क्या एक ही जुर्म के लिए किसी इंसान को २ बार सजा हो सकती है? इसी सवाल के साथ शुरू होती है बी आर चोपडा की फिल्म 'कानून' |
घटनाक्रम कुछ यूँ होता है कि कालिया (जीवन) किसी आदमी का क़त्ल कर देता है और पकडा जाता है | अदालत में पेश होने पर पता चलता है कि कालिया इसी आदमी के क़त्ल के जुर्म में २० साल की सजा काट चुका है | बस, आपका दिल यहीं दहल जाता है ये सोचकर कि कैसा अहसास होगा वो जब आदमी भगवान की दी हुई ज़िन्दगी पूरी की पूरी बिना वजह जेल में काट दे |
कालिया जज से सवाल करता है कि कानून को किसी इंसान से वो चीज़ छीन लेने का क्या हक है जिसे वो वापस नहीं कर सकता ? अद्भुत फिल्म और अद्भुत अभिनय दादा मुनि का |
बी आर चोपडा सदा से सामाजिक सन्देश देने वाली फिल्में बनाते रहे हैं | इस फिल्म में एक बेहद संवेदनशील और अहम् मुद्दा उठाया गया था जो इतने साल गुज़र जाने के बाद, आज भी मौजूं है | सवाल यह है कि क्या कानून को उन गवाहों की गवाही के आधार पर एक इंसान की कीमती ज़िन्दगी छीन लेने का हक है, जो थोड़े से लालच से बहक सकते हैं या जिनसे देखने सुनने में गलती होने की पूरी संभावना है | मनुष्य गलतियों का पुतला है, फिर उसी की बात को पूरी
तरह सच मानकर किसी की ज़िन्दगी का फैसला कैसे किया जा सकता है?
फिल्म में अशोक कुमार ने एक जज बद्री प्रसाद की भूमिका की है जो एक संवेदनशील और विचारवान व्यक्ति है | इस जज ने कभी किसी को फांसी की सजा नहीं दी | जज की एक बेटी मीना(नंदा) है जो एक वकील कैलाश(राजेंद्र कुमार) से प्रेम करती है और एक बेटा विजय(महमूद) है जो अपनी अय्याशियों के चलते एक साहूकार(ओमप्रकाश)के जाल में फंस जाता है | विजय कुछ पैसों के बदले साहूकार को एक कोरे काग़ज़ पर दस्तखत करके दे देता है | काफी समय तक पैसा नहीं चुकाने पर साहूकार उसे उसके पिता की जायदाद अपने नाम कर लेने की धमकी देता है | विजय अपनी बहन मीना से मदद मांगता है और मीना कैलाश से | कैलाश अपने काम से फुर्सत पाकर रात को साहूकार के घर जाता है और उसे कानून का डर दिखाकर वो काग़ज़ वापस ले लेता है | बातें करते हुए कैलाश को जज बद्री प्रसाद वहां पर आते हुए दिखाई देते हैं, वो पास वाले कमरे में छुप जाता है | बद्री प्रसाद अन्दर आते ही साहूकार को जान से मार कर वापस चले जाते हैं | कैलाश वहां से भागकर अपने घर चला जाता है | थोडी ही देर के बाद एक चोर खिड़की खुली देख साहूकार के घर में घुस जाता है, वहां अँधेरे में वो लाश के ऊपर गिरता है और छुरे पर उसकी उँगलियों के निशान बन जाते हैं | चोर डर कर खिड़की से वापस भागता है लेकिन गश्त मारती पुलिस के हाथ लग जाता है | उस पर मुक़दमा चलता है| कैलाश जानता है कि वो बेगुनाह है, उसकी अंतरात्मा उसे चैन से नहीं रहने देती और वो उस चोर का वकील हो जाता है | दिलचस्प बात ये है कि फैसला खुद बद्री प्रसाद को करना है क्योंकि वही इस मुक़दमे की सुनवाई कर रहे हैं | कैलाश एक बेगुनाह को सजा से बचाने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा देता है और आखिर बद्री प्रसाद पर उंगली उठा देता है | अब जज खुद कठघरे में खडा होता है | लेकिन इस पूरी कहानी में एक पेंच है जो अंत में खुलता है और एक ज्वलंत प्रश्न खडा कर देता है कि अगर सच्चाई का संयोग से पता नहीं लगता तो एक बेगुनाह को सजा होना तय थी क्योंकि परिस्थितिवश गवाह से भी चूक हो जाती है |
फिल्म की गति उस ज़माने को देखते हुए तेज़ है और फिल्म कहीं भी अपनी पकड़ ढीली नहीं करती | आज के ज़माने में भी जब दर्शक को घटनाओं के हाई डोज़ की आदत हो चुकी है, फिल्म अपना असर छोड़ने में कामयाब है | ये कमाल निर्देशन का है | अभिनय का श्रेष्ठतम उदाहरण देखना हो तो दादा मुनि को देखना चाहिए | नंदा की भूमिका में कुछ विशेष नहीं है | महमूद अपने चिर परिचित अंदाज़ में है | कमी है तो बस एक, राजेन्द्र कुमार...वो ऐसे अभिनेताओं में से एक हैं जिन्हें सिर्फ किस्मत के दम पर सफलता मिली है वरना इस फिल्म में चेहरे पर एक-एक भाव लाने के लिए उन्हें कितनी जद्दोजहद करनी पड़ी है वो साफ़ दिखाई देता है | चेहरे बनाने की उनकी मेहनत देखकर हमें थकान होने लगती है |
फिल्म एक और मायने में विशेष है, ये भारत की पहली बिना गीतों वाली फिल्म थी | इसके पीछे भी एक कहानी है - बी आर चोपडा साहब एक विदेशी फिल्म फेस्टिवल में शिरकत कर रहे थे तब किसी ने कहा कि भारतीय फिल्मे सिर्फ नाच-गानों का प्रदर्शन होती हैं | भारतीय नाच-गानों के बिना फिल्म नहीं बना सकते | बी आर चोपडा ने इसे एक चुनौती के रूप में लिया और बिना गीतों वाली कुछ बेहतरीन फिल्में बनाई |
इस फिल्म ने जो सवाल उठाया वो आज तक अपनी जगह कायम है, उस पर अब भी बहस की ज़रुरत है लेकिन एक और सवाल साथ खडा हो गया है कि ये बहस करेगा कौन और उस बहस के नतीजों को अमल में कौन लाएगा क्योंकि अब तो बौद्धिकता भी ग्लैमर की चकाचौंध की शिकार हो गई है |
फिल्म ५ में से ४.५ अंक पाने की हक़दार है | अनिरुद्ध शर्मा
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5 बैठकबाजों का कहना है :
बहुत अच्छा लिखा है
लेकिन पहली बिना गानों वाली फिल्म कानून नहीं थी बल्कि होमी वाडिया की नौजवान थी
बी. आर. चोपड़ा जैसे निर्देशक कुछ अलग दिखाने के लिए माने जाते थे,
फिल्म की सही जानकारी मिली
फिल्म की कहानी बहुत ही खूबसूरत है और climex तो और भी बढ़िया है. एक गंभीर मुद्दे को भी बयां किया है इस फिल्म ने.
साथ ही मुबारकबाद देना चाहूँगा आपको इस फिल्म की समीक्षा के लिए. में ५ में से ५ देता हूँ.
dekhi hai ye film ..
achchhee thi..
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