Thursday, August 27, 2009

दाल-सब्जी के दर्शन दुर्लभ हैं यमराज !

कल एक बार फिर महंगाई का सताया खाली झोला थके कांधे पर डाले मुंह लटकाए बाजार से घर न चाहते हुए भी आ रहा था कि सामने वाले मोड़ पर पौराणिक भैंसे पर से उतर गिरते मकान के छज्जे के नीचे खड़े हो यमराज इधर-उधर कुछ देख रहे थे। उनका भैंसा वहीं पास खड़ा चर रहा था या कि विचर रहा था। उसके गले में मेड इन चाइना का सीडी प्लेयर जोश के साथ हनुमान चालीसा उगल रहा था....सब सुख लहे तुम्हारी सरना, तुम रच्छक काहू को डरना। आपन तेज सम्हारो आपै, तीनो लोक हांक ते कांपे। भूत पिसाच निकट नहीं आवै, महावीर जब नाम सुनावै... पवन तनय संकट हरन मंगल मूरति रूप। राम लखन सीता सहित हृदय बसहु सुर भूप....
पता नहीं क्यों मैं एकाएक उनकी ओर खिचा चला गया। मुझे उस वक्त न कोई डर न कोई विडर। महंगाई से बड़ा कोई और यमराज होता है क्या! भूख से भी बड़ा कोई और यमराज होता है भाई साहब... क्या भ्रष्टाचार से भी बढ़कर और कोई यमराज होता होगा भाई साहब... क्या बेरोजगारी से बढ़कर भी कोई यमराज होता है क्या! मुस्कराता उनके निकट पहुंचा तो वे डरे-डरे से, सहमे से। मुंह पर कपड़ा बांधे हुए। हद है महाराज! जिनकी वजह से यमराज के पद पर सुशोभित हो उन्हीं की सड़ांध से मुंह पर कपड़ा! देखो यमराज! अगर हम न हों तो आपको भी पूछने वाला यहां कोई न हो। फिर घूमते रहो जितना मन करे भैंसे पर बैठ कर, जहां मन करे। हम हैं, तो आप हैं। आपकी रोजी-रोटी का आधार हम ही तो हैं ,चाहे जैसे भी हों। अब ये शरीर है ही जब सड़ांध का तो क्या करें! जितना हो सकता है पचासियों अभावों के बीच भी इसे बनाकर रखते हैं। मुझे बहुत गुस्सा आ गया। वैसे भी आजकल हम जैसों के पास मंदी के दौर में आसमान छूते गुस्से के सिवाय और कुछ है भी नहीं।

` ये मुंह पर कपड़ा क्यों बांध रखा है हजूर, क्या मौत से आपको भी डर लगने लगा है´ मैंने कहा तो उन्होंने मुंह पर बंधे कपड़े के बीच में से ही बुदबुदाते कहा,` स्वाइन फ्लू यार, प्रीकाशन ले रहा हूं।´

` आपने लाल किले से प्रधान मंत्री को नहीं सुना क्या´

` क्या कहा उन्होंने´

`कहा कि स्वाइन फ्लू से डरने की जरूरत नहीं। पर हम भी अब डरते भी कहां है महाराज! अब आप ही कहो, जिस देश में चारों ओर डर ही डर हो, उस देश में आकर किस किससे डरें अगर ऐसे ही डरते रहे फिर तो जी लिए महाराज! और एक आप हो कि अजर अमर होने के बाद भी स्वाइन फ्लू से इतना डर! जो होना है वह तो होकर ही रहेगा। इसलिए छोड़ो ये प्रीकाशन- प्रूकुशन। यहां तो जितने प्रीकाशन लिए उतने ही फंसे।
´ मैंने परिवार के पालन-पोषण की मार से टूटी कमर पर जरा हाथ रख तनिक सीधा हो कहा।

`तो´

`तो क्या! चलो सामने वाले ढाबे पर चाय पिलाता हूं। मंदी के दौर में अतिथि की इतनी ही सेवा कर सकता हूं। कहां जा रहे हो'

` तुम्हारे मुहल्ले के उस आखिरी ईमानदार को ले जाने आया था। बेचारा अब परेशान बहुत हो रहा है न! पर यार यहां तो...´

`डॉन्ट बी पैनिक महाराज! टेक इट इजी। ये इंडिया है। यहां तो कुछ न कुछ रोज ही चलता रहता है, कभी स्वाइन फ्लू तो कभी वाइन फ्लू तो कभी राइम फ्लू।´


`पर सरकार ने तो कहा है कि किसी सार्वजनिक स्थान पर... घर ले चलते तो वहीं बैठकर

` सॉरी! घर तो मैं आपको किसी भी कीमत पर नहीं ले जा सकता। महीनों से घर में चीनी खत्म है और अब कोई पड़ोसी ऐसा नहीं बचा है जिससे चीनी उधार न ले चुके हों। अब तो मैं सबकुछ छोड़ कई दिनों से आपकी बाट जोह रहा था, आपकी कसम! सच कहूं महाराज, अब तो महंगाई सिर से ऊपर हो गई है। लाला बाजार में दाल को दखने के भी दाम लेने लगा है। बिन पैसे वह दाल को हाथ भी नहीं लगाने देता। सब्जियों के दर्शन किए बिना महीनो हो गए हैं। सच कहूं भगवन! आप के दर्शन करना अब आसान हो गया है पर दाल सब्जियों के दर्शन अब बड़े भाग्यशाली को ही इस देश में नसीब हो रहे हैं। जिसके घर में शाम को दाल सब्जी पक जाए वह अपने को देश का सबसे खुशनसीब मान रहा है। मैं तो जैसे कैसे रोज, बाजार जाकर ही सही दाल सब्जियों के दर्शन कर आता हूं पर पत्नी को घर में बैठे महीनों हो गए दाल सब्जियों के दर्शन किए बिना। कल तो वह सारी लोक-लाज त्याग बिगड़ ही पड़ी,` देखो अगर तुम घर में दाल सब्जी नहीं ला सकते तो कम से कम बाजार ले जाकर मुझे उनके दर्शन ही करा दो तो मैं कुशल गृहणी होने का गर्व तो अनुभव कर सकूं। अगर तुम ये भी नहीं कर सकते तो मैं चली मायके।´ पर महाराज मैंने उसे बाजार ले जाने का वचन नहीं दिया तो नहीं दिया। सोचा, मायके ही चली जाए तो भला। इस बहाने इसके पीछे पीछे ससुराल जा वहां पर दाल सब्जी तो खा आऊंगा। मुझे पता है उनकी भी इतनी हिम्मत नहीं , पर घर में आए दामाद को वे अपनी झूठी हैसियत बताने की कोशिश करेंगे और मैं दाल सब्जी खा अमरत्व को प्राप्त हो जाऊंगा।´

`डॉन्ट बी पैनिक! टेक इट इजी।´
कह उन्होंने मेरी पीठ थपथपाई, भैंसे के गले में बंधे इंपोर्टेड सीडी प्लेयर का वाल्यूम और भी ऊंचा कर मुहल्ले की ओर हो लिए।

डॉ. अशोक गौतम


गौतम निवास,अप्पर सेरी रोड, नजदीक मेन वाटर टैंक
सोलन-173212 हि.प्र.

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4 बैठकबाजों का कहना है :

विनोद कुमार पांडेय का कहना है कि -

सच कहा आपने..भाव देख कर तो ऐसा ही लगता है...

Manju Gupta का कहना है कि -

लाजवाब आलेख बहुत ही अच्छा अंग्रेजी मिक्स हिंदी में तडके वाला हास्य व्यंग्य लगा .
बधाई .

Shamikh Faraz का कहना है कि -

मैं तो पढ़ते ही समझ गया थे की ऐसा व्यंग तो बस अशोक जी का ही हो सकता है. बहुत ही बढ़िया. खासतौर पर भाषा का प्रयोग बहुत अच्छा है.

Shamikh Faraz का कहना है कि -

aapko 1 link de raha hun. yaha par vyang likhne par 1 competition ho raha hai. dekhe

www.rachanakar.blogspot.com

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