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Thursday, July 30, 2009

बीप की आवाज़ों में रियलिटी ढूंढते 'हमलोग'


आपको कौन सा मसाला पसंद है? जी नहीं, मैं खाने वाले मसालों की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं उन मसाला और चटपटी खबरों की बातें कर रहा हूँ जो आजकल हमारी आम ज़िन्दगी का एक हिस्सा बन गईं हैं। इनके बिना ऐसा लगता है मानो व्यञ्जन में नमक न डला हो।
इन्हीं मसाला खबरों को और चटपटा बनाने के लिये आजकल एक नया मसाला आया है जिसे टीवी वालों ने रियलिटी शो का नाम दिया है। मुझे याद है जब दूरदर्शन पर "मेरी आवाज़ सुनो" आया करता था। जिसमें गायकी की प्रतिभा लोगों के सामने लाई जाती थी। रियालिटी शो की परिभाषा के अनुसार वो भी उसी कैटेगरी में आता है। ज़ी पर आने वाला सारेगामा हो जा सोनी का बूगी-वूगी दोनों ही उसी श्रेणी में आते हैं। फिर भी ये "रियलिटी शो" नामक शब्द अब मीडिया और लोगों की ज़ुबान पर आ रहा है। और कौन भूल सकता है सिद्धार्थ काक और रेणुका शहाणे की "सुरभि" को जिसमें आम देशवासियों की खास प्रतिभाओं व उन्हीं से जुड़ी ज्ञानवर्धक बातें सभी के सामने आती थीं।
लेकिन अब... समय बदला है। एक प्रतियोगिता का दौर शुरु हुआ है। ऐसी प्रतियोगिता जिसमें जज़्बातों से खेला जाता है, रिश्तों का मजाक बनाया जाता है और विचारों की स्वतंत्रता व लोकतंत्र के नाम पर सबकुछ ताक पर रख दिया जाता है। इंडियन आइडल आया, रियालिटी शो का नाम साथ लाया। वरना सारेगामा पहले से ही चल ही रहा था तब इस शब्द के मतलब कोई नहीं जानता था। सब कुछ कमर्शियल हुआ। रिलायंस ने मोबाइल फ़ोन हर हाथ में पहुँचाये तो इन शोज़ ने सबको एस.एम.एस करना सिखाया। इन्होंने ही हमें बताया कि बंगाल और असम, राजस्थान व गुजरात से अलग हैं। गाने के साथ-साथ नाचने के भी शोज़ आने लगे। हर चैनल को जैसे कोई मंत्र मिल गया हो। सास-बहू के धारावाहिकों को भूल हम इन शोज़ को देखने लगे। जनता के नाम पर शुरु किये गये ये शो कब जनता के मन में घुस गये पता ही नहीं चला।
उसके बाद इन शोज़ की जैसे एक बाढ़ आई। ’इंडियन आइडल’ हो या ’नच बलिये’ या और भी को नाचने-गाने के शोज़, ये सब पिछले भारतीय शोज़ की नकल पर ही बने। बस इन्हें कमर्शियल कर दिया गया। हम लोगों ने विदेश के शोज़ चुराने शुरु किये। हालाँकि केबीसी भी चुराये गये शोज़ में से ही एक था पर इसमें लोगों के दिमाग का इम्तिहान था। कुछ न कुछ सीखने को मिलता था और मनोरंजन भी होता था। पर इसके साथ-साथ बिग बॉस जैसे शो भी शुरु हुए जिनमें अश्लीलता का बीज बोया गया। इन शो में नामचीन लोग, टीवी के कलाकारों ने भाग लेना शुरु किया और गालियों की भरमार होनी शुरु हो गई। फिर तो नाच-गाने वाले कथित "रियालिटी शोज़" में बोल कम और "बीप" की आवाज़ अधिक सुनाई देनी लगी। टीआरपी के खेल ने ऐसे शोज़ बनाने वालों के दिमाग में नई नई स्क्रिप्ट लानी शुरु की। पर ये स्क्रिप्ट दर्शक भी बड़े चाव से देखने लगे।
"एम.टी.वी" और "चैनल वी" पर दो शो आते हैं। एक है "रोडीज़" व दूसरा है "स्प्लिट्ज़ विला"। इनको युवा पीढ़ी बड़े चाव से देखती है। उन्हें ये शो बहुत पसंद हैं। कौन क्या कर रहा है? आज फ़लां लड़की ने फ़लां लड़के को क्या कहा? कहाँ घूमने गये? उनमें कैसी पट रही है? और इन सबके बीच होती है "बीप" की आवाज़। हर किरदार अपना कथित "असली" रूप में होता है। निर्देशक की कहानी को हम युवा मजे से देखते हैं। हमें वो "बीप" की आवाज़ें पसंद हैं। हम देखना चाहते हैं अश्लीलता। हम देखना चाहते हैं बिगबॉस में नहाने के सीन। हमें अच्छा लगता है ऐसे शोज़ में काम करने वाले किरदारों की "निजी" ज़िन्दगी में झाँकना जो चैनल व निर्देशक-निर्माताओं के यहाँ गिरवी रखी जा चुकी है। वे बिकते हैं। वे पब्लिसिटी चाहते हैं। हम भी उन्हें ऐसा देखना चाहते हैं। हम राखी की शादी देखना चाहते हैं। हम चाहते हैं सच का सामना में हम एक करोड़ जीतें। हम दूसरे की निजी ज़िन्दगी को चटकारे लगाकर देखते हैं। हमें फ़र्क नहीं पड़ता उसके साथ क्या हो रहा है। न ही फ़र्क पड़ता है चैनल वालों को।
हमने विदेशी शोज़ को ज्यों का त्यों हमारे जीवन में उतार लिया। बिना ये जाने कि हमारा समाज उसे सहजता से स्वीकार करेगा या नहीं। निर्माताओं को इसकी चिंता नहीं। "सच का सामना" में यदि अश्लील प्रश्न होते हैं तो ये उस शो का फ़ार्मेट है जो अमरीका से उठाया गया है। उस देश में रिश्तों की कोई अहमियत नहीं होती। आज किसी की पत्नी कल किसी की प्रेमिका हो सकती है। बच्चा होता है तो उसके लिये एक अलग कमरा बनाकर दे दिया जाता है। वहाँ वो भावनायें, वो रिश्ते नहीं जो हम भारतीयों में होते हैं। हाल ही में एक सर्वे हुआ जिसमें सबसे खुशहाल देशो को रैंकिंग दी गई। १४४ देशों में अमरीका १४३ नम्बर पर रहा और भारत ७०वें। जो शोज़ वहाँ चल निकले हैं जरूरी नहीं यहां कामयाब हों। इन सबसे यहाँ किसी का परिवार खत्म हो सकता है। हालाँकि वो सब भी हमारी मर्जी से ही हो रहा है।
हममें अब वो संवेदनशीलता रही ही नहीं जब "नुक्कड़" के लोगों में हम खुद को देखा करते थे। "रियालिटी" साफ़ दिखाई दिया करती थी। पर "हम लोग" अब वैसे नहीं रहे। जैसे एक युग बदला हो। संवेदनहीनता के इस दौर में हम अब इन "रियालिटी शोज़" में "रियालिटी" खोजा करते हैं पर....

तपन शर्मा

Saturday, March 28, 2009

सोने का पिंजर (10)

दसवां अध्याय

अमेरिका के कुत्ते बच्चों से ज़्यादा प्यार पाते हैं....

अमेरिका में रेस्ट्राज की भरमार आपको मिलेगी, सभी तरह के खाने आपको मिल जाएँगे। एक लाइन से रेस्ट्रा है, थाई, मलेशियायी, चीनी, इण्डियन, वियतनामी आदि आदि। लेकिन भारतीय स्वाद का जवाब नहीं। किसी भी भारतीय रेस्ट्रा में चले जाइए आपको ढेर सारे अमेरिकी मिल जाएँगे। समोसा और नान सबसे अधिक पसंदीदा खाद्य पदार्थ हैं। वहाँ ऐसा कुछ नहीं है जो नहीं मिलता, लेकिन स्वाद और साइज़ में बहुत अंतर। भारतीयों के लिए सबसे मुश्किल है रोटी। बाजार में बनी-बनाई भी खूब मिलती है लेकिन अपने यहाँ की मालपुए-सी रोटी वहाँ नसीब नहीं होती। आप ठीक सोच रहे हैं कि घर पर क्यों नहीं बना लेते? घर पर सभी बनाते हैं रोटी, लेकिन आटे में स्वाद हो तब तो बने अपने जैसी रोटी। एक घटना याद आ गई, उदयपुर के बहुत बड़े उद्योगपति का समाचार था कि वे जब भी यूरोप जाते हैं, अपने साथ आटा लेकर जाते हैं। एक बार कस्टम वालों ने पकड़ लिया और काफी कठिनाई का उन्हें सामना करना पड़ा। तब मन में प्रश्न आया था कि आटा जैसी चीज वे क्यों ले जाते हैं? फिर सोचा था कि शायद वहाँ भी बाजार में मैदे का आटा ही मिलता होगा। एक बात और मन में आयी कि भई बड़े लोग हैं, तो उनके चोंचले भी बड़े ही होंगे। ये पता नहीं था कि वहाँ अपने जैसा आटा नहीं मिलता। पहले दिन घर में रोटी खायी, स्वाद ही नहीं आया। तो बेटे से कहा कि आटा कुछ अजीब है, उसने उसे बदल दिया और बाजार से दूसरा ले आया। अब भी वही स्थिति। फिर हमने जुबान पर ताला लगा लिया। एक-दो जगह गए और धीरे से आटे के बारे में पूछ लिया तो मालूम पड़ा कि यह तो सभी की परेशानी का सबब है। फिर लगा कि उन उद्योगपति का चोंचला सही था। कृषि क्षेत्र में बहुत प्रयोग किए हैं अमेरिका ने। शायद ऐसा ही कोई प्रयोग गैंहू में किया हो, क्योंकि उन्हें रोटी का स्वाद पता नहीं, वे तो ब्रेड खाते हैं। अतः जो ब्रेड में अच्छा स्वाद दे, वैसा ही गैंहू बना दो, शायद।
सेब और आडू को मिलाकर कई फल तैयार हो गए, ऐसे ही अनेक संकर फल आपको वहाँ मिल जाएंगे। किसी में स्वाद है और किसी में नहीं। अब जब संकर प्रजातियों की बात ही आ गयी है तो एक और मजे़दार मानसिकता वहाँ दिखायी दी। कुत्तों को लेकर वे बहुत प्रयोगवादी हैं। कॉलोनी में अक्सर प्रत्येक व्यक्ति सुबह-शाम कुत्ते घुमाता हुआ दिखायी दे जाएगा। एक-एक व्यक्ति के पास तीन-तीन कुत्ते। मजेदार बात यह है कि सारे ही कुत्ते एक दूसरे से अलग। स्ट्रीट डॉग वहाँ नहीं हैं, लेकिन घरों में कुत्तों और बिल्लियों की भरमार है। बाज़ार में उनके लिए बड़े-बड़े मॉल है, जहाँ उनका खाना से लेकर बिस्तर तक उपलब्ध हैं। उनके सेलून भी हैं और अस्पताल भी।
कुछ घरों में तो केवल कुत्ते-बिल्ली ही हैं, बच्चे नहीं। वहाँ व्यक्ति पहले कुत्ता पालता है और उसके बाद उसके पास आर्थिक सामर्थ्‍य होता है तब बच्चे पैदा करता है। शायद सुरक्षित सुख इसी में है। जिम्मेदारी रहित सुख। किसी को दो दिन के लिए बाहर जाना है तो पड़ौस में कुत्ते को बाँध गए या फिर अपने परिचित से कह दिया कि ध्यान रख लेना। बच्चे के साथ तो ऐसा नहीं कर सकते न? कुत्ता दूसरे पर भौंकता है जबकि बच्चा अपनों पर। भौंकने की बात पर ध्यान आया कि हमारे यहाँ जब भाग्य से कभी-कभार रात को कुछ शोरगुल थमता है तब कुत्तों के भौंकने की आवाजे आप बड़े मनोयोग पूर्वक सुन सकते हैं। ये आवाज़ें जरूरी नहीं कि गली के कुत्तों की हो, वे पालतू कुत्तों की भी होती है। वैसे अमेरिका में लोग इतने प्यार से कुत्ते पालते हैं कि मुझे यहाँ उनके लिए कुत्ते शब्द का प्रयोग खल रहा है। तो वहाँ कुत्ते भी भौंकते नहीं है और दूसरे को देखकर झपटते नहीं हैं। यहाँ तो गोद मे चढ़ा पिल्ला भी दूसरे को देखकर गुर्रा लेता है और फिर मालिक उसे प्यार से थपथपाता है और चुप कराता है तब वह शान से अपनी अदा बिखेरता हुआ कूं-कूं कर देता है। मालिक की गर्दन भी गर्व से तन जाती है, कि देखो मेरा पिल्ला भी कैसा जागरूक है? लेकिन वहाँ ऐसा कुछ नहीं था, लोग चुपचाप अपने कुत्तों को घुमाते रहते हैं, आप पास से निकल जाएं कुत्ता कोई हरकत नहीं करता। जहाँ के कुत्ते तक इतने शान्त हो, वहाँ के व्यक्ति का क्या कहना? तभी तो वे एशियन्स को देखते ही घबरा जाते हैं, आ गए आतंकवादी। पाकिस्तान और हिन्दुस्तान का बहुत अन्तर नहीं है वहाँ, उनके लिए सब ही लड़ाका हैं।
एक मजे़दार किस्सा है, किस्सा क्या है सत्य घटना है। पोता अभी पाँच महिने का ही था, घुटनों के बल चलता था। बेटे का एक अमेरिकन दोस्त है-मार्टिन, उसने एक बिल्ली पाल रखी थी। एक दिन बेटा मार्टिन से मिलने गया, साथ में अपने नन्हें से बेटे को भी ले गया। मन में डर भी था कि कहीं बिल्ली से बच्चा डर नहीं जाए। घर पहुँचकर पोता खेलने लगा और दोनों दोस्त बातों में रम गए। कुछ देर बाद रोने की आवाज सुनाई दी, तब बेटे को होश आया। अरे कहीं चुन्नू को तो बिल्ली ने नहीं मारा है? लेकिन यह क्या बिल्ली एक कोने में दुबकी हुई चुन्नू को देखकर रो रही थी। हमारे यहाँ बिल्ली घाट-घाट का पानी पीती है, घर-घर जाकर दूध साफ करती है। लेकिन वहाँ घर में बंद रहती है। सुबह-शाम मालिक घुमाने ले जाता है, तब कोई भी सड़क पर घुटने चलता बच्चा नजर नहीं आता। बेचारी बिल्ली ने कभी बच्चों को घुटने चलते देखा ही नहीं तो उसने समझा कि कौन सा जानवर आ गया है, इतना बड़ा?
भारत की भूमि पर घर-घर में कृष्ण के बाल रूप के दर्शन हो जाते हैं। सुबह उन्हें नहलाया जाता है, भोग लगता है, झाँकी होती है और सारा दिन कहाँ बीत जाता है पता ही नहीं चलता। वहाँ सारा दिन कुत्तों और बिल्लियों के साथ कब बीत जाता है पता ही नहीं चलता। वहाँ कुत्तों-बिल्लियों तक ही लोग सीमित नहीं है, छिपकली तक पाल लेते हैं। शहरों में कहीं भी पशु-पक्षियों के दर्शन नहीं होते तो वीकेंड पर कैंप लगाकर जंगलों की खाक छानते रहते हैं, जानवरों को देखने के लिए। एक ऐसे ही जंगल में हम भी गए। घूमते-घूमते मालूम पड़ा कि यहाँ भालू है। बस फिर क्या था, हम भी घुस पड़े जंगल में। वहाँ देखा पहले से ही दसेक लोग भालू को निहारने के लिए खड़े हैं। भालू मजे से पेड़ पर चढ़कर सेव खा रहा था। हम और अंदर चले गए, हमें दो और भालू दिख गए। दो-तीन लोग तो ज्यादा ही अंदर चले गए। लेकिन हम समय पर बाहर आ गए, हमारे बाहर आते ही रेंजर काफिले सहित आ गया और सभी को ऐसा नहीं करने की हिदायत देने लगा। हम तो सबकुछ देखकर चुपचाप खिसक आए।
जंगलों में भी वहाँ जानवर दिखायी नहीं देते। वहाँ होटल परिसर में मोटी-ताजी गिलहरी घूम रही थी बस वे ही सब के आकर्षण का केन्द्र बनी हुई थीं। जंगल भी जानवरों से रिक्त कैसे हैं, यह हमें समझ नहीं आया। शहर तो सारे ही कीड़े-मकोड़ों से रिक्त हैं ही। वहाँ लगा कि वास्तव में आदमी ने दुनिया में अपना प्रभुत्व जमा लिया है। अभी भारत इस बात में पिछड़ा हुआ है। यहाँ सारे ही जीव-जन्तु भी साथ-साथ पलते हैं। इस धरती पर मनुष्य ही स्वेच्छा से विचरण करे शायद इसे ही विकास कहते हैं। हमारे जंगलों में, शहरों में कितने जीव मिलते हैं? सुबह पेड़ों पर तोते अमरूद खाते मिल जाएंगे, बंदर छलांग लगाते, हूप-हूप बोलते हुए दिख जाएंगे। कौवा तो जैसे पाहुने का संदेशा लाने के लिए ही मुंडेर पर आकर बैठता है। कोयल सावन का संदेशा ले आती है। चिड़िया, कबूतर तो घर में घोंसला बनाने को तैयार ही रहते हैं। रेगिस्तानी क्षेत्र में चले जाइए, मोर नाचते आपको मिल जाएंगे।
हम मानते हैं कि देश का विकास दो प्रकार का होता है, एक सभ्यता का विकास और दूसरा संस्कृति का विकास। अमेरिकी भौतिक स्वरूप का विकास अर्थात सभ्यता का विकास पूर्ण रूप में है और भारत इस मायने में विकासशील देश कहलाता है। अमेरिका पूँजीवादी देश है और उन्होंने अपनी अर्थव्यवस्था इतनी सुदृढ़ कर ली है कि वे सारी दुनिया को पैसा उधार देते हैं और ब्याज के बदले में सारी जीवनोपयोगी वस्तुएं प्राप्त करते हैं। सारा बाजार एशिया की वस्तुओं से भरा हुआ है। 25 प्रतिशत एशियायी उनके भौतिक स्वरूप के विकास में भागीदार हैं। वहाँ का प्रत्येक व्यक्ति टैक्स देता है, जबकि हमारे यहाँ टैक्स देने वालों का प्रतिशत क्या है? एक सज्जन ने बताया कि यहाँ टैक्स की आमदनी ही इतनी है कि इन्हें समझ नहीं आता कि इस पैसे को कहाँ खर्च करें? परिणाम सारी दुनिया को खैरात बाँटना और फिर उनकी प्रकृति-प्रदत्त संसाधनों का उपयोग करना। अमेरिका के पास भी प्राकृतिक संसाधन की प्रचुरता है लेकिन वह इनका उपयोग नहीं करता। जब दुनिया के संसाधन समाप्त हो जाएँगे तब हम उनका उपभोग करेंगे, यह है उनकी मानसिकता। इसलिए ही खाड़ी के देशों से तैल की लड़ाई लड़ी जा रही है। उनकी सभ्यता के विकास के पीछे है उनका अर्थप्रधान सोच है। दुनिया के सारे संसाधन, बौद्धिक प्रतिभा सब कुछ एकत्र करो और अमेरिका के लिए प्रयोग करो। ऐसा कौन करने में समर्थ होता है, निःसंदेह ताकतवर इंसान। जैसा कि मैंने पहले कहा था कि वे विज्ञान के इस सिद्धान्त को वरीयता देते हैं कि जो भी ताकतवर हैं वे ही जीवित रहेगा। अतः उनकी जीवनपद्धति का मूल मंत्र ताकत एकत्र करना है।
प्रकृति सारे ही जीव-जन्तुओं के सहारे सुरक्षित रहती है, लेकिन अमेरिका में सभी के स्थान निश्चित हैं, जहाँ मनुष्य रहेंगे, वहाँ ये नहीं रहेंगे। अर्थात सारी प्रकृति को गुलाम बनाने की प्रवृत्ति। भोग-विलास के लिए एकत्रीकरण की प्रवृत्ति। त्याग और समर्पण के लिए कहीं स्थान नहीं। टेक्स के रूप में देने का अर्थ भी क्लब जैसी मानसिकता के रूप में परिलक्षित होता है। देश का मेनेजमेंट सरकार के रूप में तुम देखते हो तो टेक्स लो और हमें सुविधाएं दो। उसमें त्याग की भावना नहीं है। भारत में त्याग ही त्याग है। हम टेक्स के रूप में कुछ नहीं देना चाहते लेकिन दान के रूप में सबकुछ दे देते हैं। इसलिए हमारा सांस्कृतिक विकास पूर्ण हैं। भारत की जनसंख्या सौ करोड़ से भी अधिक है, यदि भारत में भी लोग अमेरिका की तरह टैक्स देने लग जाएं तो शायद सर्वाधिक टेक्स हमारे देश में आएगा। फिर विकास की कैसी गंगा बहेगी, इसकी शायद हमें कल्पना नहीं है? हम केवल दान देकर स्वयं को भगवान बनाने में लगे रहते हैं। हमारे यहाँ भौतिक विकास का कभी चिंतन हुआ ही नहीं, बस आध्यात्मिक विकास के लिए ही हम हमेशा चिंतित रहते हैं। हम केवल अपने लिए ही नहीं, प्राणी मात्र के लिए, चर-अचर जगत के लिए चिंतन करते हैं। शायद हमारा यही सांस्कृतिक सोच कभी विश्व को बचाने में समर्थ बनेगा। आज नवीन पीढ़ी को यह दकियानूसी लगता है लेकिन कल यही सिद्धान्त सभी को आकर्षित करेगा।

डॉ अजित गुप्ता