Friday, August 14, 2009

मुंह में रखकर घास कहिए देश क्या आज़ाद है !!

आज़ादी की सालगिरह पर हम आपको चंद अलग-अलग अनुभव पेश कर रहे हैं.....हमें ये लेख चार अलग-अलग जगहों से मिले हैं..कहानियां अलग हैं, मगर सवाल वही...आज़ादी के 62 साल बाद का सच क्या सिर्फ वही है जो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह लालकिले से बयां कर गए.....क्या इन बेआवाज़ लेखों को सुनना ज़रूरी नहीं है....

घास खाए देसवा हमार....


दो-चार जानलेवा दुर्घटनाओं को छोड़ दीजिए तो रोज़ मेट्रो का एक और नया पिलर तैयार हो रहा है....देश तरक्की की राह पर है....राजधानी की रफ्तार दुगुनी-चौगुनी होने को है....राजधानी ही क्यों, उसके आसपास का एनसीआर भी कृतार्थ होगा.....दिल्ली में इतने फ्लाइओवर हैं कि मीलों की दूरी मिनटों में तय होती है.....एफएम पर बैक टू बैक तीन गाने सुनने में कट जाता है रास्ता.....और क्या चाहिए तरक्की के लिए....ये तस्वीरें विकास की परिभाषा गढ़ रही हैं....शहरों के विकास की परिभाषा....गांव आते-आते ये परिभाषाएं बदलने लगती हैं....न कोई मेट्रो, न फ्लाईओवर...न एफएम.....गांवों के नाम बदल दीजिए तक़दीर नहीं बदलती..तस्वीर भी नहीं......
पूर्वी उत्तर प्रदेश का नामी ज़िला चंदौली.....उत्तर प्रदेश में नक्सली आंदोलन की चर्चा हो तो सबसे पहले चंदौली का नाम आता है.....अभी कुछ दिन पहले सिपाही भर्ती के दौरान मची भगदड़ में कई जानें गईं...कई नौजवान मारे गए....पूरा शहर कर्फ्यूग्रस्त हो गया....उपद्रव मचाने वालों ने सारे सरकारी भवन आग के हवाले कर दिए....कोर्ट-कचहरी, पोस्ट-ऑफिस सब कुछ.....प्रशासन ने वहां के स्कूलों में ही कचहरी लगा दी....बड़ा सा स्कूल सिमट कर रह गया....छह कमरों में हज़ारों बच्चों का स्कूल और कई कमरों में पुलिस छावनी......पूरे स्कूल में एक ही शौचालय है.....बच्चियां शौचालय भी जाने से कतराती हैं...वहां अक्सर ख़ाकी के जवानों की भीड़ होती....ख़ैर.....
चंदौली से ही सटा है नौगढ़....नौगढ़ के पास का ही गांव है मझगवां....आदिवासियों की अच्छी-खासी तादाद बसती है यहां....कभी अपने हक़ की लड़ाई में बासमती कोल जैसी चूल्हा-चौका करने वाली महिलाओं ने बंदूक थाम ली थी......उत्तर प्रदेश का नक्सली इतिहास यहीं से शुरू होता है.....यहां पहुंचने के लिए आज भी कच्ची सड़क है....शाम होते-होते लोगों की आवाजाही एकदम बंद हो जाती है.....विकास योजनाओं की आवाजाही तो बरसों से बंद है......नरेगा जैसी योजनाएं यहां पहुची तो थी, मगर सिर्फ कागज़ पर.......मझगवां की कई औरतों के पास जॉब कार्ड है, मगर जॉब किसी के पास नहीं....सूखे का असर देखना हो तो इस गांव का रुख कभी भी किया जा सकता है....दूर-दूर तक खेत पसरे है.....मगर, खेती बिल्कुल नहीं हुई.....खेतों में चकबड़ और चकोड़ घास उगती है....जानवरों के खाने के काम आती है ये घास.....इस बार फसल नहीं हुई तो अनाज हुआ नहीं.....घरों में एकाध किलो चावल बचा है....पूरे सीज़न चलाना है यही चावल....तो, यहां के लोग एक टाइम खाते हैं.....थोड़े चावल में यही घास उबाल कर सानते हैं और खाते हैं....जानवरों का चारा आदमी खा रहे हैं....हर रोज़.....बच्चे भी यही घास खाकर बड़े हो रहे हैं.....पता नहीं कितना बड़े हो पाएंगे.....उनकी मांओं को टीबी हो गया है....बाप गांव के ही किसी कोने में ताश खेल रहे होते हैं......गांव के कोने में एक स्कूल भी है....स्कूल क्या है, एक खंडहर है.....दीवारों की झुर्रियां साफ दिखाई पड़ती हैं....बड़ा सा ताला लटका रहता है वहां पर......स्कूल के कोने में ही लोग ताश खेलते रहते हैं दिन भर....बच्चे कभी बस्ता लेकर जाते भी हैं तो ताश खेलना शुरू कर देते हैं....अच्छा लगता है उन्हें....फिर भूख लगती है तो घर लौट जाते हैं...मां कटोरी में घास सान कर दे देती है....बच्चे खा लेते हैं.....बासमती कोल को पता है इस गांव में सरकारी योजनाओं के नाम पर पांच लाख रुपया आता है....मगर, जाता कहां है, ये कोई नहीं जानता....पांच लाख रुपए में तो कायापलट हो जानी चाहिए थी....कुछ भी नहीं बदल रहा यहां पर.....बासमती अगली पीढ़ी के कंधे पर बंदूक के बजाय बस्ते थमाना चाहती है.....मगर, लटके ताले उसका मुंह भी लटका देते हैं.....ये आज़ादी के 62 साल बाद का सच है.....

--निखिल आनंद गिरि
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मनीष वंदेमातरम हिंदयुग्म के पुराने साथी हैं....उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल से उनकी भी चिट्ठी आई है.....लिखते हैं,
बेशक अब हम आज़ाद हैं। और जगहों का तो पता नही पर मेरे गाँव में ये आज़ादी ज़रूर दिखने लगी है। ६३ साल की आज़ादी अब धीरे-धीरे जवां हो रही है। मेरा गाँव गंगा किनारे है, वहाँ लगभग हर साल बाढ़ आती है। बचपन में इन दिनों मां-बाबूजी हमलोगो को नानी के घर भेज देते थे क्योकि सारा गाँव बाढ़ के दिनों में छोटा सा द्वीप बन जाता था। हमारे नज़दीकी कस्बे या मुख्य सड़क तक जाने के लिए एक ही विकल्प था नाव, वो भी एक थी। फिर बाढ़ के बाद संक्रमण और बीमारियां। अब 7-8 सालों से बाढ़ नहीं आती, मेरा गाँव चारों तरफ से सड़क से जुड़ गया है। सड़कों पर चलाने के लिए लोगों के पास महँगी गाड़िया हैं, बिजली है वो भी इतनी कि लोग अब दहेज में फ्रिज और टीवी मागंने लगे हैं।
सूचना क्रातिं ने भी गाँव में खूब पैर पसार लिया है। गाँव मे औसतन हर घर में मोबाइल है, डी टी एच, सेटेलाइट टीवी, एटीएम हैं। मेरे जिले मे हाल ही मे ३ जी सेवा शुरू की गयी है। लोग धीरे धीरे कंप्यूटर के उपयोग से परिचित हो रहे हैं। इंटरनेट का प्रसार बढ़ रहा है। कुछ युवा तो जमकर ब्लागिंग भी कर रहे हैं। ग्लैमर की चकाचौध भी गाँव मे घुस गयी है। अब आप सबके भदन पर फैशनेबल कपड़े और एस्सरीज देख सकते है। बच्चे गजनी कट और लड़कियां सानिया कट नथूनी से अंजान नहीं रहे। गाँव का भोलापन अब सयाना हो गया है।
शिक्षा का प्रसार तेजी से हो रहा है। महँगे महँगे कान्वेंट स्कूलों की बसें गाँव की सड़कों पर दौड़ रही है। गाँव वाले अब बच्चों को स्कूल भेजते समय बाय-बाय कहते है। लड़कियां घंटों साईकिल चलाकर स्कूल जाती हैं।
किसान अब पहले से संपन्न हो रहे हैं। उन्होंने हाइब्रिड बीजों का उपयोग सीख लिया है, और आधुनिक कृषि अभियांत्रिकी के लाभ भी समझ गये हैं। बाज़ार तक उनकी पहुंच आसान हो गयी है। प्रेमचंद अगर अब होते तो उन्हें होरी जैसा पात्र रचने में खासी मुश्किल होती।
गाँव अब बदल गया है। पर हम इस बदलाव की कीमत भी चुका रहे हैं। पहले गाँव के बारे में एक प्रसिद्ध कहावत थी कि गाँव में एक ही चूल्हे से सारे गाँव का चूल्हा जलता है। पर अब ऐसी बात नहीं रही। अब सबको अपने चूल्हे की ही पड़ी रहती है। पहले तीन चार पीढ़ियों तक एक ही घर के लोग प्रधान हुआ करते थे.... अब चुनाव होता है तो गाँव में अच्छे और सस्ते शार्पशूटर मिल जाते हैं
मुझे रंग दे बसंती का एक डायलाग याद आता है.....कोई भी देश परफेक्ट नहीं होता उसे परफेक्ट बनाना पड़ता है।
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गरीब आदिवासियों के लिए लड़ रही एक जाबांज और दिलेर साथी हैं शमीम मोदी... मध्य प्रदेश में काम कर रहे सगंठन श्रमिक आदिवासिक संगठन के माध्यम से लगातार कई वर्षो से अपने को खपा चुकी शमीम को जान से मरने की धमकी कई बार दी जा चुकी है, क्योकि उनका संघर्ष उन चंद लोगो के काम और रोजगार के रास्तों में रूकावटें पैदा करता रहता है. तमाम परेशानियों के बाद भी शमीम का संघर्ष जारी है....इधर शमीम पर पिछली २३ जुलाई को एक जानलेवा हमला हुआ और वो जिन्दगी और मौत की कश्मकश में घिर गयी.... पर, खुदा का शुक्र है कि अब वो खतरे से बाहर हैं. पर सबसे चौंकाने वाली भूमिका मीडिया की रही, आम लोगो की लडाई को अपना बनाने वाली
इस जाबांज साथी को किसी अख़बार के दो पन्ने भी नसीब नहीं हुए. कुछेक को छोड़कर आखिर हमारी प्राथमिकताएं क्या हैं, पड़ताल जरुरी है
(ये चिट्ठी टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस, मुंबई से छात्र नवीन दामले ने भेजी है)
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आज़ादी आजकल : तीन तस्वीरें

सीन 1
तारीख 12 अगस्त.... ऑफिस से निकलने की आपा-धापी थी... बाहर बहुत तेज़ धूप थी, लेकिन हड़बड़ाहट में गर्मी को कोई फिक्र ही नहीं थी। शाम 4.40 का शो था... फिल्म थी लव आजकल... मंदी के इस दौर में एक दोस्त ने फिल्म दिखाने का ऑफ़र किया था, इसलिए दिल्ली के लंबे जाम से जूझते हुए लक्ष्मीनगर के वी-3एस पहुचने की आपाधापी मची थी। सिनेमा पहुंचकर फटाफट टिकट लिया, और घुस गये हॉल में... लेकिन ये क्या... पूरा हॉल खाली पड़ा था...हमें लगा कि शायद हम गलत हॉल में आ गये... लेकिन थोड़ी देर में कुछ और लोगों ने भी एंट्री की... हॉल में सीट पर हम दोनों दोस्त लंबे पसर गये। थकावट बहुत ज्यादा थी और फिल्म शुरु होने में भी अभी दस मिनट का वक्त था... धीरे-धीरे लोग हॉल में आ रहे थे। बड़े परदे पर बोरिंड एड चल रहे थे, लेकिन मुझे थकावट की वजह से हल्की सी झपकी आ रही थी.. ऐसे वक्त में घड़ी भी शायद रुक-रुककर चलती है... लव आजकल का इंतज़ार और लंबा होता जा रहा था... मैंने फोन स्विच ऑफ़ किया.. दोस्त को बोला कि फिल्म शुरु हो जाए, तो जगा देना.. वैसे भी हॉल में तब तक तीस-चालीस लोग ही पहुंचे होंगे... अचानक ऐसा लगा जैसे जिस्म के रोंगटे खड़े हो गये... कानों में जो आवाज़ सुनाई पड़ी, उसने मन को झकझोर कर रख दिया... जन-गण-मन की मधुर आवाज़ सुनाई पड़ते ही पूरा हॉल एक साथ खड़ा हो गया... 52 सेकेंड के एक छोटे से लम्हें में ऐसा लगा जैसे सारी दुनिया सिमट आई हो। आंखो के सामने एक उभरता हुआ हिंदुस्तान था.. पंजाब-सिंधु-गुजरात मराठा से लेकर अखंड हिंदुस्तान आंखों के सामने नाच रहा था.. दिल जोश से भर उठा... खून रगों में और भी तेज़ी के साथ दौड़ने लगा। एक बार को इस बात का एहसास ही नहीं हुआ कि मैं सिनेमाहाल में हूं.. ऐसा लगा, जैसे लालकिले की प्राचीर से सारा मुल्क एक आवाज़ में पुकार रहा है, जन गण मन अधिनायक जय है...


अब ज़रा दूसरी तस्वीर देखिए...

तारीख 13 अगस्त... राजधानी दिल्ली की सड़कों पर बच्चे पंद्रह अगस्त की ड्रेस में सजे-धजे नज़र आ रहे है... इस बार 14 अगस्त को जन्माष्टमी है, इसलिए स्कूलों ने दो दिन पहले ही पंद्रह अगस्त मना ली... ये उस राजधानी में होता है, जहां लालकिले की प्राचीर से सारे हिंदुस्तान को आज़ाद होने का एहसास कराया जाता है... लेकिन यहां के बच्चे इतने खुशनसीब कहां, जो पंद्रह अगस्त को ही अपने मुल्क में आज़ादी की सांस ले सकें। लेकिन ये बात आज तक समझ से परे है, कि दिल्ली के स्कूलों में पंद्रह अगस्त और 26 जनवरी वक्त से पहले ही क्यों मना ली जाती है.. शायद ऐसा नेताजी की सुरक्षा के लिहाज़ से किया जाता होगा... लालकिले तक जाने वाले तमाम रास्ते बंद कर दिये जाते हैं... जिसको जाना है, वो पैदल जाओ... वरना आज़ादी के दिन पिकनिक मनाओ... नेताओं की हिफाज़त के लिए बच्चों से उनके एहसास छीन लिये जाते हैं। वो एक दिन पहले ही अपने मुल्क में पाकिस्तान की आज़ादी का जश्न मनाते हैं... सब जानते हैं कि पाकिस्तान हमसे एक दिन पहले ही 14 अगस्त को आज़ाद हुआ था।

आखिरी तस्वीर

14 अगस्त की सुबह.. दिल्ली में हल्की बारिश हो रही थी... सड़कें भीगी हुई थीं... घर से दफ्तर तक कम से कम पांच रेडलाइट पड़ती है... गाज़ीपुर पर लालबत्ती होती है... गाड़ियां ठहर जाती हैं.. आजकल इस साइट पर ओवरब्रिज बनने का काम चल रहा है.. लालबत्ती भी दस मिनट से कम नहीं होती... अचानक कुछ बच्चे जिनके जिस्म पर कपड़े भी ढंग से नहीं थे.. झंडे बेच रहे थे.. एक बच्चा मेरे पास आता है... भईया.. ले लो न... एक ले..लो.. पांच रुपये का है... उसकी आंखो में बेचने की बेकरारी थी.. उसे देखते ही दूसरे बच्चों ने भी मुझे घेर लिया... हर कोई कह रहा था.. भईया एक ले.. लो न.. कल पंद्रह अगस्त है... मुझे बड़ा गर्व हुआ ये जानकर.. कि अरे इन छोटे बच्चों को भी पता है.. कि कल पंद्रह अगस्त है... मैंने झट से दस रुपये निकाले.. और दो झंडे खरीद लिये.. एक बाइक पर लगाया और एक घर में लगाने के लिए रख लिया... तभी ग्रीन लाइट हो जाती है... मैंने भी गाड़ी स्टार्ट की.. और दफ्तर को चल दिया... अगली रेडलाइट यूपी बाईपास पर होती है... इस बार भी तिरंगे दिख रहे थे... लेकिन वो तिरंगे पैरों तले रौंदे जा रहे थे.. और गाड़ियां फुर्र से उनके ऊपर से निकल रही थीं...

(ये लेख अबयज़ खान ने भेजा है. इस लेख की तस्वीर मंजू गुप्ता जी ने मुंबई से भेजी है...)

(आज़ादी पर आप भी अपने विचारों के साथ शरीक हो सकते हैं....)

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)

16 बैठकबाजों का कहना है :

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) का कहना है कि -

क्या हुआ जो मुहँ में घास है
अरे कम-से-कम देश तो आजाद है.....!!
क्या हुआ जो चोरों के सर पर ताज है
अरे कम-से-कम देश तो आजाद है.....!!
क्या हुआ जो गरीबों के हिस्से में कोढ़ ओर खाज है
अरे कम-से-कम देश तो आजाद है.....!!
क्या हुआ जो अब हमें देशद्रोहियों पर नाज है
अरे कम-से-कम देश तो आजाद है.....!!
क्या हुआ जो सोने के दामों में बिक रहा अनाज है
अरे कम-से-कम देश तो आजाद है.....!!
क्या हुआ जो आधे देश में आतंकवादियों का राज है
अरे कम-से-कम देश तो आजाद है.....!!
क्या जो कदम-कदम पे स्त्री की लुट रही लाज है
अरे कम-से-कम देश तो आजाद है.....!!
क्या हुआ जो हर आम आदमी हो रहा बर्बाद है
अरे कम-से-कम देश तो आजाद है.....!!
क्या हुआ जो हर शासन से सारी जनता नाराज है
अरे कम-से-कम देश तो आजाद है.....!!
क्या हुआ जो देश के अंजाम का बहुत बुरा आगाज है
अरे कम-से-कम देश तो आजाद है.....!!
इस लोकतंत्र में हर तरफ से आ रही गालियों की आवाज़ है
बस इसी तरह से मेरा यह देश आजाद है....!!!!

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) का कहना है कि -

kyaa main aapki baithak men apna bayaan de saktaa hun..???

Sajeev का कहना है कि -

हूँ ..आज बैठक सार्थक लग रही है...

सलाम ज़िन्दगी का कहना है कि -

आजादी की 62वीं सालगिरह पर देश की ये स्थति रोंगटे खड़े कर देने वाली हैं...पढ़कर दुष्यंत कुमार जी का एक शेर याद आ गया...
"कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है"।
सुधी सिद्धार्थ

सलाम ज़िन्दगी का कहना है कि -

दुष्यंत कुमार जी की पूरी कविता कुछ इस प्रकार है...

एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है
आज शायर यह तमाशा देखकर हैरान है

ख़ास सड़कें बंद हैं तब से मरम्मत के लिए
यह हमारे वक़्त की सबसे सही पहचान है

एक बूढ़ा आदमी है मुल्क़ में या यों कहो—
इस अँधेरी कोठरी में एक रौशनदान है

मस्लहत—आमेज़ होते हैं सियासत के क़दम
तू न समझेगा सियासत, तू अभी नादान है

इस क़दर पाबन्दी—ए—मज़हब कि सदक़े आपके
जब से आज़ादी मिली है मुल्क़ में रमज़ान है


कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए

मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है

मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूं
हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है

संपादक का कहना है कि -

भूतनाथ जी,
आपके बयानों का स्वागत है....
टिप्पणी के बक्से में सीधा अपनी बात रख सकत है या फिर baithak.hindyugm@gmail.com पर भेजिए.....

Manju Gupta का कहना है कि -

आज की चिट्ठियां बहुत ही सार्थक लगी .आज के नये बढ़ते भारत के दो रूप हैं. एक जहाँ भारत ने आधुनिक तकनीक युक्त हल्का हवाई जहाज हवा में दुश्मनों को मरने के लिए बनाया है इस तरह का जहाज संसार में नहीं है .इस तकनीक में भारत नंबर १ की श्रेणी में आ गया है वहीं आज के भारत में भ्रष्टाचारी ,बेईमान. झूठे ,कला बाजारी के ,लोग ,नेता हो तो ऐसे में गरीबी ,भूखमरी बेरोजगारी तो रहेगी . आजादी पर पेट भरने के लिए बच्चे झंडे को बेच रहे हैं .फोटो मैं प्रेषित कर रही हूं .पर्व की बधाई .

ritu raj का कहना है कि -

उजाले खुद से खफ़ा हो गये
गुलशन से हर फूल जुदा हो गये
मज़हबी आड में जिसने उजाडी बस्तियां
वो सब आजकल खुदा हो गये
...हम सबको बाहर देखने की आदत हो गई है. मैं यह नहीं कहता समस्या नहीं है, लेकिन अगर हमें यह समझ है कि क्या हो रहा है और क्या होना चहिये. तो सच बताइए हम कुछ कर रहे है क्या? मैं तो नहीं कर रहा हूं. लेकिन हां मैं साथ हूं.

manu का कहना है कि -

भूतनाथ जी..
दो कमेन्ट दे कर भी पूछ रहे हैं जी आप....
:)
देश आजाद है डीयर ....जो बोलो जहां बोलो बिंदास बोलो....वो बात और के ...

..छह कमरों में हज़ारों बच्चों का स्कूल और कई कमरों में पुलिस छावनी......पूरे स्कूल में एक ही शौचालय है.....बच्चियां शौचालय भी जाने से कतराती हैं...वहां अक्सर ख़ाकी के जवानों की भीड़ होती....ख़ैर.....


सब लोग पता नहीं कब एक जैसी जिन्दगी जियेंगे...?

Mohd. Nasim का कहना है कि -

आज़ादी के 63वें सालगिरह पर लाल किला के प्राचीर से मनमोहन सिंह ने आहवाहन किया है कि देश को फिर से हरित क्रांति की जरूरत है... मैं उनसे ये आग्रह करूंगा कि बैठक पर का ये लेख जरुर पढ़ें... क्रांति घास खा कर नहीं लाई जा सकती... आज भी कई ऐसे गांव है जहां लोग पीने के पानी के लिए तरस रहें हैं या पेट भरने के लिए घास खाने को मजबूर हैं ...


बैठक का ये लेख आज के हिनदुस्तान की सच्ची तस्वीर ब्यान करता है...

ध्नयवाद ...

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" का कहना है कि -

कितना वीभत्स रूप है ये इस आजाद भारत का!!

Disha का कहना है कि -

bahut hi badhiya sangrah hai
logon ko sochane par mjboor karta hai ki aap sab kuch hokar bhi kamiyon ka rona rote ho log aise hai jinhe kuch bhi nahi milta

Disha का कहना है कि -

bahut hi badhiya sangrah hai
logon ko sochane par mjboor karta hai ki aap sab kuch hokar bhi kamiyon ka rona rote ho log aise hai jinhe kuch bhi nahi milta

hardik mehta का कहना है कि -

bahut khub. "vivid description".

maine azaad is baar sangeet mei beeta di nikhil. raat bhar tanmay ke saath guitar bajaya aur gaaya "saare jahaan se achcha".... lekin tumhara lekh padh ke - is achche jahaan ka ek alag dimension dekha. Varna yahaan mumbai mei bhi wahi same visuals dekhne milte hain.

flyover, metro, Cars, FM etc...

fark yehi hai - tab DTC mei thhe aaj BEST mei safar karte hain... :)

Shamikh Faraz का कहना है कि -

एक शे'र याद आया.

देखता है आला को क्यों
अदना को देखे तो खुशहाल रहे.

आलोक साहिल का कहना है कि -

uffffffff..........
fir bhi ham aazad hain..........
ALOK SINGH "SAHIL"

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