Monday, March 23, 2009

एक मर मिटने की हसरत ही दिले-बिस्मिल में है

भारतीय इतिहास में २३ मार्च का दिन भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव की शहादत के तौर पर याद किया जाता है। हिन्द-युग्म के प्रेमचंद सहजवाला विगत ६ महीनों से भगत सिंह और उनके सभी दस्तावेजों का पुनर्वालोकन कर रहे हैं। आज इन शहीदों को सलाम करते हुए इस लेखमाला की अंतिम कड़ी प्रकाशित कर रहे हैं।


ट्रिब्यूनल - ट्रिब्यूनल जब गठित हुआ तो उस में तीन जज थे: जस्टिस जॉन कोल्डस्ट्रीम (अध्यक्ष), जस्टिस जी सी हिल्टन व जस्टिस सैय्यद आगा हैदर. पर 12 मई को क्या हुआ कि जज जब अदालत में प्रविष्ट हुए तो क्रांतिकारी रोज़ की तरह देशभक्ति के गीत गा रहे थे व नारे लगा रहे थे. प्रायः जज इन गीतों के बाद ही अदालत में प्रवेश करते थे. इस बीच पुलिस क्रांतिकारियों की हथकड़ियाँ भी हटा देती थी. पर आज जज पहले ही भीतर आ गए. अध्यक्ष जस्टिस कोल्डस्ट्रीम ने क्या किया कि पुलिस के लिए एक आदेश लिखा कि सभी अभियुक्तों को दोबारा हथकड़ियाँ लगाई जाएँ और वापस जेल भेज दिया जाए. पुलिस तुंरत हरकत में आ गई. पर क्रांतिकारी हड़बड़ाहट व अंधाधुंध तरीके से हथकड़ियाँ लगाई जाने के बावजूद गाते रहे - मेरा रंग दे बसंती चोला...पुलिस से जद्दोजहद में तीन युवक - प्रेम दत्त, अजय घोष व कुंदन लाल बेहोश हो गए व कई अन्य ज़ख्मी हो गए. इस पर जस्टिस आगा हैदर ने अध्यक्ष जस्टिस कोल्डस्ट्रीम से असहमति जताई और एक आदेश लिखा कि वे उन के इस आदेश में शामिल नहीं हैं. ट्रिब्यूनल में गहरे मतभेद होने शुरू हो गए. जस्टिस कोल्डस्ट्रीम से माफ़ी मांगने की डिमांड होने लगी. इस लिए 20 जून 1931 को जब ट्रिब्यूनल की अन्तिम बैठक हुई, तो ट्रिब्यूनल का पुनर्गठन किया गया. आगा हैदर को हटा दिया गया क्यों कि वे अन्य दो साथियों से असहमत रहते थे व यदा कदा क्रांतिकारियों का पक्ष ले लेते थे. कोल्डस्ट्रीम को लम्बी छुट्टी का आर्डर पकड़ा दिया गया. अब नए ट्रिब्यूनल के अध्यक्ष थे जस्टिस जी सी हिल्टन व अन्य दो सदस्य : जस्टिस टैप व जस्टिस अब्दुल कादिर.
ब्रिटिश  का धर्म-संकट जब बढ़ता गया,  तब अचानक वायसराय को बीच में पड़ना पड़ा.  वायसराय ने क्या किया कि सारे मुक़दमे में एक ट्रिब्यूनल ले कर कूद पड़ा.  उसने उच्च-न्यायलय के तीन जजों, (जस्टिस जी सी हिल्टन, अब्दुल कादिर व जे के टैप)  का एक विशेष ट्रिब्यूनल बनाया, जो इस  मुक़दमे की पैरवी करे और वह जो भी फ़ैसला दे, उस के विरुद्ध अपील तक न की जा सके.  यानी अपने ह्रदय-पटल पर तो ब्रिटिश एक जजमेंट लिख  ही चुकी थी,  केवल उसे एक मुखौटा देना था, सो उस ने  दिया.  दिनांक 1 मई 1930 को शिमला से एक  Ordinance III पारित करा कर वायसराय  लार्ड  इर्विन ने ट्रिब्यूनल का गठन किया.  इस Ordinance III की खासियत यह भी कि इसे वायसराय के हस्ताक्षर से पहले असेम्बली द्वारा पारित कराना भी अनिवार्य नहीं था.  यानी पूरी जनता के अधिकारों को फलांग कर, एक लम्बी कूद जैसा  था यह Ordinance III.  देश-भक्तों  की मृत्यु का यह दस्तावेज़ ब्रिटिश के खूनी हाथों द्वारा लिखा  जाना था.  अलबत्ता इस ट्रिब्यूनल के पास एक सीमित अवधि थी,  यानी छः महीने,  जिस के बाद ट्रिब्यूनल स्वयमेव समाप्त हो जाएगा.  भगत सिंह ने तो अदालत में मजिस्ट्रेट से ही कह दिया कि ब्रिटिश द्वारा इस ट्रिब्यूनल का गठन ही अभियुक्तों की विजय पताका है,  क्यों कि सभी अभियुक्त तो इतने दिन जनता को यही बताना  चाहते थे कि देश में दर-असल कोई क़ानून है ही नहीं (केवल जंगल का क़ानून है),  और यह काम वायसराय ने स्वयं  अपने कर-कमलों द्वारा ही कर दिया है.  भगत सिंह ने वायसराय को एक  पत्र लिख कर उसे  एक आईना सा दिखा दिया.  भगत सिंह ने स्पष्ट लिखा कि ट्रिब्यूनल बनाने के कारणों में यह लिखा गया है कि हम लोगों में से दो जने तो मुकदमा शुरू होने से पहले ही भूख हड़ताल पर चले गए थे.  कि  हम तो मुक़दमे में  रुकावट डालना  चाहते हैं.  पर कोई भी सामान्य बुद्धि वाला व्यक्ति यह सहज ही समझ सकता है कि भूख  हड़ताल का दर-असल मुक़दमे से कोई ताल्लुक  ही नहीं था.  (भूख हड़ताल तो जेल में हम सब के साथ हुए दुर्व्यवहार से सम्बंधित थी).  जब जब सरकार ने जेल की स्थिति सुधारने  का आश्वासन दिया,  तब तब हमने भूख-हड़ताल समाप्त भी की.  पर जब सरकार की नीयत का खोखलापन उजागर हुआ,  तब हम फ़िर हड़ताल पर चले गए.  पर यह कहना सरासर ग़लत होगा कि मुक़दमे में रुकावट डालने के लिए हम हड़ताल पर गए.  जतिन दास जैसे बहादुर नौजवान ने ऐसी तुच्छ सी बात के लिए अपनी जान कुर्बान नहीं की होगी.
 
मुक़दमे से तो इन सभी बहादुरों में से कोई भी नहीं डरता था.   इन देश-भक्त जवानों पर तो,जैसा पहले लिखा गया है, बिस्मिल की ग़ज़ल का ही यह शेर भी लागू होता है:
 
अब न अहले-वलवले हैं और न अरमानों की भीड़
एक मर मिटने की हसरत ही दिले-बिस्मिल में है
 
ये सब क्रांतिकारी जानते थे, कि अंततः देश के  लिए उन्हें मृत्यु का ही वरण करना है.   मुक़दमे की तरफ़ तो भगत सिंह ने शुरू से ही एक उपेक्षा का रुख अपना रखा था.  उन्होंने अपना कोई वकील  तक करने  से इनकार कर दिया था.  बहुत आग्रह के बाद केवल एक कानूनी सलाहकार  नियुक्त करने पर वे राज़ी हुए थे,  जो उन्हें सलाह देंगे लेकिन  उन का मुकदमा नहीं लड़ेंगे.  भगत सिंह ने दर-असल मुक़दमे का इस्तेमाल एक मंच की तरह करना चाहा,  जिस के माध्यम से वे देश भर के युवाओं में देश-भक्ति की एक लहर पैदा कर सकें. 
पिछली कड़ियाँ
  1. ऐ शहीदे मुल्को-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार

  2. आशिकों का आज जमघट कूच-ए-कातिल में है

  3. क्या तमन्ना-ऐ- शहादत भी किसी के दिल में है (1)

  4. क्या तमन्ना-ऐ- शहादत भी किसी के दिल में है (2)

  5. देखना है ज़ोर कितना बाज़ू ए कातिल में है...

  6. सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है...

  7. हम अभी से क्या बताएं क्या हमारे दिल में है...

  8. रहबरे राहे मुहब्बत रह न जाना राह में...

  9. लज्ज़ते सहरा-नवर्दी दूरिये - मंजिल में है

  10. अब न अहले-वलवले हैं और न अरमानों की भीड़

  11. खींच लाई है सभी को कत्ल होने की उम्मीद ....

अपनी जान बचाने के लिए उन्होंने ने मुक़दमे का इस्तैमाल किया ही नही.   दिनांक  5 मई 1930  प्रातः 10 बजे लाहौर के 'पूंच हाउस' में ट्रिब्यूनल की अगुवाई में सभी अभियुक्तों पर 'सांडर्स हत्या काण्ड' का मुकदमा शुरू हुआ.  अभियुक्त उस से चंद  मिनट पहले ही ट्रिब्यूनल के सामने उपस्थित हो चुके थे और भीतर क्रांतिकारी नारे लगाते हुए प्रविष्ट हुए थे.
 
यहाँ भगत सिंह ने दरख्वास्त दी कि ट्रिब्यूनल को 15 दिन तक स्थगित किया जाए ताकि वे इस ट्रिब्यूनल को गैर-कानूनी साबित करने के लिए दलीलें तैयार कर सकें,  पर उन का यह निवेदन नहीं माना गया.
 
अभियुक्त जे एन  सान्याल सहसा ट्रिब्यूनल के सामने  खड़े हो कर बहुत आक्रोश भरा भाषण दे कर ब्रिटिश की चालों  की कलई  उधेड़ने   लगे.  ट्रिब्यूनल ने उन से उन का कागज़ छीन लिया. पर सान्याल उस का अन्तिम अनुच्छेद बुलंद आवाज़ में बोलने लगे:
 
' इन सभी कारणों से हम इस धोखाधड़ी  की नुमाइश में हिस्सा बनने से साफ़ इनकार करते हैं, और  अब से हम  इस मुक़दमे की पैरवी में भी कोई हिस्सा नहीं लेंगे...'  (Shaheede Azam Sardar Bhagat Singh: The Man and His Ideology by GS Deol p 77).
 
इस बीच क्या हुआ कि भगत सिंह के पिता सरदार किशन  सिंह पुत्र मोह के वश में आ कर ट्रिब्यूनल को एक अर्जी दे बैठे, जिस पर भगत सिंह को बहुत गुस्सा आया.  सरदार किशन सिंह ने यह साबित करने की कोशिश की कि सांडर्स हत्या काण्ड वाले दिन तो भगत सिंह लाहौर में ही नहीं थे!  अपने क्रांतिकारी पुत्र को फांसी के फंदे में जकड़ा देखने की कल्पना ने एक क्रन्तिकारी पिता के ह्रदय को कमज़ोर कर दिया.   दि. 20  सितम्बर 1930 को ट्रिब्यूनल के सामने दी हुई अर्ज़ी में उन्होंने लिखा कि घटना वाले दिन तो भगत सिंह  कलकत्ता में थे और उन्होंने वहां से किसी रामलाल को एक पत्र भी लिखा था.  मैं उन लोगों को यहाँ सबूत के तौर पर पेश कर सकता हूँ... मुझे  न्याय के हित में अदालत में यह साबित करने का मौका ज़रूर दिया जाए... 
 
भगत सिंह को अपने समस्त जीवन में इस बात पर सदा गर्व रहा कि उन के पिता, उन के चाचा लोग,  ये सब क्रांतिकारी रहे और किसी भी प्रकार के परिणाम से कभी डरे ही नहीं.  फ़िर यह पुत्र मोह का कैसा फंदा है जो सच्चाई के गले में पड़ रहा है? एक क्रांतिकारी पिता अपने सुपत्र को बचाने के लिए अदालत में झूठ बुलवाना चाहते हैं.  उन्होंने पिता को बहुत अफ़सोस व आक्रोश भरा पत्र लिखा - आपको शुरू से ही पता है कि मुझे ख़ुद को बचाने में  कोई दिलचस्पी है ही नहीं.  मैंने राजनैतिक मामलों में स्वयं को हमेशा आप से स्वतंत्र रख कर ही कदम उठाए.  आप कितना कहते रहे,  मुक़दमे को गंभीरता से लड़ो,  पर चाहे मेरी वैचारिकता अपने आप में अस्पष्ट है, या मैं ख़ुद को सही ठहराने के लिए तर्क-बाज़ी  कर रहा हूँ,  मैंने इस मुक़दमे को कभी गंभीरता से लड़ना चाहा ही नहीं.  मेरा जीवन इस  कदर अनमोल है ही नहीं,  कम से कम मेरे लिए तो नहीं! (वही पुस्तक pp  80-81)
 
दि. 7 अक्टूबर 1930  को वह दर्दनाक फ़ैसला लिख दिया गया,  जिस ने भारत की तारीख के पन्नों पर ब्रिटिश के हाथों हुए खून से रंग दिया.  कानून की कई धाराएं होती हैं,  जिन का इस्तैमाल कानून करता ही है. पर अमानवीय तरीके से कानून को इस्तैमाल करने की यह एक अभूतपूर्व मिसाल थी.  भगत सिंह व उस के दो साथियों,  सुखदेव  तथा राजगुरु को कई धाराएं इस्तेमाल कर, यथा 121, 302 व 4(बी), मृत्युदंड की घोषणा कर दी गई .  पूरा देश एक सदमे की चपेट में आ गया.  जिन बहादुर नौजवानों को जनता सर आंखों बिठाना चाहती थी,  उन को अब मृत्यु का वरण करने की बात जनता के गले नहीं उतर पा रही थी.  मुक़दमे का फ़ैसला सुनते ही सब से ज़्यादा जिस नेता की छाती जोश व  आक्रोश  से भर उठी,  वे थे पंडित जवाहरलाल नेहरू.  दि. 12 अक्टूबर 1930  को इलाहाबाद में दिए आक्रोश भरे भाषण में वे कहते हैं -  'अगर इंग्लैंड पर जर्मनी या  रूस का हमला हो जाए,  तो क्या लार्ड इर्विन अपने जवानों को हिंसा से दूर रहने की सलाह देते फिरेंगे?..लार्ड इर्विन ज़रा अपने ह्रदय से पूछ कर देखें  कि यदि भगत सिंह अँगरेज़ होते, और इंग्लैंड की तरफ़ से क्रान्ति करते,  तब  कैसा महसूस होता उन्हें?'.. पर भगत सिंह के प्रति अतीव गर्व से नेहरू ने यह भी कहा 'मेरा ह्रदय भगत सिंह की बहादुरी व उत्सर्ग-भावना के प्रति प्रशंसा से सराबोर है...(The Trrial of Bhagat Singh: Politics of Justice by AG Noorani p 175).
 
सरदार पटेल ने ब्रिटिश की शेखियों का खोखलापन उजागर करते हुए कहा - 'अंग्रेज़ी क़ानून  हमेशा इस बात की शेखियां बघारता रहा, कि अदालत में बाकायदा प्रति-परीक्षण (cross-examination) के बिना कभी कोई फ़ैसला नहीं दिया जाता.  पर अंग्रेज़ी क़ानून ने ऐसा किया,  और अभियुक्तों को मृत्यु-दंड जैसी सज़ाएं मिली'  (वही पुस्तक p 228).  
 
ब्रिटिश की ही कम्युनिस्ट पार्टी ने ब्रिटिश की ही लेबर-पार्टी शासित  सरकार को आईना दिखा कर लिखा -  'इस मुक़दमे का इतिहास राजनैतिक दमन का  अद्वितीय दस्तावेज़ रहेगा और सर्वाधिक अमानवीय व क्रूर व्यवहार ही इस मुक़दमे की पहचान होगी,  जो कि ब्रिटिश की वर्त्तमान लेबर सरकार की इस इच्छा का  परिणाम है कि दमित लोगों के हृदयों में और दहशत फैलाई जाए...'
 
भगत सिंह ने दया की कोई अपील करने से इनकार कर दिया या उन्हें व सुखदेव तथा राजगुरु को अब एक ही कमरे में भेजा गया,  ये सब गौण बातें हैं. पर जो महत्वपूर्ण है,  वह यह  कि फांसी वाले उस कमरे में जाने से पूर्व सभी साथी उनसे रोते हुए गले मिले.  भगत सिंह ने अपने साथियों से यही कहा - 'साथियो, आज हम आखिरी बार मिल रहे हैं.  पर मेरा तुम सब को यही आखिरी संदेश  है, कि जब आप सब जेलों से जाएँ,  तो सुख-चैन की ज़िन्दगी बिताना न शुरू कर दें,  जब तक कि आप इस फिरंगी कौम को भारत  से बाहर न खदेड़ दें और देश में एक समाजवादी लोकतंत्र न स्थापित  कर दें (Shaheede Azam Sardar Bhagat Singh: The Man and His Ideology by GS Deol p 86).
 
वैसे केवल ब्रिटिश का पर्दाफाश करने के  लिए  ब्रिटिश की Privy  council में एक अपील इस फैसले के विरुद्ध की गई,  पर वह Privy  council ने  10 फरवरी 1931 को खारिज  कर दी.  दि. 3 मार्च 1931  को आखिरी बार भगत सिंह का परिवार  उन से मिलने गया - पिता माता, भाई बहनें.  उनकी दादी ने उनके  जन्म से ही जो नाम उन्हें  दिया,  'भागांवाला', उस भागांवाला को उनकी माँ आखिरी बार अपने सीने से लगा कर रो पड़ीं...पर भारत माँ के लिए वह सचमुच  'भागांवाला' ही था,  जिस की प्रेरणा से देश के जवानों के मन  में आज़ादी की ज्वाला भड़क उठी थी...
 
माँ ने बेटे से कहा भी यही - 'बेटे, अपना रास्ता छोड़ना मत.   जाना तो एक दिन हर किसी को है.  लेकिन तेरा जाना तो वो है बेटे,  जिसे सारी दुनिया याद रखेगी.  मेरी एक ही इच्छा है बेटे, कि मौत को गले लगाते वक़्त भी मेरा बहादुर बेटा नारे लगाए-
 
इन्कलाब जिंदाबाद.
 
दि. 14 फरवरी 1931 को पंडित मदन मोहन मालवीय ने वायसराय को  दया की अपील में एक अर्ज़ी दी कि इन तीनों देश-भक्तों के  मृत्यु दंड को माफ़ कर के उम्र-कैद में बदला जाए.  16 फरवरी 1931 को किन्हीं जीवन लाल, बलजीत व शामलाल ने पंजाब उच्च-न्यायालय में अर्ज़ी दी, कि फांसी की तारिख  अक्टूबर की तय हुई थी,  वह कब की बीत चुकी और अब गठन के नियमों के अनुसार ट्रिब्यूनल का अस्तित्व ही नहीं है,  इसलिए अब मृत्यु-दंड देने का अधिकार किसी को भी नहीं है.  पर 20 फरवरी 1931 को वह अर्ज़ी भी खारिज हो गई..
 
इस के बाद देश की जनता लाखों की तादाद में सड़कों पर उतर आई.  जनता का वह जूनून भी इतिहास के पन्नों का एक जोशीला पन्ना है.  लाखों लोगों के ह्रदय भगत सिंह व उन के साथियों के प्रति श्रद्धा और सम्मान से भर उठे.  लाखों लोगों ने हस्ताक्षर कर के वायसराय को लिखा कि इन तीनों जवानों  ने  देश के लिए अपनी ज़िन्दगी होम कर दी,  अब इन्हें मृत्यु दंड क्यों?  देश-विदेश के अख़बारों के पृष्ठ-दर-पृष्ठ लेखों व अपीलों  से भरे थे,  यहाँ तक कि ब्रिटिश की अपनी संसद के कई सदस्यों ने  एक तार भेज कर  सरकार से अपील की कि यह फ़ैसला रोक दिया जाए.  इस के साथ पूरे देश की भावनाएं जुड़ी  हैं.  देश की दीवारें पोस्टरों से भर गई.  पर...
 
आज 23 मार्च है.  शाम सात बजे शहादत का सुनहला पन्ना लिखा जाना है. शहादत की स्याही से ये तीनों नौजवान भारत का सुनहला इतिहास लिखेंगे... भगत सिंह ने गवर्नर    को एक पत्र लिखा था कि  मुक़दमे के अनुसार हम सब ने मिल कर इंग्लैंड के राजा जॉर्ज पंचम के विरुद्ध एक जंग  छेड़ रखा है.  इस दृष्टि से हम तीनों योद्धा हैं.  इस लिए हम युद्ध-बंदी हैं.  इस लिए हमें फांसी के तख्ते पर चढ़ाने  की बजाय गोली से उड़ा दिया जाए!  यदि ऐसा होता तो भगत सिंह व उस के साथी नायक-महानायक की शहादत को हासिल होते न!  पर सरकार इनके इतने ऊंचे दर्जे को क्या सहन कर पाती!... 
 
अक्सर जब मेरी कल्पना में  यह दृश्य आता है, कि ये तीनों बहादुर जवान  जेल की कोठरी से निकल कर मृत्यु के फंदे  की तरफ़ बढ़ रहे हैं, और नारे लगाते हैं:
 
इन्कलाब जिंदाबाद,
 
जेल के सभी कमरों के कैदियों को यह पता चल जाता है कि अब शहादत की वह घड़ी आ गई है,  जब हमारे ये तीनों साथी हम से बिछड़ जाएंगे, और सब के सब कैदी भी जेल की दीवारों को दहला देने वाली आवाज़ में नारे लगाते हैं:
 
इन्कलाब जिंदाबाद,
 
तब मुझे  बिस्मिल की दूसरी मशहूर ग़ज़ल याद आती है -
 
उरूज़े-कामयाबी पर कभी हिन्दोस्ताँ  होगा 
रिहा सैय्याद के हाथों से अपना गुलिस्ताँ होगा.
(उरूज़े कामयाबी = कामयाबी का शिखर
 
यही इन तीनों का सपना था, कि देश कामयाबी के आसमान को छुए...
 
भगत सिंह ने 3 मार्च 1931 अपने भाई कुलतार को एक पत्र लिख कर उस की हिम्मत बढ़ाई थी कि अपना ख्याल रखना मेरे भाई.  उन्होंने जीवन की नश्वरता को ले कर भाई को लिखा:
 
मेरी हवा में रहेगी ख़याल की खुशबू
ये मुश्ते-ख़ाक है फानी, रहे न रहे
(The Trrial of Bhagat Singh: Politics of Justice by AG Noorani p 231).
 

 
यह जो शरीर है, यह तो एक मिट्टी का ढेला है , यह रहे न रहे.  पर हवा में मेरे विचारों की सुगंध बनी रहेगी!
 
इसी पत्र में भगत सिंह ने अपने भाई को एक और शेर की केवल दूसरी  पंक्ति लिखी, पहली नहीं:
 
खुश रहो अहले वतन हम तो सफर करते हैं.
(वही पुस्तक वही पृष्ठ)
 
यह शेर दर-असल अवध के नवाब वाजिद अली शाह ने उस समय अपने आलीशान महल की तरफ़ देख कर कहा था,  जब अंग्रेज़ों की गोरी पलटन उसे गिरफ्तार करने आई थी.  वाजिद अली शाह ने एक गहरी साँस ले कर अपने महल को देखा  और कहा:
 
दरो-दीवार पे हसरत की नज़र रखते हैं,
खुश रहो अहले वतन हम तो सफर करते हैं
 
भगत सिंह के मन में भारत-माता के चरणों में सर-फरोशी (अपना सर कुर्बान करने) के बाद कोई हसरत थी ही नहीं,  सो उन्होंने पहली पंक्ती लिखी ही नहीं.  पर मुझे लगता है, जब इन तीनों बहादुरों के चेहरे ढके जा रहे होंगे, और येइन्कलाब जिंदाबाद के नारे लगाते लगाते आँखें मूँद रहे होंगे, तब मृत्यु की कालिमा छा जाने के अन्तिम क्षण भी इन तीनों के मन में यही हसरत होगी:
 
जुदा मत हो मेरे दिल से कभी दर्दे-वतन हरगिज़ 
न जाने बाद मर्दन मैं कहाँ और तू कहाँ होगा.
(मर्दन = मृत्यु)
 
जीवन के अन्तिम क्षण के हज़ारवें हिस्से तक में भी मातृभूमि से प्यार बना रहे,  यही थी उन की हसरत! 
बिस्मिल आगे लिखते हैं:
 
ये आए दिन की छेड़ अच्छी नहीं ऐ खंजरे-कातिल
बता कब फ़ैसला उन के हमारे दरमियाँ होगा
 
वतन  की आबरू का पास देखें कौन करता है,
सुना है आज मकतल पर हमारा इम्तिहाँ होगा
 
देशकी करोड़ों जनता का उस समय हृदय   भी छलनी हो गया होगा, और सब की छाती गर्व से फूल भी रही होगी, ऐसे अनमोल सपूत पा कर, जो सदियों सदियों तक चराग ले कर ढूँढने पर भी नहीं मिलेंगे...
 
इस लेख-माला के अंत में भी  बिस्मिल का ही एक शेर याद आ रहा  है:
 
शहीदों के मज़ारों पर लगेंगे हर बरस मेले
वतन पे मरने वालों का यही बाक़ी निशाँ होगा...
 
जय हिंद
वंदे मातरम्
 
(अब  इस लेख-माला के परिशिष्ट के रूप में  गाँधी की निर्दोषिता पर चंद शब्द,  जो अगली बार.  आख़िर  गाँधी  का क्यों कोसा जाता है,  कि  उन्होंने इन तीनों को फांसी के तख्ते से बचाने की कोई कोशिश ही नहीं की? क्या सचमुच, गाँधी को कटघरे में खड़ा करना उचित है? या इस में भी अधिक खोज-बीन की ज़रूरत है? यह सब अगली बार.
 

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7 बैठकबाजों का कहना है :

MANVINDER BHIMBER का कहना है कि -

सच इन शहीदों का बलिदान इतना बड़ा है किहमारे पास शब्द नहीं है उसे चुकाने के लिए ....और फिर वो बलिदान चुकाया भी नहीं जा सकता है .....
अच्चा तो ये होगा कि हम आने वाली पीड़ी को बार बार याद दिलाये कि वो जज्बा नई पीड़ी भी अपने भीतर पैदा करें जो अब दिखाई नहीं दे रहा है .....लेकिन बहुत जरुरी है देश पर मर mitne का जज्बा .......
मैं आपको शुक्रिया या दन्यवाद जैसे शब्द नहीं कहूँगी ...... वो bone पड़ रहे हैं ......नमन करती हूँ शहीदों को

Divya Narmada का कहना है कि -

शहीद त्रयी पर देश के हर प्रान्त में कार्यक्रम होना चाहिए, पर... आज के आतंकवादियों के खिलाफ ये तीनों होते तो क्या करते?... यदि इनकी सर्कार होती तो... सोचकर सर गर्व से उठ जाता है...

अवनीश एस तिवारी का कहना है कि -

तीनों शहीदों को नमन |

अवनीश तिवारी

Pooja Anil का कहना है कि -

प्रेमचंद जी,

आपने शहीदों की आपबीती बड़े जतन और मेहनत से अनुसन्धान कर हम तक पहुचाई है. बहुत बहुत आभार.

इस सारी श्रंखला को पढ़ कर खून खौल जाता है, खास तौर पर जिस तरह से क्रांतिकारियों के लिए मौत का फरमान जारी किया गया, वह अमानवीयता की पराकाष्ठा प्रतीत होता है .
अब ना क्रांतिकारियों के से जज़्बात रहे हैं , ना ही गुलामी की जंजीरें , क्या सचमुच हम आजादी के दीवानों को सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित कर पाते हैं............? शायद उस के लिए शब्द कम पड़ जाएँ .....भावनाएँ दर्द की लकीरें बना ही देती हैं.

संगीता पुरी का कहना है कि -

इन शहीदों को नमन !!!

ab inconvenienti का कहना है कि -

फिल्म गुलाल में आज का बिस्मिल कहता है:

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ुए कातिल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ुए कातिल में है
वक्त आने दे बता देंगे तुझे ए आसमान,
हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है
वक्त आने दे बता देंगे तुझे ए आसमान,
हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है
ओ रे बिस्मिल काश आते आज तुम हिन्दोस्तां
देखते की मुल्क सारा ए टशन महफिल में है
आज का लौंडा तो कहता हम तो बिस्मिल थक गए
अपनी आज़ादी तो भैया लौंडिया के दिल में है
आज के जलसों में बिस्मिल एक गूंगा गा रहा
और बहरों का वो रेला नाचता महफ़िल में है
हाथ की खादी बनाने का ज़माना लद गया
आज तो चड्डी भी सिलती इंग्लिसों की मिल में है

देखना है ज़ोर कितना बाज़ुए कातिल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ुए कातिल में है
वक्त आने दे बता देंगे तुझे ए आसमान,
हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है

आलोक साहिल का कहना है कि -

sabhi shahidon ko naman...
ALOK SINGH "SAHIL"

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