बैंकिग और बीमा, ये दो उद्योग ऐसे हैं जिनके बारे में कहा जा सकता है कि ये अपनी पूंजी से नहीं, अपने ग्राहकों की पूंजी से चलते हैं। जो कंपनी बीमा करती है, वह अपने पास से पैसा नहीं लौटाती। उसने जिनका बीमा किया हुआ है, उन्हीं के द्वारा जमा किए गए पैसे में से क्लेम निपटाती है। चूंकि हर साल जितने लोग क्लेम लेते हैं, उससे अधिक लोग बीमा करवाते हैं और किस्तें अदा करते हैं, इसलिए बीमा कंपनियों के पास अथाह पैसा जमा हो जाता है। बैंकों की अमीरी का रहस्य भी यही है। बैंक ऋण दे कर पैसा कमाते हैं। लेकिन यह ऋण वे अपनी जेब से नहीं देते। ग्राहकों द्वारा जमा किया गया पैसा उनकी पूंजी बन जाता है, जिससे उनमें ऋण देने की क्षमता आती है। इस तरह बैंक दूसरों के पैसे से अपना पैसा बनाते हैं। सीधे शब्दों में कहा जाए तो दोनों ही पाप करते हैं। यह निजी पूंजी नहीं है। सार्वजनिक पूंजी है, इसलिए इसका इस्तेमाल जनहित में ही होना चाहिए।
इस्लाम में सूद लेना हराम माना गया है। इसके लिए उसकी जितनी तारीफ की जाए, कम है। इसमें कोई शक नहीं कि पैसे से पैसा पैदा नहीं होता। अमरूद के पेड़ से अमरूद पैदा होता है, गाय के पेट से बछड़ा निकलता है और स्त्री बच्चा देती है। लेकिन लोहे से लोहा पैदा नहीं होता, न लकड़ी से लकड़ी पैदा होती है। कागज का रुपया भी ऐसा ही एक निर्जीव पदार्थ है। उसमें वैसा ही कागज पैदा करने की क्षमता कहां ! फिर भी अगर सदियों से यह संभव होता रहा है, तो इसीलिए कि ऋण लेनेवाले की मजबूरी से फायदा उठाने की कोशिश की जाती रही है। उधार देना सहयोग करने की क्रिया होनी चाहिए न कि मुनाफा कमाने की।
जहां मुनाफा होता है वहीं नुकसान होने की संभावना होती है। यही कारण है कि बैंकों के डूबते रहने की घटना होती रहती है। आजादी के पहले हर साल कुछ बैंक डूबते थे और हजारों ग्राहकों का पैसा मारा जाता था। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने जब बैंकिंग उद्योग को रेगुलेट करना शुरू किया, तब बैंक डूबने की घटनाएं बंद होने लगीं। अब यदा-कदा ही ऐसा होता है। उस स्थिति में रिजर्व बैंक आवश्यक कार्रवाई कर ग्राहकों के पैसे का इंतजाम कर देता है। लेकिन अमेरिका और कुछ अन्य देशों में ऐसा नहीं है। जहां बैंकों पर नियंत्रण नहीं होता, वे लालच में गलत सौदे करने लगते हैं और समय पर पैसे की वापसी नहीं होती, तो दिवालिया होने लगते हैं। बैंक ग्राहकों का पैसा डूब जाता है। इस बार अमेरिका में यही हुआ, जिससे वहां मंदी आ गई। अब अमेरिका की मंदी पूरी दुनिया को प्रभावित कर रही है।
बड़ा सवाल यह नहीं है कि बैंकिंग उद्योग कैसे हमेशा फूलता-फलता रहे। मुनाफाखोरी के किसी धंधे में समाज की क्या रुचि हो सकती है। समाज का काम मुनाफाखोरी को रोकना है। बैंकिंग उद्योग अगर यह तय करे कि वह दस प्रतिशत सालाना से ज्यादा मुनाफा नहीं कमाएगा, तो यह उद्योग प्राइवेट हाथों में रह सकता है। अभी हालत यह है कि बैंक कई सौ गुना मुनाफा कमा रहे हैं। पैसा जमा करनेवालों को कम ब्याज देते हैं और ऋण लेनेवालों से ज्यादा ब्याज वसूल करते हैं। बीच का पैसा खा कर वे मोटाते जाते हैं। चूंकि ऋण देने के पीछे कोई सामाजिक लक्ष्य नहीं होता, इसलिए वे गरीबों को ऋण नहीं देते ताकि वे अपने जरूरी काम निपटा सकें, बल्कि अमीरों को (ताकि वे इस पैसे से और पैसा पैदा कर सकें) और मध्य वर्ग के लोगों को (क्योंकि इनके पास कुछ पैसा पहले से होता है) ऋण देते हैं। इस तरह बैंकिंग पैसे का खेल बन कर रह गई है, जिससे गरीबों का या वास्तविक जरूरतमंदों का कोई भला नहीं होता। गरीब भले ही ईमानदार हो और समय पर पैसा चुकाने की नीयत रखता हो, पर उसे ऋण नहीं मिलेगा, क्योंकि उसके पास जमानत देने के लिए कुछ नहीं होता।
इन सब बुराइयों का इलाज है। इलाज यह है कि पैसे पर सूद लेना और सूद देना, दोनों बंद कर दिए जाएं। यह दलाली की कमाई है। दलाली की कमाई से कोई देश फूलता-फलता नहीं है। कायदे से होना यह चाहिए कि जो लोग बैंकों में पैसा जमा करते हैं, वे उसकी रखवाली के लिए एक निश्चित मात्रा में प्रबंधकीय शुल्क दें। यह बैंक की असली कमाई होगी। इस कमाई से जरूरतमंद लोगों को ऋण दिया जा सकता है। इस ऋण पर भी ब्याज न ले कर प्रशासनिक शुल्क लिया जाना चाहिए। इन दोनों शुल्कों की राशि से ही बैंकों को अपना कामकाज चलाना चाहिए। इस तरह बैंकिंग मुनाफे का उद्योग न रह कर जन सेवा का उपक्रम बन जाएगी। इसे जन बैंकिग कहा जा सकता है।
सवाल उठता है कि रुपया जमा करनेवालों के पैसे का क्या जाए। पैसे को अचल रखना ठीक नहीं है। उसका प्रवाह बने रहना चाहिए। नहीं तो अर्थव्यवस्था कुछ हद तक ठप हो जाएगी। लेकिन दूसरे के पैसे का इस्तेमाल बहुत सावधानी से होना चाहिए। इसलिए देश के अर्थशास्त्रियों को आपस में विचार करके इस विषय में अपना मत देना चाहिए। यह हो सकता है कि इस जमा राशि का एक हिस्सा छोटे उद्योग-धंधों को बढ़ावा देने के लिए खर्च किया जाए और एक हिस्सा मध्य वर्ग तथा निर्धन लोगों को ऋण देने में खर्च किया जाए। इनसे किसी तरह की जमानत न ली जाए। जैसा कि उपर कहा गया है, ऋण की सभी रकमों पर सिर्फ प्रबंधकीय शुल्क लिया जाए। अमीर संस्थानों को ऋण देने की कोई जरूरत नहीं है। वे अपने शेयरहोल्डरों से जितना अधिक पैसा ले सकते हैं, लें और उसी से धंधा करें। जहां तक ऋण की अदायगी का सवाल है, यह जगजाहिर हो चुका है कि ज्यादातर बड़े ऋण प्राप्तकर्ता ही बैंकों को धोखा देते हैं और उनका पैसा डकार जाते हैं। जो छोटी रकमें लेते हैं, उनमें से ज्यादातर ऋण चुका देते हैं। नई व्यवस्था में जो लोग ऋण नहीं चुका पाते, उन्हें पुलिस, पंचायत आदि की सहायता से ऋण चुकाने के लिए बाध्य किया जा सकता है। बदले में उन्हें दिवालिया घोषित कर (ताकि वे भविष्य में ऋण न ले सकें) उनसे विभिन्न कार्यक्रमों में मजदूरी भी कराई जा सकती है। यह भी हो सकता है कि उन्हें श्रम जेल में डाल दिया जाए और वहां काम करवाया जाए। जब उधार की पूरी रकम चुक जाए, तो उनकी दिवालिया वाली स्थिति खत्म की जा सकती है। फिर भी बैंकों को घाटा हो सकता है। चूंकि बैंक जन सेवा कर रहे हैं, इसलिए इस घाटे की पूर्ति सरकार को करनी चाहिए। सरकार को इसलिए कि वह मुनाफा कमाने के लिए नहीं, जनता का जीवन सुगम बनाने के लिए चुनी जाती है।
सीएनबीसी टीवी चैनल में काम करनेवाली और एक समय हमारे बगल में रहनेवाली एक लड़की को, जो बिजनेस समाचार देखती है, जब मैंने यह स्कीम सुनाई, तो उसने खट से कहा कि यह तो सोशलिस्टिक बैंकिंग है। वर्तमान बैंकिंग के लिए उसने कैपिटलिस्टिक बैंकिंग की संज्ञा का उपयोग किया। निश्चय ही वह एक क्षण में मेरी बात समझ गई। क्या मैं पाठक-पाठिकाओं से खूब सोच कर यह बताने का निवेदन कर सकता हूं कि कौन-सी बैंकिंग समाज के ज्यादा हित में होगी - कैपिटलिस्टिक या सोशलिस्टिक?
राजकिशोर
(लेखक इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, नई दिल्ली में वरिष्ठ फेलो हैं)
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5 बैठकबाजों का कहना है :
अगर समाज के भले की बात करें तो
नो डाउट सोशलिस्ट......
आलोक सिंह "साहिल"
I am fully agree with Rajkishor's thinking and also agree with Socialistic Banking.
It will be surely helpful for poor peoples, who are facing poverty.
बैठक में कुछ शब्द मेरे भी :
-बैंक ना तो जमाओ पर न ही ऋणों पर ब्याज दर निर्धारित करने के लिए स्वतंत्र है |
-देश में जितनी भी करेसी है सब भारतीय रिजर्व बैंक की है |
-रिजर्व बैंक पूर्णत: सरकारी व्यवस्था है , जिसके गवर्नर वित्त मंत्री होते है |
-प्रत्येक बैंक को मौदिक नीति, ऋण जमा अनुपात, सेवा शर्तो इत्यादि हेतु भा.रि.बै. के नीति निर्देशों की अनुपालना करना आवश्यक होता है |
-सभी बैंको को अपने पास रखे करेंसी नोटों के लिए भा.रि.बै. को ब्याज देना होता है |
-इसी तरह सभी बैंको की अपने पास रखी जमाओ पर भा.रि.बै. भी बैंको को ब्याज देता है |
-सूदखोरी आर्थिक दलाली या पैसे से पैसे उगाना आदि तो प्राइवेट मनी लेंडर करते है | जो जमाए नही लेते बल्कि अपनी जमा की रकम को उधर दे दो, तीन या चार रुपया सैकडा या सामने वाले की मज़बूरी अनुसार इससे भी अधिक वसूल करते है |
-बैंको द्वारा जमाओ व् ऋणों पर लगाया गया ब्याज वास्तव में सर्विस मार्जिन ही है |
जिसे कई बार भा.रि.बै. मुद्रा स्फीति / संकुचन नियंत्रित करने के लिए घटाती बढाती है |
-बैंक अनुत्पादक ऋणों ( वे ऋण जो देश के विकास में अधिक सहायक न हो ) पर ब्याज दर अधिक रखते है |
-जब अर्थ सम्मिलित होता है तो लाभ या हानि भी होती ही है | बैंको को प्राप्त ब्याज, जमाओ पर चुकाए गए ब्याज एवम परिचालन खर्चो के बाद बची राशि लाभ होती है |
यह लाभ केंद्रीय वित्त व्यवस्था का होता है, जिसे भा.रि.बै. को हस्तांतरित करना होता है
यानी बैंको का लाभ अंतत: आर्थिक विकास व्यवस्था का ही अंग होता है |
-भारत में विदेशी बैंको द्वारा कमाए गए लाभ को अपने देश ले जाने की स्वतंत्रता नही है |
-राष्ट्रीयकृत बैंक , प्राइवेट सेक्टर, पब्लिक सेक्टर बैंक, सहकारी बैंक, या विदेशी बैंक बिना भा.रि.बै. की अनुज्ञा के इस देश में संचालित नही हो सकते |
-भा.रि.बै. बड़े उद्योगों, लघु उद्योगों, नौकरीपेशा, व्यक्तिगत क्षेत्र, कमजोर तबको, अल्पसंख्यको, कृषि, हाऊसिंग, आदि को ऋण देने हेतु भा.रि.बै. के स्पष्ट निर्देश होते है एवम लक्ष्य निर्धारित करती है, जिसकी प्राप्ति सुनिश्चित करना प्रत्येक बैंक प्रबंधन का दायित्व होता है
-विदेशी बैंकिंग व्यवस्थ एवम भारतीय बैंकिंग व्यस्था बिल्कुल अलग है | वहा पूर्ण स्वायत्तता है | वे मनमाने लाभार्जन हेतु स्वतंत्र है | अधिक लालच में आधारभूत आर्थिक नियम भूल जाते है और फैल हो जाते है |
-सोशलिज्म एक पूर्ण व्यवस्था है जिसमे राजनैतिक, सामजिक एवम आर्थिक तीनो क्षेत्र आते है |
-केवल आर्थिक सोशलिज्म से देश की आर्थिक व्यवस्था छिन्नभिन्न हो जायेगी
-भीड़ की मानसिकता ही यह होती है, कि जो लाभान्वित होता है वह चुप रहता है और जो वंचित रहता है, व्यवस्था की आलोचना करता है | सो लोगो की चुप्पी पर दो लोगो के वक्तव्य भरी पड़ते है |
-बुराई हर जगह होती है लेकिन याद रहे यह फिर भी अच्छाई से कम ही होती है |
-पहले यह तय करना होगा कि हम सम्पूर्ण व्यवस्था ही बदलना चाहते है या व्यवस्था क्रियान्वयन पद्दति |
-सोशियल बैंकिग व्यवस्था में बदलाव है, व्यवस्था पद्दति में नही |
सबसे बड़ी जिम्मेदारी हम पर है हमें यह तय करना है कि हम part of the problum बनाना चाहते है या part of the solution |
व्याव्हारिक दृष्टि से देखें तो न तो सूद न लेने से
इस्लामिक देशों की गरीबी दूर हुई है ( पेट्रोल वाले देशों को छोड़ कर) और न समाजवादी/साम्यवादी व्यवस्था से रूस जैसे देशों की।
पहली बार पूंजीवाद व "लालच बहुत अच्छी" के
सिद्धान्त को जबर्दस्त धक्का लगा है पर
इसका अर्थ केवल इतना ही है कि दो व्यवस्थाओं के
बीच में कहाँ नियन्त्रण की लाइन डाली जाय; न कि आदिम व्यवस्थाओं की तरफ लौटने की तैयारी की जाय।
धन्यवाद शत्रुन्जय और हरिहर जी,बैठक में आपको देखकर अच्छा लगा.
आते रहिए और अपने विचारों से अवगत कराते रहिए.
आलोक सिंह "साहिल"
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