Friday, February 06, 2009

जय हो, जय हो, जय हो!!!.....जय, जय, जय हो......



पटना में एक शख्स ने फिल्म स्लमडॉग मिलियनेयर के खिलाफ याचिका दायर की है....नाम पर उन्हें आपत्ति तो है ही, इस फिल्म की साधारण विषयवस्तु को इतना आगे तक पहुंचने में भी उन्हें सोची-समझी चाल दिखती है.... बहरहाल,बैठक में एक चिट्टी आयी है शिवानी की....शिवानी त्रिपाठी महुआ न्यूज़ चैनल में कैमरे के आगे ड्यूटी बजाती हैं....चुपके-चुपके बैठक में आती रही हैं....चूंकि, शिवानी गोरखपुर की हैं तो कृपया इस चिट्ठी को पटना के शख्स की याचिका न समझें....

फिल्म बेहतरीन है.....निर्देशन गज़ब का है....केबीसी के हर सवाल का नायक के अतीत से जुड़ाव बेहतरीन था...पर सबसे बेहतर था मलिन बस्ती के उन बच्चों से इतना उम्दा अभिनय करवा लेना....
और कोयले को बाज़ार में हीरे के भाव बेच मुनाफ़ा कैसे कमाया जाता है, ये कोई इन निर्देशकों से सीखे जिन्होंने हमारा ही कचरा हमें खूबसूरती के साथ चांदी की तश्तरी में अति आत्मविश्वास के साथ परोस दिया....और हमने निवाला दर निवाला मुंह में डालना भी शुरु कर दिया....मगर, जो फिल्म वैश्विक स्तर पर डंका बजवा रही हो, फिल्म क्षेत्र के सबसे महत्वपूर्ण और सम्मानित ऑस्कर की मजबूत दावेदार हो, भारत के सिनेमाघरों में पहले हफ़्ते में ही दर्शक नहीं जुटा पायी....

बहरहाल, सभी बातों पर गौर करने के बाद अगर कोई पूछे कि क्या स्लमडॉग को ऑस्कर में जाना चाहिए या ये अवार्ड मिलना चाहिए (जो लगभग तय ही है) तो होगा हां....क्योंकि ऑस्कर की दौड़ में पहुंचनेवाली हर भारतीय फिल्म का हाल कुछ ऐसा ही था....जी हां, चाहे बात 80 के दशक की मदर इंडिया की हो या लगान की, स्माइल पिंकी या स्लमडॉग.....इन सभी फिल्मों में एक चीज़ कॉंमन है....ग़रीबी, दरिद्रता, भूखी-नंगी जनता, क्योंकि इनमें ही दिखता है इन्हें “रियल इंडिया...."

माना कि फिल्म के दृश्यों में मुंबई की मलिन बस्तियों से काफी साम्य था, मुंबई की इन बस्तियों में रहने वालों की यही दशा होती है, मगर मुंबई ऐसी ही है ये भी नहीं कह सकते..... मुंबई सिर्फ गंदी ही नहीं है....यही मुंबई समंदर के खूबसूरत किनारों, ऊंची इमारतों, ग्लैमर की चकाचौंध और आधुनिकता के चरम के लिए भी अग्रणी मानी जाती है...तो इतने वृहद और संपन्न पक्ष की अनदेखी क्यों कर दी गयी...आखिर इस पक्ष को शून्य कर बाहर की दुनिया को इस फिल्म के माध्यम से क्या दिखाने और जताने की कोशिश की गयी....यही कि हम जो थे, वही हैं और वही रह गये....
ठीक है कि डायरेक्टर की प्रतिभा पर सवाल नहीं उठाया जा सकता क्योंकि गंदगी बेचने का उसका तरीका लह गया....और अगर इस फिल्म को ऑस्कर मिलता है तो केवल इसलिए नहीं कि वाकई ये फिल्म बेहतरीन बनी और संगीत ज़बरदस्त रहा....कारण और भी हैं.....मसलन, ये एक हॉलीवुड के डायरेक्टर ने बनायी है और इसमें भारत की ग़रीबी का वीभत्स और लाचार रूप दिखाया गया है....आप भी जानते हैं कि भारत घूमने आने वाले पर्यटकों के कैमरे भी झोपड़ियों और भीख के कटोरे पर ही ज़्यादा फ्लैश चमकाते हैं....ठीक वैसे ही जैसे किसी वीआईपी भारतीय मेहमान जैसे बिल क्लिंटन, प्रिंस चार्ल्स, मिलिबैंड आदि को घूमने के लिए सूरत, अहमदाबाद, दिल्ली, कश्मीर की वादियां, गोवा की बेरोकटोक हवा या केरल-कन्याकुमारी की खूबसूरती और सागर की गहराई में खो जाने वाला सूरज नहीं मिलता....उन्हें तो बस दिखता है राजस्थान के किलों के साये में सूखा बंजर नज़ारा, उन्हें देखकर आंखें फाड़ सकने वाले ग्रामीण....यहां तक तो गनीमत थी.....पर इस बार तो हद हो गयी, जब ब्रिटेन के विदेश मंत्री के भारतीय गांवों को देखने की इच्छा पर अमेठी का सबसे ग़रीब, दरिद्र परिवार दिखाया गया....किसे दोष देंगे हम??

ख़ैर, इतना तो कहा जा सकता है कि बवाल इस फिल्म के नाम में स्लम के साथ डॉग पर नहीं बल्कि पूरे देश को स्लमडॉग साबित करने की उनकी चाही-अनचाही कोशिशों पर मचना चाहिए था....स्लमडॉगों का ऐसा देश जहां जन-गण-मन अधिनायक जय का गान होता है, वहां अब सबके होठों पर है “जय हो....” का स्वर...

शिवानी त्रिपाठी

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11 बैठकबाजों का कहना है :

अवनीश एस तिवारी का कहना है कि -

यह सच है कि इस फ़िल्म में हमारे देश की छवि को धूमिल कराने का अनजाने या जाने में प्रयास हुया है |

यह भी सच है कि इस फ़िल्म में विदेशियों का जुडा होनाइसे औस्कर तक पहुचाने में सहायक होगा या हो रहा है |

एक बार फ़िर हामारे कच्चे माल को तैयार कर हमें परोसा जा रहा है |
लेकिन आशा है कि हमारे फ़िल्म जगत के बढ़ते कदम इस कमी को पूरा कर जायेंगे |

वैसे यह फ़िल्म हमारे संगीत कारों के लिए सकारत्मक है |
जन गण मन को " जय हो " से तुलना करना तार्किक नहीं है |
ऐसे बहुत से गीत आते जाते रहते हैं , गुरुदेवकी की अमर रचना अपने जगह कायम है |

-- अवनीश तिवारी

ab inconvenienti का कहना है कि -

ग़रीबी, दरिद्रता, भूखी-नंगी जनता, क्योंकि ८५ करोड़ से अधिक जनता २० रुपये रोज़ से कम में गुज़ारा करती है. मध्य वर्ग और उच्च वर्ग में केवल दस प्रतिशत नागरिक आते हैं. बाकि निम्न या निम्न मध्य वर्ग में हैं. तो भारत की सच्चाई क्या है? ९०% का सच या बाकि १०% लोगों की अमीरी? शीशा तोड़ने से बेहतर है हम अपनी शक्ल ठीक कर लें.

Anonymous का कहना है कि -

is ki kya bat karto ho? sway yugm par hi jabaradasti ke NRI kaviyo ka bolbala ha

Unknown का कहना है कि -

इस फिल्म को मैने भी देखा है समय की कमी के कारण पूरा नही देख पाया, पर जितनी देखी उसमे सिर्फ इस बात पर आपत्ती हुई। जहाँ पर रीयल अमेरिका और रीयल भारत की बात हुई और जहाँ तक गरीबी का सवाल है तो यही कहा जा सकता है जो सच्चाई है वो ही दिखाई गई है क्या भारत मे गरीबी नही है ? या हम सब आखे बंद करकर सिर्फ हीरो को विदेश मे जाकर गाने गाते देखना चाहते है, उसी को भारत की सच्चाई समझते है

यार एक विदेशी निर्देशक की फिल्म आँस्कर मे क्या चली गई, हम पक्षपात का आरोप लगाने लगे अगर ये ही फिल्म किसी भारतीय ने बनाई होती तो हम सिर्फ कह रहे होते जय हो..जय हो...

चारु का कहना है कि -

शिवानी जी ठीक लिखा आपने। पर मामला सच या झूठ दिखाने का नही होता बात होती है बिजनेस की। फिल्मवालों को या तो अवार्ड चाहिए होता है या भरपूर पैसा. गरीबी भुखमरी ये सब तो साधन है।
हम सब बहस करते रहेंगे और गरीब बस्तियाँ भी शाश्वत काल तक धरती पर विराजमान रहेंगी ।

तपन शर्मा Tapan Sharma का कहना है कि -

१. फिल्म ने सच्चाई दिखाई है और उससे आप मुँह नहीं मोड़ सकते। ऊपर किसी ने ठीक अकहा है कि ७५% लोगों की सच्चाई है।

२. फिल्म में कहीं कहीं अतिश्योक्ति है। सुमित ने ऊपर रियल अमरीका और रियल इंडिया वाले सीन की बात उठाई.. और भी हैं.. दंगों के सीन में राम को डाल देना समझ से परे था.. एक बच्चा राम अके भेस में .. वो भी दंगों में... अमिताभ बच्चन वाला सीन भी ऐसा ही उदाहरण है।

३. मैं भी ये मानता हूँ कि फिल्म अगर किसी भारतीय ने बनाई होती तो शायद ओस्कर में नहीं जाती। अंग्रेजों की बनाई फिल्म है।

संगीता पुरी का कहना है कि -

ताज्‍जुब है कि अपनी कमजोरी लोग देखना क्‍यों पसंद नहीं करते ? फिल्‍म में जो दिखाया गया , वह सच्‍चाई है और सच्‍चाई को स्‍वीकार करने से ही समस्‍याएं कम होती हैं.....इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता।

Divya Prakash का कहना है कि -

Slum dog millionaire विक्रम स्वरुप के नोवेल Q and A से बहुत हद तक प्रेरित है ... और वास्तव मैं पढने लायक किताब है | इसलिए मुझे नही लगता इस बात से ज्यदा परेशानी होनी चाहिए कि रियल इंडिया फ़िल्म मैं पहली बार दिखा दिया गया ... और वास्तव मैं फ़िल्म मैं ऐसा कुछ भी नही दिखा दिया गया जैसा नही है ...वैसा कुछ भी हो सकता है | चाहे वो दर्शन दो घनश्याम गाना हो या बेंजामिन फ्रैंकलिन वाला जवाब .. रही बात बात रियल इंडिया को लेके इमोशनल होने को तो वो अपनी व्यक्तिगत अभिव्यक्ति और इच्छा के लिए हम लोग स्वतंत्र हैं ही ....
कुछ एक सीन इतने भावपूर्ण है फ़िल्म कि लगता है जैसे हम अपने देश मैं ही मेहमान हैं ... जिसका भान मुझे तनिक भर भी नही था ..
और वो शख्स जो भी हों जिन्होंने याचिका दायर की मुझे ऐसा लगता है ऐसे लोगो और खबरों पे ज्यदा ध्यान नही देना चाहिए ..दुनिया भर के मुद्दे है याचिका दायर करने के लिए लेकिन साहब मुद्दा भी उठाया है तो क्या ....
और आखिरी मैं शिवानी जी अपने लिखा "इतना तो कहा जा सकता है कि बवाल इस फिल्म के नाम में स्लम के साथ डॉग पर नहीं बल्कि पूरे देश को स्लमडॉग साबित करने की उनकी चाही-अनचाही कोशिशों पर मचना चाहिए था"
आप शायद ज्यदा Emotionally bias होके फ़िल्म देख के आयीं हैं ..
आप बैठक मैं आई इसके लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद ...
सादर
दिव्य प्रकाश
*निखिल जी माफ़ करियागा फ़िर बहुत दिन का गैप हो गया लिखने मैं ...कोशिश करूँगा रेगुलर रहूँ

Gyaana-Alka Madhusoodan Patel का कहना है कि -

"बैठक" में सुश्री शिवानी त्रिपाठी का 'जय हो जय हो.....'पर वक्तव्य पढ़ा. मानसिक आघात तो लगता ही है जब इस तरह की बातें सामने आती हैं. वास्तव में सत्य तब ज्यादा कड़वा लगता है जब कोई दूसरा उसको प्रदर्शित करता है. मनुष्य का स्वभाव ही है की अपने घर की बातें या कमजोरी वो घर में ही रखना चाहता है. क्योंकि हमारा मानना है की हमारी व्यक्तिगत बाते हम तक ही रहे. कितनी अजीब बात है की समाज के जिस वर्ग को हम सदा नजरअंदाज करते आए है उसी को उभारकर एक विदेशी इस तरह की फ़िल्म बना ले जाता है. आज हम करोड़ों भारतीयों को सबक लेकर हमारे समाज के इन पिछडे लोगो की जिंदगी को सुधारने+आगे लाने के बारे में सोचना होगा.क्योकि केवल विरोध करने से या कुढ़ने से हल नही निकलने वाला. क्या कारण है की बाहर के लोगो की द्रष्टि तुंरत वहा चली जाती है जहा हम नही देख पाते या देखना नही चाहते. हमारा प्रयास अब क्या हो ? मै अब उन पाठकों पर छोड़ती हूँ जिनको सही में इस सिनेमा की पृष्ट भूमि को देखकर ख़राब लगा है. क्या हमारी कुछ जिम्मेदारी बनती है कि अपने देश में व्याप्त इस फासले को कम किया जा सके.
गरीब बस्तियों का कुछ उद्धार किया जा सके.
श्रीमती अलका मधुसूदन पटेल
लेखिका एवं साहित्यकार

Gyaana-Alka Madhusoodan Patel का कहना है कि -

"बैठक" में सुश्री शिवानी त्रिपाठी का 'जय हो जय हो.....'पर वक्तव्य पढ़ा. मानसिक आघात तो लगता ही है जब इस तरह की बातें सामने आती हैं. वास्तव में सत्य तब ज्यादा कड़वा लगता है जब कोई दूसरा उसको प्रदर्शित करता है. मनुष्य का स्वभाव ही है की अपने घर की बातें या कमजोरी वो घर में ही रखना चाहता है. क्योंकि हमारा मानना है की हमारी व्यक्तिगत बाते हम तक ही रहे.
कितनी अजीब बात है की समाज के जिस वर्ग को हम सदा नजरअंदाज करते आए है उसी को उभारकर एक विदेशी इस तरह की फ़िल्म बना ले जाता है.
आज हम करोड़ों भारतीयों को सबक लेकर हमारे समाज के इन पिछडे लोगो की जिंदगी को सुधारने+आगे लाने के बारे में सोचना होगा.क्योकि केवल विरोध करने से या कुढ़ने से हल नही निकलने वाला. क्या कारण है की बाहर के लोगो की द्रष्टि तुंरत वहा चली जाती है जहा हम नही देख पाते या देखना नही चाहते.
हमारा प्रयास अब क्या हो ? मै अब उन पाठकों पर छोड़ती हूँ जिनको सही में इस सिनेमा की पृष्ट भूमि को देखकर ख़राब लगा है. क्या हमारी कुछ जिम्मेदारी बनती है कि अपने देश में व्याप्त इस फासले को कम किया जा सके.
गरीब बस्तियों का कुछ उद्धार किया जा सके.
श्रीमती अलका मधुसूदन पटेल
लेखिका एवं साहित्यकार

आलोक साहिल का कहना है कि -

स्वागतम जी,
अच्छा लिखा आपने.
आलोक सिंह "साहिल"

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