ब्लू फिल्में हमारे लिए भगवान थीं...
घर के बाहर भीड़ लगी थी। तीन लड़के लता का पीछा करते हुए घर तक आए थे। लता ने तेज़ी से अन्दर घुसकर माँ को बाहर बुला लिया था और बताया था कि कई दिन से ये लड़के ब्यूटीपार्लर से घर तक उसके पीछे आते हैं। माँ उन लड़कों को रोककर गालियाँ देने लगी थी। वे लड़के भी हँस-हँसकर जवाब दे रहे थे। आस-पड़ोस के और राह चलते लोग आ जुटे थे। अच्छा-खासा तमाशा बन गया था।
पिताजी कुछ देर से बाहर आए। तब तक माँ अकेली बोलती रही। उसने लता को अन्दर भेज दिया। मैं घर में नहीं था। मैं यादव के घर में पड़ा रागिनी को याद कर रहा था। कोई पड़ोसी कुछ बोल नहीं रहा था। माँ चिल्लाती-चिल्लाती रोने को हो गई थी। लड़के खड़े बेशर्मी से हँसते रहे थे।
पिताजी चश्मा लगाते हुए बाहर निकले। उन्होंने सफेद कुरता-पायजामा पहन रखा था। उनके चेहरे पर कुछ था कि उनका अध्यापक होना पहली नज़र में ही पता चल जाता था। ऐसा लगता था कि उन्हें मारो तो वे सिर्फ़ धमकाएँगे, मार नहीं सकेंगे। उन तीन लड़कों में जो लड़का ‘मुख्य’ लड़का था, वह गली की एक बूढ़ी औरत को बुला लाया। वह उसके उस दोस्त की माँ थी, जिससे मिलने वे तीनों रोज़ शाम को आते थे। उस बूढ़ी औरत ने चिल्ला-चिल्लाकर इस बात को सत्यापित किया। पिताजी चुप रहे। हो सकता है कि पिताजी कुछ बोले भी हों मगर वह किसी को सुना नहीं। भीड़ और बढ़ गई थी जैसे शाहरुख़ ख़ान की कोई फ़िल्म चल रही हो। फ़िल्म होती तो उस दृश्य में मेरे पिताजी को खलनायक की तरह प्रस्तुत किया जाता। सब ‘मुख्य’ लड़के की मुस्कुराहट पर तालियाँ बजाते। मैं और लता भी हॉल में बैठकर ऐसी कोई फ़िल्म देख रहे होते तो पिताजी को खलनायक ही समझते। वैसे वे पूरी फ़िल्म के खलनायक या नायक कभी नहीं बन सकते थे क्योंकि वे अध्यापक थे। उनका एक ही सीन होता।
पिताजी ने थोड़ी तेज आवाज़ में उन्हें चले जाने को कहा तो भीड़ को सुना। भीड अब पहले से धीरे फुसफुसाने लगी। यह उन लड़कों को अपमानजनक लगा। मुख्य लड़के ने हँसना बन्द कर दिया। उसके पीछे-पीछे बाकी दोनों लड़के भी गंभीर हो गए। सब वहीं खड़े रहे। फिर अचानक मुख्य लड़का तैश में आ गया और उसने पिताजी को गाली दी।
वह एक लम्बी गली थी, जिसमें हमारा घर था। उस गली के दोनों कोनों पर खड़े आदमियों ने वह गाली सुनी। हमारे घर के पचास मीटर के दायरे में ही साठ-सत्तर लोग होंगे। घरों में बैठे लोगों और छत से देख रहे लोगों के साथ गाय, भैंसों, कुत्तों, चिड़ियों, कबूतरों, मेंढ़कों और चूहों के कानों को जोड़कर ठीक ठीक हिसाब लगाया जाए तो करीब दो हज़ार कानों ने वह गाली सुनी। मेरी जानकारी में पिताजी को ऊँचा तो नहीं सुनता था, लेकिन और कौन सी वज़ह हो सकती है कि पिताजी ने पूछा, “क्या?”
यह ‘क्या’ उन लड़कों को किसी चुटकुले सा लगा और वे हँस दिए। भीड़ चुप, जैसे भीड़ को अजगर सूंघते हों। दो क्षण के लिए भीड़ का सिर झुका और फिर उठ गया। आँखें तीर की तरह हमारी देहरी पर। माँ, जिसे कभी-कभी ऊँचा सुनता था, उसने अपनी बाटा की चप्पल उतारी और लड़के के मुँह पर दे मारी। माँ का निशाना इतना अच्छा नहीं था लेकिन लड़का बचने के प्रयास में नीचे झुक गया तो चप्पल सीधे उसकी नाक पर लगी। भीड़ हँसी, भीड़ फुसफुसाई, अजगर सूंघता हुआ लड़कों के पास आ खड़ा हुआ। लड़के स्तब्ध से कुछ क्षण खड़े रहे और फिर चले गए। पिताजी भीड़ के पार से गली के दूसरे मोड़ को देखते रहे। माँ ने नाली के पास पड़ी अपनी चप्पल उठाई और एक चप्पल पैर में पहने, एक हाथ में लिए भीतर चली गई। भीड़ भी छँट गई।
उस रात माँ ने राजमा की सब्जी बनाई। मैं उसी के साथ रोटियाँ खा रहा था, जब माँ ने मुझे शाम की पूरी घटना सुनाई। मुझे लगा कि उस घटना को सुनकर मुझे ज़ोरों से गुस्सा आना चाहिए था, जो नहीं आया। मैंने और दिनों की अपेक्षा आधी रोटी ज़्यादा ही खाई होगी। माँ बीच-बीच में रोने लगती थी। मुझे दुख होता था। लता अन्दर बैठी किसी पत्रिका का बुनाई विशेषांक पढ़ रही थी। उस रात पिताजी मुझे नहीं दिखे, हालांकि वे घर में ही थे।
शाम को मैं यादव के घर में पड़ा रहा था। मैं रागिनी के गीत गाता रहा था और वह उकताकर अपना ब्लू फ़िल्मों का कलेक्शन उठा लाया था। उसके पिता का ट्रांसपोर्ट का बिज़नेस था। उनके घर वी.सी.आर. था।
- इसके कितने सही हैं ना यार! बस ऐसे मिल जाएँ एक बार...
- फिर क्या करेगा?
- फिर तो वही बताएगी कि क्या किया?
उसने ऐसा चेहरा बनाया कि उसके दिमाग में बना चित्र मुझे साफ साफ दिख गया। मुझे हँसी आ गई। मैं उठकर बैठ गया और यादव की तरह टकटकी बाँधकर टीवी देखने लगा।
वह ख़ुशी नहीं थी, जो हमें उन फ़िल्मों को देखकर मिलती थी। या तो वह उम्र ऐसी थी या वह समय, या वह शहर, कि हमारा रोने का मन करता था तो भी हम ब्लू फ़िल्में देखते थे, गुस्सा आता था तो भी, प्यार के बिना जीना असंभव लगने लगता, तो भी...
हमारी आँखों की कोरों में इतनी बेचैनी भरी पड़ी थी कि उन दिनों वे फ़िल्में न होती तो हम आत्महत्या कर लेते। उन देशी विदेशी नीली फ़िल्मों ने हमें जिलाए रखा। वे फ़िल्में हमारी भगवान थीं।
गौरव सोलंकी
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10 बैठकबाजों का कहना है :
सोलंकी जी जैसे जैसे कहानी आगे बढती है मजेदार हो जाती है. आपकी कहानी की खासियत खासियत यह रहती है कि संवाद बहुत अच्छे होते हैं.
"मैं और लता भी हॉल में बैठकर ऐसी कोई फ़िल्म देख रहे होते तो पिताजी को खलनायक ही समझते। वैसे वे पूरी फ़िल्म के खलनायक या नायक कभी नहीं बन सकते थे क्योंकि वे अध्यापक थे।"
"मेरी जानकारी में पिताजी को ऊँचा तो नहीं सुनता था, लेकिन और कौन सी वज़ह हो सकती है कि पिताजी ने पूछा, “क्या?” "
"हमारी आँखों की कोरों में इतनी बेचैनी भरी पड़ी थी कि उन दिनों वे फ़िल्में न होती तो हम आत्महत्या कर लेते। उन देशी विदेशी नीली फ़िल्मों ने हमें जिलाए रखा। वे फ़िल्में हमारी भगवान थीं। "
"उन देशी विदेशी नीली फ़िल्मों ने हमें जिलाए रखा। वे फ़िल्में हमारी भगवान थीं। "
कहानी की पृष्ठभूमि बहुत अच्छी लगी. मुझे तो लगातार इन्तेज़ार रहता था हर अगले भाग का.
बढिया चल रही है कहानी.
this is really a bundle story which depict useless subject. sorry mr writer but truth is truth accordind to me .
कुछ गैर जरूरी बातें हैं
जो इस कहानी की जरूरतें बना दी गयी हैं...
उम्दा..!
फ़राज़ साहब की बातो से सहमत हूँ..
कहानी में रोमांच ,उत्सुकता बनी हुयी है .माँ का साहस भरा कदम पसंद आया .हकीकत के करीब है .बधाई .
कहानी में उत्सुकता ,रोमांच बना रहता है माँ का कदम चप्पल मारने का सराहनीय है
हकीकत के. करीब है .बधाई .
गौरव सौलन्की जी लेखक होने काअ भ्रम मत पालो
कहानी मे और थोद चटका मार देते तो लिसी अश्लील साइट के लिये बढिया पोस्ट बन जाती.
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