Thursday, April 29, 2010

क्लैसिक के बहाने कुछ बातें

हिन्दीबाजी-6
~अभिषेक कश्यप*


भाग-5 से आगे॰॰॰॰

हिंदी की साहित्यिक कृतियों पर लिखी समीक्षाओं-आलोचनाओं में ‘क्लैसिक’ शब्द पर बहुत जोर दिया जाता है। अखबारों के लिए समीक्षा लिखनेवाले कई नवसिखुए तो किसी ऐरे-गैरे के उपन्यास या कविता-संग्रह को क्लैसिक बताने में तनिक संकोच नहीं करते। यही नहीं, सरकारी पैसे पर शोध करने वाले विद्यार्थी और विश्वविद्यालयों में हिंदी की प्रोफेसरी करते हुए मोटी तनख्वाह, सामाजिक सुरक्षा-प्रतिष्ठा का भरपूर उपभोग करने वाले हमारे आलोचकगण भी अपनी परंपरागत विद्वता के बूते इस-उस किताब को क्लैसिक बताते रहते हैं। ऐसे में यह सवाल लाजिमी है कि क्लैसिक का मतलब आखिर क्या है? दूसरे शब्दों में कहें तो किसी किताब या कृति को क्लैसिक कहने के मानदंड क्या हों?

इस मसले को लेकर पर्याप्त बहस और विवाद की गुंजाइश है। मगर कई साल पहले उर्दू के एक मशहूर लेखक ने किसी किताब के हवाले से क्लैसिक के बारे में जो बात कही, उसका मैं मुरीद हो गया। उन्होंने बताया-‘क्लैसिक वह कृति है, जो लोगों की जिन्दगी में इस कदर घुल-मिल जाए कि लोग उसमें अपने-अपने अर्थ निकालने लगें।’ मतलब ऐसी कृति जिसकी कहानी लोग अपने-अपने ढंग से कहने-सुनने लगें। किताब से बाहर लोगों की जिन्दगी पर जिसका ऐसा सर्वव्यापी असर हो कि हर शख्स के पास उसके परिवेश, घटनाओं और पात्रों की अपनी व्याख्याएं हों। ऐसी कृति जो जनमानस की सामूहिक स्मृतियों का निर्माण करे।

इस विचार की रोशनी में मैं आधुनिक हिंदी साहित्य की क्लैसिक मान ली गई कृतियों पर नजर डालता हूँ। सबसे पहले उपन्यासों की तरफ देखता हूँ- ‘गोदान’ (प्रेमचंद), ‘त्यागपत्र’ (जैनेंद्र कुमार), ‘मैला आंचल’ (फणीश्वर नाथ रेणु), ‘शेखर एक जीवनी’ (अज्ञेय), ‘सारा आकाश’ (राजेन्द्र यादव), ‘राग दरबारी’ (श्रीलाल शुक्ल), ‘कितने पाकिस्तान’ (कमलेश्वर), ‘नौकर की कमीज’ (विनोद कुमार शुक्ल) आदि......................फिर कहानियों की तरफ जाता हूँ- ‘उसने कहा था’ (चंद्रधर शर्मा गुलेरी), ‘पूस की रात’, ‘कफन’(प्रेमचंद), ‘भेडिय़े’ (भुवनेश्वर), ‘परिंदे’ (निर्मल वर्मा), ‘हत्यारे’ (अमरकान्त), ‘राजा निरबंसिया’ (कमलेश्वर),‘जहां लक्ष्मी कैद है’ (राजेन्द्र यादव), ‘टेपचू’, ‘तिरिछ’, ‘और अंत में प्रार्थना’ (उदय प्रकाश) आदि। कविताओं में तत्काल निराला की ‘सरोज स्मृति’, ‘राम की शक्ति पूजा’ और मुक्तिबोध की ‘अंधेरे में’ याद आती है।

मैं खुद से सवाल करता हूँ- ‘ऊपर मैंने आधुनिक हिंदी साहित्य की जिन निर्विवाद रूप से महत्वपूर्ण कृतियों के नाम दिए ... और भी अनेक कृतियां, स्थानाभाव की वजह से जिनके नाम यहां दे पाना संभव नहीं, में से कोई ऐसी कृति है, जनमानस पर जिसका असर तुलसीदास के ‘रामचरितमानस’, मीरा के पद या कबीर के दोहे जैसा हो?’

बिना किसी दुविधा के तत्काल इस सवाल का जवाब दिया जा सकता है- ‘नहीं।’

यह कड़वी सच्चाई है कि आधुनिक हिंदी साहित्य की कोई ऐसी कृति नहीं जो ‘रामचरितमानस’ की तरह जनता की स्मृतियों में रची-बसी हो, नि:संदेह ‘रामचरितमानस’ क्लैसिक है। कोई यह कह सकता है कि तुलसी, सुर, मीरा या कबीर ने लोक जीवन में रच-बस जाने के लिए वक्त की एक लंबी दूरी तय की है। जबकि आधुनिक हिंदी साहित्य की उम्र महज सौ-डेढ़ सौ बरस की है। हिंदी साहित्य के कई सुरमा आज गर्व से यह कहते नजर आते हैं कि दो सौ या पांच सौ साल बाद जिस लेखक की कृतियां बची रह जाएं वही ‘सच्चा लेखक’ होगा। अफसोस कि उनकी आंखें बंद हैं, इसलिए 200-500 साल के बाद की कौन कहे आज ही उनकी किताबें ढाई सौ-पाँच सौ प्रतियाँ छपती हैं और सरकारी पुस्तकालयों के कब्रगाह में कैद हो जाती हैं। अगर हम जानना चाहें तो भारतीय भाषाओं में ही कालजयी लेखकों और क्लैसिक कृतियों के कई उदाहरण मिल सकते हैं।

रवीन्द्रनाथ टैगोर और उनकी कृतियाँ बंगाली जनमानस में किस कदर रची-बसी हैं यह बताने की जरूरत नहीं। यही नहीं, हिंदी के लेखकों, शोध छात्रों और साहित्यिक पाठकों से इतर मैंने हिंदी भाषी प्रदेशों के आम लोगों के बीच जिस कहानी की सबसे ज्यादा चर्चा सुनी है वह हिंदी कथा साहित्य के प्रतीक-पुरुष प्रेमचंद की नहीं, बांग्ला उपन्यासकार शरतचंद्र की है- देवदास। मुझे ऐसे कई लोग मिले हैं जो शरतचंद्र को नहीं जानते, न ही यह जानते हैं कि ‘देवदास’ एक उपन्यास है। देवदास और पारो की प्रेमकथा को वे किसी उपन्यासकार की कल्पना नहीं बल्कि सच्ची कहानी मानते हैं, जो वास्तव में कभी घटी थी।

मैं समझता हूँ जो कृति ऐसा असर पैदा करे, वही क्लैसिक कही जा सकती है। दुनिया भर में ऐसे कई लेखक हैं जिनकी कृतियाँ क्लैसिक के इस मानदंड पर खरी उतरती हैं। चेखव की कई कहानियों में हर तबके के लोगों के सर चढक़र बोलने वाला जादू मौजूद है। महान लातिनी-अमेरिकी उपन्यासकार गैब्रियल गार्सिया माक्र्वेज का उपन्यास ‘हन्ड्रेड इयर्स ऑफ सॉलिटयूड’ ऐसा ही क्लैसिक है जिसकी जादुई सफलता हैरतअंगेज है। वर्ष 1982 में ‘नोबल पुरस्कार’ से नवाजे गए इस उपन्यास की अब तक विभिन्न भाषाओं में ढाई करोड़ से ज्यादा प्रतियाँ बिक चुकी है। माक्र्वेज अभी जीवित हैं और किंवदंती बन चुके हैं। जो कोलंबिया गए हैं वे जानते हैं कि माक्र्वेज एक लेखक का नहीं, जनता में समाहित एक विचार का नाम है और ‘हन्ड्रेड इयर्स ऑफ सॉलिटयूड’ सहित माक्र्वेज की कई कृतियाँ समीक्षाओं-आलोचनाओं से परे सचमुच क्लैसिक हैं यानी जनता की स्मृतियों में रच-बस गई हैं।

बेशक हिंदी को ऐसे लेखकों और ऐसी क्लैसिक कृतियों की सख्त दरकार है। आने वाले समय के लिए हिंदी साहित्य के लिए इससे अच्छी शुभकामना और क्या हो सकती है।

Thursday, April 22, 2010

हिंदी समाज में बुद्धिजीवी नैतिक पहचान का संकट

हिन्दीबाजी-5
~अभिषेक कश्यप*


भाग-4 से आगे॰॰॰॰

बरसों पहले की बात है। तब मैं दिल्ली नया-नया आया था। एक मित्र मुझे अपने साथ सिरी फोर्ट ऑडिटोरियम ले गए। वहां विख्यात लेखक-बुद्धिजीवी एडवर्ड सईद के जीवन और अवदान पर केन्द्रित एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म का प्रसारण होना था। उन दिनों सईद की किताब ‘ओरिएंटलिज्म’ की काफी चर्चा थी और हिंदी की कई छोटी-मंझोली साहित्यिक पत्रिकाओं में सईद की राष्ट्रवाद की अवधारणा को लेकर अच्छी-खासी बहस चल रही थी। इसलिए सईद पर केंद्रित इस फिल्म को लेकर मैं बहुत उत्सुक था। फिल्म देखने आए छात्र-छात्राओं में ज्यादातर युवा थे- जवाहर लाल नेहरू और दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राएं। और वाकई वह एक बेहतरीन ड्रॉक्यूमेंट्री फिल्म थी। बाद में मुझे पता चला, वह फिल्म इतनी पसन्द की गई कि उसका रिपीट शो करना पड़ा। फिल्म निर्देशक का नाम अब याद नहीं आ रहा मगर सईद से बातचीत के दौरान उसकी गर्मजोशी और जिरह की मुद्रा अब भी मेरे जेहन में दर्ज है। बातचीत के दौरान सईद से उसने एक दिलचस्प सवाल पूछा- ‘आपकी जड़ें दक्षिण एशिया से जुड़ी है, आपका मजहब इस्लाम है और रहते आप यूरोप में हैं...... आप खुद को कहां का मानते हैं? आप कहां से बिलांग करते हैं ?’ एडवर्ड सईद ने दो टूक जवाब दिया-‘देशकाल, धर्म, जाति और सम्प्रदाय से परे बुद्धिजीवी की अपनी एक अलग नैतिक पहचान होती है!’
सईद के इस विचार की रोशनी में हिंदी के लेखकों-बुद्धिजीवियों की जीवनशैली और गतिविधियों को देखें तो हम खुद को एक गहरे शर्म और अफसोस से घिरा पाएंगे।
‘क्या हिंदी के बुद्धिजीवियों की कोई आइडेंटिटी’ है? इस सवाल का जवाब साफ है-‘नहीं ।’
किसी लेखक, कलाकार, बुद्धिजीवी के लिए यह जरूरी है कि सबसे पहले वह अपनी पारिवारिक-सामाजिक पृष्ठïभूमि से ऊपर उठे। परिवार, समाज और राजनीति में रहते हुए भी वह उसका हिस्सा न बने, बल्कि वह चीजों को एक अलग नजरिए से देखने का अभ्यास रखे। वह उन बंधनों, आदतों और पूर्वाग्रहों से निरंतर ऊपर उठने की कोशिश करे जो यथास्थिति बनाए रखने की पक्षधर हैं। तभी वह हालात की जटिलताओं को समझ और व्यक्त कर सकता है। मगर दुर्भाग्य से हमारे बुद्धिजीवी उन्हीं आदतों, रूढिय़ों और पूर्वाग्रहों के आसानी से शिकार हो जाते हैं, जिनसे हमारा हिंदी समाज ग्रस्त है।
हिंदी के बुद्धिजीवियों के लिए लिखना समाज और राजनीति में बदलाव के लिए एक एक्टिविस्ट की तरह मिशन भाव से काम करते हुए बुद्धिजीवी होने की अपनी स्वतंत्र नैतिक पहचान के लिए संघर्ष करना नहीं है। लेखन उनके लिए एक करियर है, जिसके जरिए वे ताउम्र पुरस्कार, पद, प्रतिष्ठा का जुगाड़ करते रहते हैं। उत्तर-आधुनिकता, भूमंडलीकरण, बाजारवाद और अस्मिता-विमर्श जैसे पश्चिम से आयतित जुमले लेखन का करियर चमकाने में उनकी खूब मदद करते हैं। यह बात और है कि अपने देश की जमीनी हकीकतों से उनका वास्ता न के बराबर होता है। इसलिए अपने देश में घटी हर छोटी-बड़ी घटना-दुर्घटना को वे पश्चिम से आयातित इन्हीं जुमलों की मदद से समझने-समझाने की कोशिश करते हैं।
हमारे बुद्धिजीवी बात भले साम्यवाद की करते हैं मगर उनका मूल वाद है - अवसरवाद। वे समाज के हित और राजनीति में व्यापक बदलाव की बात करते हैं मगर उनकी मुख्य रूचि लेखन के करियर के जरिए अपने निजी हितों को साधने में होती है।
हिंदी के ज्यादातर लेखकों-बुद्धिजीवियों की जीवनशैली ठीक वैसी ही है जैसी विचार शून्यता में लबालब डूबे हिंदी पट्टी के किसी खाते-पीते मध्यवर्गीय की हो सकती है। लेखन उनके लिए सामाजिक सुरक्षा और प्रतिष्ठा पाने का कारगर औजार है, जिसके जरिए वे ठीक उसी तरह ज्यादा-से-ज्यादा भौतिक सुख-सुविधाएं जुटाने की होड़ में लगे रहते हैं जिस तरह कोई डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, दलाल या व्यवसायी। वे कुछ खोने को तैयार नहीं। सुरक्षित मध्यवर्गीय जिंदगी जीते और ताउम्र पैसा, पद, पुरस्कार की होड़ में शामिल वे बस एक चीज खोते हैं- अपनी नैतिक पहचान।

Thursday, April 15, 2010

हिंदी में क्यों नहीं होते बेस्टसेलर

हिन्दीबाजी-4
~अभिषेक कश्यप*


भाग-3 से आगे॰॰॰॰

इधर मैंने अंग्रेजी से हिंदी में अनूदित कई बेस्टसेलर पढ़े। इनमें से ज्यादातर सेल्फ-हेल्प पुस्तकें थीं, जिन्हें भोपाल के मंजूल पब्लिशिंग हाउस ने प्रकाशित किया है। पहली बार साल २००३ में मैंने नेपोलियन हिल की ‘थिंक एंड ग्रो रिच’ (हिंदी अनुवाद: सोचिए और अमीर बनिए) पढ़ी और तभी से मुझे ऐसी किताबों का चस्का लग गया। कुछ वैचारिक असहमतियों के बावजूद इनमें से ज्यादातर किताबों ने आइडिया, सहज भाषा-शैली और पाठकों को मुरीद बनाने के अपने कौशल की वजह से मुझे बार-बार अपनी ओर आकर्र्षित किया। पुस्तक प्रकाशन के क्षेत्र में अपने विलक्षण योगदान के लिए जाने जानेवाले अरविंद कुमार ने भी कुछ साल पहले अपना प्रकाशन शुरू किया है-‘अरविंद कुमार पब्लिशर्स।’ इस प्रकाशन के जरिए वे नए-नए विषयों की बेहद सुंदर, उपयोगी और पठनीय पुस्तकें किफायती दाम पर पाठकों को उपलब्ध करा रहे हैं। मगर अफसोस कि मंजूल, अरविंद कुमार पब्लिशर्स और ऐसे ऊंगलियों पर गिने जा सकने वाले चंद प्रकाशक पेशेगत विश्वसनीयता को बरकरार रखते हुए हिंदी में लीक से हटकर जो किताबें छाप रहे हैं, वह सब अंग्रेजी भाषा की बेस्टसेलर हैं। हिंदी में आकर्षक साज-सज्जा के साथ प्रकाशित इन किताबों के आवरण पर खासतौर से यह सूचना दर्ज होती है कि दुनिया भर में इस खास पुस्तक की कई लाख प्रतियां बिक चुकी हैं और यूरोप व अमेरिका के अखबारों ने इसकी प्रशंसा में ये शब्द कहे हैं। कवर पर दी गई ऐसी सूचनाएं किताब के प्रति पाठकों में उत्सूकता जगाती हैं और किताब की बिक्री का सकारात्मक माहौल तैयार करती हैं।
सवाल यह उठता है कि ऐसी किताबें हिंदी में क्यों नहीं लिखी जातीं जबकि इन किताबों का हिंदी में एक बड़ा पाठक वर्ग मौजूद है। यकीन न हो तो अंग्रेजी के बेस्ट सेलर्स के हिंदी संस्करण छापने वाले प्रकाशकों के आंकड़ों पर गौर करें। मंजूल पब्लिशिंग हाउस किसी भी पुस्तक के १० हजार से कम के संस्करण नहीं छापता। और इनमें से कई पुस्तकों के वह साल भर में कई संस्करण छाप कर बेच लेता है। कुछ साल पहले मंजूल ने जे.के. राउलिंग की हैरी पॉटर सीरीज की पुस्तक ‘हैरी पॉटर : एन आर्डर ऑफ फीनिक्स’ की हिंदी में एक लाख प्रतियां छापी जो महीने भर में बिक गई। इसके बरक्स कहानियां-कविताएं छापनेवाले हिंदी के परंपरागत प्रकाशकों के प्रकाशन के आंकड़ों पर गौर करें तो मन खिन्न हो जाएगा। हिंदी साहित्य के परंपरागत प्रकाशकों का सरकारी खरीद और पुस्तकालयों के प्रति प्रेम जगजाहिर है। और हमारे लेखकों-बुद्धिजीवियों का तो कहना ही क्या! वे तो जैसे-तैसे किताब छप जाए उसी में खुद को धन्य मानते हैं। प्रकाशक पर पेशेगत विश्वसनीयता के लिए दबाव बनाना तो दूर, ज्यादातर लेखक तो अपनी रॉयल्टी मांगने में भी संकोच करते हैं। शायद इसलिए हिंदी साहित्य का बड़ा-से-बड़ा प्रकाशक पहला संस्करण 500 प्रतियों का छापता है और अधिकांश किताबों का तो पहला संस्करण ही नहीं बिक पाता कि दूसरे की नौबत आए।
खैर, मैं फिर अपने बुनियादी सवाल पर आता हूँ- हिंदी में बेस्टसेलर की परंपरा क्यों नहीं है? इसकी कई वजहें खोजी जा सकती हैं मगर एक सीधी और साफ वजह यह समझ आती है कि हमारे लेखकों के पास नए विचारों का अभाव है या फिर सृजन से ऊपर वे प्रक्रिया के महत्व पर गौर नहीं करते। शायद इसलिए श्रमसाध्य लेखन की संस्कृति विकसित नहीं हो पायी, जहां नए विचार हों और जो पाठकों को लुभाए भी।

Wednesday, April 14, 2010

भारतीय समाचार जगत तथा आतंकवाद



लगभग दो दशक पहले आतंकी गतिविधियों का केन्द्र कश्मीर तक ही सीमित था। लेकिन धीर-धीरे उसने सम्पूर्ण भारतवर्ष को अपनी गिरफ्त में ले लिया। देश के होटल, रेलवे स्टेशन, अस्पताल, विद्यालय तथा धार्मिक परिसर सहित सभी क्षेत्र उसकी परिधि में आ गये। वर्तमान में हमारा देश ही नहीं सम्पूर्ण विश्व इसकी हिंसक गतिविधियों की चपेट में आ गया है। वह घटना ही नहीं अपितु एक सिद्धान्त के रूप में स्थापित हो चुका है। आतंकी भारत को अपनी प्रयोगशाला बनाना चाहते है। आतंक के सूत्रधार यह भलीभॉति जानते है कि भारत की वोट बैंक की राजनीति के चलते धर्मनिपेक्षता तथा मानवधिकार के सन्दर्भ में जितना भ्रम उत्पन्न होगा उतना ही उन्हें लाभ मिलेगा। आज कशमीर में उनका समर्थन कम हुआ है अतः वहॉ उनकी गतिविधियों में भी कमी आयी है। आतंकी बिना देश में आंतरिक समर्थन के कुछ भी नहीं कर सकते हैं। वे समय-समय पर अपनी गतिविधियों तथा कार्यवाहियों को मीडिया के द्वारा उछालने का प्रयत्न भी करते हैं। उनका उद्देश्य अपने समानधर्मियों को उकसाकर तथा बहकाकर अपनी तरफ आकर्षित करना होता है। आतंकी क्या यह सब अपने आर्थिक लाभ के लिये करते है? या किसी खास उद्देश्य के लिये? क्या उद्देश्य की प्राप्ति के बाद उनकी हिंसक कार्यवाहियां बन्द हो जायेगी? विचारणीय प्रश्न है। जब तक इस विषय की खुली विवेचन नहीं की जाती, तब तक इसका हल खोजने में कठिनाई होगी। आतंकवाद के सिद्धान्त, उसके स्रोत, उनकी आर्थिक एवं बौद्धिक ऊर्जा तथा उनकी अपील जैसे पहलुओं पर मीडिया सही विवेचना करने से बचती रहेगी तो विषय की सही जानकारी समाज को प्राप्त होने में कठिनाई होगी। पिछले बीस वर्षों में देश के विभिन्न आंचलो में सैकड़ों जिहादी आतंकी हिंसक घटनायें हुई। समाचार पत्रों सहित अन्य माध्यमों ने क्या दृष्टिकोण अपनाया शोध का विषय है। वर्तमान में इलेक्ट्रानिक मीडिया जिसके सिर्फ भारत में लगभग 125 माध्यम है। गलाकाट प्रतिस्पर्धा तथा टी0आर0पी0 बढ़ाने के उद्देश्य से वे अपने मूल कर्त्तव्यों से विमुख हो जाते है। आतंकी घटनाओं, उनके साक्षात्कार, आतंकियों के भेजे संदेशों का प्रसारण सनसनीखेज तरीकों से कर वे अन्जाने में जिहादी आतंकियों के अस्त्र के रूप में इस्तेमाल हो जाते है। जिसके माध्यम से उनका स्वधर्मी तथा काल्पनिक समाज में स्थापित होने का प्रयास होता हैं वर्तमान मे मीडिया के चहुमुखी विकास का लाभ वे बड़ी चतुराई से अपने मिशन में लोगों को आकर्षित करने के लिये करते हैं।
यह बात सत्य है अंग्रेजी की अपेक्षा हिन्दी भाषी समाचार पत्र जन भावनाओं तथा वास्तविकता से अधिक नजदीक रहते हैं। भारतीय अंग्रेजी समाचार पत्र लगभग हर विषय पर अपनी वैश्विक सोच रखते हैं, आतंकवाद भी जिससे अछूता नहीं है। इसलिए उस पर अति विवेकशील दृष्टिकोण अपनाने का आरोप लगता रहता है। अतः हिन्दी तथा अंग्रेजी माध्यमों में प्रतिस्पर्धात्मक विवाद बना रहता है। भले ही आतंकवाद जैसे विषय पर अंग्रेजी भाषा माध्यम वैश्विक सोच रखता हो परन्तु देश के अन्दर हुई आतंकी वारदातों पर हिन्दी तथा अंग्रेजी समाचार पत्र दोनों की काफी हद तक एक राय रही है। दोनों ने ही आतंकवाद पर अंतरर्राष्ट्रीय सहयोग को आवश्यक माना, दोनों ने ही उक्त विषय पर अल्पसंख्यकों पर अत्याचार के आरोपों को गलत बताया, दोनों ने पोटा जैसे कानून को सिरे से खारिज नहीं किया, दोनों ने ही मुम्बई के आंतकी हमले को आंतरिक राजनीति से जोड़ने के प्रयास को कोई स्थान नहीं दिया तथा दोनों ने ही आतंकी संगठनों की गतिविधियों को उजागर करने का काम किया। हिन्दी तथा अंग्रेजी दोनों प्रकार के समाचार माध्यमों ने आतंकवाद का सही चित्र समाज के सामने रखा। दोनों भाषायी माध्यमों के बीच देश की आतंकवादी घटनाओं पर लगभग समानता दिखी।
चर्चा में प्रायः समाज हिन्दी तथा अंग्रेजी समाचार माध्यम पर अपना ध्यान केन्द्रित रखता है। अन्जाने में उससे उर्दू समाचार पत्र छूट जाते है। यह बात सत्य है उसका पाठक वर्ग काफी कम है, परन्तु है जरूर। उर्दू समाचार पत्र समाज में एक खास वर्ग में पढ़ा जाता है। शायद ही कोई अन्य वर्ग का व्यक्ति उस पर ध्यान भी देता हो। इसलिए उक्त भाषायी समाचार पत्र स्वेच्छाचारी बन गये है। जिससे सम्पूर्ण समाचार जगत की निष्पक्षता सन्देह के घेरे में आ जाना स्वाभाविक है। समाचार के माध्यम तथा उसकी विश्वसनियता लोकतंत्र का मेरूदण्ड होती है। उसकी संदिग्धता राष्ट्र के उक्त स्वरूप को विकृति कर देती है। अतः उक्त माध्यम ईमानदर तथा निष्पक्ष होना ही चाहिए। आतंकवाद के साथ-साथ मीडिया का मुख कार्य उसके मूल में जाकर उनके सिद्धान्तों को उजागर करना, राज्य तथा उसकी विभिन्न एजेंसियों की भूमिका एवं पुलिस की जांच प्रक्रिया को समाचारों के माध्यम से समाज में पहुँचाना हैं जिससे उनकी भूमिका जिम्मेदारीपूर्ण के साथ-साथ संवेदनशील भी हो जाती है। मीडिया की एक छोटी से चूक उसकी विश्वसनीयता को राख में मिला सकती है। हमारे एक मुस्लिम मित्र के अनुसार अल्पसंख्यक समुदाय का नेतृत्व मदरसों में शिक्षित उन मजहवी मौलवियों के हाथों में रह गया है। जिसकी मानसिकता इन उर्दू समाचार पत्रों के माध्यम से तैयार होती हैं उर्दू समाचार पत्र सिर्फ आतंकी घटना ही नहीं मुस्लिम समाज के किसी व्यक्ति पर आरोप भी लगता हैं तो उसका रूख हमेशा एक पक्षीय-सा होता है। उस घटना के आधार पर वे ऐसा माहौल बानाने का प्रयास करते हे। मानो देश में उनके समाज के लोगों का उत्पीड़न ही हो रहा हो। यदि हम हाल की कुछ आतंकी घटनाओं का विश्लेषण करें चाहे वह मुम्बई का आतंकी हमला हो या अब्दुल रहमान अन्तुले के बयान का प्रकरण, बटाला हाउस मुठभेड़ की घटना हो या अन्य कोई। उनका झुकाव एक पक्षीय सा ही रहता है। उर्दू समाचार पत्रों ने कभी तो मुम्बई के आतंकी हमले का रूख दूसरी तरफ मोड़ने का प्रयास किया, तो कभी बटला हाउस मुठभेड़ तथा उसमें शहीद मोहन चन्द्र शर्मा की शहादत पर प्रश्न चिन्ह लगाये, कभी अब्दुल रहमान अन्तुले के बयान पर अपनी सहमति दर्ज कर अपने पाठक वर्ग को भ्रमित करने का प्रयास किया।
उर्दू समाचारों पत्रों का आपना एक पाठक वर्ग है, जो राष्ट्रभक्त भी है। देश में उर्दू सहित अनेक समाचार स्रोतों के माध्यम से उन्हे विभिन्न तरीकों से जानकारी उपलब्ध होती हे। उन्हें अपनी ज्ञान की कसौटी पर कस वास्तविकता की जानकारी प्राप्त हो जाती है। इसलिए उर्दू समाचार पत्रों द्वारा प्राप्त हुई जानकारी का उनके जेहन पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। इसी कारण वे समचार पत्र अपनी विश्वसनियता खोते चले जा रह है। तथा हासिये पर हैं।
अभी कुछ दिनों पूर्व बटला हाउस मुठभेड़ की जाँच के लिये आजमगढ़ से करीब दो हजार मुसलमानों की उलेमा परिषद द्वारा दिल्ली में एक रैली आयोजित की गई। जिसमें उक्त मुठभेड़ को शक के दायरे में ला शहीद एम0सी0 शर्मा को मरणोपरान्त दिये गये अशोक चक्र को वापस लेने की मांग रखी गई, हालाँकि उक्त दो हजार मुसलमानों के अलावा एक भी स्थानीय मुसलमान ने उसमें भाग नहीं लिया। उक्त घटना मुसलमानों की जागरूकता एवं स्पष्ट सोच को दर्शाता है। परन्तु उर्दू समाचार पत्रों ने विभिन्न तरीकों से उक्त मुठभेड़ को विवादित करने का पूरा प्रयास किया। 26/11 की घटना का अधिकांश उर्दू समाचार पत्रों ने इस्लाम को बदनाम करने की साजिश तथा अमेरिकी खुफिया एजेन्सी सी0आई0ए0 तथा इजराइल खुफिया एजेंसी मौसाद का षड़यन्त्र बताया जिसे भी अधिकांश इस्लामी समाज ने हवा में उड़ा दिया, मुम्बई तथा मालेगाँव घटना में भी अधिकांश उर्दू समाचार पत्रों मे जबरन सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास किया। जिसे भी उनके पाठक वर्ग ने गम्भीरता से नहीं लिया। कुछ उर्दू समाचार पत्रों ने तो अजमल आमिर कसाब की स्वीकारोक्ति पर भी अविश्वास कर डाला। अधिकांश उर्दू समाचार पत्र प्रायः आतंकवाद को रोकने के लिये कठोर कानून का विरोध करते हैं उनकी दलील होती है, इसका दुरूपयोग अल्पसंख्यकों के विरूद्ध होगा।
कोई समाचार माध्यम चाहे किसी भी भाषा को हो घटनाओं तथा उसकी सही वस्तुस्थिति को समाज में पहुँचाना उसका प्रथम कर्त्तव्य होता है। समय-समय पर चर्चा होती है। किस प्रकार मीडिया को आतंकियों के हाथों से इस्तेमाल होने से बचाया जाये क्या इसे सेंसरशिप के दायरे में लाया जाये या नहीं चिन्तन तथा शोध का विषय है। समाचार पत्रों के अलग-अलग विचार होना स्वाभाविक है। किसी एक भाषायी समाचार पत्रों के द्वारा खास विचारधारा या मजहब का प्रतिनिधित्व करना लोकतंत्र तथा धर्मनिरपेक्षता दोनों के लिये नुकसानदायक है। आज देश को महती आवश्यकता हैं आतंकवाद जैसे घृणित एवं राष्ट्रविरोधी विषय पर ईमानदारी से अध्ययन तथा सम्बन्धित विषय एवं घटनाओं के सत्य को समाज में पहुँचाने की तथा जागरूक करने की जिससे राष्ट्र की राष्ट्रीयता एवं साम्प्रदायिक सद्भाव कायम रह सके। समाचार जगत चाहे अपनी वैचारिक शक्ति से राष्ट्र को एक अभेद दुर्ग बना दे या समाज में विघटन का ऐसा वातावरण तैयार करें जिसमें सॉस लेना भी कठिन हो जाये।

Monday, April 12, 2010

भारतीय लोकतंत्र की छोटी-छोटी बातें

~अरुण कुमार उरांव


लखनऊ स्टेशन से दिल्ली वापसी के लिए वहां के ‘आज का आरक्षण’ टिकट खिड़की पर जब पहुंचा तो अंदर बैठे व्यक्ति ने बताया कि यह टिकट गाड़ी खुलने के दो घंटे पहले से मिल सकता है। मैं दो घंटे बाद फिर वहां पहुंचा। खिड़की के पीछे बैठे व्यक्ति ने एक अजीब सवाल पूछा कि क्या तुम्हारे घर का कोई सदस्य रेलवे में काम करता है। मैंने जवाब दिया- ‘नहीं'। इसके बाद उसने कहा कि ‘आज का आरक्षण’ का वक्त अब खत्म हो चुका है, इसलिए जेनरल यानी सामान्य श्रेणी का टिकट लेकर जाओ। उसकी इन बातों के साथ मैं उसी के बगल में बैठे एक दूसरे कर्मचारी की बात भी सुन रहा था कि दे दो यार, अभी तो इस गाड़ी में काफी सीटें हैं।

खैर, मेहरबानी के लहजे में उस व्यक्ति ने मुझे आरक्षण का आवेदन भर कर लाने को कहा और उसी लहजे में उसने मुझे टिकट भी दिया। मैंने टिकट के जो पैसे दिए उसमें बचे हुए दो रुपए मांगने पर उसने झुंझला कर बाद में आने को कहा, जैसे मैंने अपने बचे हुए नहीं, उसके पैसे मांगे हों। इस बीच उसने मेरे आरक्षण फॉर्म पर लिखा मेरा नाम पढ़ा और मेरा
रंग-रूप तो इस बात की गवाही दे ही रहा था कि मैं क्या हूं। सो, उसने बिना किसी हिचक के यह टिप्पणी की कि ‘सब जगह आरक्षण से ही चलोगे क्या...? दो रुपए के लिए हल्ला मचा रहे हो। इतना भी समझ नहीं आता है कि दो-चार रुपए
रेलवे काउंटर पर वापस नहीं मिलता है! सब दिन जंगली ही रहोगे! दो रुपए वापस लेना है तो जाओ तीन रुपए लेकर आओ।’

बात आगे नहीं बढ़ी क्योंकि एक दूसरे मित्र ने मामले को टाल देने को कहा। इसके बाद उस मित्र ने कहा कि दो-तीन रुपए क्या चीज हैं कि तुम इसके लिए झगड़ा कर लेते हो। लेकिन बात यहां दो रुपए की नहीं थी। मैंने मांगा तब वह झुंझला उठा। ऐसे हजारों लोग रोज गाड़ी छूटने के डर से, खिड़की के पार बैठे व्यक्ति की घुड़की से डर कर, खुदरा नहीं होने या इसी तरह दो-तीन रुपए को कोई खास चीज नहीं समझने के कारण अपने पैसे छोड़ जाते होंगे। मैंने बस अपने दो रुपए वापस मांगे थे। मेरे रंग-रूप को देख कर ही पता चलता है कि मैं जनजातीय समुदाय से आता हूं और यही काफी था कि टिकट खिड़की पर बैठा वह व्यक्ति मेरे अस्तित्व पर अवांछित टिप्पणियां करे! उस व्यक्ति ने ट्रेन में पूरे पैसे चुका कर आरक्षित टिकट लेने को मेरे जनजातीय आरक्षित वर्ग से कैसे जोड़ दिया? उसने दो रुपए मांगने के कारण मुझे जंगली क्यों कहा?

ऊपर से देखने में ये बातें बिल्कुल आम लगती हैं और कोई मुझे यह सलाह भी दे सकता है कि यह कोई खास बात नहीं है। लेकिन एक संस्कृति कैसे और क्यों इस तरह के मनोविज्ञान को बनाए रखती है? किसी का रंग-रूप ही क्यों उसकी सामाजिक हैसियत को ऊंचा या नीचा साबित करने के लिए काफी होता है?

मैं खुद को थोड़ा जागरूक इंसान मानता हूं। शायद यही वजह थी कि मैंने टिकट मांगने से लेकर बाकी के दो रुपए वापस लेना जरूरी समझा। टिकट खिड़की पर बैठा व्यक्ति उन लोगों से किस तरह पेश आता होगा, जिन्हें देखने से ही यह पता लग जाता है कि वे गरीब या मजदूर वर्ग के सदस्य हैं। इन लोगों के साथ पैसे लूटने का खेल टिकट खिड़की से लेकर ट्रेन के जेनरल बोगी यानी सामान्य डिब्बे और गंतव्य स्टेशन से बाहर निकल जाने तक होता है। इसमें रेलगाड़ी में सुरक्षाकर्मियों से लेकर टिकट जांच करने वाले और स्टेशन से बाहर निकलते वक्त टिकट लेने वाले टीटी तक शामिल रहते हैं।

बात यहीं तक सीमित नहीं है। इसने एक सामाजिक मनोविज्ञान के रूप में अपनी जगह बनी ली है। मेरे जिस दोस्त ने यह कहा था कि तुम दो-तीन रुपए के लिए क्यों झगड़ा कर लेते हो, वह कॉमरेड कहलाना पसंद करता है। क्या उसने इन दो-तीन रुपए के जरिए रोजाना होने वाले करोड़ों के घोटाले के बारे में कभी सोचा है? यह बात कहां से किसी की मानसिकता में पैठ जाती है कि दो-तीन रुपए कोई चीज नहीं होते?

हमारे महान देश में नमक अब दस से लेकर पंद्रह रुपए किलो या इससे भी ज्यादा महंगा मिलता है। आयोडीनयुक्त नमक नहीं खरीदना अघोषित रूप से अपराध मान लिया गया है। कभी मैं गांव में जब नमक खरीदने जाता था तो पचास
पैसे में एक किलो नमक मिलता था। अब वह पचास पैसे का सिक्का दिल्ली में चलन से बाहर हो चुका है। क्या भारतीय रिजर्व बैंक ने सिक्के बनाने बंद कर दिए हैं? सरकार का भी कहना है कि वह बंद नहीं हुआ है। लेकिन व्यावहारिक तौर
पर पचास पैसे के सिक्के का चलन बंद हो जाने जैसी व्यवस्था चुपचाप कैसे बन जाती है? क्या इसके पीछे कोई पूंजीवादी साजिश हो सकती है? पचास पैसे या एक रुपए की जगह कई बार मुझे एक टॉफी पकड़ा दिया जाता है। दुकानदार का
कहना होता है कि उसके पास खुदरा नहीं है। और इससे भी ज्यादा कि पचास पैसे का सिक्का नहीं चलता, या कि एक रुपए के लिए क्या किच-किच करते हो! फिर सामानों के मूल्य में पचास पैसे क्यों अंकित किए होते हैं? क्या यह सब हमारी लोकतांत्रिक सरकारों के बिना चाहे हो रहा है?

(जनसत्ता से साभार)

Friday, April 09, 2010

महिला आरक्षण बिल – एक लंबे सफर की शुरूआत (3)

0प्रेमचंद सहजवाला


॰॰॰दूसरे भाग से आगे

राज्यसभा में केवल ‘समाजवादी पार्टी’ (सपा) व ‘राष्ट्रीय जनता दल’ (आर.जे.डी) के कुछ सदस्यों की शर्मनाक व गैर-संसदीय गतिविधियों यथा राज्यसभा अध्यक्ष व देश के उप-राष्ट्रपति डॉ. हामिद अंसारी की सीट तक लपकने तथा उन से बिल छीन कर फाड़ देने के कारण यह बिल ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ पर पारित न हो सका. यदि उस दिन हो जाता तो यह ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ पर देश की महिलाओं के लिए एक उपहार होता. उप-राष्ट्रपति के पास बार बार सदन को स्थगित करने के अतिरिक्त कोई विकल्प था ही नहीं. यह बिल जो कि देश के चौथे प्रधानमंत्री राजीव गाँधी का स्वप्न था, संसद में सन् 1996 में ही जा कर प्रस्तुत किया जा सका, जब एच.डी. देवगौड़ा प्रधानमंत्री थे. उस समय भी यह विषय क्यों कि जीवंत था, जनता खुशखबरी सुनने के लिए दूरदर्शन से चिपकी रही, लेकिन सपा नेता मुलायम सिंह यादव व कुछ अन्य नेताओं के आकस्मिक हस्तक्षेप के कारण सपना चूर सा हो गया था. ‘अन्य पिछड़े वर्ग’ यानी OBC पल्टन को ‘आरक्षण के भीतर आरक्षण’ चाहिए था तथा बिल को रोकना पड़ा और यह बिल उस के बाद 14-15 वर्ष तक दिन का प्रकाश नहीं देख सका. सन् ’96 के बाद अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली ‘राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक गठबन्ध’ (NDA) सरकार द्वारा कुल पांच बार - सन् 98, 99,2002 व 2003 (दो बार) में - प्रस्तुत किया गया पर बार बार इसे पटरी से उतारा गया और तब तक यह एक टेढ़ी खीर सा लगने लगा. डॉ. मनमोहन सिंह की ‘संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन’ (UPA) सरकार सन् 2004 में सत्ता में आई तो उस ने इसे ‘न्यूनतम साझा कार्यक्रम’ (Common Minimum Programme) का हिस्सा बनाया और सन् 2008 में संसद में प्रस्तुत किया. OBC नेताओं ने हमेशा आरक्षण को ले कर अधिकाधिक टुच्चे किस्म के राजनीतिक खेल खेले. पहले सन् ’90 में विश्वनाथ प्रताप सिंह व चौधरी देवीलाल ने एक दूसरे को धूल चटवानी चाही. उप-प्रधानमंत्री चौधरी देवीलाल ने दिल्ली के ‘बोट क्लब’ की अपनी आगामी जन्म-दिवस रैली में ‘मंडल आयोग’ की सफरिशें लागू करने की मांग रख कर प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह को सांसत में डाल देने की योजना बनाई. पर विश्वनाथ प्रताप सिंह ने भी चित्त कर देने का कच्ची गोलियाँ नहीं खाई थी. इस से पहले कि चौधरी देवीलाल का जन्मदिन आए, उस ने ‘मंडल आरक्षण’ की सफरिशें लागू करने का निर्णय ले कर देवीलाल को चारों खाने चित्त सा कर दिया. न अन्य राजनीतिक दलों से सलाह-मशविरा और न कोई ज़रूरी बहस! . देश अचानक हक्का-बक्का सा हो कर नौजवानों के आत्म-दाह व विश्वनाथ प्रताप सिंह के पुतले जलाए जाने की खबरें सुनने लगा. एक नवयुवक राजीव गोस्वामी, (जो अब मर चुके हैं) जो आत्म-दाह के बाद बुरी तरह जली हुई स्थिति में सफ़दरजंग हस्पताल में दाखिल थे, को देखने जब मदनलाल खुराना व लालकृष्ण अडवानी गए तो ज्यों ही वे हस्पताल से बाहर आए, कई बौखलाए हुए नौजवान उन दोनों पर झपटे और दौड़ कर मदनलाल खुराना की तो कमीज़ ही फाड़ दी. अडवानी चुस्ती से खिसक कर कार में घुस गए. देश के कई पिछड़े वर्गों को आरक्षण का इंतज़ार था पर यहाँ बेहद घटिया स्तर की राजनीति शुरू हो चुकी थी. आखिर सरकारी नौकरियों में ‘मंडल आरक्षण’ नरसिम्हा राव के कार्यकाल (’91 -’96) में एक अदालती फैसले के बाद ही लागू हो सके. परन्तु उस के बाद भी लालू प्रसाद जैसे निकृष्ट नेताओं का टुच्चापन चलता रहां जो या तो Creamy Layer’ पर या अन्य मसलों पर चद्दर को अपनी ओर खींचते रहे. परन्तु आश्चर्य कि जब लालू प्रसाद सन् 2004 में डॉ. मनमोहन सिंह की UPA सरकार में रेलमंत्री बने व उन के ही OBC समर्थक राजनीतिक शत्रु नितीश कुमार ने सन् 2005 में बिहार के मुख्यामंत्री पद की शपथ ली तब उन्होंने OBC के सवाल पर केवल हल्की मौखिक बयानबाजी करते रहना काफी समझा. लालू प्रसाद को तो देसी घी की स्वादिष्ट कचौड़ियाँ तभी से पसंद थी जब वे बिहार के मुख्यमंत्री थे सो अब केंद्रीय सत्ता की उस से भी बड़ी व स्वादिष्ट कचौड़ी मुंह में रखे रहना उन्हें अच्छा लगता होगा. नतीजतन सन् 2006 में जब संसद ने OBC को शिक्षा संस्थानों में भी आरक्षण देने का विधेयक पारित किया, तब इन दोनों नेताओं ने अधिक कुछ कहा ही नहीं, जबकि उच्च-जातियों के विद्यार्थी विरोध के गुस्से में देश को सिर पर उठाए थे. मीडिया उन्हें पूरी ‘कवरेज’ दे रहा था पर OBC की तरफ से कोई आवाज़ थी ही नहीं. इन प्रदर्शनों के लिए भा.जा.पा व कांग्रेस पर अंगुलियां उठ रही थी कि OBC को खुश करने के बाद वे अपनी गिरगिटिया शैली में उच्च-जातीय वोट बचाने के लिए इन प्रदर्शनों को भीतर ही भीतर से हवा दे रहे हैं. ‘महिला आरक्षण बिल’ पर भी लालू व मुलायम जैसे नेताओं की नज़र बिहार व उत्तर प्रदेश में क्रमशः 2010 व 2012 में होने वाले विधानसभा चुनावों पर रही. सौभाग्य से तीन पार्टियां जिन का हमेशा आपस में झगड़ते रहने का ही रिकॉर्ड रहा, यानी भा.ज.पा कांग्रेस व वाम-मोर्चा, एकजुट हो कर ‘महिला आरक्षण बिल’ के समर्थन में आ खड़ी हुई थी**. दूरदर्शन चैनलों पर तीन महिलाओं - सोनिया गाँधी, सुषमा स्वराज व बृंदा करात को बार बार देखा गया जो इस बिल को पारित कराने के लिए अधिकाधिक उत्तेजित लग रही थी. इन के साथ जयंती नटराजन व नजमा हेप्तुल्ला जैसी उत्साही महिलाएं भी थी. मीडिया ने खुश हो कर सोनिया-सुषमा- बृंदा की तिकड़ी में से सोनिया को ‘बिल की ड्राईवर’ की उपाधि दे दी.
* *
बिल के विरोध में पार्टी-निरपेक्ष हो कर कई मुस्लिम नेता भी आ खड़े हुए हैं जिन्हें लगता है कि उनका प्रतिनिधित्व संसद व विधान सभाओं में पहले से ही कम है और इसी सबब मुस्लिम महिलाओं के लिए भी इस बिल में एक ‘सब-कोटा’ (sub-quota) होना चाहिए. पर उसी सांस में उन्हें अपनी सीमाएं भी निरंतर कचोटती हैं. उदाहरणार्थ ‘मुस्लिम लीग’ नेता बशीर अली का फरमान है कि ‘मुस्लिम महिलाओं की निम्न साक्षरता को देखते हुए हमें लगता है कि बहुत अधिक मुस्लिम महिलाऐं आगे नहीं आएंगी और इसीलिये उन्हें सांसद बनने के मौके नहीं हो पाएंगे’. ‘मजलिसे इत्तेहाद-उल मुस्लिमीन’ के कर्ता-धर्ता असदुद्दीन ओवैसी ने लोकसभा के अपने भाषण में फरमाया – ‘जबकि 1952 से 2009 तक 7,906 प्रत्याशी 15 लोकसभाओं में चुने गए, केवल 14 ही मुस्लिम महिलाऐं जीतने का जुगाड़ कर पाई. यदि बिल कम प्रतिनिधित वर्गों के लिए एक निश्चित कदम है तो मुझे लगता है कि पहला अधिकार मुस्लिम महिलाओं को जाना चाहिए’. और यह लेख लिखते लिखते अचानक दूरदर्शन पर एक शिया संप्रदाय के धर्मनेता कल्बे जव्वाद बड़े हास्यास्पद तरीके से यह कहते हुए सामने आते हैं कि ‘महिलाओं का काम केवल बच्चे पैदा करना है, राजनीति में उनका कोई काम नहीं है’! दूरदर्शन चैनल इस के बाद ‘Muslim Women’s Personal Law Board’ की अध्यक्षा शायस्ता अम्बर को दिखाता है जो उक्त धर्मनेता को इस बयान के लियी आड़े हाथों लेती हैं! समाचार पत्र ‘All India Shia Personal Law Board’ अध्यक्ष मौलाना मिर्ज़ा मुहम्मद अथर द्वारा ऐसे धार्मिक किस्म के ‘महिला-विरोधी दृष्टिकोण’ की निंदा की रिपोर्ट देते हैं. शायद मुस्लिम नेताओं को अभी निर्णय लेना है कि उन्हें आखिर चाहिए क्या!
दरअसल हिंदू सामाजिक विसंगतियों, जिन का ज़िक्र पहले ‘Hindu Code Bill ’ व Age of Consent Bill के सन्दर्भ में किया जा चुका है, की तरह मुस्लिम समाज में भी कई विसंगतियाँ हैं. यदि मुसलमानों को अपनी महिलाओं की दुर्गति पर दर्द महसूस होता है तो इस के ज़िम्मेदार वे स्वयं ही हैं. ब्रिटिश काल के दौरान महात्मा गाँधी ने असेम्बली के एक जाने-माने विधायक राय साहब हरबिलास शारदा को सुझाव दिया था कि वे असेम्बली में लड़कियों की शादी की न्यूनतम आयु 15 वर्ष व लड़कों की 18 वर्ष तय करने का एक विधेयक प्रस्तुत करें. विधेयक प्रस्तुत होने के लिए तैयार पड़ा था लेकिन ‘मुस्लिम लीग’ नेता मौलाना मुहम्मद अली के आक्रोशपूर्ण हस्तक्षेप से यह ‘शारदा अधिनियम’ केवल हिंदुओं तक ही सीमित रह पाया. मौलाना मुहम्मद अली इंग्लैण्ड गए हुए थे और वे जब लौटे तो उन्हें ‘शारदा बिल’ के बारे में बताया गया था. मुहम्मद अली का आक्रोश अचानक चेतावनी के स्तर तक पहुँच गया और राजमोहन गाँधी की प्रसिद्ध पुस्तक ‘Understanding The Muslim Mind’ के ‘मुहम्मद अली’ पर ही लिखे अध्याय के अनुसार ‘अपनी नींद व भोजन दोनों को कुर्बान कर के मुहम्मद अली ने 24 घंटे जाग कर इस बिल के विरुद्ध वाईसरॉय को देने हेतु 25 पृष्ठ का एक ज्ञापन तैयार किया’ (p 116). यह सब इस तथ्य के बावजूद कि मुहम्मद अली भलीभाँति जानते थे कि संबंधित विधेयक किसी भी प्रकार से ‘शरीयत’ के आक्रोश को आमंत्रित नहीं करेगा क्यों कि ‘शरीयत’ छोटी या बड़ी उम्र के विवाहों को व्यक्तिगत चयन के मामला मानती है (वही पृष्ठ). उसी पृष्ठ पर राजमोहन गाँधी आगे लिखते हैं कि बाल-विवाह व उन का खतरनाक तरीके से समय-पूर्व शारीरिक संभोग में बदल जाना अभी तक ग्रामीण क्षेत्रों के मुसलमानों व कस्बाई क्षेत्रों के निम्न वर्गों में लगभग पूर्णतः प्रचलित था और है. मौलाना मुहम्मद अली इस मामले में अंततः सफल हुए कि यह बिल मुसलमान समुदाय पर कतई थोपा न जाए. जब राय साहेब ने बिल प्रस्तुत किया तो ब्रिटिश सरकार ने पहले इसे सर मोरोपंत विश्वनाथ जोशी के नेतृत्व वाली एक दस- सदस्यीय समिति को सौंप दिया. कई महिला संस्थाओं ने इस ‘जोशी समिति’ के सामने जा कर पक्षधरता जताई जिन में कई मुस्लिम महिलाएं भी थी, हालांकि उन सब को पता था कि मुस्लिम उलेमा लोग कभी भी अभागी मुस्लिम बालिका को कोई राहत देने वाले नहीं होंगे. यह तो केवल एक उदाहरण है. ‘शरीयत’ की पगबाधा ने ही मुस्लिम महिलाओं की प्रगति में असंख्य रोड़े अटकाए हैं. क्या हम उस गरीब औरत शाह बानो की व्यथा-कथा भूल सकते हैं जिस के ‘मासिक खर्चे’ के मुक़दमे को मुस्लिम पुरुष समाज ने सहसा ‘शरीयत बचाओ’ के रुदन से ज़ख़्मी कर दिया था? एक मुकदमे के ज़रिये शाह बानो ब-मुश्किल अपने पति से, जिस ने उसे परित्यक्त कर के दूसरा विवाह कर लिया था, मात्र 179.20 रूपए मासिक व्यय बटोर पाई थी. परन्तु मुस्लिम कट्टरपंथियों को लगा कि इस अदालती निर्णय का मतलब था उनकी पवित्र पुस्तक कुरआन से छेड़खानी और उन्होंने इस फैसले के विरुद्ध छाती पीटनी शुरू कर दी. कई महारैलियां कर डाली. वातावण को चीर डालने वाले नारे गूँज उठे – ‘शरीयत बचाओ’ ... ‘शरीयत बचाओ’... सांसदों ने संसद सिर पर उठा ली. शहाबुद्दीन जैसे नीच-स्तर नेताओं ने सरकार की नींद हराम कर दी. नतीजतन तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी एक जाल में फंस गए. उन्होंने मुस्लिम वोटों को मद्दे- नज़र रखते हुए संविधान को ही आहत कर दिया. उन्होंने संसद में पीछे की तारिख लगा कर संविधान को संशोधन करने का बिल पारित करवा दिया और 75 वर्ष की एक बूढ़ी औरत से 179.20 रूपए प्रतिमाह का तुच्छ मासिक खर्चा छीन लिया. ‘महिला आरक्षण बिल’ के सन्दर्भ में प्रमुख इस्लामी संस्था ‘नद्वा तुल उलेमा’ के मुखिया मौला सईद्दुर रहमान को क्या कहना है, वह पढ़ें - ‘सभ्य महिलाओं के लिए राजनीति एक असंभव सा पेशा है... इस्लाम महिलाओं को पर्दे की अवमानना व जनता के बीच खड़ी हो कर भाषण करने और अपने अधिकार मांगने की इजाज़त नहीं देता. उन के पास अनुसरण के लिए स्पष्ट मार्ग-दर्शन हैं: घर के भीतर हिजाब से रहो और घरेलू ज़िम्मेदारियां संभालो’ (Times of India 12 मार्च 2010 p 14). देवबंद के ‘दारुल-उलूम’, जो कि मुस्लिम संप्रदाय की नाड़ियों के केंद्र में है, ने सन् 2005 में एक फ़तवा दिया था कि ‘महिलाओं का चुनाव लड़ना एक गैर-इस्लामी व्यवहार है’. पिछड़े हुए हिंदू समाज की तरह मुस्लिम महिला के दुःख-दर्द की भी एक लंबी दास्तान है. मैंने एक मुस्लिम महिला की राम्-कहानी को बेहद संतप्त हो कर पढ़ा था जो पति से झगड़े के बाद मायके चली गयी थी. उस के पति ने उस की अनुपस्थिति में ही केवल तीन बार ‘तलाक तलाक तलाक’ का उच्चारण कर के अपने दोस्तों व संबंधियों के सामने उसे तलाक दे डाला. महिला कुछ दिन बाद मायके से लौट भी आई और पति ने उस के साथ रहना भी जारी रखा! लेकिन कुछ ही दिन बाद जब एक संबंधी उन के घर आया तो पत्नी को वहां देख बौखला उठा और तलाक के बावजूद उस के वहां होने पर प्रश्न-चिह्न लगा दिया. महिला को तलाक की जानकारी थी ही नहीं. आगंतुक ने पत्नी को झाड़ते हुए बताया कि तुम्हें तो कब का तलाक दिया जा चुका है! तुमने इस घर में कदम भी कैसे रखा? इस के बाद जो विद्रूपता भरी बात हुई वह यह कि पत्नी वहां से निकल कर सीधी पुलिस-थाणे गई और वहां पति के खिलाफ उस ने FIR लिखवाया बलात्कार का! उस के पास ‘अनुपस्थिति में ही तलाक’ दिए जाने के मूर्खतापूर्ण क़ानून पर कोई प्रश्न-चिह्न लगाने का विकल्प जो नहीं था!
...
** दुर्भाग्य कि इस लेख की यह किस्त लिखते लिखते वह स्थिति भी बदल चुकी है. भा.ज.पा, ममता बैनर्जी व वाम-मोर्चा आदि, अपने अपने स्वर बदल चुके हैं.

(क्रमशः...............................)

Thursday, April 08, 2010

अकादमियों का भाईचारावाद

हिन्दीबाजी-3
~अभिषेक कश्यप*


भाग-2 से आगे॰॰॰॰

हिंदी साहित्य के संवर्द्धन और विकास के लिए बनी संस्थाओं और अकादमियों के भाईचारा और संपर्क कौशल की मिशाल कहीं ढूंढ़े नहीं मिलेगी। इसमें भी अगर संस्था या अकादमी सरकारी हुई तो माशाअल्ला! सरकारी होने की वजह से इन संस्थाओं और अकादमियों के कुर्ताछाप रघुपतिये सचिवों-उपसचिवों की आस्था साहित्य, विचार और सृजनात्मक गतिविधियों में कम लोकतंत्र में ज्यादा होती है। और भइया, लोकतंत्र का तकाजा है कि आप भाईचारा को बढ़ावा दें और अपने संपर्क-कौशल को धार देते रहें। और इस पवित्र-पावन भाईचारावाद की वजह से अगर साहित्य जाता है तो जाए तेल लेने! अपने को क्या?
सचिव-उपसचिव के पद को सुशोभित करने वाले इन कुर्ताछाप रघुपतियों का लोकतांत्रिक भाईचारावाद मित्रों, लाभ पहुंचाने वाले परिचितों और सुंदर स्त्रियों (कंवारी हो तो क्या कहने!) से शुरू होता है। औरत हो, युवा और सुंदर हो तो इस भाईचारावाद में वह पहले नंबर पर आएगी। ‘वो कहते हैं ना, लेडिज फ्रस्ट! हो-हो-हो।’
‘अरे काहे का साहित्य और काहे की प्रतिभा! आप तो इतनी सुंदर हो कि कुछ भी लिख दो तो कविता हो जाएगी।....... फिर हम जनता के पैसों से चल रही अपनी अकादमी में आपको कविता-पाठ(?) के लिए आमंत्रित कर लेंगे। आप कवयित्री होने का गौरव भी पा जाएंगी और कविता-पाठ के बाद हम आपको मानदेय के तौर पर रुपयों वाला लिफाफा भी पकड़ाएंगे! हो-हो-हो!’
बीते ३० नवंबर को साहित्य अकादमी की वार्षिक पुस्तक प्रदर्शनी के दौरान आयोजित साहित्य-उत्सव के दूसरी गोष्ठी इसी भाईचारावाद का नमूना थी। आमंत्रित रचनाकारों में एक नवोदित कवयित्री भी थी, जिसके साहित्य में अभी दूध के दांत भी नहीं टूट्रे। उसकी कविताएं अभी इक्का-दुक्का पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं और हिंदी कविता के परिदृश्य में अभी उसकी कोई उल्लेखनीय पहचान नहीं। मगर शायद यहां इसी लोकतांत्रिक भाईचारावाद का असर था कि उसे कविता-पाठ के लिए आमंत्रित कर लिया गया। जबकि हिंदी पट्टी से रोजी-रोटी की तलाश में दिल्ली आए प्रतिभाशाली नवोदित कवियों-कथाकारों की कोई कमी नहीं, जिन्हें कविता और कहानी-पाठ के लिए आमंत्रित कर साहित्य अकादमी भी धन्य होती। इनमें से कई ऐसे भी हैं जिन्हें आर्थिक सहयोग की भी दरकार है। मगर इन पर कुर्ताछाप रघुपतियों की नजर तब पड़ती है जब वे अपना भाईचारावाद निपटा चुक होते हैं।
ऐसे में अब समय आ गया है कि जनता के पैसे से चलने वाले इन संस्थाओं और अकादमियों को लेखकों, पाठकों और श्रोताओं के प्रति जवाबदेह बनाने की मुहिम शुरू की जाए। यह भी तय होना चाहिए कि इन अकादमियों का कामकाज, इनके आयोजन पारदर्शी हों और इनके फैसलों में युवा और नवोदित लेखकों-कवियों की भागीदारी सुनिश्चित हो। वरना हम इन अकादमियों और संस्थाओं के इसी तरह के भाईचारावाद को देखने और भोगने को अभिशप्त होंगे।
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*लेखक कहानीकार और स्वतंत्र पत्रकार हैं

Thursday, April 01, 2010

अजब हिंदी प्रेम की गजब कहानी

हिन्दीबाजी-2
~अभिषेक कश्यप*


भाग-1 से आगे॰॰॰॰

हिंदी शायद संसार की इकलौती ऐसी भाषा है जिसके परजीवी मलाई-रबड़ी पर पलते हैं और श्रमजीवी अभाव, वंचना और अपमान का शिकार होते हैं। हिंदी के परजीवियों ने अपने पराक्रम से यह साबित कर दिया है कि बेईमानी, काहिली, चापलूसी और मक्कारी हमारे समय की सबसे बड़ी कलाओं का नाम है। हिंदी के मानसपुत्र श्रमजीवियों की व्यथा-कथा जितनी दर्दनाक है परजीवियों की सफलता और समृद्धि के किस्से उतने ही हैरतअंगेज।
इस बार यहाँ मैं एक ऐसा ही हैरतअंगेज किस्सा बयान कर रहा हूँ। इस किस्से का संबंध हिंदी के विख्यात लेखक कमलेश्वर और उनकी बेटी मानू से है। दो-तीन साल पहले कमलेश्वर जी की आकस्मिक मृत्यु के बाद उनके अभिन्न मित्र, यशस्वी कथाकार और ‘हंस’ के संपादक राजेन्द्र यादव ने मेरे सामने प्रस्ताव रखा कि मैं ‘हंस’ के लिए कमलेश्वर के बारे में उनकी बेटी मानू से एक साक्षात्कार लूँ। इसी इंटरव्यू के दौरान मानू ने वह किस्सा मुझे सुनाया जिसका जिक्र मैंने ऊपर किया।
यह उन दिनों की बात है जब कमलेश्वर मुंबई में थे और हिंदी साहित्य की महत्वपूर्ण पत्रिका ‘सारिका’ के संपादक हुआ करते थे। मानू तब मुंबई के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में बी. ए. की छात्रा थी। वहाँ नियम था कि दाखिले का फार्म खुद अभिभावक को कॉलेज आकर लेना है। कमलेश्वर कॉलेज पहुँचे और दाखिले के फार्मवाली खिडक़ी पर कतार में अपनी बारी की प्रतीक्षा करते हुए खड़े हो गये। तभी कॉलेज के हिंदी विभाग के एक प्राध्यापक की उन पर नजर पड़ी। वह कमलेश्वर जी को यह कहते हुए कतार से निकाल लाए कि फार्म हम मंगवा देते हैं।
कमलेश्वर कॉलेज से लौटे और मानू को इस बात के लिए राजी किया कि बी. ए. में वह समाजशास्त्र की बजाए हिंदी साहित्य की पढ़ाई करे। मानू ने बताया कि वहां हिंदी विभाग में तीन प्राध्यापक थे मगर शायद पिछले कई बरसों से हिंदी विभाग में दाखिला लेने कोई विद्यार्थी नहीं आया था। और संयोग देखिए, इस कमी को कोई और नहीं हिंदी के एक यशस्वी लेखक की बेटी ने पूरा किया।
मानू ने आगे बताया कि पूरे तीन साल वह कॉलेज की ‘वीवीआईपी छात्रा’ रही। पढऩेवाली वह अकेली पढ़ाने वाले तीन!
हम मोटे तौर पर आकलन करें, किसी महाविद्यालय या विश्वविद्यालय में नियमित रूप से कार्यरत तीन प्राध्यापकों के वेतन और अन्य भत्तों पर कितना खर्च आता होगा? डेढ़ लाख? दो लाख? या इससे अधिक? और यह सिर्फ उसी कॉलेज की त्रासदी नहीं। अगर जाँच की जाए तो देश भर में ऐसे सैकड़ों महाविद्यालय-विश्वविद्यालय हैं जहां हिंदी विभाग में या तो कोई विद्यार्थी नहीं या इक्का-दुक्का विद्यार्थी हैं। ये इक्का-दुक्का छात्र-छात्राएँ वे हैं जिन्हें हिंदी भाषा और हिंदी साहित्य से कोई लेना-देना नहीं। कई उदाहरण मैंने ऐसे भी देखे हैं जहां किसी फिसड्डी विद्यार्थी को नंबर कम होने या दूसरी वजहों से किसी अन्य विषय में दाखिला नहीं मिल पाता और वे ‘मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी’ की तर्ज पर हिंदी विभाग की शरण में आते हैं। खैर, विद्यार्थी हो न हो, हिंदी भाषा और साहित्य का कुछ भला हों न हों, हिंदी विभाग को तो रहना ही है। सरकार को राष्ट्रभाषा हिंदी पर अरबों रुपये जो खर्च करने हैं। चौंकिए मत, यह सरकार के ‘अजब हिंदी प्रेम की गजब कहानी’ है।
विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों के साथ-साथ सार्वजनिक उपक्रमों के राजभाषा विभागों का भी यही आलम है। सितबंर महीने में ‘हिंदी पखवारा’ के 15 दिन गुजर जाने के बाद बाकी साल भर वे क्या करते हैं, यह शोध का विषय है।
कई साल पहले एक परियोजना के तहत मुझे सार्वजनिक उपक्रम के राजभाषा विभाग के एक हिंदी अधिकारी के साथ उनके कार्यालय में पूरा हफ्ता गुजारना पड़ा। 50 हजार रुपये का मासिक वेतन पानेवाले उन अधिकारी महोदय ने हफ्ते भर में सिर्फ एक छोटा-सा अनुवाद कार्य किया।
उस अनुवाद कार्य की बानगी देखिए। एक चपरासी उनके पास आया। बोला-‘डायरेक्टर साहब ‘सेलरी पेड हॉलिडे’ की हिंदी पूछ रहे हैं। इस कागज पर लिख दीजिए।’ उन्होंने थोड़ी देर सोचने के बाद लिखा- ‘सवेतन छुट्टी।’
50 हजार मासिक वेतन के हफ्ते भर का हिसाब होगा- साढ़े बारह हजार रुपए। दो शब्दों के अनुवाद की कीमत! जबकि एक पेशेवर अनुवादक को दो शब्दों के अनुवाद के लिए 20 पैसे प्रति शब्द के हिसाब से 40 पैसे और अधिकतम 5 रुपये प्रति शब्द के हिसाब से 10 रुपये मिलते हैं। 40 पैसे बनाम साढ़े बारह हजार रुपये।
मित्रो! यह 40 पैसा हिंदी के श्रमजीवियों की कीमत है और परजीवियों की कीमत 12500 रुपये। श्रम और बेईमानी के बीच का यह लंबा-चौड़ा फर्क क्या कभी कम होगा?
खैर, जो भी हो, सरकार के इस हिंदी प्रेम की नजर उतारनी चाहिए ताकि हिंदी के परजीवी ताउम्र ‘सवेतन छुट्टी’ का आनंद लेते हुए दिन-दूनी रात चौगुनी तरक्की करते रहें। आमीन!
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*लेखक कहानीकार और स्वतंत्र पत्रकार हैं