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Thursday, August 06, 2009

पत्नी और प्रेमिका एक स्कूटर के दो पहिए हैं....

घर में जब भी पत्नी से अनबन होती है,सच कहूं भाई साहब! प्रेमिका की बहुत याद आती है। उस वक्त तो मन करता है कि गृहस्थी के सारे बंधन तोड़ प्रेमिका के किराए के दो कमरों में अपना स्थाई निवास बना लूं। लेकिन ऐन मौके पर यह क्या! कहीं छुपाई डायरी में प्रेमिका का नंबर ढूंढने सीना तान कर उठे तो पाया कि यार, डायरी का वह पन्ना तो सिलवर फिश चट कर गई है जिस पर जो प्रेमिका का फोन नंबर लिखा था। नरक मिले इस सिलवर फिश को भी! जले पर समाज तो नमक छिड़कता ही है पर इस मामले में ये सिलवर फिश भी कम नहीं। लो भैया! इस अनबन में डूबते को प्रेमिका का ही एक मात्र सहारा था, अब गया वह भी। अब रोते रहो बीते दिनों को याद करते हुए गुसलखाने में।

मेरे जो बंधु विवाह को जीवन का अंतिम लक्ष्य मान लेते हैं, उन सबके साथ अक्सर यही होता है। देखिए साहब! मैं तो इस सोच का बंदा हूं कि विवाह के बाद लाइफ में पत्नी की जगह अपनी, प्रेमिका की अपनी। जिस तरह से स्कूटर में दो पहिए चलने के लिए आवश्यक होते हैं, उसी तरह से विवाहित पुरूष को स्मूथ जीने के लिए पत्नी और प्रेमिका दोनों जरूरी हैं। एक पहिये पर स्कूटर आप चला सकते हैं तो चलाते रहिए, अपने बस की बात तो है नहीं भाई साहब!

बहुधा जनाब होता क्या है कि विवाह होते ही मर्द प्रेमिका को भूल जाता है। वह अक्सर इस गलत सोच का शिकार हो जाता है कि प्रेमिका का रोल जीवन में केवल विवाह से पहले का ही होता है। पर यह सोच बिलकुल गलत है। मेरा तो मानना है कि प्रेमिका की जरूरत विवाह के बाद बहुधा पहले से ज्यादा पड़ती है। अगर ऐसा न होता तो मेरा पड़ोसी सौ बार जूते खाने के बाद तो सुधरा होता।

बंधुओ!
वैवाहिक जीवन में इतनी महत्वपूर्ण पत्नी नहीं होती जितनी प्रेमिका होती है। समाज में न आदर्श जरूरी हैं न आदर्शवादी मर्द!धर्म मर्द को जंक फूड खाने से रोकता है तो पत्नी जंक धर्म के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। चाहे जंक फूड हो चाहे जंक धर्म, दोनों का आज के जीवन में बड़ा महत्व है। सनातनी चाहे इसका कितना ही विरोध करते फिरें पर मौका हाथ लगते ही वे भी उंगलियां चाट घर आते मुंह में तुलसी के पत्ते डाले कहीं भी देखे जा सकते हैं। रोज-रोज दाल-रोटी पेट खराब करते हैं तो एक पत्नी के साथ रहते मर्द दूसरी सांझ बूढ़ा हो जाता है। जो सनातनी संस्कृति के उपासक हैं उनके जूतों के निशान भी देख लीजिए,कोठों की सीढ़ियों पर इतिहास की तरह पक्के जमे हैं। अब वे इतिहास को नकारते फिरें, तो नकारते फिरें।

इसलिए-
आप विवाह के बाद कुछ संभाल कर रखें या न,प्रेमिका को अवश्य संभाल कर रखिएगा। विवाह के तुरंत बाद प्रेमिका के घर जाएं, उसके आगे अपनी विवशता का झूठा रोना रोएं,कहें,`न टाली जाने वाली परिस्थितियों के कारण मुझे इसके साथ विवाह करने के लिए विवश होना पड़ा। मैंने सामाजिक परंपरा निर्वाह मात्र के लिए विवाह तो इससे किया है,पर स्वर्गिक प्रेम तो बस तुम्ही से करता हूं।´ बस हो गया काम! कारण, आज भी समाज में ऐसी प्रेमिकाएं बहुत हैं जो दिमाग से काम कम ही लेती हैं।

पर-

गृहस्थी बिना तनाव के चले , अत: कुशल मर्द की समझदारी इसी में है कि प्रेमिका की पत्नी को बास भी न लगे। प्रेमिका को पत्नी से मिलवाना ही पड़े तो प्रेमिका को अपनी धर्म बहन बता दीजिए। वैसे भी आजकल मां-बाप, पत्नी आदि से प्रेमिका को मिलवाने में यह सम्बंध महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। धर्म के भाई-बहन चार-चार बच्चों के मां-बाप होते मैंने समाज में हजारों देखे हैं। रही बात धर्म की, जब धर्म का ही कोई धर्म नहीं तो हम आपका क्यों हो... और वह भी गृहस्थी में! गृहस्थी में और युद्ध में सब जायज होता है। सबके काम चलते रहें, इसमें कौन सी बुरी बात है....

लेकिन-

वैवाहिक जीवन में प्रेमिका की महत्ता को स्वीकारते हुए उससे कभी भी ऐसी बेईमानी न करे, कि जिसे वह नोट कर जाए। पत्नी को भले ही डोज़ दीजिए तो दीजिए। वह आपने ब्याही ही इसीलिए है। प्रेमिका को अगर लगा कि आप उससे धोखा दे रहे हैं तो वह समझदार भी हो सकती है। और अगर प्रेमिका ने घर बदल लिया तो आप न रहे घर के न घाट के! धोबी का कुत्ता मैं नहीं कहूंगा , कारण मैं खुद भी उसी बिरादरी से बिलांग करता हूं।

हमेशा याद रखें-
पत्नी का स्थान घर में होता है तो प्रेमिका का दिल में। पर परंपरा निर्वाह के लिए अधिक समय पत्नी को ही दें।
प्रेमिका को भले ही आप समाज के सामने धर्म बहन बना कर पेश करें, पर अब समाज इस रिश्ते के नए अर्थ को समझने लगा है। फिर भी, जब प्रेमिका को घर लाएं तो इस बात का ध्यान रखें कि पत्नी घर में न हो। हो सके तो प्रेमिका पर अपना विश्वास बनाए रखने के लिए बीच-बीच में उसके साथ विशेष प्रोग्राम भी बनाएं।

पत्नी को जितना चाहें डांटे। पर प्रेमिका को भूले से भी न डांटे। प्रेमिका आप की पत्नी नहीं कि सबकुछ भाग्य मान सह ले। उसने आप के साथ सात फेरे थोड़े ही लिए हैं। याद रखें, विवाहेतर प्रेम सम्बंधों की एक मात्र आधार-शिला प्रेमिका ही होती है, पत्नी नहीं। अगर वह आधार- शिला खिसकी तो समझो पूरा का पूरा वैवाहिक जीवन ही खिसका।

आवश्यक निर्देश-
वैवाहिक जीवन को समृद्ध बनाने के लिए पत्नी से मंदिर जाने के बहाने प्रेमिका को किसी अच्छे से रेस्तरा में लंच करवाने ले जाइए। उसे अच्छे-अच्छे पकवान खिलाइए, भले पत्नी घर में आटा-दाल पड़ोसियों से उधार ले आपका डिनर तैयार कर रही हो।

गांठबांध लें-

प्रेमिका के हितों की रक्षा आपके वैवाहिक जीवन का सर्वप्रथम कर्त्तव्य है। अत: भूले से भी पत्नी से सच्चा प्रेम न करें, पर सच्चे प्रेम का नाटक पूरी संजीदगी से करें। सबकुछ भूल जांए तो भूल जाएं,पर एक बात आठों पहर स्मरण रखें-हाथ से निकली प्रेमिका और शरीर से निकले प्राण पुन: लौट कर कम ही आते हैं।

अंत में
पत्नी को सोने के लिए फटी चादर दें तो प्रेमिका को अपनी पलकें बिछाएं। इससे जीवन में प्रेम फ्री प्रेम घुलता रहेगा।
गृहस्थी ने भले ही आपको लूंगी पर ला दिया हो,पर जब प्रेमिका से मिलने जाएं तो सज-धज कर जाएं ताकि प्रेमिका को लगे कि आपका गृहस्थी ने दीवाला नहीं निकाला है। सज-धज किराए पर लेने पर भी संकोच न करें। इससे प्रेमिका के मन में आपकी जेब के प्रति विश्वास बना रहेगा।

बेहतर हो -
सदा प्रेमिका को प्रेम के नीर में डुबो कर रखें। पत्नी मुरझाती हो तो मुरझाती रहे। उसने मुरझाने के लिए ही पत्नी होना स्वीकारा है। पत्नी की अपने समाज में यही नियति है मित्रो!
प्रेमिका को अगर लगे कि आपके प्रेम में झुर्रियां पड़ने लगी हैं तो तुरंत प्रेम के स्वास्थ्य लाभ के लिए किसी हिल स्टेशन पर सारे कम छोड़ हो लीजिए। पत्नी घर में बीमार हो तो होती रहे। प्रेमिका है तो वैवाहिक जीवन का आनंद है भाई साहब!

जरा अपने से पूछिए-

हम विवाह क्यों करते हैं? प्रेमिका के प्रेम को लांछन से बचाने के लिए। ऐसे में प्रेमिका को हर स्तर पर बनाए रखें ,भले ही जमाने से जूतें पड़ें। जूते टूटेंगे किसके? नुकसान होगा किसका ? जमाने का ही न! विवाहेतर सम्बंधों को जीने वाले सदा स्वर्ग के अधिकारी होते रहे हैं,मेरे बीसियों स्वर्गीय मित्र इस बात के पुख्ता सबूत हैं। मैं तो आपको अलर्ट भर कर सकता हूं, सो कर दिया। शेष, आपकी मर्जी भाई साहब!!

अशोक गौतम
द्वारा- संतोष गौतम, निर्माण शाखा,
डॉ. वाय. एस. परमार विश्वविद्यालय, नौणी,सोलन-173230 हि.प्र.

Tuesday, July 14, 2009

ब्लू फिल्म

'लड़की हर दुख की दवा थी'

भाग-2

मार्च की बारह तारीख को उन दोनों की शादी हो गई। मार्च की बारह तारीख को बृहस्पतिवार था। मैं उदास था। मेरा मन नहीं लगता था। मैंने कोई नौकरी कर लेने की सोची। साथ ही मैंने सोचा कि नौकरी करके आज तक कोई करोड़पति नहीं बना इसलिए नौकरी वौकरी में कुछ नहीं रखा है। मेरा एक बार कश्मीर घूम आने का मन था, थोड़ी सी जल्दी भी थी। अख़बार में रोज युद्ध की संभावना की ख़बरें आती थीं और मैं कश्मीर के उस पार या आसमान के पार चले जाने से पहले उसे एक बार देख लेना चाहता था। मेरे पास पैसे नहीं थे। मेरे पिता स्कूल मास्टर थे। वे ‘धरती का स्वर्ग’ नामक पाठ पढ़ाते हुए कश्मीर का बहुत अच्छा वर्णन करते थे लेकिन मुझे लगता था कि उन्होंने कभी कश्मीर के बारे में सोचा नहीं होगा। अशोका पास बुक्स वाले उन्हें हर कक्षा की एक ‘ऑल इन वन’ उपहार में दे जाते थे तो उन्हें बहुत खुशी होती थी। लेकिन वे जोर से नहीं हँसते थे। उनके पेट में दर्द रहने लगा था। जब हम छोटे थे तो वे कभी कभी गुस्से में बहुत चिल्लाते थे। माँ कहती थी कि उस चिल्लाने की वज़ह से ही उनके पेट में दर्द रहने लगा है। डॉक्टर उसे अल्सर बताते थे। डॉक्टरों को लगता था कि वे सब कुछ जानते हैं। माँ को भी अपने बारे में ऐसा ही लगता था।
डॉक्टर बनने के लिए बहुत सालों तक चश्मा नाक पर टिकाकर मोटी मोटी किताबें चाट डालनी पड़ती थीं। हमारे राज्य में उन दिनों पाँच मेडिकल कॉलेज थे जिनमें छ: सौ सीटें थीं। जनरल के लिए कितनी सीटें थीं, यह पता लगाने के लिए बहुत हिसाब किताब करना पड़ता था। अधिकांश लोग जनरल ही थे। बाकी लोगों में से कोई खुलकर अपनी जाति नहीं बताता था इसलिए भी ऐसा लगता होगा कि अधिकांश लोग जनरल ही थे। ब्राह्मण दोस्त के सामने कुम्हार दोस्त कुछ दबा सा रहता था लेकिन फिर भी अपना कुम्हार होना, अपने चमार होने जितना शर्मनाक नहीं लगता था। बनिया होना परीक्षा में मुश्किल से पास होना था लेकिन फिर भी बनिया होना खुलकर स्वीकार किया जाता था।
हमारे कस्बे में एक बहुत विश्वसनीय अफ़वाह थी कि उस परीक्षा की तैयारी करते करते एक लड़की पागल भी हो गई थी। उस लड़की का नाम किसी को नहीं पता था। किसी को पता होता तो मैं उससे एक बार मिलना चाहता था। वह लड़की किस जाति की थी, यह भी पता नहीं चल पाता था।
माँ कानों के हल्के से कुंडलों और चाँदी की घिसी हुई पायलों के अलावा कोई गहना नहीं पहनती थी। माँ को गहने न पहनने का शौक हो गया था। मुझे सिनेमा न जाने का शौक हुआ था और मेरी बहन लता को अचानक नए कपड़े न खरीदने का शौक हो गया था। उसकी उम्र तेईस साल थी। वह एम एस सी करके घर बैठी थी और ब्यूटी पार्लर का काम सीख रही थी। कुछ न कुछ करते रहना एक ज़रूरी नियम था। वह पच्चीस तरह से साड़ी बाँधना सीख गई थी। मुझे एक ही तरह से पैंट पहननी आती थी। कभी कभी उसमें भी टाँगें देर तक फँसी रहती थीं। मैं बीएड कर चुका था और नई सरकार के इंतज़ार में था। मुझे उम्मीद थी कि नई सरकार आएगी तो थर्ड ग्रेड की खूब भर्तियाँ निकलेंगी। विधांनसभा चुनाव होने में एक साल बाकी था। मुझे लगता था कि पिताजी चाहते होंगे कि तब तक मैं किसी प्राइवेट स्कूल में पढ़ा लूं लेकिन उन्होंने ऐसा कभी कहा नहीं था। माँ को अख़बार पढ़ना बहुत अच्छा लगता था लेकिन हमने घर में अख़बार नहीं लगवा रखा था। पिताजी कभी कभी स्कूल से पिछले दिन का अख़बार उठा लाते थे। उस शाम हम सब को बहुत अच्छा लगता था। हालांकि पिताजी के स्कूल में ‘राजस्थान पत्रिका’ आती थी और माँ को ‘भास्कर’ ज़्यादा पसंद था।
किसी किसी इतवार को मैं सुबह घूमकर लौटते हुए अड्डे से ‘भास्कर’ भी खरीद लाता था। बाकी दिन का डेढ़ रुपए का और शनिवार, इतवार का ढ़ाई रुपए का आता था। उन दो दिन साथ में चिकने कागज़ वाले चार रंगीन पन्ने होते थे।
माँ कभी कभी बहुत बोलती थी और कभी कभी बहुत चुप रहती थी। स्कूल के टाइम को छोड़कर माँ हमेशा घर में होती थी इसलिए घर में रहो तो माँ के होने का ध्यान नहीं रहता था। बाहर जाकर माँ की बहुत याद आती थी। मैं सोचता था कि आज घर लौटकर उसे बताऊँगा कि तेरी याद आई, लेकिन घर आने पर फिर उसके होने का ध्यान चला जाता था। रागिनी कहीं नहीं होती थी इसलिए उसकी याद दिन भर आती थी। मुझे लगता था कि वह भी घर में रहने लगती तो चार छ: महीने बाद उसकी याद भी बाहर आती और घर में उसे भूल जाया करता।
पिताजी बोर्ड की परीक्षा की खूब सारी कॉपियाँ मँगवाते थे। हर उत्तरपुस्तिका को जाँचने के दो रुपए मिलते थे। मई और जून में मैं, माँ और लता उनके साथ मिलकर पूरी दोपहर कॉपियाँ जाँचते थे। किसी किसी कॉपी में सिर्फ़ एक पत्र मिलता था जो जाँचने वाले अज्ञात गुरुजी के नाम होता था। अक्सर वह गाँव की किसी तथाकथित लड़की द्वारा लिखा गया होता था जो घरेलू कामों में फँसी रहने के कारण ठीक से पढ़ाई नहीं कर पाई होती थी और जिसकी सगाई का सारा दारोमदार उसके दसवीं पास कर लेने पर ही होता था। आखिर में आदरणीय गुरुजी के पैर पकड़कर निवेदन किया गया होता था और कभी कभी दक्षिणास्वरूप पचास या सौ का नोट भी आलपिन से जोड़कर रखा होता था। माँ उन रुपयों को मंदिर में चढ़ा आती थी। मैं और लता ऐसी कॉपियों पर बहुत हँसते थे। पिताजी ऐसी पूरी खाली उत्तरपुस्तिकाओं में किसी पन्ने पर गोला मारकर अन्दर सत्रह लिख देते थे।
रागिनी एक दिन लाल किनारी वाली साड़ी में बाज़ार में दिखी थी। वह कार से उतरी थी। कार में उसका पति बैठा होगा। मैं काले शीशों के कारण उसे नहीं देख पाया। रागिनी ने मुझे देखा और उसकी नज़र एक क्षण के लिए भी मुझ पर नहीं ठहरी। ऐसा करने के लिए मानसिक रूप से बहुत मजबूत होने की आवश्यकता थी। मैं ऐसा कभी नहीं हो सकता था। फिर वह सुनार की दुकान में घुस गई। कार का नम्बर ज़ीरो ज़ीरो ज़ीरो चार था। मुझे बहुत दुख होता था। मुझे दुख का शौक हो गया लगता था। मैं भिंडी खरीद रहा था जिसका भाव सोलह रुपए किलो था। वह सोना खरीद रही थी जिसका भाव मुझे नहीं मालूम था। उसे भी भिंडी का भाव नहीं मालूम होगा। मैंने तराजू में से दो तीन खराब भिंडी छाँटकर अलग की और आधा किलो के सात रुपए दिए। सब्जी वाला बहुत मोटा आदमी था और उसकी एक आँख नहीं खुलती थी। वह हँसता भी नहीं था। रागिनी तुरंत ही बाहर निकल आई। शायद लॉकेट वगैरह बनना दिया होगा जो बना नहीं होगा। इस बार उसने मेरी ओर नहीं देखा। कार का दरवाजा खुला। ड्राइविंग सीट पर एक पीली टी शर्ट वाला आदमी दिखा। रागिनी उसकी बगल में ही बैठ गई थी। फिर उसने ऊपर लगा शीशा कुछ ठीक किया और दरवाजा बन्द कर लिया।
उस रात मुझे कई सपने दिखे। एक में मैं जादूगर था। मैं लड़की को बीच में से आधा काटने वाला जादू दिखाने ही वाला था कि लड़की मेरे हाथ से माइक छीनकर मेरे जादू की असलियत दर्शकों को बताने लगी। दर्शक एक एक करके उठकर चले गए और पूरा हॉल खाली हो गया। फिर वह लड़की जोर से हँसी। फिर उस लड़की में मुझे रागिनी का चेहरा दिखा, फिर कुछ देर बाद माँ का, फिर कुछ देर बाद लता का। दूसरे सपने में मैं ट्रक ड्राइवर था। मेरी एक आठ नौ साल की बेटी थी। मैं रोज रात को देर से घर आता था। तब तक मेरी बेटी सो जाती थी। सुबह उसके उठने से पहले मैं निकल जाता था। कई बार बहुत दिन में घर आना होता था। बहुत दिन का सपना एक ही रात में एक साथ दिख गया था। मैं दिन भर बहुत गालियाँ देता था और बहुत गालियाँ खाता था। मेरा रोने का मन होता था तो हाइवे पर किसी ढाबे वाले को कहकर लड़की का इंतज़ाम करवा लेता था। लड़की हर दुख की दवा थी। मुझे मेरी बेटी की भी बहुत याद आती थी। उसकी आवाज सुने हफ़्तों बीत जाते थे। एक ही सपने में हफ़्ते भी दिख गए थे। एक दिन मैं घर लौटा तो मेरी पत्नी ने मुझे एक कागज़ दिया जो रात को सोने से पहले मेरी बेटी ने उसे मेरे लिए दिया था। टूटी फूटी लिखाई में दो लाइनें लिखी थीं। नदी किनारे बुलबुल बैठी, दाना चुगदी छल्ली दा। पापा जल्दी घर आ जाओ, जी नहीं लगदा कल्ली दा।
फिर मैं बहुत रोया और जग गया। सच में रागिनी की बहुत याद आती थी। सोने का भाव दस हज़ार के आस पास कुछ था।

(कहानी का शेष भाग अगले हफ्ते)

गौरव सोलंकी

Tuesday, July 07, 2009

ब्लू फिल्म

गौरव सोलंकी हिंदयुग्म का एक बड़ा नाम है....लगभग दो साल के हमारे रिश्ते में वो मुझसे उम्र की कई सीढियां आगे चढ़ गए हैं....हिंदयुग्म के कई सुख-दुख हमने साझा किए....आजकल उन्हें महान बनने की ज़िद है....सो, ब्लॉगिंग में वक्त ज़ाया नहीं करते...सिर्फ कहानियां लिखते हैं.....कहानियां ऐसी जैसे किसी कविता को हर सिरे से खींचकर लंबा कर दें और कहानी बन जाए....चूंकि, उनसे ज़रा पर्सनल ताल्लुक भी है, तो कह सकता हूं कि ज़िंदगी के दिनों को भी फिलहाल किसी नज़्म की तरह पढ़ रहे हैं जो उनकी समझ से बाहर हो...बैठक पर अब इस लंबी कहानी के ज़रिए कुछ हफ्तों तक नज़र आते रहेंगे...क्या पता, तब तक महान ही बन जाएं.... इत्तेफाक से आज गौरव का जन्मदिन भी है.....

भाग-1

भूखी गाली, भूखा घूंसा, भूखा सपना.....

जिस तरह ज़रूरी नहीं कि चाट पकौड़ियों की सब कहानियाँ करण-जौहरीय अंदाज़ में चाँदनी चौक की गलियों से ही शुरु की जाएँ या बच्चों की सब कहानियाँ ‘एक बार की बात है’ से ही शुरु की जाएँ या गरीबी की सब कहानियाँ किसानों से ही शुरु की जाएँ या कबूतरों की सब कहानियाँ प्रेम-पत्रों से ही शुरु की जाएँ, उसी तरह ज़रूरी नहीं कि सच्चे प्रेम की सब कहानियाँ सच से ही शुरु की जाएँ। इसीलिए मैंने रागिनी से झूठ बोला कि वही पहली लड़की है, जिससे मुझे प्यार हुआ है। ऐसा कहने से तुरंत पहले वह अपने विश्वासघाती प्रेमी की कहानी सुनाते सुनाते रो पड़ी थी। “तुम रोते हुए बहुत सुन्दर लगती हो”, यह कहने से मैंने अपने आपको किसी तरह रोक लिया था। फिर मैंने उसके लिए एक लैमन टी मँगवाई थी। मैंने सुन रखा था कि लड़कियों को खटाई पसन्द होती है, खाने में भी और रिश्तों में भी।
उसे कोई मिनर्वा टाकीज पसन्द था। मुझे बिल्कुल भी अंदाज़ा नहीं था कि यह इमारत दुनिया के किस कोने में है। वह देर तक उसके साथ वहाँ बिताए हुए ख़ूबसूरत लम्हे मुझे सुनाती रही। बीच में और एकाध बार मैंने दोहराया कि वही पहली लड़की है, जिससे मुझे प्यार हुआ है। मेरी आँखें उसकी गर्दन के आसपास कहीं रहीं, उसकी आँखें हवा में कहीं थीं। मैंने सुन रखा था कि लड़कियों के दिल का रास्ता उनकी गर्दन के थोड़ा नीचे से शुरु होता है। मैं उसी रास्ते पर चलना चाहता था। वैसे शायद सबके दिल का रास्ता एक ही जगह से शुरु होता होगा। सबका दिल भी एक ही जगह पर होता होगा। मैंने कभी किसी का दिल नहीं देखा था, लेकिन मैं फिर भी इस बात पर सौ प्रतिशत विश्वास करता था कि दिल सीने के अन्दर ही है। हम सब को इसी तरह आँखें मूँद कर विश्वास करना सिखाया गया था। हम सब मानते थे कि जो टीवी में दिखता है, अमेरिका सच में वैसा ही एक देश है। यह भी हो सकता है कि अमेरिका कहीं हो ही न और किसी फ़िल्म की शूटिंग के लिए कोई बड़ा सैट तैयार किया गया हो, जिसे अलग अलग एंगल से बार बार हमें दिखाया जाता रहा हो। जो लोग अमेरिका का कहकर यहाँ से जाते हों, उन्हें और कहीं ले जाकर कह दिया जाता हो कि यही अमेरिका है और फिर इस तरह एमिरलैंड अमेरिका बन गया हो। क्या ऐसा कोई वीडियो या तस्वीर दुनिया में है, जिसमें किसी देश के बाहर ‘अमेरिका’ का बोर्ड लगा दिखा हो? लेकिन टीवी में देखकर विश्वास कर लेना हमारी नसों में इतने गहरे तक पैठ गया था कि कुछ लोग अमेरिका न जा पाने के सदमे पर आत्महत्या भी कर लेते थे। ऐसे ही कुछ लोग प्रेम न मिलने पर भी मर जाते थे, चाहे प्रेम सिर्फ़ एक झूठी अवधारणा ही हो।
लेकिन डॉक्टर समझदार थे। कभी किसी पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में नहीं लिखा गया कि अमुक व्यक्ति प्यार की कमी से मर गया। यदि दुनिया भर की आज तक की सब पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट देखी जाएँ तो यही निष्कर्ष निकलेगा कि दुनिया में हमेशा प्यार बहुतायत में रहा। लोग सिर्फ़ कैंसर, पीलिया, हृदयाघात और प्लेग से मरे।
वह एक पुराना शहर था जिसे अपने पुराने होने से उतना ही लगाव था जितना वहाँ की लड़कियों को अपने पुराने प्रेमियों से। रागिनी ने मुझे समझाया कि लड़के कभी प्यार को नहीं समझ सकते। मैंने सहमति में गर्दन हिलाई। गर्दन के थोड़ा नीचे मेरे दिल तक जाने वाला रास्ता भी उसके साथ हिला। फिर हम एक मन्दिर में गए, जिसके दरवाजे पर कुछ भूखे बच्चे बैठे हुए थे। अन्दर एक आलीशान हॉल में सजी सँवरी श्रीकृष्ण की मूर्ति के सामने वह सिर झुकाए कुछ बुदबुदाती रही। मैं इधर उधर देखता रहा। जब हम लौटे तो भूखे बच्चे भूखे ही बैठे थे। उनमें से एक ने दूसरे को एक भूखी गाली दी, जिस पर भड़ककर दूसरे ने पहले के पेट पर एक भूखा घूंसा मारा। और बच्चे भी लड़ाई में आ मिले। वहाँ भूखा झगड़ा होता रहा। अपने में खोई रागिनी ने यह सब नहीं देखा। मैंने जब उसे यह बताया तो उसने कहा कि भूख बहुत घिनौना सा शब्द है और कम से कम मन्दिर के सामने तो मुझे मर्यादित भाषा का प्रयोग करना चाहिए। यह सुनकर मेरा एक भूखा सपना रोया। मैं हँस दिया।
वहीं पास में एक सफेद पानी की नदी थी जो दूध की नदी जैसी लगती थी। सर्दियों की रातों में जब उसका पानी जमने के नज़दीक पहुँचता होगा तो वह दही की नदी जैसी बन जाती होगी। उस नदी के ऊपर एक लकड़ी का पुल था जिस पर खड़े होकर लोग रिश्ते तोड़ते थे और दो अलग-अलग दिशाओं में मुड़ जाते थे। उस पुल का नाम रामनाथ पुल था। मुझे लगता था कि रामनाथ बहुत टूटा हुआ आदमी रहा होगा।
हम उस पुल के बिल्कुल बीच में थे कि एकाएक रागिनी रुककर खड़ी हो गई। रिश्ते टूटने वाला डर मुझे चीरता हुआ निकल गया। वह पुल के किनारे की रेलिंग पर झुकी हुई थी। फिर उसने कुछ पानी में फेंका, जो मुझे दिखा नहीं।
मैंने कहा- रागिनी, तुम ही दुनिया की एकमात्र ऐसी लड़की हो, जिससे प्यार किया जा सकता है।
वह गर्व से मुस्कुराई। वह मुस्कुराई तो मुझे अपने कहने के तरीके पर गर्व हुआ।
वह एक ख़ूबसूरत शाम थी, जिसमें एक अधनंगी पागल बुढ़िया पुल पर बैठकर ढोलक बजा रही थी और विवाह के गीत गा रही थी। कॉलेज में पढ़ने वाले कुछ लड़के वहाँ तस्वीरें खिंचवा रहे थे। रागिनी ने अपना दुपट्टा हवा में उड़ा दिया जो सफेद पानी में जाकर गिरा। उसका ऐसा करना उन लड़कों ने अपने कैमरे में कैद कर लिया। चार लड़कों वाली फ़ोटो के बैकग्राउंड में दुपट्टा उड़ाती रागिनी।
उन चारों लड़कों को उससे प्यार हो गया था। वे जीवन भर वह तस्वीर देखकर उसे याद करते रहे। उन्होंने एक दूसरे को यह कभी नहीं बताया।
फिर रागिनी ने अपना मुँह मेरे कान के पास लाकर धीरे से कहा कि वह मुझे कुछ बताना चाहती है। उसके कहने से पहले ही मैंने आँखें बन्द कर लीं। उसने हाथ हवा में उठाकर कोई जादू किया और उसके हाथ में शादी का एक कार्ड आ गिरा। वह जादू जामुनी रंग का था जिस पर लिखा था, ‘रागिनी संग विजय’।
यह बहुत पहले ही किसी ने तय कर दिया था कि सब शादियों के निमंत्रण पत्र गणेश जी के चित्र से ही शुरु किए जाएँ। कहानी यहीं से आरंभ हुई....

(क्रमश:)

गौरव सोलंकी