चौथा अध्याय
"बेटा कमाता है डॉलर और मां-बाप रुपैया..."
ख़ैर, हम भी लाखों माँ-बापों की तरह दौबारा भी असफल हो गए। कहते हैं भारत में व्यक्ति के पास पैसा हो या न हो लेकिन स्वाभिमान पूरा होता है। ग़रीब आदमी के पास तो कुछ ज्यादा ही होता है। धनवान तो स्वाभिमान बेचकर ही धनवान बना है तब उसके पास तो यह नहीं होता लेकिन बेचारा ग़रीब तो ग़रीब ही इसलिए है कि उसने कभी अपने लिए किसी से नहीं माँगा। जो भी मिला उसे भगवान का प्रसाद मानकर स्वीकार किया। अतः हमारे स्वाभिमान ने भी हमें प्रताड़ित किया और कहा कि बस अब बहुत हो गया, अमेरिका जाने का चाव। बार-बार जाकर अपना अपमान कराने से तो अच्छा है कि अपनी ममता का ही गला घोंट लो। बच्चों से कह दो कि यदि तुम्हें भारत की और वहाँ बसे माता-पिता की याद आ जाए तब तुम्हीं आ जाना। लेकिन परिस्थितियां कब किसके रोके रुकी हैं? वे तो कभी भी एक-दूसरे की आवश्यकता अनुभव करा ही देती है। किसका मन नहीं होता कि बेटे की गृहस्थी जाकर देखें या बेटी का सुख। लेकिन जब रिश्तों पर पहरे बिठा दिए गए हों तब तो आदमी मन मसोसकर ही रहेगा न? बेचारा इंसान कर भी क्या सकता है।
मुझे बचपन में माँ के द्वारा सुनी कहानी याद आती है। जब बहन की शादी दूर-दराज के गाँव में हो जाती थी और भाई उससे मिलने जाता था तब कितने पापड़ बेलने पड़ते थे? लेकिन वो दूरी तो दस-बीस कोस की ही थी अतः सारे संघर्षों के बाद भी मिलना सम्भव हो ही जाता था। लेकिन सात समुन्दर पार ऐसे ही तो नहीं पहुँचा जा सकता? फिर कोलम्बस वाला जमाना भी गया कि स्वयं का जहाज लेकर निकल पड़े दुनिया नापने, या खोजने। अब तो सारी व्यवस्था ही चाक-चौबंद हैं।
हमारे एक मित्र ने एक ताना मारा, बोले कि अरे अमेरिका नहीं गए? फिर स्वतः ही बोले कि अरे अभी तुम्हारा वहाँ क्या काम? जब बाल-बच्चा होता है तब जाते हैं भारतीय माता-पिता तो। हम जानते हैं कि तुम्हारे यहाँ तब भी जरूरत नहीं होती हमारी। हमारे जैसे नहीं कि घर में जापा होने वाला है तो कम से कम दो-तीन औरते तो चाहिए हीं। एक अस्पताल जाएगी, एक घर देखेगी और एक बारी-बारी से उनका सहयोग करेगी। हमारे यहाँ कितनी निकटता आ जाती है, सास-बहू के रिश्तों में। जब बहू दर्द से छटपटा रही होती है तब सास उसके सर पर हाथ फिराती है, भगवान से प्रार्थना करती है। जापे में कैसे तो खुशी-खुशी सारे ही काम करती है। तभी तो प्यार बढ़ता है। लेकिन तुमने इन सारे सुखों को भी छीन लिया है। हमारे यहाँ से बहुत सी सास और बहुत सी माँ वहाँ जाती हैं लेकिन फिर कहती हैं कि अरे मेरा तो यहाँ कोई काम ही नहीं है। लेबर रूम तक में पति ही जाता है, बेचारी महिला तो बाहर ही बैठी रहती है। पोतड़े धोने और सुखाने का सुख भी नहीं। सब कुछ डिस्पोज़ेबल है, पति ही सबकुछ कर देता है। लेकिन फिर भी लगता है कि कोई न कोई तो पास रहना ही चाहिए। भारतीय मन मानता ही नहीं। कैसे अकेला छोड़ दे? हमारे यहाँ तो कहा जाता है कि औरत का दूसरा जन्म होता है। सचमुच में होता भी है, उस एक मिनट में एक नवीन जीव जन्म लेता है तो दूसरा अपना अस्तित्व बचाता है। ऐसे में कैसे छोड़ दें अकेला?
तुमने परिवार की जरूरतों को समाप्त किया है, लेकिन हमने नहीं किया। हमें तो आज भी लगता है कि हमारी जरूरत है। मेरे साथ तो कैसा संयोग था कि जब पोता आने वाला था तब वह स्वयं ही आकर मुझे न्यौता दे गया था कि दादी मैं आ रहा हूँ। बहू भारत आयी थी, जैसे ही उसने भारत की धरती पर कदम रखा, पोते के आने के संकेत मिलने लगे। मेरा खून सबसे पहले मुझे बताने चला आया कि मैं आ रहा हूँ। अब हमारी चिन्ताएं बढ़ गयी। तुम्हारे पहरे को कैसे तोड़ेंगे? मैंने पहले गुस्से में भगवान से कह दिया था कि अब मैं मेरे स्वाभिमान को नहीं गिरवी रखूँगी। अब तू ही मुझे ससम्मान अमेरिका भेजेगा तभी वहाँ जाऊँगी। अब मेरा धर्म-संकट पैदा हो गया। एक तरफ पोता खुद न्यौत गया था तो दूसरी तरफ मेरी प्रतिज्ञा। क्या करूँ और क्या न करूँ? लोग कहते हैं कि भगवान नहीं होता, मैं कहती हूँ कि होता है। मैंने प्रतिज्ञा की, भगवान ने सुनी और मुझे मौका दे दिया। तभी मेरे पास सूचना आयी कि विश्व हिन्दी सम्मेलन इस बार अमेरिका में हो रहा है। मेरे लिए भगवान ने पुल बना दिया था, जैसे राम ने रामसेतु बनाया था। लेकिन फिर कठिनाई वीज़ा की ही थी। भगवान ने फिर मदद की। एक दिन संदेशा आया कि भारत सरकार तुम्हें सम्मानित कर रही है। मुझे वीज़ा की कार्यवाही नहीं करनी पड़ी। बस भारत सरकार का कागज़ लिया और चले गये तुम्हारे चित्रगुप्त के कार्यालय। साथ में पति भी थे, जिनकी डॉक्टरी के कारण हमारे पर प्रतिबंध लगा हुआ था। अब वे बोले कि मुझे तुम्हारे साथ जाने देंगे? मैंने कहा कि जब भगवान ने इतना किया है तो यह भी करेंगे। जीत गया हमारा भगवान और हार गए तुम। जीत गया हमारे खून का प्यार और धरे रह गए तुम्हारे पहरे। कृष्ण ने जब जन्म लिया था तब सारे पहरे तोड़कर वह यशोदा मैया की गोद में चले ही गए थे। कंस देखता ही रह गया था। ऐसे ही आखिर में ससम्मान तुम्हें हमें बुलाना ही पड़ा।
हम तुम्हारी धरती पर आ रहे थे, इसलिए नहीं कि तुम्हारी धरती को छूने में कोई गर्व था। बस हमारा रक्त हमें पुकार रहा था, सारा प्रयोजन बस यही था। मेरे स्वाभिमान की जीत हुई थी, मेरे प्रेम की जीत हुई थी। मैं जान गयी थी कि प्रेम में कितनी ताकत होती है? तुम हमारे रक्त को कितना ही हमसे दूर कर दो लेकिन संसार की कोई ताकत नहीं जो तुम्हारे मंसूबों को पूरा कर दे। हम भारतीय प्रेम को सबसे बड़ा मानते हैं, हम परिवार को अपने दिल में बसाकर चलते हैं, हम से परिवार छूट नहीं सकता। तुम एक पीढ़ी को हमसे दूर ले जा सकते हो, लेकिन दूसरी पीढ़ी स्वतः ही हमारी ओर खिंची चले आती है। मेरे इस उदाहरण से तो तुम भी मानने पर मजबूर हो जाओगे। तुम्हारा भौतिक सुख केवल चार दिनों की चाँदनी हैं, बस तुम देखते रहो, कुछ दिनों में ही हमारे भारतीय प्रेम की जीत होगी।
लेकिन जो कुछ भगवान ने किया, इसलिए नहीं कि मुझे साहित्यकारों के मध्य सम्मानित करवाना था अपितु इसलिए कि इस माध्यम से मुझे ससम्मान अमेरिका भेजना था। मेरे साथ राजस्थान का दल भी था। मैं उस दल की नेत्री भी थी, लेकिन भगवान चाहता था कि मेरी प्रतिज्ञा पूर्ण हो, मैं सम्मान सहित वहाँ जाऊँ। तुमने मेरे अंदर जो हीनता लाने का सकंल्प किया था उसे मेरे भगवान ने समाप्त कर दिया।
तुमने सिद्ध करने का प्रयास किया था कि तुम मेरे वैभव के समक्ष कुछ भी नहीं हो। मैं तुम जैसे नाचीज़ों को अपनी धरती पर पैर भी नहीं रखने दूँगा। तुमने हमारी संतानों में भी यही भाव भरने का प्रयास किया कि तुम्हारे माँ-बाप तुच्छ हैं, तुम डॉलर में कमाते हो और तुम्हारे माँ-बाप रूपयों में?
कहाँ तुम्हारा वैभव और कहाँ उनका?
तुम्हारे यहाँ बसे भारतीय हमें कहते हैं कि तुम डर्टी फैलो हो, तुम्हारे यहाँ क्या है? आओ हमारा वैभव देखो। हमारे घरों में गलीचे बिछे हैं, और तुम्हारे घरों में?
हमारी सड़कें काँच-सी चमकती हैं और तुम्हारी?
हम कहते कि वो तुम्हारा कैसे हो गया और यह केवल हमारा कैसे हो गया? चलो अच्छा है कि तुम्हारा वैभव बड़ा है तो थोड़ा हमें भी सुख दे दो।
वहाँ से गुर्राहट आती है कि यह सुख हमने अर्जित किया है, भला तुम्हें कैसे दे दें? तुम्हारा और हमारा स्टेटस बराबर कैसे हो सकता है? भले ही तुम हमारे माँ-बाप हो लेकिन अन्तर दिखायी देना चाहिए दो पीढ़ियों में।
बेचारा भारतीय पूछता है कि तुम जब छोटे थे तब हमने तो अन्तर नहीं रखा था, हमने सारे ही अपने सुख त्याग दिए थे जिससे तुम्हारा भविष्य सुखी हो सके। फिर आज क्या हुआ? हम भारतीय मानते हैं कि पच्चीस वर्ष हम संतान के लिए सुख तलाशते हैं और आने वाले पच्चीस वर्ष संतान तलाशे सुख माँ-बापों के लिए।
लेकिन तुमने ऐसी पट्टी आँखों पर बाँधी है कि उन्हें अब माता-पिता दिखायी ही नहीं देते। बेचारे वे भी क्या करें, यहाँ भारतीयों को लगता है कि डॉलर में बहुत ताकत है, लेकिन जब वहाँ देखते हैं कि अरे इनकी स्थिति तो हम से बहुत ही खराब है। भला दो-तीन हजार डॉलर में होता ही क्या है? हमारे यहाँ जिसे पाँच हजार रूपया मिलता है, वह भी पेट ही भरता है और वार-त्योहार मिठाई खा लेता है, मेले में जा आता है। तुम्हारे यहाँ भी पाँच हजार डॉलर वाला इंसान यही कर पाता है। कैसे बताए वह अपने माँ-बापों को कि केवल मुँह पर चिकनाई लगाकर घी खाना दिखा रहा हूँ।
खैर हमें भी अब अपने आप पर गर्व होने लगा। हमें भी लगा कि हम भी इंसानों की बिरादरी में शामिल हो गए हैं। शायद अब हमें भी हमारी संतानें इज्ज़त के साथ देख लें? मैंने देखे हैं भारत में ऐसे-ऐसे बागबां कि अमिताभ बच्चन जो अपने आप में सेलेब्रिटी थे, उनकी संताने तुम्हारे यहाँ चली गयीं और वे बेचारे रातो-रात बौने हो गए। उनका अस्तित्व नगण्य हो गया। सारी दुनिया उन्हें सम्मान से बात करती है लेकिन उनकी संताने उन्हें दो कौड़ी का समझती हैं। यह है तुम्हारा प्रभाव। क्या कोई सुंदर पिंजरे में रहने से श्रेष्ठ हो जाता है? हम भारत में पढ़ाते हैं कि जो दूसरों को श्रेष्ठ समझे वो श्रेष्ठ होता है। हमारे यहाँ माता-पिता भगवान सदृश्य होते हैं। उनकी सेवा करना ही सबसे बड़ा पुण्य होता है। लेकिन तुमने सभी कुछ तो छीन लिया है। जो कभी भगवान थे आज वे तुम्हारे दर पर भिखारियों की तरह तुम्हारे रहमो-करम पर पड़े हैं। हमारे गाँव का व्यक्ति पूरे गाँव का चाचा, ताऊ बनकर राज करता है लेकिन तुम्हारे यहाँ ममता के लिए, दो रोटी खाकर वक्त बिताता है।
कितने हैं जो ममता को परास्त कर पाते हैं? कितने हैं जो दूसरों में अपनी ममता तलाशते हैं? शायद मुट्ठीभर होंगे हम जैसे स्वाभिमानी लोग जो दुनिया को अपना परिवार मानते हैं और भारत के प्रत्येक बच्चे को अपना बच्चा। हम ममता का विस्तार करते हैं इसलिए तुम्हारे द्वारा दिए हीनबोध को स्वीकार नहीं करते। हमारा भगवान भी नहीं करता, हमें वह भी कहता है कि मत स्वीकार करो हीनबोध, अपने स्वाभिमान से रहो, मैं तुम्हारे साथ हूँ।
आखिर 12 जुलाई 2007 को मेरे हाथ में टिकट था। मैं तुम्हारी धरती पर आ रही थी। मेरा खून मुझे पुकार रहा था। उसे तुम्हारा नागरिक बने पाँच माह हो चुके थे और मैंने उसे अभी तक केवल कम्प्यूटर के सहारे ही देखा था। मेरे सामने केवल उसकी सूरत थी, और था एक काँच का पर्दा। मैं उसे देख सकती थी, बात कर सकती थी लेकिन उसे छू नहीं सकती थी। मेरी ममता कसमसा रही थी। मैंने उसे संसार में आते हुए नहीं देखा था, उस पारिवारिक अनुभव से मैं दूर रह गयी थी लेकिन अब मुझे उसके पास जाने से कोई नहीं रोक सकता था, तुम भी नहीं। मेरा मन कह रहा था कि मैं ज़ोर से चिल्लाऊँ और कहूँ कि ‘मैं आ रही हूँ अमेरिका’। तेरा सुख देखने, तेरा वजूद देखने, तेरा अभिमान देखने। मैं भी तो देखूँ कि तू कितना बड़ा है? ऐसा तेरा वैभव कितना बड़ा है? जो तू ममता को ही विस्मृत करा देता है? ऐसा क्या है तुझमें, जो मेरे भारत में नहीं है? मैंने तुझ पर विश्वास किया और अपने सारे दुखों को, अभावों को भारत में ही छोड़ दिया, केवल अब तो मुझे सुख ही सुख जो देखना था। मेरा तन और मन यहाँ तक की आत्मा भी आप्लावित होने वाली थी तेरे सुख से। देखूँ कितना सुख है तेरी धरती पर?
डॉ अजित गुप्ता
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3 बैठकबाजों का कहना है :
अगले अंक का इंतज़ार रहेगा...
आपका लेख पढ़ कर हमेशा ही ...दो अलग अलग....जहानों में चला जाता हूँ .................
भूख से लेकर ....सपनों....
और भी जाने कैसे कैसे ख्याल बन जाते हैं.....
अजित जी, हरबार आपके हर लेख में वही कसाव वही रस झलकता है..एकबार फ़िर बेहतरीन चित्रण...
आलोक सिंह "साहिल"
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