मेरे शांत चित्त में एक चिंगारी सी भड़क पड़ती है जिसके बारे में पीड़ित महसूस करते हुए भी..अधिकतर नारियाँ चुप रहती हैं..मैं भी चारों तरफ का माहौल देख-भाल के सहम जाती हूँ कि कौन लोगों के मुँह लगे...लेकिन कुछ बातें जो नश्तर की तरह चुभ जाती हैं अन्दर ही अन्दर..जो समस्त नारी जाति पर लागू होती हैं..और जिन बातों को अब भी लोग जबरदस्ती करने/ कहने पर तुले हुए हैं..तो मेरा शांत चित्त कुछ समय के लिये भड़क पड़ता है... जिसकी बात से मन में ज्वाला धधकी उसे लिखने वाला एक पुरुष ही है.. स्वयं को स्वाहा कर .....औरों के जीवन का प्रकाश बन.... इस पंक्ति को पढ़ते ही मन बहुत ख़राब सा हो गया...चिंगारी पैदा हुयी और आग बन गयी...कोई इंसान नारी को स्वाहा करने की बात करता है ताकि वह एक शक्ति बन सके...तो पढ़ते ही मैं सोचने पर मजबूर हो गयी कि लोग क्यों हर समय नारी को आगे कर देते हैं स्वाहा होने को..ये रटी-रटाई पंक्तियाँ बिना इनकी विस्तृत समालोचना किये ही लोग कह देते हैं..जैसे कि वह कोई घास-फूस या समिधा-सामग्री हो..जिसे स्वाहा किया जा सकता है.
लोग उसे भस्म करके उससे शक्ति की अपेक्षा रखते हैं..अरे वो तो वैसे भी इतना कुछ करती और सहती आई है युग-युग से कई रूपों में..बिना किसी के कहे ही वह अपने कर्तव्यों को निभाती रही है. और फिर एक तरफ तो उसे अबला कहा जाता है..तो दूसरी तरफ उसे भस्म करके शक्ति की आशा करते हैं..तो भई, उसे किस तरह भस्म होना चाहिये और किस तरह की शक्ति मिलेगी उसे भस्म करके ? अपने मन में तो वह समाज के लोगों की किसी ज्यादती या रीतियों-कुरीतियों का शिकार बन कर भस्म होती ही रहती है...उसके बाद भी लोग पता नहीं क्या चाहते हैं..कभी तो उसे दुर्गा कहते हैं तो यह नहीं सोचते की उसमे वो दैविक शक्ति नहीं है जिससे सीता जी जल गयीं थी..और कभी जब औरत के बलिदानों की बात चलती है की '' आज की औरत सतयुग की सीता से भी अधिक अग्नि परीक्षाएं देती है '' तो तमाम गहन धार्मिक प्रवृति के लोग इसे सीता जी का अपमान समझते हैं..और भड़क पड़ते हैं कहते हुये कि सीता जी से आज की औरत की कोई समानता नहीं...और तरह-तरह के उदाहरण देते हुये पूरी रामायण ही उठा लाते हैं बहस करने के लिये..अगर ऐसा है तो फिर आज के पढ़े लिखे लोग ये क्यों कहते हैं बिना सोचे समझे कि '' स्वयं को स्वाहा कर .....औरों के जीवन का प्रकाश बन ''.
यह पढ़कर व सोचकर मेरे मन को लगा कि नारी को लोग कोसने से बाज नहीं आते..समय बदला है, और वह पढ़ी-लिखी व समझदार है फिर भी समय-समय पर उसकी अवहेलना की जाती है और जरा-जरा सी बातों में मखौल उड़ाया जाता है उसका..और अपने को बहादुर कहने वाली औरतें भी सहमी रहती हैं पुरुषों के मगरूर व्यवहार पर अपनी गलती न होने पर भी...औरत डर से व पुरुष अपने बचाव में कहते रहते हैं कि अब समय बदल गया है..अब वह हालत नहीं रही औरत की..वह मजबूत है समझदार है..आदि-आदि.. लेकिन यह बातें कितनी लागू होती हैं...और तुर्रा यह कि औरत को भस्म करके उससे शक्ति हासिल करने की भी बात की जाती है...अरे, उसे भी तो पुरुष की इन्ही खूबियों की जरूरत हो सकती है जीवन में कभी...तो कितने पुरुष हैं जो उसकी शक्ति बनते हैं..अधिकतर को तो जलन होने लगती है..और औरत की उपेक्षा करके उसे सताने लगते हैं..औरत कोई घास-फूस या लकड़ी तो है नहीं जो उसे आज्ञा दी जा रही है कि '' स्वाहा हो जा '' और फिर ऐसा होने पर तो वह राख बन जायेगी और किसी काम की ना रहेगी..तो उसे अपनी स्वाभाविक मौत ही क्यों नहीं मरने दिया जाता..क्यों उसके लिये जीते-जी चिता सुलगा कर झोंकने का प्रयास करते हैं लोग ऐसी बातें करके...औरत की इज्ज़त की बात करने वाले समाज के ठेकेदार खुद बुरी नज़र रखते हैं उसपर..और अपनापन दिखाने वाले लोग उसपर मुसीबत आने पर निगाहें बचाकर बगलें झाँकने लगते हैं...ऊपर से जुर्रत यह कि उसे जीते जी भस्म भी करना चाहते हैं..क्यों...आखिर क्या बिगाड़ा है उसने किसी का..क्या उसे दर्द नहीं होगा...क्या उसे अपने तरीके से जीने का अधिकार नहीं है..??????
वास्तव में लोगों की इस तरह की बातें पढ़कर या विचार जानकर मेरे मन को बहुत पीड़ा होती है और लगता है कि नारी को समाज में बस दिखावे के लिये ही ऊँचा दर्ज़ा दिया जाता है लेकिन '' भस्म '' , '' स्वाहा '' या अन्य तमाम शब्दों का इस्तेमाल करके उसे कोसा जाता है...कोई मुझे बताये कि यह शब्द कह कर लोग कोस नहीं रहे है तो क्या कर रहे हैं..? अगर वह भस्म हो गयी तो कहाँ से ताकत देगी ? ये शब्द मुझे नारियों के लिये एक गाली से लगते हैं....
शन्नो अग्रवाल
(लेखिका लंदन में रहती हैं और हिंदयुग्म पर इनकी आवाजाही बहुत पुरानी है। बैठक पर आप इन्हें पहले भी पढ़ चुके हैं...)
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2 बैठकबाजों का कहना है :
शन्नोजी!...आपने सही फरमाया है!... औरतो के प्रति अन्याय तो हो ही रहा है!... सहनशक्ति के मामले में तो जैसे उन्हे निचोडा जाता है..कि 'बता तु कितना और सहन कर सकती है?'...'तेरी सहने की क्षमता और कितनी बाकी है?'... लेकिन औरत है कि चाहते हुए भी प्रतिकार करने के लिए मानो मजबूर है!...इसका पौराणिक उदाहरण भगवान राम द्वारा अग्निपरिक्षा में खरी उतरने के बावजूद त्यागी हुई सीता और पांडवो द्वारा दाव पर लगाई गई द्रौपदी है!
...आप की व्यथा सिर्फ मै ही नहीं...सभी स्त्रियां और समझदार पुरुष समझ सकतें है!... बहुत उमदा रचना!
अरुणा जी, धन्यबाद...इस आलेख पर आपने अपने बिचार व्यक्त करके जो प्रतिक्रिया दी है...उसे पढ़कर अच्छा लगा...अगर औरत अपने वचाव में कुछ कहती या करती है तो वह किसी के मुँह लगना हो जाता है..लेकिन चुप रह के घुट-घुट के मरना हो जाता है...सबकी अपनी परिस्थितियाँ होती हैं..लेकिन अपने कर्तव्य पूरी तरह निभाने वाली नारियों को यदि समाज बार-बार इन शब्दों का प्रयोग करके उकसाता है...तो इससे बहुत दुःख होता है...और ऐसी बातों से उसपर एक मानसिक बोझ सा भी हो जाता है..है न..?
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