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Saturday, February 28, 2009

सोने का पिंजर (6)

अमेरिका का नाश्ता और भारत की बूढी काकी

छठा अध्याय

हमने जब अमेरिका की धरती पर पैर रखा तो एक लम्बी लाईन इमीग्रेशन चेक की थी। यही लाईन भारत में होती तो हम उसे अव्यवस्था का नाम देते। काउण्टर बीस, लेकिन ओपेन दस भी नहीं। सभी मटरगश्ती कर रहे हैं, लेकिन किसी को भी यह चिन्ता नहीं कि बाइस घण्टे की यात्रा करने के बाद अविकसित देश का व्यक्ति विकसित देश में आया है तो उसे शीघ्र समाधान मिल जाए। ऊँचे पदों पर आसीन, बड़े-बूढ़े भी दो घण्टे विकसित देश की सुस्ती देखकर धन्य हुए जा रहे थे। बोलने की हिम्मत किसी में नहीं, कहीं ऐसा नहीं हो कि यहीं से वापस टिकट कटा दी जाए। विकसित देश इसी स्पीड से काम करते हैं। खैर दो घण्टे बाद हमारा भी नम्बर आया, अब घावों पर तहज़ीब का मरहम लगाया गया और यह बताया गया कि देखों हम कितने प्यार से बात करते हैं। ‘हाउ आर यू?’ एक मधुर सी मुस्कान उछाली गयी, हमने भी सोचा कि चलो दो घण्टे बाद ही सही खिड़की में कोई आकर बैठा तो सही और उसने शराफत से बात तो की। लेकिन फिर अधूरी कागज़ी कार्यवाही।
बाहर कस्टम वाले ने रोक लिया, अरे इसमें तारीख की छाप तो लगी ही नहीं! अब वापस वहीं, लेकिन जब तक तो वह अफसर जा चुके थे।
कहीं भला आधा घण्टे से अधिक विकसित देश वाले काम करते हैं क्या? अब कौन हमारी समस्या सुलझाए?
बस एक ही उत्तर ‘गो योर विन्डो’, अरे कहाँ से लाऊँ अपनी विन्डो?
आखिर एक काली अफसर दिखाई दी, सोचा कि एक काला आदमी दूसरे काले से ही मदद माँग सकता है, मैंने बड़ी आशा से उससे कहा कि ‘आई नीड योर हेल्प’।
उसने गोरे अधिकारी से कहा कि इनकी एंट्री देखो। मेरा और मेरे पति का नाम वहाँ था। अब स्टांप लगा दो, पर बन्दे ने नहीं माना। स्पष्ट मना कर दिया कि नो। आखिर वही महिला अधिकारी अपनी विन्डो पर गयी और उसने स्टांप लगाकर दी। कहते हैं कि काले बड़े खतरनाक हैं, इनसे बचकर रहो। साथ ही कहते हैं कि भारतीय भी खतरनाक हैं इनसे बचकर रहो। यह है बदनामी का प्रचार।
अभी हमें बहुत कुछ देखना था, होटल गए, पहले से ही सारा पैसा भेज दिया गया था, फिर भी लाइन में लगाकर वही घण्टों का इन्तजार। दो दिन हो गए थे सफर में, न्यूयार्क के एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही सोच रहे थे कि जाते ही होटल के अपने कमरे के बिस्तर पर पड़ जाएँगे। खाने की भी इच्छा नहीं थी, तो मन ने कहा कि अरे बेचारे आयोजकों ने हमारे लिए खाने का इंतजाम किया होगा, वे मनुहार करेंगे तब कैसे कमरे में बंद रहेंगे? न्यूयार्क की धरती पर पहुँचते ही बेटे को फोन करना था, हमें लेने आए आयोजक के पास फोन था। हमने उनसे लिया और बेटे को सूचना दे दी कि हम आ गए हैं, शेष बाते होटल पहुँचकर। लेकिन हमें क्या पता था कि पहले ग्रास में ही मक्षिकापात हो जाएगा? हमें कहा गया कि होटल के कमरे के लिए लाइन में लगें। हमारे साथी दूसरी उड़ान से हमसे पहले पहुँच गए थे और उनको कमरे मिल गए थे। हमने सोचा था कि उन्होंने हमारे कमरे की चाबी भी ले ली होगी। लेकिन यही हम गच्चा खा गए। हमारे यहाँ होटल में जाने का मतलब है साहब बनना। जाते ही कमरा मिलेगा और आपका सामान कमरे में पहुँच जाएगा। लेकिन यहाँ ऐसा नहीं है। आपने पहले बुकिंग कराई है तो क्या, आप किसी कार्यक्रम में आएं हैं तो क्या, आप किसी के मेहमान हैं तो क्या? आपको लाइन में लगकर एक फार्म भरना पड़ेगा, तब कहीं जाकर चाबी मिलेगी।
यहाँ भी वही खरामा-खरामा काम करने की आदत, रात के बारह बज गए और लाइन न शुरू हो और न ही खत्म। किसी अपने से कहो कि भई यह क्या बात है? तो वह कहेगा कि यहाँ ऐसे ही काम होता है। मेरे मन में आया कि कहने वाले भारतीय को झिंझोड़कर पूछू कि यहाँ ऐसे ही काम होता है तो फिर भारत को गाली क्यों देता है? भारत में तो होटल के कमरे के लिए कभी लाइन नहीं लगानी पड़ी। सौ करोड़ की जनता को भी इतने घण्टों तक तो कोई इंतजार नहीं कराता। लेकिन फिर भी यह उनकी खुबसूरत अदा है। हम सम्मानित होने वाले साहित्यकारों में थे, फिर भी असम्मान के साथ लाइन में लगे थे। राजस्थान के प्रतिनिधि दल ने भी हमारा कमरा आरक्षित कराया था, लेकिन सब बेकार।
हम एक लाईन में लगे, लाईन थोड़ी लम्बी थी, दूसरा काउण्टर खाली था। हमारे साथ लगा एक गोरा व्यक्ति दूसरे काउण्टर पर चला गया, उसका काम हो गया। हम भी उसके पीछे-पीछे चले गए, बस त्यौरियां चढ़ गयी, ‘गो योर लेन’। हमारे साथियों ने कहा कि आप कब तक लाईन में खड़ी रहेंगी, हम ऐसा करते हैं कि एक कमरा आपके लिए खाली कर देते हैं, आप वहाँ आ जाएं। क्योंकि अभी रजिस्ट्रेशन का बिल्ला भी लेना था। हमारी लाईन में विदेश विभाग के अधिकारी भी खड़े थे, मैंने उनसे कहा कि बारह बज रहे हैं अब मैं और नहीं खड़ी रह सकती। पानी की प्यास के मारे गला सूख रहा है और मैं लाईन छोड़ कर चले गयी।
सामान अपने साथी के कमरे में पहुँचाया और आठवीं मंजिल पर रजिस्ट्रेशन के लिए जा पहुँचे। अभी तक हमने किसी भी आयोजक को नहीं देखा था, सिवाय एयरपोर्ट के। खाने की कल्पना तो उड़न-छू हो चुकी थी। भारत में हम कैसे मेहमानों के लिए बिछे जाते हैं? यदि मेहमान विदेशी हो तो फिर हम उसके स्वागत में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। लेकिन यहाँ तो कुछ भी नहीं! रजिस्ट्रेशन वाले कमरे में चार भारतीय प्रवासी अपनी सेवाएं दे रहे थे। रजिस्ट्रेशन का फार्म पहले ही भरा जा चुका था, पैसे भी दिए जा चुके थे, बस अब तो किट लेना था। लेकिन वह देसी बंदा हिलने को ही तैयार नहीं हो। वह निश्चल बैठा था, उससे एक ने कहा कि भाईसाहब किट दीजिए। वह उसकी तरफ पोज मारकर देखने लगा। पंद्रह मिनट का पोज! हम सबने निर्णय किया कि कुछ मत बोलो, बोलते ही यह पोज में चला जाता है। आखिर आधा घण्टा हो गया, एक बुजुर्ग व्यक्ति ने अपना कुर्ता उठाया और बोला कि ‘भाईसाहब मेरी कमर का आपरेशन हुआ है, यह देखिए, ज्यादा देर खड़ा नहीं रह सकता।’
मैंने कहा कि भाईसाहब कम से कम पानी ही पिला दीजिए।
वह अपनी टेबल के नीचे से एक आधा लीटर की बोतल निकालकर बोला कि देखिए सुबह से इस बोतल के सहारे यहाँ बैठा हूँ। मैंने सोचा कि अरे पानी तो इसके पास ही नहीं है, मुझे क्या पिलाएगा?
फिर वह बोला कि आपको पता है कि दो साल पहले मैं मरते-मरते बचा था, पूरा शरीर पेरेलाइज हो गया था। आप कहते हैं कि मेरे कमर का ऑपरेशन हुआ है।
भगवान ने उसे पुण्य का मौका दिया था और उसे वह पाप में बदल रहा था। लेकिन फिर वह कुछ हिल ही गया और उसने बुजुर्गवार को किट पकड़ा ही दिया। हम सबने कहा कि आपको कठिनाई हो रही है तो आप हमें बताए हम सब आपका हाथ बँटा देंगे।
वह अहंकार के साथ बोला कि हमारे पास यू.एन. हेडक्वार्टस से आर्डर हैं कि सारा काम व्यवस्थित हो। हमें स्वयं ही देखना है।
उसका काम इतना भर था कि हमें मिलने वाले बिल्ले पर हमारा नाम और देश का नाम लिखना था और तैयार किट पकड़ाना था। इसपर भी एक व्यक्ति के साथ आधा घण्टे का समय समझ से परे था। खैर अभी तो हमें बहुत कुछ देखना था। शायद भगवान ने हमें वहाँ भेजा ही इसलिए था कि भारतीयों का हीनबोध मैं कम कर सकूँ। मुझे ही सारे प्रकरणों से भगवान ने गुजारा था।
मैं अभी आधे घण्टे से लाईन में सबसे आगे लगी हुई ही थी कि एक महिला दौड़ती हुई आयी। उसकी नाक पर एक नली लगी थी। वह मुझसे बोली कि मैं आपसे क्षमा चाहती हूँ। मैं बहुत खुश हुई, पहली बार यहाँ यह शब्द सुना था। लेकिन वह मुझसे क्यों क्षमा माँग रही थी? मन ने प्रश्न किया।
वह बोली कि मेरे ऑक्सीजन लगी है, अतः आप मुझे पहले आगे आने दें।
मैंने कहा कि शौक से, आप आगे आएं, यदि ये काम कर दें तो मुझे खुशी होगी। अब मैंने उन्हें कहा कि भई इनको तो दे दो।
खैर जैसे-तैसे एक घण्टे में काम हो ही गया। मैंने अपने साथ वालों के लिए भी कहा, वो बोला कि उन्हें स्वयं ही आना होगा। अब इस आपा-धापी में भला किसकी हिम्मत होगी जो अपने साथ आए पति का भी प्रवेश-पत्र ले ले। हम इतना टूट चुके थे कि अपने कमरे में जाकर बेसुध से पड़ गए। यह ध्यान भी नहीं रहा कि बेटे को फोन भी करना है। कमरे में न तो पानी था, और न ही दिन के बाद से पेट में कुछ पड़ा था। लेकिन थकान ने उन सबकी ओर ध्यान ही नहीं जाने दिया। बेटे ने पहले ही बता दिया था कि खबरदार जो होटल के कमरे में रखी पानी की बोतल को पीया। वह बोतल तीन डॉलर की है। होटल में जाने से पूर्व बाहर पूरा केरेट खरीद लेना तो वह तीन डॉलर का मिल जाएगा। हमने देखा हमारे कमरे को। 200 डॉलर प्रतिदिन का कमरा। फ्रिज नहीं था, तो पानी का तो सवाल ही कहाँ उठता है। बाथरूम में जाइए और उसी नल से पानी पी लीजिए। लेकिन हम इतने टूटे हुए थे कि न तो पानी दिखायी दे रहा था और न खाना। बस सामने पलंग था और हम उसके आगोश में जाने को बेताब।
रात के तीन बजे फोन की घण्टी बज उठी, एक बारगी तो समझ ही नहीं आया कि क्या हो रहा है, फिर पतिदेव ने फोन उठाया। फोन पर बेटा था, बोल रहा था कि आप लोग कहाँ हैं? मैं कब से परेशान हो रहा हूँ, आपका फोन ही नहीं आया। मैंने होटल के काउण्टर पर पूछा तो बोले कि यहाँ तो लोग छः घण्टों से लाइन में लगे हैं। मैंने फिर दोबार फोन किया तो कहा कि नहीं कोई लाइन नहीं हैं। लेकिन अजित गुप्ता के नाम का कोई कमरा बुक नहीं है। उसने भारत फोन करके कैसे भी एक नाम हमारे साथी का ढूँढा और उसी के नाम से कमरे के बारे में जानकारी चाही। पहले तो उसी नाम के दूसरे कमरे में फोन लग गया फिर किस्मत से उन्हीं के नाम के कमरे में हम थे। हमने कहा कि हम ठीक हैं, नींद में हैं, सुबह बात करेंगे।
सुबह हो गयी, अब तो नाश्ते की बारी थी। हमने सोचा कि हो सकता है कि आयोजक आज मेहमान-नवाजी करें। लेकिन यह क्या होटल में ही नाश्ता लगा था और उस अमेरिकन नाश्ते को खाते कैसे हैं, बताने वाला कोई नहीं था। हिन्दी सम्मेलन का उदघाटन युनाइटेड नेशन के कार्यालय पर होना था तो बस भी नीचे लग चुकी थी। हमने चाय पीना ही ठीक समझा। हमने जैसे ही चाय के पानी में दूध डाला, चाय एकदम ठण्डी-टीप। वहाँ दूध एकदम ठण्डा फ्रीज का ही होता है। खैर नाश्ते की बात बाद में करेंगे। अभी तो बस जाने को तैयार थी। हम बस में बैठने के लिए तैयार थे। लेकिन अब समस्या खड़ी हो गयी, हमारे पतिदेव की। उनके पास तो बिल्ला नहीं। वहाँ समस्या समाधान के लिए भी कोई नहीं। फिर यही उचित समझा गया कि वे वहीं होटल पर रहें, नहीं तो वहाँ कहाँ जाएँगे? अब उनका तो मूड खराब, क्या इसी के लिए यहाँ आए थे? लेकिन समय नहीं था, बस एकदम से तैयार खड़ी थी।
एक घण्टा वहाँ पर भी लाइन में खड़े रहे। मुझे लगता है कि हम भारतीयों को लाइन में कैसे खड़ा रहना है, इसकी आदत वहाँ पड़ जाती है। खैर कैसे-तैसे हम हॉल तक जा ही पहुँचे। कार्यक्रम भी शुरू हुआ और खत्म भी। पेट के चूहे कुलबुला रहे थे। सोचा था कि यहाँ तो कुछ नाश्ता वगैरह होगा। लेकिन कुछ नहीं। पास ही दुकान थी, खरीदो और खाओ। हमने भी चाय से ही काम चलाया। कार्यक्रम खत्म हुआ और वापस बस की इंतजार प्रारम्भ। दो बजे तक सड़क पर खड़े रहे लेकिन बस का कहीं दूर-दूर तक पता नहीं। वहाँ जसदेव सिंह जी भी खड़े थे, थोड़ा गुस्से में थे। बोल रहे थे कि मुझे कमेण्ट्री के लिए बुलाया था और यहाँ किसी और से करा ली।
अरे भाई, तुम तो अपने देश में करते ही रहते हो, यहाँ बेचारों को कभी-कभी तो अवसर मिलता है, करने दो। क्यों नाराज होते हो।
जब सब्र का बाँध टूटने लगा तो आयोजकों को फोन खड़काया गया और तब कहीं आकर बस आयी। लेकिन बस वो ही समय था जब हम लोगों से मिल पाए। बाकि तो कोई किसी कार्यक्रम में और कोई किसी में। तीन बजते-बजते हम खाने की टेबल पर थे।
जब न्यूयार्क आने की बात चली थी, तब बेटे ने कहा था कि अरे कितना अच्छा खाना खिलाते हैं भारतीय, मैं भी तीन दिन आपके साथ ही रह लूँगा। अच्छे खाने का अवसर मिल जाएगा। मन में खाने की कल्पना का भण्डार था। मन बूढ़ी काकी की तरह ही सोच रहा था। एक टेबल पर ढेर सारा सलाद होगा, क्योंकि यहाँ के भोजन में सलाद ही मुख्य होता है। एक टेबल पर फल भी होंगे। गरम-गरम रोटी होगी, ढेर सारी सब्जियाँ होंगी। लेकिन हमारा हाल भी बूढ़ी काकी जैसा ही हो गया था। हमारे ख्वाब बेकार ही गए। बहुत ही गया गुजरा खाना था। जिसे हम भारतीय तो नहीं खा सकते थे।
एक रोटी जैसी थी, हमने वो ही खाने का मन बनाया। लेकिन वह हमसे खायी नहीं गयी।
जब बेटा आया और हमने अपना दुखड़ा रोया तो बोला कि अरे वो तो पीटा थी, उसे ऐसे नहीं खाया जाता। उसे रोटी की जगह कैसे परोस दिया?
अब हमें क्या पता कि कैसे परोस दिया? सोच रहे होंगे कि इन फूहड़ भारतीयों को क्या पता अमेरिकन रोटी क्या होती है?
हमारे साथ की साहित्यकार बोली कि दीदी मुझे तो उल्टी आ रही है। मैं तो इसे नहीं खा सकती। फिर अपने ही मिठाई के डिब्बे खुले। हम घर से पराठें बनाकर लाए थे। रास्ते में लंदन में डस्टबीन में डाल दिए। यह सोचकर कि अब तो पहुँच ही रहे हैं, गर्म खाना ही खाएँगे, भला ठण्डे परांठे क्यों खाएँ? लेकिन अब वे ही याद आ रहे थे। एक वहाँ साबूदाने के पापड़ की लाल-नीली कतरने थीं जो तीन दिन तक नहीं बदली गयी। सलाद का तो नाम ही नहीं था। बस एक अच्छी चीज थी, वह था पानी। पानी की हजारों बोतले वहाँ थीं। सारे ही भारतीय उन बोतलों पर टूट पड़े, क्योंकि किसी ने भी पानी कहाँ पीया था? सभी के हाथ में दो बोतले थी, होटल के लिए।
बस से उतरते ही हमें हमारे पतिदेव की चिन्ता सताने लगी। वे बाहर ही मिल गए, बोले कि मैंने तो बाहर भारतीय होटल में खाना खाया है। मुझे उनकी हिम्मत पर शक हुआ। मेरी आँखे आश्चर्य से फटी जा रही थीं। वे भारत में ही अकेले जाकर ऐसा कार्य सम्पादित नहीं कर सकते थे तो यहाँ परदेस में वे और अकेले जाकर?
फिर वे बोले कि बेटे का फोन आ गया था, उसे बहुत चिन्ता हो रही थी। उसने मेरी एक मित्र के बेटे को फोन किया जो न्यूयार्क में ही था। उसने बताया कि तू जाकर पापा को खाना खिला दे, नहीं तो बहुत गड़बड़ हो जाएगी।
ओह तो ऐसे मेनेज हुआ आपका खाना। अब मैं निश्चिंत थी। कम से कम उन्होंने तो ढंग का खाना खा ही लिया था। मेरे लिए यही सबसे बड़ा संतोष था कि पतिदेव का पेट भर गया है। नहीं तो पता नहीं न्यूयार्क में क्या होता?
होटल से आयोजन स्थल का मार्ग पैदल मार्ग था। हम उसी पर चलते रहे थे, रास्ते में एक फलों की दुकान दिखायी दे गयी। बस मुझे तो समझ आ गया कि यदि कल भी यही खाना मिला तो बिना डॉलर गिने मैं फलों से ही पेट भरूँगी। आप आश्चर्य मत करिए, अभी तो नाश्ते का वर्णन भी बाकी है।
हम जब बेटे के साथ केलिफोर्निया के एक होटल में रुके थे तब समझ आया था कि यहाँ सुबह का नाश्ता होटल के किराए में शामिल होता है। ढेर सारा नाश्ता होता है, आपको कुछ तो पसन्द आ ही जाता है। गर्म दलिया भी, आमलेट भी, फल भी, सूखे मेवे भी, और भी बहुत कुछ। लेकिन हमारा प्रथम अनुभव तो बड़ा कटु था। हमारे न्यूयार्क के होटल में भी नाश्ता सजा था। हमे तब तक यह भी नहीं मालूम था कि यह होटल वालों की तरफ से ही है। हम तो सोच रहे थे कि गर्म-गर्म आलू बड़े, जलेबी, आलू के पराठें, सेण्डविच आदि होंगे। लेकिन वहाँ तो गोल-गोल रिंग सी पड़ी थी। सब लोग पूछ रहे थे कि इसे कैसे खाते हैं? कोई उसे काट रहा था, और फिर जैम भर रहा था, कोई वैसे ही चाय में डुबोकर खाने की कोशिश कर रहा था।
बाद में बेटे ने बताया कि यह ‘बेगल’ है इसे ऑवन में गर्म करके खाया जाता है, कच्चा तो कोई खा ही नहीं सकता। कच्चा मतलब आटा खाना।
लेकिन बेटा वहाँ तो ऑवन था ही नहीं। हम तो सभी ऐसे ही लगे थे, खाने में। फिर वही लड्डू और मठरी निकाले गए।
हमारे साथ वरिष्ठ साहित्यकार थे, वे एक गोल रिंग को उठा लाए। मैंने उनसे पूछा कि क्या करेंगे? वे बोले कि भारत लेकर जाऊँगा। दिखाऊँगा इस नायाब चीज को।
मैंने कहा कि बदबू आने लगेगी।
वे बोले कि जूते में डालकर ले जाऊँगा। लेकिन ले जरूर जाऊँगा।
दूसरे दिन का खाना भी पहले दिन जैसा ही था। एकसा मीनू, कोई बदलाव नहीं। हमने तो फलों की दुकान पकड़ ली। तीसरे दिन बेटा आ गया था। पद्मजा जी बोली कि अरे तेरे देश में भूखे मर गए। वह बेचारा दही लेकर आया, फल लाया, बोला कि पता नहीं इन्होंने कैसा खाना दिया है?
तीन दिन तक गुलजार भी वहीं थे, वे भी खाने की टेबल पर दिख ही जाते थे। पता नहीं कैसे खा रहे थे, या फिर घर जाकर खाते थे?
लेकिन समस्याएं अभी खत्म नहीं हुई थी। दूसरे दिन पतिदेव को बिल्ले के अभाव में बाहर ही रोक लिया गया। अब तो हमारी सिट्टी-पिट्टी ही गुम हो गयी। अब क्या करें? अच्छा सम्मान कराने आए। हम अब कुछ आयोजकों से मिले। उन्हें अपनी समस्या बतायी, यह भी कहा कि हम सम्मानित होने वाले हैं तो साथ में पति भी हैं और बेटा भी आने वाला है। लेकिन फिर उन्होंने हमें दो कार्ड बनाकर दे दिए। अब कहीं हम जाकर शेर बने। मजेदार बात तो यह रहती है कि गेट पर आयोजक नहीं होते अपितु सिक्योरिटी वाले होते हैं। लम्बे-चैड़े, अधिकतर काले।
हम अपने साथ जोधपुर के दूध के लड्डू लेकर गए थे, हम क्या हमने पद्मजा जी को बोल दिया था कि वे जोधपुर से साथ लेकर आएं। हमने समापन वाले दिन एक डिब्बा लिया और सारे ही आयोजकों को लड्डू खिलाए। वे लड्डू देखकर एकदम खुश हो गये। हमने मन ही मन कहा कि तुमने तो हमें कुछ नहीं खिलाया, लेकिन तुम्हारे लिए तो हम देश से लड्डू लेकर आए हैं। सच वहाँ जाने के बाद ही समझ आता है भारत और भारत का लाजवाब खाना। हमारे यहाँ आतिथ्य करना सौभाग्य की बात समझी जाती है लेकिन वहाँ इसका अर्थ ही लोग भूल गए हैं। आज भी हमारे यहाँ विदेश से किसी के आने पर हम पलक-पाँवड़े बिछाते हैं लेकिन कैसा रूखा तो आतिथ्य था उनका?

डॉ. अजित गुप्ता

Saturday, February 21, 2009

सोने का पिंजर (5)

नौ गज साड़ी लपेटने में क्यूँ करें वक्त बरबाद....

पाँचवा अध्याय

मैं भारत की धरती से हजारों मील दूर अमेरिका की उन्नत धरा पर आयी हुई हूँ। यहाँ लाखों भारतीय बसे हुए हैं, उनकी आँखों में कहीं न कहीं भारत का पानी छलकता दिखाई देता है। पूर्ण विकसित देश, मनुष्य के लिए सारे साधनों की भरमार, किसी भी गरीब देश के बाशिंदे को यहाँ आकर्षित कर खींच ही लाएगी। चारों तरफ मकानों की कतारें और धरती पर बिछी दूब, धूल और गुबार के लिए कहीं जगह नहीं। भारत में झाडू और फटका मारते हाथ यहाँ आकर महिने में एकाध बार वेक्यूम क्लीनर तक पहुँचते हैं। वहाँ हाथों की मेंहदी और चूड़ी, कपड़ों में साबुन लगाने में ही अपनी रंगत भूल जाती हैं, ऐसे में यहाँ तीन-चार दिन में एक बार, कपड़े धो-सुखाकर मशीन आपको दे देती है। खाने में भी इतनी खट-पट नहीं, सभी कुछ तो शोपिंग मॉल में उपलब्ध है। सारी बाते करते समय कपड़ों की बात भला कैसे भूल सकती हूँ, भारत में नौ गज साड़ी लपेटते-लपेटते और अपना तन ढकते हुए न जाने कितना समय बर्बाद हो जाता है, लेकिन यहाँ तन की इतनी चिन्ता नहीं है। ऐसा कुछ पहनो, जो आसान हो, कुछ भी ढकने का प्रयास मत करो, सभी का शरीर एक है। यदि आप की वसा जगह-जगह से लटक रही है तो क्या? दिखने दो, क्यों साड़ी की परतों में छिपाते हो? ऐसा जीवन, खुला जीवन, स्वच्छन्द जीवन, भला कौन नहीं चाहेगा? तो लाखों युवा अपनी टिकट कटाकर चले आते हैं, इस स्वर्ग जैसे देश में।
हमारा तन कुछ माँगता है और हमारा मन कुछ और। सारे साधनों को, सारे ऐश्वर्य को, हमारा मन दिखाना चाहता है, अपनों को, अपने देश में बसे अपने छूटे हुओं को। पराये देश में सबकुछ है लेकिन इतनी आजादी तो नहीं मिल सकती कि अपनों को भी यहाँ बसा लिया जाए। इस देश का ऐश्वर्य दिखाने की छूट है, यहाँ बसने की छूट नहीं। सारी चाहतों को समेटे, इस स्वर्ग जैसी धरती पर अपना आशियाना बसाने निकले लाखों युवा, मन की एक परत भारत में छोड़ आते हैं। हमारा तन भौतिक सुखों की ओर भागता है और मन अपनों के पास। हर भारतीय, धरती की सुगंध को यहाँ बसाने में जुट जाता है, लेकिन मिट्टी की खुशबू तो अपनी-अपनी ही होती है। जैसे ही बादलों का फेरा लगता है, कोई न कोई झोंका आ ही जाता है और बरसा जाता है अपना देश का पानी। सूखे हुए उपवन में कोई न कोई अंकुर फूट ही जाता है। तब फोन पर अँगुलियां मचल उठती है और दूर देश से दो बूढ़ी आवाजें सारे सुख को एकबारगी में ही नेस्नाबूत कर जाती है। बस यहीं तन और मन में संघर्ष होने लगता है। एक मन के अंदर का सच है जो रह-रहकर पीछे धकेलता है और एक तन का निर्मम सत्य, जो सुख के सारे साधनों के बीच सबकुछ भुला देने में लगा रहता है।
बड़ी-बड़ी कोठी बनाकर भी अपने देश के मकान का एक छोटा सा दरवाजा अपने ताले से देखने का मन करता है। अपना हिस्सा अपने देश में होना चाहिए। डोर नहीं टूटती, यही तो आस है। दुनिया बचपन में अपने आपको तलाशती है, यहाँ बसे भारतीय भी उस छोटे से ताले लगे दरवाजे पर अपनी मन की खट-खट सुनते रहते हैं। सपनों में ही सही, लेकिन हर रोज ही अपनी धरती होती है।
विश्व हिन्दी सम्मेलन में ढेरों अप्रवासी भारतीय भी थे, एक शाम अपना लिखा पद्यमय मन सुनाने का दिन था। उन सभी के स्वर में भारत बसा हुआ था, कोई नहीं कह रहा था कि देखो हम जीते जी स्वर्ग चले आए हैं, हम कितने भाग्यशाली हैं! देखो हमारा सुख तुम भी देखो। मैं तो अपना दुख वहाँ छोड़ आयी थी लेकिन यह क्या यहाँ तो प्रवासियों के मन का दुख मेरे दुख को खटखटाने लगा। क्यों हो गयी मन की ऐसी हालत? क्यों नहीं मन की तलाश स्वर्ग में भी पूरी होती? क्या तलाशना चाहता है आखिर मन? मुझे अनायास ही एक तोता याद आ गया। राजमहलों के सोने के पिंजर में बन्द। खाने को भरपूर। लेकिन तोता कैसे कहे कि यह पिंजरा मेरा है। उसे तो अपना जंगल ही याद आता है, वह तो उसे ही कह सकेगा कि वह जंगल मेरा था, और आज भी वहीं मेरा जीवन है। यदि इस पिंजर से उड़ गया तो जंगल मेरा स्वागत करेगा, मैं अधिकार पूर्वक वहाँ रहूँगा लेकिन दोबारा इस पिंजरे में अधिकार पूर्वक नहीं आ पाऊँगा। यहाँ तो फिर कोई और होगा।
जब देश से चला था, तब सारे त्यौहार, सारी रश्में, सारे धर्म वहीं तो छोड़ आया था, लेकिन फिर यहाँ आकर खालीपन क्यों लगने लगा?
क्यों चिन डाले अपने हाथों से बड़े-बड़े मंदिर? क्यों वहाँ जाकर रोज पूजा करने का मन करता है?
जो मन वहाँ दीवाली पर केवल पटाखे, मिठाई और आतिशबाजी तक ही सिमट गया था, अब क्यों लक्ष्मी और गणेश का पाना लाकर पूजा करने लगता है? लेकिन पूजा तो आती नहीं, फिर क्या हो?
तब फिर देश की याद आ गयी, अरे वहाँ भी तो पण्डितजी आते थे, पूजा करने। फिर यहाँ क्यों नहीं?
नौकरी का विज्ञापन निकाला गया और एक पढ़े-लिखे पण्डित को वीजा और पासपोर्ट बनवा ही दिया। बस अब तो जब चाहो यज्ञ कराओ और जब चाहो पूजा।
मन मायूस नहीं है, मन बचपन में लौट आया है। दादी तुलसी की पूजा कर रही है, दादाजी मन्दिर में घण्टी बजा रहे हैं, तो यहाँ भी तुलसी का पेड़ लगा लिया है और घण्टी के लिए तो मंदिर है ही न!
हम भी घूमते-घूमते जा पहुँचे केलिफोर्निया के एक मंदिर में। भक्तों की भीड़ लगी थी, एक तरफ प्रसाद वितरण की तैयारी थी तो दूसरी तरफ यज्ञ हो रहा था। दो पण्डित लगे हुए थे यज्ञ कराने में। मंदिर दक्षिण भारतीयों ने बनवाया था, मुख्य संरक्षकों के नाम दीवार पर जड़े थे। मंदिर में कार्तिकेय, गणेश, शिव, पार्वती सभी विराजे थे। साफ सुथरा मंदिर, पूर्णतया वातानुकूलित, सारे ही संसाधनों से युक्त। एक दूसरे मंदिर में जाने का और अवसर मिला, वह जैन मंदिर था। दोनों ही पद्धतियों की पूजा और मूर्तियां वहाँ थी, श्वेताम्बर और दिगम्बर। देश से बाहर निकल कर आने पर सम्प्रदायवाद कम होने लगता है। मंदिर अर्थात हिन्दू मंदिर और सभी अपने मतों का भूलकर भगवान के दर्शन और अपनी आस्था की जड़े तलाशने चले आते हैं।
भारत से आकर दो प्रकार के लोग यहाँ बसे हैं, एक नौकरीपेशा और दूसरे व्यापारी। व्यापारी अपनी आस्थाओं के साथ रहते हैं लेकिन नौकरीपेशा लोग अपनी आस्थाओं को मन के किसी कोने में दफनाने की कोशिश करते रहते हैं। जब भी उन्हें मंदिर दिखायी दे जाते हैं, उनकी आस्था सर निकाल ही लेती है। लाखों भारतीय यहाँ बसे हैं और यहाँ अपनी सेवाएं दे रहे हैं। लेकिन एक प्रश्न मन में उभर आता है, क्या उनकी सेवाओं की यहाँ किसी को कद्र है? क्या कोई अमेरिकी यह कहता है कि भारतीयों के कारण यहाँ उन्नति हुई है?
उनके लिए तो आज भी भारत अविकसित देश ही है और जहाँ शोषण ही शोषण है। जब विवेकानन्द यहाँ आए थे, तब एक ही प्रश्न उनसे किया गया था, कि भारत में महिलाओं की स्थिति क्या है? मुझे लगता है कि आज भी यह प्रश्न वहीं उपस्थित है। मेरा भांजा वहीं है, वह वहाँ मेडिकल की उच्च शिक्षा के लिए गया है। तब एडमिशन की दौड़ में दर-दर भटक रहा था। ऐसे ही भटकते हुए एक बार बस से यात्रा कर रहा था। वहाँ बस में सवारियाँ नाम मात्र की होती हैं। दो-चार होने पर तो बस फुल कहलाती है।
ड्राईवर ने उससे पूछा कि क्या करते हो?
उसने बताया कि डॉक्टर हूँ।
उसके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा कि एक डॉक्टर और बस में? वहाँ सबसे अधिक डॉक्टर ही कमाते हैं। फिर उसका दूसरा प्रश्न था कि कहाँ से हो?
भारत से, उत्तर था।
बस-ड्राईवर ने कहा कि वही भारत जहाँ शादी में दहेज लिया जाता है?
भानजा अभी-अभी शादी करके ही गया था, बोला कि अरे नहीं वह तो बहुत पुरानी बात हो गयी। कैसे बताए कि अभी भी उसका सूटकेस ससुराल के कपड़ों से भरा है। ऐसे कितने ही प्रश्न हमारे युवापीढ़ी के पास आते हैं और वे अक्सर झूठ का सहारा लेते हैं। भारत ने कितनी ही उन्नति की हो लेकिन यहाँ आकर एक बात समझ आती है कि हमने आत्मसम्मान नहीं कमाया। हम हीन-भावना से आज भी ग्रसित हैं। इसी कारण प्रतिपल अपने देश को हम दुत्कारते हैं, उसपर शर्मिंदा होते हैं। अपनी पहचान छिपाते हैं। हमें अपने आपको गाली देने में आत्मिक सुख मिलता है। लाखों भारतीय यहाँ रहते हैं लेकिन वे सब अपने आपको अमेरिकी कहलाने में ही सुख खोज रहे हैं, वे कभी भी गर्व से नहीं कहते कि हम भारतीय हैं। भारत का गौरव या तो उन्हें पता नहीं या फिर वे बताने में संकोच करते हैं कि कहीं ऐसे प्रश्नों का सामना नहीं करना पड़े जिनके उत्तर उनके पास नहीं हैं।
हम किसी भी देश का निर्माण कर सकते हैं, लेकिन पीढ़ियां गुजर जाने के बाद भी हम उस देश के मूल नागरिक नहीं कहलाते। जब अंग्रेज भारत में आए थे तब यहाँ के मजदूरों को उन्होंने गिरमिटियां बनाकर कई देशों को बसाया था। उन देशों को बसाने के लिए वहाँ के बाशिंदों के पास न तो तन की शक्ति थी और न ही मन की, इसलिए भारतीय मजदूरों ने ही उन देशों को बसाया। लेकिन आज भी वे सब भारतीय मूल के नागरिक ही कहलाते हैं। जिस देश में विकास की असीम सम्भावनाएँ हो और वहाँ का युवा दूसरे देश को अपना कहने के लिए लालायित रहे, तब कैसे उस देश का विकास सम्भव है? दूसरे देशों में हमने अपनी जरूरत पैदा नहीं की, अपितु हम उनके लिए बोझ बन गए हैं। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में भारतीय कार्य कर रहा है लेकिन वे अमेरिका का निर्माण कर रहे हैं, ऐसा सम्मान दिखायी नहीं देता।
दूसरे देश में खुशहाली अधिक है, इसलिए हम चले आए, अपने देश को अकेला छोड़कर?
यहाँ आने पर एक प्रश्न हवा में तैरता रहता है, यहाँ कैसा लग रहा है?
अरे भई पराये देश में आए हैं, सुंदर देश है, तो अच्छा ही लगेगा। लेकिन इसमें प्रश्न की बात क्या है? प्रश्न तो यह होना चाहिए कि अपने देश को क्या हम ऐसा बनाने में अपना योगदान करेंगे? क्या यहाँ से कुछ सीख कर जाएँगे? परायी चूपड़ी पर क्यों मन ललचाता है?
यहाँ आकर एक बात समझ आ रही है कि भारत क्या है? हमने इसे दुनिया के सामने किस प्रकार से प्रस्तुत किया है? हम अपने आस-पास भारत बनाकर रहना चाहते हैं, मंदिर भी चाहिए, वैसा खाना भी चाहिए लेकिन भारत में कुछ अच्छा भी है इसकी चर्चा करना नहीं चाहते। दुनिया कहती है कि भारत पुरातनपंथी है, वहाँ शोषण है, तो हम भी स्वीकार करते हैं। स्वीकार नहीं करें तो चारा भी नहीं, क्योंकि यदि कहेंगे कि नहीं भारत बहुत अच्छा है, तो फिर प्रश्न आएगा कि यदि तुम्हारा देश इतना ही अच्छा है तो फिर सब कुछ छोड़-छाड़कर यहाँ क्यों चले आए हो?

डॉ. अजित गुप्ता