Tuesday, February 10, 2009

आतंकवाद का गांधीवादी जवाब

बहुत-से लोग पूछते हैं कि आतंकवाद की समस्या का समाधान करने के लिए क्या गांधीवाद के पास कोई कार्यक्रम है? काश, इस प्रश्न के पीछे किसी प्रकार की जिज्ञासा होती! समाधान वहीं निकलता है जहां जिज्ञासा होती है। जब मजाक उड़ाने के लिए कोई सवाल किया जाता है, तो समाधान होता भी है तो वह छिप जाता है। यह ट्रेजेडी गांधीवाद के साथ अकसर होती है। ज्ञात गांधीवादियों ने भी ऐसी कोशिश नहीं की है जिससे यह स्पष्ट हो सके कि गांधीवाद की झोली में हर समस्या का कुछ न कुछ इलाज जरूर है। दरअसल, वही विचारधारा व्यापक तौर पर स्वीकार्य हो सकती है जिसमें जीवन के अधिकांश प्रश्नों का हल निकालने की संभावना हो। लेकिन किसी को यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि जीवन कभी भी समस्यारहित हो सकता है। कोई भी विचारधारा यह जादू कर दिखाने का दावा नहीं कर सकती। इसलिए गांधीवादी भी अपने को सत्य का अन्वेषक ही मानता है -- सत्य का गोदाम नहीं।

जब सामना प्रत्यक्ष हिंसा -- चाहे व्यक्ति द्वारा चाहे हिंसक समूह द्वारा -- से हो, उस वक्त क्या करना चाहिए, इसका कोई तसल्लीबख्श जवाब किसी के भी पास नहीं है। तनी हुई बंदूक के सामने दिमाग फेल हो जाता है। उस वक्त मैदान संवेग के हाथ में आ जाता है। संवेगों को भी प्रशिक्षित करने की सख्त जरूरत है। अन्यथा वे अपने आदिम, अराजक रूप में प्रकट होते हैं और कई लाख वर्ष पुराना हुक्म दुहराते हैं कि ईंट का जवाब पत्थर है। क्या यह सुझाव सफलता का आश्वासन देता है? संवेग को इससे कोई मतलब नहीं। वह तो उबल रहे खून की आवाज होती है, जिसे भविष्य की कोई फिक्र नहीं होती। अगर हर मामले में र्इंट का जवाब पत्थर से देने की थोड़ी भी संभावना होती, तो र्इंट उठाने का चलन ही मिट जाता। गांधी का रास्ता अहिंसक प्रतिरोध का है, जिसमें आक्रमणकारी के प्रति भी प्रेम रहता है। अगर मानवता का अधिकांश हिस्सा इस जीवन प्रणाली को स्वीकार कर लें, तो हिंसा को मिलनेवाली सफलता का अनुपात बहुत नीचे चला जा सकता है।

जब लोग आतंकवाद के गांधीवादी समाधान के बारे में पूछते हैं, तो उनका आशय यह होता है कि सारी वर्तमान व्यवस्था यूं ही चलती रहे और तब बताओ कि गांधीवादी रास्ता आतंकवाद को खत्म करने का क्या तरीका सुझाता है। यह कुछ इसी तरह का पूछना है कि मैं यही सब खाता-पीता रहूं, मेरी जीवन चर्या में कोई परिवर्तन न आए और मेरी बीमारी ठीक हो जाए। यह कैसे हो सकता है? जिन परिस्थितियों के चलते आतंकवाद पनपा है, उन परिस्थितियों के बरकरार रहते आतंकवाद से संघर्ष कैसे किया जा सकता है? गांधीवाद तो क्या, किसी भी वाद के पास ऐसी गोली या कैप्सूल नहीं हो सकता जिसे खाते ही हिंसा के दानव को परास्त किया जा सके। जब ऐसी कोशिशें नाकाम हो जाती है, तो यह सलाह दी जाती है कि हमें आतंकवाद के साथ जीना सीखना होगा।

आतंकवाद के दो प्रमुख उत्स माने जा सकते हैं। एक, किसी समूह के साथ अन्याय और उसके जवाब में हिंसा की सफलता में विश्वास। दो, आबादी की सघनता, जिसका लाभ उठा कर विस्फोट के द्वारा जानमाल की क्षति की जा सके और लोगों में डर फैलाया जा सके कि उनका जीवन कहीं भी सुरक्षित नहीं है। गांधीवादी मॉडल में जीवन की व्यवस्था इस तरह की होगी कि भारी-भारी जमावड़ेवाली जगहें ही नहीं रह जाएंगी। महानगर तो खत्म ही हो जाएंगे, क्योंकि उनकी कोई जरूरत नहीं रह जाएगी। लोग छोटे-छोटे आधुनिक गांवों में रहेंगे जहां सब सभी को जानते होंगे। स्थानीय उत्पादन पर निर्भरता ज्यादा होगी। इसलिए बड़े-बड़े कारखाने, बाजार, व्यापार केंद्र वगैरह अप्रासंगिक हो जाएंगे। रेल, वायुयान आदि का चलन भी बहुत कम हो जाएगा, क्योंकि इतनी बड़ी संख्या में लोग हर समय परिवहन के तहत रहे, यह पागलपन के सिवाय और कुछ नहीं है। वर्ष में एक-दो बार लाखों लोग अगर एक जगह जमा होते भी हैं जैसे कुंभ के अवसर पर या कोई राष्ट्रीय उत्सव मनाने के लिए, तो ऐसी व्यवस्था करना संभव होगा कि निरंकुशता और अराजकता न पैदा हो। इस तरह भीड़भाड़ और आबादी के संकेंद्रण से निजात मिल जाएगी, तो आतंकवादियों को प्रहार करने के ठिकाने बड़ी मुश्किल से मिलेंगे।

लेकिन ऐसी व्यवस्था में आतंकवाद पैदा ही क्योंकर होगा? बेशक हिंसा पूरी तरह खत्म नहीं होगी, लेकिन संगठित हिंसा की जरूरत नहीं रह जाएगी, क्योंकि किसी भी समूह के साथ कोई अन्याय होने की गुंजाइश न्यूनतम हो जाएगी। राज्य न्यूनतम शासन करेगा। अधिकतर नीतियां स्थानीय स्तर पर बनाई जाएंगी, जिनका आधार सामाजिक हित या सर्वोदय होगा। मुनाफा, शोषण, दमन आदि क्रमश: इतिहास की वस्तुएं बनती जाएंगी। जाहिर है, सत्य और अहिंसा पर आधारित इस व्यवस्था में सांप्रदायिक, नस्ली या जातिगत विद्वेष या प्रतिद्वंद्विता के लिए कोई स्थान नहीं रह जाएगा। हिंसा को घृणा की निगाह से देखा जाएगा। कोई किसी के साथ अन्याय करने के बारे में नहीं सोचेगा। अभी तक के अनुभवों को देखते हुए यह उम्मीद करना मुश्किल है कि इस तरह का समाज कभी बन सकेगा या नहीं। शायद नहीं ही बन सकेगा। लेकिन हमें इसकी आशा भी नहीं करनी चाहिए। पूर्णता की कामना ही मनुष्य की किस्मत में है, पूर्णता नहीं। लेकिन इतिहास की गति अगर हिंसा से अहिंसा की ओर, अन्याय से न्याय की ओर तथा एकतंत्र या बहुतंत्र से लोकतंत्र की ओर है, जो वह है, तो कोई कारण नहीं कि ऐसा समाज बनाने में बड़े पैमाने पर सफलता न मिले जो संगठित मुनाफे, संगठित अन्याय और संगठित दमन पर आधारित न हो। केंद्रीकरण -- सत्ता का, उत्पादन का और बसावट का -- अपने आपमें एक तरह का आतंकवाद है, जिसमें तरह-तरह का आतंकवाद पैदा होता है। आतंकवाद सिर्फ वह नहीं है जो आतंकवादी समूहों द्वारा फैलाया जाता है। आतंकवाद वह भी है जो सेना, पुलिस, कारपोरेट जगत तथा माफिया समूहों के द्वारा पैदा किया जाता है, जिसके कारण व्यक्ति अपने को अलग-थलग, असहाय और समुदायविहीन महसूस करता है।

ऐसा नहीं मानना चाहिए कि जिन समाजों में आतंकवाद की समस्या हमारे देश की तरह नहीं है, वे कोई सुखी समाज हैं। एक बड़े स्तर पर आतंकवाद उनके लिए भी एक भारी समस्या है, नहीं तो संयुक्त राज्य अमेरिका आतंकवाद के विरुद्ध विश्वयुद्ध नहीं चला रहा होता। लेकिन जिस जीवन व्यवस्था से आतंकवाद नाम की समस्या पैदा होती है, उससे और भी तरह-तरह की समस्याएं पैदा होती हैं, जिनमें पारिवारिक तथा सामुदायिक जीवन का विघटन एवं प्रतिद्वंद्विता का निरंतर तनाव प्रमुख हैं। इसलिए हमें सिर्फ आतंकवाद का ही समाधान नहीं खोजना चाहिए, बल्कि उन समस्याओं का भी समाधान खोजना चाहिए जिनके परिवार का एक सदस्य आतंकवाद के नाम से जाना जाता है। इस खोज में गांधीवाद सर्वाधिक सहायक सिद्ध होगा, ऐसा मेरा अटल विश्वास है।

(लेखक इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज,नई दिल्ली में वरिष्ठ फेलो हैं।)

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5 बैठकबाजों का कहना है :

Sadhak Ummedsingh Baid "Saadhak " का कहना है कि -

gandhi nahin, subhash cahiye.
upadesh nahee, javab cahiye.
ahinsa nahin, samadhan caahiye.
bhashan nahi, yuddh cahiye.

अवनीश एस तिवारी का कहना है कि -

बीते इतवार को एक विचार गोष्टी थी मुम्बई में और विषय भी यही था |
मैंने भी अपने विचार रखे |
मैं आपके सुझाव से सहमत भी हूँ और समर्थन भी करता हूँ |
मेरे विचार से -
१. यह एक सामाजिक रोग ( social disorder ) है | इसे रोकथाम और उपचार ( prevention and cure ) वाले तरीके से सुलझाया जाए |

२. रोकथाम - पैदा ही ना होने दे और हो गया तो फैलाने से रोकें | इसके लिए संस्कार और चरित्र निर्माण ही रास्ता है | यह शुरू होगा घर से ही | आतंकवादी सबसे पहले अपने घर का विद्रोही बनता है |

३. उपचार - बढ़ चुकें आतंकवाद को कठोरता से काँटा जाए | इसके लिए राजनीति और प्रशासन ( governance ) ही हथियार हैं |

यह सिध्द हो गया है कि आतंकवाद सम्प्रदाय, सीमा और उम्र पर निर्भर नही है |
यह कर्क रोग फ़ैल रहा है :(

अवनीश तिवारी

Unknown का कहना है कि -

ये तो असंभव है के अंहिसा से आतंकवाद खत्म कर दिया जाए, आपके विचार पढे पर आज के समय मे ये संभव नही है, अगर द्वितीय विश्व युद्ध ना होता तो अंहिसा के रास्ते हम बहुत देर मे आजाद होते, या शायद अब भी गुलाम होते

विष्णु बैरागी का कहना है कि -

वस्‍तुत: गांधी अपेक्षा का नहीं, आचरण का मार्ग है। वह आत्‍म निरीक्षण, आत्‍म परीक्षण, आत्‍म शोधन का उपक्रम है। गांधी किसी को सुधारने का न तो दावा करते हैं और न ही दम भरते हैं। गांधी में अधिकाधिक समस्‍याओं का निदान है किन्‍तु वह धैर्य की मांग करता है जो आज किसी के पास नहीं है। गांधी बिलकुल प्रकृति के समान है जो आवश्‍यकताएं तो सकी पूरी कर सकता है किन्‍तु लालच एक का भी नहीं।

अजित गुप्ता का कोना का कहना है कि -

आज का आतंकवाद जेहादी आतंक है। पाकिस्‍तान भी इसी मानसिकता की उपज है। आतंकवादियों का कथन है कि अंग्रेजों के पूर्व सम्‍पूर्ण भारत में मुगलों का राज्‍य था अत: हमें केवल पाकिस्‍तान स्‍वीकार नहीं है, हमें तो सम्‍पूर्ण भारत का ही मुस्‍लीमीकरण करना है। अत: इसके दो ही मार्ग हैं या तो सभी धर्माचार्यों को एक मंच पर बैठाने को तैयार किया जाए और जेहाद शब्‍द को समाप्‍त किया जाए या फिर भारत के प्रत्‍येक व्‍यक्ति को अपनी सुरक्षा के लिए ऐसी ही सरकारों का चयन करना चाहिए जो जेहादी मानसिकता का खुलकर विरोध करे। गांधीवाद तो पाकिस्‍तान निर्माण के समय ही असफल हो गया था। गांधीजी ने उस समय स्‍वतंत्रता दिवस नहीं मनाया था। वे तो नेहरू और जिन्‍ना के आगे बेबस हो गए थे। गांधीवादी चिंतन सज्‍जनों के लिए है आतंकवादियों के लिए नहीं है।

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