संपादक

हां ये ज़रूर हो सकता है कि शायद उन्होंने ये नहीं सोचा होगा कि जिस पार्टी की उन्होंने तीस साल तक सेवा की वो इतनी बेरुखी से, बगैर उनका पक्ष जाने, महज़ एक फोन काल पर रिश्तों के सारे तार काट देगी। किताब के विमोचन (जिसमें भाजपा का कोई नेता शामिल नहीं था) के बाद से ही भाजपा और कांग्रेस की नाराज़गी किसी से छुपी नहीं है। उत्तर प्रदेश के एक कांग्रेसी नेता ने तो जल्दी से एक किताब खरीद कर टीवी कैमरे के सामने उसे जला कर अपनी पार्टी के आग-बबूला होने का मंचन कर दिया था।
कुल मिलाकर एक पक्ष रह गया है और वो है देश का मुसलमान। पता नहीं आम मुसलमान इसे कैसे देख रहा है लेकिन बरेली के एक पढ़े लिखे निवासी महमूद भाई ने विचारों को कहीं दूसरी तरफ़ ही मोड़ दिया। कहने लगे “जसवंत सिंह के साथ वही हुआ जो जिन्ना के साथ हुआ था... भई जिन्ना को भी उस वक्त पार्टी से तकरीबन बेदख़ल कर दिया गया था... जिन्ना लिबरल आदमी थे और नाराज होकर कम्यूनल पार्टी में चले गये। ये कम्यूनल पार्टी के आदमी हैं... ये सेक्यूलरिज्म में आ जायेंगे...।”
हालांकि आदमी विचारों से कभी बूढ़ा नहीं होता शायद इसीलिये जसवंत सिंह भी कह रहे हैं कि उनका राजनैतिक जीवन अभी समाप्त नहीं हुआ है लेकिन सत्तर पार कर लेने के बाद उनमें कितनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा बची है ये अंदाज़ा लगाना कोई मुश्किल काम नहीं है, और इसी बुनियाद पर कहा जा सकता है कि उनका पार्टी से निष्कासन कोई ख़ास मायने नहीं रखता। जो चीज़ मायने रखती है वो ये कि क्या पार्टी से जुड़ने के बाद व्यक्ति की सोच भी गुलाम हो जाती है? पार्टी अनुशासन और सेना अनुशासन में क्या कोई फ़र्क़ नहीं है? जसवंत जी के अफ़ीम प्रदर्शन को क़ानून की आंखों से बचा लिया जाता है लेकिन तथ्य प्रदर्शन की ये सज़ा दी जाती है।
बहरहाल जो भी हो इस किताब के आ जाने से सबसे ज्यादा हालत खराब है उन मौलवी हज़रात की जो कांग्रेस की चाटुकारिता में भाजपा को खरी खोटी सुनाते हैं और भाजपा के निवाले तोड़ते हुए कांग्रेस को मुसलमानों का दुश्मन बताते हैं, और इस बीच अपनी दुकान चलाते हैं। आज़ाद भारत में मुसलमानों की राजनैतिक समझ की शुरूआत ही विभाजन की सियासत से शुरू होती है और अब इस किताब के बाद उन्हें दिखाई दे रहा है कि दोनों पार्टियां तो इस विषय पर एक हो गई हैं, अब क्या किया जाए? रमजान के महीने में सियासी इफ़्तार पार्टियों में बातचीत का रुख क्या होगा इसका अनुमान सहज लगाया जा सकता है।
सच पूछिये तो जिन्ना किसी के हीरो नहीं हो सकते, न जमाते-इस्लामी के, न संघ के, न कांग्रेस के। पाकिस्तान के अंदर एक बहुत बड़ा तबक़ा उन्हें विलेन के रूप में देखता है। विदेशी सूट पहनने वाले जिन्ना, अंग्रेजी औरतों के साथ सैर-सपाटे करते जिन्ना, सिगार के कश लगाते जिन्ना, व्हिसकी से परहेज़ न करने वाले जिन्ना, सिर्फ ख़ुद को और अपने टाइप राइटर को “पाकिस्तान” बनाने का श्रेय देने वाले जिन्ना पाकिस्तान बनने के बाद पाकिस्तानियों से ये कहते हैं कि - अब पाकिस्तान बन गया अब आप गाइये बजाइये, खाइये पकाइये, मस्जिद जाइये, मंदिर जाइये, गिरजा जाइये तो कई दाढ़ियां नाराज होकर उनसे कहती हैं कि वाह! ये अच्छी कही आपने... इस्लाम के नाम पर मुल्क बनाया और अब ये कह रहे हैं कि मंदिर जाइये गिरजा जाइये...। असल बात तो ये है कि जिन्ना के सेक्यूलर बनते ही कई चेहरों का मुखौटा खुद-ब-खुद पिघलने लगता है।
लेकिन सवाल न जिन्ना का है, न जसवंत सिंह का है, सवाल है किताब लिखने की आज़ादी का। 1989 में सेनेटिक वर्सेस ने जो आग लगाई थी उसकी आंच में तपते हुए एक मौलाना साहब के पास मैं बेठा था। मौलाना अपने अनुयाइयों के बीच रश्दी पर लगे मौत के फ़रमान पर अपनी सहमति दर्ज कर रहे थे। मैं जानता था कि मौलाना ने किताब नहीं पढ़ी है, उनकी अंग्रेजी कमज़ोर है और अनुवाद बाजार में अभी आया नहीं है। मैंने सबके बीच उनसे सीधा सवाल कर डाला- मौलाना आपने किताब पढ़ी…? वो सकपकाये फिर संभलते हुए बोले ऐसी गंदी किताब मैं पढ़ भी कैसे सकता हूं...। मौलाना का दर्द मैं समझ सकता था, ईमान की रस्सी पर आस्था का बैलेंस रॉड लिये दूसरे किनारे तक पहुंचने को मजबूर लोग इधर-उधर देखने का ख़तरा मोल नहीं लेते क्योंकि हल्की सी डगमगाहट आसमान से जमीन पर ले आती है, चोट अलग लगती है। हां जो विचारों की स्वत्रंता की अहमियत को समझते हैं वो खिलाफ विचारधाराओं का स्वागत भी तहे दिल से करते हैं।
1990 में पाकिस्तान में एक फिल्म बनी “इंटरनैशनल गुरिल्ले” जान मुहम्मद निर्देशित इस फिल्म में रूसी फौजों के खिलाफ, इस्लाम की हिफ़ाज़त के लिए कुछ तालिबानी किरदार लड़ाई के लिये निकल पड़ते हैं। लेकिन तब तक रश्दी इस्लाम के सबसे बड़े दुश्मन के रूप में उभारे जा चुके थे, इसलिये फ़िल्म की कहानी का विलेन उन्हें बना दिया गया। फिल्म में ये रोल अफजाल अहमद ने निभाया। फिल्म पाकिस्तान के सरहदी इलाकों में जबरदस्त हिट रही लेकिन इत्तेफाक़ से यही पहली पाकिस्तानी फिल्म थी जिसके वीडियो ब्रिटेन में बैन कर दिये गये थे। और हुस्ने-इत्तेफ़ाक़ देखिये कि खुद सलमान रश्दी ने ब्रिटिश सेंसर बोर्ड से अनुरोध करके उसपर लगी रोक को हटवाया था।
सलमान रश्दी अपने खिलाफ उपजे रोष का स्वागत करने के लिये ज़िंदा थे सो ऐसा हो गया। मगर सरदार पटेल और नेहरू अब हमारे बीच नहीं हैं तो कौन है जो कहे कि सहमति और असहमति से परे, जसवंत जी ने जो लिखा वो स्वागत योग्य है। इतिहास के विद्यार्थी जब किसी काल-खंड में पीछे जाकर वापिस लौटते हैं तो हर बार हर कोई उनसे एक अनुरोध ज़रूर करता है कि “पुन: आगमन प्रार्थनीय है...।”
नाज़िम नक़वी
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13 बैठकबाजों का कहना है :
"कॉट संघ बोल्ड जिन्ना" - क्या आप इस शीर्षक को हिन्दी में और बेहतर ढ़ंग से नहीं लिख सकते थे? इसमें भी "कॉट" की वर्तनी किसी भी तरह से ठीक नहीं कही जा सकती। 'कांट', 'काण्ट', 'कान्ट' आदि अधिक सही हैं।
वैसे आपके विचार सही लगे।
Ab Bhajapa Wo purani wali nahi rahi jab atal bihari baajpeyi the..
matbhed aa gaye hai..bahut parti me..
by the plight of BJP people like Nazimnakvi must be happy....,,,,,,
people are considering BJP as anti muslim party....,,,,
hindi yugm is paid by local congress leaders.....
at the time of election there wree no of congress leader compaign on hindi yugm,,,,,,,
भा ज पा में जिन लोगों को समझदार बता कर समझदार वर्ग से वोट मांगे जाते थे, वे सब एक-एक करके अलग हो रहे हैं. सच पूछिए तो ये पार्टी अब तक सिर्फ एक ही नाम के दम पर चल रही थी - अटल बिहारी वाजपेयी, उनके जाने के साथ ही पार्टी से सोच-समझ भी चली गई, अब वहां सिर्फ हुडदंग और हुडदंगी ही बचे हैं.
अद्भुतआलेख समायिक है .जिन्ना के भूत ने भारतीय जसवंत पार्टी के चर्चे सारे जहान में कर दिए हैं .जितनी आलोचना वह उतना बडा लेखक बन जाता है .संविधान ने लिखने -बोलने की आजादी दी है .
बढ़िया लेख....'इंटरनेशनल गुरिल्ले' की जानकारी मुझे नहीं थी....रोचक भी लगी....मझे लगता है कि चुनाव में हार के जितने लोग ज़िम्मेदार थे, सब एक-एक कर निकलेंगे.......खुन्नस में अनाप-शनाप बोल रहे हैं, लिख रहे हैं...कुर्सी का लोभ और बिछोह आदमी को क्या से क्या बना देता है, बीजेपी इसकी जीती-जागती मिसाल है.....संघ ने भी अब तो भाजपा को अपने हाल पर छोड़ दिया.....
ये सब कुछ अटल आडवाणी युग से निकलने की क़वायद है..ज़रूरी भी है भाजपा के लिए...बड़े ऑपरेशन का दर्द भी बड़ा होता है...घाव भरने का वक्त भी बड़ा होता है..बेहतर तो ये होता कि भाजपा या कांग्रेस ...देश के भविष्य के बारे में सोचें..मुर्दों को कब्रों से बाहर निकालने पर कुछ नहीं दुर्गंध ही फैलेगी...
सबसे पहले तो कार्टून की तारीफ करना चाहूँगा.
जिन्ना का भूत रह रहकर बीजेपी को परेशान करता है. यह कोई पहला मौक़ा नहीं है बल्कि इससे पहले अडवाणी जी के साथ भी यही हुआ था.
मुझे तो बीजेपी पर एक न्यूज़ चैनल की रिपोर्ट में दिहाया गया गाना याद आ रहा है .
ना उमंग है ना तरंग है
मेरी ज़िंदगी है क्या
एक कटी पतंग है.
इससे बुरा और कुछ नहीं हो सकताहै भाजपा क्के लिये..लेकिन ये बहुत जरूरी भी था... मुझे लगता है कि जितना होना था हो चुका अब अच्छा ही होगा..और देश को भी दो पार्टियाँ तो चाहिये हीं...उसके लिये जरूरी है भाजपा के दोबारा उठना..
gud article
but I am screwed
diffn peaople diffn comments
I am really screwed
so better get off and fuck politicians
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