Tuesday, January 06, 2009

अब न अहले-वलवले हैं और न अरमानों की भीड़

शहीद भगत सिंह की जीवनी पर बहुत सारे शोध हुए, बहुत से शोध-ग्रंध लिखे गये। प्रेमचंद सजवाला, जो एक वरिष्ठ साहित्यकार तथा विचारक हैं, ने इन सभी शोध पुस्तकों पर रिसर्च किया और शहीद-ए-आज़म की जीवनी को संक्षिप्त रूप में इंटरनेटीय पाठकों के लिए दुबारा लिखा। इस शृंखला की पिछली ९ कड़ियों का प्रकाशन हिन्द-युग्म की कविता पृष्ठ पर हो चुका है। पिछले महीने से हमने विचारों का एक नया मंच शुरू किया। अतः अब से यह शृंखला यहीं प्रकाशित हुआ करेगी---


पिछली कड़ियाँ
  1. ऐ शहीदे मुल्को-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार

  2. आशिकों का आज जमघट कूच-ए-कातिल में है

  3. क्या तमन्ना-ऐ- शहादत भी किसी के दिल में है (1)

  4. क्या तमन्ना-ऐ- शहादत भी किसी के दिल में है (2)

  5. देखना है ज़ोर कितना बाज़ू ए कातिल में है...

  6. सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है...

  7. हम अभी से क्या बताएं क्या हमारे दिल में है...

  8. रहबरे राहे मुहब्बत रह न जाना राह में...

  9. लज्ज़ते सहरा-नवर्दी दूरिये - मंजिल में है

दिनांक 5 जुलाई 1929 को पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कांग्रेस सचिव की हैसियत से प्रेस को एक वक्तव्य दिया- 'मैंने बहुत दुःख से भगत सिंह व दत्त की भूख हड़ताल का समाचार सुना है। पिछले 20 या अधिक दिनों से उन्होंने कुछ भी खाने से स्वयं को दूर रखा है। मुझे पता चला है कि ज़बरदस्ती भी खाना खिलाया जा रहा है... ऐसे, स्वेच्छा से अपनाए कष्ट के समय हम सब के हृदय उनकी तरफ़ उमड़ते हैं। वे अपने किसी स्वार्थ के लिए अनशन पर नहीं हैं, वरन राजनैतिक कैदियों की स्थिति सुधारने के लिए ऐसा कर रहे हैं। जैसे-जैसे दिन गुज़रते हैं, हम इस कठिन परीक्षा को बेहद उत्तेजना से देखते रहेंगे और मन में उत्कट इच्छा रखेंगे कि हमारे ये दोनों बहादुर भाई इस अग्नि-परीक्षा में सफल हों (The Trial of Bhagat Singh by AG Noorani pp 51-52)

भगत सिंह को लगभग 25 जून 1929 को मिआंवाली जेल से लाहौर सेंट्रल जेल भेजा गया था, जहाँ बटुकेश्वर दत्त पहले ही से थे. दत्त भी तुंरत भूख हड़ताल पर चले गए थे और एक वैसा ही पत्र ब्रिटिश को ठोक दिया था। दिनांक 10 जुलाई 1929 को विशेष मजिस्ट्रेट राय साहेब पंडित श्री किशन की अदालत में, लाहौर सेंट्रल जेल में ही भगत सिंह व साथियों पर सांडर्स हत्या का मुकदमा शुरू हुआ। इसे 'लाहौर षड्यंत्र केस' कहा गया। भगत सिंह व दत्त के अन्य साथी यथा सुखदेव, जतिंदर नाथ दास, अजय घोष, शिव वर्मा, गया प्रशाद, राजगुरु, बीके सिन्हा आदि लाहौर की बोर्स्टल जेल में थे. इन तमाम साथियों ने भी भूख हड़ताल प्रारम्भ कर दी। इस कठिन संघर्ष में भगत सिंह समेत सब के वज़न कम होते गए। पर इन सभी जांबाज़ जवानों को तो अग्नि-परीक्षा में कदम दर कदम एक दूसरे के साथ रहना था। इन्हें मृत्यु तक नहीं डरा सकती थी, वज़न कम होना तो इनके लिए नगण्य सी बात थी। इन फौलादी पुरुषों पर तो बिस्मिल का यह शेर ही अक्षरशः लागू होता था:

अब न अहले-वलवले हैं और न अरमानों की भीड़
एक मर मिटने की हसरत ही दिल-ए-बिस्मिल में है.


मुक़दमे में ब्रिटिश की तरफ़ से सरकारी प्रोसीकयूटर खान साहेब कलंदर अली खान के साथ महारानी के प्रतिनिधि सी एच कार्डन नोड थे, तथा अभियुक्त पक्ष में कई वकील थे, यथा लाला दुनीचंद, मलिक बरकत अली, मेहता अमीन चंद, मेहता पूरण चंद, लाला अमरनाथ, बशीर अहमद, बलजीत सिंह, लाला बिशन नाथ, अमोलक राम कपूर आदि।

विशेष मजिस्ट्रेट ने सब से पहले तो आदेश निकाला कि ये सब क्रांतिकारी अदालत में देश-भक्ति के नारे लगाते हुए न आएं। इस पर लाला दुनीचंद ने आपत्ति जतायी कि यह आदेश मजिस्ट्रेट को दरअसल सरकारी प्रोसीक्यूटर ने लिखवाया है। मजिस्ट्रेट इस बात से इनकार कर गए. पर लाला दुनीचंद ने फ़िर अदालत को यह आश्वासन दिया कि वे अभियुक्त नौजवानों से कह देंगे कि वे नारे न लगाएं। अदालत और लाला दुनीचंद के बीच एक और झड़प यह हुई कि यह मुकदमा जेल में चलाया जा रहा है, जहाँ कि कमरा बहुत छोटा है और अदालत में जनता के अन्य लोगों को आने में बहुत कठिन प्रक्रिया के बाद ही अनुमति मिलती है। अदालत ने गुस्से में पूछा कि क्या हम यहाँ सारे शहर को बुला लें? लाला दुनीचंद ने अदालत को ठंडा करते कहा कि यथा-सम्भव अधिक से अधिक लोग आ सकें तो अच्छा। अदालत ने इतना ही किया कि अनुमति के कायदे कानूनों में कुछ ढील दे दी। इधर सरकारी वकील ने अपनी मुश्किल पेश कर दी, कि कुछ लोग यहाँ अदालत में आ कर अभियुक्तों को पुष्प भेंट करने लगते हैं। अभियुक्त वकील मेहता अमीन चंद ने शिकायत की कि जेल के बाहर कार-पार्किंग में भी भेदभाव बरता जाता है। कुल मिला कर ब्रिटिश की व्यवस्था असुविधाजनक ही थी और ब्रिटिश तो केवल अभियुक्तों को सज़ा देने पर तुली हुई थी।

भूख हड़ताल को समाप्त करने के भी ब्रिटिश ने अजीब से हथकंडे अपनाए। इन बहादुर नौजवानों को पहलवानों की मदद से ज़मीन पर लिटा कर ट्यूब के ज़रिये ज़बरदस्ती खाना ठूँसा जाता था। जेलर ने एक और तरीका अपनाया। उसने पानी के सभी मटकों में दूध भरवा दिया कि इन ज़िद्दी लड़कों को जब प्यास लगे तो दूध पीना ही पड़े। पर ये फौलादी लड़के टस से मस न हुए। क्रांतिकारी अजय घोष ने अपनी पुस्तक 'Bhagat Singh and His Comrades' में लिखा है कि एक क्रांतिकारी किशोरी ने तो लाल मिर्ची निगल ली और उबलता पानी पी लिया ताकि गला सूझ जाए और कितनी भी ज़बरदस्ती से खाना ठूँसा जाए, तो वह फफोलों के कारण बाहर आ जाए। ब्रिटिश यह सब देखने को तैयार थी, पर इनकी मांगों को मानने को नहीं। यही इस फिरंगी कौम का चलन था, यही उसकी असलियत। भगत सिंह समेत सभी साथी शारीरिक दृष्टि से दुर्बल हो चुके थे, पर उन्हें फिर भी अदालत तक हथकड़ियों में ले जाया जाता था। एक दिन भगत सिंह को स्ट्रेचर पर लिटा कर अदालत ले जाया जा रहा था। अदालत पहुँचते ही भगत सिंह हथकड़ियों में जकडे खड़े हो गए और मजिस्ट्रेट पर गरजने लगे - 'मजिस्ट्रेट साहेब, पुलिस वालों द्वारा हथकड़ियाँ पहनाया जाना हमारा अपमान है। आप को इन पुलिस वालों के हुक्म का गुलाम नहीं होना चाहिए... हमें आप पर कोई विश्वास नहीं है, क्योंकि आप पूरी तरह पुलिस के नियंत्रण में हैं। इस प्रकार हथकड़ियों में हम एक दूसरे से बातचीत कैसे करें, या कुछ नोट करना हो तो कैसे करें?...

पर भूख हड़ताल के इस पूरे प्रकरण का सब से दर्दनाक पन्ना है, क्रन्तिकारी जतीन्द्र नाथ दास की शहादत। इन सब नौजवानों के लिए देश के लिए जान देना मानो एक पर्व की तरह था।

दिनांक 15 जुलाई को जेल सुप्रिंटेन्डेंट ने आई.जी (कारावास) को एक रिपोर्ट भेजी कि 14 जुलाई को भगत सिंह व दत्त को विशेष भोजन प्रस्तुत किया गया था, क्यों कि आई.जी (कारावास) ने ऐसा आदेश टेलीफोन पर दिया था। पर भगत सिंह ने उन्हें बताया कि वे विशेष भोजन तब तक स्वीकार न करेंगे, जब तक विशेष डाइट का वह मानदंड सरकारी गज़ट में प्रकाशित न किया जाएगा कि यह मानदंड सभी कैदियों के लिए है।

इस भूख हड़ताल में जतिन दास की स्थिति दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही थी। भगत सिंह साथियों से सलाह लेने के बहाने बोर्स्टल जेल जा कर सभी साथियों के स्वस्थ्य का समाचार पूछ लिया करते थे। उन्हें कभी नहीं लगता था कि वे अकेले हैं, बल्कि देश-भक्ति की एक ज्वाला थी, जो सब को सम्पूर्ण रूप से जोड़े रहती थी। इधर चिकित्सा अधिकारी ने रिपोर्ट दी कि दास की स्थिति बहुत चिंताजनक है। वे दवाई लेने तक से इनकार कर रहे हैं। एक डॉ. गोपीचंद ने दास से पूछा भी- आप दवाई तथा पानी क्यों नहीं ले रहे?

दास ने निर्भीक उत्तर दिया - मैं देश के लिए मरना चाहता हूँ... और कैदियों की स्थिति को सुधारने के लिए।

21 अगस्त को कांग्रेस के एक अन्य देशभक्त नेता बाबू पुरुषोत्तम दास टंडन ने दास को बहुत मनाया- दवाई ले लो। सिर्फ़ जीवित रहने के लिए। भले ही भूख हड़ताल न तोड़ो। मेरे कहने पर सिर्फ़ एक बार प्रयोग के तौर पर दवा ले लो, और पन्द्रह दिन तक देखो। अगर तुम्हारी मांगें नहीं मानी जाती, तो दवाई छोड़ देना।

दास ने कहा - मुझे इस सरकार में कोई आस्था नहीं है। मैं अपनी इच्छा-शक्ति से जी सकता हूँ। भगत सिंह ने दबाव डालना जारी रखा। इस पर दास ने केवल दो शर्तों पर दवाई लेना स्वीकार किया, कि दवाई डॉ. गोपीचंद ही देंगे। और कि भगत सिंह दोबारा ऐसा आग्रह नहीं करेंगे। (Shaheed-e-Azam Sardar Bhagat Singh: The Man and His Ideology by GS Deol pp 67-68).

26 अगस्त को चिकित्सा अधिकारी ने रिपोर्ट दी कि दास की स्थिति अत्यन्त शोचनीय हो गई है। वे शरीर के निचले अंगों को हिला डुला नहीं सकते। बातचीत नहीं कर सकते, केवल फुसफुसा रहे हैं। और 4 सितम्बर को उनकी नब्ज़ को कमज़ोर व अनियमित बताया गया, उल्टियाँ हुई। 9 को नब्ज़ बेहद तेज़ हो गई। 12 को उल्टी हुई, नब्ज़ अनियमित... 13 सितम्बर, अपने अनशन के ठीक चौंसठवें दिन, दोपहर एक बज कर दस मिनट पर इस बहादुर सपूत ने भारत माँ की शरण में अपने प्राणों की आहुति दे कर इतिहास के एक पन्ने को अपने बलिदान से लिख डाला।

इस युवा देव-पुरूष के अन्तिम शब्द थे - मैं बंगाली नहीं हूँ। मैं भारतवासी हूँ।

जी एस देओल ऊपर संदर्भित पुस्तक में जतिन दास की शहादत पर लिखते हैं -'ब्रिटिश के लिए ईसा मसीह भी शायद एक भूली-बिसरी कथा थे'।

जिस प्रकार यीशु सत्य की राह पर सूली चढ़ गए, जतिन दास सत्य के लिए युद्ध करते करते शहीद हो गए।

विशाल भारत की तरह आयरलैंड जैसे छोटे-छोटे देश भी ब्रिटिश की पराधीनता का अभिशाप सह चुके थे। आयरलैंड के ही एक क्रांतिकारी युवा पुरूष टेरेंस मैकस्विनी ने भी जतिन दास की तरह ही शहादत दी थी। जतिन दास के जाने की ख़बर विश्व के अखबारों में छपी थी। इसे पढ़ कर मैकस्विनी की बहादुर पत्नी ने एक तार भेज कर लिखा - टेरेंस मैकस्विनी का परिवार इस दुःख तथा गर्व की घड़ी में सभी बहादुर भारतवासियों के साथ है। आज़ादी आएगी।

जेल के बाहर कई कांग्रेसी नेताओं के नेतृत्व में असंख्य भीड़ जमा थी।

जतिन दास जिंदाबाद ... इन्किलाब जिंदाबाद के नारों से आसमान गूँज उठा। सुभाष चन्द्र बोस ने देश के इस सपूत को अपना सलाम भेजा। जतिन दास को पूरा देश नमन कर रहा था। अख़बार श्रद्धांजलियों से भरे थे। जतिन दास के भाई के.सी दास ने अपने भाई का पार्थिव शरीर प्राप्त किया जिसे लाहौर में एक भारी जुलूस के बीच कई जगहों से होते हुए रेलवे स्टेशन तक लाया गया। लाखों लोगों की आंखों में आंसू थे। आसमान फिर उन्हीं देश-भक्ति से ओत-प्रोत नारों से गूंजा था।

जतिन दास जिंदाबाद ... इन्किलाब जिंदाबाद

लाहौर स्टेशन से जतिन दास के पार्थिव शरीर को एक रेलगाड़ी में हावड़ा भेजा गया।

ठीक अगले दिन असेम्बली में मोती लाल नेहरू ब्रिटिश पर गरज रहे थे। अपने भाषण में उन्होंने कैदियों के साथ हुए बुरे बर्ताव पर ब्रिटिश को खूब लताड़ा। उन्होंने सरकार के रवैय्ये को बेहद अमानवीय बताया। पंडित मदन मोहन मालवीय ने भी व्यंग्य बाणों से ब्रिटिश के निर्मम चेहरे को छलनी सा कर दिया। सभी क्रांतिकारियों के चरित्र की उन्होंने भरपूर प्रशंसा की और कुछ सदस्यों ने ब्रिटिश पर जतिन दास की हत्या का आरोप लगाया...

क्रमशः॰॰॰॰

प्रेमचंद सहजवाला