Monday, August 31, 2009

ये....स्वाईन फ्लू नहीं है !!

30 साल...
10 हज़ार बच्चों की मौत...
साल 2009 ...150 बच्चों की मौत....
साल 2009....180 लोगों की मौत....
अभी मौत से लड़ते लोग....750 से ज्यादा


मरने वालों का ये टेबल अफ्रीका के किसी ग़रीब देश का नहीं है..हमारे अपने देश के आंकड़े है...वैसे ये आंकड़े पूरी तरह से सही हों मै दावा नहीं कर सकता ..पर इतना दावा कर सकता हूं ..कि ये संख्या ज्यादा हो सकती है कम नहीं..कहां मर गये इतने सारे बच्चे हमारे देश में इस साल..तो जवाब है गोरखपुर, उत्तर प्रदेश....लेकिन ये स्वाईन फ्लू नहीं है....ये बाताना ज़रूरी है..नहीं तो सरकार डर जायेगी...इंटरनेशनल बीमारियों से सरकारें ज्यादा ख़ौफज़दा रहती हैं...ये सारे लोग शिकार बने हैं...इंसेफेलाईटिस से...पिछले तीस सालों में हज़ारों लोगों को निगल लिया..जिसमें सिर्फ बच्चों की संख्या 10 हज़ार है..यहां हमारे चैनल में रोज रिपोर्ट्स आ रही है..हर दूसरे दिन कुछ बच्चों की मौत की ख़बर आ जाती है यहां से ...लेकिन बता दूं कि ये स्वाईन फ्लू नहीं है....ये जुमला मै बार-बार लिखूंगा ...समझने की कोशिश कीजिये..गोरखपुर के बाबा राघवदास मेडिकल(बीआरडी) कॉलेज में अभी कई बच्चे मौत से लड़ाई लड़ रहे है...हो सकता है कि किसी ने लड़ना भी बंद कर दिया हो ..जब मै ये सबकुछ लिख रहा हूं..या जब आप ये सबकुछ पढ़ रहे हों...इस मेडिकल कॉलेज में बिहार के चंपारण, सीमावर्ती नेपाल से भी मरीज़ पहुंचते है..साथ ही यूपी के ही देवरिया, महाराजगंज और कुशीनगर जैसे ज़िलों से भी मरीज़ पहुंचते हैं...तो इतनी बड़ी देसी समस्या को छोड़ नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी, पुणे स्वाईन फ्लू में लगा हुआ है..पूर्वी उत्तर प्रदेश में जो लोग इस बीमारी से लड़ रहे हैं..कुछ दिनों पहले उन्होने अपने ख़ून से लिखी चिट्ठी राहुल गांधी और केंद्र सरकार को लिखी..लोकिन उन नासमझ लोगों को भी बताना पड़ेगा कि ये स्वाईन फ्लू नहीं है....गोरखपुर बाढ़ से लड़ रहा है..इसके पहले सूखा था..बाढ़ का पानी जब लौट रहा है तो बीमारियों की अतिरिक्त खेप यहां के लोगों को दिये जा रहा है..खाने की दिक्कत , रहने की दिक्कत , ईलाज की दिक्कत. पर सूखा हर साल तो नहीं आता...बाढ़ आती है तो चली जाती है..पर ये बीमारी यहां पिछले 30 सालों से मौत का क्रूर खेल खेल रही है..10 हज़ार बच्चों की मौत का आंकड़ा सरकार को इस लिए कम लग रहा होगा..क्योंकि ये स्वाईन फ्लू नहीं है...सरकार का दावा है कि यहां इंसेफेलाईटिस से लड़ने के लिए टीकाकरण का काम पूरा कर लिया गया है..फिर तो बच्चों के मां-बाप बाबा राघवदास मेडिकल कॉलेज में जरूर पिकनिक मनाने आये होंगे....और पिकनिक ख़त्म हो जाने के बाद ये ग़रीब मां-बाप गिफ्ट भी ले जाते है..अपने दोनों हाथों से उठा कर..देखने में छोटा ..लेकिन ज़िन्दगी भर न भूलने वाला...लखनउ में पत्थर के हाथियों को खड़ा करने वाली सरकार कितनी अंधी है ...समझना मुश्किल नही है..रायबरेली और अमेठी का चक्कर मारने वाले कांग्रेस के राहुल बाबा और सोनिया गांधी की दौड़ भी अपनी-अपनी मस्जिदों तक ही है..कहां आयेंगे यूपी के इस अफ्रूटफुल बेल्ट में..फिर चाहे ये लोग खून से लिखे अपने व्यथा पत्र ही उन तक क्यों न भेजें...एक तो इन इलाकों की जनता ग़रीब है....दूसरे बेहतर चिकित्सा सुविधायें भी नहीं हैं..ऐसे में कई मां-बाप पैसे खत्म होने पर घर वापसी के लिए भी मजबूर हो जाते हैं...कोई है जो तीस साल से पूर्वी उत्तर प्रदेश के इस मातमी चीत्कार को सुन सके? ...पिछले तीस सालों में यूपी में बहुत सी बातें बदली..सरकारें बदली..मस्जिद गिरीं...दंगे हुए...कल्याण बदले..मुलायम बदले...माया बदलीं....बहुत कुछ बदल गया...लेकिन मौत का ये सिलसिला पूर्वी उत्तर प्रदेश में बदस्तूर जारी है...10 हज़ार लाशें सरकारी फाईलों में दफ़न हैं..असल में बाबू लोग जो नहीं लिख पाये वो आंकड़ा कहीं आगे होगा...जसवंत को मरे जिन्ना की चिंता है..भाजपा मरे जिन्ना के भूत से डरती है..उधर स्वाईन फ्लू का चेहरा ज़रूरत से ज्यादा डरावना लग रहा है...सभी व्यस्त हैं..हम टीवी वाले भी..लेकिन लगा कि कुछ बच्चे की जिंदगी मरे जिन्ना से कहीं क़ीमती है..सो लोगों का ध्यान खींचा जाये..शायद कोई फर्क पड़ जाये..वैसे एक बात फिर से दुहरा दूं..कि ये ....स्वाईन फ्लू नहीं है...

रवि मिश्रा

Sunday, August 30, 2009

डेयरी उद्योग पर भी सूखे की मार

डेयरी उद्योग परेशानी मे
देश का डेयरी उद्योग इन दिनों परेशानी के दौर से गुजर रहा है। एक ओर जहां पशु आहार आदि की भाव वृद्वि से दूध की उत्पादन लागत बढ़ने से उससे तैयार पदार्थ महंगे हो रहे हैं वहीं दूसरी ओर विदेशी निर्यातक भारत में सस्ते उत्पाद डम्प कर रहे हैं। इस वर्ष देश के अनेक हिस्सों में सूखे जैसी स्थिति है। इससे पशु आहार और हरा चारा मंहगा हो गया है। सोयामील, राईस ब्रान खल, सरसों की खल, शीरा आदि पशु आहार तैयार करने में प्रमुख रुप से प्रयोग किए जाते हैं। पिछले कुछ महीनों में इन सबके भाव में एकतरफा बढ़ोतरी हुई है। पशु आहार महंगा होने से इसका असर दूध की उत्पादन लागत पर आ रहा है। दूध उत्पादों घी, मिल्क पावडर आदि के भाव भी बढ़ रहे हैं।

आयात

जहां एक ओर, पशु आहार महंगा होने और अन्य खर्च बढ़ने से दूध आदि की लागत बढ़ गई है वहीं दूसरी ओर विदेशों से सस्ता आयात किया जा रहा है। स्किम्ड मिल्क पावडर (एसएमपी) के अतिरिक्त बटर आयल आदि का आयात भारी मात्रा में
किया जा रहा है। सरकारी संगठन राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड यानि एनडीडीबी, टैरिफ रेट कोटा स्कीम के तहत 10,000 टन मिल्क पावडर का आयात करने की योजना बन रही है। यह आयात केवल 5 प्रतिशत के रियायती शुल्क दर पर किया जा रहा है। (कुछ समय पूर्व टैरिफ रेट कोटा स्कीम के तहत आयात शुल्क 15 प्रतिशत लगता था।) पूर्वी यूरोप के देशों में इस समय मिल्क पावडर के भाव लगभग 1,900 डालर प्रति टन चल रहे हैं। इस भाव पर आयात करने पर सभी खर्च मिलाने पर विदेशी
मिल्क पावडर की आयातित लागत लगभग 100 रुपए प्रति किलो आएगी। इसकी तुलना में घरेलू खुदरा बाजार में मिल्क पावडर के भाव लगभग 135 रुपए प्रति किलो चल रहे हैं। इसमें से डेयरी उद्योग को वास्तव में लगभग 115 रुपए प्रति किलो की ही प्राप्ति होती है।

बटर आयल
इसी प्रकार बटर आयल का आयात भी सस्ता पड़ रहा है। इसका आयात 30 प्रतिशत की दर पर किया जा रहा है। कुछ समय पूर्व आयात की दर 40 प्रतिशत थी। बटर आयल का आयात लगभग 1500 डालर प्रति टन के आयात पर न्यूजीलैंड से किया
जा रहा है। इसकी आयातित लागत भी लगभग 100 रुपए प्रति किलो ही आती है। इसे देश में देसी घी के रुप में बेचा रहा है।
घरेलू डेयरी उद्योग द्वारा जो घी तैयार किया जा रहा है उसकी लागत लगभग 200 रुपए प्रति किलो आती है। यदि इसी प्रकार डेयरी उत्पादों का सस्ता आयात जारी रहा तो निसंदेह देश के डेयरी उद्योग पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा और उसके बाद देश का दूध उत्पादक यानि किसान प्रभावित होगा। ऐसे में बेहतर होगा कि सरकार कुछ ऐसे कदम उठाए कि किसानों के हितों की रक्षा हो सके।


राजेश शर्मा

Saturday, August 29, 2009

50 हज़ार पंडों के पेट में बादल की फैक्ट्री !


स्वाहा...

हमारे मध्यप्रदेश ने कमाल कर दिया और अब तक किसी को पता भी नहीं चला. देश भर में बारिश को लेकर चिंता फैल रही है, सब बादलों की ओर टकटकी लगाये हुए हैं. वैज्ञानिक चिंतित हैं कि कैसे बारिश होगी, पर्यावरणविद पर्यावरण के नष्ट होने की दुहाई दे देकर खुद मुरझा गए हैं, लेकिन हमारे प्रदेश के लोगों ने और सरकार ने रास्ता खोज लिया है. जब भी हमें बारिश करवानी होती है, हम बस एक यज्ञ या हवन करते हैं, किसी अफीमची पुजारी को घोड़े पर बैठाते हैं, डीजे वाली गाडी आगे चलाते हैं और फुरसती लड़कों को उसके आगे नचा-नचाकर जुलूस निकालते हैं. अगले दिन बहुत संभव है कि १०-१५ लीटर पानी बरस जाए. अगर बरस गया तो अफीमची अपने संत होने को खुद भी सच मानकर ख़ुशी में और अफीम पीता है और नहीं बरसा तो भगवान की मर्ज़ी.
क्या गाँव क्या शहर, हमारे प्रदेश के सारे निवासियों की समझ एक सी उर्वर है. और विकसित शहरों की तरह वे ट्रैफिक जाम आदि भौतिक समस्याओं को महत्त्वपूर्ण नहीं मानते, वे तो किसी भी व्यस्ततम मार्ग पर भजन-कीर्तन करने बैठ जाते हैं. सच है, भाई तुम्हारा ट्रैफिक बड़ा कि पानी...और हमारे भजन-कीर्तन से जो पानी बरसेगा उसका तुम उपयोग नहीं करोगे क्या? फिर खड़े रहो एक घंटे और भजन सुनो.
अभी आप देखेंगे तो प्रदेश के सबसे बड़े शहर इंदौर में रोज़ यज्ञ होते हैं और यही वजह है कि कभी-कभी बूंदा-बंदी हो जाती है क्योंकि भगवान् को 'अपने वाले' का ध्यान तो रखना पड़ता है न? मैं तो कहता हूँ कि हमारे मुख्यमंत्रीजी को इस युक्ति का पेटेंट करवा लेना चाहिए वरना अगर अमेरिका को पता चला तो वो करवा लेगा. फिर वहां यज्ञ-हवन से बारिश होगी और आपको इसके लिए उनकी अनुमति लेनी होगी.
बात निकली है तो हमारे पूज्यनीय मुख्यमंत्रीजी का भी गुणगान कर ही लेता हूँ. बहुत भले पुरुष हैं, उनकी नाक के नीचे लोग करोडों का हेर-फेर कर देते हैं लेकिन वे प्राणी मात्र में ईश्वर को देखते हुए उसे उनका भोग समझ कर धन्य हो जाते हैं. वे भी जनता की ही फ्रीक्वेंसी के हैं, वे भी पेड़-पौधों इत्यादि के चक्कर में नहीं पड़ते, ग्रीन हाउस इफेक्ट और ग्लोबल वार्मिंग तो शब्द ही अंगरेजी हैं और उनकी तो पार्टी ही स्वदेशी वाली है इसलिए इस पर तो वो नज़र भी नहीं डालते. और वे बारिश ना होने से चिंतित भी हैं, हालांकि उनके फोटो देखकर आप उन्हें दुनिया का सबसे खुश इंसान समझने की भूल भी कर सकते हैं. वो तो उन्हें फोटो खिचवाने का बचपन से ही शौक है इसीलिये पूरे प्रदेश में उनके बड़े-बड़े पोस्टर दिखाई देंगे.
हाँ, तो मैं कह रहा था कि वे बारिश ना होने से चिंतित हैं और मुखिया होने के नाते उन्हें इस समस्या के हल के लिए कुछ करना था. उन्होंने अपने सहयोगियों से सलाह-मशविरा किया. सहयोगी भी एक से बढ़कर एक धार्मिक पुरुष. किसी ने कहा गौ माता की पूजा करनी चाहिए, किसी ने कहा किसी संत को पकड़कर तपस्या करवा दो जब तक बारिश ना हो, फिर किसी ने बताया कि प्रदेश की धार्मिक नगरी उज्जैन में सिर्फ महात्मा ही निवास करते हैं और उन महात्माओं ने बारिश की खातिर एक साथ बैठकर भोजन करना स्वीकार किया है. सो मुख्यमंत्रीजी अपने व्यस्त जीवन में से समय निकालकर उज्जैन महाकाल मंदिर पहुचे जहाँ ५० हज़ार चिंतित पण्डे भोजन के इंतज़ार में थे क्योंकि शास्त्रों में लिखा है कि पण्डे के पेट से ही हर चीज़ बनती है. इतने पण्डे जब जीम लेंगे तो इस हलुवा, पूडी, खीर आदि से पंडों के पेट में बादल बनाने लगेंगे और अंततः वही बारिश करवाएंगे. ये खोज सच में विज्ञान की बड़ी से बड़ी खोज पर भारी है. तो हमारे मुखियाजी भी अपने पेट में बादल की फैक्ट्री बनवाने मंदिर जा पहुचे. वहां ५० हज़ार पंडों ने जम कर खाया ताकि बादल बनाने में कमी ना हो. फिर मुख्यामंत्रेजी इस समस्या के सुलझ जाने से प्रसन्न हो कर और भगवान् को धन्यवाद देकर घर चले गए. ये इस बीमारू प्रदेश का दुर्भाग्य ही है कि सारे पंडों को एक साथ कब्ज हो गई और पेट में बादल नहीं बन पाए, और बने भी तो बाहर नहीं निकल पाए.
वैसे हमारे मुख्यमंत्रीजी बहुत धार्मिक व्यक्ति हैं. उनका मानना है कि इंसान की क्या औकात है जो वो कोई समस्या सुलझा ले, जो करता है वो ईश्वर करता है. इसीलिए वे सारी समस्याएँ उसी को पास कर देते हैं, एक तरह से कह सकते हैं कि हमारे प्रदेश का मुख्यमंत्री ईश्वर है. एक और बात वे कहना नहीं भूलते जब भी उनके सामने कोई समस्या लाई जाए कि केंद्र हमारी मदद नहीं कर रहा, इस तरह से हम एक केंद्र शासित प्रदेश भी हैं.
स्कूलों में शिक्षा बद से बदतर हो गई है, वो दे या ना दें लेकिन भोजन के पहले की प्रार्थना अनिवार्य है क्योंकि असली ज्ञान तो उसी से मिलेगा बाकी सब तो टाइम पास है. प्रदेश में बिजली नहीं है, नहीं क्या है बिलकुल भी नहीं है लेकिन आप ही सोचिये अँधेरा तो भगवान् ने बनाया है और ट्यूबलाइट किसने बनाई??? इंसान ने... तो अब ये बताइये कि इंसान बड़ा या भगवान्?? अब जवाब तो एक ही हो सकता है...तो लो हो गई हल समस्या, तुम क्या भगवान् से बढ़कर हो? क्यों बिजली के लिए रोते हो? उसी ने अँधेरा दिया है वही रौशनी देगा.
कुछ लोग होते ही हैं विध्नसंतोषी और वे ही कभी-कभी सांसारिक बातों का रोना रोते रहते हैं, कहते हैं इंदौर में हर तरफ गन्दगी हो रही है, जिधर देखो सड़ा हुआ पानी, मच्छर, कचरा...अब बताइये कितने निम्न स्तर पर जी रहे हैं ये लोग... पानी भगवान् ने बनाया और उसी ने सड़ाया...और मच्छर क्या किसी कंपनी में बनाते हैं? कभी सुना रिलायंस के मच्छर टाटा के मच्छर...? मच्छर भी तो भगवान् की देन हैं. और कचरे का क्या है...पुराने ज़माने में ऋषि-मुनियों के ऊपर तपस्या करते-करते इतनी मिट्टी जम जाती थी कि वे दिखाई देना बंद हो जाते थे और तुम इतने से में हाय-तौबा मचाने लगे? सचमुच कलयुग है. अरे कभी रामानंद सागर की रामायण देखी है? भगवान् के हाथ में से एक रौशनी निकलेगी और सारा कचरा भस्म...तुम बस पूजा-पाठ, यज्ञ-हवन करते रहो.
तो ऐसे हैं हमारे लोग और नेता. सबके सब महापुरुष. धन्य हैं वे लोग जो अब तक संसार को असार समझ कर, सब उसके भरोसे छोड़कर भजन-कीर्तन में मस्त हैं.
शत-शत नमन.

अनिरुद्ध शर्मा

Friday, August 28, 2009

बीजेपी : कॉट संघ बोल्ड जिन्ना

जसवंत सिंह से लेकर तमाम भाजपा नेताओं ने खुद या पार्टी के लिए ही नहीं तमाम न्यूज़ चैनल्स के लिए मुश्किल खड़ी कर दी है...रोज़ बीजेपी का एक विकेट गिरता है और बीजेपी पर नया और पिछले बुलेटिन से ज़्यादा असरदार शीर्षक ढूंढने की मगजमारी शुरू हो जाती है....जसवंत सिंह की किताब कितने 'मीडियाकरों' ने पढ़ी होगी, इसमें संदेह है मगर ऐसा लगता है कि आधे घंटे के लिए टीवी में हर कोई विद्वान हो जाता है...हल्के में मत लीजिए टीवी के भद्रजनों को...सबको सब पता है...जिन्ना का नज़रिया, जसवंत का नज़रिया, (कौन जाने श्रीरामजी का नज़रिया भी)...बहरहाल, नाज़िम नक़वी क्या राय रखते है, गौर करने लायक हैं...
संपादक

ऐसा नहीं हो सकता कि जसवंत सिंह को इसका अंदाज़ा ही न हो कि उनकी किताब “जिन्ना-इंडिया-पार्टीशन-इंडिपेन्डेंस” जब बाज़ार में आयेगी तो क्या प्रतिक्रियाएं होंगी। आख़िर वो शख़्स इस बात को कैसे नज़रअंदाज़ कर सकता है जो देख चुका हो कि जिन्ना के इस जिन ने 2005 में लौह-पुरुष अडवाणी जी की कैसी फ़ज़ीहत की थी। सवाल है कि क्या उन्हें इस बात का अंदेशा था...? जी हां था। उन्होंने किताब के विमोचन समारोह में पहुंचे एक पत्रकार से अंग्रेज़ी में कहा भी था कि “आई हैव रिटेन द बुक एंड नाउ आई एम रेडी फार द नूज़” यानी अब मैं फांसी के फंदे के लिये तैयार हूं। साफ़ है कि ख़ुद जसवंत सिंह भी नकारात्मक प्रतिक्रियाओं के लिये दिमाग़ी तौर पर तैयार थे।

हां ये ज़रूर हो सकता है कि शायद उन्होंने ये नहीं सोचा होगा कि जिस पार्टी की उन्होंने तीस साल तक सेवा की वो इतनी बेरुखी से, बगैर उनका पक्ष जाने, महज़ एक फोन काल पर रिश्तों के सारे तार काट देगी। किताब के विमोचन (जिसमें भाजपा का कोई नेता शामिल नहीं था) के बाद से ही भाजपा और कांग्रेस की नाराज़गी किसी से छुपी नहीं है। उत्तर प्रदेश के एक कांग्रेसी नेता ने तो जल्दी से एक किताब खरीद कर टीवी कैमरे के सामने उसे जला कर अपनी पार्टी के आग-बबूला होने का मंचन कर दिया था।

कुल मिलाकर एक पक्ष रह गया है और वो है देश का मुसलमान। पता नहीं आम मुसलमान इसे कैसे देख रहा है लेकिन बरेली के एक पढ़े लिखे निवासी महमूद भाई ने विचारों को कहीं दूसरी तरफ़ ही मोड़ दिया। कहने लगे “जसवंत सिंह के साथ वही हुआ जो जिन्ना के साथ हुआ था... भई जिन्ना को भी उस वक्त पार्टी से तकरीबन बेदख़ल कर दिया गया था... जिन्ना लिबरल आदमी थे और नाराज होकर कम्यूनल पार्टी में चले गये। ये कम्यूनल पार्टी के आदमी हैं... ये सेक्यूलरिज्म में आ जायेंगे...।”

हालांकि आदमी विचारों से कभी बूढ़ा नहीं होता शायद इसीलिये जसवंत सिंह भी कह रहे हैं कि उनका राजनैतिक जीवन अभी समाप्त नहीं हुआ है लेकिन सत्तर पार कर लेने के बाद उनमें कितनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा बची है ये अंदाज़ा लगाना कोई मुश्किल काम नहीं है, और इसी बुनियाद पर कहा जा सकता है कि उनका पार्टी से निष्कासन कोई ख़ास मायने नहीं रखता। जो चीज़ मायने रखती है वो ये कि क्या पार्टी से जुड़ने के बाद व्यक्ति की सोच भी गुलाम हो जाती है? पार्टी अनुशासन और सेना अनुशासन में क्या कोई फ़र्क़ नहीं है? जसवंत जी के अफ़ीम प्रदर्शन को क़ानून की आंखों से बचा लिया जाता है लेकिन तथ्य प्रदर्शन की ये सज़ा दी जाती है।
बहरहाल जो भी हो इस किताब के आ जाने से सबसे ज्यादा हालत खराब है उन मौलवी हज़रात की जो कांग्रेस की चाटुकारिता में भाजपा को खरी खोटी सुनाते हैं और भाजपा के निवाले तोड़ते हुए कांग्रेस को मुसलमानों का दुश्मन बताते हैं, और इस बीच अपनी दुकान चलाते हैं। आज़ाद भारत में मुसलमानों की राजनैतिक समझ की शुरूआत ही विभाजन की सियासत से शुरू होती है और अब इस किताब के बाद उन्हें दिखाई दे रहा है कि दोनों पार्टियां तो इस विषय पर एक हो गई हैं, अब क्या किया जाए? रमजान के महीने में सियासी इफ़्तार पार्टियों में बातचीत का रुख क्या होगा इसका अनुमान सहज लगाया जा सकता है।

सच पूछिये तो जिन्ना किसी के हीरो नहीं हो सकते, न जमाते-इस्लामी के, न संघ के, न कांग्रेस के। पाकिस्तान के अंदर एक बहुत बड़ा तबक़ा उन्हें विलेन के रूप में देखता है। विदेशी सूट पहनने वाले जिन्ना, अंग्रेजी औरतों के साथ सैर-सपाटे करते जिन्ना, सिगार के कश लगाते जिन्ना, व्हिसकी से परहेज़ न करने वाले जिन्ना, सिर्फ ख़ुद को और अपने टाइप राइटर को “पाकिस्तान” बनाने का श्रेय देने वाले जिन्ना पाकिस्तान बनने के बाद पाकिस्तानियों से ये कहते हैं कि - अब पाकिस्तान बन गया अब आप गाइये बजाइये, खाइये पकाइये, मस्जिद जाइये, मंदिर जाइये, गिरजा जाइये तो कई दाढ़ियां नाराज होकर उनसे कहती हैं कि वाह! ये अच्छी कही आपने... इस्लाम के नाम पर मुल्क बनाया और अब ये कह रहे हैं कि मंदिर जाइये गिरजा जाइये...। असल बात तो ये है कि जिन्ना के सेक्यूलर बनते ही कई चेहरों का मुखौटा खुद-ब-खुद पिघलने लगता है।

लेकिन सवाल न जिन्ना का है, न जसवंत सिंह का है, सवाल है किताब लिखने की आज़ादी का। 1989 में सेनेटिक वर्सेस ने जो आग लगाई थी उसकी आंच में तपते हुए एक मौलाना साहब के पास मैं बेठा था। मौलाना अपने अनुयाइयों के बीच रश्दी पर लगे मौत के फ़रमान पर अपनी सहमति दर्ज कर रहे थे। मैं जानता था कि मौलाना ने किताब नहीं पढ़ी है, उनकी अंग्रेजी कमज़ोर है और अनुवाद बाजार में अभी आया नहीं है। मैंने सबके बीच उनसे सीधा सवाल कर डाला- मौलाना आपने किताब पढ़ी…? वो सकपकाये फिर संभलते हुए बोले ऐसी गंदी किताब मैं पढ़ भी कैसे सकता हूं...। मौलाना का दर्द मैं समझ सकता था, ईमान की रस्सी पर आस्था का बैलेंस रॉड लिये दूसरे किनारे तक पहुंचने को मजबूर लोग इधर-उधर देखने का ख़तरा मोल नहीं लेते क्योंकि हल्की सी डगमगाहट आसमान से जमीन पर ले आती है, चोट अलग लगती है। हां जो विचारों की स्वत्रंता की अहमियत को समझते हैं वो खिलाफ विचारधाराओं का स्वागत भी तहे दिल से करते हैं।
1990 में पाकिस्तान में एक फिल्म बनी “इंटरनैशनल गुरिल्ले” जान मुहम्मद निर्देशित इस फिल्म में रूसी फौजों के खिलाफ, इस्लाम की हिफ़ाज़त के लिए कुछ तालिबानी किरदार लड़ाई के लिये निकल पड़ते हैं। लेकिन तब तक रश्दी इस्लाम के सबसे बड़े दुश्मन के रूप में उभारे जा चुके थे, इसलिये फ़िल्म की कहानी का विलेन उन्हें बना दिया गया। फिल्म में ये रोल अफजाल अहमद ने निभाया। फिल्म पाकिस्तान के सरहदी इलाकों में जबरदस्त हिट रही लेकिन इत्तेफाक़ से यही पहली पाकिस्तानी फिल्म थी जिसके वीडियो ब्रिटेन में बैन कर दिये गये थे। और हुस्ने-इत्तेफ़ाक़ देखिये कि खुद सलमान रश्दी ने ब्रिटिश सेंसर बोर्ड से अनुरोध करके उसपर लगी रोक को हटवाया था।
सलमान रश्दी अपने खिलाफ उपजे रोष का स्वागत करने के लिये ज़िंदा थे सो ऐसा हो गया। मगर सरदार पटेल और नेहरू अब हमारे बीच नहीं हैं तो कौन है जो कहे कि सहमति और असहमति से परे, जसवंत जी ने जो लिखा वो स्वागत योग्य है। इतिहास के विद्यार्थी जब किसी काल-खंड में पीछे जाकर वापिस लौटते हैं तो हर बार हर कोई उनसे एक अनुरोध ज़रूर करता है कि “पुन: आगमन प्रार्थनीय है...।”

नाज़िम नक़वी

Thursday, August 27, 2009

दाल-सब्जी के दर्शन दुर्लभ हैं यमराज !

कल एक बार फिर महंगाई का सताया खाली झोला थके कांधे पर डाले मुंह लटकाए बाजार से घर न चाहते हुए भी आ रहा था कि सामने वाले मोड़ पर पौराणिक भैंसे पर से उतर गिरते मकान के छज्जे के नीचे खड़े हो यमराज इधर-उधर कुछ देख रहे थे। उनका भैंसा वहीं पास खड़ा चर रहा था या कि विचर रहा था। उसके गले में मेड इन चाइना का सीडी प्लेयर जोश के साथ हनुमान चालीसा उगल रहा था....सब सुख लहे तुम्हारी सरना, तुम रच्छक काहू को डरना। आपन तेज सम्हारो आपै, तीनो लोक हांक ते कांपे। भूत पिसाच निकट नहीं आवै, महावीर जब नाम सुनावै... पवन तनय संकट हरन मंगल मूरति रूप। राम लखन सीता सहित हृदय बसहु सुर भूप....
पता नहीं क्यों मैं एकाएक उनकी ओर खिचा चला गया। मुझे उस वक्त न कोई डर न कोई विडर। महंगाई से बड़ा कोई और यमराज होता है क्या! भूख से भी बड़ा कोई और यमराज होता है भाई साहब... क्या भ्रष्टाचार से भी बढ़कर और कोई यमराज होता होगा भाई साहब... क्या बेरोजगारी से बढ़कर भी कोई यमराज होता है क्या! मुस्कराता उनके निकट पहुंचा तो वे डरे-डरे से, सहमे से। मुंह पर कपड़ा बांधे हुए। हद है महाराज! जिनकी वजह से यमराज के पद पर सुशोभित हो उन्हीं की सड़ांध से मुंह पर कपड़ा! देखो यमराज! अगर हम न हों तो आपको भी पूछने वाला यहां कोई न हो। फिर घूमते रहो जितना मन करे भैंसे पर बैठ कर, जहां मन करे। हम हैं, तो आप हैं। आपकी रोजी-रोटी का आधार हम ही तो हैं ,चाहे जैसे भी हों। अब ये शरीर है ही जब सड़ांध का तो क्या करें! जितना हो सकता है पचासियों अभावों के बीच भी इसे बनाकर रखते हैं। मुझे बहुत गुस्सा आ गया। वैसे भी आजकल हम जैसों के पास मंदी के दौर में आसमान छूते गुस्से के सिवाय और कुछ है भी नहीं।

` ये मुंह पर कपड़ा क्यों बांध रखा है हजूर, क्या मौत से आपको भी डर लगने लगा है´ मैंने कहा तो उन्होंने मुंह पर बंधे कपड़े के बीच में से ही बुदबुदाते कहा,` स्वाइन फ्लू यार, प्रीकाशन ले रहा हूं।´

` आपने लाल किले से प्रधान मंत्री को नहीं सुना क्या´

` क्या कहा उन्होंने´

`कहा कि स्वाइन फ्लू से डरने की जरूरत नहीं। पर हम भी अब डरते भी कहां है महाराज! अब आप ही कहो, जिस देश में चारों ओर डर ही डर हो, उस देश में आकर किस किससे डरें अगर ऐसे ही डरते रहे फिर तो जी लिए महाराज! और एक आप हो कि अजर अमर होने के बाद भी स्वाइन फ्लू से इतना डर! जो होना है वह तो होकर ही रहेगा। इसलिए छोड़ो ये प्रीकाशन- प्रूकुशन। यहां तो जितने प्रीकाशन लिए उतने ही फंसे।
´ मैंने परिवार के पालन-पोषण की मार से टूटी कमर पर जरा हाथ रख तनिक सीधा हो कहा।

`तो´

`तो क्या! चलो सामने वाले ढाबे पर चाय पिलाता हूं। मंदी के दौर में अतिथि की इतनी ही सेवा कर सकता हूं। कहां जा रहे हो'

` तुम्हारे मुहल्ले के उस आखिरी ईमानदार को ले जाने आया था। बेचारा अब परेशान बहुत हो रहा है न! पर यार यहां तो...´

`डॉन्ट बी पैनिक महाराज! टेक इट इजी। ये इंडिया है। यहां तो कुछ न कुछ रोज ही चलता रहता है, कभी स्वाइन फ्लू तो कभी वाइन फ्लू तो कभी राइम फ्लू।´


`पर सरकार ने तो कहा है कि किसी सार्वजनिक स्थान पर... घर ले चलते तो वहीं बैठकर

` सॉरी! घर तो मैं आपको किसी भी कीमत पर नहीं ले जा सकता। महीनों से घर में चीनी खत्म है और अब कोई पड़ोसी ऐसा नहीं बचा है जिससे चीनी उधार न ले चुके हों। अब तो मैं सबकुछ छोड़ कई दिनों से आपकी बाट जोह रहा था, आपकी कसम! सच कहूं महाराज, अब तो महंगाई सिर से ऊपर हो गई है। लाला बाजार में दाल को दखने के भी दाम लेने लगा है। बिन पैसे वह दाल को हाथ भी नहीं लगाने देता। सब्जियों के दर्शन किए बिना महीनो हो गए हैं। सच कहूं भगवन! आप के दर्शन करना अब आसान हो गया है पर दाल सब्जियों के दर्शन अब बड़े भाग्यशाली को ही इस देश में नसीब हो रहे हैं। जिसके घर में शाम को दाल सब्जी पक जाए वह अपने को देश का सबसे खुशनसीब मान रहा है। मैं तो जैसे कैसे रोज, बाजार जाकर ही सही दाल सब्जियों के दर्शन कर आता हूं पर पत्नी को घर में बैठे महीनों हो गए दाल सब्जियों के दर्शन किए बिना। कल तो वह सारी लोक-लाज त्याग बिगड़ ही पड़ी,` देखो अगर तुम घर में दाल सब्जी नहीं ला सकते तो कम से कम बाजार ले जाकर मुझे उनके दर्शन ही करा दो तो मैं कुशल गृहणी होने का गर्व तो अनुभव कर सकूं। अगर तुम ये भी नहीं कर सकते तो मैं चली मायके।´ पर महाराज मैंने उसे बाजार ले जाने का वचन नहीं दिया तो नहीं दिया। सोचा, मायके ही चली जाए तो भला। इस बहाने इसके पीछे पीछे ससुराल जा वहां पर दाल सब्जी तो खा आऊंगा। मुझे पता है उनकी भी इतनी हिम्मत नहीं , पर घर में आए दामाद को वे अपनी झूठी हैसियत बताने की कोशिश करेंगे और मैं दाल सब्जी खा अमरत्व को प्राप्त हो जाऊंगा।´

`डॉन्ट बी पैनिक! टेक इट इजी।´
कह उन्होंने मेरी पीठ थपथपाई, भैंसे के गले में बंधे इंपोर्टेड सीडी प्लेयर का वाल्यूम और भी ऊंचा कर मुहल्ले की ओर हो लिए।

डॉ. अशोक गौतम


गौतम निवास,अप्पर सेरी रोड, नजदीक मेन वाटर टैंक
सोलन-173212 हि.प्र.

Wednesday, August 26, 2009

पत्रकारिता में गांव या गांव की पत्रकारिता...

पत्रकारिता में गांव, विषय का संदर्भ मन में एक उत्सुकता जगाने के लिये काफी है। किसी के सीने में लगी, आग तो लगी। दिल्ली जैसे शहरों में गांव का विचार नुमाइशी है। किसी महँगे से इलाक़े में मिट्टी से लिपी दीवारों और बांस की सजावट के साथ खाने-पीने की जगहों पर गांव की ख़ुश्बू सूंघते हुए लोग आते हैं और एक मोटे बिल की अदायगी के साथ चले जाते हैं, बस। अक्सर ऐसा भी होता है कि गांव की दूसरी जानकारियां, एक रुपये की बहस में दस पैसे के बराबर आ जाती हैं। शहर और इससे भी दो क़दम आगे मेट्रो-पोलिटिन शहर गांव को किस नज़र से देखते हैं इस पर घंटों बातें की जा सकती हैं, लेकिन क्यों?

मेरी समझ में नहीं आता कि शहर क्यों गांव पर बातें करते हैं? या फिर ये कि सूर्योदय और सूर्यास्त के साथ सोने जागने वाले गांव आख़िर क्यों शहर की और ताकते हैं, जहां रात और दिन का फ़र्क़ ही नहीं रह गया है? दोनों की ज़रूरतें अलग हैं। तौर तरीक़े जुदा हैं। उठना बैठना भिन्न है। “पत्रकारिता में गांव”, किस पत्रकारिता में गांव? शहरी पत्रकारिता क्यों गांव पर बात करके अपना वक़्त ख़राब करती है? उससे कहो शहर पर ही ठीक से कुछ लिख ले, वही बहुत है।

असल में गांव का विकास शहर की सोच से बाहर की बात है। वो नहीं बता सकता कि गांव की बेहतरी के लिए क्या किया जाए? गांव का विकास शहर की तर्ज़ पर न हो सकता है न किया जा सकता है। देश का हर भू-भाग शहर में तो तब्दील नहीं हो सकता। न जाने कब और कैसे शहर को ये ग़लतफ़हमी हो गई कि गांव की बेहतरी के लिए सोचने और कुछ करने का दायित्व उसका है। हो सकता है ये तब हुआ हो जब प्रशासन से बात करने के लिए गांव, शहर के चक्कर लगाने पर मजबूर हुए हों। देश की संसद अगर गांव में होती तो शायद उसे शहर का ये एहसान लेने की भी ज़रूरत न पड़ती। लेकिन वो क्या करें कि उनके नेता चुनाव में जीतते ही शहर भाग जाते हैं। हरिया की जमीन जमींदार ने दाब ली थी और कितने साल उसे अपने नेता के इन आश्वासनों पर ज़िंदा रहना पड़ा था कि “दिल्ली से बात की है, तुम्हारा काम हो जायेगा”, “दिल्ली के कामों में वक़्त तो लगता ही है हरिया..., तुम्हारी तरह बेकार तो बैठी नहीं है दिल्ली” या फिर ये कि “अभी दिल्ली अमरीका गई हुई है, जब लौटेगी तो देखेंगे”।
गांव का विकास ख़ुद गांव को ही करना होगा। आज के दौर में तो ये और भी आसान है। सूचना क्रांति ने जानकारियों पर से शहर की बपौती ख़त्म कर दी है। एक अच्छी बात ये है कि गांवों ने इस दिशा में क़दम उठा लिये हैं, शुरूआत है, है तो सही।

ये अब गांवों को ख़ुद सोचना होगा कि वो कब तक थर्मल पावर के पड़ोस में रहकर भी अंधेरे में टटोल-टटोल कर चलते रहेंगे। रायबरेली, देश की सबसे शक्तिशाली महिला के संसदीय क्षेत्र में लगे थर्मल पावर प्लांट के आस-पास के लगभग सौ गांवों में 19 घंटों की बिजली कटौती उनकी ज़िंदगी का हिस्सा है। सोचिये देश के दूसरे गांव समूहों का क्या हश्र होगा। गांवों के अनगिनत दर्दों में ये ये तो महज़ एक टीस है। घाव देखने और दिखाने की हिम्मत तो अभी आई ही नहीं है। “एक-दो ज़ख्म नहीं सारा बदन है छलनी, दर्द बेचारा परीशां है कहां से उट्ठे”।

पत्रकारिता और साहित्य में गांव नहीं, गांव में साहित्य और पत्रकारिता, विषय होना चाहिये था। गांव को अपना सूचना तंत्र ख़ुद खड़ा करना होगा और प्रशासन से सीधे तौर पर जुड़ना होगा। सरकार और गांव के बीच की हर दूरी स्वंय पाटनी होगी। तकनीक शहर से नहीं आती, पैसे से आती है, ये समझना होगा। अपनी ख़ुदी को ऊंचा कीजिये फिर देखिये दिल्ली में बैठे ज़िल्ले-इलाही कैसे झुक के आपसे पूछेंगे, बताओ हरिया, आप क्या चाहते हो?




अपनी पहली वर्षगांठ पर पाखी पत्रिका ने साहित्य और पत्रकारिता में गांव संगोष्ठी आयोजित करके गांव को याद किया तो सभा के सबसे नौजवान वक्ता पुण्य प्रसून बाजपेयी ने सभा को गांव के मर्म का एहसास कराया। शायद प्रसून ही ऐसा कर सकते थे, क्योंकि वो उस जमात से आते हैं जो कभी शहर आये ही नहीं। उनके गांव में दिल्ली महज़ एक बिंदु का नाम है। प्रस्तुत है पाखी की संगोष्ठी में जो उन्होंने बोला, स्वयं उनकी आवाज़ में –


(यदि आप उपर्युक्त प्लेयर से नहीं सुन पा रहे हैं तो यहाँ से डाउनलोड कर लें)

हिंद युग्म अपनी बैठक में इस चर्चा को और आगे ले जाना चाहता है। क्योंकि हमारा मानना है कि हर दिल एक गांव का नक़्शा है।

Tuesday, August 25, 2009

माँओं ने तेरे नाम से बच्चों का नाम रख दिया...

शायर अहमद फ़राज़ की पहली पुण्यतिथि पर


अहमद फ़राज़ एक ऐसा नाम जिसके बिना उर्दू शायरी अधूरी है. आज अगर एशिया में इश्किया शायरी में फैज़ अहमद "फैज़" के बाद किसी शायर का नाम आता है तो वो हैं अहमद "फ़राज़". आज उनकी ग़ज़लें हिन्दुस्तान और पकिस्तान के अलावा कई और मुल्कों में भी मशहूर हैं. जहाँ भी इंसानी आबादी पाई जाती है. उनकी ग़ज़लें पढ़ी और सुनी जाती है.

अहमद फ़राज़ साहब की पैदाइश पकिस्तान के नौशेरा जिले में 14 जनवरी 1931 को को एक पठान परिवार में हुई. उन्होंने पेशावर युनिवर्सिटी से इल्म हासिल किया और वही पर कुछ वक़्त तक रीडर भी रहे. उनका विसाल (निधन) 25 अगस्त, 2008 को इस्लामाबाद के एक अस्पताल में हुआ. वो गुर्दे की बीमारी में मुब्तिला हो चुके थे. उन्हें पकिस्तान का सबसे बड़ा सम्मान हिलाल-ऐ-इम्तियाज़ भी हासिल था. इसी के साथ उन्हें कई और गैर मुल्की सम्मान भी मिले था.

फ़राज़ साहब की मकबूलियत और शोहरत का अंदाजा एक वाकये से लगाया जा सकता है. एक दफा अमेरिका में उनका मुशायरा था जिसके बाद एक लड़की उनके पास आटोग्राफ लेने आयी। नाम पूछने पर लड़की ने कहा "फराज़ा". फराज़ ने चौंककर कहा "यह क्या नाम हुआ?" तो बच्ची ने कहा "मेरे मम्मी पापा के आप पसंदीदा शायर हैं। उन्होंने सोचा था कि बेटा होने पर उसका नाम फराज़ रखेंगे। लेकिन बेटी पैदा हो गयी तो उन्होंने फराज़ा नाम रख दिया।"

इस बात पर एक शे'र कहा था.

"तुझे और कितनी मोहब्बतें चाहिए फराज़,
मांओ ने तेरे नाम से बच्चों का नाम रख दिया"


क्या कहते हैं दूसरे शायर

फ़राज़ की शायरी ग़में दौराँ और ग़में जानाँ का एक हसीन संगम है। उनकी ग़ज़लें उस तमाम पीड़ा की प्रतीक हैं जिससे एक हस्सास (सोचने वाला) और रोमांटिक शायर को जूझना पड़ता है। उनकी नज़्में ग़में दौराँ की भरपूर तर्जुमानी करती हैं और उनकी कही हुई बात, जो सुनता है उसी की दास्ताँ मालूम होती है।
कुंवर महेंद्र सिंह बेदी "सहर"

आज के दौर में भारत और पाकिस्तान की बंदिशों को नहीं मानने वाले लोगों की बेहद कमी है। पाकिस्तान में रहते हुए जिस तरह की परेशानियों को उन्होंने झेला और उसके बाद भी इंसानी आजादी और मजहब के भेदभाव से ऊपर उठकर लिखा वह काबिले तारीफ है।
डॉ. अली जावेद
(नेशलन काउंसिल फॉर प्रमोशन ऑफ उर्दू लैंग्वेज के निदेशक)

फराज़ उर्दू रोमांटिक शायरी का ऐसा नाम है जिसकी गज़लों और नज्मों से तीन पीढ़ियां वाकिफ है। इस वक्त उनके जितने शेर लोगों को याद है उतने शायद ही किसी अन्य शायर के हों
मशहूर शायर मुमताज राशिद

फ़राज़ अपने वतन के मज़लूमों के साथी हैं। उन्हीं की तरह तड़पते हैं, मगर रोते नहीं। बल्कि उन जंजीरों को तोड़ते और बिखेरते नजर आते हैं जो उनके माशरे (समाज) के जिस्म (शरीर) को जकड़े हुए हैं। उनका कलाम न केवल ऊँचे दर्जे का है बल्कि एक शोला है, जो दिल से ज़बान तक लपकता हुआ मालूम होता है।
मजरूह सुल्तानपुरी
इसी तरह से उनकी वतनपरस्ती की एक मिसाल मिलती है. पश्चिम एशिया के अरबी बोलने वाले मुल्कों में एक जश्ने-शायराँ (काव्योत्सव) बहुत मशहूर है—अल मरबिद पोयट्री फेस्टिवल. उसमें तमाम मुल्कों से अलग-अलग ज़बानों के मशहूर शायर हिस्सा लेने के लिए बुलाये जाते हैं. उसी में पाकिस्तान से उर्दू की नुमाइन्दगी करने आए थे जनाब अहमद फ़राज़. हिन्दुस्तान से उर्दू की नुमाइन्दगी करने के लिए भेजे गए थे जनाब रिफ़त सरोश. यह वह वक़्त था जब इराक़ की लड़ाई ईरान से चल रही थी और ख़ूब घमासान चल रहा था.

तमाम मुल्कों के शायर बग़दाद में मौजूद थे. इराक़ी हुकूमत को लगा कि यह बढ़िया मौक़ा है दुनिया भर के शायरों को ‘ईरान की ज़्यादतियों को दिखाने का'. इसलिए उन्होंने काव्योत्सव के एक दिन पहले जंग के मोर्चे पर ले जाने के लिए एक बस का इन्तज़ाम किया और सभी को एक-एक यूनिफॉर्म पकड़ाना शुरू कर दिया। सबब यह बताया गया कि जंग के मोर्चे पर जा रहे हैं तो जंग की पोशाक ही होनी चाहिए। हिफाज़त के मद्देनज़र यह ज़रूरी है. तमाम मुल्कों के शायर पोशाक की पुलिन्दा लेकर बस में जा बैठे। जब एक भारत से गए हिंदी कवि का नंबर आया तो वह अड़ गए कि मैं यह नहीं पहनूंगा. इंचार्ज इराक़ी कमाण्डर उसे समझाने आया तो उन्होंने उसे समझाना शुरू कर दिया और बताया कि मैं बसरा से एक बार उस इलाक़े को देखने एक पत्रकार के रूप में सादे लिबास में जा चुका हूँ। दुबारा अगर आप उस इलाक़े में ले ही जाना चाहते हैं तो मैं जैसा हूँ, भारतीय, वैसा ही चलूँगा. आपकी फौजी वर्दी पहनकर हर्गिज़ नहीं जाऊँगा। कभी अगर फौजी वर्दी पहनने का अवसर आया भी तो अपने देश के लिए पहनूँगा, इराक़ या ईरान के लिए नहीं। अफसर ज़रा तन्नाया लेकिन कर कुछ न पाया। उसने तुरुप चाल चली कि अगर मोर्चे पर आपको कुछ हो गया, गोली ही लग गई तो ?

"तो मैं, ज़ाहिर है कि मर जाऊँगा। लेकिन मरूँगा तो भारतीय. आपकी सैनिक वर्दी में अगर मरा तो मेरी पहचान भी सही न हो सकेगी," उन्होंने कहा।

उन हिंदी कवि के साथ साथ रिफ़त सरोश साहब भी अड़ गए. और लोग भी मेरी इस दलील में शामिल न हो जाएँ, इस डर से वर्दी न लेने वाले लोगों को साथ न ले जाना मुनासिब पाया गया और वह वापस रिफ़त साहब के साथ होटल लौट आये. लॉबी में देखा कि फ़राज़ साहब पहले से ही कुछ चाहने वालों के साथ बैठे हैं।

उन्होंने ही टोका : ‘तो आप लोग भी नहीं गए?’
‘जी नहीं ! हमें उनकी वर्दी पहनना गवारा नहीं था.’ हिंदी कवि ने कहा।
‘निहायत अहमक़ाना ज़िद थी। मैं भी इसी वजह वापस आ गया।’ फ़राज़ साहब ने कहा।

फिर हिंदी कवि ने मजाकिया लहजे में कहा कि इतने लम्बे-तगड़े पठानी बदन पर कोई इराक़ी वर्दी फिट भी तो नहीं आ सकती थी, फ़राज़ साहब। इतने ख़ूबसूरत बदन के सामने वर्दी को खुदकुशी करनी पड़ती और उन्होंने फ़राज़ साहब की ही ग़ज़ल का एक शेर उन्हें नजर किया :

जिसको देखो वही ज़ंजीर-ब-पा लगता है।
शहर का शहर हुआ दाखिले-ज़िन्दा जानाँ!


फ़राज़ साहब को जिन दो ग़मों ने ज़िन्दगी भर परेशान किया. वो हैं उन्हें देश निकला दे देना और पकिस्तान में जम्हूरियत कायम न हो पाना.

उन्होंने एक ग़ज़ल कही थी.

रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ
किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम
तू मुझसे ख़फ़ा है तो जमाने के लिए आ
पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो
रस्मो-रहे-दुनिया ही निभाने के लिए आ
जैसे तुझे आते हैं न आने के बहाने
ऐसे ही किसी रोज़ न जाने के लिए आ


कुछ लोगों का कहना है कि यह ग़ज़ल फ़राज़ साहब ने अपनी महबूबा के लिए कही थी तो कुछ लोगो का कहना है कि उन्होंने यह ग़ज़ल पुष्पा डोगरा के लिए कही थी जो कि भारतीय कत्थक डांसर थी. लेकिन अहमद फ़राज़ साहब का कहना था कि यह ग़ज़ल उन्होंने पकिस्तान की जम्हूरियत के लिए कही. फर्क सिर्फ इतना है कि उसे अपनी महबूबा मान लिया है.

दूसरा गम उन्हें देश निकाला से मिला था. अपने इस गम को कितनी खूबसूरती से उन्होंने अपने अश'आर में कहा है.

कुछ इस तरह से गुज़ारी है ज़न्दगी जैसे
तमाम उम्र किसी दूसरे के घर में रहा।

किसी को घर से निकलते ही मिल गई मंज़िल
कोई हमारी तरह उम्र भर सफर में रहा।


हिजरत यानी देश से दूर रहने का दर्द और अपने देश की यादें अपनी उनके यहाँ मिलती हैं। कुछ शेर देंखें :

वो पास नहीं अहसास तो है, इक याद तो है, इक आस तो है
दरिया-ए-जुदाई में देखो तिनके का सहारा कैसा है।

मुल्कों मुल्कों घूमे हैं बहुत, जागे हैं बहुत, रोए हैं बहुत
अब तुमको बताएँ क्या यारो दुनिया का नज़ारा कैसा है।

ऐ देश से आने वाले मगर तुमने तो न इतना भी पूछा
वो कवि कि जिसे बनवास मिला वो दर्द का मारा कैसा है।


फ़राज़ साहब हिन्दोस्तानी मुशायरों में उन्हें बख्शी गई इज़्जत का बयां करते नहीं थकते थे.

"हिन्दुस्तान में अक्सर मुशायरों में शिरकत से मुझे ज़ाती तौर पर अपने सुनने और पढ़ने वालों से तआरुफ़ का ऐज़ाज़ मिला और वहाँ के अवाम के साथ-साथ निहायत मोहतरम अहले-क़लम ने भी अपनी तहरीरों में मेरी शेअरी तख़लीक़ात को खुले दिल से सराहा। इन बड़ी हस्तियों में फ़िराक़, अली सरदार जाफ़री, मजरूह सुल्तानपुरी, डॉक्टर क़मर रईस, खुशवंत सिंह, प्रो. मोहम्मद हसन और डॉ. गोपीचन्द नारंग ख़ासतौर पर क़ाबिले-जिक्र हैं"

वैसे तो फ़राज़ एक ग़ज़ल कहने वाले शायर कि हैसियत से जाने जाते हैं. लेकिन उनकी नज्मों का भी कोई सानी नहीं है.

ये दुख आसाँ न थे जानाँ
पुरानी दास्तानों में तो होता था
कि कोई शाहज़ादी या कोई नीलम परी
देवों या आसेबों की क़ैदी
अपने आदम ज़ाद दीवाने की रह तकते


फ़राज़ साहब को गुज़रे एक साल हो गया मगर उनकी शाइरी आने वाली कई पीढ़ियों को रोशनी देगी....

अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें


शामिख फ़राज़
(लेखक हिंदयुग्म के यूनिपाठक भी हैं...)

Monday, August 24, 2009

हिन्दुत्व शब्द ही साम्प्रदायिक हो गया है

पंथ, धर्म व रिलीजन

इस देश में एक बहुत ही ज्वलंत मुद्दा है धर्म। हमारा देश सेक्युलर है। हम एक हैं। और न जाने ऐसे कितने ही झूठे वादे हम अपने आपसे व विदेश में करते रहते हैं। पर अभी उस झूठ पर बात नहीं करेंगे। इस विश्व में जितने भी धर्म या यूँ कहूँ कि पंथ स्थापित हुए हैं वे सभी किसी न किसी व्यक्ति विशेष द्वारा ही शुरु किये गये। चाहें इस्लाम लें, जिसका पालन करने वाले पैगम्बर मोहम्मद के अनुयायी हुए। चाहें ईसा मसीह के अनुयायी हों, जिन्हें हम ईसाई कहते हैं। और चाहें ही बौद्ध धर्म व सिख धर्म या अन्य कोई भी धर्म हुआ हो उसकी उत्पत्ति किसी न कैसी महापुरुष ने ही की है। इसमें किसी को भी संशय नहीं होना चाहिये। धर्म संस्कृत की "धृ" धातु से बना शब्द है जिसका अर्थ होता है-धारण करना अथवा पालन करना। ऊपर के सभी धर्म (?) इंसान के बनाये हुए हैं। दूसरी तरफ़ पिता धर्म, पुत्र धर्म, शिष्य-गुरु का धर्म और हर रिश्ते का अपना धर्म होता है जिसका हम पालन करते हैं जो ईश्वर ने बनाये हैं।

इसी तरह एक और धर्म है हिन्दू धर्म। पर इस धर्म को मानने वाले किसके अनुयायी हैं? इस शब्द को लेकर तो साम्प्रदायिक दंगे हो जाते हैं। हिन्दुत्व शब्द ही साम्प्रदायिक हो गया है। ज्ञात हो कि हिन्दू उन लोगों को कहा गया जो सिन्धु नदी के किनारे रहा करते थे। वे किसके अनुयायी हैं, किस भगवान को मानते हैं, मानते हैं भी या नहीं, आस्तिक हैं या नास्तिक, हवन करते हैं या नहीं... इन सभी प्रश्नों से उस समय भारतवर्ष में रहने वाले हिन्दुओं का कोई लेनादेना नहीं था। वे कुछ भी हों, कहलाये गये हिन्दू ही। यानि उस समय के लोग जो आचरण, व्यवहार किया करते थे वो हिन्दू रीति रिवाज़ों में शामिल हो गया। कोई शैव हुए कोई वैष्णव। कोई वेदों को मानने हुए तो कोई नास्तिक हुए। सभी हिन्दू कहलाये गये और उनके वंशज भी। वे स्वयं को आर्य कहते थे। संस्कृत में आर्य शब्द का अर्थ है "भद्र पुरुष"। बाद में बाहर से मुगल व अंग्रेज़ आये जो साथ में इस्लाम व ईसाई धर्म लाये। कुछ धर्म भारत की भूमि से निकले जैसे बौद्ध, जैन, सिख व अन्य। लेकिन क्या हिन्दू कोई धर्म बन सकता है? और क्या ये अन्य धर्मों की तरह ही उत्पन्न हुआ? शायद नहीं..

अभी हाल ही में किसी न्यूज़ चैनल पर खबर देख रहा था-अमरीका में २४ फीसदी हिन्दू। इसका अर्थ ये कतई नहीं लगाइयेगा कि उन सब ने ईसा मसीह को मानना बंद कर दिया या वे चर्च नहीं जाते। वे मानते हैं लेकिन हिन्दू रीति रिवाज़ मनाते हुए। मसलन हवन आदि करते हैं। राम व कृष्ण को मानते हैं। आपको ये जानकर आश्चर्य होगा कि काफी लोग अब हिन्दू रिवाज़ों से ही अंतिम संस्कार करते हैं।

लखनऊ में जारी एक शोध से पता चला है कि यज्ञ करने से हवा में फैले विषाणु खत्म हो जाते हैं व वायु को स्वच्छ रखने में सहायक होता है। सप्ताह में एक बार या महीने में एक बार हवन करने से भी फ़ायद होता है। हवन में प्रयोग होने वाली सामग्री को वैज्ञानिक दृष्टि से जाँचा गया तो ये बात सामने आई है। इसका उल्लेख कईं किताबों में होता आया है किन्तु अब वैज्ञानिकों ने भी इस पर अपनी मुहर लगा दी है। हजारों वर्षों से इस धरती पर रहने वाले लोग मंत्रों का प्रयोग करते आये हैं। विज्ञान से ये साबित हो चुका है कि मंत्रोच्चारण में जिन शब्दों का प्रयोग होता है उससे निकलने वाली ध्वनि व गले में हो रहे स्पंदन से ऊर्जा का संचार होता है। हिन्दू रिवाज़ों के अनुसार दिया जलाने व त्राटक करने का भी वैज्ञानिक आधार मौजूद है।

हिन्दुत्व या हिन्दुइज़्म कई मायनों में अलग हुआ। यहाँ निराकार भी पूजा जाता है और साकार भी। हिन्दू धर्म में कोई एक विशेष पुस्तक ही एकमात्र ग्रंथ नहीं है। अपनी अपनी मान्यताओं के अनुसार पुस्तकें हैं। कोई एक स्थापक नहीं। शायद हम पंथ शब्द को भूल गये हैं। धर्म का अंग्रेज़ी में अनुवाद करेंगे तो आप कहेंगे "रिलीजन"। अंग्रेज़ी में यही कहते है धर्म को..'रिलीजन शब्द लैटिन के 'री लीगारे' से आता है, जिसका शाब्दिक अर्थ 'बाँधना' होता है। यहाँ इसका एक अर्थ मानव को ईश्वर से "जोड़ने" को लेकर किया जा सकता है। लेकिन अंग्रेजी के 'रिलीजन' शब्द का संस्कृत पर्यायवाची धर्म कतई नहीं हो सकता शायद धर्म को किसी और भाषा में समझना या अनुवाद करना कठिन है। पर इतना पक्का है कि हम "धर्म" को नहीं समझ पाये। हिन्दू शब्द उस परिभाषित "धर्म" की श्रेणी में नहीं आता जिसको आज का समाज जानता है। ये जीवन जीने के पद्धति है।

तपन शर्मा

Sunday, August 23, 2009

छोटी इलायची के बड़े भाव


नए सीजन की आवक आरंभ होने के बावजूद छोटी इलायची के भाव थमने का नाम नहीं ले रही है। उल्लेखनीय है कि आमतौर पर नई फसल के आने पर भाव में गिरावट आती है लेकिन छोटी इलायची के मामले में ऐसा नहीं है। छोटी इलायची का सीजन अगस्त से जुलाई होता है और एक अगस्त से ही केरल के तमिलनाडु के उत्पादक व नीलामी केंद्रों पर इसकी आवक आरंभ हो चुकी है। नवीनतम प्राप्त आंकड़ों के अनुसार एक अगस्त से आरंभ हुए चालू सीजन में अब तक लगभग 145 टन छोटी इलायची की आवक हुई जबकि गत वर्ष इसी अवधि में 149 टन की आवक हुई थी। हालांकि आवक में मामूली ही कमी आई है, लेकिन इस वर्ष औसत भाव 680.71 रुपए प्रति किलो रहे जबकि गत वर्ष इसी अवधि मे 591.24 रुपए प्रति किलो थे। वास्तव में ऐसा नहीं लगता है कि जल्दी ही इसके भाव में कमी आ पाएगी। इसका कारण त्यौहारी मांग है व निर्यातकों की मांग है। खाड़ी के देशों को रमजान के महीने के लिए पिछले दिनों छोटी इलायची का निर्यात किया गया था। आगामी दिनों में इसकी निर्यात मांग में कुछ और वृद्वि का अनुमान है। उसके बाद दशहरा और दीपावली की मांग आरंभ हो जाएगी।

वास्तव में छोटी इलायची में तेजी का कारण गत वर्ष का बकाया स्टाक कम होना है। यही कारण है कि भाव में तेजी आ रही है। तेजी का एक अन्य कारण इस वर्ष केरल और तमिलनाडु के उत्पादक केंद्रों पर वर्षा की कमी होना भी है। इस
वर्ष मानसून के दौरान वहां पर वर्षा कम होने से पौधे पूरी तरह पनप नहीं पाए हैं और उत्पादन कम होने का अनुमान है।
गत वर्ष भी यानि 2008-09 के दौरान भी देश में छोटी इलायची के भाव में तेजी रही थी, हालांकि उत्पादन 15,000 टन के रिकार्ड स्तर पर पहुंच गया था लेकिन नीलामी केंद्रों पर औसत भाव भी 539.62 रुपए प्रति किलो पर पहुंच गए थे। इसका कारण जहां देश में पिछला स्टाक कम होना था वहीं ग्वाटेमाला में उत्पादन प्रभावित होने से देश से निर्यात में बढ़ोतरी भी
था। इससे पूर्व वर्ष यानि 2007-08 में उत्पादन लगभग 9,000 टन था और औसत भाव 507.84 रुपए प्रति किलो रहे थे।

निर्यात

इसी बीच, चालू वित्त वर्ष में अप्रैल-जून के दौरान देश से 12.80 करोड़ रुपए मूल्य की 200 टन छोटी इलायची का निर्यात किया गया जबकि गत वर्ष इसी अवधि में 7.77 करोड़ रुपए मूल्य की 120 टन का निर्यात किया गया था। इस
वर्ष औसत भाव 640 रुपए प्रति किलो रहे।

राजेश शर्मा

Saturday, August 22, 2009

ये थाली बिहार से आई है...

ये सवाल कई लोग पूछ बैठते हैं कि क्या खाते है बिहार के लोग? इस सवाल को संदर्भों के शीशे से देखें तो कई तरह के अर्थ सामने आ जाते हैं। लेकिन आज सोचा कि क्यूं न लोगों को बताने की एक कोशिश की जाये कि क्या खाते हैं बिहार के लोग। यानी रोज-रोज और ख़ास मौकों पर क्या कुछ बनता है बिहार के घरों में। इससे पहले कि शुरू करूं, ये बताना ज़रूरी लगता हैं कि खान-पान की आदतें बिहार में दिनों और त्योहारों और व्रतों से तय होतीं हैं, और किसी भी बिहारी से पूछ लें, खाने के हर आईटम के साथ विविध स्मृतियाँ सुना देगा। तो चलिए ले चलते हैं आपको बिहार के किचन में और देखते हैं कि क्या-क्या है मेन्यू में। पहले ही माफ़ी मांग लेता हूं कि हो सकता है कुछ आईटम छूट जायें।


लिट्टी-चोखा- ये नाम बिहार के बाहर रहने वाले भी जानते हैं। आटा गूँथ कर इसमें चने के सत्तू की स्टफिंग की जाती है। ख़ास बात ये है कि सत्तू को ख़ास तरीके से बनाया जाता हैं जिसमें कई चीज़ें मिलाई जाती हैं। मसलन मगरैल, अज्वाइन, लहसन, अदरख, प्याज, सरसों का तेल, नींबू, हरी धनिया, हरी मिर्च, गोलमिर्च और नमक स्वादानुसार। अब इसे पकाने के कई तरीक़े होते हैं। कोयले पर भी सेंका जाता है, तलते भी हैं, गोयठे यानी उपले में भी पकाया जाता है। काफी जतन से पकाना पड़ता है। बन जाये तो कपड़े में रख कर झाड़ते हैं और घी में लपेटते हैं एक-एक लिट्टी को। वाह क्या स्वाद होता हैं, अक्सर मेरे यहां यानी छपरा में छठ के समय शाम को घर के पुरूष मिल-जुल कर इसे पकाते थे, क्योंकि सभी महिलायें तो व्रत कर रहीं होती है। लिट्टी के साथ बेस्ट कॉबिनेशन होता है चोखा का। चोखा आलू का भी होता है, बैंगन का भी। इनको भी बनाने की अपनी तकनीक है। दोनों के कांबिनेश का स्वाद किसी भी बिहारी और पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोगों को अपनी ओर खींचने के लिए काफ़ी है।


ठेकुआ- ये ख़ास कर छठ में बनता है, प्रसाद के तौर पर। अरारोट का भाई है या फिर खजूर का रिश्तेदार। वैसे जब हम बिहारी लोग घर से बाहर जाते हैं तो मम्मियां इसे बनाकर कर ज़रूर देती हैं। काफ़ी दिनों तक चलता है। आटे या मैदे से बनाता है, जिसमें गरी यानी सूखे नारियल के चॉप किये टुकड़े, सौंफ और चीनी मिला कर गूंथते हैं। फिर इसे शेप देने के लिए लकड़ी का एक डिज़ाईनर होता है जो इसे अलग-अलग डिज़ाईन देता है। फिर इसे घी या वनस्पति में तलते हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार की पहचान भी है ठेकुआ।


पिरूकिया- सोच रहे होंगे कि ये क्या नाम है। भई भोजपुरी में तो यही कहते है। समझने के लिए थोड़ा आसान कर दूँ, कई जगह गुजिया कहते हैं। तो समझ में आ गया होगा। ये हमारे यहां तीज में ख़ास तौर पर बनता है। हर घर में काफ़ी संख्या में बनता है। बच्चे तो दिन-दिन भर खाते हैं। मै खुद ही खाता था। टेस्टी होता है।


लाई और तिलवा- ये समझ सकते हैं कि लड्डू हैं। लाई-चूड़ा या चावल को रेत मे भून कर उसे झाड़ कर साफ किया जाता है। फिर उसमें गर्म कर पिघलाया हुआ गुड़ मिला कर बड़े-बड़े गोले बनाये जाते है, दोनों पंजों में आने वाले। थोड़ा सूखने के बाद वो बिल्कुल क्रिस्पी हो जाता हैं। तिलवा यानी तिल के लड्डू भी लगभग वैसे ही होते हैं। सफेद या काला तिल, उसमें लोग बादाम या मूंगफली भी मिलाते हैं, लेकिन ख़ास बात ये है कि लाई और तिलवा साल में कभी भी दूसरे सीज़न में नहीं बनता। घर-घर में बनने वाला ये आईटम जनवरी के महीने में मकर संक्रांति के समय ही बनता है। बच्चे लाई खाते हैं, पंतग उड़ाते-उड़ाते। पूजा में भी इसे चढ़ाते हैं खिचड़ी यानी मकर संक्रांति यानी 14 जनवरी के दिन।


खाजा और गाजा- ये क्या है? तो ये एक ऐसी मिठाई है जो शादियों में ज़रूरी तौर पर बनती है। घर के लोग नहीं बनाते। हलवाई बनाते हैं। मीठा होता है। मैदे से बनता है। चीनी की चासनी जिसको भोजपूरी में पाघ कहते है में डाल कर बनता है। जब लड़की या लड़के वालों की तरफ से गिफ्ट भेजा जाता है तो इन मिठाइयों की कई टोकरियां भी ज़रूर जाती हैं, जिसे अपने पड़ोसियों और रिश्तेतारों में बांटा जाता है। इसी में एक और आईटम है टिकरी-उसी तरह से बना हुआ। आकार ख़ास होता है गोल और चपटा। देखने और खाने पर ज्यादा समझ आयेगा। बिहार की लोक परंपरा का एक हिस्सा है-खाजा

पिट्ठा- पता नहीं कैसे समझांऊ इसे। हो सकता है बिहार की अलग अलग बोलियों में कुछ और नाम हो लेकिन भोजपुरी में यही कहते हैं। ये बस एक ही दिन बनता है भैया दूज या गोधन के दिन। दिवाली और छठ के बीच। कैसे बनता है। चावल का आटा भिगोये चने की दाल को पीस कर स्टफ तैयार करते हैं, भरते है फिर, बॉयल करते है। इडली का कुछ कुछ हमशक्ल, लेकिन हैवी होता है, टेस्टी भी। स्वाद नमकीन मसालेदार, साथ में कोई रसवाली सब्जी मज़े को दुगना कर देती है।


चने का सत्तु यानी बिहारी हॉर्लिक्स- ये तो गर्मियों का फेवरेट है। बिहार का आदमी गर्मियों में यही ढूंढ़ता नजर आ जायेगा। पानी में घोलकर, साथ में भूने जीरे का पाउडर, गोलमिर्च का हल्का पाउडर, कुछ कतरे हुए प्याज नमक और ऊपर से नींबू। बिहार के शहरों में जो भी सार्वजनिक जगह है वहां आप आसानी से पा सकते है इस बिहारी हार्लिक्स को। काफ़ी रिफ्रेशिंग होता है कम से कम यहां के लोगों के लिए।

भूंजा- ये भी बिहारी खान-पान का अहम हिस्सा है। शाम को तो अक्सर इसकी तलब होती है। ठेलों पर, खोमचों में हर नुक्कड़ पर आपको ये मिल जायेगा। इसमें कई चीज़े मिक्स करते है, मसलन, भूना हुआ चना, मक्का, मूंगफली, दालमोट, मूढ़ी या चूड़ा तला हुआ चना। ये सब मिक्स करते हैं। गांवों में लोग खुद ही घर में ये सब रखते हैं और शाम का उनका यही नाश्ता होता है। शहरों में लोग खरीद कर खाते है। काफी चटपटा और तीखा होता है।

जलेबी-पूड़ी- ये अमूमन सुबह का नाश्ता है। बिहारी लोग जलेबी, कचौडी और साथ में कोई रसवाली मसालेदार सब्जी पसंद करते हैं। मैं खुद घर जाता हूँ तो दोस्तों के साथ अगली ही सुबह पहुंच जाता हूँ इसका आनंद उठाने।

बजका- दरअसल ये एक प्रकार का पकौड़ा है, बल्कि पकौड़ा ही है। कई चीज़ो का हो सकता है- आलू, फूलगोभी, बैंगन, कच्चा केला और लौकी आदि।
चटनी- बजका की सहेली, इसके बिना इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। भोजपुरी में तो गाना भी है- फुलोरी बिना चटनी कइसे बनी। आमतौर पर खाने में भी इस्तेमाल होता है।


साग- ये भी काफ़ी अहम है। जाड़े के दिनों में चने की साग लोग शौक़ से खाते है। इसके अलावा पालक, सरसों, मूली, बथुआ इनके साग भी खाये जाते हैं। बाहर के लोगों के लिए बथुआ समझना थोड़ा मुश्किल है। मै समझा भी नहीं पाऊँगा।

रवि मिश्रा

Friday, August 21, 2009

ढेन टणन....हॉलीवुड की अच्छी नकल है कमीने



बहुत हल्ला है साहब - 'कमीने...कमीने...कमीने'. आखिर हम देख ही आये. दरअसल मुझे इंतज़ार भी था इसके प्रदर्शन का. विशाल भारद्वाज का नाम उम्मीदें जगाने के लिए काफी है लेकिन...लेकिन...मुझे बहुत दुःख हुआ कि उम्मीदें पूरी नहीं हुई.....नहीं, मैं ये नहीं कह रहा कि फिल्म बुरी है. अपने तल पर फिल्म बहुत अच्छी बनी है और मुझे मज़ा आया देखने में लेकिन खुद विशाल से ही तुलना करें तो ये उनके स्तर की फिल्म नहीं है. मकबूल, मकड़ी, ब्लू अम्ब्रेला और ओमकारा बनाने वाले फिल्मकार को मैं फिल्म के उस कलात्मक स्वरुप का झंडाबरदार मानता हूँ जो सीधे दिल की रगों को छू लेती है. याद कीजिये ब्लू अम्ब्रेला में पंकज कपूर के किरदार का बारीक मनोवैज्ञानिक चित्रण, ओमकारा का अंत जहाँ अपनी निर्दोष पत्नी को सुहागरात पर नायक मार देता है और फिर उसका पश्चाताप जो आपको हिला देता है. उनकी अब तक की फिल्में किसी न किसी रूप में आपकी संवेदनाओं को हिलाती-डुलाती है लेकिन कमीने शुद्ध व्यावसायिक विषय पर बनी विशुद्ध व्यावसायिक फिल्म है. हालांकि फिल्म का प्रस्तुतीकरण काबिले-तारीफ़ है. फिल्म पर निश्चित रूप से हॉलीवुड फिल्मकार Quentin Tarantino का प्रभाव है.
फिल्म की कहानी चिर-परिचित फार्मूले पर आधारित है(विशाल के लिए घिसे-पिटे कहना बुरा लगेगा..) . दो जुड़वाँ भाई हैं गुड्डू(शाहिद कपूर), जो हकलाता है और चार्ली(फिर शाहिद कपूर) जो तोतला है और स को फ बोलता है. गुड्डू सीधा-सादा है और चार्ली जुआरी है. एक लोकल मराठी गैंगस्टर भोपे(अमोल गुप्ते) है जो उत्तर भारतीयों से नफरत करता है और चुनाव लड़ने वाला है. गुड्डू से गलती ये होती है कि वो भोपे की बहन स्वीटी(प्रियंका चोपडा) से प्रेम करता है और शादी से पहले ही उनकी सुहागरात हो जाती है, उस पर गुड्डू उत्तरप्रदेश का मूल निवासी है. भोपे को जब पता चलता है तो वो अपने आदमियों को गुड्डू को मारने के लिए भेजता है.
दूसरी तरफ अपने पैसों की वसूली करके भागता चार्ली एक पुलिस अफसर की कार लेकर भाग जाता है. पुलिस अफसर एक गैंगस्टर ताशी के लिए काम करता है. कार में रखे गिटार केस में १० करोड़ की कोकीन है जो पुलिस अफसर ताशी के लिए ले जा रहा था. गुड्डू भोपे के आदमियों से बचकर भागता है और चार्ली गिटार लेकर...गुड्डू उस पुलिस अफसर के हाथ लग जाता है जो चार्ली को ढूंढ रहा है और चार्ली भोपे के हाथ लग जाता है. बस यहीं से आप घटनाओं का झूला झूलने लगते हैं. सब लोग गिटार के पीछे लग जाते हैं और आपस में गुत्थम-गुत्था होते हैं. घटनाओं को निर्देशक ने विश्वसनीय तरीके से एक सूत्र में पिरोया है. फिल्म दर्शक की उत्तेजना को अंत तक बरकरार रखती है बशर्ते कि दर्शक पूरी तरह एलर्ट है. किरदार फिल्मी होते हुए भी विश्वसनीय हैं. कुल मिलाकर कमीने एक रोमांचक फिल्म है. फिल्म की शुरुआत में आपको लग सकता है कि मज़ा नहीं आ रहा है लेकिन फिल्म धीरे-धीरे अपनी पकड़ मजबूत बना लेती है.
सब कुछ होते हुए भी मैं ये कहूँगा कि विशाल भारद्वाज व्यावसायिकता के लालच में पड़ गए हैं लेकिन कभी-कभी स्वाद बदलने के लिए फिल्मकार को इतनी छूट मिलनी चाहिए. फिल्म के अंत में एक संवाद है गुड्डू और स्वीटी के बीच जहाँ गुड्डू कहता है- 'मेरे पास तो ढंग के कपडे भी नहीं हैं' जिसके जवाब में स्वीटी कहती है- 'आइ लाइक यू विदाउट क्लोद्स'. इस संवाद के लिए वहां कोई सिचुएशन नहीं थी. बस बिना किसी बात के गुड्डू यूँ कहता है और स्वीटी यूँ जवाब देती है जो ये बताता है कि फिल्मकार ने ये संवाद सिर्फ इसलिए डाला है कि सड़कों पर बाद में इसके बारे में बातें हों.
अभिनय के मैदान में मुझे उम्मीद थी कि जैसे सैफ अली खान ने ओमकारा में चकित कर दिया था वैसा ही कुछ शाहिद के साथ होगा लेकिन अफ़सोस शाहिद औसत ही रहे, इतनी तरक्की उन्होंने ज़रूर की है कि शाहरुख खान की नक़ल बंद कर दी है फिर भी कहीं-कहीं अन्दर का शाहरुख बाहर आ जाता है. मुल्क के सबसे बेहतरीन अभिनेताओं में से एक अभिनेता के पुत्र होने के बाद भी शाहरुख़ की नक़ल उन्हें शोभा नहीं देती जो खुद अपने किरदार में कभी उतर नहीं पाए. फिर भी शाहिद दो अलग-अलग चरित्रों को प्रर्दशित करने में सफल रहे हैं. प्रियंका चोपडा के अभिनय में पिछले कुछ समय में बहुत सुधार आया है. अमोल गुप्ते ने कमाल का अभिनय किया है. 'तारे ज़मीन पर' जैसी स्तरीय फिल्म का लेखक उतना ही स्तरीय अभिनेता भी है. सभी कलाकारों ने प्रभावशाली अभिनय किया है जिसमे कई नए चेहरे शामिल हैं. निर्देशन और संवाद उम्दा हैं. संगीत का तो कहना ही क्या, उस क्षेत्र में विशाल ने अब तक कोई समझौता नहीं किया है. बहुत दिनों के बाद वाकई अच्छे गीत किसी फिल्म में आये हैं. गुलज़ार साहब को सलाम कर-करके मेरी कमर दुःख गई है, वे किसी भी शब्द को हाथ लगाकर जादुई बना देते हैं फिर चाहे वो 'कमीने' हो या धेला, टका, पाई हो जो यूँ तो चलना बंद हो गए हैं लेकिन गुलज़ार साहब ने ऐसा चलाया कि बेशकीमती हो गए. स्क्रीनप्ले बहुत दिलचस्प और कसा हुआ है.
अंगरेजी अखबारों में समीक्षक इस बात से बेहद खुश हैं कि विशाल ने टोरेंतिनो की तरह की फिल्म बनाई है और इसकी तुलना वे बहुत सी अंगरेजी फिल्मों से कर रहे हैं लेकिन शायद वे ये भूल जाते हैं कि एक अंगरेजी अखबार में समीक्षक होने पर भी वे भारतीय ही हैं. टोरेंतिनो की फिल्में मनोरंजक होती हैं लेकिन उन्हें महान नहीं कहा जा सकता और मेरे हिसाब से विशाल उनसे ज्यादा प्रतिभाशाली हैं. वे लोग इसलिए भी खुश है कि फिल्म की नायिका जो मध्यमवर्गीय प्रष्ठभूमि से है, सेक्स के बारे में खुल कर बातें करती है और वे इसे नारी स्वतंत्रता मानते हैं. अफ़सोस ये है कि नारी स्वतंत्रता सिर्फ शराब, सिगरेट और सेक्स के इर्द-गिर्द ही घूमकर रह गई है. पुरुष तो ठीक है खुद नारी भी अपनी स्वतंत्रता इन्ही चीज़ों में खोज रही है. उन्हें ये समझना ज़रूरी है कि स्वतंत्रता पुरुष की बुरी आदतों की नक़ल में नहीं है बल्कि अपने स्वभाव की गरिमा को स्थापित करने में है.
फिल्म में एक अच्छा मुद्दा उठाया गया है लेकिन वो उठा ही रह गया. मुद्दा आजकल की नफरत की राजनीति का जहाँ महाराष्ट्र के कुछ नेता दूसरे प्रांत के लोगों के लिए नफरत फैलाकर अपनी रोटियां सेंक रहे हैं. वास्तव में इन्हें इस बात से कोई लेना-देना नहीं है, इन्हें चुनाव जीतना है बस यही इनका एकमात्र धर्म है. मेरे हिसाब से इन्हें भी आतंकवादियों में शुमार किया जाना चाहिए पर करेगा कौन? नेता खुद ऐसा करेंगे नहीं और अवाम तो कब का सो गया.
ये अलग से एक लम्बी बहस का विषय है, हम फिर से फिल्म पर आते हैं. कुछ कमियां होते हुए भी फिल्म बहुत अच्छी है. मेरा आशय इतना ही है कि पिछली फिल्मों के मुकाबले इस बार विशाल भारद्वाज थोड़े से कमज़ोर रहे.
एक बात और साबित होती है कि फिल्म की कहानी लीक से हटकर न होते हुए पुराने ढर्रे की ही हो लेकिन निर्देशक में अगर कूवत है तो वो उस पर एक बेहतरीन फिल्म बना सकता है.

मेरी तरफ से ५ में से ३.८ और आप मोल-भाव करेंगे तो ४ तक दे दूंगा लेकिन उससे ज्यादा नहीं :)

अनिरुद्ध शर्मा

Thursday, August 20, 2009

कवि की आवाज़ सुन बेहोश हुए यमराज !!

बात की बात! हमारे मुहल्ले के कवि महोदय लौट आए ....

हुआ यों कि पिछले हफ्ते अचानक हमारे मुहल्ले के कवि महाराज हम सबको बिन बताए एकाएक मुहल्ले से कूच कर गए। उनके जाने पर भाभी से ज्यादा कविता ने रो-रो कर अपना वो हाल कर दिया था कि मत पूछो। थक हार कर हमने एक शरीफ सा बंदा जबरदस्ती पकड़ कर कविता के हवाले कर दिया । बंदा बहुत रोया चिल्लाया,`मैं तो क्या, मेरे किसी पुरखे तक ने कभी कविता के साथ एक पल भी नहीं काटा,ऐसे में मेरे साथ क्यों अन्याय कर रहे हो। मुझे मारना ही है तो जहर देकर मार दो। मैं जहर खुशी से पीने के लिए तैयार हूं पर कविता के साथ एक पल भी रहना मुझे स्वीकार नहीं।´ पर मुहल्ले में था ही कौन, जो उसकी सुनता।

चार दिन तक उनकी कविता की चार पंक्तियां याद रहीं और बिजली-पानी का बिल आते ही वे भी भूल गईं। आज के दौर में न कविता याद रखने की चीज है न कवि। आटे-दाल से फुर्सत मिले तो तो कविता याद रहे, कवि याद रहे। आज के दौर में तो कम्बख्त खुद को भी भूलने की बीमारी होने लगी है। कवि तो याद रखने की चीज होता ही नहीं, सो रिश्तेदारों की तरह मुझे वह भी भूल गया। अब औरों की तरह वह भी उसकी पुण्यतिथि को याद आ जाया करेगा, वह भी तब अगर भाभी ने उस दिन कुछ खाने-पीने का इंतजाम कर दिया तो....सच मानिए, अब तो बिना मतलब के मैंने अपने आप को भी याद रखना छोड़ दिया है।

कल सुबह कुत्ते के साथ घूमने निकला ही था कि सामने से गए कवि सा कोई आता दिखा। वैसे ही खांसता हुआ, चालीस का होने के बाद भी वैसे ही साठ का सा कुबड़ाता हुआ। पहले तो मैंने सोचा कि मन का भूत होगा। इस संसार से गए हुओं में से सब लौट कर आ सकते हैं पर कोई कवि भूल कर भी ये भूल करने वाला नहीं। मैं डरा भी, अगर सच्ची को कवि ही होगा तो दस कविताएं सुना कर ही छोड़ेगा। इतने दिनों से किसी को कविता सुनाई नहीं होगी। हो सकता है बेचारा कब्ज से परेशान हो। कुत्ते ने उसे देख भौंकना शुरु किया तो मैं समझ गया कि बंदा तो कोई न कोई है जरूर। मेरे मन का भूत होता तो कुत्ता तो कम से कम न भौंकता।

और वह पूरे का पूरा कवि मेरे बिलकुल सामने। ठीक वैसा ही जैसे वह पंच तत्व में विलीन ही न हुआ हो।
`क्यों राम आसरे भैया कैसे हो, मुहल्ले में सब कुशल तो हैं? घरवाली के चूल्हे पर तवा चढ़ा कि नहीं... किसी रचना-वचना का कोई मनीआर्डर वार्डर आया होगा, क्यों...
कवि ने पेट पकड़े हंसते हुए पूछा तो मेरी तो जैसे घिग्घी ही बंध गई।

`तुम!! तुम यार! तुम तो.....´

`दुनिया मरा करती है भैया! लेखक नहीं। मुहल्ले के बिना रहना मुश्किल-सा हो गया था सो सब छोड़ चला आ गया। ´
`पर आए कैसे, कहते हैं कि प्रेमिका के चंगुल से आदमी छूट कर आ सकता है पर यमराज के चंगुल से नहीं।´

`बस आ गया तो आ गया।´
कह उसने ऐसा ठहाका लगाया कि... पास वाले कब्रिस्तान के चार मुर्दे कब्र छोड़ बाहर आ गए।

`यमराज को पटा लिया भाई जान!´
`यमराज को !! यार यहां तो चालीस साल तक नौकरी की पर एक अदद साहब नहीं पटा और तुम हो कि .... बड़े घाघ निकले यार...´

` असल में यहां से जाते-जाते कविताओं की डायरी साथ ले गया था। सोचा था, वहां पर अगर श्रोता मिल गए और उन्होंने कविता सुनाने की मांग कर दी तो....
चलते-चलते यमराज ने मुझसे चुप्पी तोड़ते पूछा- क्या करते थे´

`हजूर कविता करता था।´
मैंने बीमारी से सिकुड़ा सीना चौड़ा करते कहा।

`ये कविता क्या होती है´ यमराज ने सहमते हुए पूछा।

` मन के अंग अंग को खिला देती है। सदियों की थकान को मिटा देती है। मरे हुए मन में भी जीने की इच्छा जगा देती है जनाब!´

`यार! युगों हो गए मुर्दे ढोते ढोते। बहुत थक गया हूं। विश्राम कर लेते हैं, कोई कविता साथ लाए हो तो सुना दो।`

`बस! यमराज के कहने भर की देर थी कि मैंने बगल में दबाई डायरी खोल डाली। एक कविता, दूसरी कविता, तीसरी कविता......´

`तो´

`तो क्या! पहली बार कोई विशुद्ध श्रोता मिला था। वरना आज तक टमाटर, जूते फेंकने वाले ही अधिक मिले। वे कविता सुनते सुनते बेहोश हो गए। पर मुझे लगा कि ज्यों वे कविता में लीन हों। मैं बिन रूके तीन दिन तक वहीं बैठे बैठे कविता सुनाता रहा। जब उन्हें होश आया तो वे चीखे...´

` कैसे´

`ठीक वैसे ही जैसे यहां के कवि सम्मेलनों में श्रोता आधे घंटे बाद ही चीखने लगते हैं। श्रोता चाहे स्वर्ग के हों या नरक के, सब एक जैसे ही होते हैं बंधु!´

`तो´

`तो क्या! यमराज ने अपने कानों में उंगलियां देते पूछा-कविता कब तक सुना सकते हो´

` जब तक लोक में टमाटर रहेंगे।´

`तो यार एक काम करता हूं। तुम अपने लोक वापस चले जाओ। जाओ मैं तुम्हें मृत्यु के बंधन से मुक्त करता हूं। मेरे लोक में आत्माओं को उनके कर्मों की सजा मिलती है, कवि की कविता की नहीं।´

` तो´

` तो क्या ! ये देखो! तुम्हारे सामने हूं। ये लो, दो चार कविताएं हर वक्त अपनी जेब में रखा करो, जिस तरह लू में बंदे को प्याज का गट्ठा लू से बचाता है उसी तरह कविता भी बंदे को हर ऋतु में मौत से बचाती हैं। वैसे भी आजकल वक्त बड़ा नाजुक चल रहा है। सुबह घर से निकलो तो शाम को घर लौटने की उम्मीद कम ही होती है। दोपहर को तुम्हारे घर आऊंगा, कविता करना सीखा दूंगा। फिर निर्भय जहां चाहे घूमना। कविता करना छोड़ दूं जो कोई तुम्हारा बाल भी बांका कर दे। भाभी घर में होगी न! हफ्ते से चाय नहीं पी। चाय के बिना जैसे पूरा बदन टूट रहा है। ´

कह उसने अपनी डायरी से तीन चार कविता वाले पेज फाड़ मुझे दे दिए। मैंने आव देखा न ताव, चुपचाप उसकी डायरी के वे पन्ने अपनी जेब में डाल लिए। कुत्ता यह सब देख हंसा तो मैंने उससे कहा,
`हंस क्यों रहा है, ले एक कविता तूं भी कहीं रख ले। कमेटी वाले आजकल कुत्तों के पीछे हाथ मुंह धोकर पड़े हैं।´
और उसने वह कविता चुपचाप अपने पट्टे में बंधवा चैन की लंबी सांस ली। अब पता चला कि बंदा लाख गरीबियों के बाद भी कैसे जी रहा था!

अशोक गौतम
गौतम निवास, अप्पर सेरी रोड
नजदीक मेन वाटर टैंक,सोलन-173212 हि.प्र
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Wednesday, August 19, 2009

बिना गानों वाली पहली फिल्म थी 'कानून'


क्या एक ही जुर्म के लिए किसी इंसान को २ बार सजा हो सकती है? इसी सवाल के साथ शुरू होती है बी आर चोपडा की फिल्म 'कानून' |
घटनाक्रम कुछ यूँ होता है कि कालिया (जीवन) किसी आदमी का क़त्ल कर देता है और पकडा जाता है | अदालत में पेश होने पर पता चलता है कि कालिया इसी आदमी के क़त्ल के जुर्म में २० साल की सजा काट चुका है | बस, आपका दिल यहीं दहल जाता है ये सोचकर कि कैसा अहसास होगा वो जब आदमी भगवान की दी हुई ज़िन्दगी पूरी की पूरी बिना वजह जेल में काट दे |
कालिया जज से सवाल करता है कि कानून को किसी इंसान से वो चीज़ छीन लेने का क्या हक है जिसे वो वापस नहीं कर सकता ? अद्भुत फिल्म और अद्भुत अभिनय दादा मुनि का |
बी आर चोपडा सदा से सामाजिक सन्देश देने वाली फिल्में बनाते रहे हैं | इस फिल्म में एक बेहद संवेदनशील और अहम् मुद्दा उठाया गया था जो इतने साल गुज़र जाने के बाद, आज भी मौजूं है | सवाल यह है कि क्या कानून को उन गवाहों की गवाही के आधार पर एक इंसान की कीमती ज़िन्दगी छीन लेने का हक है, जो थोड़े से लालच से बहक सकते हैं या जिनसे देखने सुनने में गलती होने की पूरी संभावना है | मनुष्य गलतियों का पुतला है, फिर उसी की बात को पूरी
तरह सच मानकर किसी की ज़िन्दगी का फैसला कैसे किया जा सकता है?
फिल्म में अशोक कुमार ने एक जज बद्री प्रसाद की भूमिका की है जो एक संवेदनशील और विचारवान व्यक्ति है | इस जज ने कभी किसी को फांसी की सजा नहीं दी | जज की एक बेटी मीना(नंदा) है जो एक वकील कैलाश(राजेंद्र कुमार) से प्रेम करती है और एक बेटा विजय(महमूद) है जो अपनी अय्याशियों के चलते एक साहूकार(ओमप्रकाश)के जाल में फंस जाता है | विजय कुछ पैसों के बदले साहूकार को एक कोरे काग़ज़ पर दस्तखत करके दे देता है | काफी समय तक पैसा नहीं चुकाने पर साहूकार उसे उसके पिता की जायदाद अपने नाम कर लेने की धमकी देता है | विजय अपनी बहन मीना से मदद मांगता है और मीना कैलाश से | कैलाश अपने काम से फुर्सत पाकर रात को साहूकार के घर जाता है और उसे कानून का डर दिखाकर वो काग़ज़ वापस ले लेता है | बातें करते हुए कैलाश को जज बद्री प्रसाद वहां पर आते हुए दिखाई देते हैं, वो पास वाले कमरे में छुप जाता है | बद्री प्रसाद अन्दर आते ही साहूकार को जान से मार कर वापस चले जाते हैं | कैलाश वहां से भागकर अपने घर चला जाता है | थोडी ही देर के बाद एक चोर खिड़की खुली देख साहूकार के घर में घुस जाता है, वहां अँधेरे में वो लाश के ऊपर गिरता है और छुरे पर उसकी उँगलियों के निशान बन जाते हैं | चोर डर कर खिड़की से वापस भागता है लेकिन गश्त मारती पुलिस के हाथ लग जाता है | उस पर मुक़दमा चलता है| कैलाश जानता है कि वो बेगुनाह है, उसकी अंतरात्मा उसे चैन से नहीं रहने देती और वो उस चोर का वकील हो जाता है | दिलचस्प बात ये है कि फैसला खुद बद्री प्रसाद को करना है क्योंकि वही इस मुक़दमे की सुनवाई कर रहे हैं | कैलाश एक बेगुनाह को सजा से बचाने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा देता है और आखिर बद्री प्रसाद पर उंगली उठा देता है | अब जज खुद कठघरे में खडा होता है | लेकिन इस पूरी कहानी में एक पेंच है जो अंत में खुलता है और एक ज्वलंत प्रश्न खडा कर देता है कि अगर सच्चाई का संयोग से पता नहीं लगता तो एक बेगुनाह को सजा होना तय थी क्योंकि परिस्थितिवश गवाह से भी चूक हो जाती है |
फिल्म की गति उस ज़माने को देखते हुए तेज़ है और फिल्म कहीं भी अपनी पकड़ ढीली नहीं करती | आज के ज़माने में भी जब दर्शक को घटनाओं के हाई डोज़ की आदत हो चुकी है, फिल्म अपना असर छोड़ने में कामयाब है | ये कमाल निर्देशन का है | अभिनय का श्रेष्ठतम उदाहरण देखना हो तो दादा मुनि को देखना चाहिए | नंदा की भूमिका में कुछ विशेष नहीं है | महमूद अपने चिर परिचित अंदाज़ में है | कमी है तो बस एक, राजेन्द्र कुमार...वो ऐसे अभिनेताओं में से एक हैं जिन्हें सिर्फ किस्मत के दम पर सफलता मिली है वरना इस फिल्म में चेहरे पर एक-एक भाव लाने के लिए उन्हें कितनी जद्दोजहद करनी पड़ी है वो साफ़ दिखाई देता है | चेहरे बनाने की उनकी मेहनत देखकर हमें थकान होने लगती है |
फिल्म एक और मायने में विशेष है, ये भारत की पहली बिना गीतों वाली फिल्म थी | इसके पीछे भी एक कहानी है - बी आर चोपडा साहब एक विदेशी फिल्म फेस्टिवल में शिरकत कर रहे थे तब किसी ने कहा कि भारतीय फिल्मे सिर्फ नाच-गानों का प्रदर्शन होती हैं | भारतीय नाच-गानों के बिना फिल्म नहीं बना सकते | बी आर चोपडा ने इसे एक चुनौती के रूप में लिया और बिना गीतों वाली कुछ बेहतरीन फिल्में बनाई |
इस फिल्म ने जो सवाल उठाया वो आज तक अपनी जगह कायम है, उस पर अब भी बहस की ज़रुरत है लेकिन एक और सवाल साथ खडा हो गया है कि ये बहस करेगा कौन और उस बहस के नतीजों को अमल में कौन लाएगा क्योंकि अब तो बौद्धिकता भी ग्लैमर की चकाचौंध की शिकार हो गई है |

फिल्म ५ में से ४.५ अंक पाने की हक़दार है |

अनिरुद्ध शर्मा

Tuesday, August 18, 2009

उसे लगता था कि मैं बहुत ख़ुश हूँ....

ब्लू फिल्म-भाग 7

जब मैं चौथी कक्षा में पढ़ता था, मुझे पूजा से प्यार हुआ था। वह मेरे साथ वाले बेंच पर बैठती थी, लता के साथ। वह प्यार भी बिना कुछ कहे-सुने जल्दी ही बुझ सा गया था, लेकिन तब से ही मुझे पूजा की याद लगातार आती थी। मैंने चौथी की कॉपियाँ किताबें अब तक सँभालकर रखी थी। एक दिन जब बहुत याद आई तो संदूक की तली से उन्हें ही निकालकर पढ़ने लगा। उन पर चढ़ी हुई अख़बारों की ज़िल्द पढ़ता रहा। उन साधारण सी ख़बरों में मेरे बचपन की खुशबू थी। मैंने सोचा कि तेरह साल पहले भी रोज़ मैं इन्हीं ज़िल्दों को पढ़ता होऊंगा।
एक तरफ़ सार्वजनिक निर्माण विभाग, बीकानेर के अधिशाषी अभियंता ने निविदाएँ आमंत्रित की थी। उसके ऊपर लिखा था- पॉलीथिन का करो बहिष्कार, यही है प्रदूषण का उपचार। फ़ेमस फ़ार्मेसी का विज्ञापन था, जिसमें कमज़ोर मर्दों से शर्म-संकोच छोड़ने के लिए कहा गया था। कच्ची बस्तियों की नियमन दरों का समाचार था। रेलवे की किसी भर्ती का परिणाम था, जिसमें सामान्य, ओबीसी, एससी और एसटी श्रेणियाँ थीं। अख़बार ग्यारह मई का था। उसके कुछ दिन बाद स्कूल बन्द हो गया था। जब दुबारा स्कूल खुले तो वह नहीं आई थी। प्रार्थना गाते हुए मेरा गला भर्रा जाता था।
ग्यारह मई को उसका जन्मदिन भी था। उसने क्लास में टॉफियाँ बाँटी थीं। जब वह मुझे टॉफ़ी देने लगी तो मैंने उसकी कलाई पकड़ ली थी। वह मुस्कुराई थी। डॉक्टर ने लता के लिए कुछ दवाइयाँ दी थी। माँ किसी बाबा से मंत्र बुझी राख लाई थी, जो उसे चटा दी गई थी। माँ और लता सुबह-शाम नियमित रूप से पूजा भी करने लगी थी। हर तीसरे दिन डॉक्टर अकेले में आधा घंटा उसे कुछ समझाया करता था। मैं लता से पूछता कि क्या डॉक्टर उसे क्या समझाता है तो वह कहती कि ज़्यादा समय तो वही बोलती है। वह उसके सपने सुना करता था- सोने वाले भी और जागने वाले भी। मेरे सपने कोई नहीं सुनता था। मुझे लगता था कि उसे सपनों की ही कोई बीमारी है और उस इलाज़ से वह ठीक भी होने लगी थी। माँ-पिताजी ने आस पड़ोस में किसी को कुछ नहीं बताया था और अब उन्हें उसकी शादी की चिंता भी सताने लगी थी। मैं चाह कर भी उनकी चिंताओं का साझेदार नहीं बन पाता था।
शिल्पा अकेली रहती थी लेकिन मैं उसे फ़ोन नहीं करता था, रुक रुक कर तीन बार घंटी ही बजाता था। ऐसा रागिनी ने कह रखा था। वे घंटियाँ अक्सर खाली ही लौटती थी। रागिनी का जब मन होता, वह तभी फ़ोन करती। उसकी आवाज़ मुझे पागल कर देती थी। मेरा अपने आप पर से नियंत्रण ख़त्म होने लगता था। प्यार मुझे असहाय बनाता था। मैं उससे कुछ नहीं पूछता था, फ़ोन न करने पर झगड़ता भी नहीं था। उसे फिर से खो देने के डर से मैं सिर्फ़ उसे हँसाता था। सब लड़कियों की तरह उसे भी हँसना बहुत पसन्द था और हँसाने वाले लड़के। मैं उसे अपने दोस्तों के चटपटे किस्से सुनाता, उसकी बेतुकी बेदिमागी बातों पर ठहाके मारकर हँसता। उसे लगता था कि मैं बहुत ख़ुश हूँ। मुझे लगता था कि उसने मेरी उदासी देख ली तो वह मुझसे दूर भागेगी। मैं अपनी बेकारी पर भी हँसता था, अपनी बहन की बीमारी पर भी और रागिनी की शादी पर भी। वह भी बेशर्मी से हँसती थी और अपनी शादी की रात की बातें फुसफुसाकर सुनाती थी। यह क्रूरता अक्षम्य थी।
कभी कभी आँखें इतनी दुखती थी कि मैं रात रात भर अपने बिस्तर पर पड़ा रोता रहता था। मैं कहीं भाग जाना चाहता था। मुझे हरे रंग के सपने आते थे या जलते हुए लाल रंग के। बाढ़ में बहते हुए शहर, जलते हुए घर, राख होते पेड़, काला आसमान।
एक दिन मैंने उससे कहा- मैं ख़त्म होता जा रहा हूं रागिनी।
- ख़त्म मतलब?

क्या यह किसी विदेशी भाषा का शब्द था या ख़त्म होना उसकी संस्कृति में ही नहीं था?
- ख़त्म मतलब ख़त्म....
- तुम्हें पता है, इस रंग का नाम क्या है?
- मुझे कुछ नहीं पता। मेरे भीतर आग सी लगी रहती है।
- मेजेंटा...
- हाँ?
- इस कलर का नाम।

मैं चुप रहा। वह तर्जनी से होती हुई अनामिका तक पहुँची। बीच में एक बार सिर उठाकर उसने मुझे देखा। मेरी दाढ़ी बढ़ी हुई थी। मुझे ‘जिस्म’ याद आई और जॉन अब्राहम।
मैंने पूछा- तुमने जिस्म देखी है?
- ना...
- तुमने ब्लू फ़िल्म देखी है कभी?

वह रुक गई, मुस्कुराई और चुप रही।
मैंने फिर पूछा- देखी है?
- नहीं।

वह मुस्कुराती रही। मुझे चिढ़ होती थी कि कोई अचानक इतना दुखी और तीसरे ही दिन इतना ख़ुश कैसे दिख सकता है!
- चलो मेरे साथ। हम शादी करेंगे।
उसे छटांक भर भी फ़र्क नहीं पड़ा। उसके होठ खूबसूरती से फैले रहे। उस कमरे में आमिर ख़ान का एक बड़ा सा पोस्टर चिपका था, जिसकी निगाह हर समय रागिनी की ओर ही रहती थी। मैं खड़ा हुआ और नाखूनों से वह पोस्टर खुरचने लगा। वह अब भी कुछ नहीं बोली। दीवार के पास रखी प्लास्टिक की कुर्सी मैंने हवा में फेंककर मारी। वह सामने की दीवार पर अपने अपमान के निशान छोड़ते हुए नीचे जा गिरी। मेरी साँसें दौड़ रही थीं। मैं खड़ा उसे देखता रहा। वह लेट गई। मुझे पता था कि वह लेट जाएगी।
तहलका डॉट कॉम उन दिनों सुर्खियों में थी। उन्होंने देश को शर्ट के बटन में लग सकने वाले वीडियो कैमरों से परिचित करवाया था। मेरी सफेद शर्ट के सबसे ऊपर वाले बटन पर जो कैमरा लगा था, यादव ने मुझे दिया था। वह दिल्ली से यह कैमरा लाया था। उसने मेरे हाथ में कैमरा पकड़ाते हुए रागिनी का वीडियो बनाने की सलाह दी थी तो मुझे बहुत गुस्सा आया था।
- तुम लोग साले कभी प्यार को समझ ही नहीं सकते...
मैं बौखला कर बोला तो वह हँस दिया था।
- मेरे देखने के लिए थोड़े ही बनाने को कह रहा हूं यार।
- मुझे नहीं चाहिए यह....
- फिर से भाग जाएगी तो पछताएगा कि फ़िल्म बना ली होती तो अच्छा रहता।
- वो प्यार करती है मुझसे....और तू चाहता है कि मैं उसे ब्लैकमेल करूं?
- तुझसे प्यार करती है, तभी तो उसके साथ सोती है। क्या नाम है उसका? ....हाँ, विजय।


यह कोई बॉलीवुड की फ़िल्म होती तो मैं उसका गिरेबान पकड़ लेता और हमारे बीच में एक दरार बनी आती, जिस पर इंटरमिशन लिखा होता। लेकिन वह मेरे बचपन का दोस्त था और सच बोल रहा था और मैं शाहरुख़ ख़ान नहीं था। यह सच इतना भारी था कि फिर कुछ देर तक कमरे में चुप्पी छाई रही। फिर उसने अपने टेपरिकॉर्डर पर मोहम्मद रफ़ी के गाने चला दिए और अख़बार पढ़ने लगा। ‘गुलाबी आँखें जो तेरी देखी’ के पहले अंतरे के बाद मैं निकल आया था।
मुझे दुख था कि मैं शाहरुख खान नहीं था। मेरी उम्र के सब लड़कों को यही दुख था। मैं न उतना खुशमिजाज था और न ही उतना हाज़िरजवाब। मैं मद्धम होते सूरज और जलते हुए चाँद के बीच के किसी समय में रागिनी को पहाड़ या रेगिस्तान पर ले जाकर नहीं चूम सकता था। मैं भीड़ भरी सड़कों पर चिल्ला चिल्लाकर उसे नहीं पुकार सकता था। मेरे पास उसे तोहफ़े देने के पैसे नहीं थे। मैं बेरोज़गार था और निराश भी और मेरे बाल सफेद होने लगे थे। मैं अंग्रेज़ी बोलना भी नहीं जानता था। मेरे पास मोटरसाइकिल भी नहीं थी। रागिनी को बस में उल्टियाँ लगती थी और चक्कर आते थे।
मैंने उस शाम लता को यह सब बताया और उसकी गोद में सिर रखकर लेटा रहा। वह मेरी बन्द आँखों पर अपनी ठंडी हथेलियाँ रखे बैठी रही। मैं उसके या माँ के पास होता था तो अपने साधारण होने की हीनता कुछ देर के लिए कम हो जाती थी। मैंने उससे कहा कि मैं बहुत कमज़ोर हूं और डरकर कहीं भाग जाना चाहता हूं। मैंने उसे अपने जले हुए लाल रंग के अंगारों वाले सपनों के बारे में बताया।
बहुत शोर था और मुझे कुछ सुनाई नहीं देता था। पढ़ने या टीवी देखने से मेरी आँखें दुखने लगती थीं, ब्लू फ़िल्म देखने से भी। सब बताते थे कि बहुत रोशनी है और मुझे कोई रास्ता नहीं सूझता था। मुझसे रंभाती हुई गायों और भौंकते हुए कुत्तों की बेबसी नहीं देखी जाती थी। लता ने मुझसे कहा कि मेरे पैरों की उंगलियों के नाखून बहुत बढ़ गए हैं। मैंने उससे कहा कि मेरा उन्हें काटने का मन नहीं करता।
बस अड्डों और रेलवे स्टेशनों पर उन दिनों ‘व्यस्त रहिए मस्त रहिए’ और ‘जीत आपकी’ जैसी किताबों की भरमार थी। मैं सब बुक स्टॉलों को जला देना चाहता था। मैं निराश नहीं था, केवल उदास था और अकेली रागिनी ही इसके लिए उत्तरदायी नहीं थी। कुछ और भी था जो हममें से किसी को पता नहीं चलता था। हम सब कनफ्यूज़ थे। लता ने बताया कि उसे उस पीछा करने वाले लड़के से प्यार हो गया है। मैं उतना नहीं चौंका। मैंने उसे रागिनी के वीडियो के बारे में भी नहीं बताया, जो मैंने उस दोपहर बनाया था। मैं रोना चाहता था।

गौरव सोलंकी

Monday, August 17, 2009

किंग खान पर हंगामा है क्यूं बरपा ?

फौजिया रियाज़ दिल्ली के एफएम रेनबो में रेडियो जॉकी हैं.......बैठक पर इनका ये पहला लेख है....आप पढ़कर बताएं कि बैठक की ये नई सदस्य कैसा लिखती हैं....



हाल ही में अमेरिका के एक एयरपोर्ट पर शाहरुख़ खान "द सुपर स्टार" के साथ दो घंटों तक पूछताछ चली। इस पर इस कदर हंगामा बरपा कि भारतियों की इज्ज़त से खिलवाड़ हो रहा है और भी न जाने क्या क्या...कई लोगों का कहना है कि ये भारतीयों के साथ ज़्यादा होता है, मुसलमान के साथ ज़्यादा होता है,अमेरिका एक रेसिस्ट देश है, वहां नाम देख कर पूछताछ की जाती है, साथ ही कि ये हमारे मान की बात है, हमे भी अमेरिकियों से इसी तरह पेश आना चाहिए...या रब! हद हो गई!! हम ख़ुद कितने रेसिस्ट हैं, दोगले हैं, इसका एहसास ही नही है, ख़ुद हमारे यहाँ हर दाढ़ी वाले को शक की नज़र से देखा जाता है, ख़ुद हमारे यहाँ नॉर्थ ईस्टर्न लोगों को अपना नही समझा जाता, ख़ुद हमारे यहाँ विदेशी पर्यटकों को तंग किया जाता है, ख़ुद हमारे यहाँ लोगों को नीचा दिखाने के लिए बिहारी शब्द का इस्तेमाल किया जाता है...इतना हल्ला किसलिए क्यूँकि वो शाहरुख़ खान है? न जाने कितने कश्मीरी नौजवानों के सर पर आतंकवादी का लेबल लगा कर मार दिया जाता है, न जाने कितने मुसलमान नौजवानों को कॉलेज में एडमिशन के दौरान तिरछी नज़रों से देखा जाता है, न जाने कितने गरीब मासूम लोगों को माओवादी बताकर एनकाउंटर किया जाता है...तब कोई उफ़ भी नही करता, अपने देश में होता है तो सब चुप्पी साध लेते हैं और गैर मुल्क में हुआ तो हाय तौबा...क्यूँ? माना जो हुआ वो ग़लत हुआ लेकिन उससे ज़्यादा ग़लत तो पूर्व राष्ट्रपति कलाम साहब के साथ हुआ...लेकिन तब न्यूज़ चैनल वाले ही चिल्लाये थे, अभी आम इंसान को भी चिल्लाता देख रही हूँ...अरे ज़्यादा जोश में आने की ज़रूरत नही है..इनका कोई भरोसा नही कल को इमरान हाश्मी की तरह कह देंगे "मेरे साथ कोई बदसलूकी नही हुई,मेरे बयां को तोड़-मरोड़ के पेश किया गया था"

फौजिया रियाज़

Sunday, August 16, 2009

मंदी के दौर में एक और टीवी चैनल !

सभी वर्ग के कस्तूरों के लिए खुशखबरी- हमने तमाम कस्तूरों के हितार्थ टोटल संत चैनल शुरू किया है। यह चैनल फैशन चैनल की तरह चौबीसों घंटे भटके हुए कस्तूरों को मनचाही शांति मुहैया करवाएगा। वैसे भी आज के दौर में फैशन और धर्म एक सिक्के के दो पहलू हैं। अर्थात् फैशन ही धर्म है और धर्म ही फैशन। मनोरोगी कस्तूरे अब चौबीसों घंटे आराम से कुर्सी पर पसर फास्ट फूड के साथ परमानन्द की प्राप्ति करेंगे,ऐसा हमारे चैनल द्वारा हायर किए संतों का विश्वास नहीं,दावा है।

हे भटके जीवो, जब कहीं भी न मिले आपकी स्वयं बुलाई समस्याओं का समाधान, तो शुरू होता है हमारे संत चैनल का काम। और चैनलिया संत परखे आपने हजार बार, हमारे चैनलिया संत परखें बस एक बार! हमारे चैनल के संत आपको स्वर्ग का टिकट, ऑटो टिकट के रेट में दिलवा सकते हैं। वे सज्जन जो ईमानदारी ,शांति से बहुत दूर जाना चाहते हों, हमारे चैनल के संतों के सामने एक बार,बस एक बार, मात्र एक पल के लिए बैठें और जिंदगी भर की अच्छाइयों से छुटकारा पाएं। हमारा संत चैनल सात समंदर पार तक पांव पसार चुका है। राजनेता से लेकर जाली वोटर तक को अपने चंगुल में फंसा चुका है। हमने अपने चैनली संतों के माध्यम से आजतक जिसका भी इलाज किया, वह अपनी पत्नी, प्रेमिका को छोड़ हमारे संतों का दीवाना हो गया, विदेशी दर्शक इस बात का सबूत हैं। कर्म क्षेत्र को छोड़ वह घोर भाग्य प्रेमी हो गया, हमारी बढ़ी टी आर पी इसका साक्षात् प्रमाण है ।

प्यारे सज्जनो और उनकी बहू-बेटियो! आप हमारे चैनल के संतों से ऑन लाइन भी संपर्क साध अपने वर्तमान और भविष्य का संपूर्ण बुरा हाल जान सकते हैं। हमारे चैनल की बीसियों लाइनें अपने भक्तों के लिए चौबीसों घंटे खुली रहती हैं। आप हमारे संतों से एसएमएस और एमएमएस द्वारा नरक जाने की विशुद्ध जानकारी कहीं भी बैठे हासिल कर सकते हैं।

घर में अशांति का निवास न हो पाना,व्यापार में अनुचित तरीके से भी लाभ न मिलना, औरों को पीड़ा न पहुंचा पाना, डट कर हरामीपना करने के बाद भी आत्मा को चैन न आना, बीसियों जुगाड़ों के बाद भी परधन न हड़प पाना, साहब की पत्नी के जूते पालिश करने के बाद भी प्रमोशन न मिलना, लाडलों का बार-बार नकल करने के बाद भी पास न हो पाना, मित्रों से
प्रसन्न रहना, एक पत्नी के होते दूसरी जगह मुंह मारने से डरना, विवाहेतर प्रेम भंग होना, पर पुरूष को लोक लाज के कारण अपना न सकना, विवाहेतर संबंधों में बच्चों की ओर से परेशान रहना, ईमानदारी से चाहकर भी छुटकारा न पाना, ग्रहों पर अंधविश्वास न होना, अहिंसा, देशभक्ति,राष्ट्रीयता जैसे बेइलाज रोगों से हरदम परेशान रहना, रात को सच से डरकर एकाएक जागकर फिर सो न पाना, भोगों से प्रेम में असफलता, झूठे मुकदमों में सफलता पाना, अपने जीवन को हर तरह से समाज दुरूपयोगी बनाने आदि-आदि लाखों रोगियों के असाध्य रोगों का सफल इलाज हमारे चैनल के संतों द्वारा अपने वचनों भर से ही शर्तिया किया जा चुका है, फुल्ल गारंटी के साथ, कोई वारंटी के साथ नहीं। जो भला चंगा आदमी हमारे चैनल के संतों की शरण में आकर बीमार न हो तो अपना संत चैनल तत्काल बंद, चैलेंज के साथ!

वे दुरात्माएं हमारे चैनल के संतों के वचन जरूर सुनें जिनका केवल कर्म पर विश्वास हो। घर में खुशहाली हो। जितना उनके पास हो और वे उसी में प्रसन्न हों, धंधे में ईमानदारी से भी लाभ हो रहा हो। जिन पति-पत्नी में स्वर्गिक प्रेम हो। जो मेहनत की खाने में अंधविश्वास रखते हों। कबूतरबाजों के थ्रू विदेश जाने के इच्छुक भी हमारे चैनलिया संतों का आशीर्वाद ले अपना भाग्य सुधारें। हमारे चैनल के संतों के पास ऐसे-ऐसे तंत्र हैं कि चींटी भी अपना घर-बार बेचकर कबूतर की तरह उड़ कर लंदन की नागरिकता पा जाएगी। जिनको लगे कि जादू-टोना कुछ नहीं होता, जो सब खिलाए-पिलाए को पचा गए हों, वशीकरण करने वाला खुद ही वशीकरण का शिकार हो गया हो तो ऐसे सब रोगी हमारे चैनल के संतों की शरण में सादर आएं, हमारे संत चैनल के दरवाजे चौबीसों घंटे ऐसी पीड़ित आत्माओं के लिए खुले हैं।

हमारे चैनल के संतों ने अपनी अमृत वाणी से बड़ों-बड़ों के दिमाग में कीड़े डाल दिए हैं। जिनको नजर न लगती हो,जो औरों को नजर लगाते हों, जिनको हाय पर विश्वास न हो, जिन सास-बहू में झगड़ा न होता हो, जिनके बच्चों का मन पढ़ाई में लगता हो, जो अपने बच्चों से सदा असंतुष्ट रहना चाहते हों, जिस पति का मन बाहर मुंह मारने को न करता हो, ऐसों की सभी शारीरिक व मानसिक समस्याओं का समाधान हमारे चैनल के संतों के पास है, चुटकी में।

प्रिय दर्शको! पर पत्नी दोष, पर पति दोष,पड़ोसन कष्ट, प्रेमी उपासना में बाधा, और भी सैंकड़ों छोटी-मोटी अपनी अप्रत्यक्ष बाधाओं का हमारे सुधी दर्शक हमारे नामी संतों को बताएंगे, फोन पर सीधे बताएंगे और हमारे संत पलक झपकते करेंगे स्क्रीन पर से ही उनका इलाज। हमारे चैनल के संतों को सुनते ही आपके दिमाग के पिछले जन्मों के मरे कीड़े भी सक्रिय हो उठेंगे। और उनके सक्रिय होते ही आपकी और आपके पूरे परिवार की जिंदगी खुशियों से लबालब हो जाएगी। हमारे चैनल के संतों का सान्निध्य मिलते ही पड़ोसन का पति बस आपको टुकुर-टुकुर देखता रहेगा ,पर कुछ कह नहीं पाएगा,न आपका कुछ बिगाड़ पाएगा, और वह लोक-लाज छोड, सोलह श्रृंगार किए दौड़ी-दौड़ी आपके पास चली आएगी। हमारे संतों की वाणी का असर यह भी हो सकता है कि उसका पति ही उसे आपके घर छोड़ जाए, विदाई गीत गाता। हम अपने चैनल के संतों की ओर से आपको विश्वास दिलाते हैं कि हमारे संत अपनी भोग विद्या से आपको इतना सम्मोहित कर देंगे कि आपको चारों ओर हमारे ही संत शिरोमणि नजर आएंगे।

कुंआरी कन्याएं हमारे संतों को जरूर सुनें। जिनका सामाजिक संबंघों पर अगाध विश्वास हो, जो संबंधों के प्रति अधिक ही संवेदनशील हों, जिनको अपने पर पूरा विश्वास हो, ऐसों को हमारे चैनल के संत रामबाण हैं।

आज का जीव हवा,पानी, भोजन के बिना जी सकता है पर चैनल के संतों के बिना नहीं। झोलाछाप संतों की वाणी से निराश हुए एक बार हमारे संतों को जरूर सुनें। उनके भोग, उपभोग, संभोग के फार्मूलों से आप पलक झपकते भव सागर पार होंगे। अपने केबल आपरेटर से संत चैनल की मांग अवश्य करें । यह आपका जुनूनी हक है।

अशोक गौतम

गौतम निवास ,अप्पर सेरी रोड,
नजदीक मेन वाटर टैंक
सोलन-173212 हि.प्र.

Saturday, August 15, 2009

ग्लोबल इंडिया वाया सिंगापुर

भारतीय आज़ादी का जश्न भारत के बाहर मनाये जाने की ख़बर ही हम भारतीयों के लिए सुखद अहसास दे जाती है। और वो भी पूरे धूमे-धाम से हो, तो क्या बात है! ऐसा ही एक जश्न आज दक्षिण एशिया के बहुत छोटे लेकिन महत्वपूर्ण देश सिंगापुर में मनाया गया। सिंगापुर स्थित भारतीय दूतावास पर वातावरण पूरी तरह से हिन्दुस्तानी था। भारतीय उच्चायुक्त ने महामहिम प्रतिभा देवी सिंह पाटिल का संदेश पढ़ा, वहीं ग्लोबल इंटरनेशनल स्कूल तथा डीपीएस इंटरनेशनल स्कूल के बच्चों ने तिरंगे के लिबास में पनघट (गुजराती लोकनृत्य) जैसे सांस्कृतिक नृत्य प्रस्तुत किये। बैठक की पाठिका पूजा जो रांची से हैं, इन दिनों रिसर्च के सिलसिले में सिंगापुर में हैं। आज़ादी की सालगिरह पर इन्होंने हमें सिंगापुर स्थित भारतीय दूतावास में मने स्वतंत्रता दिवस समारोह की कई रंगारंग तस्वीरें भेजी हैं। ग्लोबल होते भारत की तस्वीरों का आप भी आनंद लीजिए। बैठक में पूजा का स्वागत भी कीजिए।

(चित्र को बड़ा करके देखने के लिए चित्र पर क्लिक करें)






सभी चित्र- पूजा, जूनियर रिसर्च फेलोशिप, टेमासेक लाइफ साइंस लेबोरेटरी, सिंगापुर

Friday, August 14, 2009

मुंह में रखकर घास कहिए देश क्या आज़ाद है !!

आज़ादी की सालगिरह पर हम आपको चंद अलग-अलग अनुभव पेश कर रहे हैं.....हमें ये लेख चार अलग-अलग जगहों से मिले हैं..कहानियां अलग हैं, मगर सवाल वही...आज़ादी के 62 साल बाद का सच क्या सिर्फ वही है जो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह लालकिले से बयां कर गए.....क्या इन बेआवाज़ लेखों को सुनना ज़रूरी नहीं है....

घास खाए देसवा हमार....


दो-चार जानलेवा दुर्घटनाओं को छोड़ दीजिए तो रोज़ मेट्रो का एक और नया पिलर तैयार हो रहा है....देश तरक्की की राह पर है....राजधानी की रफ्तार दुगुनी-चौगुनी होने को है....राजधानी ही क्यों, उसके आसपास का एनसीआर भी कृतार्थ होगा.....दिल्ली में इतने फ्लाइओवर हैं कि मीलों की दूरी मिनटों में तय होती है.....एफएम पर बैक टू बैक तीन गाने सुनने में कट जाता है रास्ता.....और क्या चाहिए तरक्की के लिए....ये तस्वीरें विकास की परिभाषा गढ़ रही हैं....शहरों के विकास की परिभाषा....गांव आते-आते ये परिभाषाएं बदलने लगती हैं....न कोई मेट्रो, न फ्लाईओवर...न एफएम.....गांवों के नाम बदल दीजिए तक़दीर नहीं बदलती..तस्वीर भी नहीं......
पूर्वी उत्तर प्रदेश का नामी ज़िला चंदौली.....उत्तर प्रदेश में नक्सली आंदोलन की चर्चा हो तो सबसे पहले चंदौली का नाम आता है.....अभी कुछ दिन पहले सिपाही भर्ती के दौरान मची भगदड़ में कई जानें गईं...कई नौजवान मारे गए....पूरा शहर कर्फ्यूग्रस्त हो गया....उपद्रव मचाने वालों ने सारे सरकारी भवन आग के हवाले कर दिए....कोर्ट-कचहरी, पोस्ट-ऑफिस सब कुछ.....प्रशासन ने वहां के स्कूलों में ही कचहरी लगा दी....बड़ा सा स्कूल सिमट कर रह गया....छह कमरों में हज़ारों बच्चों का स्कूल और कई कमरों में पुलिस छावनी......पूरे स्कूल में एक ही शौचालय है.....बच्चियां शौचालय भी जाने से कतराती हैं...वहां अक्सर ख़ाकी के जवानों की भीड़ होती....ख़ैर.....
चंदौली से ही सटा है नौगढ़....नौगढ़ के पास का ही गांव है मझगवां....आदिवासियों की अच्छी-खासी तादाद बसती है यहां....कभी अपने हक़ की लड़ाई में बासमती कोल जैसी चूल्हा-चौका करने वाली महिलाओं ने बंदूक थाम ली थी......उत्तर प्रदेश का नक्सली इतिहास यहीं से शुरू होता है.....यहां पहुंचने के लिए आज भी कच्ची सड़क है....शाम होते-होते लोगों की आवाजाही एकदम बंद हो जाती है.....विकास योजनाओं की आवाजाही तो बरसों से बंद है......नरेगा जैसी योजनाएं यहां पहुची तो थी, मगर सिर्फ कागज़ पर.......मझगवां की कई औरतों के पास जॉब कार्ड है, मगर जॉब किसी के पास नहीं....सूखे का असर देखना हो तो इस गांव का रुख कभी भी किया जा सकता है....दूर-दूर तक खेत पसरे है.....मगर, खेती बिल्कुल नहीं हुई.....खेतों में चकबड़ और चकोड़ घास उगती है....जानवरों के खाने के काम आती है ये घास.....इस बार फसल नहीं हुई तो अनाज हुआ नहीं.....घरों में एकाध किलो चावल बचा है....पूरे सीज़न चलाना है यही चावल....तो, यहां के लोग एक टाइम खाते हैं.....थोड़े चावल में यही घास उबाल कर सानते हैं और खाते हैं....जानवरों का चारा आदमी खा रहे हैं....हर रोज़.....बच्चे भी यही घास खाकर बड़े हो रहे हैं.....पता नहीं कितना बड़े हो पाएंगे.....उनकी मांओं को टीबी हो गया है....बाप गांव के ही किसी कोने में ताश खेल रहे होते हैं......गांव के कोने में एक स्कूल भी है....स्कूल क्या है, एक खंडहर है.....दीवारों की झुर्रियां साफ दिखाई पड़ती हैं....बड़ा सा ताला लटका रहता है वहां पर......स्कूल के कोने में ही लोग ताश खेलते रहते हैं दिन भर....बच्चे कभी बस्ता लेकर जाते भी हैं तो ताश खेलना शुरू कर देते हैं....अच्छा लगता है उन्हें....फिर भूख लगती है तो घर लौट जाते हैं...मां कटोरी में घास सान कर दे देती है....बच्चे खा लेते हैं.....बासमती कोल को पता है इस गांव में सरकारी योजनाओं के नाम पर पांच लाख रुपया आता है....मगर, जाता कहां है, ये कोई नहीं जानता....पांच लाख रुपए में तो कायापलट हो जानी चाहिए थी....कुछ भी नहीं बदल रहा यहां पर.....बासमती अगली पीढ़ी के कंधे पर बंदूक के बजाय बस्ते थमाना चाहती है.....मगर, लटके ताले उसका मुंह भी लटका देते हैं.....ये आज़ादी के 62 साल बाद का सच है.....

--निखिल आनंद गिरि
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मनीष वंदेमातरम हिंदयुग्म के पुराने साथी हैं....उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल से उनकी भी चिट्ठी आई है.....लिखते हैं,
बेशक अब हम आज़ाद हैं। और जगहों का तो पता नही पर मेरे गाँव में ये आज़ादी ज़रूर दिखने लगी है। ६३ साल की आज़ादी अब धीरे-धीरे जवां हो रही है। मेरा गाँव गंगा किनारे है, वहाँ लगभग हर साल बाढ़ आती है। बचपन में इन दिनों मां-बाबूजी हमलोगो को नानी के घर भेज देते थे क्योकि सारा गाँव बाढ़ के दिनों में छोटा सा द्वीप बन जाता था। हमारे नज़दीकी कस्बे या मुख्य सड़क तक जाने के लिए एक ही विकल्प था नाव, वो भी एक थी। फिर बाढ़ के बाद संक्रमण और बीमारियां। अब 7-8 सालों से बाढ़ नहीं आती, मेरा गाँव चारों तरफ से सड़क से जुड़ गया है। सड़कों पर चलाने के लिए लोगों के पास महँगी गाड़िया हैं, बिजली है वो भी इतनी कि लोग अब दहेज में फ्रिज और टीवी मागंने लगे हैं।
सूचना क्रातिं ने भी गाँव में खूब पैर पसार लिया है। गाँव मे औसतन हर घर में मोबाइल है, डी टी एच, सेटेलाइट टीवी, एटीएम हैं। मेरे जिले मे हाल ही मे ३ जी सेवा शुरू की गयी है। लोग धीरे धीरे कंप्यूटर के उपयोग से परिचित हो रहे हैं। इंटरनेट का प्रसार बढ़ रहा है। कुछ युवा तो जमकर ब्लागिंग भी कर रहे हैं। ग्लैमर की चकाचौध भी गाँव मे घुस गयी है। अब आप सबके भदन पर फैशनेबल कपड़े और एस्सरीज देख सकते है। बच्चे गजनी कट और लड़कियां सानिया कट नथूनी से अंजान नहीं रहे। गाँव का भोलापन अब सयाना हो गया है।
शिक्षा का प्रसार तेजी से हो रहा है। महँगे महँगे कान्वेंट स्कूलों की बसें गाँव की सड़कों पर दौड़ रही है। गाँव वाले अब बच्चों को स्कूल भेजते समय बाय-बाय कहते है। लड़कियां घंटों साईकिल चलाकर स्कूल जाती हैं।
किसान अब पहले से संपन्न हो रहे हैं। उन्होंने हाइब्रिड बीजों का उपयोग सीख लिया है, और आधुनिक कृषि अभियांत्रिकी के लाभ भी समझ गये हैं। बाज़ार तक उनकी पहुंच आसान हो गयी है। प्रेमचंद अगर अब होते तो उन्हें होरी जैसा पात्र रचने में खासी मुश्किल होती।
गाँव अब बदल गया है। पर हम इस बदलाव की कीमत भी चुका रहे हैं। पहले गाँव के बारे में एक प्रसिद्ध कहावत थी कि गाँव में एक ही चूल्हे से सारे गाँव का चूल्हा जलता है। पर अब ऐसी बात नहीं रही। अब सबको अपने चूल्हे की ही पड़ी रहती है। पहले तीन चार पीढ़ियों तक एक ही घर के लोग प्रधान हुआ करते थे.... अब चुनाव होता है तो गाँव में अच्छे और सस्ते शार्पशूटर मिल जाते हैं
मुझे रंग दे बसंती का एक डायलाग याद आता है.....कोई भी देश परफेक्ट नहीं होता उसे परफेक्ट बनाना पड़ता है।
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गरीब आदिवासियों के लिए लड़ रही एक जाबांज और दिलेर साथी हैं शमीम मोदी... मध्य प्रदेश में काम कर रहे सगंठन श्रमिक आदिवासिक संगठन के माध्यम से लगातार कई वर्षो से अपने को खपा चुकी शमीम को जान से मरने की धमकी कई बार दी जा चुकी है, क्योकि उनका संघर्ष उन चंद लोगो के काम और रोजगार के रास्तों में रूकावटें पैदा करता रहता है. तमाम परेशानियों के बाद भी शमीम का संघर्ष जारी है....इधर शमीम पर पिछली २३ जुलाई को एक जानलेवा हमला हुआ और वो जिन्दगी और मौत की कश्मकश में घिर गयी.... पर, खुदा का शुक्र है कि अब वो खतरे से बाहर हैं. पर सबसे चौंकाने वाली भूमिका मीडिया की रही, आम लोगो की लडाई को अपना बनाने वाली
इस जाबांज साथी को किसी अख़बार के दो पन्ने भी नसीब नहीं हुए. कुछेक को छोड़कर आखिर हमारी प्राथमिकताएं क्या हैं, पड़ताल जरुरी है
(ये चिट्ठी टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस, मुंबई से छात्र नवीन दामले ने भेजी है)
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आज़ादी आजकल : तीन तस्वीरें

सीन 1
तारीख 12 अगस्त.... ऑफिस से निकलने की आपा-धापी थी... बाहर बहुत तेज़ धूप थी, लेकिन हड़बड़ाहट में गर्मी को कोई फिक्र ही नहीं थी। शाम 4.40 का शो था... फिल्म थी लव आजकल... मंदी के इस दौर में एक दोस्त ने फिल्म दिखाने का ऑफ़र किया था, इसलिए दिल्ली के लंबे जाम से जूझते हुए लक्ष्मीनगर के वी-3एस पहुचने की आपाधापी मची थी। सिनेमा पहुंचकर फटाफट टिकट लिया, और घुस गये हॉल में... लेकिन ये क्या... पूरा हॉल खाली पड़ा था...हमें लगा कि शायद हम गलत हॉल में आ गये... लेकिन थोड़ी देर में कुछ और लोगों ने भी एंट्री की... हॉल में सीट पर हम दोनों दोस्त लंबे पसर गये। थकावट बहुत ज्यादा थी और फिल्म शुरु होने में भी अभी दस मिनट का वक्त था... धीरे-धीरे लोग हॉल में आ रहे थे। बड़े परदे पर बोरिंड एड चल रहे थे, लेकिन मुझे थकावट की वजह से हल्की सी झपकी आ रही थी.. ऐसे वक्त में घड़ी भी शायद रुक-रुककर चलती है... लव आजकल का इंतज़ार और लंबा होता जा रहा था... मैंने फोन स्विच ऑफ़ किया.. दोस्त को बोला कि फिल्म शुरु हो जाए, तो जगा देना.. वैसे भी हॉल में तब तक तीस-चालीस लोग ही पहुंचे होंगे... अचानक ऐसा लगा जैसे जिस्म के रोंगटे खड़े हो गये... कानों में जो आवाज़ सुनाई पड़ी, उसने मन को झकझोर कर रख दिया... जन-गण-मन की मधुर आवाज़ सुनाई पड़ते ही पूरा हॉल एक साथ खड़ा हो गया... 52 सेकेंड के एक छोटे से लम्हें में ऐसा लगा जैसे सारी दुनिया सिमट आई हो। आंखो के सामने एक उभरता हुआ हिंदुस्तान था.. पंजाब-सिंधु-गुजरात मराठा से लेकर अखंड हिंदुस्तान आंखों के सामने नाच रहा था.. दिल जोश से भर उठा... खून रगों में और भी तेज़ी के साथ दौड़ने लगा। एक बार को इस बात का एहसास ही नहीं हुआ कि मैं सिनेमाहाल में हूं.. ऐसा लगा, जैसे लालकिले की प्राचीर से सारा मुल्क एक आवाज़ में पुकार रहा है, जन गण मन अधिनायक जय है...


अब ज़रा दूसरी तस्वीर देखिए...

तारीख 13 अगस्त... राजधानी दिल्ली की सड़कों पर बच्चे पंद्रह अगस्त की ड्रेस में सजे-धजे नज़र आ रहे है... इस बार 14 अगस्त को जन्माष्टमी है, इसलिए स्कूलों ने दो दिन पहले ही पंद्रह अगस्त मना ली... ये उस राजधानी में होता है, जहां लालकिले की प्राचीर से सारे हिंदुस्तान को आज़ाद होने का एहसास कराया जाता है... लेकिन यहां के बच्चे इतने खुशनसीब कहां, जो पंद्रह अगस्त को ही अपने मुल्क में आज़ादी की सांस ले सकें। लेकिन ये बात आज तक समझ से परे है, कि दिल्ली के स्कूलों में पंद्रह अगस्त और 26 जनवरी वक्त से पहले ही क्यों मना ली जाती है.. शायद ऐसा नेताजी की सुरक्षा के लिहाज़ से किया जाता होगा... लालकिले तक जाने वाले तमाम रास्ते बंद कर दिये जाते हैं... जिसको जाना है, वो पैदल जाओ... वरना आज़ादी के दिन पिकनिक मनाओ... नेताओं की हिफाज़त के लिए बच्चों से उनके एहसास छीन लिये जाते हैं। वो एक दिन पहले ही अपने मुल्क में पाकिस्तान की आज़ादी का जश्न मनाते हैं... सब जानते हैं कि पाकिस्तान हमसे एक दिन पहले ही 14 अगस्त को आज़ाद हुआ था।

आखिरी तस्वीर

14 अगस्त की सुबह.. दिल्ली में हल्की बारिश हो रही थी... सड़कें भीगी हुई थीं... घर से दफ्तर तक कम से कम पांच रेडलाइट पड़ती है... गाज़ीपुर पर लालबत्ती होती है... गाड़ियां ठहर जाती हैं.. आजकल इस साइट पर ओवरब्रिज बनने का काम चल रहा है.. लालबत्ती भी दस मिनट से कम नहीं होती... अचानक कुछ बच्चे जिनके जिस्म पर कपड़े भी ढंग से नहीं थे.. झंडे बेच रहे थे.. एक बच्चा मेरे पास आता है... भईया.. ले लो न... एक ले..लो.. पांच रुपये का है... उसकी आंखो में बेचने की बेकरारी थी.. उसे देखते ही दूसरे बच्चों ने भी मुझे घेर लिया... हर कोई कह रहा था.. भईया एक ले.. लो न.. कल पंद्रह अगस्त है... मुझे बड़ा गर्व हुआ ये जानकर.. कि अरे इन छोटे बच्चों को भी पता है.. कि कल पंद्रह अगस्त है... मैंने झट से दस रुपये निकाले.. और दो झंडे खरीद लिये.. एक बाइक पर लगाया और एक घर में लगाने के लिए रख लिया... तभी ग्रीन लाइट हो जाती है... मैंने भी गाड़ी स्टार्ट की.. और दफ्तर को चल दिया... अगली रेडलाइट यूपी बाईपास पर होती है... इस बार भी तिरंगे दिख रहे थे... लेकिन वो तिरंगे पैरों तले रौंदे जा रहे थे.. और गाड़ियां फुर्र से उनके ऊपर से निकल रही थीं...

(ये लेख अबयज़ खान ने भेजा है. इस लेख की तस्वीर मंजू गुप्ता जी ने मुंबई से भेजी है...)

(आज़ादी पर आप भी अपने विचारों के साथ शरीक हो सकते हैं....)

आओ इस जश्न को साझा कर लें....

आज़ादी की 62वीं सालगिरह पर ये तस्वीरें ख़ास बैठक के लिए वाघा बॉर्डर से हमारे दोस्त सोहैल आज़म ने भेजी हैं......सोहैल जामिया से मास कॉम की पढ़ाई के बाद बच्चों के लिए काम करने वाली एक संस्था से जुड़े हैं....इसी सिलसिले में वाघा जाना हुआ तो सरहद के बिल्कुल क़रीब से ये सारा नज़ारा अपने कैमरे में कैद कर लिया...सोहैल ने बताया कि सरहद पर इस पार-उस पार का फासला इतना कम है कि वहां अक्सर शाम को होने वाले रंगारंग आयोजनों की आवाज़ें उस पार तक पहुंचती हैं...लोग बॉलीवुड की धुनों के सहारे थिरकते हैं और देशभक्ति की अलख भी जगाए रहते हैं....आइए हम भी सरहद के इस जश्न में शरीक हों और इस पार-उस पार के फासले को थोड़ा कम करें, कुछ पलों के लिए ही सही....