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मुसलमानों पर बहस ज़रूरी है-1
मीडिया संस्थानों की मांग
सम्मेलन में एक वक्ता की अपने(माने मुस्लिम) मीडिया संस्थानों की मांग चौंकाने वाली थी... देश की हर संवेदनशील खबर से वर्तमान मीडिया संस्थानों का सीधा सरोकार है.. ऐसे में कोई खबर हिन्दू या मुसलमान नहीं बल्कि सिर्फ खबर है और देश के मीडिया संस्थानों में मुस्लिम समुदाय की अच्छी-खासी भागीदारी है..... अब सवाल ये है कि कौन सा ऐसा काम है जो वर्तमान मुस्लिम मीडियाकर्मी नहीं कर पा रहे हैं....और ऐसा भी नहीं है कि मुस्लिम समुदाय से पूरी तरह से संबंधित चैनल आये नहीं, लेकिन टीआरपी के खेल में उलझ कर वह गायब हो गए..ऐसे में अपनी बात रखने का सशक्त माध्यम आप मुस्लिम मीडिया संस्थानों को कैसे कह सकते हैं...क्या तय है आपके इस माध्यम को दर्शक के रूप में अन्य लोग स्वीकार करेंगे..सवाल कई हैं...क्या कभी किसी धार्मिक चैनल को वो टीआरपी मिली जो एक न्यूज़ चैनेल को मिलती है.....आज मुसलमानों को अपनी बात रखने के लिए किसी न्यूज़ चैनल का मुंह नहीं ताकना है.....इस तरह की बातें शब्दों के अभाव में मात्र छलावा हैं....आज ज़रुरत ये है कि अपना मुंह खुद खोला जाये, अपनी बात खुद रखी जाये और ये काम हर आम आदमी का है....फिर कोई वजह नहीं कि देश की दूसरी बड़ी आबादी की बात नकारी जाये
मुस्लिमो की शैक्षणिक तथा सामाजिक समस्याएँ और बरेली सम्मेलन
बरेली सम्मेलन में एक बात जो जोर-शोर से उठी, वो थी शिक्षा का गिरता स्तर...वक्ताओं ने इस मुद्दे पर फिक्रमंदी ज़ाहिर की और ख़ास तौर पर औरतों की शिक्षा पर जोर दिया गया.....तालीम के लिए बेदारी एक सुखद अनुभूति है....वह भी तब, जब ये आवाज़ मुस्लिम नवयुवकों के बीच से उठी हो..... लेकिन यहीं देखने की बात ये है कि मुस्लिमो कि तालीमी परेशानियाँ किस तरह की हैं... आज मुस्लिम समुदाय का एक बड़ा तबका तालीम के लिए मुस्लिम मदरसों पर निर्भर करता है....और हो भी क्यूं न....वहां भले ही कॉन्वेंट स्कूल जैसा तालीमी माहौल नहीं है, लेकिन मुस्लिमो को तालीम जारी रखने के लिए बाकी सहूलते हैं.... और सच पूछा जाये तो मुसलमानों कि बड़ी तादाद मदरसों में पढने को मजबूर है.... मुस्लिम तुष्टिकरण के नाम पर सरकारों ने मदरसों को वित्तीय सहायता का एलान तो किया, लेकिन वहां दी जाने वाली शिक्षा के प्रति संसाधनों पर ध्यान नहीं दिया.....क्या ज़रूरी नहीं कि मदरसे भी कंप्यूटर एजूकेशन, तथा अंग्रेजी से लैस हों.... इस मामले में जामिया सुफिया यूनिवर्सटी एक बेहतरीन उदाहरण है, जहाँ इल्मे-दीन के साथ-साथ छात्र कम्प्यूटर, इंग्लिश, तथा संस्कृत जैसी भाषाओं के साथ अपनी तालीम पूरी कर रहे हैं....बात यहीं ख़त्म नहीं होती...लड़कियों की तालीम के लिए भी नज़रिए बदलने होंगे....लड़की ख़त पढने लगी भर की संतुष्टि आखिर कब तक ??
सामाजिक स्तर पर चीख-चीख कर खोखली तकरीरों से कुछ होने वाला नहीं है....यह बात ठीक है कि कुछ लोग अपने राजनैतिक लाभ के लिए मुसलमानों को उकसाते हैं लेकिन ऐसे लोगों की संख्या इतनी नहीं कि वो हिन्दुस्तान के प्रति एक सच्चे वतनपरस्त मुसलमान को किसी स्तर पर डिगा सकें..... फिर मुसलमान कुंठा का शिकार क्यूं ? यह देश हमारा है.... इसके ज़र्रे-ज़र्रे में हम हैं...सामाजिक परिवेश में आज भी आम हिन्दू-आम मुसलमान के साथ दिखाई देता है... अवध की तहज़ीब में ऐसी समानताएं प्रायः देखने को मिलती हैं... अवध के ही ग्रामीण इलाकों में मुस्लिमों में बच्चे की पैदाइश से पहले यह गीत गाया जाता है कि अल्लाह मियां अब कि से दीज्यो नंदलाल..... ज़रा महसूस कीजिए कि जहाँ दो संस्कृतियाँ मिल कर एक नयी तहजीब को जन्म दें, वहां अपने ही अस्तित्व पर सवाल महज़ एक अनजान डर प्रतीत होता है......आम मुसलमान को समझना होगा कि उनके प्रति संदेह करने वाले लोगों का अपना मकसद है और जिस दिन हम-आप यह समझ जायेंगे उस दिन मुसलमान बेखौफ होकर क्रिकेट मैच देख सकेगा...
हाशम अब्बास नक़वी 'बज़्मी'
(ये बहस आगे भी जारी रहेगी...आप भी अपने लेखों के साथ इस बहस में आएं...आपका स्वागत है....)
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4 बैठकबाजों का कहना है :
लाजवाब आलेख समाज में मुसलमानों के प्रति जागरूकता लायेगा .बधाई
बिलकुल सही कहा है इसके लिये जिस चीज़ का अभाव है वो ये कि मुस्लिम समाज को अपनी इस प्रतिबद्धता और भारतियता को सब के सामने लाने की जरूरत है ये भी सही है कि जो लोग हिन्दु--मुस्लिम के बीछ भेद भाव को हवा दे रहे हैं उन्हें भी लोगों के सामने नंगा करना पडेगा और जो मुस्लिम आतंकियों के लिये साफ्ट कारनर हैं उन्हें भी सामने लाना चाहिये तकि आपस मे भाई चारा मज़बूत किया जाये ऐसे आलेख मीडिया मे बडे स्तर पर प्राचारित प्रासारित होने चाहिये आभार्
मुझे लगता है कि शिक्षा हर व्यक्ति के लिये महत्वपूर्ण है और शिक्षा से ही सोच में बदलाव आता है.सही गलत को समझने की शक्ति विकसित होती है.
यह बात सही है कि मुसलमान दूसरी कौमों के मुकाबले तालीम में पिछडे हुए हैं. यहाँ सबसे बड़ा सवाल यह है कि मुस्लिम समुदाय का आर्थिक रूप से पिछड़ा होना, उनके श्ौक्षिक पिछड़ेपन के लिए जिम्मेदार है या यूं कहा जाये कि शिक्षा में पीछे होने के कारण ही ये आर्थिक व सामाजिक रूप से पीछे रह गए हैं। मुसलामानों की इस स्थिति का सही जायजा लेने के लिए हमें कुछ समय पीछे जाना पड़ेगा.
आज़ादी के बाद मुसलमानों का लखनऊ में मौलाना अबुल कलाम आजाद की पहल पर एक अधिवेशन हुआ इसमें यह तय किया गया कि मुसलमान अपना कोई स्वतंत्र राजनीतिक दल नहीं बनायेंगे और इसमें उन्हें काफी हद तक कामयाबी भी मिली, लेकिन मुस्लिम समुदाय में जो सामाजिक, सांस्कृतिक, श्ौक्षिक या राजनैतिक विकास होना चाहिए था वह नहीं हो पाया.
यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि मुस्लिम समुदाय के शिक्षा में पिछड़ने के पहलुओं पर पिछली एवम् वर्तमान सरकार की गलत नीतियों के साथ-साथ मुस्लिम समुदाय की रूढ़ियां एवं आर्थिक पिछड़ापन भी कम दोषी नहीं हैं। आज वास्तविकता यह है कि मुस्लिम समुदाय इनके भंवर जाल के रूप में फंस गया है जिससे वह आज तक नहीं निकल पाया है फिलहाल आज के इस गलाकाट प्रतिस्पर्धा वाले युग में मुसलमान अपने को कितना आगे (श्ौक्षिक स्तर पर) ले जायेंगे यह भविष्य के गर्भ में छिपा हुआ है?
इसके साथ ही कुछ हद तक सरकार भी जिम्मेदार है मुस्लिम शिक्षा को लेकर जो वायदे किये गए थे वो पूरे नहीं किये गए. इसी तरह से कुछ और गलत नीतियां भी रही सरकार की.
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