देश को लालकृष्ण आडवाणी से कोई आशाएं हो या नहीं, लालकृष्ण आडवाणी को देश से बहुत आशाएं हैं। वे चाहते हैं कि इस बार उन्हें ही प्रधानमंत्री बनाया जाए। यह विचित्र बात है। भारतीय राजनीति में एक नई घटना है। इसके पहले कभी मतदाताओं से यह कभी नहीं कहा जाता था कि वे अगले प्रधानमंत्री का चुनाव करें। अपनी-अपनी पार्टी को जितवाने की अपील की जाती थी। सिर्फ कांग्रेस का मामला अलग था। वह हाथ को वोट देने का आह्वान करती थी, पर जनता को मालूम रहता था कि कांग्रेस की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार कौन है। सिर्फ एक अवसर पर ऐसा नहीं हुआ, जब राजीव गांधी की अकाल मृत्यु के बाद लोक सभा का चुनाव हुआ। उसके बाद प्रधानमंत्री पद के लिए अपने चयन में कांग्रेस ने जो महागलती की, उसकी सजा वह आज तक भुगत रही है। नरसिंह राव को छोड़ कर कांग्रेस का कोई ऐसा प्रधानमंत्री नहीं हो सकता था, जो बाबरी मस्जिद को तुड़वाने के लिए इस कदर तैयार रहता। दूसरी बार संसद में बहुमत का प्रबंध हो जाने के बाद सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनना था, पर मनमोहन सिंह के भाग्य खुल गए। राहुल गांधी जब वयस्क हो जाएंगे, तब कांग्रेस को चुनाव के समय यह बताना नहीं होगा कि प्रधानमंत्री पद के लिए उसका उम्मीदवार कौन है। राजग का गठबंधन शायद पहला प्रयोग था, जिसने अपने भावी प्रधानमंत्री की घोषणा पहले से कर रखी थी।
इस बार शरद पवार, लालू प्रसाद आदि ने भी अपनी आकांक्षाओं को प्रगट कर रखा है, प्रणव मुखर्जी का मौन काफी मुखर है, मायावती तो बहुत दिनों से दिल्ली पर कब्जा करने का स्वप्न देख रही हैं, पर लालकृष्ण आडवाणी की तरह कोई भी मकान की छत से चिल्ला-चिल्ला कर नहीं कह रहा है कि मुझे प्रधानमंत्री बनाओ। कुछ समय से इंटरनेट का कोई भी स्थल (साइट) खोलिए, आडवाणी के फोटो के साथ एक बड़ा-सा विज्ञापन मिलेगा, जिसका नारा है -- आडवाणी फॉर पीएम। पचासों स्थलों पर तो मैं ही यह नारा देख चुका हूं। मेरा अनुमान है कि सैकड़ों या शायद हजारों साइटों पर 'आडवाणी फॉर पीएम' का नारा जगमगा रहा है। इस नारे के साथ-साथ दर्शक-पाठक को लालकृष्ण आडवाणी के निजी ब्लॉग पर जाने के लिए आमंत्रित किया जाता है। वहां भी आडवाणी को पीएम बनाने का जबरदस्त आह्वान है।
यह क्या है? क्यों है? क्या हमने संसदीय प्रणाली का त्याग कर दिया है और अमेरिका की राष्ट्रपति प्रणाली अपना ली है? नहीं, सच यह है कि हमारे यहां ही नहीं, दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी संसदीय प्रणाली राष्ट्रपति प्रणाली में बदल गई है या बदलती जा रही है। इस सिलसिले में ग्रेट ब्रिाटेन की राजनीति की चर्चा उपयुक्त होगी। वहां अभी भी मुख्य प्रतिद्वंद्विता दलों के बीच ही होती है, पर दलों को उनकी नीतियों से कम, उनके नेता के व्यक्तित्व से ज्यादा आंका जाता है। नेता ही दलों के चुनाव अभियान का नेतृत्व करता है और जीत जाने के बाद वही प्रधानमंत्री बनता है। उसके बाद शासन चलाने में दल की भूमिका क्षीण और प्रधानमंत्री की भूमिका प्रमुख हो जाती है।
भारत में संसदीय प्रणाली को राष्ट्रपति प्रणाली में बदल देने की मुख्य जिम्मेदारी इंदिरा गांधी की है। उनके प्रधानमंत्री बनने के पहले कांग्रेस में काफी हद तक आंतरिक लोकतंत्र हुआ करता था। इंदिरा गांधी ने अपने इर्द-गिर्द सत्ता का केंद्रीकरण किया। धीरे-धीरे यह अन्य दलों का भी आदर्श होता चला गया। पश्चिम बंगाल में नौवें दशक से वाम मोर्चा का शासन है, लेकिन लगभग पच्चीस वर्षों तक ज्योति बसु वहां के एकछत्र शासक बने रहे। अब यही भूमिका बुद्धदेव भट्टाचार्य निभा रहे हैं। अन्य दलों का तो कहना ही क्या। वे सभी अपने-अपने नेता के इर्द-गिर्द उसी तरह चक्कर लगाते रहते हैं जैसे पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती रहती है।
क्या यही कारण है कि चुनाव का बिगुल बजने के काफी पहले से ही लालकृष्ण आडवाणी ने अपने प्रधानमंत्री बनने का डंका पीटना शुरू कर दिया था? हो सकता है, बाद में वे अन्य प्रचार माध्यमों का भी सहारा लें। लेकिन इंटरनेट पर उनकी अतिशय निर्भरता से यह संदेह होता है कि वे इंटरनेट से छलांग लगा कर सीधे पीएमओ (प्रधानमंत्री कार्यालय) में उतरने की उम्मीद कर रहे हैं। शायद हाल के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव ने उन्हें इस दिशा में प्रेरित किया है। लेकिन आडवाणी भूलते हैं कि भारत में इंटरनेट का प्रयोग भले ही तीव्र गति से बढ़ रहा हो, पर अभी भी हम इंटरनेट का देश नहीं बन पाए हैं। दूसरे, इतने सारे नेट स्थलों पर आडवाणी फॉर पीएम देख कर वितृष्णा ही पैदा होती है। भारत में अभी भी सत्ता लोलुपता को अच्छा नहीं माना जाता। सोनिया गांधी को दो-दो बार प्रधानमंत्री बनने का अवसर मिला और दोनों ही बार उन्होंने प्रधानमंत्री बनने का लालच छोड़ दिया। इस त्याग वृत्ति से उनकी महिमा बढ़ी। हालांकि वास्तविक सत्ता अभी भी कांग्रेस अध्यक्ष के ही पास है, लेकिन उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को काफी सम्मान दिया है और उनके प्रधानमंत्री पद के विशेषाधिकारों को कुचलने का प्रयास नहीं किया है। इससे मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी, दोनों के प्रति आदर बढ़ा है।
दूसरी बात यह है कि अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में टेलीविजन की बहुत महत्वपूर्ण और निर्णायक भूमिका होती है। राष्ट्रपति पद के प्रतिद्वंद्वी टेलीविजन पर अपना-अपना प्रचार करते हैं और एक-दूसरे से बहस तथा तर्क-वितर्क भी करते हैं। इससे मतदाताओं को यह तौलने में आसानी होती है कि उनके लिए कौन-सा उम्मीदवार बेहतर है। भारत में ऐसा नहीं होता। यहां पार्टी और नेता का पिछले पांच साल का काम बोलता है। चुनाव सभावों में पैदा किया जानेवाला जज्बा भी कम प्रभावशाली नहीं होता। दल के संगठन की भी निर्णायक भूमिका होती है। इस आधार पर कह सकते हैं कि हमारे यहां चुनावी सफलता का फैसला सड़कों, चौपालों पर और खेत-खलिहानों में होता है, न कि टेलीविजन और इंटरनेट जैसे आधुनिक माध्यमों से।
यह सब जानते-समझते हुए भी लालकृष्ण आडवाणी अगर इंटरनेट पर इतना ज्यादा भरोसा कर रहे हैं, तो साफ है कि वे किस वोटर वर्ग को अपना निशाना बना रहे हैं। यह भारत का अवसरवादी मध्य वर्ग है जिसे राजग ने इंडिया शाइनिंग का प्रतीक मान रखा था। ऐसा लगता है कि भाजपा नेता अपनी इस ग्रंथि से अब तक उबरे नहीं हैं। यह चुनावी जीत का सशक्त आधार बन सकता है, इसमें गहरा संदेह है। हमारे देश में तो वही पार्टी जनता के मन पर राज कर सकती है जो गरीब तथा असहाय लोगों की वाणी बन सके। अगर लालकृष्ण सचमुच प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं, तो उन्हें अपने दल की नीतियों पर पुनर्विचार करना चाहिए और उसे जनवादी बना कर उन लाखों गांवों में ले जाना चाहिए जहां अभी भी भारत की आत्मा बसती है। अभी तक तो आडवाणी और उनकी पार्टी ने अपनी आस्तीन से बाबरी मस्जिद और गुजरात दंगों का खून भी नहीं धोया है।
राजकिशोर
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं...)
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3 बैठकबाजों का कहना है :
जो भी आडवाणी जी के चुनाव प्रचार के विषय में कहा गया है, उसमें मुझे तो कोई नयी बात या आपत्तीजनक बात नहीं दिखायी देती |
इसे अमेरिका चुनाव प्रचार का अंधा अनुकरण कहना भी सही नही लगता है |
ऐसे प्रयोग होते रहते हैं |
कोई हेलीकॉप्टर पर चढ़ता है तो कोई ब्लॉग पर लिखता है , चुनाव प्रचार में होता रहता है |
लेख के लिए धन्यवाद |
अवनीश तिवारी
बाल कृष्ण को पूजता सारा हिंदुस्तान.
लाल कृष्ण को वोट दे, तो गल जाए दाल.
तो गल जाए दाल, स्वप्न हो जाये पूरा.
अटल टले तो मौका है, है खडा जमूरा.
आदर्शों की ऐसी-तैसी, सत्ता दे दो.
डाकू तस्कर चोर, सांसद पल में ले लो.
चोर-चोर मौसेरे भाई, सभी ठगेंगे.
तब तक न सुधरेंगे, जब तक नहीं पिटेंगे.
आधे से ज्यादा मत जो पाए प्रतिनिधि हो.
कोई न पाए तो वह क्षेत्र बिना प्रतिनिधि हो.
सारे दल कर भंग, एक सरकार बनाओ.
कोई विरोधी नहीं, सभी मिल साथ चलाओ.
टांग खींचना बंद करो संग कदम बढाओ.
ईंट के बदले पत्थर मारो, देश बचाओ.
राजकिशोर जी,
जैसा राजा होता है वैसी प्रजा होती है। तो जाहिर तौर पर दल के नेता का चुनाव ही जरूरी होता है। मनमोहन सिंह कमजोर प्रधानमंत्री है ये किसी से नहीं छुपा। वे अर्थशास्त्री हो सकते हैं पर राजनेता कतई नहीं...
दूसरी बात.. जब आप गुजरात की बात करते हैं तो कांग्रेस काल में हुए ८४ के दंगे भी याद करलें..
चुनाव प्रचार का तरीका समय और तकनीक के साथ बदलता रहता है और बदलता रहेगा।
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