आपको कौन सा मसाला पसंद है? जी नहीं, मैं खाने वाले मसालों की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं उन मसाला और चटपटी खबरों की बातें कर रहा हूँ जो आजकल हमारी आम ज़िन्दगी का एक हिस्सा बन गईं हैं। इनके बिना ऐसा लगता है मानो व्यञ्जन में नमक न डला हो।
इन्हीं मसाला खबरों को और चटपटा बनाने के लिये आजकल एक नया मसाला आया है जिसे टीवी वालों ने रियलिटी शो का नाम दिया है। मुझे याद है जब दूरदर्शन पर "
मेरी आवाज़ सुनो" आया करता था। जिसमें गायकी की प्रतिभा लोगों के सामने लाई जाती थी। रियालिटी शो की परिभाषा के अनुसार वो भी उसी कैटेगरी में आता है। ज़ी पर आने वाला सारेगामा हो जा सोनी का बूगी-वूगी दोनों ही उसी श्रेणी में आते हैं। फिर भी ये "
रियलिटी शो" नामक शब्द अब मीडिया और लोगों की ज़ुबान पर आ रहा है। और कौन भूल सकता है सिद्धार्थ काक और रेणुका शहाणे की "
सुरभि" को जिसमें आम देशवासियों की खास प्रतिभाओं व उन्हीं से जुड़ी ज्ञानवर्धक बातें सभी के सामने आती थीं।
लेकिन अब... समय बदला है। एक प्रतियोगिता का दौर शुरु हुआ है। ऐसी प्रतियोगिता जिसमें जज़्बातों से खेला जाता है, रिश्तों का मजाक बनाया जाता है और विचारों की स्वतंत्रता व लोकतंत्र के नाम पर सबकुछ ताक पर रख दिया जाता है। इंडियन आइडल आया, रियालिटी शो का नाम साथ लाया। वरना सारेगामा पहले से ही चल ही रहा था तब इस शब्द के मतलब कोई नहीं जानता था। सब कुछ कमर्शियल हुआ। रिलायंस ने मोबाइल फ़ोन हर हाथ में पहुँचाये तो इन शोज़ ने सबको एस.एम.एस करना सिखाया। इन्होंने ही हमें बताया कि बंगाल और असम, राजस्थान व गुजरात से अलग हैं। गाने के साथ-साथ नाचने के भी शोज़ आने लगे। हर चैनल को जैसे कोई मंत्र मिल गया हो। सास-बहू के धारावाहिकों को भूल हम इन शोज़ को देखने लगे। जनता के नाम पर शुरु किये गये ये शो कब जनता के मन में घुस गये पता ही नहीं चला।
उसके बाद इन शोज़ की जैसे एक बाढ़ आई।
’इंडियन आइडल’ हो या
’नच बलिये’ या और भी को नाचने-गाने के शोज़, ये सब पिछले भारतीय शोज़ की नकल पर ही बने। बस इन्हें कमर्शियल कर दिया गया। हम लोगों ने विदेश के शोज़ चुराने शुरु किये। हालाँकि केबीसी भी चुराये गये शोज़ में से ही एक था पर इसमें लोगों के दिमाग का इम्तिहान था। कुछ न कुछ सीखने को मिलता था और मनोरंजन भी होता था। पर इसके साथ-साथ बिग बॉस जैसे शो भी शुरु हुए जिनमें अश्लीलता का बीज बोया गया। इन शो में नामचीन लोग, टीवी के कलाकारों ने भाग लेना शुरु किया और गालियों की भरमार होनी शुरु हो गई। फिर तो नाच-गाने वाले कथित "रियालिटी शोज़" में बोल कम और "बीप" की आवाज़ अधिक सुनाई देनी लगी। टीआरपी के खेल ने ऐसे शोज़ बनाने वालों के दिमाग में नई नई स्क्रिप्ट लानी शुरु की। पर ये स्क्रिप्ट दर्शक भी बड़े चाव से देखने लगे।
"एम.टी.वी" और "चैनल वी" पर दो शो आते हैं। एक है
"रोडीज़" व दूसरा है "
स्प्लिट्ज़ विला"। इनको युवा पीढ़ी बड़े चाव से देखती है। उन्हें ये शो बहुत पसंद हैं। कौन क्या कर रहा है? आज फ़लां लड़की ने फ़लां लड़के को क्या कहा? कहाँ घूमने गये? उनमें कैसी पट रही है? और इन सबके बीच होती है "बीप" की आवाज़। हर किरदार अपना कथित "असली" रूप में होता है। निर्देशक की कहानी को हम युवा मजे से देखते हैं। हमें वो "बीप" की आवाज़ें पसंद हैं। हम देखना चाहते हैं अश्लीलता। हम देखना चाहते हैं बिगबॉस में नहाने के सीन। हमें अच्छा लगता है ऐसे शोज़ में काम करने वाले किरदारों की "निजी" ज़िन्दगी में झाँकना जो चैनल व निर्देशक-निर्माताओं के यहाँ गिरवी रखी जा चुकी है। वे बिकते हैं। वे पब्लिसिटी चाहते हैं। हम भी उन्हें ऐसा देखना चाहते हैं। हम राखी की शादी देखना चाहते हैं। हम चाहते हैं सच का सामना में हम एक करोड़ जीतें। हम दूसरे की निजी ज़िन्दगी को चटकारे लगाकर देखते हैं। हमें फ़र्क नहीं पड़ता उसके साथ क्या हो रहा है। न ही फ़र्क पड़ता है चैनल वालों को।
हमने विदेशी शोज़ को ज्यों का त्यों हमारे जीवन में उतार लिया। बिना ये जाने कि हमारा समाज उसे सहजता से स्वीकार करेगा या नहीं। निर्माताओं को इसकी चिंता नहीं।
"सच का सामना" में यदि अश्लील प्रश्न होते हैं तो ये उस शो का फ़ार्मेट है जो अमरीका से उठाया गया है। उस देश में रिश्तों की कोई अहमियत नहीं होती। आज किसी की पत्नी कल किसी की प्रेमिका हो सकती है। बच्चा होता है तो उसके लिये एक अलग कमरा बनाकर दे दिया जाता है। वहाँ वो भावनायें, वो रिश्ते नहीं जो हम भारतीयों में होते हैं। हाल ही में एक सर्वे हुआ जिसमें सबसे खुशहाल देशो को रैंकिंग दी गई। १४४ देशों में अमरीका १४३ नम्बर पर रहा और भारत ७०वें। जो शोज़ वहाँ चल निकले हैं जरूरी नहीं यहां कामयाब हों। इन सबसे यहाँ किसी का परिवार खत्म हो सकता है। हालाँकि वो सब भी हमारी मर्जी से ही हो रहा है।
हममें अब वो संवेदनशीलता रही ही नहीं जब "
नुक्कड़" के लोगों में हम खुद को देखा करते थे। "रियालिटी" साफ़ दिखाई दिया करती थी। पर "हम लोग" अब वैसे नहीं रहे। जैसे एक युग बदला हो। संवेदनहीनता के इस दौर में हम अब इन "रियालिटी शोज़" में "रियालिटी" खोजा करते हैं पर....
तपन शर्मा
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12 बैठकबाजों का कहना है :
दोस्त बढ़िया सवाल उठाया है आपने... लेकिन हम देखना चाहते हैं, या नहीं ये तो सिर्फ़ हम टीआरपी देखकर ही कहते हैं, और टीआरपी कुछ ही लोगों से सैट होती है। देखा जाए, तो सारे हिंदुस्तान में आज भी सबसे ज्यादा दूरदर्शन देखा जाता है, लेकिन उसका कोई जिक्र ही नहीं करता है। क्योंकि टीआरपी सैट करते हैं चंद गिने-चुने लोग, जब तक उनकी मोनोपोली नहीं टूटेगी, हम भ्रम में ही जीते रहेंगे। बहुत ही शानदार...
भई चलती का नाम गाड़ी है.आज यह सब चलन में है सो सभी लोग ऐसे ही शो बनाने में लग गये है.हर सिक्के के दो पहलू होते है. कुह शोज ऐसे है जिनसे आम जनता के लोगो को अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका मिला है .पहले ऐसा कहाँ हो पाता था. ये बात अलग है कि शो शुरु तो कुछ और काम के लिये होते है लेकिन टी आर पी की होड़ में अपने मकसद से भटक कर कुछ और ही करने लगते है.
आलेख ने रियलिटी की रियलिटी लिख दी .सुरभि जैसा प्रोग्राम याद करा दिया, अब लोगों की पसंद भी बदल गयी है. वैसे प्रोग्राम बनते भी नहीं है! इस लेख से पाठक जरूर जागरूक होंगे. अगर चैनल फिर से ज्ञानवर्धक कार्यक्रम दिखने लगेंगे तो इस आलेख की बहुत बड़ी उपलब्धि होगी. यथार्थ में अपनी बात पहुचने के लिए बधाई. आभार
मैं अबयज़ खान साहब से पूरी तरह सहमत हूँ.
आप ने बिलकुल सही लिखा है.
"एक प्रतियोगिता का दौर शुरु हुआ है। ऐसी प्रतियोगिता जिसमें जज़्बातों से खेला जाता है, रिश्तों का मजाक बनाया जाता है और विचारों की स्वतंत्रता व लोकतंत्र के नाम पर सबकुछ ताक पर रख दिया जाता है।"
एक रियलिटी शो के दौरान कोलकाता में 16 साल की प्रतिभागी शिंजिनी सेनगुप्ता लकवे की शिकार हो गई। शिंजिनी एक शो में नृत्य प्रतिस्पर्धा में भाग ले रही थीं और एक राउंड में उनके खराब नाच पर शो के जजों की फटकार पर वे न केवल रोईं बल्कि उनको इतना सदमा लगा कि उन्हें लकवा मार गया। इससे पूर्व सरेगामापा लिटिल चैंप्स प्रतियोगिता से स्मिता नंदी के बाहर होने पर उनके पिता को दिल का दौरा पड़ गया था। इस घटना का असर लिटिल चैंप्स विजेता अनामिका चौधरी पर पड़ा और कार्यक्रम के दौरान उनकी तबियत बिगड़ गई। रियलिटी शो के दौरान कई और घटनाएं भी जो चुकीं हैं जो किन्हीं कारणों से सार्वजनिक नहीं हो पाईं। इस तरह के रियलिटी शो पर अब सवाल उठने लगे हैं और नियम कानून बनाने की चर्चा होने लगी है। कुछ शो तो उकसाने-भड़काने वाले बनाए ही जाते है। जिसका एक मात्र उद्देश्य टीआरपी होता है। अधिकांश रियलिटी शो विदेशी शो की नकल हैं। दर्शकों की संख्या बढ़ने के लिए जज ऐसे हथकंडे अपनाते हैं।
छोटे पर्दे के टैलेंट हंट शो हों, फिल्में या फिर व्यावसायिक विज्ञापन में बाल कलाकारों पर वयस्कों से ज्यादा दबाव होता है। उन्हें मनोरंजन उद्योग के नकारात्मक पहलुओं से भी जूझने को विवश होना पड़ता है। इन बाल कलाकारों पर काम का बोझ इतना बढ़ जाता कि यह कभी यह जान ही नहीं पाते कि समुद्र तट की रेत पर बालू से घर बनाने या आम के पेड़ पर चढ़ने या पेड़ पर चढ़कर अमरूद तोड़कर खाने का मजा क्या होता है। अभी बालिका वधु और श्री कृष्ण के कुछ बाल कलाकारों को अधिक श्रम से बचने के लिए श्रम मंत्रालय ने नोटिस भेजे थे.
well said tapan. yaar jab ye reality shows (using so much abusive launguage) bacche dekhte hain, they learn only this. They learn its good to cheat people, relationsships are not valued, elders are not respected and its good to do a lot of bashing of someone behind his back.
they grow up with these learnings and thats how the younger generation is getting corrupted in mind. you should propose some solution to it also.
kyaa tapan bhaai..
aapne to NUKKAD...aur HAM LOG kaa zikr kar ke..
filhaal to hame pichhale dino mein bhej diyaa hai...
:)
bahut sahi likha hai aapne..
aree tapan apne rakhi ke swayamvar ka jikar nahi kiya.. ab tou shadiyan bhi reality show mein hongi aur fir divorce bhi ...
wah dost wah, kya likha hai, kamaal hi kar dala...
Sir,
Bahut acha likha aapne, bikul sach likhya ya kahe Reality likhi Reality shows ki, Reality shows ka dusra sach ye hai aap inhe sharam ke maare ghar waalo ke sath to kabhi nahi dekh sakte, par vo din dur nahi jab ye sharam bhi khatam ho jaayegi. AAJ to BEEP sunaai diti hai par aaane wale samay main Sensor Board bhi ise pass kar dega, kyu ki sensor board bhi hum hi chala rahe hai aur reality show bhi.
-Parminder
Tapan ji mein aapki is baat se sehmat hun ki ab surbhi, meri aawaz suno, hum log, nukkad, circus jaise real serials nahin hain. Wo is liye nahin hain kyon ki yug badla hai, generation badli hai. Aaj taangon aur bail gaadi ki jagah auto, taxi sadak par daudte nazar aate hain. Waqt ke saath sab kuch badalta hai - aaj ebooks ka zamaana hai sab kuch internet par uplabdh hai, log ab library mein jaane ki bajaaye ghar baithe padhna pasand karte hain.
Kuch logon ke liye ye pragati hai, kuch ke liye aalas ka saaman, sab ka apna apna nazariya hai.
Jahan tak "beep" sound ki baat aapne ki hai to hum logon ko atpata is liye lagta hai kyon ki hum in beeps ko apne ghar walon ke saamne nahin sunna chahte. Lekin kabhi sadak pe chalte, doston se baat karte hum bina "beep" ke khule aam bolte hain. Aur aisa nahin hai ki gaalian pichle 5-10 saal mein ijaad hui hon ya in reality shows ki den hon. Maine itne vridh logon ko khule aam galiyaate dekha hai ki sun kar sharam aa jaati hai.
Sach ka saamna ya aisa koi bhi so called reality show dekhna na dekhna insaan par nirbhar karta hai, jo doosron ki neeji zindagi ke baare mein jaan kar chatkaare lagaana chahe wo lagaaye, jo na chahe wo na dekhe. Jab kisi program ke beech condom ka ad aata hai aur poora parivaar baitha hota hai tab yaa to koi baat ched di jaati hai ya channle change kar diya jata hai. Hum kabhi ye kyon nahin kehte ki condoms ke advertisements ban kardo?
Internet par sab kuch easily available hai chahe wo knowlege ho, bomb banane ki information ho, vaad-vivaad ke akhaade hon, kitaabein hon ya fir ashleel cheezen. Ye to hum par nirbhar karta hai ki kya access karen aur kya nahin. Internet ko fully filter karna to samasya ka hal nahin hai.
Isi tarah TV shows ya movies ke liye bhi...jise dekhna hai wo dekhe, jise nahin dekhna wo na dekhe.
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