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Wednesday, February 04, 2009

राष्ट्रपति मात्र संवैधानिक पद या उससे भी बढ़कर कुछ?

भारत का राष्ट्रपति इस देश का प्रथम नागरिक होता है। ये पाठ हमें बचपन से पढ़ाया जाता है। लेकिन ये प्रथम नागरिक आखिर करता क्या है? पिछले कुछ सालों से इस पद के लिये राजनैतिक पार्टियों में घमासान छिड़ा हुआ है। केंद्र की राजनीति में यह पद कितना अहम है इसके बारे में जानने की कोशिश करते हैं। श्रीमति प्रतिभा देविसिंह पाटिल। हमारे देश की राष्ट्रपति। इनका चुनाव जुलाई २००७ में डा. ए. पी. जे अब्दुल कलाम के जाने के बाद हुआ। चुनाव में खड़े थे पूर्व उपराष्ट्रपति भैरों सिंह शेखावत। प्रतिभा पाटिल कांग्रेस पार्टी की सदस्य रह चुकी हैं। सांसद और गवर्नर जैसे पद पर आसीन रह चुकी हैं। शेखावत बीजेपी के सदस्य हैं। तो जाहिर सी बात थी कि युद्ध तो होना ही था.. बाजी मारी कांग्रेस ने क्योंकि उसके सदस्य लोकसभा, राज्यसभा और विधान सभा में अधिक हैं।

कुछ वर्ष और पीछे चलें तो हम पायेंगे कि सुप्रीम कोर्ट ने अफ्जल गुरु को फाँसी की सज़ा दी। ये नाम अब पहचान का मोहताज नहीं। इसने सज़ा माफी की अपील की राष्ट्रपति से। राष्ट्रपति ने सलाह के लिये केंद्र मंत्रालय भेजा... तब से फाइल वहीं है...कितने साल फाइल दबी रहेगी ये सब वोटों पर निर्भर करता है.. आप लोग समझदार हैं इसलिये आगे बताना बेवकूफी है...ये राजनीति है...

मई २००५ नवीन चावला की चुनाव आयुक्त के तौर पर नियुक्ति...
मार्च २००६ एनडीए के २०४ सदस्य नवीन चावला को हटाने राष्ट्रपति के पास गये। चावला पर कांग्रेस से मिलीभगत का आरोप...राष्ट्रपति ने याचिका गोपालस्वामी को न भेज कर मनमोहन सिंह को भेजी। सरकार ने मामला दबा दिया। बीजेपी सुप्रीम कोर्ट गई.. कोर्ट ने कहा कि वो कुछ नहीं कर सकती.. मुख्य चुनाव आयुक्त ही ये केस देख सकते हैं... उसके बाद गोपालस्वामी को याचिका भेजी गई। गौरतलब है कि केवल सीईसी ही चुनाव आयुक्त को हटा सकते हैं। गोपालास्वामी ने नवीन चावला से जवाब माँगा। तीन बार जवाब माँगने पर चावला ने दिसम्बर २००८ में अपना जवाब दिया। एक महीने के भीतर गोपालस्वामी ने उन्हें हटाने की बात राष्ट्रपति से की.. राष्ट्रपति ने सरकार से कहा.. सरकार मामला दबा गई...

जब राष्ट्रपति भी सरकार का हो... चुनाव आयुक्त भी.. तो कांग्रेस सरकार राजनीति क्यों न करे?

बात इतनी नहीं... बात और भी गम्भीर है.. इस वाकये के बाद मेरा दिमाग यही सोचता रहा कि आखिर राष्ट्रपति के पास ताकतें कौन सी हैं? आइये जानें, जहाँ से लेख की शुरुआत हुई थी...

१. राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की नियुक्ति करता है..यानि उसको शपथ दिलाता है: प्रधानमंत्री केंद्र सरकार के द्वारा ही चुना जाता है।
२. राज्यपाल और सुप्रीमकोर्ट के जजों को शपथ: लेकिन उन्हें चुनती है केंद्र सरकार
३. तीनों सेनाओं का नेतृत्व करता है राष्ट्रपति लेकिन बजट निर्धारित करती है केंद्र सरकार
४. चीफ जस्टिस को शपथ... लेकिन चुनती है केंद्र केबिनेट
५. लोकसभा को भंग कर सकता है राष्ट्रपति: लेकिन निर्देश मिलते हैं केंद्र सरकार से..
६. साल के पहले सत्र का शुरुआती भाषण देने की औपचारिकता निभाता है राष्ट्रपति
७. इमेरजेंसी लागू करता है राष्ट्रपति लेकिन निर्णय लेती है सरकार
८. फाँसी सज़ा पर अपील होने पर माफी दे सकता है राष्ट्रपति लेकिन निर्णय लेती है केंद्र सरकार
९. सरकार द्वारा पारित बिल राष्ट्रपति केवल एक बार ही वापस भेज सकता है.. केंद्र सरकार यदि दोबारा राष्ट्रपति को बिल भेजे तो उसे औपचारिकता निभानी होगी और मुहर लगानी होगी।

ऊपर की जब ताकतें पढेंगे तो पायेंगे कि राष्ट्रपति केंद्र सरकार का खिलौना होने के अलावा और कुछ नहीं। यदि राष्ट्रपति को हटाना हो तो पार्लियेमेंट में वोटिंग से ये भी हो जायेगा। तो आखिर यह पद रखा ही क्यों हुआ है? क्या ज़रुरत है इस पद की? जनता की कमाई का १.५ लाख रूपया प्रतिमाह इस पद पर आसीन व्यक्ति के पास चला जाता है जो महज रबर स्टाम्प के और कुछ नहीं!!! राष्ट्रपति का देश के प्रति योगदान संदेह खड़ा करता है!

क्या यह महज एक संवैधानिक पद है और कुछ नहीं? ऐसे सवाल तब तब उठेंगे जब जब अफ्जल गुरु का जिक्र होगा.. जब जब नवीन चावला का जिक्र होगा.. केंद्र फाइलें दबाता रहेगा... कोर्ट फटकारता रहेगा.. राष्ट्रपति सिर्फ सुनेगा, देखेगा... पर कुछ कर न सकेगा!!!

हो सकता है कि यह सवाल आज से पूर्व भी उठे हों लेकिन आज इन्हें पुन: उठाना अपना दायित्व समझता हूँ.. हो सकता है कि कोई ऐसा काम हो जो राष्ट्रपति अपने बूते कर सकता हो और मुझे या अन्य किसी को न पता हो... आप जरुर बतायें...

--तपन शर्मा