंद दोषी के ज़माने से कादंबिनी को देख रहा हूं। उस वक्त इसका डाइजेस्ट वाला स्वरूप था, अच्छा भी लगता था। फिर राजेंद्र अवस्थी संपादक हुए तो कुछ परिवर्तन भी किए। उन्होंने परिचर्चाओं के ज़रिए कादंबिनी को समकालीन से जोड़ने की कोशिश भी की। कोई भी पत्रिका ये तो दिखाती ही है कि उसकी बौद्धिक तैयारी कैसी है। बाद में कादंबिनी राजेंद्र माथुर की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं और वासनाओं (व्यापक अर्थ में) का शिकार हो गई। फिर विष्णु नागर ने पत्रिका का बड़ी विनम्रता (इतनी ज़रूरी भी नहीं थी) से कायांतरण किया। कई नए स्तंभ, कई नई परिकल्पनाएं दिखीं।

फिर भी किसी का ये कहना कि कादंबिनी जैसी पत्रिका को बंद हो जाना चाहिए, कोरी बकवास है। ये अतिरेकी कथन है। मैं तो कहता हूं कि हंस को बंद हो जाना चाहिए। हंस राजेंद्र यादव की मानसिक विकृतियों का आईना रहा है। पत्रिका सिर्फ संपादक की नहीं होती। कादंबिनी में हरेप्रकाश उपाध्याय जैसे युवा कवि भी शामिल हैं। कादंबिनी में लिखने वाले हंस में लिखने वालों से बेहतर हैं। ये हो सकता है कि पढ़नेवालों को कादंबिनी से अपेक्षाएं ज़्यादा हों।

मैंने नागपुर के पहले विश्व हिंदी सम्मेलन में सत्ता प्रतिष्ठान के विरोध में युवाओं के बड़े समूह का नेतृत्व किया था। कादंबिनी ने फोटो के साथ इंटरव्यू छापा था। विष्णु नागर ने भी कुछ कविताएं छापीं, फिर पति-पत्नी का संयुक्त लेख भी छपा। नियमित लेखक कभी नहीं रहा, पाठक अभी भी हूं। मेरे अनुसार जीवन में सिर्फ साहित्य ही महत्वपूर्ण नहीं है। मैंने बीए किया इतिहास में, जेएनयू से अंतर्राष्ट्रीय राजनीति पर शोध किया, साहित्य से जुड़ाव भी है। मतलब, कादंबिनी ज़िंदगी के पूरे विस्तार को समेटने की कोशिश करती है, तो ये सराहनीय कदम है। वर्तमान संपादक ने कम से कम कोई क्षरण किया हो, ऐसा नहीं लगता।
(निखिल आनंद गिरि से टेलीफोन पर हुई बातचीत पर आधारित)

॰॰॰पंकज सिंह (कवि, आलोचक)


जिस भाषा में पत्रकारिता कर रहे हैं कम से कम उसका तो सम्मान करें- पूर्णिमा वर्मन

अबकी बार अगस्त में जब मैं भारत से इमारात लौटी तब इकोनॉमी क्लास का टिकट नहीं मिला मजबूरन बिजनेस क्लास में बैठना पड़ा। एअर होस्टेस पत्रिकाओं वाली ट्रे लेकर आयी तो एक दो पत्रिकाएँ हटाकर देखा कि क्या कोई हिंदी पत्रिका है। मुझे कादंबिनी दिखी तो उठा ली। रूप रंग अलग, आकार अलग, पहला पन्ना खोलते ही ऐसा तमाचा पड़ा कि यात्रा का स्वाद ही खराब हो गया। लेख था- "हिंदी जेहादियों से डर लगता है।" लेख में सिद्ध किया गया था कि हिंगलिश ही बोलनी चाहिए। लिखने पढ़ने वाली हिंदी बोलना जेहाद है।

इस प्रकार के लेख प्रकाशित करने वाली हिंदी पत्रिका का प्रकाशित होना हिंदी लिखने, पढ़ने, बोलने वालों के लिए कलंक की बात है। हम जैसे लोग जो दिन-रात विदेशों में हिन्दी के प्रसार के लिए प्रयत्न कर रहे हैं भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में ऐसा कुछ देखें तो दिल टूटना स्वाभाविक ही है। एक समय था जब घर में इसकी प्रतियाँ डाइजेस्ट की तरह संभाल कर रखी जाती थीं। सब पुरानी पत्रिकाएँ अखबारों के साथ रद्दी में बिकती थीं लेकिन यह नहीं बेची जाती थी। रुपरंग बदलना स्वाभाविक है लेकिन जिस भाषा में पत्रकारिता कर रहे हैं कम से कम उसके प्रति सम्मान तो होना चाहिए।

कुल मिलाकर यह कि गलती पत्रिका की नहीं क्लास की है। बिजनेस क्लास का टिकट लिया तो भुगतना तो था ही। आराम से इकोनॉमी में बैठती। वहाँ एअर होस्टेस पत्रिकाओं के लिए परेशान नहीं करती। दो घंटे सोती और चैन से घर पहुँचती।
(ईमेल द्वारा प्राप्त)

॰॰॰पूर्णिमा वर्मन (बहुतचर्चित ऑनलाइन हिन्दी पत्रिकाएँ अनुभूति और अभिव्यक्ति की संपादिका)


~पढ़ें और अपने मित्रों को पढ़ायें। यह परिचर्चा ईमेल से अपने मित्रों को भेजें~

Saturday, September 19, 2009

गुमराह- बी आर चोपड़ा की बेहतरीन फिल्मों से एक है

फिल्म चर्चा

गुमराह जो सन 1963 में आई थी, बी आर चोपड़ा की बेहतरीन फिल्मों में से एक है, और उनकी अन्य फिल्मों की तरह इसमें भी एक सामाजिक मुद्दे को उठाया गया था। फिल्म शुरू होती है रामायण के एक दृश्य से जिसमें रावण राम की कुटिया के सामने भिक्षा माँगने आता है। जब लक्ष्मन राम की पुकार सुन कर जंगल में गये हैं और सीता की सुरक्षा के लिये लक्षमण रेखा खींच कर गए हैं। सीता रावण की बातों में आकर उसे पार कर लेती हैं और रावण उनका अपहरण कर लेता है। बस यही फिल्म की थीम है। एक स्त्री के अपनी मर्यादा को लांघने का और उससे उपजी परिस्थितियों का।

मीना (माला सिन्हा) और कमला (निरुपा रॉय) नैनीताल के एक व्यापारी की दो बेटियाँ हैं। मीना राजेंद्र (सुनील दत्त) से प्रेम करती है जो कि एक चित्रकार और गायक है। कमला शादीशुदा है और उसके पति अशोक (अशोक कुमार) बंबई में एक वकील हैं। कमला के दो बच्चे हैं जो अपनी मौसी से बहुत प्रेम करते हैं। कमला अपने तीसरे बच्चे के प्रसव के लिये नैनीताल आती है जब उसे मीना के प्रेम प्रसंग के बारे में पता चलता है और वो उसकी और राजेंद्र की शादी की बात अपने पिता के सामने रखने की हामी भरती है लेकिन उससे पहले ही बच्चे को जन्म देते समय उसकी मौत हो जाती है। अशोक को गहरा सदमा लगता है। मीना के पिता कमला के बच्चों के लिये चिंतित हैं कि उन्हें माँ की ज़रूरत है और अगर उनकी सौतेली माँ आई तो पता नहीं उनके साथ कैसा व्यवहार करे। इसी सोच के चलते वे मीना को अशोक से शादी करने के लिये राजी कर लेते हैं क्योंकि बच्चे मीना को माँ की तरह मानते हैं। मीना अपने प्रेम की कुर्बानी देकर अशोक से शादी कर लेती है और बंबई चली जाती है। कुछ दिनों बाद अचानक उसे राजेंद्र वहाँ मिल जाता है जिसकी एक गायक के रूप में अशोक से भी जान-पहचान हो जाती है। राजेंद्र मीना के घर आने-जाने लगता है और इस तरह उनका छुप-छुप कर मिलना फिर शुरू हो जाता है। मीना का मन उसके काबू में नहीं रहता और मना करते-करते भी वो उससे नियमित रूप से मिलने लगती है। एक दिन अचानक मीना के राजेंद्र से मिलकर लौटते हुए एक औरत लीला (शशिकला) पकड़ लेती है जो खुद को राजेंद्र की पत्नी बताती है, लीला उसे ब्लैकमेल करने लगती है। मीना राजेंद्र के प्रेम और लीला के डर के बीच बुरी तरह फंस जाती है। इधर अशोक के सामने भी वो घबराई सी रहती है। अंत में भेद खुलता है, इसमें एक रहस्य है जो मैं उजागर नहीं करूँगा वरना आपका फिल्म देखने का मज़ा कम हो जायेगा। मीना को अंत में अपने कर्तव्य का अहसास होता है और वो राजेंद्र से संबंध तोड़ लेती है।

फिल्म एक संवेदनशील कहानी को बहुत प्रभावी तरीके से कहती है। फिल्म का प्रवाह औरर घटनाक्रम मानवीय भावनाओं पर निर्देशक की मजबूत पकड़ दर्शाता है। कैसे इंसान अपनी भावनाओं के प्रवाह में कमज़ोर बनकर अपने कर्तव्य की अनदेखी करता है। फिल्म एक शादीशुदा औरत के मन की उलझन को रेशा-रेशा दिखाती है जहां वह अपने प्रेमी के लिये अपनी भावनाओं और अपने प्रति के लिये अपने कर्तव्य के बीच फंसी हुई है। आज के युग में ये फिल्म और भी प्रासंगिक है जब मन ही सब कुछ है और मन के कहने पर इन्सान कुछ भी करने में संकोच नहीं करता है। अपने लिए कोई कठोर निर्णय लेना आज के समय में लोगों के लिए असंभव लगता है फिल्म का एक संवाद थोड़े से शब्दों मे बहुत बड़ा फलसफा बयान कर देता है जो अशोक मीना के बारे में पता चलने पर कहता है, मुझे पूरी तरह तो याद नहीं लेकिन उसका आशय कुछ यूँ था कि- “औरत ही घर बनाती है और घर से ही समाज बनता है, अगर औरत गलत रास्ते पर जाती है तो पूरा समाज भटक सकता है“। अशोक का पात्र बहुत ही समझदार दिखाया है जो अपनी पत्नी के बारे में पता चलने पर सीधे उससे झगड़ा नहीं करता बल्कि बहुत ही समझदारी से उसे सही रास्ते पर लाने की कोशिश करता है और अंत में भी उसे छूट देता है कि वो चाहे तो उसे छोड़कर जा सकती है।

निर्देशक के तौर पर बी आर चोपड़ा साहब को सलाम करना चाहिये। मैं उनका जबर्दस्त प्रसंशक बन गया हूँ। अशोक कुमार के बारे में तो मैं पहले भी कुछ नहीं कह पाया था, उनका अभिनय टिप्पणियों के परे है। वे महानतम हैं। माला सिन्हा उस ज़माने की ओवरएक्टिंग क्वीन थीं लेकिन इस फिल्म में शादी के बाद का हिस्सा उन्होंने बखूबी निभाया है। शादी के पहले बच्चों के साथ उनकी मस्ती कोफ्त पैदा करती है। इस रोल के लिये चोपड़ा साहब की पहली पसंद मीना कुमारी थी लेकिन किसी वजह से बात नहीं बनी। सुनील दत्त का मै बचपन से प्रसंशक हूँ लेकिन इस फिल्म में वे असहज लगे। शायद उनका व्यक्तित्व ऐसे कमज़ोर चरित्र के लिये उपयुक्त नहीं है, वे एक दबंग व्यक्तित्व के स्वामी थे। फिल्म का एक और मजबूत पक्ष संगीतकार रवि का मधुर संगीत है। चलो इक बार फिर से, आजा आजा जैसे मीठे गीत फिल्म देखने का मज़ा दोगुना कर देते हैं। बी आर चोपड़ा ने अपनी का संगीत हमेशा रवि से तैयार करवाया है और रवि ने हमेशा उन्हें अपना बेहतरीन दिया है।

फिल्म 5 में से 5 अंक पाने की हक़दार है।

--अनिरुद्ध शर्मा

Friday, September 18, 2009

20-ट्वेंटी क्रिकेट और वन-डे क्रिकेट का भविष्य

समय के साथ हर चीज बदल जाती है, लोग बदल जाते हैं, समय खुद भी बदलता रहता है! इस संसार मे परिवर्तन के अलाव कुछ भी स्थाई नही है! पहले भी जब बदलाव बहुत धीमे धीमे हुआ करता था तब भी बहुत से लोग बदलाव को विद्रोह की संज्ञा दिया करते थे और फिर कब खुद बदल जाते थे उन्हे भी पता नही चल पात था और आजकल जब बदलाव फैशन बन गया है और आंधी की तरह जीवन मे आता है, बहुत से लोग अब भी खुशी से इसे स्वीकार नही कर पाते, यह और बात है कि परिवर्तन से वे भी नही बच पाते हैं।

आजकल क्रिकेट सभी खेलों मे सबसे अधिक परिवर्तनशील और प्रगतिशील हो रहा है, इस खेल से जुड़े लोगों मे जैसे होड़ सी लगी है, कौन ज्यादा परिवर्तन की वकालात कर सकता है। फिर चाहे उनके सुझाव खेल की बेहतरी के लिये हो या खबर बनाने के लिये या किसी इतर उद्देश्य के लिए इसकी किसीको क्या फिक्र।

एक बहस छिड़ी हुई है क्रिकेट जगत में, वन-डे मैच के प्रारूप मे परिवर्तन के संदर्भ में पक्ष-विपक्ष मे तर्क दिये जारहे हैं और सब कुछ इसलिये हो रहा है कि फटफट क्रिकेट के नये अवतार 20-20 मेचों ने अथाह कमाई के रास्ते खोल दिये हैं और अब खिलाड़ियोँ से लेकर खेल प्रशासकोँ तक को फ़टाफ़ट कमाई करने का जुनून सवार है, इस जुनून को खेल की बेहतरी का सर्व-सुलभ नाम देकर असली मकसद को छुपाने का जतन हो रहा है।

तर्क दिया जा रहा है कि 20-20 के जमाने मे लोगों की रूची 50-50 ओवरों के मेचों मे कम होने लगी है अत: इसमे सुधार करना चाहिये। किसी भी खेल प्रारूप मे बदलाव करना कोई बुराई का काम नही है, इससे पहले भी एकदिवसीय मेचों मे समय समय पर बदलाव किये गये हैं और उन्हे स्वीकार भी किया गया है, चाहे वह 60-60 ओवर से 50-50 का करने का निर्णय हो, पॉवर-प्ले हो, दिन-रात के मेच हो, परंतु यदि मंशा क्रिकेट की भलाई के अलावा कुछ और हो तो विवाद होना स्वभाविक ही है।

फिर 20-ट्वेंटी क्रिकेट चाहे समय की मांग न भी हो, एक सनसनी जरूर है, और किसी भी सनसनी से आप तब तक नही बच सकते जब तक आप अपनी प्रज्ञा का सही वक्त पर प्रयोग करना नही जानते, भारतीय उप-महाद्वीप मे क्रिकेट मे इस तरह की उम्मेद नही की जा सकती, और फिर जब क्रिकेट एक जुआ भी हो तब आप चाहेंगे की दाँव लगाने के जितने ज्यादा और जल्दी अवसर उपलब्ध हो उतना फायदा तब निश्चित ही हमे यह मान लेना कि भले एकदिवसिय मैच पुर्णत: खत्म न हो पर भविष्य बहुत अच्छा भी नही है, 20-ट्वेंटी क्रिकेट से बहुत चुनोतियाँ मिलने वाली हैं।

भारतीय उप-महाद्वीप खेल जगत मे क्रिकेट के लिये जुनून की हद तक पागलपन के लिये जान जाता है, अत: यहाँ क्रिकेट एक बहुत बडा व्यवसाय होना स्वभाविक है, चुंकि बात बहुत लोगों के आर्थिक हितों से जुडी है इसलिए किसी भी खेल का सिर्फ खेल रह पाना और भी कठिन है। क्रिकेट चलाने वाले संगठन की जिम्मेदारी केवल खेल और खिलाड़ियोँ के कल्याण तक सीमित नही रह गई है, करोड़ों रुपाय की कमाई देने वाली विज्ञापनदाता कम्पनियोँ के हितों के प्रति भी इनकी जिम्मेदारी बनती है। ऐसे अगर क्रिकेट के पुराने प्रारूपों को बदल कर नये प्रारूप लाये जाने की बात हो रही है तो इसमे इतनी हायतोबा मचाने वाली क्या बात है? जहाँ करोड़ों रूपये दॉव पर लगे हों तब निश्चय ही जिन लोगों का पैसा लगा है वे चाहेंगे कि उनके पैसे की पूरी कीमत वसूल हो, इसलिये खेल संगठन को उन्हे फयदा पहुँचाने वाली योजनाएँ एवं प्रारूप लाना ही होंगे।

जो लोग खेल के प्रारूप बदलने या न बदलने के लिये बयानबाजी मे लगे हैं उन लोगों के भी इस संगठन से प्रत्यक्ष य अप्रत्यक्ष हित जुड़े हैं, इसलिये निष्पक्ष और सार्थक बहस की उम्मीद करना स्वयं को अंधेरे मे रखना होगा, इन लोगों का काम केवल इन बदलावों के लिये माहौल तैयार करना है, और वह हो रहा है, अत: वन-डे क्रिकेट का भविष्य बहुत उज्वल प्रतीत नही होता है।

और महत्वपुर्ण प्रश्न यह भी है कि जो निर्णय दर्शकों की रूची के नाम पर किया जा रहा है क्य वस्तव मे उस निर्णय मे दर्शकों की रूची और भावनाओ को स्थान दिया गया है? क्या दर्शकों से राय ली गई है? जाहिर सी बात है, इस तरह के किसी भी निर्णय मे दर्शकों की भूमिका कैवल मूक-दर्शक की ही है।

---प्रदीप वर्मा
(लेखक लम्बे समय से हिन्द-युग्म से जुड़े हैं। समय-समय पर इनकी कविताएँ प्रकाशित होती रही हैं। बैठक पर पहली बार दस्तक दे रहे हैं।)

Wednesday, September 16, 2009

सर्वे के मुताबिक देश में सिर्फ जानवर बचे हैं...

वे थे तो चार ही सरकारी बंदे पर अब चालीस पर भी भारी पड़ने लगे थे। आधे घंटे तक लगातार खाते रहने के बाद उनमें से एक ने बड़े रौब से दूसरे के पेट पर हाथ फेरते मुझसे पूछा,`जानते हो यहां हम लोग किसलिए आए हैं´

`मुहल्ले वालों को खाने के लिए।´ कहना तो चाहता था पर न जाने क्या सोचकर क्यों चुप रहा।
`असल में हम लोग यहां पर एक पुनर्वास की योजना लेकर सर्वे करने आए हैं।´ दूसरे ने जुगाली करते चौथी बार खाली होती थाली को घूरते कहा तो मुहल्ले के चार पांच जो वहां पर उपस्थित थे उन्हें लगा कि आज उनका खिलाना सार्थक हुआ। वरना आज तक तो पेट को मार-मार कर खिलाते ही रहे और नतीजा.... वहीं ढाक के तीन पात। मुझे भी लगा कि ऊपर वाले ने शायद मेरी मुफ्त की आवाज सुन ली। अब भगवान ने चाहा तो कम से कम मरूंगा तो अपने घर में। वरना आज तक अपनी तीन पीढ़ियों के सोलह संस्कार तो किराए के कमरों में ही हुए। जब भी कोई सस्ता सा पंडित हमारे यहां कोई संस्कार करवाने आता है तो उसके मंत्रों से अधिक जोर से मकान मालिक की पों पों गूंजती है। भगवान से तब मैंने पचासों बार तहेदिल से मन्नत की कि हे भगवान! अगर हमारे पास एक अपना कमरा और रसोई हो जाए तो उसका नाम आपके नाम पर ईश्वर सदन ही रखूं। पर अपने नाम पर अपने पास गुसलखाना भी नहीं हुआ। भगवान ने नहीं सुनी तो नहीं सुनी। हर बार वहां से एक ही बात लौट कर आई कि,`मुफ्त की सभी लाइनें व्यस्त हैं। कृपया थोड़ी देर बाद संपर्क करें। ´ पत्नी ने कई बार कहा भी कि मन्नत में सवा पांच का बांध ही रख लो। हो सकता है नंबर मिल ही जाए। पर साहब , अब क्या रिश्वत एक और केवल एक रास्ता भगवान के पास जाने का है तो रिश्वत के बगैर क्या बचा है। अब लो, वह भी बंद। सच्ची को, अब तो ऊपर वाला भी उस्ताद हो गया है। लगता है उसे भी अब जमाने की हवा लग गई। भारी भरकम जेब वालों की गलत फरियादें तक बिन कहे भी सुनता है। और हम जैसों के गले सूख जाते हैं उसे आवाज देते देते। भारी जेब के आगे कौन नहीं झुकता साहब. भरी जेब में बहुत शक्ति होती है। भगवान से भी कई गुणा अधिक। पैसा बड़ों बड़ों की आंखें फोड़ देता है। तभी तो वह भी उनकी ही कान लगाए सुनता है जिनके पास मन नहीं, भरी हुई जेब हो। झूठ बोल रहा होऊं तो फटी जेब, भरे मन से भगवान को बुला कर देख लो, उनका आना तो दूर किसी मंदिर में उनके दर्शन करने जाकर पंक्ति में खड़े होकर ही देख लीजिए। नोट वालों के तो वे दर्शन करने अंदर से दौडे़ चले आते हैं नंगे पांव। और हम जैसों को पुजारी के माध्यम से भी नहीं खुद ही उनकी ओर से पुजारी गुस्से में कहता है कि अभी भगवान सो रहे हैं। अगर हम जैसे हिम्मत कर पूछ ही बैठें कि कब जैसे जागेंगे तो आग बबूला होकर कहता है,` गरीबों से बहला फुसला कर उनके वोट ले सरकार बन खाने वाले ही जब नहीं जागते तो वे क्यों जागें´

`क्या वे सरकार से बड़े होते हैं" कुछ कहने के बदले पुजारी गालियां देता भगवान के पास जा बैठता है।

`काहे का सर्वे करने आए हैं माई-बाप, गरीबी का या गरीबों का´

` गरीबी और गरीबों का सर्वे बहुत हो लिया यार! सरकार को सर्वे करते करते शर्म आ गई पर न तो गरीबों को शर्म आई और न ही गरीबी को।´

`तो´

हम सर्वे करने आए हैं कि तुम्हारे मुहल्ले में कितने कुत्ते, बिल्लियां, उल्लू , गीदड़ आदि हैं। सरकार उनके पुनर्वास के लिए वचनबद्ध है।
` कह वह प्लेट में से मुट्ठा भर भूनी मूंगफली उठाने के बाद भैंसा हुआ। दूसरा जेब से माचिस की तिल्ली निकाल अपने सड़े दांत कुरेदता रहा। मैं कुछ कहता इससे पहले मुहल्ले के सबसे आदरणीय ने दोनों हाथ जोड़कर कहा,` साहब! हम कुत्ते ही हैं। दिन रात भौंकते रहते हैं। पर चोर हैं कि अपनी सी कर ही लेता है। हम बिल्लियां ही हैं। दिन रात रोटी के लिए लड़ते रहते हैं। पर किसी के हिस्से रोटी को कौर तक नहीं आता। हजू़र! हम गीदड़ ही हैं। सबके खाने के बाद जो जूठन बचती है, उसी पर बरसों से जी रहे हैं। सरकार, हम ही उल्लू हैं। दिन में तो कुछ दिखता नहीं, ‘शायद रात में ही कुछ दिख जाए। इसलिए रात रात भर पैदा होने के बाद से आज तक जाग रहे हैं। क्या सरकार हमें सच्ची को बसाने की सोच रही है´

` हद है यार! ये हम किस मुहल्ले में आ गए.. यहां कोई आदमी भी है क्या´ और वे तयशुदा सर्वे किए बिना ही वहां से चले गए।

हिंदी के साथ कुछ क्षण-
हिंदी हिंदी दिवस आयोजन से एकबार फिर आहत हो अपने लोक लौट रही थी कि अचानक मिल गई। मैंने दौड़ते दौड़ते उससे पूछा,`फिर कैसा रहा हमारा श्राद्ध´

`देसी बरतनों में अंग्रेजी पकवान अच्छे लगे। और वे तुम्हारे इस लोक में पैदा होने के बाद भी अज्ञात रहने वाले हिंदी प्रेमी सचमुच कमाल के थे। अब तो मेरी समीक्षा करते हुए समीक्षक अपना नाम भी छुपाने लगे हैं। वे खाते तो हिंदी हैं पर कै अंग्रेजी में करते हैं। वे मेरे लिए हाय आदरणीय हैं जो आज के दौर में जब कि आदमी नाम के लिए मर रहा है और एक वे हैं कि नाम छुपा साहित्य की समझ तो भूले ही हैं मेरी समझ भी भूले जा रहे हैं। मुझमें किसीकी प्रशंसा करने में वह दम कहां जो अंग्रेजी में हैं। ज्ञात होने के मारधाड़ी दौर में अज्ञातों को मेरा ‘शत-शत नमन!

अशोक गौतम
गौतम निवास,अप्पर सेरी रोड,
नजदीक मेन वाटर टैंक सोलन-173212 हि0प्र0

Tuesday, September 15, 2009

शरीर का अंग बन गया है मोबाइल...

शन्नो अग्रवाल उत्तर प्रदेश के पीलीभीत जिले से ताल्लुक रखती हैं। 1969 में एम.ए. की पढ़ाई खत्म होते ही शादी हुई और सात समंदर पार लंदन जा बसीं। पति कंप्यूटर के क्षेत्र में नौकरीपेशा थे तो इन्होंने घर-गृहस्थी संभाल ली....बच्चों की परवरिश करने में शन्नो अपने सभी शौक भूल चुकी थीं...हिंदयुग्म से जुड़ने पर कविता-कहानी के इनके पुराने शौक वक्त मांगने लगे...अब चूंकि इनके बच्चे भी गृहस्थी बसा चुके हैं तो ब्लॉगिंग के ज़रिए इन्हें कहने-सुनने की फुर्सत मिल गई है...बैठक पर सात समंदर पार से इनका ये पहले लेख है...

मुझे भी बच्चों ने जिद करके खरीद कर दे ही दिया, हाँलाकि मुझे कभी इसकी जरूरत महसूस नहीं हुई किन्तु बच्चों की जिद के आगे सर झुका दिया क्योंकि यदि बाहर हुई और उन्हें नहीं पता कि कहाँ हूँ तो उनको बड़ी चिंता हो जाती थी. अब कम से कम पता लग जाता है कि मैं कहाँ हूँ. चलो कोई बात नहीं, मिस्ड काल मारो तो बिल बच्चे ही तो भरते है। ऐसी ही हिदायत दी गयी थी. खैर अपने को तो खुराफाती बातें करना नहीं आता सो कभी - कभी की बात रही.

जी हाँ, सारी दुनिया में ही जिसकी इतनी महिमा है और जिसके बिना अब किसी भी घर में चाहें वह देश हो या विदेश लोगों का काम ही नहीं चलता या बाहर जाओ तो खासतौर से बिना उसे साथ ले जाये हुए, मैं उसी मोबाइल की ही बात कर रही हूँ. और जिसके साथ के बिना जीवन में अब खालीपन सा लगता है. अगर घर पर भूल जाये उसे तो शायद पति अपनी पत्नी को उसकी अनुपस्थिति में इतना याद न करता होगा जितनी मोबाइल के साथ की कमी उसे खलती है अब. चाहे वह......चलिये, छोडिये भी पति-पत्नी की बात. तो फिर मैं जो बात कर रही हूँ वह है कि जिधर भी देखो उधर ही सब चटर-पटर बातों में उलझे होते हैं उसे कान से चिपकाये हुये. कुछ लोग उसे कहते हैं सेलफोन भी....सही कहा ना मैंने?

सोचती हूँ कि मोबाइल फोन न हुआ जैसे एक खिलौना हो गया. चाहे किसी और चीज की अकल हो या न हो लेकिन मोबाइल जरूर चाहिये. कितनी किसे जरूरत है उसकी परवाह करे बिना उसे पाने की हसरत सभी में फ़ैल चुकी है एक रोग की तरह. ना पूछिये अब.....बात करने की अकल हो या न हो पर उसे खरीद कर नक़ल जरूर करनी है. शॉपिंग को गयी हुई वापस आते हुए रिक्शे में बैठी सासू माँ को अचानक सूझती है मोबाइल निकाल कर अपनी बहू से बात करने की. कह रही हैं ' अरी सुन, जरा मुझे आज अपनी सहेली के यहाँ भी जाना है, तुझे बताना भूल गयी थी. और कहारिन आवे तो कहियो की माँ जी आज घर पर नहीं है इस समय, पैसे किसी और दिन ले जाये और यह भी सुन ......' अरे यह सब बेकार की बातें तो उनके घर में ना होने पर बहू भी बता सकती थी कहारिन को...लेकिन मोबाइल पर बात करने का मजा तो और ही है ना? किन्तु क्या इसकी वाकई में सभी को या अधिकतर लोगों को जरूरत है? सहेली के यहाँ जाकर भी तो फोन किया जा सकता था.

कुछ लोगों को इसकी जरूरत एक फैशन की तरह होती है. अगर कुछ भी नहीं है बात करने को फिर भी टुन्न-टुन्न बजता रहता है और फोन करने वाले को इतना भी ख्याल नहीं की जिसको फोन करके अपनी बोरियत के पलों को बांटना चाहता है वह इंसान अभी-अभी अपनी दाढ़ उखड़वा कर डेंटिस्ट के यहाँ से आया है और इंजेक्शन के असर से मुंह भी नहीं खोल सकता. हाँ, कभी-कभी यह बहुत ही लाभदायक साबित हो सकता है. एक बार मैक्सिको में आये हुये भूचाल से एक शहर तहस नहस हो गया और वहां जब मलबे में से लोगों की लाशें निकाली जा रही थीं तो किसी का मोबाइल बजने लगा ...... मलबा हटा कर पता लगा की उस आदमी ने लोगों की आहट सुनकर बटन दाब दिया था. वह किसी तरह भगवान् की कृपा से जिन्दा बचकर निकल आया.

लेकिन किसी और जगह आप देखें तो......पत्नी घर से फोन पर पति के लेट होने के बारे में चिंता करती है और पति महाशय उस समय अपने ऑफिस की किसी काम करने वाली लेडी के साथ कॉफी और समोसे खाते हुए कुछ सुनहरे पलों को जी रहे होते हैं तो पत्नी को बता कर उसकी चिंता दूर करते हैं ' डार्लिंग, मैं अभी उस काफी हाउस के बाहर जो बस स्टाप के पास है वहां भीड़ में इंतज़ार कर रहा हूँ. दो बसें ठसाठस भरी हुई सामने से निकल गयीं उनमें तो चढ़ना भी मुश्किल था...इसीलिए लेट हो रहा हूँ, तुम खाना खा लेना मैंने कुछ लेट लंच खाया था इसलिए भूख नहीं है.' यदि पत्नी भोली हुई तो अविश्वास की परछाईं को भी अपने पर पड़ने नहीं देगी. वरना.... उसका माथा कभी न कभी तो ठनकना चाहिये.

बिस्तर में हैं तो छुपकर, या कभी - कभी दरवाजे पर की गई खटखट किसी ने ना सुनी हो तो घर के फोन पर, आप घर की चाबी भूल गये हों और पत्नी सहेली के यहाँ हो तो उसे वहां पर, बाहर कहीं खाना खा रहे हों तो वहां से, या टॉयलेट की सीट पर बैठे हों तो वहां आराम से हर जगह से इसका उपयोग करके बातचीत कर सकते हैं.
गर्लफ्रेंड और बॉयफ्रेंड के लिये तो और भी उपयोगी.....घर वालों की निगाहें बचाकर छत पर जाकर गुटरगूं कर सकतें हैं आपस में. तब कोई यह तो नहीं कहेगा की ' हाय-हाय देखो तो आजकल के बच्चों को, हमें पता भी न चला की कब हमारा बच्चा बड़ा हो गया और आज को यह दिन देखना पड़ रहा है हमें की इसने अपनी गर्लफ्रेंड भी ढूंढ ली. हमारे ज़माने में तो लड़के लोग लड़कों से और लड़कियां केवल लड़कियों से ही बातें करती थीं और लड़कियां तो रास्ते में निगाह झुका कर चलती थीं '. लेकिन कभी - कभी इसकी वजह से सब त्रस्त भी हो जाते हैं. बच्चे अब अधिकतर समय इसी पर दोस्तों से बात करने में गुजारते हैं और घर में बातचीत की उन्हें फुर्सत ही नहीं मिलती. बिना मतलब का बिल अलग से बढ़ता है. और हम अन्य चीजों के भाव ऊपर जाने की बातें करते रहते हैं. कभी-कभी इसपर फिजूल की करी बातों से और बकवास के टेक्स्ट भेज कर जो बिल बढ़ता है उसका क्या?

बूढे-बच्चे, जवान, अकल या बेअकल वाले, बाबू-अफसर, ठेले वाले, दुकानदार, चाट वाला या लोहार, कुल्फीवाला हो या सुनार. कोई फर्क नहीं किसी में. सबको इसका इस्तेमाल आता है और पता है आपको की यह खिलौना अकेले में बड़े काम का होता है. आप स्टेशन पर जब अकेले बैठे ऊब रहे हों तो चलो किसी से बात ही कर ली जाये वैसे तो फुर्सत नहीं मिलती है. या कहीं सुनसान जगह पर जा रहे हों और कोई खतरे वाली बात हो तो घर या पुलिस को फ़ोन करके सूचना तो दे सकते हैं, शॉपिंग पर गये हों तो पत्नी से उसकी पसंद का रंग पूछ सकते हैं (यदि उसे कभी अचानक से उपहार देकर खुश करने का मूड हो तो) आप क्या काम करते हैं, अधिक पढ़े - लिखे हैं या कम, कमजोर हैं या पहलवान, भिखारी हैं या कोचवान सभी को ही इसका चस्का लग गया है..... जिसे देखो वह इसपर बात करते हुये मस्त दिखता है.

आजकल तो लगता है की भिखारी भी इतने पैसे वाले और अक्लमंद हो गये हैं की सुना गया है कि कहीं कोई फोन पर रात में चाइनीज खाना आर्डर कर रहा था मोबाइल पर. अभी कुछ महीने पहले बरेली की स्टेशन पर बैठी ट्रेन का इंतज़ार कर रही थी की एक भिखारी एक पर्चा हाथ में लिये हुये आया और बेंच पर बैठे सज्ज़न से बोला ' बाबू जी जरा अपना फ़ोन दे दीजिये एक फोन करना है.'

एक दिन मायके में ही बाहर जाते हुये देखा कि ठेले पर सब्जी बेचने वाला खाली खड़ा है फिर अपना मोबाइल निकाला और बात करने लगा ' अरे सुनौ खाना बनि गऔ होइ तौ अम्मा और बाबू जी और बच्चन को खवाइ देउ हम भी कुछ देर में ठेलुआ संग घर पहुँचत हैं.'

कोई हंस रहा है या गाली दे रहा है उस समय किसी पर ध्यान नहीं जाता यदि आप पूरी तरह से बातचीत में मगन हैं तो. . . सड़क पार कर रहे हैं, कार चला रहे हैं तब भी इस पर बात करने की इतनी तलब होती है जैसे एक शराबी को पीने की. दिन हो या रात हो, आंधी हो या बरसात हो या कैसी भी खुराफात हो मोबाइल से बात करो तो फिर कोई बात हो.

शन्नो अग्रवाल

Monday, September 14, 2009

नए शब्दों के स्वागत को तैयार हिंदी शब्दकोश


हिंदी हमारी मातृभाषा है, हमारी राष्ट्रभाषा है लेकिन इसकी बदनसीबी यह है कि कुछ लोगों के सिवा इसकी याद हमें केवल हिंदी दिवस पर ही आती है. उसी रोज़ गोष्ठियां, सभाएं, निबंध प्रतियोगिताएं, वाद-विवाद प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं.
मैं हिंदी दिवस पर इतना जज्बाती न होकर और सिर्फ हिंदी के प्रचार की बात न करके एक बात और भी कहना चाहूँगा वह है हिंदी के शब्दकोष में विस्तार.
अभी कुछ समय पहले 'web2.0' अंग्रेजी का दस लाखवां शब्द बना. दुनिया के छोटे-छोटे देशों की राष्ट्रभाषाओं के शब्दकोष एक बड़े देश भारत की राष्ट्रभाषा के शब्दकोष की तुलना में बड़े हैं. आकडों पर नज़र डाले तो English Global Language Monitor के अनुसार अंग्रेजी में 10,00,000, चीनी में 5,00,000+, जापानी में 232,000, स्पेनिश में 225,000, रूसी में 195,00 जर्मन में 185,000, जबकि हिंदी में केवल 1,20,000 शब्द हैं. यह बड़ी ही अजीब बात है कि 125 करोड़ लोगों की राष्ट्रभाषा का शब्दकोष बस इतना ही है.
इसके अलावा हिंदी विश्व कि दूसरी सबसे कठिन भाषा है जबकि पहले नंबर पर चीनी है. मुझे निजी तौर पर एक बात और महसूस होती है. हिंदी वर्णमाला में कुछ अक्षर ऐसे हैं जिनका साधारण बोलचाल में कोई प्रयोग नहीं होता है. उन्हें वर्णमाला से निकल देना चाहिए. इसी तरह से जो और संभव बदलाव हों वो करना चाहिए.
अंग्रेजी में 'जय हो' शब्द शामिल होने के बारे में सुनने को मिला. इसी तरह के कुछ और उदहारण पहले के भी देखे जा सकते हैं जैसे अंग्रेजी भाषा में सिपॉय (हिंदी के सिपाही से बना.) और लूट (सीधे एक वर्ब के तौर पर इस्तेमाल होता है.) इसी तरह से कुछ और कठोर उच्चारण वाले शब्दों को आम बोलचाल के शब्दों से बदलकर आसान बनाया जा सकता है.
कुछ अंग्रेजी के शब्दों जैसे त्रिकोणमिति के 'sin' और 'cos' को हिंदी में 'ज्या' और 'कोज्या' लिखते हैं. इन्हें ज्या और कोज्या में न बदलकर सीधे तौर पर sin & cos में ही लिखा जाए. इसे यह बिलकुल भी ना माना जाए कि हम विदेशी भाषा को तरजीह दे रहे हैं बल्कि इन शब्दों को जोड़कर हिंदी का शब्दकोष बढा लिया जाए. इसी प्रकार अंग्रेजी के सामान्य शब्दों login id, email id, password और इसी तरह के आम बोलचाल के शब्दों को हिंदी शब्दकोष में शामिल कर लिया जाए.

शामिख फ़राज़

Sunday, September 13, 2009

मुद्दे चीख रहे हैं, क्या सरकार बहरी है?


इस देश में मुद्दों की कमी नहीं। हर रोज़ एक नया मुद्दा सामने आता है। कभी व्यवस्था पर चर्चा, कभी सरकार तो कभी पुराने गढ़े मुर्दे उखाड़ने पर समय की बर्बादी। हम भी चर्चा करेंगे। हमारी सरकार ने सौ दिन भी तो पूरे किये हैं अभी। काफ़ी महीने पहले मैंने अपने एक लेख में लिखा था कि चीन भारत का नम्बर एक शत्रु है। कुछ साथी जन साथ भी हुए। अब मीडिया भी यही कह रहा है। सरकार का रवैया अभी भी चीन को लेकर सख्त नहीं। चीन लद्दाख में घुस आया है। तवांग पर तो वो अपना हक जता ही चुका है। चीन भारत को हर ओर से घेर चुका है। लेकिन हम खामोश हैं। हम खामोश हैं क्योंकि हम डरते हैं(?)। चीन ने भारत की सीमा के अंदर आकर अपने देश का नाम लिखा। चीन ने बंगाल की खाड़ी में अपनी सेना का अड्डा बना रखा है जो हर वक्त भारत की अंतरिक्ष गतिविधियों पर नजर गड़ाये हुए है। वही हिन्द महासागर में श्रीलंका के साथ मिलकर दक्षिणॊ श्रीलंका के हम्बन्तोता में एक बन्दरगाह का निर्माण चल रहा है। ये गौरतलब है कि प्रभाकरण को मारने के लिये धनराशि चीन द्वारा ही मुहैया कराई गई। लेकिन हमारी सरकार अभी भी खामोश। यही बंदरगाह चीनी नौसेना का अड्डा बनने जा रहा है। जैसे श्रीलंका के साथ समझौता हुआ उसी तरह पाकिस्तान के साथ भी एक बन्दरगाह के लिये काम चल रहा है। और पाकिस्तान को परमाणु शक्ति बनाने का काम भी तो चीन ने ही किया है। फिर सरकार द्वारा ऐसी अनदेखी। चारों ओर से घेर कर हमला करने का इरादा है चीन का। इसके लिये हमारी क्या तैयारी है? क्या १९६२ दोहराया जायेगा। कश्मीर के हिस्से के साथ साथ अरूणाचल, सिक्किम और लद्दाख भी जायेगा?

दूसरा किस्सा हुआ झारखंड में जिसको मीडिया ने तरजीह नहीं दी। बीजेपी के विधायकों का इस्तीफ़ा। और हो भी क्यों न। पिछले नौ-दस महीने से राज्य में राष्ट्रपति शासन। राष्ट्रपति तो बस "नाम" है, देखा जाये तो केंद्र सरकार का शासन। झामुमो के शिबू सोरेन के हार जाने के बाद राज्य में केंद्र सरकार का कब्जा। कांग्रेस को मालूम है कि झारखंड में जीत की उम्मीद कम है। जब हरियाणा, महाराष्ट्र के चुनाव नवम्बर में करवाये जाने हैं तो झारखंड में अभी क्यों नहीं? कांग्रेस सरकार को किस बात का डर है कि संविधान को ही दरकिनार कर दिया। छह महीने से अधिक हो गये राष्ट्रपति शासन को और अभी तक चुनाव नहीं!!!

पिछले दिनों की एक और खबर, जो हमारी "सेक्युलर" मीडिया को नजर ही नहीं आई। वो था सांगली, महाराष्ट्र में गणेश विसर्जन के दौरान हमला किया जाना। अफ़जल खान का पेट फ़ाड़ते हुए शिवाजी दिखाये गये तो शायद कुछ लोगों से रहा नहीं गया। पंडाल पर हमला कर दिया। कहीं ये उल्टा हुआ होता, यानि अल्पसंख्यकों पर हमला हुआ होता तो मानवाधिकार वाले सामने आ चुके होते। वहाँ कर्फ़्यू लगाया गया। पुलिस पर दंगाइयों ने हमला किया पर प्रशासन व सेक्युलर मीडिया चुप रहा क्योंकि वो कुछ और "जरुरी" खबरें "बनाने" में लगे हुए थे। इसके बारे में समाचार पत्रों में भी नहीं आया और यदि आया तो कहीं थोड़ा सा कॉलम। पता नहीं ऐसा क्यों है? ये तो मेरे मीडिया मित्र ही बता सकते हैं कि मीडिया ने खबर को तवज्जो क्यों नहीं दी? एक उदाहरण देता हूँ। कोई कत्ल होता है तो लिखा जाता है कि "व्यक्ति का कत्ल हुआ"। और कहीं अल्पसंख्यक का कत्ल होता है तो... "मुस्लिम व्यक्ति का कत्ल हुआ".."ईसाई व्यक्ति का कत्ल हुआ"..या "सिख का कत्ल हुआ"... दोनों बातों में अंतर क्यों? क्या हर बार "व्यक्ति का कत्ल हुआ".. ऐसा नहीं लिखा जाता। बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक में फ़र्क क्यों? जवाब इस लेख को पढ़ने वाला हर मीडियाकर्मी दे।

बहरहाल अगला मुद्दा थोड़ा ताज़ा है और वो है आई.एस.आई चीफ़ का भारतीय उच्चायोग की इफ़्तार पार्टी में शामिल होना। पाकिस्तान में इफ़्तार पार्टी हुई और आई.एस.आई का मुखिया भी शामिल हुआ। कहा गया कि दोनों देशों में सम्बन्ध सुधारे जा रहे हैं। एक तरफ़ परमाणु मिसाइलों की तैयारी और मुम्बई में हुए हमले में ढुलमुल रवैया ऊपर से हमारी सरकार पाकिस्तान के साथ "सम्बन्ध" सुधारने लग रही है। ये क्या तरीका हुआ भई!! यहाँ तो पाकिस्तान का नहीं बल्कि हिन्दुस्तान का रवैया ढुलमुल लग रहा है। हमारा "महान" मीडिया और विपक्ष तो पड़ोसी के "गड़े मुर्दे" उखाड़ने में लगा हुआ है। इसीलिये हमें ही ये खबरें सामने लानी पड़ रही हैं।

तपन शर्मा

Saturday, September 12, 2009

फूहड़ चुटकलों से कितनी देर हंस पाएगा आम दर्शक?


कई दिन से इक अजीब-सी उधेड़बुन में हूँ, कि ये किस तरह कि फिल्में बन रही हैं, ना कहानी, ना पटकथा, ना ही कोई ढंग का संगीत, गीत के तो क्या कहने, फिर भी लोग देख रहे हैं, पसंद कर रहे हैं, और इक तरफ जो अच्छी फिल्में बन रही हैं उन्हें कोई घास भी नहीं डालता.. बल्कि अब तो इक नया चलन चला है, फिल्में सीधा डीवीडी से बाज़ार में उतरने का. चलो ये भी ठीक ही है, कम से कम फालतू के खर्चे से तो बचे, और जो कमाया, कुछ जरुरी खर्चों के बाद, सीधा जेब में, लेकिन इक बात जो इन सब की आपाधापी में समझ नहीं आती वो ये है कि आज दर्शक देखना क्या चाहता हैं.
चटपटी फिल्में, डेली सो़प, कॉमेडी या कुछ और.. और जैसे रियलिटी शो...
कमाल की बात है, लोग कहते हैं व्यस्तता बढ़ गई है, इस लिए डेली सो़प देखने का मन नहीं करता, कौन कहानी के चक्कर में पड़े, कॉमेडी भली है, इक बार में ख़त्म तो हो जाती है, पर कोई ये पूछे कि अगर इक बार में ख़त्म हो जाती है तो फिनाले के इन्तेज़ार में काहे को रहते हो भैया, और कॉमेडी भी किस तरह की, कॉमेडी के नाम पर बेहूदा मज़ाक हो रहा है, आज इक कॉमेडी शो चल रहा था, जिसमें मज़ाक हो रहा था की जनाब का पेट खराब है और वो अपनी प्रेमिका का दरवाजा खटका रहे हैं की प्रिय दरवाज़ा खोल दो वरना मेरी पतलून खराब हो जायेगी. अब कहिये ये किस तरह का बेहूदा मज़ाक है.
फिल्में भी तीन घंटे में ख़त्म हो जाती हैं, पर ऐसे कितने प्रतिशत लोग हैं, जो कि फिल्म को सच में देखने जाते हैं, इक सर्वे में बताया गया कि लगभग ४० प्रतिशत लोग तो यूँ ही घूमने के मकसद से पैसा बर्बाद करते हैं, २५ प्रतिशत पॉप कॉर्न का मज़ा लेने या दोस्तों के साथ चले जाते हैं, और जो बचे बाकी तीस प्रतिशत लोग, उनकी सुनता कौन है, बस धूम धड़ाका संगीत और हो गई पिक्चर हिट. कितने ही दिन हुए कोई गीत दिमाग पर नहीं छाया, वरना जब तक कोई फिल्म देखें और उसके गीत ज़हन में ना घूमें तो बात नहीं बनती, कोई बात, कोई सीन, कुछ भी तो याद नहीं रहता और फिल्म को मिलते हैं पांच स्टार, लोगो कि भीड़ को देख कर या जाने किस बात पर.
डेली सो़प लोग देखना पसंद नहीं करते पर फिर भी देखते उसी को हैं, कहने को सभी कहते हैं कि वही सास-बहू का ड्रामा, वाही रोज़ की चिकचिक. फिर भी 75 फीसदी घरों में सात बजते ही अगर कुछ चलता है तो वो हैं डेली सो़प और रात ग्यारह बजे से पहले तो ख़त्म होने वाले नहीं, अब श्रीमती जी का बहाना करें या और कुछ देखते तो सब वही हैं, वरना अगर ना देखें तो डेली सो़प का बाज़ार इतना गर्म कैसे हो.
रियलिटी शो की तो बात मत पूछिये. कोई पूछे कि क्या ये ड्रामा नहीं है. किसी को सोने नहीं दिया जाता तो किसी को अपशब्द सुनाये जा रहे हैं, खुलेआम, कहीं कोई स्वयंवर हुआ तो सभी को स्वयंवर का चस्का लग गया, फिर चाहे वो किसी का भी हो, चाहे लोग उसे पसंद ना करें पर बातें फिर भी उसी की करते हैं, देखा जाये तो रियलिटी शो भी किसी सास-बहू के ड्रामे से कहीं कम नहीं हैं, फर्क इतना है कि किरदार अलग हैं, और अब तो सास-बहू भी रियलिटी शो करेंगी, तो कहीं सासबहू ढूँढने निकली हैं रियलिटी शो के जरिये.
और इन सबसे बढ़कर सबसे बुरा हाल है, न्यूज़ चैनलों का, न्यूज़ यानि के समाचार.. देश-विदेश की खबरें.. देश में क्या चल रहा है इस बारे में जानकारी, लेकिन क्या ये सब हो रहा है चैनलों पर, नहीं.. बल्कि उनपर तो चल रहा है, कि एक-दूसरे कि टांग कैसे खीची जाए, किसी शो को पकड़ लिया तो उसे बंद करा के ही छोडेंगे, बस तीन तीन घंटे तक वही चलता रहता है, शो ने दर्शकों के घर बर्बाद कर दिए, कोई इनसे पूछे क्या दर्शक बेवकूफ हैं, कि इक शो से अपना घर बर्बाद कर लेंगे, और अगर ऐसा है तो मत देखो ना, किसी ने जबरदस्ती तो नहीं की आपके साथ, अजीब है हमारा दर्शक वर्ग भी, देखेगा और फिर बुरा भी कहेगा.
इक न्यूज़ चैनल पर इक कार्यक्रम देखा जिसमें इक घंटे की इक ख़ास कहानी दिखाई जाती है, कि हीरो अपनी प्रेमिका के कहीं और ब्याहे जाने पर सबका खून कर देता है, कहिये, क्या सीखेगा फिर हमारा समाज इस तरह के कार्यक्रमों से, और क्या ये खबर है, या चटपटा मसाला, सिर्फ अपने चैनल चलाने के लिए, यूँ ही तो इनकी टीआरपी बढती है !
कुल मिलकर, लोगो को कहानी, खबर, देश से कोई ख़ास सरोकार नहीं है, ना ही फर्क पड़ता है कि चल क्या रहा है, बस मसालेदार कुछ हो जाये.
मेरी नानी कहा करती थी अपनी ख़ास हरयाणवी शैली में "बस रोला रुक्का चाहिए" यही कुछ दीखता है आज के दर्शक वर्ग के साथ भी.
सबको मसाला चाहिए और वो भी शॉर्टकट में...

(सिनेमा हॉल की जगह मल्टीप्लेक्स लेते जा रहे हैं और आगे की सीट का दर्शक गायब होता जा रहा है....दीपाली की टीस के साथ इस वीडियो को देखना भी आपको शायद अच्छा लगे....)

दीपाली 'आब'
(दीपाली कविताएं भी लिखती हैं। हिंदयुग्म पर कविताएं भी भेजती रही हैं। बैठक पर ये इनका पहला लेख है)

Friday, September 11, 2009

उम्र की उल्टी गिनती पर बनी एक सीधी-सादी फिल्म


हॉलीवुड और बॉलीवुड की बहस बहुत पुरानी है और अक्सर लोग हॉलीवुड को हर तरह से बेहतर बताते हुए लम्बी-चौडी बहस करते हैं लेकिन यही लोग यहां पर बनी अच्छी फिल्म को सिरे से नकार देते हैं, ये कहकर कि यार फिल्म हल्की-फुल्की होनी चाहिये. दरअसल ये फर्क फिल्मों का नहीं, सोच का है और सोच से ही बनती है फिल्में. सिर्फ फिल्में ही नहीं ये फर्क जीवन के हर क्षेत्र में नज़र आता है चाहे वो खेल हों, विज्ञान हो या रोज़मर्रा के काम ही हों, हमारी जनता और उन्की जनता की सोच में बहुत अन्तर है. वहां लोग नये प्रयोगों के लिये हमेशा खुले होते है, और उसे प्रोत्साहित करते हैं जबकि हमारे यहां अधिकतर मानसिकता एक बंधी हुई लीक पर चलने की है, सदियों से जो निजाम चलता आया है वही चलेगा. उससे अलग जाने वाले को खामियाज़ा भुगतना पडता है. जीवन यापन के लिये अपना पेशा चुनने के वक्त भी आदमी इस लीक को छोड नहीं पाता है. यहां हर बच्चा डॉक्टर या इन्जीनियर बनने के लिये ही जन्म लेता है. यही कारण है कि हमारे यहां फैन्टेसी नही बनती हैं और वहां 'लॉर्ड ओफ द रिन्ग्स' के तीन सफल भाग बन जाते हैं.

खैर हम इस बहस में ज्यादा गहरे न उतरते हुए मुद्दे की बात पर आते हैं. मुद्दा है आज की फिल्म 'द क्यूरियस केस ऑफ बेन्जामिन बटन' जिसका विषय बिल्कुल नया है और साहसिक है. फिल्म एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो बूढा ही पैदा होता है और समय के साथ उसकी उम्र घटती जाती है... फिल्म की शुरुआत होती है द्वितीय विश्वयुद्ध खत्म होने के दिन से. उस रात एक बच्चा पैदा होता है जिसके पैदा होने के बाद उसकी मां की मौत हो जाती है. उसका पिता एक अमीर व्यवसायी है. वो जब उस बच्चे को देखता है तो उसे बेइन्तहां घृणा होती है, बच्चे के पूरे शरीर पर झुर्रियां हैं जैसे किसी 80 साल के बूढे के शरीर पर होती हैं. पिता उसे रात में एक वृद्धाश्रम में छोड देता है. वृद्धाश्रम की मालकिन एक बहुत ही सहृदय स्त्री है जो पहले ब्च्चे को देख कर घबराती है लेकिन फिर सहानुभूतिवश उसे अपने पास रख लेती है. सबको लगता है कि बच्चा मरने वाला है लेकिन समय के साथ जैसे-जैसे वो बडा होता है उसकी झुर्रियां कम होती हैं और शरीर की सारी समस्याएं खत्म होती जाती हैं. वो आंख खोलने के बाद ही से वृद्धों के बीच ही रहता है और उनसे ही उसकी मित्रता होती है. अजीब अहसास से गुज़रता है वो जब एक-एक करके उसके दोस्त दुनिया से विदा होते जाते हैं और उसकी उम्र कम होने लगती है.

ऐसी ही एक वृद्ध दोस्त की 5 साल की पोती कुछ दिनों के लिये वहां रहने आती है. उसकी दोस्ती बेन्जामिन से होती है, पहले ये दोस्ती एक बुजुर्ग व्यक्ति की दोस्ती होती है लेकिन यही दोस्ती आगे चलकर प्रेम बन जाती है. प्रेम कहानी को बहुत ही सुंदर ढंग से कहानी में गूंथा गया है. लडकी की उम्र बढती है और बेन्जामिन की उम्र घटती है. इस दौरान बेन्जामिन एक बोट पर नौकरी कर लेता है और कईं बरस बोट पर ही बिताता है जीवन के बहुत से उतार-चढावों से गुज़र कर वापस अपने घर, उसी वृद्धाश्रम में जाता है. ये वो वक्त है जब उसका बुढापा पूरी तरह से जा चुका है और वो एक खूबसूरत नौजवान है. यहां वो फिर से उसी लडकी से मिलता है जिसे वो हमेशा याद करता रहा है. दोनों शादी कर लेते हैं और उन्हें एक बच्ची भी होती है लेकिन बेन्जामिन अपनी घटती हुई उम्र से चिन्तित है, उसे लगता है कि जब उसकी बच्ची को एक पिता की छाया की ज़रूरत होगी, वो खुद इस हालत में होगा कि उसकी देखभाल के लिये किसी की ज़रूरत हो और उसकी पत्नी को 2 बच्चे पालने पडेंगे. वो अपनी पत्नी को बच्ची की सही परवरिश के लिये दूसरी शादी करने की सलाह देता है और एक दिन अपना सब कुछ बच्ची के नाम करके कहीं चला जाता है. कई साल इधर-उधर भटकने के बाद अन्त में वो फिर अपने घर पहुंचता है और अपनी पत्नी की गोद में दम तोडता है.

फिल्म फैन्टेसी ना होते हुए एक भावनात्मक कहानी है. निर्देशक ने बडी ही खूबी से एक असामान्य आदमी और उससे जुडे लोगों की भावनाओं को प्रदर्शित किया है. फिल्म दिल को छूती है. बेन्जामिन के रूप में ब्राड पिट ने दिल जीत लिया. उनकी पहचान एक स्टाइलिश हीरो की है लेकिन उन्होने बेन्जामिन के गहरे मनोभावों को जिया है. दाद दी जानी चाहिये मेक-अप मैन को जिसने बेन्जामिन की हर उम्र को इतनी स्वाभाविकता से दिखाया है. फिल्म का विषय बहुत बडा था जिसकी वजह से ऐसा लगता है, अन्त में इसे बहुत जल्दी समेट लिया गया. फिल्म एक बार ज़रूर देखी जानी चाहिये.

मैं इसे 5 में से 4 दूंगा

अनिरुद्ध शर्मा