Saturday, February 28, 2009

सोने का पिंजर (6)

अमेरिका का नाश्ता और भारत की बूढी काकी

छठा अध्याय

हमने जब अमेरिका की धरती पर पैर रखा तो एक लम्बी लाईन इमीग्रेशन चेक की थी। यही लाईन भारत में होती तो हम उसे अव्यवस्था का नाम देते। काउण्टर बीस, लेकिन ओपेन दस भी नहीं। सभी मटरगश्ती कर रहे हैं, लेकिन किसी को भी यह चिन्ता नहीं कि बाइस घण्टे की यात्रा करने के बाद अविकसित देश का व्यक्ति विकसित देश में आया है तो उसे शीघ्र समाधान मिल जाए। ऊँचे पदों पर आसीन, बड़े-बूढ़े भी दो घण्टे विकसित देश की सुस्ती देखकर धन्य हुए जा रहे थे। बोलने की हिम्मत किसी में नहीं, कहीं ऐसा नहीं हो कि यहीं से वापस टिकट कटा दी जाए। विकसित देश इसी स्पीड से काम करते हैं। खैर दो घण्टे बाद हमारा भी नम्बर आया, अब घावों पर तहज़ीब का मरहम लगाया गया और यह बताया गया कि देखों हम कितने प्यार से बात करते हैं। ‘हाउ आर यू?’ एक मधुर सी मुस्कान उछाली गयी, हमने भी सोचा कि चलो दो घण्टे बाद ही सही खिड़की में कोई आकर बैठा तो सही और उसने शराफत से बात तो की। लेकिन फिर अधूरी कागज़ी कार्यवाही।
बाहर कस्टम वाले ने रोक लिया, अरे इसमें तारीख की छाप तो लगी ही नहीं! अब वापस वहीं, लेकिन जब तक तो वह अफसर जा चुके थे।
कहीं भला आधा घण्टे से अधिक विकसित देश वाले काम करते हैं क्या? अब कौन हमारी समस्या सुलझाए?
बस एक ही उत्तर ‘गो योर विन्डो’, अरे कहाँ से लाऊँ अपनी विन्डो?
आखिर एक काली अफसर दिखाई दी, सोचा कि एक काला आदमी दूसरे काले से ही मदद माँग सकता है, मैंने बड़ी आशा से उससे कहा कि ‘आई नीड योर हेल्प’।
उसने गोरे अधिकारी से कहा कि इनकी एंट्री देखो। मेरा और मेरे पति का नाम वहाँ था। अब स्टांप लगा दो, पर बन्दे ने नहीं माना। स्पष्ट मना कर दिया कि नो। आखिर वही महिला अधिकारी अपनी विन्डो पर गयी और उसने स्टांप लगाकर दी। कहते हैं कि काले बड़े खतरनाक हैं, इनसे बचकर रहो। साथ ही कहते हैं कि भारतीय भी खतरनाक हैं इनसे बचकर रहो। यह है बदनामी का प्रचार।
अभी हमें बहुत कुछ देखना था, होटल गए, पहले से ही सारा पैसा भेज दिया गया था, फिर भी लाइन में लगाकर वही घण्टों का इन्तजार। दो दिन हो गए थे सफर में, न्यूयार्क के एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही सोच रहे थे कि जाते ही होटल के अपने कमरे के बिस्तर पर पड़ जाएँगे। खाने की भी इच्छा नहीं थी, तो मन ने कहा कि अरे बेचारे आयोजकों ने हमारे लिए खाने का इंतजाम किया होगा, वे मनुहार करेंगे तब कैसे कमरे में बंद रहेंगे? न्यूयार्क की धरती पर पहुँचते ही बेटे को फोन करना था, हमें लेने आए आयोजक के पास फोन था। हमने उनसे लिया और बेटे को सूचना दे दी कि हम आ गए हैं, शेष बाते होटल पहुँचकर। लेकिन हमें क्या पता था कि पहले ग्रास में ही मक्षिकापात हो जाएगा? हमें कहा गया कि होटल के कमरे के लिए लाइन में लगें। हमारे साथी दूसरी उड़ान से हमसे पहले पहुँच गए थे और उनको कमरे मिल गए थे। हमने सोचा था कि उन्होंने हमारे कमरे की चाबी भी ले ली होगी। लेकिन यही हम गच्चा खा गए। हमारे यहाँ होटल में जाने का मतलब है साहब बनना। जाते ही कमरा मिलेगा और आपका सामान कमरे में पहुँच जाएगा। लेकिन यहाँ ऐसा नहीं है। आपने पहले बुकिंग कराई है तो क्या, आप किसी कार्यक्रम में आएं हैं तो क्या, आप किसी के मेहमान हैं तो क्या? आपको लाइन में लगकर एक फार्म भरना पड़ेगा, तब कहीं जाकर चाबी मिलेगी।
यहाँ भी वही खरामा-खरामा काम करने की आदत, रात के बारह बज गए और लाइन न शुरू हो और न ही खत्म। किसी अपने से कहो कि भई यह क्या बात है? तो वह कहेगा कि यहाँ ऐसे ही काम होता है। मेरे मन में आया कि कहने वाले भारतीय को झिंझोड़कर पूछू कि यहाँ ऐसे ही काम होता है तो फिर भारत को गाली क्यों देता है? भारत में तो होटल के कमरे के लिए कभी लाइन नहीं लगानी पड़ी। सौ करोड़ की जनता को भी इतने घण्टों तक तो कोई इंतजार नहीं कराता। लेकिन फिर भी यह उनकी खुबसूरत अदा है। हम सम्मानित होने वाले साहित्यकारों में थे, फिर भी असम्मान के साथ लाइन में लगे थे। राजस्थान के प्रतिनिधि दल ने भी हमारा कमरा आरक्षित कराया था, लेकिन सब बेकार।
हम एक लाईन में लगे, लाईन थोड़ी लम्बी थी, दूसरा काउण्टर खाली था। हमारे साथ लगा एक गोरा व्यक्ति दूसरे काउण्टर पर चला गया, उसका काम हो गया। हम भी उसके पीछे-पीछे चले गए, बस त्यौरियां चढ़ गयी, ‘गो योर लेन’। हमारे साथियों ने कहा कि आप कब तक लाईन में खड़ी रहेंगी, हम ऐसा करते हैं कि एक कमरा आपके लिए खाली कर देते हैं, आप वहाँ आ जाएं। क्योंकि अभी रजिस्ट्रेशन का बिल्ला भी लेना था। हमारी लाईन में विदेश विभाग के अधिकारी भी खड़े थे, मैंने उनसे कहा कि बारह बज रहे हैं अब मैं और नहीं खड़ी रह सकती। पानी की प्यास के मारे गला सूख रहा है और मैं लाईन छोड़ कर चले गयी।
सामान अपने साथी के कमरे में पहुँचाया और आठवीं मंजिल पर रजिस्ट्रेशन के लिए जा पहुँचे। अभी तक हमने किसी भी आयोजक को नहीं देखा था, सिवाय एयरपोर्ट के। खाने की कल्पना तो उड़न-छू हो चुकी थी। भारत में हम कैसे मेहमानों के लिए बिछे जाते हैं? यदि मेहमान विदेशी हो तो फिर हम उसके स्वागत में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। लेकिन यहाँ तो कुछ भी नहीं! रजिस्ट्रेशन वाले कमरे में चार भारतीय प्रवासी अपनी सेवाएं दे रहे थे। रजिस्ट्रेशन का फार्म पहले ही भरा जा चुका था, पैसे भी दिए जा चुके थे, बस अब तो किट लेना था। लेकिन वह देसी बंदा हिलने को ही तैयार नहीं हो। वह निश्चल बैठा था, उससे एक ने कहा कि भाईसाहब किट दीजिए। वह उसकी तरफ पोज मारकर देखने लगा। पंद्रह मिनट का पोज! हम सबने निर्णय किया कि कुछ मत बोलो, बोलते ही यह पोज में चला जाता है। आखिर आधा घण्टा हो गया, एक बुजुर्ग व्यक्ति ने अपना कुर्ता उठाया और बोला कि ‘भाईसाहब मेरी कमर का आपरेशन हुआ है, यह देखिए, ज्यादा देर खड़ा नहीं रह सकता।’
मैंने कहा कि भाईसाहब कम से कम पानी ही पिला दीजिए।
वह अपनी टेबल के नीचे से एक आधा लीटर की बोतल निकालकर बोला कि देखिए सुबह से इस बोतल के सहारे यहाँ बैठा हूँ। मैंने सोचा कि अरे पानी तो इसके पास ही नहीं है, मुझे क्या पिलाएगा?
फिर वह बोला कि आपको पता है कि दो साल पहले मैं मरते-मरते बचा था, पूरा शरीर पेरेलाइज हो गया था। आप कहते हैं कि मेरे कमर का ऑपरेशन हुआ है।
भगवान ने उसे पुण्य का मौका दिया था और उसे वह पाप में बदल रहा था। लेकिन फिर वह कुछ हिल ही गया और उसने बुजुर्गवार को किट पकड़ा ही दिया। हम सबने कहा कि आपको कठिनाई हो रही है तो आप हमें बताए हम सब आपका हाथ बँटा देंगे।
वह अहंकार के साथ बोला कि हमारे पास यू.एन. हेडक्वार्टस से आर्डर हैं कि सारा काम व्यवस्थित हो। हमें स्वयं ही देखना है।
उसका काम इतना भर था कि हमें मिलने वाले बिल्ले पर हमारा नाम और देश का नाम लिखना था और तैयार किट पकड़ाना था। इसपर भी एक व्यक्ति के साथ आधा घण्टे का समय समझ से परे था। खैर अभी तो हमें बहुत कुछ देखना था। शायद भगवान ने हमें वहाँ भेजा ही इसलिए था कि भारतीयों का हीनबोध मैं कम कर सकूँ। मुझे ही सारे प्रकरणों से भगवान ने गुजारा था।
मैं अभी आधे घण्टे से लाईन में सबसे आगे लगी हुई ही थी कि एक महिला दौड़ती हुई आयी। उसकी नाक पर एक नली लगी थी। वह मुझसे बोली कि मैं आपसे क्षमा चाहती हूँ। मैं बहुत खुश हुई, पहली बार यहाँ यह शब्द सुना था। लेकिन वह मुझसे क्यों क्षमा माँग रही थी? मन ने प्रश्न किया।
वह बोली कि मेरे ऑक्सीजन लगी है, अतः आप मुझे पहले आगे आने दें।
मैंने कहा कि शौक से, आप आगे आएं, यदि ये काम कर दें तो मुझे खुशी होगी। अब मैंने उन्हें कहा कि भई इनको तो दे दो।
खैर जैसे-तैसे एक घण्टे में काम हो ही गया। मैंने अपने साथ वालों के लिए भी कहा, वो बोला कि उन्हें स्वयं ही आना होगा। अब इस आपा-धापी में भला किसकी हिम्मत होगी जो अपने साथ आए पति का भी प्रवेश-पत्र ले ले। हम इतना टूट चुके थे कि अपने कमरे में जाकर बेसुध से पड़ गए। यह ध्यान भी नहीं रहा कि बेटे को फोन भी करना है। कमरे में न तो पानी था, और न ही दिन के बाद से पेट में कुछ पड़ा था। लेकिन थकान ने उन सबकी ओर ध्यान ही नहीं जाने दिया। बेटे ने पहले ही बता दिया था कि खबरदार जो होटल के कमरे में रखी पानी की बोतल को पीया। वह बोतल तीन डॉलर की है। होटल में जाने से पूर्व बाहर पूरा केरेट खरीद लेना तो वह तीन डॉलर का मिल जाएगा। हमने देखा हमारे कमरे को। 200 डॉलर प्रतिदिन का कमरा। फ्रिज नहीं था, तो पानी का तो सवाल ही कहाँ उठता है। बाथरूम में जाइए और उसी नल से पानी पी लीजिए। लेकिन हम इतने टूटे हुए थे कि न तो पानी दिखायी दे रहा था और न खाना। बस सामने पलंग था और हम उसके आगोश में जाने को बेताब।
रात के तीन बजे फोन की घण्टी बज उठी, एक बारगी तो समझ ही नहीं आया कि क्या हो रहा है, फिर पतिदेव ने फोन उठाया। फोन पर बेटा था, बोल रहा था कि आप लोग कहाँ हैं? मैं कब से परेशान हो रहा हूँ, आपका फोन ही नहीं आया। मैंने होटल के काउण्टर पर पूछा तो बोले कि यहाँ तो लोग छः घण्टों से लाइन में लगे हैं। मैंने फिर दोबार फोन किया तो कहा कि नहीं कोई लाइन नहीं हैं। लेकिन अजित गुप्ता के नाम का कोई कमरा बुक नहीं है। उसने भारत फोन करके कैसे भी एक नाम हमारे साथी का ढूँढा और उसी के नाम से कमरे के बारे में जानकारी चाही। पहले तो उसी नाम के दूसरे कमरे में फोन लग गया फिर किस्मत से उन्हीं के नाम के कमरे में हम थे। हमने कहा कि हम ठीक हैं, नींद में हैं, सुबह बात करेंगे।
सुबह हो गयी, अब तो नाश्ते की बारी थी। हमने सोचा कि हो सकता है कि आयोजक आज मेहमान-नवाजी करें। लेकिन यह क्या होटल में ही नाश्ता लगा था और उस अमेरिकन नाश्ते को खाते कैसे हैं, बताने वाला कोई नहीं था। हिन्दी सम्मेलन का उदघाटन युनाइटेड नेशन के कार्यालय पर होना था तो बस भी नीचे लग चुकी थी। हमने चाय पीना ही ठीक समझा। हमने जैसे ही चाय के पानी में दूध डाला, चाय एकदम ठण्डी-टीप। वहाँ दूध एकदम ठण्डा फ्रीज का ही होता है। खैर नाश्ते की बात बाद में करेंगे। अभी तो बस जाने को तैयार थी। हम बस में बैठने के लिए तैयार थे। लेकिन अब समस्या खड़ी हो गयी, हमारे पतिदेव की। उनके पास तो बिल्ला नहीं। वहाँ समस्या समाधान के लिए भी कोई नहीं। फिर यही उचित समझा गया कि वे वहीं होटल पर रहें, नहीं तो वहाँ कहाँ जाएँगे? अब उनका तो मूड खराब, क्या इसी के लिए यहाँ आए थे? लेकिन समय नहीं था, बस एकदम से तैयार खड़ी थी।
एक घण्टा वहाँ पर भी लाइन में खड़े रहे। मुझे लगता है कि हम भारतीयों को लाइन में कैसे खड़ा रहना है, इसकी आदत वहाँ पड़ जाती है। खैर कैसे-तैसे हम हॉल तक जा ही पहुँचे। कार्यक्रम भी शुरू हुआ और खत्म भी। पेट के चूहे कुलबुला रहे थे। सोचा था कि यहाँ तो कुछ नाश्ता वगैरह होगा। लेकिन कुछ नहीं। पास ही दुकान थी, खरीदो और खाओ। हमने भी चाय से ही काम चलाया। कार्यक्रम खत्म हुआ और वापस बस की इंतजार प्रारम्भ। दो बजे तक सड़क पर खड़े रहे लेकिन बस का कहीं दूर-दूर तक पता नहीं। वहाँ जसदेव सिंह जी भी खड़े थे, थोड़ा गुस्से में थे। बोल रहे थे कि मुझे कमेण्ट्री के लिए बुलाया था और यहाँ किसी और से करा ली।
अरे भाई, तुम तो अपने देश में करते ही रहते हो, यहाँ बेचारों को कभी-कभी तो अवसर मिलता है, करने दो। क्यों नाराज होते हो।
जब सब्र का बाँध टूटने लगा तो आयोजकों को फोन खड़काया गया और तब कहीं आकर बस आयी। लेकिन बस वो ही समय था जब हम लोगों से मिल पाए। बाकि तो कोई किसी कार्यक्रम में और कोई किसी में। तीन बजते-बजते हम खाने की टेबल पर थे।
जब न्यूयार्क आने की बात चली थी, तब बेटे ने कहा था कि अरे कितना अच्छा खाना खिलाते हैं भारतीय, मैं भी तीन दिन आपके साथ ही रह लूँगा। अच्छे खाने का अवसर मिल जाएगा। मन में खाने की कल्पना का भण्डार था। मन बूढ़ी काकी की तरह ही सोच रहा था। एक टेबल पर ढेर सारा सलाद होगा, क्योंकि यहाँ के भोजन में सलाद ही मुख्य होता है। एक टेबल पर फल भी होंगे। गरम-गरम रोटी होगी, ढेर सारी सब्जियाँ होंगी। लेकिन हमारा हाल भी बूढ़ी काकी जैसा ही हो गया था। हमारे ख्वाब बेकार ही गए। बहुत ही गया गुजरा खाना था। जिसे हम भारतीय तो नहीं खा सकते थे।
एक रोटी जैसी थी, हमने वो ही खाने का मन बनाया। लेकिन वह हमसे खायी नहीं गयी।
जब बेटा आया और हमने अपना दुखड़ा रोया तो बोला कि अरे वो तो पीटा थी, उसे ऐसे नहीं खाया जाता। उसे रोटी की जगह कैसे परोस दिया?
अब हमें क्या पता कि कैसे परोस दिया? सोच रहे होंगे कि इन फूहड़ भारतीयों को क्या पता अमेरिकन रोटी क्या होती है?
हमारे साथ की साहित्यकार बोली कि दीदी मुझे तो उल्टी आ रही है। मैं तो इसे नहीं खा सकती। फिर अपने ही मिठाई के डिब्बे खुले। हम घर से पराठें बनाकर लाए थे। रास्ते में लंदन में डस्टबीन में डाल दिए। यह सोचकर कि अब तो पहुँच ही रहे हैं, गर्म खाना ही खाएँगे, भला ठण्डे परांठे क्यों खाएँ? लेकिन अब वे ही याद आ रहे थे। एक वहाँ साबूदाने के पापड़ की लाल-नीली कतरने थीं जो तीन दिन तक नहीं बदली गयी। सलाद का तो नाम ही नहीं था। बस एक अच्छी चीज थी, वह था पानी। पानी की हजारों बोतले वहाँ थीं। सारे ही भारतीय उन बोतलों पर टूट पड़े, क्योंकि किसी ने भी पानी कहाँ पीया था? सभी के हाथ में दो बोतले थी, होटल के लिए।
बस से उतरते ही हमें हमारे पतिदेव की चिन्ता सताने लगी। वे बाहर ही मिल गए, बोले कि मैंने तो बाहर भारतीय होटल में खाना खाया है। मुझे उनकी हिम्मत पर शक हुआ। मेरी आँखे आश्चर्य से फटी जा रही थीं। वे भारत में ही अकेले जाकर ऐसा कार्य सम्पादित नहीं कर सकते थे तो यहाँ परदेस में वे और अकेले जाकर?
फिर वे बोले कि बेटे का फोन आ गया था, उसे बहुत चिन्ता हो रही थी। उसने मेरी एक मित्र के बेटे को फोन किया जो न्यूयार्क में ही था। उसने बताया कि तू जाकर पापा को खाना खिला दे, नहीं तो बहुत गड़बड़ हो जाएगी।
ओह तो ऐसे मेनेज हुआ आपका खाना। अब मैं निश्चिंत थी। कम से कम उन्होंने तो ढंग का खाना खा ही लिया था। मेरे लिए यही सबसे बड़ा संतोष था कि पतिदेव का पेट भर गया है। नहीं तो पता नहीं न्यूयार्क में क्या होता?
होटल से आयोजन स्थल का मार्ग पैदल मार्ग था। हम उसी पर चलते रहे थे, रास्ते में एक फलों की दुकान दिखायी दे गयी। बस मुझे तो समझ आ गया कि यदि कल भी यही खाना मिला तो बिना डॉलर गिने मैं फलों से ही पेट भरूँगी। आप आश्चर्य मत करिए, अभी तो नाश्ते का वर्णन भी बाकी है।
हम जब बेटे के साथ केलिफोर्निया के एक होटल में रुके थे तब समझ आया था कि यहाँ सुबह का नाश्ता होटल के किराए में शामिल होता है। ढेर सारा नाश्ता होता है, आपको कुछ तो पसन्द आ ही जाता है। गर्म दलिया भी, आमलेट भी, फल भी, सूखे मेवे भी, और भी बहुत कुछ। लेकिन हमारा प्रथम अनुभव तो बड़ा कटु था। हमारे न्यूयार्क के होटल में भी नाश्ता सजा था। हमे तब तक यह भी नहीं मालूम था कि यह होटल वालों की तरफ से ही है। हम तो सोच रहे थे कि गर्म-गर्म आलू बड़े, जलेबी, आलू के पराठें, सेण्डविच आदि होंगे। लेकिन वहाँ तो गोल-गोल रिंग सी पड़ी थी। सब लोग पूछ रहे थे कि इसे कैसे खाते हैं? कोई उसे काट रहा था, और फिर जैम भर रहा था, कोई वैसे ही चाय में डुबोकर खाने की कोशिश कर रहा था।
बाद में बेटे ने बताया कि यह ‘बेगल’ है इसे ऑवन में गर्म करके खाया जाता है, कच्चा तो कोई खा ही नहीं सकता। कच्चा मतलब आटा खाना।
लेकिन बेटा वहाँ तो ऑवन था ही नहीं। हम तो सभी ऐसे ही लगे थे, खाने में। फिर वही लड्डू और मठरी निकाले गए।
हमारे साथ वरिष्ठ साहित्यकार थे, वे एक गोल रिंग को उठा लाए। मैंने उनसे पूछा कि क्या करेंगे? वे बोले कि भारत लेकर जाऊँगा। दिखाऊँगा इस नायाब चीज को।
मैंने कहा कि बदबू आने लगेगी।
वे बोले कि जूते में डालकर ले जाऊँगा। लेकिन ले जरूर जाऊँगा।
दूसरे दिन का खाना भी पहले दिन जैसा ही था। एकसा मीनू, कोई बदलाव नहीं। हमने तो फलों की दुकान पकड़ ली। तीसरे दिन बेटा आ गया था। पद्मजा जी बोली कि अरे तेरे देश में भूखे मर गए। वह बेचारा दही लेकर आया, फल लाया, बोला कि पता नहीं इन्होंने कैसा खाना दिया है?
तीन दिन तक गुलजार भी वहीं थे, वे भी खाने की टेबल पर दिख ही जाते थे। पता नहीं कैसे खा रहे थे, या फिर घर जाकर खाते थे?
लेकिन समस्याएं अभी खत्म नहीं हुई थी। दूसरे दिन पतिदेव को बिल्ले के अभाव में बाहर ही रोक लिया गया। अब तो हमारी सिट्टी-पिट्टी ही गुम हो गयी। अब क्या करें? अच्छा सम्मान कराने आए। हम अब कुछ आयोजकों से मिले। उन्हें अपनी समस्या बतायी, यह भी कहा कि हम सम्मानित होने वाले हैं तो साथ में पति भी हैं और बेटा भी आने वाला है। लेकिन फिर उन्होंने हमें दो कार्ड बनाकर दे दिए। अब कहीं हम जाकर शेर बने। मजेदार बात तो यह रहती है कि गेट पर आयोजक नहीं होते अपितु सिक्योरिटी वाले होते हैं। लम्बे-चैड़े, अधिकतर काले।
हम अपने साथ जोधपुर के दूध के लड्डू लेकर गए थे, हम क्या हमने पद्मजा जी को बोल दिया था कि वे जोधपुर से साथ लेकर आएं। हमने समापन वाले दिन एक डिब्बा लिया और सारे ही आयोजकों को लड्डू खिलाए। वे लड्डू देखकर एकदम खुश हो गये। हमने मन ही मन कहा कि तुमने तो हमें कुछ नहीं खिलाया, लेकिन तुम्हारे लिए तो हम देश से लड्डू लेकर आए हैं। सच वहाँ जाने के बाद ही समझ आता है भारत और भारत का लाजवाब खाना। हमारे यहाँ आतिथ्य करना सौभाग्य की बात समझी जाती है लेकिन वहाँ इसका अर्थ ही लोग भूल गए हैं। आज भी हमारे यहाँ विदेश से किसी के आने पर हम पलक-पाँवड़े बिछाते हैं लेकिन कैसा रूखा तो आतिथ्य था उनका?

डॉ. अजित गुप्ता

Wednesday, February 25, 2009

भारत के बाज़ार में सेंध?

अभिषेक हिन्दयुग्म के पुराने कवि हैं....बैठक पर हाल ही में विचरना शुरू किया है...इन्होंने एक मेल के साथ ये आलेख भी भेजा है....आप इनका आशय खुद ही समझें और बैठक पर इनकी हाजिरी आज से तय मानी जाए...
"निखिल सर....आप एक बात जानते ही हैं कि हमारे बिहार में साक्षरता दर सबसे कम है....और आउटवार्ड माइग्रेशन कहीं ज्यादा...बाहर जाकर कमाने की ललक कहीं ज्यादा...इसी ललक का मैं भी मारा हुआ हूं...मैं हाल में एक ऐसे चरित्र से मिला हूं, जो बिना किसी लैंगिक भेदभाव स्त्री-पुरूष दोनों को सर का संबोधन देता रहा...और ऐसा वो जानबूझ कर नहीं...बल्कि आदतन करता है...मैं उसकी उसी आदत को अडॉप्ट करने की गुजारिश करता हूं....मेरे स्तंभ का नाम दें....हैलो सर.....आप क्या कहते हैं? कृप्या किसी जेंडर बायसनेस का आरोप न लगाएं...तमाम चीजों से परे हो कर देखें....हो सके तो मेरे इस गुजारिश को मेरे परिचय के तौर पर लिखें......पहला लेख नज़र कर रहा हूं...टिप्पणी तो चाहता ही हूं....सहयोग भी...."

हैलो सर....बहुत दिनों से एक सवाल जान खाए जा रहा है....कि हम हिन्दुस्तानी...छोटी-छोटी खुशियों से क्यों इत्ते खुश हो जाते हैं....क्यों नहीं पश्चिमी देशों की तरह हम भी खुद के लिए बड़ी खुशी तलाशते हैं...और उन खुशियों के हासिल होने के बाद भी घाघ बने रहते....दुनिया के सामने और अपने घरों में जश्न मनाते....बहुत दिनों से सोच रहा हूं कि कहीं....पश्चिमी देश हम हिन्दुस्तानी के इस रवैये से वाकिफ तो नहीं हो गए...अगर वाकई वाकिफ हो गए हैं...तो चिंता की बात है....फिर हर कुछ जो देश दुनिया में घट रहा है...वो एक साजिश है....खास-तौर पर भारत को हर क्षेत्र में मिल रहे तवज्जो...जीत....और बहुत कुछ....मैं कमअक्ल होने के बावजूद सोचने लगा हूं....ये बड़ी बात है....और ये साजिश की सोच.... मेरे कमअक्ल मगज की उपज से ज्यादा कुछ नहीं...लेकिन पता है...आज से तकरीबन पंद्रह साल पहले....कुछ लोगों की बातें मेरे जहन में घर कर गई थी....हां मैं साल 1994 की ही बात कर रहा हूं....और बात कर रहा हूं...उस साजिश की जिसके तहत...दुनियावी स्तर के दो इम्तिहानों में दो भारतीय सुंदरियों का परचम लहराया था...(जिसकी कमाई लोग आज तक खा-पी रहे हैं...इस बारे में बात फिर कभी....)...जी हां उस जीत के बाद बुद्धिजीवियों के एक जत्थे ने माना था....कि भारत के बड़े कॉस्मेटिक बाजार को दुनिया के लिए खोलने की तैयारी की जा रही है....भारतीय पूंजी को बाहर ले जाने के लिए...तमाम कवायदें की जा रही हैं...और उसके बाद की कई घटनाओं ने मेरे जहन में उस साजिश की नींव गहरे रख दी थी....मैं कितना गलत या सही हूं रामजाने....लेकिन....फिर मुझे कहीं भी कोई इस तरह की खबर मिलती कि भारत जीता...भारत का बढ़िया प्रदर्शन.....तो मैं...अपने जहन में गहरे उतर चुके उस तथ्य से तौल कर चीजों को देखने लग जाता....मैं अपनी नजर से कुछ दिखाने की कोशिश कर रहा हूं...हो सकता है मेरा तरीका कंविंसिंग न हो...या मैं पूरी तरह से ही गलत होऊं....जरा गौर फरमाएं..... साल 2009 का उत्तरार्द्ध....पूरी दुनिया आर्थिक मंदी की चपेट में.....और भारत के लोगों की बचत की आदत ने एक बार फिर उसे इस मंदी के असर को कम करने में मददगार साबित हुई....पूरी दुनिया की नजर में भारत....एक बेहतरीन बाजार...एक उद्धारक....एक आस....एक उम्मीद....एक....और एक-एक करके न जाने क्या कुछ नहीं....ऐसे में भारतीय क्रिकेट टीम के बारे में मोल्स का बयान आना ....कि भारत दुनिया की नंबर वन टीम....भारत के तमाम खिलाड़ियों का अलग-अलग खेलों में बेहतर प्रदर्शन....हिन्दी सिनेमा को ज्यादा तवज्जो दिया जाना....भारत की पृष्टभूमि पर बनी फिल्म का ऑस्कर में साल 1982 में बनी गांधी से ज्यादा बेहतर प्रदर्शन करना....कहीं...बाजार के तौर पर....भारत को और बड़ा करने की साजिश तो नहीं....या कहीं भारतीय बाजार में सेंध लगाने की कोशिश तो नहीं....मैं सोच रहा हूं....आप क्या कहते हैं?

Tuesday, February 24, 2009

हिंदी में बुद्धिजीवी होना भी कम दुखदायी नहीं.....

भारत में बुद्धिजीवियों का इतिहास बेहद पुराना है....पूरी दुनिया को हर क्षेत्र में भारत ने मौके-बेमौके पाठ पढाए हैं...पूरी दुनिया ने हमारी इस क्षमता को सराहा भी है....मगर, सवाल यह है कि बुद्धिजीवियों की भाषा अंग्रेज़ी होने के कारण हिंदुस्तान का आम पाठक इन बुद्धिजीवियों से कितना लाभ ले पाता है.....एक नये लेख के साथ प्रस्तुत हैं राजकिशोर

पहली बात तो यह है कि भारत में जन बुद्धिजीवी (पब्लिक इंटेलेक्चुअल) हिन्दी में नहीं हैं और अंग्रेजी में हैं, यह बात ही सिरे से ही खारिज करने लायक है। अंग्रेजी के बुद्धिजीवियों का भारतीय जन से क्या रिश्ता है? कोई रिश्ता है भी या नहीं? बताते हैं कि अंग्रेजी समझनेवालों की संख्या भारत में तीन प्रतिशत के आसपास है। इन तीन प्रतिशत लोगों का प्रतिनिधित्व करनेवाले बुद्धिजीवी देश के 97 प्रतिशत लोगों से कैसे संवाद कर सकते हैं? आषीश नंदी या रामचंद्र गुहा या अमर्त्य सेन को भारत का जन बुद्धिजीवी किस तर्क से कहा जा सकता है? ये मुख्यतः या सिर्फ अंग्रेजी जाननेवाले वर्ग के लिए लिखते या बोलते हैं। निश्चय ही, इनके सरोकारों का संबंध भारत की स्थितियों से होता है, लेकिन विदेशों में रहनेवाले ऐसे दर्जनों विद्वान हैं जो अंग्रेजी में या अपनी-अपनी भाषाओं में भारत के बारे में लिखते रहते हैं। क्या इन विदेशी विद्वानों को भारत का जन बुद्धिजीवी माना जा सकता है? इन विद्वानों में और भारत में रहनेवाले भारतीय विद्वानों में मूलभूत फर्क क्या है? दोनों एक ही पाठक वर्ग के लिए लिखते हैं। दोनों एक ही तरह के परिसंवादों में भाग लेते हैं। उनकी पुस्तकें प्राय: एक ही वर्ग के प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित की जाती हैं। जैसे सिर्फ भारतीय मूल का होने से कोई विद्वान भारतीय नहीं हो जाता, वैसे ही जनता से दूर रहनेवाला बुद्धिजीवी किसी भी हाल में भारत का जन बुद्धिजीवी नहीं कहला सकता। इसलिए हमें इस जाल में पड़ना ही नहीं चाहिए कि कोई विदेशी पत्रिका किन्हें भारत के शीर्ष जन बुद्धिजीवियों में गिनती है और किन्हें नहीं। वास्तव में यह अंग्रेजी भाषा की नट लीला है, जिसकी ओर ध्यान देने से हम अपनी बौद्धिक समस्याओं का निदान नहीं निकाल सकते।

इस ट्रेजेडी के साथ एक वृहत्तर ट्रेजेडी भी जुड़ी हुई है। ऐसा नहीं है कि जन बुद्धिजीवी न होने के कारण भारत के अंग्रेजी बुद्धिजीवियों का योगदान कुछ कम महत्व का है। महत्व है, इसीलिए अफसोस होता है कि ये विद्वान अंग्रेजी में क्यों लिखते हैं जिसका भारत के आम पढ़े-लिखे वर्ग से कोई संबंध नहीं है। इसमें क्या संदेह है कि पिछले साठ वर्षों में ज्ञान और विद्वत्ता के क्षेत्र में जो ज्यादातर काम हुआ है, वह अंग्रेजी में ही हुआ है। उदाहरण के लिए, जाति, गरीबी, भूमंडलीकरण, धर्मनिरपेक्षता, राजनीति, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र आदि में जितना महत्वपूर्ण काम हमारे देश में हुआ है, उसकी भाषा अंग्रेजी ही है। इसी से इसका फायदा अंग्रेजीवालों के बीच ही सीमित रहता है। अन्य भाषाओं के जिज्ञासु भी इन्हें पढ़ते हैं, पर इनकी संख्या ज्यादा नहीं है और इन बुद्धिजीवियों का व्यक्तित्व या कार्य शैली ऐसी नहीं है कि ये भारत के जनमानस को प्रभावित कर सकें। इस तरह, अंग्रेजी में उत्पादित और संग्रहित ज्ञान भंडार भारत के अधिसंख्य लोगों के लिए किसी काम का नहीं होता। रामचंद्र गुहा या अरुंधति रॉय होंगे बहुत बड़े बुद्धिजीवी, पर उनके मुहल्ले के लोग भी नहीं जानते कि यहां हमारे समय का एक बड़ा बुद्धिजीवी रहता है। भारत का अंग्रेज़ी बुद्धिजीवी लंदन, पेरिस, हेडेलबर्ग की सैर करता होगा, अंतरराष्ट्रीय परिसंवादों में भाग लेता होगा, हर साल उसकी एक नई किताब प्रकाशित होती होगी, पर असल भारतीय समाज से वह उतना ही दूर है जितना इंग्लैंड या अमेरिका भारत से दूर हैं। इसलिए इनका ज्ञान भारतीय लोगों के उपयोग में नहीं आ पाता। ये इंटेलेक्चुअल हैं, पर पब्लिक इंटेलेक्चुअल नहीं।

फिर इन्हें भारत का जन बुद्धिजीवी क्यों मान लिया जाता है? क्योंकि एक छोटा-सा वर्ग ऐसा है, जो अपने को असली भारत माने बैठा है। इस छोटे-से वर्ग के सदस्य एक-दूसरे को संबोधित करते हैं और एक-दूसरे की बात का खंडन-मंडन करते रहते हैं। यह वर्ग जो लिखता है, उसे यही वर्ग पढ़ता है। इस वर्ग का अंग्रेजी के विदेशी बुद्धिजीवियों से भी संपर्क रहता है। यही कारण है कि संयुक्त राज्य अमेरिका की कोई पत्रिका जब भारत के जन बुद्धिजीवियों की सूची बनाने बैठती है, तो उसकी नजर मेधा पाटकर या अरुणा रॉय या नामवर सिंह या राजेंद्र यादव पर नहीं पड़ती। ये लोग उस मंडली से बाहर हैं जिसे भारत का बौद्धिक क्रीमी लेयर कहा जा सकता है। राजेंद्र यादव की टिप्पणियों को पढ़नेवालों की संख्या रामचंद्र गुहा के पाठकों से कई गुना ज्यादा होगी, पर यादव अमेरिकी पत्रिकाओं की नजर में पब्लिक बुद्धिजीवी नहीं हैं और रामचंद्र गुहा हैं। यह यथार्थ को सिर के बल खड़ा करना नहीं है, तो और क्या है?

नामवर सिंह, राजेंद्र यादव, सच्चिदानंद सिन्हा, अशोक वाजपेयी की भी सीमाएं हैं। ये काम तो कर रहे हैं जन बुद्धिजीवी का, पर जन के बीच इनकी कोई खास मान्यता होने की बात को तो छोड़िए, आम हिन्दी भाषी इन्हें जानता तक नहीं है। जिस तरह अंग्रेज़ी बोलने और लिखनेवालों का एक छोटा-सा परिमंडल बना हुआ है, उसी तरह इन लेखकों और वक्ताओं का भी एक सीमित परिमंडल है। अंग्रेजी के बुद्धिजीवियों की तुलना में इनकी स्थिति ज्यादा ट्रैजिक कही जा सकती है, क्योंकि ये अपनी मातृभाषा में काम करते हैं, उसे समर्थ और सक्षम बनाते हैं, उसके जरिए तरह-तरह की बहसें छेड़ते हैं, पर इसकी आंच या महक अपने ही लोगों के बीच दूर तक नहीं जा पाती। अंग्रेजी के लेखक नदी के द्वीप हैं, तो ये लेखक छोटी-छोटी नदियां है, जिन्हें उस व्यापक जन क्षेत्र की प्रतीक्षा है, जहां ये वेग के साथ बह सकें।

मामला यह भी है कि उन्नीसवीं सदी की शुरुआत से अंग्रेजी में विचार-विमर्श की परंपरा लगभग अक्षत बनी हुई है, पर भारतीय भाषाओं में यह परंपरा छिन्न-भिन्न हो गई है। एक समय मराठी में महात्मा फुले थे, बांग्ला में ईश्वरचंद्र विद्यासागर थे और हिन्दी में भारतेंदु हरिश्चंद्र और दयानंद सरस्वती थे, पर आज उनके बौद्धिक उत्तराधिकारी कहीं दिखाई नहीं देते। इसका एक बड़ा कारण यह है कि अंग्रेजी से होनेवाले अनगिनत लाभों के कारण भारत की उत्कृष्ट प्रतिभाएं अंग्रेजी में पर्यवसित होती गई, जिससे भारतीय भाषाओं में बौद्धिक विकास को आघात पहुंचा। दूसरा बड़ा कारण यह है कि हिन्दी क्षेत्र में पुनर्जागरण की कोई बड़ी घटना नहीं हुई है। छिटपुट प्रयत्न जरूर हुए हैं, पर वे तृणमूल स्तर पर जन जीवन को प्रभावित नहीं कर सके। इसलिए तर्क-वितर्क का माहौल क्षीण हुआ है। साहित्य को ही प्रमुख बौद्धिक गतिविधि मान लिया गया। फिर भी, महात्मा गांधी के बाद राममनोहर लोहिया, रामवृक्ष बेनीपुरी, विनोबा भावे, जयप्रकाश नारायण, किशन पटनायक, माहेश्वर (आइपीएफ) आदि ने अपने-अपने समय में सार्वजनिक बहसें चलाईं और बहुत बड़ी संख्या में लोगों की बौद्धिक चेतना में खलबलाहट पैदा की। यह क्रम भी अब टूटता नजर आता है। अंग्रेज़ी का प्रभुत्व भारत की हर अच्छी चीज को नष्ट कर रहा है। इसलिए हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में जन बुद्धिजीवियों का आविर्भाव हो और उनका प्रभाव क्षेत्र फैले, इसके लिए आवश्यक है कि भारत के सार्वजनिक जीवन से अंग्रेजी को तुरंत विदा किया जाए।

राजकिशोर

Monday, February 23, 2009

अँधविश्वास बनाम दृढ़विश्वास...

हमारे देश का इतिहास विश्व में सबसे पुराना है। इस देश में धर्मों और सम्प्रदायों की कोई कमी नहीं। एक ढूँढो हजार मिलते हैं। और हर कोई कहता है कि 'हमसे बेहतर कोई नहीं'। खैर ये ईश्वर में श्रद्धा का विषय है। लेकिन इसी धर्म ने एक और चीज़ पैदा की.... वो है अँधविश्वास-इसे मैं कईं बार घर्म का साइड-इफेक्ट मानता हूँ। ईश्वर में आस्था अलग है पर जब यही आस्था बढ़ जाती है तो अँधविश्वास का रूप ले लेती है। आज बात इसी पर होगी। वैसे ये विश्वास और अँधविश्वास बहुत अच्छी तरह से बिकता है। टीवी पर कभी काल-कपाल दिखाई देते हैं। कभी साईं बाबा की फूलों की माला बढ़ जाती है तो कभी किसी भगवान की फोटों में आँखों से पानी आने लगता है। कभी तांत्रिक विद्या का लाइव प्रसारण होता है तो कभी लोगो को हाथों के इशारे से गिरते हुए दिखाया जाता है। पता नहीं न्यूज़ चैनल चाहते क्या हैं।

पीछे एक खबर देखी। हुआ यूँ कि नागपुर में भाजपा की बैठक शुरु होनी थी सुबह ११.३० बजे पर शुरु हुई १२ बजे। मुझे नहीं पता कि यह गलती से हुआ या जानबूझ कर। चैनल ने बताया कि ११.३० से १२ तक राहुकाल था और १२ बजे के बाद अविजीत काल जिसमें शुरु किया हुआ हर काम सफल होता है। फिर उन्होंने हैडलाइन दी- भाजपा का अँधविश्वास। मुझे हँसी आ गई। जो चैनल सुबह-सवेरे तीन देवियों के साथ आकर हमारे ग्रह-तारे बताता है वो चैनल अँधविश्वास की बात करता है!!

पिछले २ वर्षों में ज्योतिष का कारोबार चार गुना तक बढ़ा है। मंदी के दौर में केवल यही पेशा मुनाफे में है। पिछले कुछ सालों में शनिदेव और साईंबाबा के मंदिरों में बढ़ोतरी इन्हीं पंडितों और ज्योतिषियों की मेहरबानी है। मेरे इलाके में एक आदमी आता है। हर पूर्णिमा, अमावस्या, मंगलवार, शनिवार, अष्ट्मी, सक्रांति, शिवरात्रि व प्रत्येक त्योहार में। अच्छा हट्टा-कट्टा है पर हर दूसरे दिन माँगने आता है। कभी तेल, कभी अनाज। और हमारे देश में वैसे भी भोले लोग हैं जो उसे तेल इत्यादि दे देते हैं। वैसे फुटपाथों पर तेल के डिब्बे-से भी पड़े दिख जायेंगे और लोग उसमें पैसे डाल देते हैं। अच्छी कमाई का जरिया है ये "धार्मिक भीख"। कभी यह श्रद्धा हुआ करती थी आज कल कमाई के धंधे।

लेकिन बात उस घटना की जिसने मुझे यह लेख लिखने के लिये प्रेरित किया। उस आदमी की जिसे देख कर मैं मेरे इलाके में तेल माँगने से तुलना करने लगा। अभी कुछ दिन पहले की बात थी मैं ऑफिस जा रहा था कि मुझे चौराहे के बीचों-बीच एक रिक्शा दिखाई दिया। उसमें दो लोग सवार थे। दिल्ली की भीड़ से हर कोई वाकिफ है। उस भीड़ में वो रिक्शा वाला रिक्शा खींच रहा था। लेकिन ऐसा क्या था जो उसका जिक्र यहाँ करना जरुरी है? दरअसल उसका बाँया हाथ नहीं था!! वो केवल दायें हाथ से रिक्शे को खींच रहा था। उसमें मुझे दृढ़-संकल्प और विश्वास दिखाई दिया।

दो लोग..एक हृष्ट-पुष्ट और दूसरा विकलांग...एक आलसी और भिखारी व दूसरा उतना ही मेहनती और हिम्मती। एक अँध-विश्वास तो दूसरा दृढ़ विश्वास का प्रतीक। इस देश को कैसे व्यक्ति चाहिये ये हम सब समझ सकते हैं।

तपन शर्मा

Sunday, February 22, 2009

क्या है सोने की तेजी का गणित: भाव फिर आएंगे नीचे

भाव फिर आएंगे नीचे
सोने के भाव एक बार फिर सुर्खियों में आ गए हैं। पिछले 15-20 दिनों से भाव रोज नई बुलंदी छू रहे हैं। पहले 14000 रुपए प्रति 10 ग्राम का स्तर पार होने के कयास लगाए, फिर 15,000 रुपए के और 16,000 रुपए का स्तर छूने की बात की जा रही है।

क्या है सोने की इस तेजी का गणित और क्या सोने अब मंदा नहीं होगा?

ये दो ऐसे प्रश्न हैं जिनका उत्तर हर कोई जानना चाहता है। पहले सोने के तेजी के कारण की बात करें।

गत वर्ष तक सोने के भाव में तेजी का सम्बंध कच्चे तेल के भाव के साथ होता था। गत वर्ष मार्च में सोने के भाव 1034 डालर (प्रति औंस) के रिकार्ड के स्तर पर पहुंचा था तो कच्चे तेल के भाव 100 डालर प्रति बैरल के आसपास घूम रहे थे।
लेकिन अब कच्चे तेल के भाव गिर कर 40 डालर से नीचे आ गए हैं लेकिन विश्व बाजार में सोने के भाव फिर 1000 डालर का स्तर छूने को तैयार हैं।
इस प्रकार सोने की तेजी को कच्चे तेल के भाव के साथ चला वर्षों पुराना सम्बंध अब टूट चुका है।

सोने के प्रति भारतीयों को लगाव किसी से छिपा नहीं है। सदियों से निवेश को सबसे बेहतर साधन रहा है। विवाह आदि की रौनक इसके बिना होती ही नहीं है। लेकिन पिछले कुछ माह से भारत में सोने का आयात लगातार कम होता जा रहा है। इस प्रकार अब यह तेजी का यह सम्बंध भी समाप्त हो चुका है।

इस समय सोने में तेजी का प्रमुख और एकमात्र कारण अमेरिकी अर्थ-व्यवस्था और विश्व मुद्रा बाजार में डालर की स्थिति डांवाडोल होना है। विदेशों में लोग डालर की बजाए सोने में निवेश कर रहे हैं। तेजी का दूसरा कारण सटोरियों की लेवाली है।
इन दोनों ही कारणों से सोने के भाव बढ़ रहे हैं। ऐसे में जैसे ही अमेरिकी अर्थ-व्यवस्था में सुधार होगा सोने के भाव में गिरावट आएगी।

इतिहास बताता है कि सोने के भाव में उतार चढ़ाव आते ही रहते हैं। विश्व बाजार में 1980 में सोने के भाव 850 डालर प्रति औंस का स्तर बना गए थे लेकिन उसके बाद गिर कर 250 डालर पर आ गए थे। उसके बाद सोने के भाव बढ़ कर 750 डालर पर पहुंचे लेकिन फिर गिर कर 550 डालर पर गए।

मंदी-तेजी के इस खेल में गत कुछ वर्ष पूर्व विश्व बाजार में सोने के भाव दोबारा 850 डालर पर पहुंचे थे और गत वर्ष मार्च में 1034 डालर के स्तर को छू गए थे।
उसके बाद सोने के भाव गिर कर 850 डालर तक आ गए थे लेकिन अब दोबारा भाव में तेजी आ रही है। अभी तक भाव 1000 डालर से नीचे हैं लेकिन जब तक यह लेख आप तक पहुंचेगा, संभव में 1000 डालर प्रति औसं (31.100 ग्राम) से ऊपर चले जाएं। लेकिन यह तेजी अधिक समय टिकने वाली नहीं है। जल्दी ही सोने के भाव गिरेंगे लेकिन कितने यह कहा नहीं जा सकता है।

लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि सोना अपनी चमक खो देगा, सोने की चमक बरकरार रहेगी। गिरने के बाद भाव फिर बढ़ेंगे, ठीक वैसे ही आग में तपने के बाद सोने में और चमक आ जाती है।

राजेश शर्मा

Saturday, February 21, 2009

सोने का पिंजर (5)

नौ गज साड़ी लपेटने में क्यूँ करें वक्त बरबाद....

पाँचवा अध्याय

मैं भारत की धरती से हजारों मील दूर अमेरिका की उन्नत धरा पर आयी हुई हूँ। यहाँ लाखों भारतीय बसे हुए हैं, उनकी आँखों में कहीं न कहीं भारत का पानी छलकता दिखाई देता है। पूर्ण विकसित देश, मनुष्य के लिए सारे साधनों की भरमार, किसी भी गरीब देश के बाशिंदे को यहाँ आकर्षित कर खींच ही लाएगी। चारों तरफ मकानों की कतारें और धरती पर बिछी दूब, धूल और गुबार के लिए कहीं जगह नहीं। भारत में झाडू और फटका मारते हाथ यहाँ आकर महिने में एकाध बार वेक्यूम क्लीनर तक पहुँचते हैं। वहाँ हाथों की मेंहदी और चूड़ी, कपड़ों में साबुन लगाने में ही अपनी रंगत भूल जाती हैं, ऐसे में यहाँ तीन-चार दिन में एक बार, कपड़े धो-सुखाकर मशीन आपको दे देती है। खाने में भी इतनी खट-पट नहीं, सभी कुछ तो शोपिंग मॉल में उपलब्ध है। सारी बाते करते समय कपड़ों की बात भला कैसे भूल सकती हूँ, भारत में नौ गज साड़ी लपेटते-लपेटते और अपना तन ढकते हुए न जाने कितना समय बर्बाद हो जाता है, लेकिन यहाँ तन की इतनी चिन्ता नहीं है। ऐसा कुछ पहनो, जो आसान हो, कुछ भी ढकने का प्रयास मत करो, सभी का शरीर एक है। यदि आप की वसा जगह-जगह से लटक रही है तो क्या? दिखने दो, क्यों साड़ी की परतों में छिपाते हो? ऐसा जीवन, खुला जीवन, स्वच्छन्द जीवन, भला कौन नहीं चाहेगा? तो लाखों युवा अपनी टिकट कटाकर चले आते हैं, इस स्वर्ग जैसे देश में।
हमारा तन कुछ माँगता है और हमारा मन कुछ और। सारे साधनों को, सारे ऐश्वर्य को, हमारा मन दिखाना चाहता है, अपनों को, अपने देश में बसे अपने छूटे हुओं को। पराये देश में सबकुछ है लेकिन इतनी आजादी तो नहीं मिल सकती कि अपनों को भी यहाँ बसा लिया जाए। इस देश का ऐश्वर्य दिखाने की छूट है, यहाँ बसने की छूट नहीं। सारी चाहतों को समेटे, इस स्वर्ग जैसी धरती पर अपना आशियाना बसाने निकले लाखों युवा, मन की एक परत भारत में छोड़ आते हैं। हमारा तन भौतिक सुखों की ओर भागता है और मन अपनों के पास। हर भारतीय, धरती की सुगंध को यहाँ बसाने में जुट जाता है, लेकिन मिट्टी की खुशबू तो अपनी-अपनी ही होती है। जैसे ही बादलों का फेरा लगता है, कोई न कोई झोंका आ ही जाता है और बरसा जाता है अपना देश का पानी। सूखे हुए उपवन में कोई न कोई अंकुर फूट ही जाता है। तब फोन पर अँगुलियां मचल उठती है और दूर देश से दो बूढ़ी आवाजें सारे सुख को एकबारगी में ही नेस्नाबूत कर जाती है। बस यहीं तन और मन में संघर्ष होने लगता है। एक मन के अंदर का सच है जो रह-रहकर पीछे धकेलता है और एक तन का निर्मम सत्य, जो सुख के सारे साधनों के बीच सबकुछ भुला देने में लगा रहता है।
बड़ी-बड़ी कोठी बनाकर भी अपने देश के मकान का एक छोटा सा दरवाजा अपने ताले से देखने का मन करता है। अपना हिस्सा अपने देश में होना चाहिए। डोर नहीं टूटती, यही तो आस है। दुनिया बचपन में अपने आपको तलाशती है, यहाँ बसे भारतीय भी उस छोटे से ताले लगे दरवाजे पर अपनी मन की खट-खट सुनते रहते हैं। सपनों में ही सही, लेकिन हर रोज ही अपनी धरती होती है।
विश्व हिन्दी सम्मेलन में ढेरों अप्रवासी भारतीय भी थे, एक शाम अपना लिखा पद्यमय मन सुनाने का दिन था। उन सभी के स्वर में भारत बसा हुआ था, कोई नहीं कह रहा था कि देखो हम जीते जी स्वर्ग चले आए हैं, हम कितने भाग्यशाली हैं! देखो हमारा सुख तुम भी देखो। मैं तो अपना दुख वहाँ छोड़ आयी थी लेकिन यह क्या यहाँ तो प्रवासियों के मन का दुख मेरे दुख को खटखटाने लगा। क्यों हो गयी मन की ऐसी हालत? क्यों नहीं मन की तलाश स्वर्ग में भी पूरी होती? क्या तलाशना चाहता है आखिर मन? मुझे अनायास ही एक तोता याद आ गया। राजमहलों के सोने के पिंजर में बन्द। खाने को भरपूर। लेकिन तोता कैसे कहे कि यह पिंजरा मेरा है। उसे तो अपना जंगल ही याद आता है, वह तो उसे ही कह सकेगा कि वह जंगल मेरा था, और आज भी वहीं मेरा जीवन है। यदि इस पिंजर से उड़ गया तो जंगल मेरा स्वागत करेगा, मैं अधिकार पूर्वक वहाँ रहूँगा लेकिन दोबारा इस पिंजरे में अधिकार पूर्वक नहीं आ पाऊँगा। यहाँ तो फिर कोई और होगा।
जब देश से चला था, तब सारे त्यौहार, सारी रश्में, सारे धर्म वहीं तो छोड़ आया था, लेकिन फिर यहाँ आकर खालीपन क्यों लगने लगा?
क्यों चिन डाले अपने हाथों से बड़े-बड़े मंदिर? क्यों वहाँ जाकर रोज पूजा करने का मन करता है?
जो मन वहाँ दीवाली पर केवल पटाखे, मिठाई और आतिशबाजी तक ही सिमट गया था, अब क्यों लक्ष्मी और गणेश का पाना लाकर पूजा करने लगता है? लेकिन पूजा तो आती नहीं, फिर क्या हो?
तब फिर देश की याद आ गयी, अरे वहाँ भी तो पण्डितजी आते थे, पूजा करने। फिर यहाँ क्यों नहीं?
नौकरी का विज्ञापन निकाला गया और एक पढ़े-लिखे पण्डित को वीजा और पासपोर्ट बनवा ही दिया। बस अब तो जब चाहो यज्ञ कराओ और जब चाहो पूजा।
मन मायूस नहीं है, मन बचपन में लौट आया है। दादी तुलसी की पूजा कर रही है, दादाजी मन्दिर में घण्टी बजा रहे हैं, तो यहाँ भी तुलसी का पेड़ लगा लिया है और घण्टी के लिए तो मंदिर है ही न!
हम भी घूमते-घूमते जा पहुँचे केलिफोर्निया के एक मंदिर में। भक्तों की भीड़ लगी थी, एक तरफ प्रसाद वितरण की तैयारी थी तो दूसरी तरफ यज्ञ हो रहा था। दो पण्डित लगे हुए थे यज्ञ कराने में। मंदिर दक्षिण भारतीयों ने बनवाया था, मुख्य संरक्षकों के नाम दीवार पर जड़े थे। मंदिर में कार्तिकेय, गणेश, शिव, पार्वती सभी विराजे थे। साफ सुथरा मंदिर, पूर्णतया वातानुकूलित, सारे ही संसाधनों से युक्त। एक दूसरे मंदिर में जाने का और अवसर मिला, वह जैन मंदिर था। दोनों ही पद्धतियों की पूजा और मूर्तियां वहाँ थी, श्वेताम्बर और दिगम्बर। देश से बाहर निकल कर आने पर सम्प्रदायवाद कम होने लगता है। मंदिर अर्थात हिन्दू मंदिर और सभी अपने मतों का भूलकर भगवान के दर्शन और अपनी आस्था की जड़े तलाशने चले आते हैं।
भारत से आकर दो प्रकार के लोग यहाँ बसे हैं, एक नौकरीपेशा और दूसरे व्यापारी। व्यापारी अपनी आस्थाओं के साथ रहते हैं लेकिन नौकरीपेशा लोग अपनी आस्थाओं को मन के किसी कोने में दफनाने की कोशिश करते रहते हैं। जब भी उन्हें मंदिर दिखायी दे जाते हैं, उनकी आस्था सर निकाल ही लेती है। लाखों भारतीय यहाँ बसे हैं और यहाँ अपनी सेवाएं दे रहे हैं। लेकिन एक प्रश्न मन में उभर आता है, क्या उनकी सेवाओं की यहाँ किसी को कद्र है? क्या कोई अमेरिकी यह कहता है कि भारतीयों के कारण यहाँ उन्नति हुई है?
उनके लिए तो आज भी भारत अविकसित देश ही है और जहाँ शोषण ही शोषण है। जब विवेकानन्द यहाँ आए थे, तब एक ही प्रश्न उनसे किया गया था, कि भारत में महिलाओं की स्थिति क्या है? मुझे लगता है कि आज भी यह प्रश्न वहीं उपस्थित है। मेरा भांजा वहीं है, वह वहाँ मेडिकल की उच्च शिक्षा के लिए गया है। तब एडमिशन की दौड़ में दर-दर भटक रहा था। ऐसे ही भटकते हुए एक बार बस से यात्रा कर रहा था। वहाँ बस में सवारियाँ नाम मात्र की होती हैं। दो-चार होने पर तो बस फुल कहलाती है।
ड्राईवर ने उससे पूछा कि क्या करते हो?
उसने बताया कि डॉक्टर हूँ।
उसके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा कि एक डॉक्टर और बस में? वहाँ सबसे अधिक डॉक्टर ही कमाते हैं। फिर उसका दूसरा प्रश्न था कि कहाँ से हो?
भारत से, उत्तर था।
बस-ड्राईवर ने कहा कि वही भारत जहाँ शादी में दहेज लिया जाता है?
भानजा अभी-अभी शादी करके ही गया था, बोला कि अरे नहीं वह तो बहुत पुरानी बात हो गयी। कैसे बताए कि अभी भी उसका सूटकेस ससुराल के कपड़ों से भरा है। ऐसे कितने ही प्रश्न हमारे युवापीढ़ी के पास आते हैं और वे अक्सर झूठ का सहारा लेते हैं। भारत ने कितनी ही उन्नति की हो लेकिन यहाँ आकर एक बात समझ आती है कि हमने आत्मसम्मान नहीं कमाया। हम हीन-भावना से आज भी ग्रसित हैं। इसी कारण प्रतिपल अपने देश को हम दुत्कारते हैं, उसपर शर्मिंदा होते हैं। अपनी पहचान छिपाते हैं। हमें अपने आपको गाली देने में आत्मिक सुख मिलता है। लाखों भारतीय यहाँ रहते हैं लेकिन वे सब अपने आपको अमेरिकी कहलाने में ही सुख खोज रहे हैं, वे कभी भी गर्व से नहीं कहते कि हम भारतीय हैं। भारत का गौरव या तो उन्हें पता नहीं या फिर वे बताने में संकोच करते हैं कि कहीं ऐसे प्रश्नों का सामना नहीं करना पड़े जिनके उत्तर उनके पास नहीं हैं।
हम किसी भी देश का निर्माण कर सकते हैं, लेकिन पीढ़ियां गुजर जाने के बाद भी हम उस देश के मूल नागरिक नहीं कहलाते। जब अंग्रेज भारत में आए थे तब यहाँ के मजदूरों को उन्होंने गिरमिटियां बनाकर कई देशों को बसाया था। उन देशों को बसाने के लिए वहाँ के बाशिंदों के पास न तो तन की शक्ति थी और न ही मन की, इसलिए भारतीय मजदूरों ने ही उन देशों को बसाया। लेकिन आज भी वे सब भारतीय मूल के नागरिक ही कहलाते हैं। जिस देश में विकास की असीम सम्भावनाएँ हो और वहाँ का युवा दूसरे देश को अपना कहने के लिए लालायित रहे, तब कैसे उस देश का विकास सम्भव है? दूसरे देशों में हमने अपनी जरूरत पैदा नहीं की, अपितु हम उनके लिए बोझ बन गए हैं। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में भारतीय कार्य कर रहा है लेकिन वे अमेरिका का निर्माण कर रहे हैं, ऐसा सम्मान दिखायी नहीं देता।
दूसरे देश में खुशहाली अधिक है, इसलिए हम चले आए, अपने देश को अकेला छोड़कर?
यहाँ आने पर एक प्रश्न हवा में तैरता रहता है, यहाँ कैसा लग रहा है?
अरे भई पराये देश में आए हैं, सुंदर देश है, तो अच्छा ही लगेगा। लेकिन इसमें प्रश्न की बात क्या है? प्रश्न तो यह होना चाहिए कि अपने देश को क्या हम ऐसा बनाने में अपना योगदान करेंगे? क्या यहाँ से कुछ सीख कर जाएँगे? परायी चूपड़ी पर क्यों मन ललचाता है?
यहाँ आकर एक बात समझ आ रही है कि भारत क्या है? हमने इसे दुनिया के सामने किस प्रकार से प्रस्तुत किया है? हम अपने आस-पास भारत बनाकर रहना चाहते हैं, मंदिर भी चाहिए, वैसा खाना भी चाहिए लेकिन भारत में कुछ अच्छा भी है इसकी चर्चा करना नहीं चाहते। दुनिया कहती है कि भारत पुरातनपंथी है, वहाँ शोषण है, तो हम भी स्वीकार करते हैं। स्वीकार नहीं करें तो चारा भी नहीं, क्योंकि यदि कहेंगे कि नहीं भारत बहुत अच्छा है, तो फिर प्रश्न आएगा कि यदि तुम्हारा देश इतना ही अच्छा है तो फिर सब कुछ छोड़-छाड़कर यहाँ क्यों चले आए हो?

डॉ. अजित गुप्ता

Thursday, February 19, 2009

देश की तक़दीर तय करेंगे नचनिये और खिलाड़ी....

दिलीप वेंगसरकर, शाहरूख खान, अजहरूद्दीन, संजय दत्त और अब नया नाम सौरभ गांगुली। क्या समानता है इन नामों में। ये बड़े नाम आते हैं बॉलीवुड और क्रिकेट से। दो ऐसे क्षेत्र जिनका भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था पर पूरा असर देखा जा सकता है। ये वो लोग हैं जिनके पीछे दुनिया दीवानी है। आज की तारीख में इन नामों से कोई भी अपरिचित नहीं हैं। इस देश में बच्चा बोलना सीखता है तो उसे 'स' से सचिन और 'ध' से धोनी सिखाया जाता है। 'अ' से अमिताभ होता है तो 'श' से शाहरूख। इन के नामों से जूते, चप्पल से लेकर तेल व कपड़े तक बिकते हैं। लेकिन आज इन नामों को क्यों याद किया जा रहा है। क्या है क्रिकेट के खिलाड़ी और फिल्मों के खिलाड़ी होने में समानता है?

पहले नेता जमीन से जुड़े होते थे। लोगों के करीब होते थे। समय बदला तो चोर,डाकू व बदमाश नेता बनने लगे। वो समय आ गया कि नेता ही चोर और बदमाश बन गये। दोनों के बीच में जो लकीर थी वो मिट गई। मुख्तार अंसारी को उम्मीदवार बनाते वक्त अब पार्टी ज्यादा नहीं सोचती। डी.पी यादव हो या अमरपाल सिंह बदमाश वहीं पार्टियाँ अलग अलग। लेकिन बात उनकी नहीं। समय ने फिर करवट ली और अब फिल्म स्टार और खिलाड़ी चुनावी मैदान में आ गये हैं। पार्टियों का वोट लेने का और इन स्टार लोगों का मौका भुनाने का अचूक और आसान रास्ता। ऐसा नहीं कि यह पहली बार हुआ है। ज्यादा दूर न जायें तो गुज़रे जमाने के कई सितारे आज राजनीति में हैं और बखूबी काम कर रहे हैं। और सभी वही हैं जिनका पेशा अब राजनीति हो गया है और एक्टिंग अब कभी-कभार ही करते हैं। इनमें शत्रुघ्न सिन्हा, विनोद खन्ना, राज बब्बर, जया प्रदा व कीर्ति आज़ाद आदि बड़े नाम शामिल हैं। ये लोग पार्टी की मीटिंग में जाते हैं। लोगों के पास भी जाते हैं। परेशानियाँ भी सुनते हैं। न भी सुने तो भी राजनीति में तो सक्रिय तो रहते हैं। एक और बड़ा नाम है अमिताभ बच्चन का। ये पहले राजनीति में आये कामयाब नहीं हुए। फिर दोबारा आये लेकिन सीधे तौर पर नहीं। खुद नहीं लड़ते, बल्कि जिताने की माँग करते रहते हैं।

ऊपर दिये गये लोग वे हैं जो सक्रिय राजनीति में हैं। पिछले चुनावों की बात करें तो मुझे इन क्षेत्रों से चार नाम याद आ रहे हैं जो चुनाव लड़े थे। वैसे तो सभी बॉलीवुड सितारे किसी न किसी पार्टी के लिये प्रचार करते ही रहते हैं। उन्हें सिर्फ पैसे से मतलब है। दलेर मेहंदी को कांग्रेस और भाजपा दोनों अपनी रैली में बुलाती हैं। मकसद..भीड़ को खीचना। पिछले आम चुनावों के बड़े नाम थे नवजोत सिंह सिद्धू, स्मृति इरानी, धर्मेंद्र और गोविंदा। कोई नाम भूल गया होऊँ तो कृपया याद दिलाइयेगा। इनमें से पहले दो लोगों की बात करें तो इसमें कोई दो राय नहीं कि ये लोग राजनीति को गम्भीरता से लेते हैं और चुनावी रैलियों के अलावा पार्टियों की मीटिंग वगैरह में भी शामिल होते रहते हैं। लेकिन बाकि दोनों फिल्मी सितारों का क्या? ये लोकसभा चुनाव तो जीत गये पर शायद इनका मकसद समाज की भलाई करना नहीं रहा। दोनों को ही फिल्में तो मिल नहीं रही थी तो सोचा कि क्यों न राजनीति में हाथ हाजमाया जाये। धर्मेंद्र की पत्नी हेमा मालिनी ओ वैसे भाजपा के लिये काफी समय से प्रचार कर रही है तो शायद भाजपा ने धर्मेंद्र को महज पुतले के रूप में खड़ा किया और बीकानेर वालों को पूरी तरह से बहकाया। शायद एक या दो बार राजस्थान गये हों...शायद वो भी नहीं...दूसरी ओर गोविंदा की बात करें तो उन्होंने इसका पूरा फायदा उठाया। समाज की भलाई के लिये कुछ भी नहीं किया। देखा जाये तो उन्हें तो राजनीति का 'र' भी नहीं आता। जब पिछले वर्ष सरकार के खिलाफ सदन में अविश्वास प्रस्ताव लाया गया तो उन्हें इस प्रक्रिया के बारे में जानकारी ही नहीं थी। हमारे चीची भाई ने तो केवल फिल्मों में फूहड़ हास्य डाल कर हँसाना सीखा है, सदन में हाजिर होकर लोगों के लिये काम करना नहीं। इस बजट सेशन में केवल एक बार हाजिर हुए। वैसे मुझे एक भी ज्यादा लग रहा है!!

अब जसपाल राणा का नाम भी उठा। वे टिहरी से लड़ रहे हैं। राजनाथ सिंह के रिश्तेदार जो ठहरे, टिकट तो मिल ही जाना था। पॉपुलर तो हैं ही तो शायद वोट भी मिल जाये। उधर संजय दत्त समाजवादी पार्टी के टिकट पर लखनऊ से लड़ रहे हैं। सपा की हालत हाथी के आगे वैसे ही पतली चल रही है। अमिताभ के बाद मुन्ना...देखते हैं कि कामयाब होते हैं या नहीं। फिल्मी सितारों को पार्टी के लिये लपेटने का काम राजनैतिक दल बखूबी कर रहे हैं और बदले में फिल्मी सितारे राजनीति की 'एक्टिंग' करने का मेहनताना लेते हैं। आज बहुत कम सितारे या खिलाड़ी ऐसे हैं जो समाज के लिये कुछ करना चाहते हैं। धर्मेंद्र और गोविंदा जैसे सितारे दोबारा चुनाव लड़ पायेंगे ये मुझे संदेह है क्योंकि जनता इन्हें समझ चुकी है। वैसे जनता क्या सोच कर वोट देती है? क्या हर फिल्मी सितारा या खिलाड़ी अच्छा समाजसेवी हो सकता है या राजनैतिक दलों की महज कठपुतली? यदि पुराने दिग्गजों की बात न करूं तो आज यहाँ सिद्धू और स्मृति ईरानी जैसे नेता भी हैं और धर्मेंद्र गोविंदा जैसे भी। वो समय बीत गया जब शत्रुघ्न, राज बब्बर जैसे सितारे सक्रिय राजनीति में उतर आये थे और इसी को अपना पेशा बना लिया था। आजकल राजनीति इन फिल्म-स्टारों का पार्ट-टाइम धंधा है।

मुझे इंतज़ार है ये जानने का कि क्या संजय दत्त भी गोविंदा की राह पर निकलेंगे? मुम्बई से लखनऊ साल में कितनी बार चक्कर लगायेंगे? क्या मुन्नाभाई की इमेज का असर वोटिंग पर भी पड़ेगा? क्या लोगों को बहकाना इतना सरल हो गया है कि कोई भी बड़ी शख्सियत आ कर चुनाव लड़े और जीत जाये। शायद अब तक लोगों को समझ आ जाना चाहिये। और अगर नहीं आया तो यह इस देश का दुर्भाग्य कहलायेगा और भविष्य अँधकारमय। वैसे चुनाव आते आते कईं और नाम सामने आ सकते हैं.. देखें क्या होता है इन सितारों का..क्या इन सितारों को जनता दिन में तारे दिखायेगी?

तपन शर्मा

Tuesday, February 17, 2009

हमारी पीढ़ी की ग़ुलामी

हमारी पीढ़ी ने वह दौर नहीं देखा है जब गुलामों की सार्वजनिक नीलामी हुआ करती थी। यह उसका दुर्भाग्य नहीं, सौभाग्य है। मानव जाति के इतिहास में जो सबसे बर्बर और घृणित प्रथा रही है, वह यही थी -- लाखों स्त्री-पुरुषों को गुलाम बना कर रखना। जरा उस दृश्य की कल्पना कीजिए जब किसी गुलाम को नीलाम किया जाता था। यह जगह बगदाद, मिस्र, पाटलीपुत्र, उज्जैन, लाहौर, पेशावर, लंदन, पेरिस कोई भी हो सकती थी। दृश्य कुछ यों होता था। दस-पंद्रह पुरुष और स्त्रियां एक छोटे- से दायरें में एक-दूसरे से बंधे खड़े हैं। हरएक के पैरों में लोहे की भारी जंजीरें हैं। हाथ भी जंजीरों से बंधे हुए हैं। उनका मालिक एक नौजवान गुलाम को पकड़ कर जनता के सामने ले आता है और नीलामी शुरू हो जाती है-- साहबान, यह मेरा सबसे अजीज गुलाम है। मजबूत, ईमानदार और वफादार। बेहद मेहनती। यह सारे काम कर सकता है। दिन भर में सिर्फ चार घंटे सोता है। जरा इसकी बांहों पर नजर दौड़ाइए, फौलाद की बनीं है। चाहें तो हाथी को एक हाथ से उठा लें। इसके पैरों में गजब की फुर्ती है। यह घोड़े की रफ्तार से भी तेज दौड़ सकता है। हां, तो साहबान, बोली लगाइए। देखें, वह कौन खुशकिस्मत है जो इसे खरीद कर अपने घर ले जाता है। उसकी जिंदगी जन्नत में बदल जाएगी। हां, तो साहबान, पहली बोली दस दीनार की लगी है। यह क्या बात हुई? जनाब, आप मुर्गा या बकरा नहीं खरीद रहे हैं। जिन्न की तरह सारे काम पलकों में करके रख देनेवाला एक ठोस, मजबूत आदमी खरीद रख रहे हैं। इसकी तौहीन मत कीजिए। लोहे के भाव सोना नहीं मिलता। ...
उस गुलाम का नया मालिक तय हो जाने के बाद गुलामों का सौदागर सिर झुकाए एक गुलाम युवती को पेश करता है और फिर शुरू हो जाता है -- अब मैं आपकी खिदमत में आज का सबसे हसीन तोहफा पेश करता हूं। इसे ईरान से पकड़ कर लाया गया है। इसकी कमसिन उम्र और दुबले-पतले शरीर पर मत जाइए। इसके भीतर गजब की ताकत भरी हुई है। बिना थके चौबीसों घंटे घर-बाहर के सारे काम कर सकती है। खाना इतना लजीज बनाती है कि आप उंगलियां चाटते रह जाएंगे। इसमें बला की शोखी है। इतने अदब से पेश आती है कि आप तवायफों की अदाएं भूल जाएंगे। बिस्तर पर आग उगलती है। तो साहबान, बोली लगाइए। शान से बोली लगाइए। मैं पहले से बता देता हूं... इसे सौ दीनार से कम पर नहीं दे सकता। समझिए, आप हीरा खरीद रहे हैं, हीरा ...
यह मत समझिए कि यह सारी दृश्य कल्पना से बुना हुआ है। सौ-दो साल पहले तक दुनिया के किसी भी बड़े शहर में यह आम बात थी। घर में दस-बीस गुलामों का होना सभ्य जीवन की अनिवार्य शर्त माना जाता था। सत्तरहवीं शताब्दी के थॉमस मोर की एक प्रसिद्ध किताब है -- यूटोपिया। इसमें एक आदर्श समाज का चित्र खींचा गया है। लेकिन यह आदर्श समाज कैसा है? थॉमस मूर बताते हैं कि इस आदर्श समाज में भारी शारीरिक मेहनतवाले सभी काम गुलाम ही करेंगे। जिस संयुक्त राज्य अमेरिका को स्वतंत्रता की भूमि माना जाता है, वहां 1863 तक -- आज से सिर्फ डेढ़ सौ साल पहले -- गुलाम रखने की व्यवस्था को जायज और कानून-संगत माना जाता था। उस साल अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहन लिंकन ने गुलामी की प्रथा को समाप्त करने के लिए अपने देश के दक्षिणी राज्यों के खिलाफ युद्ध छेड़ा। उत्तरी अमेरिका गुलामी की प्रथा को खत्म कर चुका था, पर दक्षिणी राज्य इसके लिए तैयार नहीं थे। अमेरिका के इस गृह युद्ध में गुलामी को बनाए रखनेवाले इलाकों की सैनिक पराजय हुई और अमेरिका के माथे से गुलामी प्रथा का कलंक मिटा।
इसी अमेरिकी संस्कृति की छाया में पल रहे आधुनिक वर्ग की क्या स्थिति हैं? यह हमारी पीढ़ी का दुर्भाग्य है कि हम यह अश्लील दृश्य देखने के लिए बचे हुए हैं। कुछ समय पहले मुंबई के एक सुसज्जित होटल में देश के सबसे शानदार क्रिकेट खिलाड़ियों की बोली लग रही थी -- यह रहा धोनी -- क्रिकेट का आला खिलाड़ी। तो साहबान बोली लगाइए। इसकी रिजर्व प्राइस है अस्सी लाख भारतीय मुद्रा। एक व्यापारी बोली लगाता है -- एक करोड़। दूसरा कंधे उचका कर कहता है -- दो करोड़। कीमत चढ़ती जाती है -- ढाई करोड़... तीन करोड़.. चार करोड़... पांच करोड़। सवा पांच करोड़। साढ़े पांच करोड़। अंत में छह करोड़ पर नीलामी बंद होती है। छह करोड़ एक, छह करोड़ दो ... छह करोड़ तीन। लीजिए चेन्नई टीम, क्रिकेट की दुनिया का यह बेताज बादशाह आपका हुआ। अब आप इससे जी भर कर क्रिकेट खेलाइए। यह उफ तक नहीं करेगा। इसका खेल बेच कर आप जी भर कर कमाइए। इसके बाद ईशांत शर्मा की नीलामी शुरू हुई। यह इंडियन क्रिकेट के भविष्य का सबसे चमकता हुआ शिकारा है। आपको मालामाल कर देगा। इसकी प्राइस शुरू होती है साठ लाख भारतीय मुद्रा से। अंत में बोली तीन करोड़ बयासी लाख पर टूटती है। ईशान्त कोलकाता टीम का हुआ। ... जी हां, अब इरफान पठान का नंबर था। यह भी एक होनहार खिलाड़ी है... किसी से कमतर नहीं है। इरफान को तीन करोड़ इकहत्तर लाख भारतीय रुपए में नीलाम कर दिया गया।
अठारहवीं शताब्दी और इक्कीसवीं शताब्दी की नीलामियों के बीच बेहद फर्क है। वे गुलाम सचमुच के गुलाम होते थे। उन्हें कम से कम खुराक दी जाती थी और उनसे गधे की तरह काम लिया जाता था। गुलामी का बोझ सहते-सहते बहुत-से तो जवानी में ही मर जाते थे। आज के गुलाम शानदार जिंदगी जीते हैं। साल में करोड़ों रुपया कमाते हैं। हर महीने फॉरेन जाते हैं। लजीज खाना खाते हैं, उम्दा कपड़े पहनते हैं और राजमहल जैसे घरों में रहते हैं। इनकी अपनी प्राइवेट जिंदगी है। लेकिन खिलाड़ी के रूप में ये अपनी जिंदगी जीने के लिए आजाद नहीं हैं। जो इन्हें नीलामी में जीत कर ले गया है, वह इनसे अपनी इच्छा अनुसार खिलवाएगा। एक फर्क यह भी है कि वे गुलाम अपनी मर्जी से न तो गुलाम होते थे और न अपनी मर्जी से खरीदे या बेचे जाते थे। ये गुलाम अपनी मर्जी से नीलामी के मैदान में आ खड़े हुए हैं। स्वेच्छया गुलाम हुए हैं। वे गुलाम चौबीसों घंटे के गुलाम होते थे। इनकी गुलामी सिर्फ क्रिकेट खेलने तक है। बाकी वक्त इनका अपना है। फर्क हैं, तमाम तरह के फर्क हैं। मध्य युग और आधुनिक युग में फर्क हैं। लेकिन गुलामी तो गुलामी ही है। उसकी मूलभूत शर्तों में कोई फर्क नहीं आया है। गुलामी की अवधारणा वही है, सिर्फ ब्योरे बदल गए हैं।
बहुत पहले, किशोरावस्था में, एक फिल्म देखी थी -- कोई गुलाम नहीं। आज की फिल्म शायद इस नाम से बनेगी -- हम सब गुलाम हैं। जो लोग समझते हैं कि सिर्फ क्रिकेटर या अभिनेता-अभिनेत्रियां गुलाम हो रहे हैं, उनसे निवेदन है कि इस तस्वीर पर गौर फरमाएं। एक नौजवान डॉक्टर पचीस हजार रुपए महीने पर एम्स में लगता है। दो साल बाद मैक्स अस्पताल उसे तीस हजार रुपए पर अपने यहां ले जाता है। तीन साल बाद उसे अपोलोवाले पचास हजार रुपए महीने पर खींच ले जाते हैं। वहां दो साल गुजारने के बाद उसे इंग्लैंड या अमेरिका का कोई अस्पताल दो लाख रुपए भारतीय मुद्रा पर बुला लेता है। क्रिकेट खेलने की तरह हर जगह उसे रोगी ही देखना है। लेकिन जैसे-जैसे वह बेहतर डॉक्टर होता जाता है यानी अपनी दुनिया का धोनी, ईशांत शर्मा और इरफान पठान होता जाता है, उसकी कीमत बढ़ती जाती है।
किशोरावस्था में ही एक छोटे-से मुशायरे में मैंने एक शायर को, जो शायद ट्रेड यूनियन नेता भी थे, यह शेर पढ़ते सुना था -- वह दौरे-गुलामी था, इसको हम दौरे-गुलामां कहते हैं। क्या वह कोई भविष्यवक्ता था? नहीं, उसने कार्ल मार्क्स को पढ़ रखा था।
राजकिशोर

(लेखक इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज,नई दिल्ली में वरिष्ठ फेलो हैं।)

Sunday, February 15, 2009

घटती मुद्रास्फिति की दर लेकिन बढ़ती महंगाई

सरकारी आंकड़ों के अनुसार अब महंगाई की दर घटनी आरंभ हो गई है। गत वर्ष अगस्त में महंगाई की दर बढ़ कर 12.91 प्रतिशत के स्तर पर पहुंच गई थी। वास्तव में यह दर पिछले 16 वर्षों में सबसे अधिक थी। इसे चिंताजनक मानते हुए विपक्ष ने शोर मचाया और सरकार ने भी तुरंत प्रभावी कदम उठाए। बहरहाल, महंगाई की दर में गिरावट का दौर आरंभ हुआ और अब 31 जनवरी को समाप्त हुए सप्ताह के दौरान यह गिर कर केवल 4.39 प्रतिशत पर आ गई है।
सरकार के लिए यह संतोष की बात है लेकिन वास्तविकता यह है कि आम आदमी अब भी महंगाई से त्रस्त है। उसे अब भी अपनी रसोई पर गत वर्ष की तुलना में अधिक खर्च करना पड़ रहा है।

वास्तव में इसमें किसी हद तक आंकड़ों का खेल है और इस महंगाई के लिए पूरी तरह सरकार ही जिम्मेदार है।

सबसे पहले तो यह गलत धारणा है कि महंगाई घट रही है। वास्तव में महंगाई बराबर बढ़ रही है। कमी आई है तो इसकी बढ़ोतरी की दर में। वास्तव में पहले महंगाई की वृद्वि दर 12.91 प्रतिशत पर पहुंच गई थी लेकिन अब घट कर 4.39 प्रतिशत पर आ गई है।
उदाहरण के लिए यदि किसी जिंस की कीमत 100 रुपए माने तो पहले वह 12.91 प्रतिशत से बढ़ कर 112.91 रुपए की हो गई थी लेकिन बाद में वृद्वि की दर घट कर 4.39 प्रतिशत रह गई है। यानि अब यह 112.91 रुपए पर 4.39 प्रतिशत बढ़ रही है। इससे स्पष्ट है कि यह आंकड़ों का खेल है और उपभोक्ता भ्रमित हो रहा है।
अब प्रश्न है रसोई का। रसोई की लागत बढ़ रही है क्योंकि थोक मूल्य सूचकांक में खाद्य वस्तुओं के सूचकांक में कोई कमी नहीं हुई है, सूचकांक घटा है तो औद्योगिक वस्तुओं का। आम आदमी को सरोकार दाल रोटी, सब्जी, तेल आदि से अधिक होता है।
गत वर्ष 2 फरवरी को समाप्त हुए सप्ताह के दौरान खाद्य वस्तुओं का सूचकांक 219.5 प्रतिशत था जो इस वर्ष 31 जनवरी को समाप्त हुए सप्ताह के दौरान बढ़ कर 244.7 प्रतिशत हो गया। आलोच्य अवधि में गेहूँ, चावल मोटे अनाज और दलहनों का थोक मूल्य सूचकांक 217.2 से बढ़ कर 245.2 हो गया। सिब्जयों को सूचकांक 169.9 से बढ़ कर 217.7 हो गया। फलों का सूचकांक भी बढ़ा है। दूध, नमक, चीनी, खांडसारी, मसालों आदि का सूचकांक भी आलोच्य अवधि में बढ़ा है लेकिन यह राहत का विषय है कि खाद्य तेलों के सूचकांक में कमी आई है।

सरकार दोषी ?

वास्तव में अनाज, दाल आदि के सूचकांक में बढ़ोतरी के लिए सरकार व उसकी नीति दोषी हैं।
अनेक कृषि जिंसों के भाव खुले बाजार में सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्यों की तुलना में ऊंचे चल रहे थे लेकिन उसके बाद भी सरकार ने किसानों के वोट प्राप्त करने के लिए सभी जिंसों के न्यूनतम समर्थन मूल्यों में बढ़ोतरी कर दी।
गत वर्ष सरकार ने गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1000 रुपए प्रति क्विंटल था और अब बाजार में इसके भाव 1175 रुपए से ऊपर चल रहे थे लेकिन सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ा कर 1080 रुपए कर दिए यानि अब उपभोक्ता को और अधिक भाव चुकाने पड़ेंगे। इसी प्रकार चना, मसूर, सरसों आदि के भाव में बढ़ोतरी की है।


गत खरीफ के दौरान सरकार ने कपास के न्यूनतम समर्थन मूल्यों में 47 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी की थी। इससे बाजार में इसके भाव में और तेजी आ गई। इसी प्रकार मक्का, बाजरा, अरहर आदि के न्यूनतम समर्थन मूल्यों में बढ़ोतरी की थी।

राजेश शर्मा

Friday, February 13, 2009

विदेशी फिल्म "स्लमडॉग..." पर काहे झूमे इंडिया??

एक साल पहले मैंने "तारे ज़मीन पर" देखी। सिनेमा हॉल में शायद ही कोई हो जो फिल्म देखकर रोया न हो। जिसने खड़े होकर आखिर में दिखाया जाने वाला गाना देखा हो, जिसमें छोटे-छोटे बच्चों का मासूम बचपन खोता हुआ दिखाया जाता है। कोई ऐसा नहीं है जिसने "माँ" वाला गाना न सुना हो। शायद ही कोई होगा जिसकी आँखें न भर आई हों। एक ऐसी कहानी जिसने सच्चाई से परिचय कराया। एक बच्चे की कहानी जो बीमार है। माँ-बाप की बढ़ती उम्मीदों के बीच अपने बचपन की मासूम शरारतों से दूर है। डिस्लेक्सिया बीमारी के शिकार बच्चे की कहानी। भारत के लगभग हर एक घर की कहानी। जहाँ बच्चे पर बोझ डाल दिया जाता है किताबों का, उम्मीदों का।

जब ये फिल्म आई तो लगा कि यही वो फिल्म है जिसका हमें इंतज़ार था। ये वो फिल्म है जो हमें ऑस्कर दिलवायेगी। क्या निर्देशन किया है आमिर ने? क्या एक्टिंग की छोटे-से बच्चे दर्शिल सफारी ने। इतनी बढ़िया अदाकारी कि आमिर खान आधी फिल्म होने के बाद कहानी में आते हैं। फिल्म का पहला हिस्सा सिर्फ दर्शिल के बूते चलता है। शंकर-एहसान-लॉय का जबर्दस्त संगीत। प्रसून जोशी के गीत। शंकर की आवाज़, कहानी। सब कुछ बढ़िया।
फिर, खबर आई कि फिल्म ऑस्कर से बाहर हो गई.... पैरों तले ज़मीन खिसक गई। अगर ये फिल्म नहीं, तो और कैसी फिल्म बनायें कि ऑस्कर में जा सके। 'लगान' से किसी मामले में कम नहीं। "रंग दे बसंती" के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था।

अब "स्ल्मडॉग मिलेनियर" को १० श्रेणियों में नामांकित किया गया है। इससे ज्यादा सिर्फ एक और फिल्म को ही नामांकन मिले। पर इस फिल्म में ऐसा क्या जो "तारे ज़मीन पर' में नहीं। "स्लमडॉग.." की भारत में हर ओर आलोचना भी हो रही है। इस बात पर भी बहस हुई कि भारत को केवल झुग्गी बस्ती का देश दिखाने और भारतीयों को ठग और विदेशियों को उदार दिखाने के बाद क्या ये फिल्म भारत में रिलीज़ होनी चाहिये? किस बात में आमिर की फिल्म पीछे हो गई? कहानी, संगीत, गीत, निर्देशन, अदाकारी या कुछ और। किन मापदंडो पर ऐसा किया जाता है। पहले मैं समझता था कि हिन्दी फिल्मों में नाच-गाने अधिक होते हैं और कहानी न के बराबर-शायद इसलिये पीछे रह जाते हैं। पर "स्ल्मडॉग.." भी तो भारतीय पृष्टभूमि पर आधारित है। इसमें भी ढेरो गाने हैं। जो बात दोनों फिल्मों को अलग करती है वो है फिल्म में अधिकतर विदेशी टीम का होना। कहीं ऐसा तो नहीं कि "स्लमडॉग.." केवल इसलिये आगे निकल गई क्योंकि ये एक विदेशी ने बनाई है। इसमें उन्हें उदार दिखाया गया है। ये केवल मेरी सोच हो सकती है, लेकिन जो घटा है मैं उसको झुठला नहीं सकता। और कोई दूसरा कारण मुझे नजर नहीं आता। आप बता सकें तो मुझे खुशी होगी। हम खुश हो रहे हैं कि ये फिल्म ऑस्कर के लिये नामांकित हुई। हमें खुशी केवल तभी होनी चाहिये जब संगीतकार ए.आर.रहमान को अवार्ड मिले। क्योंकि सिर्फ तभी ये अवार्ड भारतीय कहलायेगा।

तपन शर्मा

Thursday, February 12, 2009

राहुल, मनमोहन या आडवाणी: युवा कौन?

पिछले कुछ हफ्तों से अखबारो और समचार चैनलों से जाना कि राहुल गाँधी आने वाले चुनावों के लिये युवाओं की फौज तैयार कर रहे हैं। यानि कि कांग्रेस चाहती है कि युवा इस देश का नेतृत्व करें। मनमोहन सिंह तो वैसे भी पहले से ही कांग्रेस के लिए कठपुतली रहे हैं। यदि आप कांग्रेस के होर्डिंग देखेंगे तो पायेंगे कि ५० फीसदी में मनमोहन गायब होंगे। और अगर विश्व में सबसे शक्तिशाली व्यक्तियों की बात होती है तो सोनिया का नाम ज़रूर आता है पर अपने प्रधानमंत्री का नहीं। पिछली बार तो कांग्रेस की मजबूरी थी मनमोहन को प्रधानमंत्री बनाना लेकिन इस बार राहुल बाबा पिछले २-३ सालों से मेहनत कर रहे हैं। पसीना बहा रहे हैं। अभी हाल ही में दिल्ली में मैंने बैनर देखा था.. लिखा था : "युवा देश युवा नेता" और फोटो थी केवल राहुल गाँधी की। अब इसका क्या मतलब निकाला जाये? कांग्रेस में ही विरोधाभास है। मनमोहन या राहुल? वे युवा के तौर पर राहुल को प्रोजेक्ट कर रहे हैं और प्रधानमंत्री के तौर पर मनमोहन सिंह को। वैसे कांग्रेस की नीति कभी भी प्रधानमंत्री अथवा मुख्यमंत्री को प्रोजेक्ट करने की नहीं रही। हर बार चुनाव के बाद ही पासे खुले हैं। क्या इस बार भी...?

यदि कांग्रेस यह मानती है कि राहुल गाँधी युवा हैं और राहुल भी अपने जैसे युवाओं की एक ब्रिगेड खड़ा करना चाहते हैं तो उनके 'युवा' देश के मंत्रियों की एक लिस्ट देखें:
मनमोहन सिंह, प्रणव मुखर्जी, अर्जुन सिंह, शरद पवार, लालू प्रसाद, ए.के.एंटनी, ए.आर. अंतुले, सुशील कुमार शिंदे, रामविलास पासवान व जयपाल रेड्डी आदि। इनमें से कितने राहुल बाबा के हमउम्र हैं, ये कांग्रेस व राहुल गाँधी को समझना चाहिये। फिलहाल तो यही लोग देश का नेतृत्व कर रहे हैं। इसका मतलब यह हुआ कि अब तक यह देश बुजुर्ग हाथों में हैं?

खैर कांग्रेस तो उलझी रहेगी। उधर बीजेपी में आडवाणी के नाम पर फैसला ५ साल पहले ही तय हो गया था जब भाजपा चुनाव हारी थी। अगर वर्तमान स्थिति देखें तो मनमोहन और आडवाणी में मुकाबला... ये दोनों बुजुर्ग हैं या युवा? हो सकता है कि लोगों में बात उठे कि कहीं युवा भारत के बुजुर्ग प्रधानमंत्री तो नहीं होने जा रहे? आडवाणी ने पिछले दिनों चैट के दौरान लोगों से कहा कि देश चलाने के लिये अनुभव की जरूरत होती है। ऐसा व्यक्ति जो देश व विदेश की सभी नीतियों को जानता हो। अपने दोस्त व दुश्मन को जानता हो। बात भी सही है। अनुभव के बिना देश नहीं चलता। तो क्या राहुल गाँधी में अनुभव है कि वे देश को चला सकें?

युवा और बुजुर्ग पर बहस चली है तो मुझे एक वाकया याद आ गया। अभी पिछले महीने जनवरी में संघ के एक कार्यक्रम में जाना हुआ जिसमें दिल्ली की आई.टी और मैनेजमेंट कम्पनियों के कईं इंजीनियर, मैनेजमेंट के छात्र आदि उपस्थित थे। उसमें संघ के जनरल सेक्रेट्री मोहन राव भागवत को सुना। युवा होने की परिभाषा में उनका कहना था कि आयु युवा होने का प्रमाण नहीं होती। इंसान सोच से युवा या बुजुर्ग होता है शरीर से नहीं। उन्होंने आगे कहा कि युवा होने के लिए संवेदना होनी आवश्यक है। जिस व्यक्ति में संवेदना होती है, जो दूसरों के दुख-सुख को समझ सकता है वही युवा है। एक और लक्षण जो उन्होंने बताया वो था दृढ़ निश्चय। जो लक्ष्य हासिल करना होता है उसको पाने के लिये वो जी-तोड़ मेहनत करता है जबकि जो बुजुर्ग होगा वो थक जायेगा व हताश हो जायेगा। इसका मतलब ये हुआ कि २५ बरस में भी इंसान बूढ़ा हो सकता है और ७० वर्ष का भी युवा हो सकता है।

राहुल गाँधी को भविष्य का प्रधानमंत्री प्रोजेक्ट करना या न करना इस उलझन में फिलहाल कांग्रेस भी है। पर राहुल देश के प्रधानमंत्री तो बनेंगे ही, आखिर ख़ास परिवार से हैं। इसमें जो पैदा हुआ वो प्रधानमंत्री बना। इस बार नहीं तो १०-१५-२० वर्षों बाद वो दिन तो आयेगा ही। पिछली बार इनका बचपन था अब युवा हैं.. उम्र से.. राजनीति में शायद अभी भी बचपन ही है...राजनैतिक समझ तो अभी बाकी है। देखें कब तक वे परिपक्व होते हैं पर तब तक भारत की जनता दो उम्रदराज़ युवाओं, मनमोहन और आडवाणी, के बीच ही फैसला करेगी।

तपन शर्मा

Wednesday, February 11, 2009

हमारे आधुनिक जंगल मुंबई में आपका "हार्दिक" स्वागत है....

डिस्कवरी चैनल पर बेहद चर्चित कार्यक्रम है “MAN Vs WILD”….बियर ग्रिल्स इस शो को प्रस्तुत करते हैं....बियर इस शो में कई हैरतअंगेज़ कारनामे करते हैं......चैनल के हर एपिसोड में वो कभी बीहड़ जंगल में, किसी टापू पर, उजा़ड़ रेगिस्तान, पहाड़ों, समंदर या किसी भी ऐसी ही सुनसान जगह पर पाये जाते हैं....और फिर, उस पूरे एपिसोड के दौरान वो ऐसी कठिन परिस्थितियों में जीवित रहने की अजीब तरक़ीब दिखाते हैं.....कभी किसी जंतु का कच्चा मांस खाते हैं तो कभी मल-मूत्र तक ही पी जाते हैं..फिर बताते भी हैं कि इन पदार्थों में कई तरह के प्रोटीन व पोषक तत्व पाये जाते हैं जो बहुत ही लाभप्रद हैं.....अब जबकि जंगल, पहाड़, रेगिस्तान आदि घटते जा रहे हैं (ये भी मंदी का असर कहा जा सकता है) तो बियर भाई के पास भी ऐसे बीहड़ प्रदेशों के लाले पड़ जायेंगे.....तो हार्दिक मेहता ने सोचा कि डिस्कवरी का थोड़ा भला किया जाए और उन्हें इस शो को जारी रखने के नये तरीके सुझाए जाए....बियर भाई को मिली ये मुफ्त की सलाह बैठक पर हाज़िर है....

प्रिय बियर,
अगर आपको लगता है कि सुनसान रेगिस्तान और बीहड़ जंगल सिर्फ़ प्रकृति की गोद में ही उपलब्ध हैं, तो दोबारा सोचिए....हम भी एक जंगल में रहते हैं जिसका नाम है मुंबई.....यहां हर तरह की प्रजातियां उपलब्ध हैं....अगर आप यहां अकेले छोड़ दिये गये तो मैं शर्तिया कहता हूं कि कई एपिसोड तक आप मुंबई छोड़ नहीं पायेंगे....न शारीरिक तौर पर और न दिमाग़ी तौर पर....दरअसल, ये शहर आपसे कभी बाहर नहीं आ पायेगा.....आप जैसे विदेशी भाई इसे मायाजाल कहते हैं...हम अंग्रेज़ी सीखकर इसे “मैट्रिक्स” कहते हैं....ख़ैर, मुद्दे से भटक रहा हूं....मैं आपको दस चुनौती भरी परिस्थितियां देता हूं, आप कैसे इनसे निबटते हैं, आपका सिरदर्द है....लेकिन, इतना ज़रूर है कि अगर ये दस उलझनें आपने दूर कर दीं तो समझिए ये मुंबई की मिडिल क्लास के लिए वरदान साबित होगा....ये भी बता दूं कि हमारी मिडिल क्लास इतनी बड़ी है कि आप जिस शहर में रहते हैं, वैसे कई शहर इनके लिए कम पड़ जायेंगे.....तो, दस करोड़ (लोगों) के लिए ये रहे दस सवाल....आपका समय शुरू होता है अब.....

1) मान लें कि आप उत्तरी मुंबई में रहते हैं.... अगर आप ठीक 6 बजे सुबह नहीं उठते हैं तो मुंबई के दक्षिणी कोने में ठीक 9:30 बजे अपने ऑफिस कैसे पहुंच पायेंगे ???.....(नहले पे दहला : 6:10 मिनट पर भी उठकर ये सोचना आपकी सबसे बड़ी भूल होगी..)
2) अगर आज संडे नहीं है तो चर्चगेट की एक फास्ट लोकल ट्रेन में सुबह के आठ से 11 बजे और शाम पौने सात से साढे दस के बीच औप कैसे घुसेंगे?? (सोचिए, सोचिए..... ट्रेन पर छत तो तो है मगर ये ट्रेन बिहार नहीं जाती !!!.....)
3) सड़क के दोनों तरफ़ वन-वे ट्रैफ़िक है.....दिन के चौबीसों घंटे में कभी भी चकाला पेट्रोल पंप से आप ट्रैफिक से बच कर कैसे निकल सकते हैं.....?? (आप चाहें तो अपनी लोकेशन 7 बंग्ले से अंधेरी जाने वाले रास्ते को भी चुन सकते हैं...)
4) मान लें कि मुंबई के किसी भी स्थान पर आप पहुंचे हैं और किसी मुंबई वाले से बात कर रहे हैं या किसी दीवार से सटकर खड़े हैं.........लाख चाहकर भी उस “चमत्कारी पीक/थूक” से बचकर दिखाएं जो उनके मुंह से स्वाभाविक निकलती है या फिर दीवारों पर पायी जाती है.....
5) बियर भाई, ये बताएं कि मुंबई में कहीं भी किसी डर्टी इंडियन की कमीज़ से आ रही निरंतर दुर्गंध से बचने का कोई उपाय है आपके पास ?? (चाहें आप दो सेकेंड के लिए ही क्यों न खड़े हो जायें....)
6) अगर मुंबई के ऑटोचालक हड़ताल पर हों तो घर से बाहर कैसे निकल पायेंगे...(बताइए, बताइए...)
7) मान लें कि आप हिंदी सीख जाते हैं या फ़िर मराठी.....फिर, एक अधेड़ उम्र के मराठी से हिंदी में बात कर के देख लें, फिर बताएं कि “सेना” की कार्रवाई से कैसे बच पायेंगे....
8) हफ्ते के किसी भी दिन मुंबई में छुट्टियां मनाने के लिए एक “एकांत” स्थल ढूंढकर दिखा दीजिए ?? (आप मुंबई के आस-पास की 100 मील तक मगजमारी कर सकते हैं...)
9) मंदी के इस दौर में एक नौकरी ढूंढ कर दिखाएं.....(डिस्कवरी चैनल में सैलेरी तो टाइम से मिल रही है ना.....)
10) आप अलग-अलग जगहों पर घूमते हैं, बिल्कुल अकेले......ज़रा मुंबई के किसी इलाके में, खासकर किसी ऐसे रेलवे स्टेशन पर जाकर दिखाएं जहां कोई लावारिस लाश न पड़ी हो.....

बियर भाई....ये स्लमडॉग के फिल्मी सवाल नहीं है...ये हमारा सबसे आधुनिक जंगल है.....अद्भुत, अद्वितीय....आपका स्वागत है यहां....यहां हर किसी के लिए जगह है, कभी भी, कहीं भी.......

हार्दिक मेहता

हिंदी में अनुवाद : निखिल आनंद गिरि

Tuesday, February 10, 2009

आतंकवाद का गांधीवादी जवाब

बहुत-से लोग पूछते हैं कि आतंकवाद की समस्या का समाधान करने के लिए क्या गांधीवाद के पास कोई कार्यक्रम है? काश, इस प्रश्न के पीछे किसी प्रकार की जिज्ञासा होती! समाधान वहीं निकलता है जहां जिज्ञासा होती है। जब मजाक उड़ाने के लिए कोई सवाल किया जाता है, तो समाधान होता भी है तो वह छिप जाता है। यह ट्रेजेडी गांधीवाद के साथ अकसर होती है। ज्ञात गांधीवादियों ने भी ऐसी कोशिश नहीं की है जिससे यह स्पष्ट हो सके कि गांधीवाद की झोली में हर समस्या का कुछ न कुछ इलाज जरूर है। दरअसल, वही विचारधारा व्यापक तौर पर स्वीकार्य हो सकती है जिसमें जीवन के अधिकांश प्रश्नों का हल निकालने की संभावना हो। लेकिन किसी को यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि जीवन कभी भी समस्यारहित हो सकता है। कोई भी विचारधारा यह जादू कर दिखाने का दावा नहीं कर सकती। इसलिए गांधीवादी भी अपने को सत्य का अन्वेषक ही मानता है -- सत्य का गोदाम नहीं।

जब सामना प्रत्यक्ष हिंसा -- चाहे व्यक्ति द्वारा चाहे हिंसक समूह द्वारा -- से हो, उस वक्त क्या करना चाहिए, इसका कोई तसल्लीबख्श जवाब किसी के भी पास नहीं है। तनी हुई बंदूक के सामने दिमाग फेल हो जाता है। उस वक्त मैदान संवेग के हाथ में आ जाता है। संवेगों को भी प्रशिक्षित करने की सख्त जरूरत है। अन्यथा वे अपने आदिम, अराजक रूप में प्रकट होते हैं और कई लाख वर्ष पुराना हुक्म दुहराते हैं कि ईंट का जवाब पत्थर है। क्या यह सुझाव सफलता का आश्वासन देता है? संवेग को इससे कोई मतलब नहीं। वह तो उबल रहे खून की आवाज होती है, जिसे भविष्य की कोई फिक्र नहीं होती। अगर हर मामले में र्इंट का जवाब पत्थर से देने की थोड़ी भी संभावना होती, तो र्इंट उठाने का चलन ही मिट जाता। गांधी का रास्ता अहिंसक प्रतिरोध का है, जिसमें आक्रमणकारी के प्रति भी प्रेम रहता है। अगर मानवता का अधिकांश हिस्सा इस जीवन प्रणाली को स्वीकार कर लें, तो हिंसा को मिलनेवाली सफलता का अनुपात बहुत नीचे चला जा सकता है।

जब लोग आतंकवाद के गांधीवादी समाधान के बारे में पूछते हैं, तो उनका आशय यह होता है कि सारी वर्तमान व्यवस्था यूं ही चलती रहे और तब बताओ कि गांधीवादी रास्ता आतंकवाद को खत्म करने का क्या तरीका सुझाता है। यह कुछ इसी तरह का पूछना है कि मैं यही सब खाता-पीता रहूं, मेरी जीवन चर्या में कोई परिवर्तन न आए और मेरी बीमारी ठीक हो जाए। यह कैसे हो सकता है? जिन परिस्थितियों के चलते आतंकवाद पनपा है, उन परिस्थितियों के बरकरार रहते आतंकवाद से संघर्ष कैसे किया जा सकता है? गांधीवाद तो क्या, किसी भी वाद के पास ऐसी गोली या कैप्सूल नहीं हो सकता जिसे खाते ही हिंसा के दानव को परास्त किया जा सके। जब ऐसी कोशिशें नाकाम हो जाती है, तो यह सलाह दी जाती है कि हमें आतंकवाद के साथ जीना सीखना होगा।

आतंकवाद के दो प्रमुख उत्स माने जा सकते हैं। एक, किसी समूह के साथ अन्याय और उसके जवाब में हिंसा की सफलता में विश्वास। दो, आबादी की सघनता, जिसका लाभ उठा कर विस्फोट के द्वारा जानमाल की क्षति की जा सके और लोगों में डर फैलाया जा सके कि उनका जीवन कहीं भी सुरक्षित नहीं है। गांधीवादी मॉडल में जीवन की व्यवस्था इस तरह की होगी कि भारी-भारी जमावड़ेवाली जगहें ही नहीं रह जाएंगी। महानगर तो खत्म ही हो जाएंगे, क्योंकि उनकी कोई जरूरत नहीं रह जाएगी। लोग छोटे-छोटे आधुनिक गांवों में रहेंगे जहां सब सभी को जानते होंगे। स्थानीय उत्पादन पर निर्भरता ज्यादा होगी। इसलिए बड़े-बड़े कारखाने, बाजार, व्यापार केंद्र वगैरह अप्रासंगिक हो जाएंगे। रेल, वायुयान आदि का चलन भी बहुत कम हो जाएगा, क्योंकि इतनी बड़ी संख्या में लोग हर समय परिवहन के तहत रहे, यह पागलपन के सिवाय और कुछ नहीं है। वर्ष में एक-दो बार लाखों लोग अगर एक जगह जमा होते भी हैं जैसे कुंभ के अवसर पर या कोई राष्ट्रीय उत्सव मनाने के लिए, तो ऐसी व्यवस्था करना संभव होगा कि निरंकुशता और अराजकता न पैदा हो। इस तरह भीड़भाड़ और आबादी के संकेंद्रण से निजात मिल जाएगी, तो आतंकवादियों को प्रहार करने के ठिकाने बड़ी मुश्किल से मिलेंगे।

लेकिन ऐसी व्यवस्था में आतंकवाद पैदा ही क्योंकर होगा? बेशक हिंसा पूरी तरह खत्म नहीं होगी, लेकिन संगठित हिंसा की जरूरत नहीं रह जाएगी, क्योंकि किसी भी समूह के साथ कोई अन्याय होने की गुंजाइश न्यूनतम हो जाएगी। राज्य न्यूनतम शासन करेगा। अधिकतर नीतियां स्थानीय स्तर पर बनाई जाएंगी, जिनका आधार सामाजिक हित या सर्वोदय होगा। मुनाफा, शोषण, दमन आदि क्रमश: इतिहास की वस्तुएं बनती जाएंगी। जाहिर है, सत्य और अहिंसा पर आधारित इस व्यवस्था में सांप्रदायिक, नस्ली या जातिगत विद्वेष या प्रतिद्वंद्विता के लिए कोई स्थान नहीं रह जाएगा। हिंसा को घृणा की निगाह से देखा जाएगा। कोई किसी के साथ अन्याय करने के बारे में नहीं सोचेगा। अभी तक के अनुभवों को देखते हुए यह उम्मीद करना मुश्किल है कि इस तरह का समाज कभी बन सकेगा या नहीं। शायद नहीं ही बन सकेगा। लेकिन हमें इसकी आशा भी नहीं करनी चाहिए। पूर्णता की कामना ही मनुष्य की किस्मत में है, पूर्णता नहीं। लेकिन इतिहास की गति अगर हिंसा से अहिंसा की ओर, अन्याय से न्याय की ओर तथा एकतंत्र या बहुतंत्र से लोकतंत्र की ओर है, जो वह है, तो कोई कारण नहीं कि ऐसा समाज बनाने में बड़े पैमाने पर सफलता न मिले जो संगठित मुनाफे, संगठित अन्याय और संगठित दमन पर आधारित न हो। केंद्रीकरण -- सत्ता का, उत्पादन का और बसावट का -- अपने आपमें एक तरह का आतंकवाद है, जिसमें तरह-तरह का आतंकवाद पैदा होता है। आतंकवाद सिर्फ वह नहीं है जो आतंकवादी समूहों द्वारा फैलाया जाता है। आतंकवाद वह भी है जो सेना, पुलिस, कारपोरेट जगत तथा माफिया समूहों के द्वारा पैदा किया जाता है, जिसके कारण व्यक्ति अपने को अलग-थलग, असहाय और समुदायविहीन महसूस करता है।

ऐसा नहीं मानना चाहिए कि जिन समाजों में आतंकवाद की समस्या हमारे देश की तरह नहीं है, वे कोई सुखी समाज हैं। एक बड़े स्तर पर आतंकवाद उनके लिए भी एक भारी समस्या है, नहीं तो संयुक्त राज्य अमेरिका आतंकवाद के विरुद्ध विश्वयुद्ध नहीं चला रहा होता। लेकिन जिस जीवन व्यवस्था से आतंकवाद नाम की समस्या पैदा होती है, उससे और भी तरह-तरह की समस्याएं पैदा होती हैं, जिनमें पारिवारिक तथा सामुदायिक जीवन का विघटन एवं प्रतिद्वंद्विता का निरंतर तनाव प्रमुख हैं। इसलिए हमें सिर्फ आतंकवाद का ही समाधान नहीं खोजना चाहिए, बल्कि उन समस्याओं का भी समाधान खोजना चाहिए जिनके परिवार का एक सदस्य आतंकवाद के नाम से जाना जाता है। इस खोज में गांधीवाद सर्वाधिक सहायक सिद्ध होगा, ऐसा मेरा अटल विश्वास है।

(लेखक इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज,नई दिल्ली में वरिष्ठ फेलो हैं।)

Monday, February 09, 2009

22 फरवरी को राँची में जमा होंगे कलकतिया और झारखण्डी ब्लॉगर

कल मुझे एक ईमेल-निमंत्रण मिला, जिसमें लिखा था कि १० फरवरी २००९ को मेरठ विश्वविद्यालय में रवि पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित हिन्दी ब्लॉगिंग की पुस्तक 'एटूजेड ब्लॉगिंग' का विमोचन होना है। किसी भी तरह की जानकारी और साहित्य को जन-जन तक पहुँचाने में पॉकेट बुक्स ने अहम भूमिका निभाई है। याद कीजिए 'कौन सी ऐसी मछली है जो हवा में उड़ती है, पानी में तैरती है और जमीन पर चलती है?, कौन सा पेड़ है जो लोगों को खा जाता है? कौन सा ऐसा पहाड़ है जो रोज़ रंग बदलता है?' जैसे रसदार सवालों का पुलिंदा बस से लेकर ट्रेन में बिकता है। हर आम-खास इससे परिचित हैं।

हिन्दी ब्लॉगिंग जो कि २००२ में शुरू हुई, २००९ के शुरू में ही पॉकेट बुक्स में घुस गई, तो निश्चित रूप से सफलता का स्वाद इसने बहुत जल्दी चख लिया। एक पॉकेट बुक्स से इस तरह की पुस्तक आने का फायदा यह होगा कि इसे लगभग हर पॉकेट बुक्स वाला प्रकाशित करेगा। यह भी कोई आश्चर्य नहीं कि आने वाले २-३ महीनों में आप दिल्ली-मुम्बई जैसे महानगर घूमने आये तों बसों-ट्रेनों में देखें कि ब्लॉगिंग की यह किताब रु १० में बिक रही है और साथ में चुटकुलों और देवर-भाभी की शायरियों की २-३ किताबें मुफ्त हैं।

अभी २८ दिसम्बर २००८ को हिन्द-युग्म ने अपना वार्षिकोत्सव मनाया। हिन्द-युग्म ब्लॉगिंग को लेकर गंभीर है, भाषा को लेकर गंभीर है, इसका उद्घोष तो यह २००८ के विश्व पुस्तक मेले में अपना स्टैंड लगाकर ही दे चुका था। लेकिन २८ दिसम्बर के कार्यक्रम में साहित्यशिखर राजेन्द्र यादव आये तो लोगों का विश्वास और मजबूत हुआ। हम इसके जो सकारात्मक परिणाम आँक रहे थे, वह हुए।

चोखेरबालियों ने ६ फरवरी २००९ को अपना सालाना जलसा मनाया। राजकिशोर, अनामिका जैसे विद्वजन आये और ब्लॉगिंग से जुड़े लोगों का जज्बा देखा और महसूस किया। इसी तरह से जमीनी और वर्चुयल दुनिया में बराबर दखल रखने वाली एनजीओ 'सफ़र' ने भी राजेन्द्र यादव द्वारा उन्हीं की लघुकथाओं के पाठ के माध्यम से इंटरनीय दुनिया की सजीव उपस्थिति को मुखरित किया।

हिन्दी ब्लॉगिंग से मेरा जुड़ाव ३२ महीना पुराना है। इस दौरान इस माध्यम के झंडारोपण के लिए मैं शहरो-कस्बों तक गया हूँ। लेकिन कभी झारखण्ड-बिहार जाने का मौका नहीं मिला। दिसम्बर में कोलकाता के ब्लॉगर अमिताभ मीत से जब मुलाक़ात हुई, उन्होंने मुझे कोसा कि यार कोलकाता और हजारीबाग के बीच सैकड़ों ब्लॉगर रहते हैं, हिन्दी-प्रेमियों का इलाका है, कभी उधर मिलने-मिलाने का प्रोग्राम करो तो बात बने।

मैंने गूगल किया तो पाया कि बात सही है। कुछ को पहले से जानता था, कुछ को नहीं। कुछ को फोन सेतो कुछ को ईमेले से पकड़ा और आखिरकार कश्यप मेमोरियल आई हास्पिटल, राँची की निदेशिका डॉ॰ भारती कश्यप ने कार्यक्रम के आयोजन का जिम्मा लिया। साथ में वरिष्ठ पत्रकार घनश्याम श्रीवास्तव उर्फ घन्नू झारखण्डी ने संयोजन की बागडौर सम्हाली।

यह कार्यक्रम में रविवार २२ फरवरी २००९ को राँची में सुबह ११ बजे से आयोजित होने जा रहा है, जिसमें ब्लॉगर साथी तो एक-दूसरे से मिलेंगे ही साथ में दैनिक जागरण, हिन्दुस्तान, प्रभात ख़बर, आई-नेक्सट के प्रधान सम्पादकों (जैसे संत शरण अवस्थी, हरिनारायाण, हरिवंश॰॰॰॰) के इस विधा पर विचार आयेंगे, मैं ब्लॉगिंग से कम परिचित या न परिचित लोगों को पॉवर प्वाइंट प्रस्तुतिकरण के माध्यम से इस दुनिया की सैर कराऊँगा, पारूल चाँद पुखराज गायेंगी, तो शिव कुमार मिश्रा ब्लॉगिंग का इतिहास बतायेंगे। पत्रकार ब्लॉगर इसे वैकल्पिक पत्रकारिता की नज़रिये से देखेगा तो वहीं अनुभवी ब्लॉगर मनीष कुमार की अपने अलग अनुभव शेयर करेंगे। पहली पाँत से अंतिम पाँत के विद्वानों की बातें होंगी। अभी यह अंतिम रूपरेखा नहीं है, कुछ और ब्लॉगर-वक्ता भी जुड़ेंगे।

झारखण्ड के ब्लॉगरों की यह शिकायत रही है कि वहाँ ब्लॉगिंग-स्लॉगिंग की फालतू की चीज माना जाता है। शायद यह पहल इसे ज़रूरी मानने का बीज रोप दे।

बहुत से ब्लॉगरों ने अभी तक ईमेल का जवाब भी नहीं दिया है। अब पोस्ट पढ़कर सम्मिलित होने का कंफर्मेशन तो दे दें। जिन ब्लॉगरों ने आने की पुष्टि की है, वे हैं-

अमिताभ मीत (कोलकाता)
शिव कुमार मिश्रा (कोलकाता)
बालकिशन (कोलकाता)
शम्भू चौधरी (कोलकाता)
रंजना सिंह (जमशेदपुर)
श्यामल सुमन (जमशेदपुर)
पारूल चाँद पुखराज (बोकारो)
संगीता पुरी (बोकारो)
मनीष कुमार (राँची)
नदीम अख्तर (राँची)
घनश्याम श्रीवास्तव उर्फ घन्नू झारखंडी (राँची)
डॉ॰ भारती कश्यप (राँची)
निराला तिवारी (राँची)
संध्या गुप्ता (दुमका)
सुशील कुमार (चाईंबासा)
शैलेश भारतवासी (दिल्ली)
लवली कुमारी (धनबाद)
अभिषेक मिश्र (वाराणसी)

अब न कहना इसे अंट-शंट, न कहना आलतू-फालतू।

Sunday, February 08, 2009

जीरा : तड़का होगा अब फीका

इस वर्ष दाल और सब्जी में जीरे का तड़का फीका रहने का अनुमान है क्योंकि प्रतिकूल मौसम के कारण देश में इसका उत्पादन कम होने की आशंका है। उत्पादन कम होने की आशंका से बाजार में स्टॉकिस्ट सक्रिय हो गए हैं और पिछले एक महीने के दौरान जीरे के भाव में थोक बाजार में लगभग 400 रुपए प्रति क्विंटल की तेज़ी आ चुकी है। उत्पादन, स्टॉक, घरेलू खपत और निर्यात को देखते हुए आगामी महीनों में इसके भाव में और तेजी के अनुमान हैं।
इस वर्ष देश में जीरे का उत्पादन 25 लाख बोरी होने का अनुमान है जो गत वर्ष की तुलना में लगभग 20 प्रतिशत कम होगा। उत्पादन में कमी का कारण गुजरात और राजस्थान में मौसम खराब होना है। देश में जीरे का उत्पादन केवल इन दो ही राज्यों में होता है।
जहां इस वर्ष जीरे का उत्पादन कम है वहीं इसका पुराना स्टॉक भी कम है। एक अनुमान के अनुसार बकाया स्टॉक लगभग 6 लाख बोरी ही है जबकि गत वर्ष यह लगभग 10 लाख बोरी था। इस प्रकार कुल उपलब्ध्ता लगभग 35 लाख बोरी होगी।
विश्व बाजार में कमी को देखते देश से जीरे के निर्यात में भी वृद्वि हो रही है। चालू वित्त वर्ष में अप्रैल से दिसंबर तक कुल 28,500 टन जीरे का निर्यात किया जा चुका है जबकि गत वर्ष की इसी अवधि में निर्यात 18,855 टन ही था।
विश्व बाजार की स्थिति को देखते हुए आगामी वर्ष भी जीरे के निर्यात में बढ़ोतरी का अनुमान है। विश्व में जीरे का उत्पादन भारत के अलावा तुर्की, सीरिया, इराक, चीन आदि में होता है। भारत में कुल जीरा उत्पादन का केवल 10 प्रतिशत के आसपास ही निर्यात किया जाता है जबकि अन्य देश अपने कुल उत्पादन का 90 प्रतिशत निर्यात करते हैं।
प्रतिकूल मौसम के कारण इस वर्ष लगभग हर उत्पादक देश में जीरे का उत्पादन कम है। इससे निसंदेह भारत से अधिक मात्रा में इसका निर्यात किया जाएगा।
एक ओर निर्यात में वृद्वि का अनुमान है तो दूसरी ओर कुल उपलब्धता कम हो रही है। इससे आने वाले महीनों में जीरा का तड़का फीका हो सकता है।
राजेश शर्मा

Saturday, February 07, 2009

सोने का पिंजर (4)

चौथा अध्याय

"बेटा कमाता है डॉलर और मां-बाप रुपैया..."

ख़ैर, हम भी लाखों माँ-बापों की तरह दौबारा भी असफल हो गए। कहते हैं भारत में व्यक्ति के पास पैसा हो या न हो लेकिन स्वाभिमान पूरा होता है। ग़रीब आदमी के पास तो कुछ ज्यादा ही होता है। धनवान तो स्वाभिमान बेचकर ही धनवान बना है तब उसके पास तो यह नहीं होता लेकिन बेचारा ग़रीब तो ग़रीब ही इसलिए है कि उसने कभी अपने लिए किसी से नहीं माँगा। जो भी मिला उसे भगवान का प्रसाद मानकर स्वीकार किया। अतः हमारे स्वाभिमान ने भी हमें प्रताड़ित किया और कहा कि बस अब बहुत हो गया, अमेरिका जाने का चाव। बार-बार जाकर अपना अपमान कराने से तो अच्छा है कि अपनी ममता का ही गला घोंट लो। बच्चों से कह दो कि यदि तुम्हें भारत की और वहाँ बसे माता-पिता की याद आ जाए तब तुम्हीं आ जाना। लेकिन परिस्थितियां कब किसके रोके रुकी हैं? वे तो कभी भी एक-दूसरे की आवश्यकता अनुभव करा ही देती है। किसका मन नहीं होता कि बेटे की गृहस्थी जाकर देखें या बेटी का सुख। लेकिन जब रिश्तों पर पहरे बिठा दिए गए हों तब तो आदमी मन मसोसकर ही रहेगा न? बेचारा इंसान कर भी क्या सकता है।
मुझे बचपन में माँ के द्वारा सुनी कहानी याद आती है। जब बहन की शादी दूर-दराज के गाँव में हो जाती थी और भाई उससे मिलने जाता था तब कितने पापड़ बेलने पड़ते थे? लेकिन वो दूरी तो दस-बीस कोस की ही थी अतः सारे संघर्षों के बाद भी मिलना सम्भव हो ही जाता था। लेकिन सात समुन्दर पार ऐसे ही तो नहीं पहुँचा जा सकता? फिर कोलम्बस वाला जमाना भी गया कि स्वयं का जहाज लेकर निकल पड़े दुनिया नापने, या खोजने। अब तो सारी व्यवस्था ही चाक-चौबंद हैं।
हमारे एक मित्र ने एक ताना मारा, बोले कि अरे अमेरिका नहीं गए? फिर स्वतः ही बोले कि अरे अभी तुम्हारा वहाँ क्या काम? जब बाल-बच्चा होता है तब जाते हैं भारतीय माता-पिता तो। हम जानते हैं कि तुम्हारे यहाँ तब भी जरूरत नहीं होती हमारी। हमारे जैसे नहीं कि घर में जापा होने वाला है तो कम से कम दो-तीन औरते तो चाहिए हीं। एक अस्पताल जाएगी, एक घर देखेगी और एक बारी-बारी से उनका सहयोग करेगी। हमारे यहाँ कितनी निकटता आ जाती है, सास-बहू के रिश्तों में। जब बहू दर्द से छटपटा रही होती है तब सास उसके सर पर हाथ फिराती है, भगवान से प्रार्थना करती है। जापे में कैसे तो खुशी-खुशी सारे ही काम करती है। तभी तो प्यार बढ़ता है। लेकिन तुमने इन सारे सुखों को भी छीन लिया है। हमारे यहाँ से बहुत सी सास और बहुत सी माँ वहाँ जाती हैं लेकिन फिर कहती हैं कि अरे मेरा तो यहाँ कोई काम ही नहीं है। लेबर रूम तक में पति ही जाता है, बेचारी महिला तो बाहर ही बैठी रहती है। पोतड़े धोने और सुखाने का सुख भी नहीं। सब कुछ डिस्पोज़ेबल है, पति ही सबकुछ कर देता है। लेकिन फिर भी लगता है कि कोई न कोई तो पास रहना ही चाहिए। भारतीय मन मानता ही नहीं। कैसे अकेला छोड़ दे? हमारे यहाँ तो कहा जाता है कि औरत का दूसरा जन्म होता है। सचमुच में होता भी है, उस एक मिनट में एक नवीन जीव जन्म लेता है तो दूसरा अपना अस्तित्व बचाता है। ऐसे में कैसे छोड़ दें अकेला?
तुमने परिवार की जरूरतों को समाप्त किया है, लेकिन हमने नहीं किया। हमें तो आज भी लगता है कि हमारी जरूरत है। मेरे साथ तो कैसा संयोग था कि जब पोता आने वाला था तब वह स्वयं ही आकर मुझे न्यौता दे गया था कि दादी मैं आ रहा हूँ। बहू भारत आयी थी, जैसे ही उसने भारत की धरती पर कदम रखा, पोते के आने के संकेत मिलने लगे। मेरा खून सबसे पहले मुझे बताने चला आया कि मैं आ रहा हूँ। अब हमारी चिन्ताएं बढ़ गयी। तुम्हारे पहरे को कैसे तोड़ेंगे? मैंने पहले गुस्से में भगवान से कह दिया था कि अब मैं मेरे स्वाभिमान को नहीं गिरवी रखूँगी। अब तू ही मुझे ससम्मान अमेरिका भेजेगा तभी वहाँ जाऊँगी। अब मेरा धर्म-संकट पैदा हो गया। एक तरफ पोता खुद न्यौत गया था तो दूसरी तरफ मेरी प्रतिज्ञा। क्या करूँ और क्या न करूँ? लोग कहते हैं कि भगवान नहीं होता, मैं कहती हूँ कि होता है। मैंने प्रतिज्ञा की, भगवान ने सुनी और मुझे मौका दे दिया। तभी मेरे पास सूचना आयी कि विश्व हिन्दी सम्मेलन इस बार अमेरिका में हो रहा है। मेरे लिए भगवान ने पुल बना दिया था, जैसे राम ने रामसेतु बनाया था। लेकिन फिर कठिनाई वीज़ा की ही थी। भगवान ने फिर मदद की। एक दिन संदेशा आया कि भारत सरकार तुम्हें सम्मानित कर रही है। मुझे वीज़ा की कार्यवाही नहीं करनी पड़ी। बस भारत सरकार का कागज़ लिया और चले गये तुम्हारे चित्रगुप्त के कार्यालय। साथ में पति भी थे, जिनकी डॉक्टरी के कारण हमारे पर प्रतिबंध लगा हुआ था। अब वे बोले कि मुझे तुम्हारे साथ जाने देंगे? मैंने कहा कि जब भगवान ने इतना किया है तो यह भी करेंगे। जीत गया हमारा भगवान और हार गए तुम। जीत गया हमारे खून का प्यार और धरे रह गए तुम्हारे पहरे। कृष्ण ने जब जन्म लिया था तब सारे पहरे तोड़कर वह यशोदा मैया की गोद में चले ही गए थे। कंस देखता ही रह गया था। ऐसे ही आखिर में ससम्मान तुम्हें हमें बुलाना ही पड़ा।
हम तुम्हारी धरती पर आ रहे थे, इसलिए नहीं कि तुम्हारी धरती को छूने में कोई गर्व था। बस हमारा रक्त हमें पुकार रहा था, सारा प्रयोजन बस यही था। मेरे स्वाभिमान की जीत हुई थी, मेरे प्रेम की जीत हुई थी। मैं जान गयी थी कि प्रेम में कितनी ताकत होती है? तुम हमारे रक्त को कितना ही हमसे दूर कर दो लेकिन संसार की कोई ताकत नहीं जो तुम्हारे मंसूबों को पूरा कर दे। हम भारतीय प्रेम को सबसे बड़ा मानते हैं, हम परिवार को अपने दिल में बसाकर चलते हैं, हम से परिवार छूट नहीं सकता। तुम एक पीढ़ी को हमसे दूर ले जा सकते हो, लेकिन दूसरी पीढ़ी स्वतः ही हमारी ओर खिंची चले आती है। मेरे इस उदाहरण से तो तुम भी मानने पर मजबूर हो जाओगे। तुम्हारा भौतिक सुख केवल चार दिनों की चाँदनी हैं, बस तुम देखते रहो, कुछ दिनों में ही हमारे भारतीय प्रेम की जीत होगी।
लेकिन जो कुछ भगवान ने किया, इसलिए नहीं कि मुझे साहित्यकारों के मध्य सम्मानित करवाना था अपितु इसलिए कि इस माध्यम से मुझे ससम्मान अमेरिका भेजना था। मेरे साथ राजस्थान का दल भी था। मैं उस दल की नेत्री भी थी, लेकिन भगवान चाहता था कि मेरी प्रतिज्ञा पूर्ण हो, मैं सम्मान सहित वहाँ जाऊँ। तुमने मेरे अंदर जो हीनता लाने का सकंल्प किया था उसे मेरे भगवान ने समाप्त कर दिया।
तुमने सिद्ध करने का प्रयास किया था कि तुम मेरे वैभव के समक्ष कुछ भी नहीं हो। मैं तुम जैसे नाचीज़ों को अपनी धरती पर पैर भी नहीं रखने दूँगा। तुमने हमारी संतानों में भी यही भाव भरने का प्रयास किया कि तुम्हारे माँ-बाप तुच्छ हैं, तुम डॉलर में कमाते हो और तुम्हारे माँ-बाप रूपयों में?
कहाँ तुम्हारा वैभव और कहाँ उनका?
तुम्हारे यहाँ बसे भारतीय हमें कहते हैं कि तुम डर्टी फैलो हो, तुम्हारे यहाँ क्या है? आओ हमारा वैभव देखो। हमारे घरों में गलीचे बिछे हैं, और तुम्हारे घरों में?
हमारी सड़कें काँच-सी चमकती हैं और तुम्हारी?
हम कहते कि वो तुम्हारा कैसे हो गया और यह केवल हमारा कैसे हो गया? चलो अच्छा है कि तुम्हारा वैभव बड़ा है तो थोड़ा हमें भी सुख दे दो।
वहाँ से गुर्राहट आती है कि यह सुख हमने अर्जित किया है, भला तुम्हें कैसे दे दें? तुम्हारा और हमारा स्टेटस बराबर कैसे हो सकता है? भले ही तुम हमारे माँ-बाप हो लेकिन अन्तर दिखायी देना चाहिए दो पीढ़ियों में।
बेचारा भारतीय पूछता है कि तुम जब छोटे थे तब हमने तो अन्तर नहीं रखा था, हमने सारे ही अपने सुख त्याग दिए थे जिससे तुम्हारा भविष्य सुखी हो सके। फिर आज क्या हुआ? हम भारतीय मानते हैं कि पच्चीस वर्ष हम संतान के लिए सुख तलाशते हैं और आने वाले पच्चीस वर्ष संतान तलाशे सुख माँ-बापों के लिए।
लेकिन तुमने ऐसी पट्टी आँखों पर बाँधी है कि उन्हें अब माता-पिता दिखायी ही नहीं देते। बेचारे वे भी क्या करें, यहाँ भारतीयों को लगता है कि डॉलर में बहुत ताकत है, लेकिन जब वहाँ देखते हैं कि अरे इनकी स्थिति तो हम से बहुत ही खराब है। भला दो-तीन हजार डॉलर में होता ही क्या है? हमारे यहाँ जिसे पाँच हजार रूपया मिलता है, वह भी पेट ही भरता है और वार-त्योहार मिठाई खा लेता है, मेले में जा आता है। तुम्हारे यहाँ भी पाँच हजार डॉलर वाला इंसान यही कर पाता है। कैसे बताए वह अपने माँ-बापों को कि केवल मुँह पर चिकनाई लगाकर घी खाना दिखा रहा हूँ।
खैर हमें भी अब अपने आप पर गर्व होने लगा। हमें भी लगा कि हम भी इंसानों की बिरादरी में शामिल हो गए हैं। शायद अब हमें भी हमारी संतानें इज्ज़त के साथ देख लें? मैंने देखे हैं भारत में ऐसे-ऐसे बागबां कि अमिताभ बच्चन जो अपने आप में सेलेब्रिटी थे, उनकी संताने तुम्हारे यहाँ चली गयीं और वे बेचारे रातो-रात बौने हो गए। उनका अस्तित्व नगण्य हो गया। सारी दुनिया उन्हें सम्मान से बात करती है लेकिन उनकी संताने उन्हें दो कौड़ी का समझती हैं। यह है तुम्हारा प्रभाव। क्या कोई सुंदर पिंजरे में रहने से श्रेष्ठ हो जाता है? हम भारत में पढ़ाते हैं कि जो दूसरों को श्रेष्ठ समझे वो श्रेष्ठ होता है। हमारे यहाँ माता-पिता भगवान सदृश्य होते हैं। उनकी सेवा करना ही सबसे बड़ा पुण्य होता है। लेकिन तुमने सभी कुछ तो छीन लिया है। जो कभी भगवान थे आज वे तुम्हारे दर पर भिखारियों की तरह तुम्हारे रहमो-करम पर पड़े हैं। हमारे गाँव का व्यक्ति पूरे गाँव का चाचा, ताऊ बनकर राज करता है लेकिन तुम्हारे यहाँ ममता के लिए, दो रोटी खाकर वक्त बिताता है।
कितने हैं जो ममता को परास्त कर पाते हैं? कितने हैं जो दूसरों में अपनी ममता तलाशते हैं? शायद मुट्ठीभर होंगे हम जैसे स्वाभिमानी लोग जो दुनिया को अपना परिवार मानते हैं और भारत के प्रत्येक बच्चे को अपना बच्चा। हम ममता का विस्तार करते हैं इसलिए तुम्हारे द्वारा दिए हीनबोध को स्वीकार नहीं करते। हमारा भगवान भी नहीं करता, हमें वह भी कहता है कि मत स्वीकार करो हीनबोध, अपने स्वाभिमान से रहो, मैं तुम्हारे साथ हूँ।
आखिर 12 जुलाई 2007 को मेरे हाथ में टिकट था। मैं तुम्हारी धरती पर आ रही थी। मेरा खून मुझे पुकार रहा था। उसे तुम्हारा नागरिक बने पाँच माह हो चुके थे और मैंने उसे अभी तक केवल कम्प्यूटर के सहारे ही देखा था। मेरे सामने केवल उसकी सूरत थी, और था एक काँच का पर्दा। मैं उसे देख सकती थी, बात कर सकती थी लेकिन उसे छू नहीं सकती थी। मेरी ममता कसमसा रही थी। मैंने उसे संसार में आते हुए नहीं देखा था, उस पारिवारिक अनुभव से मैं दूर रह गयी थी लेकिन अब मुझे उसके पास जाने से कोई नहीं रोक सकता था, तुम भी नहीं। मेरा मन कह रहा था कि मैं ज़ोर से चिल्लाऊँ और कहूँ कि ‘मैं आ रही हूँ अमेरिका’। तेरा सुख देखने, तेरा वजूद देखने, तेरा अभिमान देखने। मैं भी तो देखूँ कि तू कितना बड़ा है? ऐसा तेरा वैभव कितना बड़ा है? जो तू ममता को ही विस्मृत करा देता है? ऐसा क्या है तुझमें, जो मेरे भारत में नहीं है? मैंने तुझ पर विश्वास किया और अपने सारे दुखों को, अभावों को भारत में ही छोड़ दिया, केवल अब तो मुझे सुख ही सुख जो देखना था। मेरा तन और मन यहाँ तक की आत्मा भी आप्लावित होने वाली थी तेरे सुख से। देखूँ कितना सुख है तेरी धरती पर?

डॉ अजित गुप्ता

Friday, February 06, 2009

जय हो, जय हो, जय हो!!!.....जय, जय, जय हो......



पटना में एक शख्स ने फिल्म स्लमडॉग मिलियनेयर के खिलाफ याचिका दायर की है....नाम पर उन्हें आपत्ति तो है ही, इस फिल्म की साधारण विषयवस्तु को इतना आगे तक पहुंचने में भी उन्हें सोची-समझी चाल दिखती है.... बहरहाल,बैठक में एक चिट्टी आयी है शिवानी की....शिवानी त्रिपाठी महुआ न्यूज़ चैनल में कैमरे के आगे ड्यूटी बजाती हैं....चुपके-चुपके बैठक में आती रही हैं....चूंकि, शिवानी गोरखपुर की हैं तो कृपया इस चिट्ठी को पटना के शख्स की याचिका न समझें....

फिल्म बेहतरीन है.....निर्देशन गज़ब का है....केबीसी के हर सवाल का नायक के अतीत से जुड़ाव बेहतरीन था...पर सबसे बेहतर था मलिन बस्ती के उन बच्चों से इतना उम्दा अभिनय करवा लेना....
और कोयले को बाज़ार में हीरे के भाव बेच मुनाफ़ा कैसे कमाया जाता है, ये कोई इन निर्देशकों से सीखे जिन्होंने हमारा ही कचरा हमें खूबसूरती के साथ चांदी की तश्तरी में अति आत्मविश्वास के साथ परोस दिया....और हमने निवाला दर निवाला मुंह में डालना भी शुरु कर दिया....मगर, जो फिल्म वैश्विक स्तर पर डंका बजवा रही हो, फिल्म क्षेत्र के सबसे महत्वपूर्ण और सम्मानित ऑस्कर की मजबूत दावेदार हो, भारत के सिनेमाघरों में पहले हफ़्ते में ही दर्शक नहीं जुटा पायी....

बहरहाल, सभी बातों पर गौर करने के बाद अगर कोई पूछे कि क्या स्लमडॉग को ऑस्कर में जाना चाहिए या ये अवार्ड मिलना चाहिए (जो लगभग तय ही है) तो होगा हां....क्योंकि ऑस्कर की दौड़ में पहुंचनेवाली हर भारतीय फिल्म का हाल कुछ ऐसा ही था....जी हां, चाहे बात 80 के दशक की मदर इंडिया की हो या लगान की, स्माइल पिंकी या स्लमडॉग.....इन सभी फिल्मों में एक चीज़ कॉंमन है....ग़रीबी, दरिद्रता, भूखी-नंगी जनता, क्योंकि इनमें ही दिखता है इन्हें “रियल इंडिया...."

माना कि फिल्म के दृश्यों में मुंबई की मलिन बस्तियों से काफी साम्य था, मुंबई की इन बस्तियों में रहने वालों की यही दशा होती है, मगर मुंबई ऐसी ही है ये भी नहीं कह सकते..... मुंबई सिर्फ गंदी ही नहीं है....यही मुंबई समंदर के खूबसूरत किनारों, ऊंची इमारतों, ग्लैमर की चकाचौंध और आधुनिकता के चरम के लिए भी अग्रणी मानी जाती है...तो इतने वृहद और संपन्न पक्ष की अनदेखी क्यों कर दी गयी...आखिर इस पक्ष को शून्य कर बाहर की दुनिया को इस फिल्म के माध्यम से क्या दिखाने और जताने की कोशिश की गयी....यही कि हम जो थे, वही हैं और वही रह गये....
ठीक है कि डायरेक्टर की प्रतिभा पर सवाल नहीं उठाया जा सकता क्योंकि गंदगी बेचने का उसका तरीका लह गया....और अगर इस फिल्म को ऑस्कर मिलता है तो केवल इसलिए नहीं कि वाकई ये फिल्म बेहतरीन बनी और संगीत ज़बरदस्त रहा....कारण और भी हैं.....मसलन, ये एक हॉलीवुड के डायरेक्टर ने बनायी है और इसमें भारत की ग़रीबी का वीभत्स और लाचार रूप दिखाया गया है....आप भी जानते हैं कि भारत घूमने आने वाले पर्यटकों के कैमरे भी झोपड़ियों और भीख के कटोरे पर ही ज़्यादा फ्लैश चमकाते हैं....ठीक वैसे ही जैसे किसी वीआईपी भारतीय मेहमान जैसे बिल क्लिंटन, प्रिंस चार्ल्स, मिलिबैंड आदि को घूमने के लिए सूरत, अहमदाबाद, दिल्ली, कश्मीर की वादियां, गोवा की बेरोकटोक हवा या केरल-कन्याकुमारी की खूबसूरती और सागर की गहराई में खो जाने वाला सूरज नहीं मिलता....उन्हें तो बस दिखता है राजस्थान के किलों के साये में सूखा बंजर नज़ारा, उन्हें देखकर आंखें फाड़ सकने वाले ग्रामीण....यहां तक तो गनीमत थी.....पर इस बार तो हद हो गयी, जब ब्रिटेन के विदेश मंत्री के भारतीय गांवों को देखने की इच्छा पर अमेठी का सबसे ग़रीब, दरिद्र परिवार दिखाया गया....किसे दोष देंगे हम??

ख़ैर, इतना तो कहा जा सकता है कि बवाल इस फिल्म के नाम में स्लम के साथ डॉग पर नहीं बल्कि पूरे देश को स्लमडॉग साबित करने की उनकी चाही-अनचाही कोशिशों पर मचना चाहिए था....स्लमडॉगों का ऐसा देश जहां जन-गण-मन अधिनायक जय का गान होता है, वहां अब सबके होठों पर है “जय हो....” का स्वर...

शिवानी त्रिपाठी

Wednesday, February 04, 2009

राष्ट्रपति मात्र संवैधानिक पद या उससे भी बढ़कर कुछ?

भारत का राष्ट्रपति इस देश का प्रथम नागरिक होता है। ये पाठ हमें बचपन से पढ़ाया जाता है। लेकिन ये प्रथम नागरिक आखिर करता क्या है? पिछले कुछ सालों से इस पद के लिये राजनैतिक पार्टियों में घमासान छिड़ा हुआ है। केंद्र की राजनीति में यह पद कितना अहम है इसके बारे में जानने की कोशिश करते हैं। श्रीमति प्रतिभा देविसिंह पाटिल। हमारे देश की राष्ट्रपति। इनका चुनाव जुलाई २००७ में डा. ए. पी. जे अब्दुल कलाम के जाने के बाद हुआ। चुनाव में खड़े थे पूर्व उपराष्ट्रपति भैरों सिंह शेखावत। प्रतिभा पाटिल कांग्रेस पार्टी की सदस्य रह चुकी हैं। सांसद और गवर्नर जैसे पद पर आसीन रह चुकी हैं। शेखावत बीजेपी के सदस्य हैं। तो जाहिर सी बात थी कि युद्ध तो होना ही था.. बाजी मारी कांग्रेस ने क्योंकि उसके सदस्य लोकसभा, राज्यसभा और विधान सभा में अधिक हैं।

कुछ वर्ष और पीछे चलें तो हम पायेंगे कि सुप्रीम कोर्ट ने अफ्जल गुरु को फाँसी की सज़ा दी। ये नाम अब पहचान का मोहताज नहीं। इसने सज़ा माफी की अपील की राष्ट्रपति से। राष्ट्रपति ने सलाह के लिये केंद्र मंत्रालय भेजा... तब से फाइल वहीं है...कितने साल फाइल दबी रहेगी ये सब वोटों पर निर्भर करता है.. आप लोग समझदार हैं इसलिये आगे बताना बेवकूफी है...ये राजनीति है...

मई २००५ नवीन चावला की चुनाव आयुक्त के तौर पर नियुक्ति...
मार्च २००६ एनडीए के २०४ सदस्य नवीन चावला को हटाने राष्ट्रपति के पास गये। चावला पर कांग्रेस से मिलीभगत का आरोप...राष्ट्रपति ने याचिका गोपालस्वामी को न भेज कर मनमोहन सिंह को भेजी। सरकार ने मामला दबा दिया। बीजेपी सुप्रीम कोर्ट गई.. कोर्ट ने कहा कि वो कुछ नहीं कर सकती.. मुख्य चुनाव आयुक्त ही ये केस देख सकते हैं... उसके बाद गोपालस्वामी को याचिका भेजी गई। गौरतलब है कि केवल सीईसी ही चुनाव आयुक्त को हटा सकते हैं। गोपालास्वामी ने नवीन चावला से जवाब माँगा। तीन बार जवाब माँगने पर चावला ने दिसम्बर २००८ में अपना जवाब दिया। एक महीने के भीतर गोपालस्वामी ने उन्हें हटाने की बात राष्ट्रपति से की.. राष्ट्रपति ने सरकार से कहा.. सरकार मामला दबा गई...

जब राष्ट्रपति भी सरकार का हो... चुनाव आयुक्त भी.. तो कांग्रेस सरकार राजनीति क्यों न करे?

बात इतनी नहीं... बात और भी गम्भीर है.. इस वाकये के बाद मेरा दिमाग यही सोचता रहा कि आखिर राष्ट्रपति के पास ताकतें कौन सी हैं? आइये जानें, जहाँ से लेख की शुरुआत हुई थी...

१. राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की नियुक्ति करता है..यानि उसको शपथ दिलाता है: प्रधानमंत्री केंद्र सरकार के द्वारा ही चुना जाता है।
२. राज्यपाल और सुप्रीमकोर्ट के जजों को शपथ: लेकिन उन्हें चुनती है केंद्र सरकार
३. तीनों सेनाओं का नेतृत्व करता है राष्ट्रपति लेकिन बजट निर्धारित करती है केंद्र सरकार
४. चीफ जस्टिस को शपथ... लेकिन चुनती है केंद्र केबिनेट
५. लोकसभा को भंग कर सकता है राष्ट्रपति: लेकिन निर्देश मिलते हैं केंद्र सरकार से..
६. साल के पहले सत्र का शुरुआती भाषण देने की औपचारिकता निभाता है राष्ट्रपति
७. इमेरजेंसी लागू करता है राष्ट्रपति लेकिन निर्णय लेती है सरकार
८. फाँसी सज़ा पर अपील होने पर माफी दे सकता है राष्ट्रपति लेकिन निर्णय लेती है केंद्र सरकार
९. सरकार द्वारा पारित बिल राष्ट्रपति केवल एक बार ही वापस भेज सकता है.. केंद्र सरकार यदि दोबारा राष्ट्रपति को बिल भेजे तो उसे औपचारिकता निभानी होगी और मुहर लगानी होगी।

ऊपर की जब ताकतें पढेंगे तो पायेंगे कि राष्ट्रपति केंद्र सरकार का खिलौना होने के अलावा और कुछ नहीं। यदि राष्ट्रपति को हटाना हो तो पार्लियेमेंट में वोटिंग से ये भी हो जायेगा। तो आखिर यह पद रखा ही क्यों हुआ है? क्या ज़रुरत है इस पद की? जनता की कमाई का १.५ लाख रूपया प्रतिमाह इस पद पर आसीन व्यक्ति के पास चला जाता है जो महज रबर स्टाम्प के और कुछ नहीं!!! राष्ट्रपति का देश के प्रति योगदान संदेह खड़ा करता है!

क्या यह महज एक संवैधानिक पद है और कुछ नहीं? ऐसे सवाल तब तब उठेंगे जब जब अफ्जल गुरु का जिक्र होगा.. जब जब नवीन चावला का जिक्र होगा.. केंद्र फाइलें दबाता रहेगा... कोर्ट फटकारता रहेगा.. राष्ट्रपति सिर्फ सुनेगा, देखेगा... पर कुछ कर न सकेगा!!!

हो सकता है कि यह सवाल आज से पूर्व भी उठे हों लेकिन आज इन्हें पुन: उठाना अपना दायित्व समझता हूँ.. हो सकता है कि कोई ऐसा काम हो जो राष्ट्रपति अपने बूते कर सकता हो और मुझे या अन्य किसी को न पता हो... आप जरुर बतायें...

--तपन शर्मा

Tuesday, February 03, 2009

बैंकिंग उद्योग के लिए एक प्रस्ताव

बैंकिग और बीमा, ये दो उद्योग ऐसे हैं जिनके बारे में कहा जा सकता है कि ये अपनी पूंजी से नहीं, अपने ग्राहकों की पूंजी से चलते हैं। जो कंपनी बीमा करती है, वह अपने पास से पैसा नहीं लौटाती। उसने जिनका बीमा किया हुआ है, उन्हीं के द्वारा जमा किए गए पैसे में से क्लेम निपटाती है। चूंकि हर साल जितने लोग क्लेम लेते हैं, उससे अधिक लोग बीमा करवाते हैं और किस्तें अदा करते हैं, इसलिए बीमा कंपनियों के पास अथाह पैसा जमा हो जाता है। बैंकों की अमीरी का रहस्य भी यही है। बैंक ऋण दे कर पैसा कमाते हैं। लेकिन यह ऋण वे अपनी जेब से नहीं देते। ग्राहकों द्वारा जमा किया गया पैसा उनकी पूंजी बन जाता है, जिससे उनमें ऋण देने की क्षमता आती है। इस तरह बैंक दूसरों के पैसे से अपना पैसा बनाते हैं। सीधे शब्दों में कहा जाए तो दोनों ही पाप करते हैं। यह निजी पूंजी नहीं है। सार्वजनिक पूंजी है, इसलिए इसका इस्तेमाल जनहित में ही होना चाहिए।

इस्लाम में सूद लेना हराम माना गया है। इसके लिए उसकी जितनी तारीफ की जाए, कम है। इसमें कोई शक नहीं कि पैसे से पैसा पैदा नहीं होता। अमरूद के पेड़ से अमरूद पैदा होता है, गाय के पेट से बछड़ा निकलता है और स्त्री बच्चा देती है। लेकिन लोहे से लोहा पैदा नहीं होता, न लकड़ी से लकड़ी पैदा होती है। कागज का रुपया भी ऐसा ही एक निर्जीव पदार्थ है। उसमें वैसा ही कागज पैदा करने की क्षमता कहां ! फिर भी अगर सदियों से यह संभव होता रहा है, तो इसीलिए कि ऋण लेनेवाले की मजबूरी से फायदा उठाने की कोशिश की जाती रही है। उधार देना सहयोग करने की क्रिया होनी चाहिए न कि मुनाफा कमाने की।

जहां मुनाफा होता है वहीं नुकसान होने की संभावना होती है। यही कारण है कि बैंकों के डूबते रहने की घटना होती रहती है। आजादी के पहले हर साल कुछ बैंक डूबते थे और हजारों ग्राहकों का पैसा मारा जाता था। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने जब बैंकिंग उद्योग को रेगुलेट करना शुरू किया, तब बैंक डूबने की घटनाएं बंद होने लगीं। अब यदा-कदा ही ऐसा होता है। उस स्थिति में रिजर्व बैंक आवश्यक कार्रवाई कर ग्राहकों के पैसे का इंतजाम कर देता है। लेकिन अमेरिका और कुछ अन्य देशों में ऐसा नहीं है। जहां बैंकों पर नियंत्रण नहीं होता, वे लालच में गलत सौदे करने लगते हैं और समय पर पैसे की वापसी नहीं होती, तो दिवालिया होने लगते हैं। बैंक ग्राहकों का पैसा डूब जाता है। इस बार अमेरिका में यही हुआ, जिससे वहां मंदी आ गई। अब अमेरिका की मंदी पूरी दुनिया को प्रभावित कर रही है।

बड़ा सवाल यह नहीं है कि बैंकिंग उद्योग कैसे हमेशा फूलता-फलता रहे। मुनाफाखोरी के किसी धंधे में समाज की क्या रुचि हो सकती है। समाज का काम मुनाफाखोरी को रोकना है। बैंकिंग उद्योग अगर यह तय करे कि वह दस प्रतिशत सालाना से ज्यादा मुनाफा नहीं कमाएगा, तो यह उद्योग प्राइवेट हाथों में रह सकता है। अभी हालत यह है कि बैंक कई सौ गुना मुनाफा कमा रहे हैं। पैसा जमा करनेवालों को कम ब्याज देते हैं और ऋण लेनेवालों से ज्यादा ब्याज वसूल करते हैं। बीच का पैसा खा कर वे मोटाते जाते हैं। चूंकि ऋण देने के पीछे कोई सामाजिक लक्ष्य नहीं होता, इसलिए वे गरीबों को ऋण नहीं देते ताकि वे अपने जरूरी काम निपटा सकें, बल्कि अमीरों को (ताकि वे इस पैसे से और पैसा पैदा कर सकें) और मध्य वर्ग के लोगों को (क्योंकि इनके पास कुछ पैसा पहले से होता है) ऋण देते हैं। इस तरह बैंकिंग पैसे का खेल बन कर रह गई है, जिससे गरीबों का या वास्तविक जरूरतमंदों का कोई भला नहीं होता। गरीब भले ही ईमानदार हो और समय पर पैसा चुकाने की नीयत रखता हो, पर उसे ऋण नहीं मिलेगा, क्योंकि उसके पास जमानत देने के लिए कुछ नहीं होता।

इन सब बुराइयों का इलाज है। इलाज यह है कि पैसे पर सूद लेना और सूद देना, दोनों बंद कर दिए जाएं। यह दलाली की कमाई है। दलाली की कमाई से कोई देश फूलता-फलता नहीं है। कायदे से होना यह चाहिए कि जो लोग बैंकों में पैसा जमा करते हैं, वे उसकी रखवाली के लिए एक निश्चित मात्रा में प्रबंधकीय शुल्क दें। यह बैंक की असली कमाई होगी। इस कमाई से जरूरतमंद लोगों को ऋण दिया जा सकता है। इस ऋण पर भी ब्याज न ले कर प्रशासनिक शुल्क लिया जाना चाहिए। इन दोनों शुल्कों की राशि से ही बैंकों को अपना कामकाज चलाना चाहिए। इस तरह बैंकिंग मुनाफे का उद्योग न रह कर जन सेवा का उपक्रम बन जाएगी। इसे जन बैंकिग कहा जा सकता है।

सवाल उठता है कि रुपया जमा करनेवालों के पैसे का क्या जाए। पैसे को अचल रखना ठीक नहीं है। उसका प्रवाह बने रहना चाहिए। नहीं तो अर्थव्यवस्था कुछ हद तक ठप हो जाएगी। लेकिन दूसरे के पैसे का इस्तेमाल बहुत सावधानी से होना चाहिए। इसलिए देश के अर्थशास्त्रियों को आपस में विचार करके इस विषय में अपना मत देना चाहिए। यह हो सकता है कि इस जमा राशि का एक हिस्सा छोटे उद्योग-धंधों को बढ़ावा देने के लिए खर्च किया जाए और एक हिस्सा मध्य वर्ग तथा निर्धन लोगों को ऋण देने में खर्च किया जाए। इनसे किसी तरह की जमानत न ली जाए। जैसा कि उपर कहा गया है, ऋण की सभी रकमों पर सिर्फ प्रबंधकीय शुल्क लिया जाए। अमीर संस्थानों को ऋण देने की कोई जरूरत नहीं है। वे अपने शेयरहोल्डरों से जितना अधिक पैसा ले सकते हैं, लें और उसी से धंधा करें। जहां तक ऋण की अदायगी का सवाल है, यह जगजाहिर हो चुका है कि ज्यादातर बड़े ऋण प्राप्तकर्ता ही बैंकों को धोखा देते हैं और उनका पैसा डकार जाते हैं। जो छोटी रकमें लेते हैं, उनमें से ज्यादातर ऋण चुका देते हैं। नई व्यवस्था में जो लोग ऋण नहीं चुका पाते, उन्हें पुलिस, पंचायत आदि की सहायता से ऋण चुकाने के लिए बाध्य किया जा सकता है। बदले में उन्हें दिवालिया घोषित कर (ताकि वे भविष्य में ऋण न ले सकें) उनसे विभिन्न कार्यक्रमों में मजदूरी भी कराई जा सकती है। यह भी हो सकता है कि उन्हें श्रम जेल में डाल दिया जाए और वहां काम करवाया जाए। जब उधार की पूरी रकम चुक जाए, तो उनकी दिवालिया वाली स्थिति खत्म की जा सकती है। फिर भी बैंकों को घाटा हो सकता है। चूंकि बैंक जन सेवा कर रहे हैं, इसलिए इस घाटे की पूर्ति सरकार को करनी चाहिए। सरकार को इसलिए कि वह मुनाफा कमाने के लिए नहीं, जनता का जीवन सुगम बनाने के लिए चुनी जाती है।

सीएनबीसी टीवी चैनल में काम करनेवाली और एक समय हमारे बगल में रहनेवाली एक लड़की को, जो बिजनेस समाचार देखती है, जब मैंने यह स्कीम सुनाई, तो उसने खट से कहा कि यह तो सोशलिस्टिक बैंकिंग है। वर्तमान बैंकिंग के लिए उसने कैपिटलिस्टिक बैंकिंग की संज्ञा का उपयोग किया। निश्चय ही वह एक क्षण में मेरी बात समझ गई। क्या मैं पाठक-पाठिकाओं से खूब सोच कर यह बताने का निवेदन कर सकता हूं कि कौन-सी बैंकिंग समाज के ज्यादा हित में होगी - कैपिटलिस्टिक या सोशलिस्टिक?

राजकिशोर

(लेखक इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, नई दिल्ली में वरिष्ठ फेलो हैं)

Monday, February 02, 2009

वो "पब" याद आये, बहुत याद आये....


कोई भी लेख लिखना जाने क्यूं मुझे असुविधा जनक सा लगता है.....पर कभी-कभी ऐसा कुछ घट जाता है के ये बेहद मुश्किल काम भी किए बग़ैर चैन नहीं पड़ता...अभी एक ख़बर पढ़ी थी मंग्लुरु की...एक नयी- नवेली सेना द्बारा पब संस्कृति के विरोध की ......पब संस्कृति का मैं भी किसी भी तरह से पक्षधर नहीं हूँ.....ना यूँ खुले आम उन्मुक्तता ही मुझे पसंद है.....हाँ खुला होना एक अलग बात है...लिहाजा मुझे भी इस सेना का शुक्रगुज़ार होना चाहिए कि मेरे ख्यालात समझ कर उनहोंने इस का विरोध किया... मगर क्या विरोध किया.....? क्या किसी को ऐसा करने का हक है..? विरोध करने के क्या यही तरीके रह गए हैं...?
अगर लड़कियों के बयान पर भी गौर करें तो (और गौर क्यूं ना करें..? वो भी तो इसी मुल्क की नागरिक हैं... ना भी हों तो इंसान तो हैं ही..) तो उनके मुताबिक वहाँ पर विरोध प्रकट करने के नाम पर जो मार-पिटाई हुई...बाल पकड़ कर घसीटा गया...बदतमीज़ियां की गयीं......और तो और कपड़े तक उतरवाने की बात हो गयी.. तो अब इस विरोध का क्या अर्थ निकाला जाए...क्या वास्तव में ये लोग "नग्नता" का विरोध करने गए थे...साफ़-साफ़ नहीं लगता आपको कि कौन-सी कुंठाएं लेकर गए थे वहाँ पर...? इस से अधिक स्पष्ट तो मेरे ख्याल से और क्या होगा...?

हो सकता है सेना प्रमुख कहें कि इस में कुछ बाहरी लोग भी शामिल हो गए होंगे...... लेकिन एक आग के ख़िलाफ़ दूसरी आग भड़काना कहाँ तक ठीक है...और इस आयोजन से होने वाले नुक्सान का जिम्मेवार कौन है...."नुक़सान" से मेरा मतलब है कि उन लड़कियों के सारे नही तो कुछ बयानों में तो सच्चाई होगी ही .... यही कहा जायेगा कि सब राजनीति का खेल है.....चुनाव का चक्कर है ......पब्लिसिटी स्टंट है....और बात ख़त्म ..... हाँ मालूम है कि इन महान लोगों के बगैर तो ना राजनीति चल सकती है, ना चुनाव ही हो सकते हैं ...और देश का, कल्चर का, सभ्यता-संस्कृति का तो उद्धार कदापि नहीं हो सकता.....पर ज़रा उन चंद लड़कियों के दिल से तो कोई पूछ कर तो देखे कि उस वक्त उनके दिल पर क्या बीती होगी ...चाहे कैसी भी ग़लत राह पर कुछ युवा जा रहे हों ...पर ये अपमान किस तरह से शोभा देता है....इस से हमारी कौन सी सभ्यता का सिर ऊंचा हो जायेगा...कौन सी संस्कृति फले-फूलेगी.....और नैतिकता ...........????

इश्वर किसी को भी इतना नैतिक ना बनाए ..जिन्हें दंगे फसाद टाइप के ये आयोजन भी नैतिक कार्यवाई लगते हों, उनकी अक्ल पर हंसूं या रोऊँ ....अपनी जिंदगी अपने ढंग से जीने का सबको हक है...हाँ ...जो संयम से, सही तरीके से जियेगा वो ख़ुद पर अहसान करेगा....और नहीं तो जल्द बर्बाद हो जायेगा ...इससे ज्यादा और क्या.......

(दोनों कार्टून लेखक ने ही बनाये हैं...)

मनु "बे-तक्ख्ल्लुस