बात की बात! हमारे मुहल्ले के कवि महोदय लौट आए ....
हुआ यों कि पिछले हफ्ते अचानक हमारे मुहल्ले के कवि महाराज हम सबको बिन बताए एकाएक मुहल्ले से कूच कर गए। उनके जाने पर भाभी से ज्यादा कविता ने रो-रो कर अपना वो हाल कर दिया था कि मत पूछो। थक हार कर हमने एक शरीफ सा बंदा जबरदस्ती पकड़ कर कविता के हवाले कर दिया । बंदा बहुत रोया चिल्लाया,`मैं तो क्या, मेरे किसी पुरखे तक ने कभी कविता के साथ एक पल भी नहीं काटा,ऐसे में मेरे साथ क्यों अन्याय कर रहे हो। मुझे मारना ही है तो जहर देकर मार दो। मैं जहर खुशी से पीने के लिए तैयार हूं पर कविता के साथ एक पल भी रहना मुझे स्वीकार नहीं।´ पर मुहल्ले में था ही कौन, जो उसकी सुनता।
चार दिन तक उनकी कविता की चार पंक्तियां याद रहीं और बिजली-पानी का बिल आते ही वे भी भूल गईं। आज के दौर में न कविता याद रखने की चीज है न कवि। आटे-दाल से फुर्सत मिले तो तो कविता याद रहे, कवि याद रहे। आज के दौर में तो कम्बख्त खुद को भी भूलने की बीमारी होने लगी है। कवि तो याद रखने की चीज होता ही नहीं, सो रिश्तेदारों की तरह मुझे वह भी भूल गया। अब औरों की तरह वह भी उसकी पुण्यतिथि को याद आ जाया करेगा, वह भी तब अगर भाभी ने उस दिन कुछ खाने-पीने का इंतजाम कर दिया तो....सच मानिए, अब तो बिना मतलब के मैंने अपने आप को भी याद रखना छोड़ दिया है।
कल सुबह कुत्ते के साथ घूमने निकला ही था कि सामने से गए कवि सा कोई आता दिखा। वैसे ही खांसता हुआ, चालीस का होने के बाद भी वैसे ही साठ का सा कुबड़ाता हुआ। पहले तो मैंने सोचा कि मन का भूत होगा। इस संसार से गए हुओं में से सब लौट कर आ सकते हैं पर कोई कवि भूल कर भी ये भूल करने वाला नहीं। मैं डरा भी, अगर सच्ची को कवि ही होगा तो दस कविताएं सुना कर ही छोड़ेगा। इतने दिनों से किसी को कविता सुनाई नहीं होगी। हो सकता है बेचारा कब्ज से परेशान हो। कुत्ते ने उसे देख भौंकना शुरु किया तो मैं समझ गया कि बंदा तो कोई न कोई है जरूर। मेरे मन का भूत होता तो कुत्ता तो कम से कम न भौंकता।
और वह पूरे का पूरा कवि मेरे बिलकुल सामने। ठीक वैसा ही जैसे वह पंच तत्व में विलीन ही न हुआ हो।
`क्यों राम आसरे भैया कैसे हो, मुहल्ले में सब कुशल तो हैं? घरवाली के चूल्हे पर तवा चढ़ा कि नहीं... किसी रचना-वचना का कोई मनीआर्डर वार्डर आया होगा, क्यों...
कवि ने पेट पकड़े हंसते हुए पूछा तो मेरी तो जैसे घिग्घी ही बंध गई।
`तुम!! तुम यार! तुम तो.....´
`दुनिया मरा करती है भैया! लेखक नहीं। मुहल्ले के बिना रहना मुश्किल-सा हो गया था सो सब छोड़ चला आ गया। ´
`पर आए कैसे, कहते हैं कि प्रेमिका के चंगुल से आदमी छूट कर आ सकता है पर यमराज के चंगुल से नहीं।´
`बस आ गया तो आ गया।´
कह उसने ऐसा ठहाका लगाया कि... पास वाले कब्रिस्तान के चार मुर्दे कब्र छोड़ बाहर आ गए।
`यमराज को पटा लिया भाई जान!´
`यमराज को !! यार यहां तो चालीस साल तक नौकरी की पर एक अदद साहब नहीं पटा और तुम हो कि .... बड़े घाघ निकले यार...´
` असल में यहां से जाते-जाते कविताओं की डायरी साथ ले गया था। सोचा था, वहां पर अगर श्रोता मिल गए और उन्होंने कविता सुनाने की मांग कर दी तो....
चलते-चलते यमराज ने मुझसे चुप्पी तोड़ते पूछा- क्या करते थे´
`हजूर कविता करता था।´ मैंने बीमारी से सिकुड़ा सीना चौड़ा करते कहा।
`ये कविता क्या होती है´ यमराज ने सहमते हुए पूछा।
` मन के अंग अंग को खिला देती है। सदियों की थकान को मिटा देती है। मरे हुए मन में भी जीने की इच्छा जगा देती है जनाब!´
`यार! युगों हो गए मुर्दे ढोते ढोते। बहुत थक गया हूं। विश्राम कर लेते हैं, कोई कविता साथ लाए हो तो सुना दो।`
`बस! यमराज के कहने भर की देर थी कि मैंने बगल में दबाई डायरी खोल डाली। एक कविता, दूसरी कविता, तीसरी कविता......´
`तो´
`तो क्या! पहली बार कोई विशुद्ध श्रोता मिला था। वरना आज तक टमाटर, जूते फेंकने वाले ही अधिक मिले। वे कविता सुनते सुनते बेहोश हो गए। पर मुझे लगा कि ज्यों वे कविता में लीन हों। मैं बिन रूके तीन दिन तक वहीं बैठे बैठे कविता सुनाता रहा। जब उन्हें होश आया तो वे चीखे...´
` कैसे´
`ठीक वैसे ही जैसे यहां के कवि सम्मेलनों में श्रोता आधे घंटे बाद ही चीखने लगते हैं। श्रोता चाहे स्वर्ग के हों या नरक के, सब एक जैसे ही होते हैं बंधु!´
`तो´
`तो क्या! यमराज ने अपने कानों में उंगलियां देते पूछा-कविता कब तक सुना सकते हो´
` जब तक लोक में टमाटर रहेंगे।´
`तो यार एक काम करता हूं। तुम अपने लोक वापस चले जाओ। जाओ मैं तुम्हें मृत्यु के बंधन से मुक्त करता हूं। मेरे लोक में आत्माओं को उनके कर्मों की सजा मिलती है, कवि की कविता की नहीं।´
` तो´
` तो क्या ! ये देखो! तुम्हारे सामने हूं। ये लो, दो चार कविताएं हर वक्त अपनी जेब में रखा करो, जिस तरह लू में बंदे को प्याज का गट्ठा लू से बचाता है उसी तरह कविता भी बंदे को हर ऋतु में मौत से बचाती हैं। वैसे भी आजकल वक्त बड़ा नाजुक चल रहा है। सुबह घर से निकलो तो शाम को घर लौटने की उम्मीद कम ही होती है। दोपहर को तुम्हारे घर आऊंगा, कविता करना सीखा दूंगा। फिर निर्भय जहां चाहे घूमना। कविता करना छोड़ दूं जो कोई तुम्हारा बाल भी बांका कर दे। भाभी घर में होगी न! हफ्ते से चाय नहीं पी। चाय के बिना जैसे पूरा बदन टूट रहा है। ´
कह उसने अपनी डायरी से तीन चार कविता वाले पेज फाड़ मुझे दे दिए। मैंने आव देखा न ताव, चुपचाप उसकी डायरी के वे पन्ने अपनी जेब में डाल लिए। कुत्ता यह सब देख हंसा तो मैंने उससे कहा,
`हंस क्यों रहा है, ले एक कविता तूं भी कहीं रख ले। कमेटी वाले आजकल कुत्तों के पीछे हाथ मुंह धोकर पड़े हैं।´
और उसने वह कविता चुपचाप अपने पट्टे में बंधवा चैन की लंबी सांस ली। अब पता चला कि बंदा लाख गरीबियों के बाद भी कैसे जी रहा था!
अशोक गौतम
गौतम निवास, अप्पर सेरी रोड
नजदीक मेन वाटर टैंक,सोलन-173212 हि.प्र.
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5 बैठकबाजों का कहना है :
Majedaar Vyang..
Par bhai itana jyada bhi thik nahi..Kuch achche kavi bhi hote hai jinaki kavita sunane ke liye khud log hi aatur rahate hai.
भाई बहुत ही मज़ेदार ब्यंग. आपकी बात पर एक दोस्त का सुनाया हुआ चुटकुला याद आया.
एक बात एक कवी महोदय लगातार यह कह रहे थे.
इस चिलमन से कभी मैं झान्कुं कभी तू झांके.
इस चिलमन से कभी मैं झान्कुं कभी तू झांके.
इस चिलमन से कभी मैं झान्कुं कभी तू झांके.
इस चिलमन से कभी मैं झान्कुं कभी तू झांके.
इस चिलमन से कभी मैं झान्कुं कभी तू झांके.
इस चिलमन से कभी मैं झान्कुं कभी तू झांके.
उन्होंने ऐसा जाने कितनी बार कहा. तभी एक श्रोता खडा हुआ और बोला
लगा दूँ आग चिलमन में न तू झांके न वो झांके.
there is a naughty kid in my neighbour. He is able to tell better jokes than you. I will try to send his own jokes which he tells to his friends of 9-10 years.
Hope Hind yugm can learn and improve
धारदार व्यंग्य के लिए कवि ही मिला .आलेख कुछ मीठा कुछ कड़वा लगा .बधाई .
मंजुजी,
आप कहाँ से हैं, बातैये ...
आप जैसे बनावटी पाठक बहुत कम मिलते हैं,,,
अपनी योग्यता बताइए,,,
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