Thursday, February 19, 2009

देश की तक़दीर तय करेंगे नचनिये और खिलाड़ी....

दिलीप वेंगसरकर, शाहरूख खान, अजहरूद्दीन, संजय दत्त और अब नया नाम सौरभ गांगुली। क्या समानता है इन नामों में। ये बड़े नाम आते हैं बॉलीवुड और क्रिकेट से। दो ऐसे क्षेत्र जिनका भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था पर पूरा असर देखा जा सकता है। ये वो लोग हैं जिनके पीछे दुनिया दीवानी है। आज की तारीख में इन नामों से कोई भी अपरिचित नहीं हैं। इस देश में बच्चा बोलना सीखता है तो उसे 'स' से सचिन और 'ध' से धोनी सिखाया जाता है। 'अ' से अमिताभ होता है तो 'श' से शाहरूख। इन के नामों से जूते, चप्पल से लेकर तेल व कपड़े तक बिकते हैं। लेकिन आज इन नामों को क्यों याद किया जा रहा है। क्या है क्रिकेट के खिलाड़ी और फिल्मों के खिलाड़ी होने में समानता है?

पहले नेता जमीन से जुड़े होते थे। लोगों के करीब होते थे। समय बदला तो चोर,डाकू व बदमाश नेता बनने लगे। वो समय आ गया कि नेता ही चोर और बदमाश बन गये। दोनों के बीच में जो लकीर थी वो मिट गई। मुख्तार अंसारी को उम्मीदवार बनाते वक्त अब पार्टी ज्यादा नहीं सोचती। डी.पी यादव हो या अमरपाल सिंह बदमाश वहीं पार्टियाँ अलग अलग। लेकिन बात उनकी नहीं। समय ने फिर करवट ली और अब फिल्म स्टार और खिलाड़ी चुनावी मैदान में आ गये हैं। पार्टियों का वोट लेने का और इन स्टार लोगों का मौका भुनाने का अचूक और आसान रास्ता। ऐसा नहीं कि यह पहली बार हुआ है। ज्यादा दूर न जायें तो गुज़रे जमाने के कई सितारे आज राजनीति में हैं और बखूबी काम कर रहे हैं। और सभी वही हैं जिनका पेशा अब राजनीति हो गया है और एक्टिंग अब कभी-कभार ही करते हैं। इनमें शत्रुघ्न सिन्हा, विनोद खन्ना, राज बब्बर, जया प्रदा व कीर्ति आज़ाद आदि बड़े नाम शामिल हैं। ये लोग पार्टी की मीटिंग में जाते हैं। लोगों के पास भी जाते हैं। परेशानियाँ भी सुनते हैं। न भी सुने तो भी राजनीति में तो सक्रिय तो रहते हैं। एक और बड़ा नाम है अमिताभ बच्चन का। ये पहले राजनीति में आये कामयाब नहीं हुए। फिर दोबारा आये लेकिन सीधे तौर पर नहीं। खुद नहीं लड़ते, बल्कि जिताने की माँग करते रहते हैं।

ऊपर दिये गये लोग वे हैं जो सक्रिय राजनीति में हैं। पिछले चुनावों की बात करें तो मुझे इन क्षेत्रों से चार नाम याद आ रहे हैं जो चुनाव लड़े थे। वैसे तो सभी बॉलीवुड सितारे किसी न किसी पार्टी के लिये प्रचार करते ही रहते हैं। उन्हें सिर्फ पैसे से मतलब है। दलेर मेहंदी को कांग्रेस और भाजपा दोनों अपनी रैली में बुलाती हैं। मकसद..भीड़ को खीचना। पिछले आम चुनावों के बड़े नाम थे नवजोत सिंह सिद्धू, स्मृति इरानी, धर्मेंद्र और गोविंदा। कोई नाम भूल गया होऊँ तो कृपया याद दिलाइयेगा। इनमें से पहले दो लोगों की बात करें तो इसमें कोई दो राय नहीं कि ये लोग राजनीति को गम्भीरता से लेते हैं और चुनावी रैलियों के अलावा पार्टियों की मीटिंग वगैरह में भी शामिल होते रहते हैं। लेकिन बाकि दोनों फिल्मी सितारों का क्या? ये लोकसभा चुनाव तो जीत गये पर शायद इनका मकसद समाज की भलाई करना नहीं रहा। दोनों को ही फिल्में तो मिल नहीं रही थी तो सोचा कि क्यों न राजनीति में हाथ हाजमाया जाये। धर्मेंद्र की पत्नी हेमा मालिनी ओ वैसे भाजपा के लिये काफी समय से प्रचार कर रही है तो शायद भाजपा ने धर्मेंद्र को महज पुतले के रूप में खड़ा किया और बीकानेर वालों को पूरी तरह से बहकाया। शायद एक या दो बार राजस्थान गये हों...शायद वो भी नहीं...दूसरी ओर गोविंदा की बात करें तो उन्होंने इसका पूरा फायदा उठाया। समाज की भलाई के लिये कुछ भी नहीं किया। देखा जाये तो उन्हें तो राजनीति का 'र' भी नहीं आता। जब पिछले वर्ष सरकार के खिलाफ सदन में अविश्वास प्रस्ताव लाया गया तो उन्हें इस प्रक्रिया के बारे में जानकारी ही नहीं थी। हमारे चीची भाई ने तो केवल फिल्मों में फूहड़ हास्य डाल कर हँसाना सीखा है, सदन में हाजिर होकर लोगों के लिये काम करना नहीं। इस बजट सेशन में केवल एक बार हाजिर हुए। वैसे मुझे एक भी ज्यादा लग रहा है!!

अब जसपाल राणा का नाम भी उठा। वे टिहरी से लड़ रहे हैं। राजनाथ सिंह के रिश्तेदार जो ठहरे, टिकट तो मिल ही जाना था। पॉपुलर तो हैं ही तो शायद वोट भी मिल जाये। उधर संजय दत्त समाजवादी पार्टी के टिकट पर लखनऊ से लड़ रहे हैं। सपा की हालत हाथी के आगे वैसे ही पतली चल रही है। अमिताभ के बाद मुन्ना...देखते हैं कि कामयाब होते हैं या नहीं। फिल्मी सितारों को पार्टी के लिये लपेटने का काम राजनैतिक दल बखूबी कर रहे हैं और बदले में फिल्मी सितारे राजनीति की 'एक्टिंग' करने का मेहनताना लेते हैं। आज बहुत कम सितारे या खिलाड़ी ऐसे हैं जो समाज के लिये कुछ करना चाहते हैं। धर्मेंद्र और गोविंदा जैसे सितारे दोबारा चुनाव लड़ पायेंगे ये मुझे संदेह है क्योंकि जनता इन्हें समझ चुकी है। वैसे जनता क्या सोच कर वोट देती है? क्या हर फिल्मी सितारा या खिलाड़ी अच्छा समाजसेवी हो सकता है या राजनैतिक दलों की महज कठपुतली? यदि पुराने दिग्गजों की बात न करूं तो आज यहाँ सिद्धू और स्मृति ईरानी जैसे नेता भी हैं और धर्मेंद्र गोविंदा जैसे भी। वो समय बीत गया जब शत्रुघ्न, राज बब्बर जैसे सितारे सक्रिय राजनीति में उतर आये थे और इसी को अपना पेशा बना लिया था। आजकल राजनीति इन फिल्म-स्टारों का पार्ट-टाइम धंधा है।

मुझे इंतज़ार है ये जानने का कि क्या संजय दत्त भी गोविंदा की राह पर निकलेंगे? मुम्बई से लखनऊ साल में कितनी बार चक्कर लगायेंगे? क्या मुन्नाभाई की इमेज का असर वोटिंग पर भी पड़ेगा? क्या लोगों को बहकाना इतना सरल हो गया है कि कोई भी बड़ी शख्सियत आ कर चुनाव लड़े और जीत जाये। शायद अब तक लोगों को समझ आ जाना चाहिये। और अगर नहीं आया तो यह इस देश का दुर्भाग्य कहलायेगा और भविष्य अँधकारमय। वैसे चुनाव आते आते कईं और नाम सामने आ सकते हैं.. देखें क्या होता है इन सितारों का..क्या इन सितारों को जनता दिन में तारे दिखायेगी?

तपन शर्मा

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12 बैठकबाजों का कहना है :

आलोक साहिल का कहना है कि -

भाई जी, अच्छा लिखा आपने...
आज के समय में तो भइया फ़िल्म हो या राजनीति सब मर्केंदायिजिंग से ही चलने लगी है....धन्य हमारी जनता जो इन गिनाये हुए लोगों को वोट भी दे देती है...पर, ऐसा हर बार और बार बार नहीं हो सकता...इसका उदाहरण भी हमने इसी देश में देखा है...रही बात स्टार्स के लिए राजनीति तो यह भी सिर्फ़ पैसा कमाने का एक अतिरिक्त जरिए भर है जैसे वे शादी ब्याह में नाच गाकर कमाते हैं वैसे ही चुनाओं में भी कुछ कमाई कर लेते हैं...करने दीजिये उन्हें उनका धंधा...अब किसी के पेट पर लात क्या मारना...अब हर कोई सुनील दत्त तो नहीं हो सकता...
सही कहा आपने अभी और भी कई सारे नाम सामने आने हैं..बल्कि मुझे तो लगता है ऐसे हर नाम देर सबेर सामने आयेंगे ही जिन्हें दो चार लोग जानते होंगे...धंधा जो है...
आलोक सिंह "साहिल"

अवनीश एस तिवारी का कहना है कि -

यह हमारा दुर्भाग्य है कि दुनिया को राजनीति शास्त्र की शिक्षा देने वाले देश में ऐसी हालत है |
यह देश की प्रगती में बहुत बड़ी बाधक भी है | प्रशासन कब सुधरेगा ?

मेरे ख्याल से कुछ नियम बने जैसे -

१. चुनाव में खड़े होने और नेता बनने के लिए न्यूनतम शिक्षा सीमा हो ( at least graduation ),

२. चुनाव में खड़े होने और किसी प्रशासनीय पद पर होने के लिए आयु सीमा भी हो ( इससे बुडहु लोगो को आजीवन देश पर शासन कराने से रोका जा सकता है ) |

३. हर पार्टी कम से कम ५ उम्मीदवार राजनीति शिक्षा क्षेत्र से ले | नौजवानों को मौका मिलेगा |

लेख के लिए धन्यवाद |
अवनीश तिवारी

अजित गुप्ता का कोना का कहना है कि -

राजनीति में जब से रोड-शो होने लगे, कागज देखकर भाषण पढ़े जाने लगे तभी से अभिनेताओं और खिलाड़ियों ने भी सोचा कि हम ही क्‍या बुरे हैं? अमेरिका में ओबामा का भाषण सुना, दिल खुश्‍ा हो गया। लगा कि जिस भी टेबल पर बैठेंगे अपनी बात पुख्‍ता तरीके से रख सकेंगे और हमारे यहाँ तो लाइन लग गयी है देखकर भाषण देने वालों की। हमारी जनता भी खूब है, जो चेहरे टीवी और फिल्‍मों में दिखायी देते हें वे उन्‍हें भगवान जैसे लगते हैं और बिना राजनीति की समझ रखे वोट दे दिए जाते हैं। आज पढ़े- लिखे राजनेता से अधिक पढ़े-लिखे वोटर की आवश्‍यकता है।

काशिफ़ आरिफ़/Kashif Arif का कहना है कि -

यह कोई नई बात नही है जी, यह हमेशा से होता आया है, चाहे वो कोई नेता या कोई खिलाड़ी हमारे याहन सब अपना फायदा देखते है यह तो कोरी हिन्दुस्तानी मानसिकता है, "अपना काम बनता भाड में जाए जनता"

manu का कहना है कि -

raaj nitee par koi comment nahi....
par lekh kuchh kahtaa hai sochne ke liye............

neelam का कहना है कि -

sanjay dutt ko achaanak se apne pita ji ke puraane din yaad aa jaaten hain ,unke ghar jaate hain .
wahaan ki deewaron ko chuu kar bhaavuk hote hain ,kamaal hai itne din me ye sab kabhi nahi hua ,ye raajniti hai ,ye achche khase insaan ko nachaniya bana deti hai ,
phir nachniye jab shaasan karne aayenge to desh kahan jaayega ,pata nahi .

avneesh ji aapka itna likhna kaafi
hai ki raajnitikon ki umr seema nirdhaarit ki jaaye .
इससे बुडहु लोगो को आजीवन देश पर शासन कराने से रोका जा सकता है )
yah humaari bhaasa nahi hai ,hum hameshaa bujurgon ko samman dete aayehain ,aapne aisa likhkar humaara dil dukhaaya hai ,ek bar phir se gaur kariyega .
unke anubhav ,maargdarshan ki to hum sabhi ko jaroorat hai .

अवनीश एस तिवारी का कहना है कि -

नीलम जी ,

अपने बुजुर्गों का मान तो होना ही चाहिए और हमारी प्रगती उनके अनुभव के आधार पर और बेहतर होगी ही |
आपसे सहमत हूँ |

मेरा विरोध उनसे है जो मरते दम तक सत्ता को नही छोड़ना चाह रहे हैं और केवल अपनी सत्ता भूख को ही सर्वोपरी रख काम करते हैं | ऐसे लोग बड़े बाधक हैं और जनता उनका इसलिए समर्थन करती है क्योंकि वे बुजुर्ग हैं |
The need is governance should be governed.

आपका ,
अवनीश

Mohd. Nasim का कहना है कि -

बिहार में एक कहावत थी के गाय और बैल भी पास हो सकते हैं सिर्फ़ आप उनके नाम का रजिस्ट्रेशन करा दे... पास हो जय गे ... गलती कही न कही हमारे संविधान में भी है ....जरोरत है उसमे सुधर की ... आज जरूरत है पढे और काबील लोगो की.. जो शान्ति, सुरकचा, विकास के साथ साथ भाई चार्गे की बात करे ... अजहर हो या गांगुली या हो मुन्ना भाई संजय दत्त सभी अपनी किस्मत राजनीती में अपनाना chahte हैं ... देखते हैं इस बार पप्पू पास होता है की नही ... दोस्तों मैं आगा लिखने का भी पर्यास करू गा ... निखिल जी का साम्पद्किये se हर्ष हुआ ...नसीम

neelam का कहना है कि -

aap ko itni safai dene ki koi jaroorat nahi hai ,hum aapki baat ka samarthan karte hain ,hume aapke is बुडहु shabd se aapti hai ,thi aur rahegi ,asangat baasha hai .

Unknown का कहना है कि -

मुझे तो लगता है जनता अब भी फिल्मी सितारो और खिलाडियो को जीता देंगी,
ज्यादातर लोग तो वोट डालने ही नही जाते और जो वोट की राजनीति होती है उसके बारे मे तो शायद ही कोई हो जो ना जानता हो,
वो कहते है ना बदनाम भी हुए तो क्या नाम तो हुआ, वो ही आजकल चलता है,
रैलियो मे एक दो फिल्मी डायलाँग सुना दो और जनता खुश

पढे लिखे लोग आ भी जाए तो बिना पैसो और पहचान के नही जीत सकते, अभी उस समय को आने मे बहुत समय लगेगा

Divya Prakash का कहना है कि -

मुझे बहुत खुशी है तपन भाई कि आप लिख रहे हिं और लगातार रफ्तार से लिख रहे हैं .... लेकिन
जिस बात का Base बना के ये पूरा article लिखा गया वो बहुत ही कमजोर है और उससे भी ज्यदा इस लेख का शीर्षक “देश की तक़दीर तय करेंगे नचनिये और खिलाड़ी....”
मैं इसी लिए अपने संविधान की प्रस्तावना यहाँ दे रहा हूँ ताकि बात थोड़ा सही से हो सके |
Our constitution is supreme law of land इस बात मैं शायद ही किसी को कोई शक होगा .... जब संविधान ही “EQUALITY of status and of opportunity” की बात करता है तो ये बात लिखना की देश की तक़दीर तय करेंगे नचनिये और खिलाड़ी.... कहीं न कहीं बहुत कमजोर Argument प्रतीत होता है |और रही बात उदहारण की तो अच्छे अभिनेता ,राजनेता हुए ही हैं और नही भी हुए हैं !! देश लोकतान्त्रिक होने का मुझे एक मतलब समझ में आता है कि चाहे कोई रिक्शा चलता हो चाहे देश का राष्ट्रपति हो दोनो एक ही वोट दे सकते हैं ....इतनी बराबरी ,इतना हक देता है ये संविधान ... और जब संविधान में किसी भी अनुछेद में नही लिखा कि कोई नाचने वाला या खिलाड़ी नही लड़ सकता चुनाव तो फ़िर उसपे ये लिखना कि पैसे बनने का धंधा है या फ़िर ये पार्ट टाइम धंधा है बहुत ही कमज़ोर तर्क लगते हैं मुझे
बहुत लोगो की टिपण्णी से भी मुझे यही महसूस हुआ कि राजनीती कि बात हो तो बस भड़ास निकाल लो |


((PREAMBLE OF INDIA
WE, THE PEOPLE OF INDIA, having solemnly resolved to constitute India into a SOVEREIGN SOCIALIST SECULAR DEMOCRATIC REPUBLIC and to secure to all its citizens:
JUSTICE, social, economic and political;
LIBERTY of thought, expression, belief, faith and worship;
EQUALITY of status and of opportunity;
and to promote among them all
FRATERNITY assuring the dignity of the individual and the unity and integrity of the Nation;
IN OUR CONSTITUENT ASSEMBLY this twenty-sixth day of November, 1949, do HEREBY ADOPT, ENACT AND GIVE TO OURSELVES THIS CONSTITUTION.))

सादर
दिव्य प्रकाश

Anonymous का कहना है कि -

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